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As Krishna says, patience is a virtue
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.58।।
yadā sanharate chāyaṁ kūrmo ’ṅgānīva sarvaśhaḥ indriyāṇīndriyārthebhyas tasya prajñā pratiṣhṭhitā
When, like the tortoise which withdraws all its limbs on all sides, he withdraws his senses from the sense-objects, then his wisdom becomes steady.
2.58 यदा when? संहरते withdraws? च and? अयम् this (Yogi)? कूर्मः tortoise? अङ्गानि limbs? इव like? सर्वशः everywhere? इन्द्रियाणि the senses? इन्द्रियार्थेभ्यः from the senseobjects? तस्य of him? प्रज्ञा wisdom प्रतिष्ठिता is steadied.Commentary Withdrawal of the senses is Pratyahara or abstraction. The mind has a natural,tendency to run towards external objects. The Yogi again and again withdraws the mind from the objects of the senses and fixes it on the Self. A Yogi who is endowed with the power of Pratyahara can enter into Samadhi even in a crowded place by withdrawing his senses within the twinkling of an eye. He is not disturbed by tumultuous sounds and noises of any description. Even on the battlefield he can rest in his centre? the Self? by withdrawing his senses. He who practises Pratyahara is dead to the world. He will not be affected by the outside vibrations. At any time by mere willing he can bring his senses under his perfect control. They are his obedient servants or instruments.
2.58।। व्याख्या-- 'यदा संहरते ৷৷. प्रज्ञा प्रतिष्ठिता'-- यहाँ कछुएका दृष्टान्त देनेका तात्पर्य है कि जैसे कछुआ चलता है तो उसके छः अङ्ग दीखते हैं--चार पैर, एक पूँछ और एक मस्तक। परन्तु जब वह अपने अङ्गोंको छिपा लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखायी देती है। ऐसे ही स्थितप्रज्ञ पाँच इन्द्रियाँ और एक मन--इन छहोंको अपने-अपने विषयसे हटा लेता है। अगर उसका इन्द्रियों आदिके साथ किञ्चिन्मात्र भी मानसिक सम्बन्ध बना रहता है, तो वह स्थितप्रज्ञ नहीं होता। यहाँ 'संहरते' क्रिया देनेका मतलब यह हुआ कि वह स्थितप्रज्ञ विषयोंसे इन्द्रियोंका उपसंहार कर लेता है अर्थात वह मनसे भी विषयोंका चिन्तन नहीं करता। इस श्लोकमें 'यदा' पद तो दिया है, पर 'तदा' पद नहीं दिया है। यद्यपि 'यत्तदोर्नित्यसम्बन्धः' के अनुसार जहाँ 'यदा' आता है, वहाँ 'तदा' का अध्याहार लिया जाता है अर्थात् 'यदा' पदके अन्तर्गत ही 'तदा' पद आ जाता है, तथापि यहाँ 'तदा' पदका प्रयोग न करनेका एक गहरा तात्पर्य है कि इन्द्रियोंके अपने-अपने विषयोंसे सर्वथा हट जानेसे स्वतःसिद्ध तत्त्वका जो अनुभव होता है, वह कालके अधीन, कालकी सीमामें नहीं है। कारण कि वह अनुभव किसी क्रिया अथवा त्यागका फल नहीं है। वह अनुभव उत्पन्न होनेवाली वस्तु नहीं है। अतः यहाँ कालवाचक 'तदा' पद देनेकी जरूरत नहीं है। इसकी जरूरत तो वहाँ होती है, जहाँ कोई वस्तु किसी वस्तुके अधीन होती है। जैसे आकाशमें सूर्य रहनेपर भी आँखें बंद कर लेनेसे सूर्य नहीं दीखता और आँखें खोलते ही सूर्य दीख जाता है, तो यहाँ सूर्य और आँखोंमें कार्य-कारणका सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आँखें खुलनेसे सूर्य पैदा नहीं हुआ है। सूर्य तो पहलसे ज्यों-का-त्यों ही है। आँखे बंद करनेसे पहले भी सूर्य वैसा ही है और आँखें बंद करनेपर भी सूर्य वैसा ही है। केवल आँखें बंद करनेसे हमें उसका अनुभव नहीं हुआ था। ऐसे ही यहाँ इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेसे स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वका जो अनुभव हुआ है, वह अनुभव मनसहित इन्द्रियोंका विषय नहीं है। तात्पर्य है कि वह स्वतः सिद्ध तत्त्व भोगों-(विषयों-) के साथ सम्बन्ध रखते हुए और भोगोंको भोगते हुए भी वैसा ही है। परन्तु भोगोंके साथ सम्बन्धरूप परदा रहनसे उसका अनुभव नहीं होता, और यह परदा हटते ही उसका अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध-- केवल इन्द्रियोंका विषयोंसे हट जाना ही स्थितप्रज्ञका लक्षण नहीं है इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।2.58।। ज्ञानी पुरुष के आत्मानन्द समत्व और अनासक्त भाव का वर्णन करने के पश्चात् इस श्लोक में इन्द्रियों पर उसके पूर्ण संयम का वर्णन किया गया है। अत्यन्त उपयुक्त उपमा के द्वारा उसके लक्षण को यहाँ स्पष्ट किया गया है। जैसे कछुवा किसी प्रकार के संकट का आभास पाकर अपने अंगों को समेट कर स्वयं को सुरक्षित कर लेता है वैसे ही ज्ञानी पुरुष में यह क्षमता होती है कि वह अपनी इच्छा से इन्द्रियों को विषयों से परावृत्त तथा उनमें प्रवृत्त भी कर सकता है।वेदान्त के प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया के अनुसार अन्तकरण की चैतन्य युक्त वृत्ति इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य देश स्थित विषय का आकार ग्रहण करती हैं और तब उस विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इस प्रक्रिया को कठोपनिषद् में इस प्रकार कहा गया है कि मानों चैतन्य का प्रकाश मस्तकस्थ सात छिद्रों (दो नेत्र दो कान दो नासिका छिद्र और मुख) के द्वारा बाहर किरण रूप में निकलकर वस्तुओं को प्रकाशित करता है। इस प्रकार एक विशेष इन्द्रिय द्वारा एक विशिष्ट वस्तु प्रकाशित होती है जैसे आँख से रूप रंग और कान से शब्द। भौतिक जगत् में हम विद्युत का उदाहरण ले सकते हैं जो सामान्य बल्ब में प्रकाश के रूप में व्यक्त होकर वस्तुओं को प्रकाशित करती है और वही विद्युत क्षकिरण नलिका से गुजर कर स्थूल शरीर को भेदकर आंतरिक अंगों को भी प्रकाशित कर सकती है जो सामान्यत प्रत्यक्ष नहीं होते।इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से सम्पूर्ण बाह्य जगत् का ज्ञान प्राप्त करता है। इन्द्रियों द्वारा निरन्तर प्राप्त होने वाली विषय संवेदनाओं के कारण मन में अनेक विक्षेप उठते रहते हैं। नेत्रों के अभाव में रूप से उत्पन्न विक्षेप नहीं होते और बधिर पुरुष को अपनी आलोचना सुनाई नहीं पड़ती जिससे कि उस के मन में क्षोभ हो यही बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है। भगवान् कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष में यह क्षमता होती है कि वह स्वेचछा से इन्द्रियों को विषयों से परावृत्त कर सकता है।इन्द्रिय संयम की इस क्षमता को योगशास्त्र में प्रत्याहार कहते हैं जिसे योगी प्राणायाम की सहायता से प्राप्त करता है। ईश्वर की रूप माधुरी में प्रीति होने के कारण भक्त के मन में विषयजन्य विक्षेपों का अभाव स्वाभाविक रूप से ही होता है वेदान्त में इसे उपरति कहते हैं जिसे जिज्ञासु साधक अपने विवेक के बल पर विषयों की परिच्छिन्नता और व्यर्थता एवं आत्मा के आनन्दस्वरूप को समझकर प्राप्त करता है।रोग अथवा किसी अन्य कारण से विषयोपभोग न करने वाले पुरुष से विषय तो दूर हो जाते हैं परन्तु उनका स्वाद नहीं। इस स्वाद की भी निवृत्ति किस प्रकार हो सकती है सुनो
।।2.58।।जिज्ञासोरेव कर्तव्यान्तरं सूचयति किञ्चेति। इन्द्रियाणां विषयेभ्यो वैमुख्यस्य प्रज्ञास्थैर्ये कारणत्वादादौ जिज्ञासुना तदनुष्ठेयमित्याह यदेति। मुमुक्षुणा मोक्षहेतुं प्रज्ञां प्रार्थयमानेन सर्वेभ्यो विषयेभ्यः सर्वाणीन्द्रियाणि विमुखानि कर्तव्यानीति श्लोकव्याख्यानेन कथयति यदेत्यादिना। उपसंहारः स्ववशत्वापादनं तस्य च सम्यक्त्वमतिदृढत्वम्। अयमिति प्रकृतस्थितप्रज्ञग्रहणं व्यावर्तयति ज्ञाननिष्ठायामिति। इन्द्रियोपसंहारस्य प्रलयरूपत्वं व्यावर्त्य संकोचात्मकत्वं दृष्टान्तेन दर्शयति कूर्म इति। दृष्टान्तं व्याकरोति यथेति। दार्ष्टान्तिके योजयन्ज्ञाननिष्ठापदं तत्र प्रवर्तयति एवमिति। इन्द्रियाणां विषयेभ्यो वैमुख्यकरणं प्रज्ञास्थैर्यहेतुरित्युक्तमुपसंहरति तस्येति।
।।2.58।। विचारादिनेन्द्रियनिग्रहार्थं स्थितप्रज्ञस्योपवेशनमिति तृतीयप्रश्नस्योत्तरं वक्तुं जितेन्द्रियत्वम्। तस्य लक्षणमाह यदेति। यथा कूर्मः कमठो भयादङ्गन्युपसंहरति तथा यदा ज्ञाननिष्ठो यतिः शब्दादिविषयेभ्यः इन्द्रियाण्युपसंहरति तदा तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।
।।2.57 2.58।।सर्वत्रानभिस्नेहत्वाच्छुभाशुभं प्राप्य नाभिनन्दति न द्वेष्टि।
।।2.58।।किमासीतेत्यस्योत्तरमाह यदेति। इन्द्रियार्थेभ्यः शब्दादिविषयेभ्यः प्रारब्धकर्मवशेन व्युत्थितोऽपि योगी द्वैतदर्शनादुद्विग्नः सन् निरोधसंस्कारप्राबल्यात्प्रीत्या समाधिमनुतिष्ठन्नेवास्ते इत्यर्थः। शेषं स्पष्टम्।
।।2.58।। यदा इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थान् स्प्रष्टुम् उद्युक्तानि तदा एव कूर्मः अङ्गानि इव इन्द्रियार्थेभ्यः सर्वशः प्रतिसंहृत्य मन आत्मनि एव स्थापयति सोऽपि स्थितप्रज्ञः।एवं चतुर्विधा ज्ञाननिष्ठा पूर्वपूर्वोत्तरोत्तरनिष्पाद्या इति प्रतिपादितम्। इदानीं ज्ञाननिष्ठाया दुष्प्रापतां तत्प्राप्त्युपायं च आह
।।2.58।।किंच यदेति। यदा चायं योगी इन्द्रियार्थेभ्यः सकाशादिन्द्रियाणि संहरते प्रत्याहरति। अनायासेन संहारे दृष्टान्तः। अङ्गानि करचरणादीनि कूर्मो यथा स्वभावेनैवाकर्षति तद्वत्।
।।2.58।।दुःखेष्विति। सुखदुःखयोर्यस्य रागद्वेषरहिता (S विरहिता) वृत्तिः स मुनिरेव स्थितप्रज्ञः नान्यः।
।।2.58।। यदा संहरत इति।
।।2.58।।इदानीं किमासीतेति प्रश्नस्योत्तरं वक्तुमारभते भगवान् षड्भिः श्लोकैः तत्र च प्रारब्धकर्मवशाद्व्युत्थानेन विक्षिप्तानीन्द्रियाणि पुनरुपसंहृत्य समाध्यर्थमेव स्थितप्रज्ञस्योपवेशनमिति दर्शयितुमाह अहं व्युत्थितः सर्वशः सर्वाणीन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः शब्दादिंभ्यः सर्वेभ्यः। च पुनरर्थे। यदा संहरते पुनरुपसंहरति संकोचयति। तत्र दृष्टान्तः कूर्मोऽङ्गानीव तदा तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठितेति स्पष्टम्। पूर्वश्लोकाभ्यां व्युत्थानदशायामपि सकलताभसवृत्त्यभाव उक्तः अधुना तु पुनः समाध्यवस्थायां सकलवृत्त्यभाव इति विशेषः।
।।2.58।।कथं तिष्ठेत् इत्यत्रोत्तरमाह यदा संहरत इति। यदा अयं सर्वशः सर्वत्र इन्द्रियार्थेभ्य इन्द्रियभोग्येभ्य इन्द्रियाणि संहरते तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता भवतीत्यर्थः। अत्र दृष्टान्तमाह कूर्मोऽङ्गानीवेति। यथा कूर्मः करचरणाद्यङ्गानि स्वभावादपकर्षति। कूर्मदृष्टान्तेन भोग्यदर्शनात् स्वत एवेन्द्रियनिवृत्तिः स्वभावतः स्यात् तथा संहरणं कर्त्तव्यं नित्यमिन्द्रियनियमं कु र्वं৷৷৷৷৷৷৷৷ स्तिष्ठेदित्यर्थः।
।।2.58।। यदा संहरते सम्यगुपसंहरते च अयं ज्ञाननिष्ठायां प्रवृत्तो यतिः कूर्मः अङ्गानि इव यथा कूर्मः भयात् स्वान्यङ्गानि उपसंहरति सर्वशः सर्वतः एवं ज्ञाननिष्ठः इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः सर्वविषयेभ्यः उपसंहरते। तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता इत्युक्तार्थं वाक्यम्।।तत्र विषयाननाहरतः आतुरस्यापि इन्द्रियाणि कूर्माङ्गानीव संह्रियन्ते न तु तद्विषयो रागः स कथं संह्रियते इति उच्यते
।।2.58।।किमासीत इत्यस्योत्तरमाह चतुर्भिः। यदेति विषयेभ्य इन्द्रियाणि संहरते प्रत्याहृत्यास्ते। अनायासेनैकत्र संहारे दृष्टान्तः अङ्गानि करचरणादिनि यथा स्वभावतः कूर्मः संहरते तद्वत्।