श्री भगवानुवाच लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।।
śhrī bhagavān uvācha loke’smin dvi-vidhā niṣhṭhā purā proktā mayānagha jñāna-yogena sāṅkhyānāṁ karma-yogena yoginām
The Blessed Lord said, "In this world, there is a twofold path, as I said before, O sinless one: the path of knowledge of the Sankhyas and the path of action of the Yogins."
3.3 लोके in world? अस्मिन् in this? द्विविधा twofold? निष्ठा path? पुरा previously? प्रोक्ता said? मया by Me? अनघ O sinless one? ज्ञानयोगेन by the path of knowledge? सांख्यानाम् of the Sankhyas? कर्मयोगेन by the path of action? योगिनाम् of the Yogins.Commentary The path of knowledge of the Sankhyas (Jnana Yoga) was described by Lord Krishna in chapter II? verses 11 to 38 the path of action (Karma Yoga) from 40 to 53.Pura Prokta may also mean In the beginning of creation the twofold path was given by Me to this world.Those who are endowed with the four means and who have sharp? subtle intellect and bold understanding are fit for Jnana Yoga. Those who have a tendency or inclination for wok are fit for Karma Yoga. (The four means are discrimination? dispassion? sixfold virutes? and longing for liberation. The sixfold virtues are control of the mind? control of the senses? fortitude (endurance)? turning away from the objects of the world? faith and tranillity.)It is not possible for a man to practise the two Yogas simultaneously. Karma Yoga is a means to an end. It purifies the heart and prepares the aspirant for the reception of knowledge. The Karma Yogi should take up Jnana Yoga as soon as his heart is purified. Jnana Yoga takes the aspirant directly to the goal without any extraneous help. (Cf.V.5).
।।3.3।। व्याख्या-- [अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहते थे अतः उन्होंने समतावाचक 'बुद्धि' शब्दका अर्थ 'ज्ञान' समझ लिया। परन्तु भगवान्ने पहले बुद्धि और 'बुद्धियोग' शब्दसे समताका वर्णन किया था (2। 39 49 आदि) अतः यहाँ भी भगवान् ज्ञानयोग और कर्मयोग--दोनोंके द्वारा प्रापणीय समताका वर्णन कर रहे हैं।]
।।3.3।। कर्मयोग और ज्ञानयोग को परस्पर प्रतिद्वन्द्वी मानने का अर्थ है उनमें से किसी एक को भी नहीं समझना। परस्पर पूरक होने के कारण उनका क्रम से अर्थात् एक के पश्चात् दूसरे का आश्रय लेना पड़ता है। प्रथम निष्काम भाव से कर्म करने पर मन में स्थित अनेक वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं। इस प्रकार मन के निर्मल होने पर उसमें एकाग्रता और स्थिरता आती है जिससे वह ध्यान में निमग्न होकर परमार्थ तत्त्व का साक्षात् अनुभव करता है।विदेशी संस्कृति के लोग हिन्दू धर्म को समझने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करते हैं। साधनों की विविधता और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले उपदेशों को पढ़कर उनकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। परन्तु केवल इसी कारण से हिन्दू धर्म को अवैज्ञानिक कहने में उतनी ही बड़ी और हास्यास्पद त्रुटि होगी जितनी चिकित्साशास्त्र को विज्ञान न मानने में केवल इसीलिए कि एक ही चिकित्सक एक ही दिन में विभिन्न रोगियों को विभिन्न औषधियों द्वारा उपचार बताता है।अध्यात्म साधना करने के योग्य साधकों में दो प्रकार के लोग होते हैं क्रियाशील और मननशील। इन दोनों प्रकार के लोगों के स्वभाव में इतना अन्तर होता है कि दोनों के लिये एक ही साधना बताने का अर्थ होगा किसी एक विभाग के लोगों को निरुत्साहित करना और उनकी उपेक्षा करना। गीता केवल हिन्दुओं के लिये ही नहीं वरन् समस्त मानव जाति के कल्याणार्थ लिखा हुआ शास्त्र है। अत सभी के उपयोगार्थ उनकी मानसिक एवं बौद्धिक क्षमताओं के अनुरूप दोनों ही वर्गों के लिये साधनायें बताना आवश्यक है।अत भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि क्रियाशील स्वभाव के मनुष्य के लिये कर्मयोग तथा मननशील साधकों के लिये ज्ञानयोग का उपदेश किया गया है। पुरा शब्द से वह यह इंगित करते है कि ये दो मार्ग सृष्टि के आदिकाल से ही जगत् में विद्यमान हैं।इस श्लोक में प्रथम बार भगवान् श्रीकृष्ण अपने वास्तविक परिचय की एक झलकमात्र दिखाते हैं। यदि गीतोपदेश देवकीपुत्र कृष्ण नामक किसी र्मत्य पुरुष का ही दिया होता तो अधिक से अधिक उसमें उस व्यक्ति की बुद्धि द्वारा समझे हुए सिद्धांत ही होते जिनका आधार जीवन के उसके स्वानुभव मात्र होते। जीवन में अनुभव किये तथ्यों में परिवर्तित होते रहने का विशेष गुण होता है और इसीलिये जब वे बदलते हैं तो हमारा पूर्व का निष्कर्ष भी परिवर्तित हो जाता है। परिवर्तित सामाजिक राजनैतिक आर्थिक परिस्थितियों एवं विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति के साथ समाजशास्त्र अर्थशास्त्र एवं विज्ञान के अगणित पूर्वप्रतिपादित सिद्धांत कालबाह्य हो चुके हैं। यदि गीता में कृष्ण नामक किसी मनुष्य की बुद्धि से पहुँचे हुए निष्कर्ष मात्र होते तो वह कालबाह्य होकर अब उसके अवशेष मात्र रह गए होते यहाँ श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं सृष्टि के आदि में (पुरा) ये दो मार्ग मेरे द्वारा कहे गये थे। इसका तात्पर्य यह है कि यहाँ भगवान् वृन्दावन के नीलवर्ण गोपाल गोपियों के प्रिय सखा अथवा अपने युग के महान् राजनीतिज्ञ के रूप में नहीं बोल रहे थे। किन्तु भारतीय इतिहास के एक स्वस्वरूप के ज्ञाता तत्त्वदर्शी उपदेशक सिद्ध पुरुष एवं ईश्वर के रूप में उपदेश दे रहे थे। उस क्षण न तो वे अर्जुन के सारथि के रूप में न एक सखा के रूप में और न ही पाण्डवों के शुभेच्छु के रूप में बात कर रहे थे। उन्हें अपने पारमार्थिक स्वरूप जगत् के अधिष्ठान कारण के रूप में पूर्ण भान था। काल और कारण के अतीत सत्यस्वरूप में स्थित हुए वे इन दो मार्गों के आदि उपदेशक के रूप में अपना परिचय देते हैं।कर्मयोग लक्ष्य प्राप्ति का क्रमिक साधन है साक्षात् नहीं। अर्थात् वह ज्ञान प्राप्ति की योग्यता प्रदान करता है जिससे ज्ञानयोग के द्वारा सीधे ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इसे समझाने के लिए भगवान् कहते हैं
।।3.3।।समुच्चयविरोधितया प्रश्नं व्याख्याय तद्विरोधित्वेनैव प्रतिवचनमुत्थापयति प्रश्नेति। येयं व्यवहारभूमिरुपलभ्यते तत्र त्रैवर्णिका ज्ञानं कर्म वा शास्त्रीयमनुष्ठातुमधिक्रियन्ते। तेषां द्विधा स्थितिर्मया प्रोक्तेति पूर्वार्धं योजयति लोकेऽस्मिन्निति। स्थितिमेव व्याकरोति अनुष्ठेयेति। पूर्वं प्रवचनप्रसङ्गं प्रदर्शयन्प्रवक्तारं विशिनष्टि सर्गादाविति। प्रवचनस्यायथार्थत्वशङ्कां वारयति सर्वज्ञेनेति। अर्जुनस्य भगवदुपदेशयोग्यत्वं सूचयति अनघेति। निर्धारणार्थे तत्रेति सप्तमी। ज्ञानं परमार्थवस्तुविषयं तदेव योगशब्दितं युज्यतेऽनेन ब्रह्मणेति व्युत्पत्तेस्तेन। निष्ठेत्यनुवर्तते। उक्तज्ञानोपायमुपदिदिक्षुः सांख्यशब्दार्थमाह आत्मेति। तेषामेव कर्मनिष्ठत्वं व्यावर्तयति ब्रह्मचर्येति। तेषां जपादिपारवश्येन श्रवणादिपराङ्मुखत्वं पराकरोति वेदान्तेति। उक्तविशेषणवतां मुख्यसंन्यासित्वेन फलावस्थत्वं दर्शयति परमहंसेति। कर्म वर्णाश्रमविहितं धर्माख्यं तदेव युज्यते तेनाभ्युदयेनेति योगस्तेन निष्ठा कर्मिणां प्रोक्तेत्यनुषङ्गं दर्शयन्नाह कर्मैवेत्यादिना। एवं प्रतिवचनवाक्यस्थान्यक्षराणि व्याख्याय तस्यैव तात्पर्यार्थं कथयति यदि चेति। इष्टस्यापि दुर्बोधत्वमाशङ्क्याह उक्तमिति। ज्ञानस्यापि मूलविकलतया विभ्रमत्वमाशङ्क्याह वेदेष्विति। तस्याशिष्यत्वबुद्ध्यान्यथाकथनमित्याशङ्क्याह उपसन्नायेति। तथापि तस्मिन्नौदासीन्यादन्यथोक्तिरित्याशङ्क्याह प्रियायेति। ब्रवीति च भिन्नपुरुषकर्तृकं निष्ठाद्वयं तेन समुच्चयो भगवदभीष्टः शास्त्रार्थो न भवतीति शेषः। नन्वर्जुनस्य प्रेक्षापूर्वकारित्वाज्ज्ञानकर्मश्रवणानन्तरमुभयनिर्देशानुपपत्त्या समुच्चयानुष्ठानं संपत्स्यते तद्व्यतिरिक्तानां तु ज्ञानकर्मणोर्भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्वं श्रुत्वा प्रत्येकं तदनुष्ठानं भविष्यतीति भगवतो मतं कल्प्यते तस्यार्जुनेऽनुरागातिरेकादितरेषु च तदभावादिति तत्राह यदि पुनरिति। अप्रमाणभूतत्वमनाप्तत्वम्। नच भगवतो रागादिमत्त्वेनानाप्तत्वं युक्तंसमं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तम् इत्यादिविरोधादित्याह तच्चेति। निष्ठाद्वयस्य भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्वनिर्देशफलमुपसंहरति तस्मादिति।
।।3.3।। अर्जुनप्रश्नानुरुपमुत्तरं श्रीभगवानुवाच लोक इति। लोकेऽस्मिञ्शास्त्रोक्तानुष्ठानाधिकृते त्रैवर्णिके जने शुद्धाशुद्धान्तःकरणनया द्विविधे द्विविधा उपायोपेयभेदेन द्विप्रकारा निष्ठाऽनुष्ठेयतात्पर्यं पुरा सर्गादौ मया सर्वज्ञेनेश्वरेण प्रजाः सृष्ट्वा तासामभ्युदयनिःश्रेयससाधनवेदार्थ संप्रदायमाविष्कुर्वता प्रोक्ता। यत्तु पुरा पूर्वाध्याय इति भाष्यविरुद्धं वर्णयन्ति तन्न। प्रोक्तेत्येतावतैव निर्वाहे लोकेऽस्मिन्नित्यस्य पुरेत्यस्य च वैयर्थ्यप्रसङ्गात्।इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् इति वक्ष्यमाणेन भाष्योक्तार्थस्य स्पष्टप्रतिपादकेन मूलेन विरोधाच्च। हे अनघेति संबोधयन् भवच्चितशुद्य्धर्थमेव त्वां स्वधर्मे नियोजयामि न स्वार्थमिति ध्वनयति। निष्ठायाः प्रकारविभागमाह ज्ञानेति। युज्यते ब्रह्मणानेनेति योगः ज्ञानमेव योगः ज्ञानयोगः तेन सांख्यानां चित्तशुद्य्धात्मानात्मविषयविवेकज्ञानवतां निष्ठा स्थितिः प्रोक्ता। चित्तशुद्धिद्वारा युज्यतेऽनेन ज्ञानेनेति योगः कर्मैव योगः कर्मयोगः तेन योगिनामशुद्धान्तःकरणानां कर्मिणां मया निष्ठा प्रोक्तेत्यर्थः।
।।3.3।।ज्यायस्त्वेऽपि बुद्धेराधिकारिकत्वात् त्वं कर्मण्यधिकृत इति तत्र नियोक्ष्यामीत्याशयवान्भगवानाह लोक इति। द्विविधा अपि जनाः सन्ति गृहस्थादिकर्मत्यागेन ज्ञाननिष्ठाः सनकादिवत् तत्स्था एव ज्ञाननिष्ठाश्च जनकादिवत् मद्धर्मस्था एवेत्यर्थः। साङ्ख्यानां ज्ञानिनां सनकादीनाम्। योगिनामुपायिनां जनकादीनाम्। ज्ञाननिष्ठा अप्याधिकारिकत्वादीश्वरेच्छया लोकसङ्ग्रहार्थत्वाच्च ये कर्मयोग्या भवन्ति तेऽपि योगिनः। निष्ठा स्थितिः। त्वं तु जनकादिवत् सकर्मैव ज्ञानयोग्यः न तु सनकादिवत्तत्त्यागेनेत्यर्थः। सन्ति हीश्वरेच्छयैव कर्मकृतः प्रियव्रतादयोऽपि ज्ञानिन एव। तथा ह्युक्तम् ईश्वरेच्छया विनिवेशितकर्माधिकारः भाग.5।1।23 इति।
।।3.3।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्निति। पुरा पूर्वाध्याये मया निष्ठा एकैव प्रोक्ता परंतु सा द्विविधा द्विप्रकारा। एकस्या एव ब्रह्मनिष्ठायाः प्रकारद्वयमुक्तमधिकारिभेदेन न तु ब्रह्मप्राप्तये परस्परनिरपेक्षमार्गद्वयमुक्तमिति भावः। हेऽनघ विशुद्धान्तःकरण मद्वचनस्यार्थं सम्यगालोचयेत्यर्थः। तदेव प्रकारद्वयमाह ज्ञानयोगेनेति। सांख्यानां प्रकृतिपुरुषयोर्विविक्तत्वं जानतामात्मानात्मविवेकज्ञानवतां ज्ञानार्थं युज्यते इति ज्ञानयोगः ज्ञानोपायो वेदान्तश्रवणमनननिदिध्यासनात्मकस्तेन ज्ञानयोगेन ब्रह्मणि निष्ठां परिसमाप्तिं सांख्याः प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। योगिनांसिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते इत्युक्तलक्षणयोगवतां कर्मयोगेन संध्योपासनादिनिर्विकल्पकसमाध्यनुष्ठानमिह कर्मयोगपदार्थः तेन योगिनो ब्रह्मनिष्ठां प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। अयं भावः इह जन्मनि जन्मान्तरे वा ईश्वरप्रीत्यर्थमनुष्ठितैः कर्मभिर्विशुद्धसत्वो विवेकवैराग्यशमादिषट्कोपेतो मुमुक्षुः प्रत्यक्प्रवणचित्तः श्रवणमननाभ्यामेव कृतकृत्यो भवति स चेच्छ्रवणादेः प्रागसमाहितचित्तस्तर्हि निदिध्यासनमस्यापेक्षितम् अतएवसहकार्यन्तरविधिः पक्षेण इति सूत्रकृता निदिध्यासनस्य पाक्षिकत्वमुक्तं सोऽयं सांख्यमार्गः। तथा सर्वाणि कर्माणि परमगुरावर्पयञ्श्रवणमननात्मकं विचारमन्तरेणैव केवलं श्रद्धामात्रात्प्रतीचो निर्विशेषब्रह्मरूपत्वं गुरुवाक्यतो निश्चित्यासंभावनादिदोषरहित आचार्यान्निर्गुणब्रह्मोपास्तिप्रकारमधिगम्य कर्मच्छिद्रेषु समाध्यभ्यासं कुर्वन्निष्कलं प्रत्यगात्मस्वरूपं साक्षात्करोति सोऽयं योगमार्गः तेन ऊहापोहकौशलं येषामस्ति ते सांख्याः येषां तन्नास्ति ते योगिन इति। अत इयं द्विप्रकारा निष्ठा न तु द्वे निष्ठे इति भ्रमितव्यम्। यथोक्तं वसिष्ठेनद्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानं च राघव। योगो वृत्तिनिरोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम्। असाध्यः कस्यचिद्योगः कस्यचित्तत्त्वनिश्चयः। प्रकारौ द्वौ ततो देवो जगाद परमः शिवः। इति। चित्तादर्शनोपलक्षितस्य ब्रह्मसाक्षात्कारस्य द्वौ क्रमौ। चित्तादेर्मिथ्यात्वपक्षे ज्ञानमेव यथा रज्जूरगादिसम्यगवेक्षणेनैव नश्यति तद्वत् तस्य सत्यत्वपक्षे योग एव। यथा सत्य उरगो मन्त्रादिना निरुद्धप्रचारः स्वयमेव नश्यति तद्वच्चित्तमपि योगेन निरुद्ध्यमानं नश्यति। तस्य निरन्वयोच्छेदस्तु प्रारब्धकर्मान्ते पक्षद्वयेऽपि तुल्य इति।
।।3.3।।श्रीभगवानुवाच पुरा उक्तं च सम्यग् अवधृतं त्वया पुरा अपि अस्मिन् लोके विचित्राधिकारिसंपूर्णे द्विविधा निष्ठा ज्ञानकर्मविषया यथाधिकारम् असंकीर्णा एव मया उक्ता। न हि सर्वो लौकिकः पुरुषः संजातमोक्षाभिलाषः तदानीम् एव ज्ञानयोगाधिकारे प्रभवति अपि तु अनभिसंहितफलेन केवलपरमपुरुषाराधनरूपेण अनुष्ठितेन कर्मणा विध्वस्तमनोमलः अव्याकुलेन्द्रियो ज्ञाननिष्ठायाम् अधिकरोति यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।(गीता 18।46)इति परमपुरुषाराधनैकवेषता कर्मणां वक्ष्यते।इहापिकर्मण्येवाधिकारस्ते (गीता 2।47) इत्यादिना अनभिसंहितफलं कर्म अनुष्ठेयं विधाय तेन विषयव्याकुलतारूपमोहाद् उत्तीर्णबुद्धेःप्रजहाति यदा कामान् (गीता 2।55) इत्यादिना ज्ञानयोग उदितः। अतः सांख्यानाम् एव ज्ञानयोगेन स्थितिः उक्ता योगिनां तु कर्मयोगेन।संख्या बुद्धिः तद्युक्ताः सांख्याः आत्मैकविषयया बुद्ध्या युक्ताः सांख्याः अतदर्हाः कर्मयोगाधिकारिणो योगिनः। विषयव्याकुलबुद्धियुक्तानां कर्मयोगे अधिकारः अव्याकुलबुद्धीनां तु ज्ञानयोगे अधिकार उक्तः सति न किञ्चिद् इह विरुद्धम् न अपि व्यामिश्रम् अभिहितम्।सर्वस्य लौकिकस्य पुरुषस्य मोक्षेच्छायां संजातायां सहसा एव ज्ञानयोगो दुष्कर इत्याह
।।3.3।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्निति। अयमर्थः। यदि मया परस्परनिरपेक्षं मोक्षासाधनत्वेन कर्मज्ञानयोगरुपं निष्ठाद्वयमुक्तं स्यात्तर्हि द्वयोर्मध्ये यद्भद्रं तदेकं वदेति त्वदीयप्रश्नः संगच्छेत न तु मया तथोक्तं किंतु द्वाभ्यामेकैव ब्रह्मनिष्ठोक्ता। गुणप्रधानभूतयोस्तयोः स्वातन्त्रयानुपपत्तेः। एकस्या एव तु प्रकारभेदमात्रमधिकारभेदेनोक्तमिति। अस्मिन् शुद्धाशुद्धान्तःकरणतया द्विविधे लोकेऽधिकारिजाने द्वे विधे प्रकारौ यस्याः सा द्विविधा निष्ठा मोक्षपरता पुरा पूर्वोध्याये मया सर्वज्ञेन प्रोक्ता स्पष्टमेवोक्ता। प्रकारद्वयमेव निर्दिशति। सांख्यानां शुद्धान्तःकरणानां ज्ञानभूमिकामारुढानां ज्ञानपरिपाकार्थं ज्ञानयोगेन ध्यानादिना निष्ठा ब्रह्मपरतोक्तातानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः इत्यादिना। सांख्यभूमिकामारुरुक्षूणां त्वन्तःकरणशुद्धिद्वारा तदारोहार्थं तदुपायभूतकर्मयोगाधिकारिणां योगिनां कर्मंयोगेन निष्ठोक्ताधर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते इत्यादिना। अतएव चित्तशुद्ध्यशुद्धिरुपावस्थामेदेनैव द्विविधापि निष्ठोक्ताएषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु इति।
।।3.3।।एवमसङ्कीर्णरूपे वाक्ये बुभुत्सिते पूर्वोक्तस्यैवासङ्कीर्णरूपतां प्रकटयन् श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्निति।मया प्रोक्ता इति निर्देशात्काक्वा च फलितमाह पूर्वोक्तमिति।अस्मिन् लोके इत्यस्य प्रकृतोपयोगितात्पर्यमाह विचित्राधिकारिसम्पूर्णे इति। तेन ज्ञानयोगकर्मयोगयोरधिकारिभेदसम्भवः परस्परविरुद्धानामपि धर्माणां प्रतिनियताधिकारिविषयत्वव्यवस्थापकवर्णाश्रमदेशकालकामनानिमित्तादिदृष्टान्तश्च सूचितः। अनघशब्देनाप्येतदेवाभिप्रेतम्। यथास्मिन् लोकेऽनघतया त्वमपवर्गसाधनेऽधिकरोषि इतरे तु काम्यादौ तद्वदनघमात्रस्य कर्मयोगेऽधिकारः अनघतराणां तु ज्ञानयोग इति संसारदाहज्वरचिकित्सकस्य सर्वज्ञस्य भिषजस्तत्तदवस्थोचितोऽयमुपदेशः।प्रोक्ता इत्यस्य सोपसर्गस्याभिप्रेतमाह यथाधिकारमिति। अधिकारानतिलङ्घनमत्र प्रकर्षः। द्वैविध्यमात्रस्य ज्ञातत्वात्तदुक्त्यभिप्रेतमाह असङ्कीर्णैवेति।मयेति तत्तदधिकारिभेदवेदिना तत्तद्धितकामेनास्पृष्टभ्रमविप्रलम्भप्रमादाशक्तिगन्धेनेत्यर्थः।ज्यायसि ज्ञानयोगे तिष्ठति कर्मयोगः कथमाद्रियेत इत्यत्राह नहीति। मोक्षाभिलाषे जातेऽपि जन्मान्तरशतसुचरितमृदितकषायाणां केषाञ्चिदेव तदानीमेव ज्ञानयोगाधिकारः तथा दर्शनात् ततः शक्ताशक्तविषयतया ज्ञानकर्मयोगयोर्व्यवस्थेति भावः। नन्वशक्तानां कदाचिदपि ज्ञानयोगाधिकारो न स्यात् तच्छक्तिहेतुतयोक्तस्य कर्मयोगानुष्ठानस्य तत्प्रातिकूल्यचोद्यस्थितेरित्यत्राह अनभिसंहितेति। सर्वज्ञत्वसर्वशक्तित्वकारुण्यादिविशिष्टभगवदनुग्रहरूपादृष्टद्वारा ज्ञानहेतुत्वाय परमपुरुषाराधनरूपतोक्तिः। व्याकुलेन्द्रियत्वं हि ज्ञाननिष्ठाविरोधि तच्च स्वान्तमलमूलम् तदप्यनादिपुण्यपापरूपदुष्कर्ममूलरजस्तमोमयम् तच्च सत्त्वोन्मेषहेतुभूतैवंविधकर्मनिबर्हणीयम् अतो ज्ञाननिष्ठाहेतुभूतशान्तिहेतुत्वात्तदनुकूल एव कर्मयोग इत्युक्तं भवति। धर्मेण पापमपनुदति तै.ना.उ.6।50 इत्यादिकमिहाभिप्रेतम् अनभिसंहितफलत्वं पूर्वमेवोक्तमिति कृत्वा केवलपरमपुरुषाराधनवेषतायां कर्मणैव सिद्धिप्राप्तौ च वक्ष्यमाणं दर्शयति यत इति। प्रोक्तशब्दनिर्दिष्टं अव्यामिश्राभिधानं अनभिसंहितफलत्वोक्तिं च व्यनक्ति इहापीति।यदा ते मोहकलिलंश्रुतिविप्रतिपन्ना ते 2।5253 इत्याद्यर्थं स्मारयति विषयेति। आभिप्रायिकमवधारणं व्यञ्जयन्नुत्तरार्धं व्याचष्टे अतः साङ्ख्यानामेवेति। साङ्ख्यशब्दस्यात्र सिद्धान्तविशेषनिष्ठपरत्वं व्युदस्यति साङ्ख्यबुद्धिरित्यादिना। अतदर्हा इत्यशक्तिविषयत्वं सूचितम्।कर्मयोगाधिकारिण इति। योगिशब्दस्थो योगो ह्यत्र कर्मयोगः प्रत्ययार्थः सम्बन्धश्चात्र तद्योग्यतारूप इत्यर्थः। अतदर्हत्वं तदर्हत्वं च विशदयन् विरोधशङ्कापरिहारस्यफलितत्वेनाव्यामिश्राभिधानमुपसंहरति विषयेति।
।।3.3।।श्रीभगवांस्तूत्तरं ददाति लोकेऽस्मिन् इति। लोके एषा द्वयी गतिः प्रसिद्धा सांख्यानां ज्ञानं प्रधानम् योगिनां च कर्मेति। मया तु सा एकैव निष्ठा उक्ता ज्ञानक्रियामयत्वात् संवित्तत्त्वस्येति भावः।
।।3.3।।एवं चेत्प्रश्नस्तर्हि कथं परिहारवाक्यं सङ्गच्छते तत्र निष्ठाद्वैविध्यकथनात् इत्यतस्तदभिप्रायं वदन् अवतारयति ज्यायस्त्वेऽपीति। बुद्धिः काम्यकर्मणो ज्यायसीति यदुक्तं तत्तथैव तथापि त्वां तत्र वैकल्पिके युद्धादिकर्मणि प्रेरयामि कुतः आधिकारिकत्वात् त्वं कर्मण्यपि विक्षेपकारिण्यपि वैकल्पिकेऽधिकृत इति कृत्वा। अयमत्रोत्तरक्रमः आश्रमत्रयविहितानि यज्ञादीनि युद्धादीनि च न शुद्धकाम्यानि किन्तु कर्तुरिच्छया स्वर्गाद्यर्थानि ज्ञानाद्यर्थानि च भवन्ति अतो बुद्धेः काम्यकर्मणो जायस्त्वेऽपि युद्धस्य बुद्ध्यर्थत्वसम्भवात्तत्र नियोगो नानुपपन्नः। यतिधर्मान्विना किमेतेन नियोगेन इति चेत् अनधिकारिणामेव यत्याश्रमस्वीकाराधिकारः नाधिकारिकाणाम्। तैर्गृहस्थाद्याश्रममपरित्यज्यैव तद्विहितानि कर्माणि निष्कामतयाऽनुष्ठेयानीतीश्वरनियमात् तव चाधिकारिकत्वादिति।स्वराद्यन्तोपसृष्टाच्च इति कात्यायनवचनमनित्यम्। अत एव न पाणिनिरभाणीत्। अयमाशयःश्लोकात्कथं लभ्यते इत्यतो व्याचष्टे द्विविधा अपीति। निष्ठा द्विविधेति व्याख्याने क्रमेणैकस्यैव पुरुषस्य तत्सम्भवान्नोक्तोऽभिप्रायो लभ्यत इत्येवं व्याख्यातम्। न केवलमेकविधाः साङ्ख्या एवेत्यपेरर्थः। द्वैविद्ध्यमेव सोदाहरणमाह गृहस्थादीति। यत्याश्रमपरिग्रहेणेत्यपि ग्राह्यम्। ज्ञाननिष्ठाः यत्याश्रमविहितैरेव कर्मभिर्ज्ञानसाधनैर्युक्ताः सनकादिभिस्तुल्यं वर्तन्त इति सनकादिवत्। एवं जनकादिवदित्यपि। तत्स्था एव गृहस्थाद्याश्रमस्था एव तद्धर्मैर्युद्धादिभिर्ज्ञानसाधनैर्युक्ताः द्विविधा अपि जनाः सन्तीत्युक्ते कर्ममार्गस्था ज्ञानमार्गस्थाश्चेति द्वैविद्ध्यं प्रतीयते तन्निवृत्त्यर्थमाह मद्धर्मेति। ज्ञानमार्गस्था एव ततश्च मद्धर्मस्था एवजना द्विविधा अपि सन्तीत्यन्वयः। तत्कथमित्याकाङ्क्षायामुत्तरं वाक्यद्वयम्। साङ्ख्यानां योगिनामिति पदद्वयमन्यथाप्रतीतिनिरासाय व्याचष्टे साङ्ख्यानामिति। सम्यक् ख्यातिर्ज्ञानं सङ्ख्या तत्र भवाः साङ्ख्याः तेषां ज्ञानिनां ज्ञाननिष्ठानामित्यर्थः। ननु जनकादयोऽपि ज्ञाननिष्ठास्तत्कथं योगिन इत्यत आह ज्ञाननिष्ठा अपीति। कर्मयोग्या गृहस्थादिकर्मयोग्याः। साङ्ख्ययोगशब्दौ प्रसिद्धार्थौ किं न स्यातामित्यतो मुक्तिवचनादिति भावेनाह निष्ठेति स्थितिः स्वरूपेणेति शेषः। अस्त्वेवं श्लोकार्थः तथाप्याधिकारिकत्वादित्यादिकं अत्र न श्रूयत इत्यतोऽध्याहृत्याह त्वं त्विति। सकर्मा गृहस्थादिकर्मवान्। भवेदिदं व्याख्यानं यदि ते जनाः प्रमिताः स्युर्येषां ज्ञाननिष्ठानामपि गृहस्थादिकर्मस्वेवाधिकारः न यत्याश्रमकर्मसु। जनकादयस्तु यत्याश्रमं नानुष्ठितवन्त इत्येव प्रमितम् न तु तत्रानधिकार इति तत्राह सन्ति हीति। विनिवेशितः कर्माधिकारो गृहस्थकर्माधिकारो यस्मिन्स तथोक्तः। प्रियव्रतो हि यत्याश्रमं स्वीचिकीर्षुराधिकारिकत्वयुक्त्या हिरण्यगर्भेण निवारित इत्यनेनोच्यते।
।।3.2 3.3।।ननु नाहं कंचिदपि प्रतारयामि कि पुनस्त्वामतिप्रियम्। त्वं तु किं मे प्रतारणाचिन्हं पश्यसीति चेत्तत्राह तव वचनं व्यामिश्रं न भवत्येव ममत्वेकाधिकारिकत्वभिन्नाधिकारिकत्वसंदेहाद्व्यामिश्रं संकीर्णार्थमिव ते यद्वाक्यं मांप्रतिज्ञानकर्मनिष्ठाद्वयप्रतिपादकं तेन वाक्येन त्वं मे मम मन्दबुद्धेर्वाक्यतात्पर्यापरिज्ञानाद्बुद्धिमन्तःकरणं मोहयसीव भ्रान्त्या योजयसीव। परमकारुणिकत्वात्त्वं न मोहयस्येव। मम तु स्वाशयदोषान्मोहो भवतीतीवशब्दार्थः। एकाधिकारित्वे विरुद्धयोः समुच्चयानुपपत्तेरेकार्थत्वाभावेन च विकल्पानुपपत्तेः प्रागुक्तेर्यद्यधिकारिभेदं मन्यसे तदैकं मांप्रति विरुद्धयोर्निष्ठयोरुपदेशायोगात्तज्ज्ञानं वा कर्म वैकमेवाधिकारं मे निश्चित्य वद। येनाधिकारनिश्चयपुरःसरमुक्तेन त्वया मया चानुष्ठितेन ज्ञानेन कर्मणा वैकेन श्रेयो मोक्षमहमाप्नुयां प्राप्तुं योग्यः स्याम्। एवं ज्ञानकर्मनिष्ठयोरेकाधिकारित्वे विकल्पसमुच्चययोरसंभवादधिकारिभेदज्ञानायार्जुनस्य प्रश्न इति स्थितम्।इहेतरेषां कुमतं समस्तं श्रुतिस्मृतिन्यायबलान्निरस्तम्। पुनः पुनर्भाष्यकृतातियत्नादतो न तत्कर्तुमहं प्रवृत्तः।।भाष्यकारमतसारदर्शिना ग्रन्थमात्रमिह योज्यते मया। आशयो भगवतः प्रकाश्यते केवलं स्ववचसो विशुद्धये।। एवमधिकारिभेदेऽर्जुनेन पृष्टे तदनुरुपं प्रतिवचनं श्रीभगवानुवाच अस्मिन्नधिकारित्वाभिमते लोके शुद्धाशुद्धान्तःकरणभेदेन द्विविधे जने द्विविधा द्विप्रकारा निष्ठा स्थितिर्ज्ञानपरता कर्मपरता च पुरा पूर्वाध्याये मया तवात्यन्तहितकारिणा प्रोक्ता प्रकर्षेण स्पष्टत्वलक्षणेनोक्ता। तथा चाधिकार्यैक्यशङ्कया माग्लासीरिति भावः। हे अनघ अपापेति संबोधयन्नुपदेशयोग्यतामर्जुनस्य सूचयति। एकैव निष्ठा साध्यसाधनावस्थाभेदेन द्विप्रकारा नतु द्वे एव स्वतन्त्रे निष्ठे इति कथयितुं निष्ठेत्येकवचनम्। तथाच वक्ष्यतिएकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति इति। तामेव निष्ठां द्वैविध्येन दर्शयति सांख्येति। संख्या सम्यगात्मबुद्धिस्तां प्राप्तवतां ब्रह्मचर्यादेव कृतसंन्यासानां वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थानां ज्ञानभूमिमारूढानां शुद्धान्तःकरणानां सांख्यानां ज्ञानयोगेन ज्ञानमेव युज्यते ब्रह्मणानेनेति व्युत्पत्त्या योगस्तेन निष्ठोक्तातानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः इत्यादिना। अशुद्धान्तःकरणानां तु ज्ञानभूमिमनारूढानां योगिनां कर्माधिकारयोगिनां कर्मयोगेन कर्मैव युज्यतेऽन्तःकरणशुद्ध्यानेनेति व्युत्पत्त्या योगस्तेन निष्ठोक्तान्तःकरणशुद्धिद्वारा ज्ञानभूमिकारोहणार्थंधर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते इत्यादिना। अतएव न ज्ञानकर्मणोः समुच्चयो विकल्पो वा किंतु निष्कामकर्मणा शुद्धान्तःकरणानां सर्वकर्मसंन्यासेनैव ज्ञानमिति चित्तशुद्ध्यशुद्धिरूपावस्थाभेदेनैकमेव त्वांप्रति द्विविधा निष्ठोक्ताएषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु इति। अतो भूमिकाभेदेनैकमेव प्रत्युभयोपयोगान्नाधिकारभेदेऽप्युपदेशवैयर्थ्यमित्यभिप्रायः। एतदेव दर्शयितुमशुद्धचित्तस्य चित्तशुद्धिपर्यन्तं कर्मानुष्ठानंन कर्मणामनारम्भात् इत्यादिभिःमोघं पार्थ स जीवति इत्यन्तैस्त्रयोदशभिर्दर्शयति। शुद्धचित्तस्य तु ज्ञानिनो न किंचिदपि कर्मापेक्षितमिति दर्शयतियस्त्वात्मरतिरेव इति द्वाभ्याम्।तस्मादसक्तः इत्यारभ्य तु बन्धहेतोरपि कर्मणो मोक्षहेतुत्वं सत्त्वशुद्धिज्ञानोत्पत्तिद्वारेण संभवति फलाभिसंधिराहित्यरूपकौशलेनेति दर्शयिष्यति। ततः परंतुअथ केन इति प्रश्नमुत्थाप्य कामदोषेणैव काम्यकर्मणः शुद्धिहेतुत्वं नास्ति। अतः कामराहित्येनैव कर्माणि कुर्वन्नन्तःकरणशुद्ध्य ज्ञानाधिकारी भविष्यसीति यावदध्यायसमाप्ति वदिष्यति भगवान्।
।।3.3।।एवमर्जुनस्य मोहापगमार्थं प्रश्नोत्तरमाह कृष्णः लोकेऽस्मिन्निति। हे अनघ निष्पाप मद्वाक्यश्रवणयोग्य मया अस्िमँस्मल्लोके प्रवृत्तिनिष्ठे द्विविधा निष्ठा पुरा पूर्वं तवाग्रे भक्त्यधिकारसिद्ध्यर्थं प्रोक्ता न तु त्वदर्थमिति भावः। द्विविधत्वमेव स्पष्टयति ज्ञानयोगेनेति। साङ्ख्यानां ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां सर्वत्र भगवदात्मज्ञानवतां ज्ञानयोगेन ब्रह्मनिष्ठोक्ता। योगिनां योगेन भगवदुपासकानां कर्मयोगेन ब्रह्मनिष्ठोक्ता। तयोः स्वरूपज्ञानार्थं निष्ठाद्वयमुक्तं न तु त्वदर्थमित्यर्थः।
।।3.3।। लोके अस्मिन् शास्त्रार्थानुष्ठानाधिकृतानां त्रैवर्णिकानां द्विविधा द्विप्रकारा निष्ठा स्थितिः अनुष्ठेयतात्पर्यं पुरा पूर्वं सर्गादौ प्रजाः सृष्ट्वा तासाम् अभ्युदयनिःश्रेयसप्राप्तिसाधनं वेदार्थसंप्रदायमाविष्कुर्वता प्रोक्ता मया सर्वज्ञेन ईश्वरेण हे अनघ अपाप। तत्र का सा द्विविधा निष्ठा इत्याह तत्र ज्ञानयोगेन ज्ञानमेव योगः तेन सांख्यानाम् अत्मानात्मविषयविवेकविज्ञानवतां ब्रह्मचर्याश्रमादेव कृतसंन्यासानां वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थानां परमहंसपरिव्राजकानां ब्रह्मण्येव अवस्थितानां निष्ठा प्रोक्ता। कर्मयोगेन कर्मैव योगः कर्मयोगः तेन कर्मयोगेन योगिनां कर्मिणां निष्ठा प्रोक्ता इत्यर्थः। यदि च एकेन पुरुषेण एकस्मै पुरुषार्थाय ज्ञानं कर्म च समुच्चित्य अनुष्ठेयं भगवता इष्टम् उक्तं वक्ष्यमाणं वा गीतासु वेदेषु चोक्तम् कथमिह अर्जुनाय उपसन्नाय प्रियाय विशिष्टभिन्नपुरुषकर्तृके एव ज्ञानकर्मनिष्ठे ब्रूयात् यदि पुनः अर्जुनः ज्ञानं कर्म च द्वयं श्रुत्वा स्वयमेवानुष्ठास्यति अन्येषां तु भिन्नपुरुषानुष्ठेयतां वक्ष्यामि इति मतं भगवतः कल्प्येत तदा रागद्वेषवान् अप्रमाणभूतो भगवान् कल्पितः स्यात्। तच्चायुक्तम्। तस्मात् कयापि युक्त्या न समुच्चयो ज्ञानकर्मणोः।।यत् अर्जुनेन उक्तं कर्मणो ज्यायस्त्वं बुद्धेः तच्च स्थितम् अनिराकरणात्। तस्याश्च ज्ञाननिष्ठायाः संन्यासिनामेवानुष्ठेयत्वम् भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्ववचनात्। भगवतः एवमेव अनुमतमिति गम्यते।।मां च बन्धकारणे कर्मण्येव नियोजयसि इति विषण्णमनसमर्जुनम् कर्म नारभे इत्येवं मन्वानमालक्ष्य आह भगवान् न कर्मणामनारम्भात् इति। अथवा ज्ञानकर्मनिष्ठयोः परस्परविरोधात् एकेन पुरुषेण युगपत् अनुष्ठातुमशक्यत्वे सति इतरेतरानपेक्षयोरेव पुरुषार्थहेतुत्वे प्राप्ते कर्मनिष्ठाया ज्ञाननिष्ठाप्राप्तिहेतुत्वेन पुरुषार्थहेतुत्वम् न स्वातन्त्र्येण ज्ञाननिष्ठा तु कर्मनिष्ठोपायलब्धात्मिका सती स्वातन्त्र्येण पुरुषार्थहेतुः अन्यानपेक्षा इत्येतमर्थं प्रदर्शयिष्यन् आह भगवान्
।।3.3।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्निति। पूर्वोक्तं त्वया सम्यक् नावधृतं यतः अस्मिन् लोके द्विविधा निष्ठा मया पुरा प्रोक्ता ये तु साङ्ख्यास्तेषां ज्ञानयोगेन सर्वत्यागरूपा स्थितिरुक्ता ये चोक्तयोगाधिकारिणस्तेषामुक्तविधकर्मयोगेनेति। स्वस्वाधिकारानुसारेणैव सर्वं योग्यमिति न बुद्धिव्यामोहः कार्यः। अधिकारभेदस्तु सर्वाभिमतोऽत एव क्वचिज्ज्ञानं क्वचिद्भक्तिरिति स्वतः पुरुषार्थहेतवः। एवं मोक्षोपायाःयोगो ज्ञानं च भक्तिश्च इत्युक्ताः।