BG - 3.8

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।3.8।।

niyataṁ kuru karma tvaṁ karma jyāyo hyakarmaṇaḥ śharīra-yātrāpi cha te na prasiddhyed akarmaṇaḥ

  • niyatam - constantly
  • kuru - perform
  • karma - Vedic duties
  • tvam - you
  • karma - action
  • jyāyaḥ - superior
  • hi - certainly
  • akarmaṇaḥ - than inaction
  • śharīra - bodily
  • yātrā - maintenance
  • api - even
  • cha - and
  • te - your
  • na prasiddhyet - would not be possible
  • akarmaṇaḥ - inaction

Translation

Perform your bounden duty, for action is superior to inaction, and even the maintenance of the body would not be possible for you through inaction.

Commentary

By - Swami Sivananda

3.8 नियतम् bounden (prescribed or obligatory)? कुरु perform? कर्म action? त्वम् thou? कर्म action? ज्यायः superior? हि for? अकर्मणः than inaction? शरीरयात्रा maintenance of the body? अपि even? च and? ते thy? न not? प्रसिद्ध्येत् would be possible? अकर्मणः by inaction.Commentary Niyatam Karma is an obligatory duty which one is bound to perform. Thenonperformance of the bounden duties causes demerit. The performance of the obligatory duties is not a means for the attainment of a specific result. The performance does not cause any merit.Living itself involves several natural and unavoidable actions which have to be performed by all. It is ignorance to say? I can live doing nothing.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

 3.8।। व्याख्या--'नियतं कुरु कर्म त्वम्'--शास्त्रोंमें विहित तथा नियत--दो प्रकारके कर्मोंको करनेकी आज्ञा दी गयी है। विहित कर्मका तात्पर्य है--सामान्यरूपसे शास्त्रोंमें बताया हुआ आज्ञारूप कर्म; जैसे-- व्रत, उपवास, उपासना आदि। इन विहित कर्मोंको सम्पूर्णरूपसे करना एक व्यक्तिके लिये कठिन है। परन्तु निषिद्ध कर्मोंका त्याग करना सुगम है। विहित कर्मको न कर सकनेमें उतना दोष नहीं है जितना निषिद्ध कर्मका त्याग करनेमें लाभ है; जैसे झूठ न बोलना, चोरी न करना, हिंसा न करना इत्यादि। निषिद्ध कर्मोंका त्याग होनेसे विहित कर्म स्वतः होने लगते हैं। नियतकर्मका तात्पर्य है--वर्ण, आश्रम, स्वभाव एवं परिस्थितिके अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म; जैसे--भोजन करना, व्यापार करना, मकान बनवाना, मार्ग भूले हुए व्यक्तिको मार्ग दिखाना आदि। कर्मयोगकी दृष्टिसे जो वर्णधर्मानुकूल शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म प्राप्त हो जाय, वह चाहे घोर हो या सौम्य, नियतकर्म ही है। यहाँ 'नियतं कुरु कर्म' पदोंसे भगवान् अर्जुनसे यह कहते हैं कि क्षत्रिय होनेके नाते अपने वर्णधर्मके अनुसार परिस्थितिसे प्राप्त युद्ध करना तेरा स्वाभाविक कर्म है (गीता 18। 43)। क्षत्रियके लिये युद्धरूप हिंसात्मक कर्म घोर दीखते हुए भी वस्तुतः घोर नहीं है, प्रत्युत उसके लिये वह नियतकर्म ही है। दूसरे अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि स्वधर्म की दृष्टिसे भी युद्ध करना तेरे लिये नियतकर्म है-- 'स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि' (2। 31)। वास्तवमें तो स्वधर्म और नियतकर्म दोनों एक ही हैं। यद्यपि दुर्योधन आदिके लिये भी युद्ध वर्णधर्मके अनुसार प्राप्त कर्म है; तथापि वह अन्याययुक्त होनेके कारण नियतकर्मसे अलग है; क्योंकि वे युद्ध करके अन्यायपूर्वक राज्य छीनना चाहते हैं। अतः उनके लिये यह युद्ध नियत तथा धर्मयुक्त कर्म नहीं है।   'कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः'--इसी अध्यायके पहले श्लोकमें (अर्जुनके प्रश्नमें) आये हुए 'ज्यायसी' पदका उत्तर भगवान् यहाँ 'ज्यायः' पदसे ही दे रहे हैं। वहाँ अर्जुनका प्रश्न है कि यदि आपको कर्मकी अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? इसके उत्तरमें यहाँ भगवान् कहते हैं कि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना ही मुझे श्रेष्ठ मान्य है। इस प्रकार अर्जुनका विचार युद्धरूप घोर कर्मसे निवृत्त होनेका है और भगवान्का विचार अर्जुनको युद्धरूप नियतकर्ममें प्रवृत्त करानेका है। इसीलिये आगे अठारहवें अध्यायमें भगवान् कहते हैं कि दोष-युक्त होनेपर भी सहज (नियत) कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये--'सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्'(18। 48)। कारण कि इसके त्यागसे दोष लगता है एवं कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध भी बना रहता है। अतः कर्मका त्याग करनेकी अपेक्षा नियतकर्म करना ही श्रेष्ठ है। फिर आसक्ति-रहित होकर कर्म करना तो और भी श्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि इससे कर्मोंके साथ सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। अतः भगवान् इस श्लोकके पूर्वार्धमें अर्जुनको अनासक्तभावसे नियतकर्म करनेकी आज्ञा देते हैं और उत्तरार्धमें कहते हैं कि कर्म किये बिना तेरा जीवन-निर्वाह भी नहीं होगा। कर्मयोगमें 'कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः'--यह भगवान्का प्रधान सिद्धान्त है। इसीको भगवान्ने 'मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि' (गीता 2। 47) पदोंसे स्पष्ट किया है कि अर्जुन !तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो। कारण यह है कि कर्तव्य-कर्मोंसे जी चुरानेवाला मनुष्य प्रमाद, आलस्य और निद्रामें अपना अमूल्य समय नष्ट कर देगा अथवा शास्त्र-निषिद्ध कर्म करेगा, जिससे उसका पतन होगा।स्वरूपसे कर्मोंका त्याग करनेकी अपेक्षा कर्म करते हुए ही कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करना श्रेष्ठ है। कारण कि कामना, वासना, फलासक्ति, पक्षपात आदि ही कर्मोंसे सम्बध जोड़ देते हैं, चाहे मनुष्य कर्म करे अथवा न करे। कामना आदिके त्यागका उद्देश्य रखकर कर्मयोगका आचरण करनेसे कामना आदिका त्याग बड़ी सुगमतासे हो जाता है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।3.8।। अपने व्यावहारिक जीवन में नियत कर्म से हमको वे सब कर्तव्य कर्म समझने चाहिये जो परिवार कार्यालय समाज एवं राष्ट्र के व्यक्ति होने के नाते हमें करने पड़ते हैं। इस दृष्टि से अकर्म का अर्थ होगा अपने इन कर्तव्यों को कुशलता से न करना। निष्क्रियता से तो शरीर निर्वाह भी असम्भव होता है। इस प्रकार के अकर्म से राष्ट्र समाज और परिवार का नाश होता है साथ ही वह व्यक्ति स्वयं अपनी अकर्मण्यता का शिकार होकर शारीरिक अक्षमता और बौद्धिक ह्रास से कष्ट पाता है।यह धारणा गलत है कि कर्म बन्धन का कारण होते हैं इसलिये उनको नहीं करना चाहिये। क्यों

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।3.8।।कर्मानुष्ठायिनो वैशिष्ट्यमुपदिष्टमनूद्य तदनुष्ठानमधिकृतेन कर्तव्यमिति निगमयति यत इति। उक्तमेव हेतुं भगवदनुमतिकथनेन स्फुटयति कर्मेति। इतश्च त्वया कर्तव्यं कर्मेत्याह शरीरेति। तन्नियतं तस्याधिकृतस्येति संबन्धः। स्वर्गादिफले दर्शपूर्णमासादावधिकृतस्य तस्य तदपि नित्यं स्यादित्याशङ्क्य विशिनष्टि फलायेति। नित्यं कर्मेति नियमेन कर्तव्यमित्यत्र हेतुमाह यत इति। हिशब्दोपात्तमुक्तमेव हेतुमनुवदति यस्मादिति। करणस्याकरणाज्ज्यायस्त्वं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति कथमित्यादिना। सत्येव कर्मणि देहादिचेष्टाद्वारा शरीरं स्थातुं पारयति तदभावे जीवनमेव दुर्लभं भवेदिति फलितमाह अत इति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।3.8।। यतएवमतो नियतं स्ववर्णा श्रमोचितं नित्यं कर्म त्वं फलाभिसंधिरहितः कुरु। हि यस्मादकरणात् चित्तशोधकं कर्म श्रेष्ठं न केवलमकरणाच्चित्तशुद्य्धभाव एव किंतु शरीरयात्रापि शरीरस्थितिरपि च ते प्रकर्षेण स्वधर्मवृत्त्या न सिध्येदकर्मणः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।3.8।।अतो नियतं वर्णाश्रमोचितं कर्म कुरु।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।3.8।।नियतमिति। यस्मादेवं तस्मात्त्वं नियतं संध्योपासनादिकर्मैव कुरु। यद्वा नियतं नियमेन त्वं कर्म नित्यकाम्यसाधारणं यत्पापनिवर्त्तकस्वभावं तत्तदेव कुरु। हि यस्मादकर्मणः सकलकर्मेन्द्रियनिग्रहेण तदकरणाच्चित्तजयशून्यात्कर्मैव ज्यायः प्रशस्ततरम्। अपि च ते तव क्षत्रियस्य अकर्मणः सत्यामपि चित्तशुद्धौ सर्वकर्मत्यागिनः शरीरयात्रा देहव्यवहारो न प्रसिध्येत्। भैक्ष्यचर्यायामनधिकारात्ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति इति संन्यासविधायके वाक्येराजा राजसूयेन स्वाराज्यकामो यजेत इत्यत्र राजपदवद्ब्राह्मणपदस्य विवक्षितस्वार्थत्वात्चत्वार आश्रमा ब्राह्मणस्य त्रयो राजन्यस्य द्वौ वैश्यस्य इति स्मृतेश्च। अन्यत्राप्युक्तं पारिव्राज्यं प्रकृत्यमुखजानामयं धर्मो वैष्णवं लिङ्गधारणम्। बाहुजातोरुजातानां नायं धर्मो विधीयते। इति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।3.8।। नियतं व्याप्तम् प्रकृतिसंसृष्टेन हि व्याप्तं कर्म प्रकृतिसंसृष्टत्वम् अनादिवासनया। नियतत्वेन सुशकत्वाद् असंभावितप्रमादत्वाच्च कर्मणः कर्म एव कुरु अकर्मणः ज्ञाननिष्ठाया अपि कर्म एव ज्यायः नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते (गीता 3।4) इति प्रक्रमात् अकर्मशब्देन ज्ञाननिष्ठा एव उच्यतेज्ञाननिष्ठाधिकारिणः अपि अनभ्यस्तपूर्वतया हि अनियतत्वेन दुःशकत्वात् सप्रमादत्वाच्च ज्ञाननिष्ठायाः कर्मनिष्ठा एव ज्यायसी।कर्मणि क्रियमाणे च आत्मयाथात्म्यज्ञानेन आत्मनः अकर्तृत्वानुसंधानम् अनन्तरम् एव वक्ष्यते अत आत्मज्ञानस्य अपि कर्मयोगान्तर्गतत्वात् स एव ज्यायान् इत्यर्थः।कर्मणो ज्ञाननिष्ठाया ज्यायस्त्ववचनं ज्ञाननिष्ठायाम् अधिकारे सति एव उपपद्यते। यदि सर्वं कर्म परित्यज्यकेवलं ज्ञाननिष्ठायाम् अधिकरोषि तर्हि अकर्मणः ते ज्ञाननिष्ठस्य ज्ञाननिष्ठोपकारिणी शरीरयात्रा अपि न सेत्स्यति।यावत्साधनसमाप्ति शरीरधारणं च अवश्यं कार्यम् न्यायार्जितधनेन महायज्ञादिकं कृत्वा तच्छिष्टाशनेन एव शरीरधारणं कार्यम्आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। (छा0 उ0 7।26।2) इत्यादिश्रुतेः।भुञ्जते ते त्वघं पापाः (गीता 3।13) इति च वक्ष्यते। अतो ज्ञाननिष्ठस्य अपि कर्म अकुर्वतो देहयात्रा न सेत्स्यति।यतो ज्ञाननिष्ठस्य अपि ध्रियमाणशरीरस्य यावत्साधनसमाप्ति महायज्ञादिनित्यनैमित्तिकं कर्म अवश्यं कार्यम्। यतश्च कर्मयोगे अपि आत्मनः अकर्तृत्वभावनया आत्मयाथात्म्यानुसन्धानम् अन्तर्भूतम् यतश्च प्रकृतिसंसृष्टस्य कर्मयोगः सुशकः अप्रमादश्च अतो ज्ञाननिष्ठायोग्यस्य अपि ज्ञानयोगात् कर्मयोगो ज्यायान्। तस्मात् त्वं कर्मयोगम् एव कुरु इत्यभिप्रायः।एवं तर्हि द्रव्यार्जनादेः कर्मणः अहङ्कारममकारादिसर्वेन्द्रियव्याकुलतागर्भत्वेन अस्य पुरुषस्य कर्मवासनया बन्धनं भविष्यति इति अत्र आह

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।3.8।।यस्मादेवं तस्मात् नियतमिति। नियतं नित्यं संध्योपासनादिकर्म कुरु। हि यस्मादकर्मणः कर्माकरणात्सकाशात्कर्म ज्यायोऽधिकतरम्। अन्यथा कर्मणः सर्वकर्मशून्यस्य तव शरीरनिर्वाहोऽपि न भवेत्।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।3.8।।अथ सौकर्यनिष्प्रमादत्वदुस्त्यजत्वादिहेतुभिः कर्मयोगस्यैव ज्यायस्त्वं दर्शयन्ज्यायसी चेत्कर्मणः 3।1 इत्यादेः साक्षादुत्तरमाह नियतमित्यादिना। नियतशब्दस्य मन्दप्रयोजनात् क्रियाविशेषणत्वादपि प्रभूतप्रयोजनसमानाधिकरणकर्मविशेषणत्वमेवोचितम्। ततश्च कर्मणो नियतत्वं स्वभावतः शास्त्रतो वा स्यात् उभयतो वा। तत्रैकस्मिन्नुभयविवक्षाक्लृप्तिस्तावद्गरीयसी।शरीरयात्रा इत्यत्र तु शास्त्रीयकर्मणि नियमाभिप्रायो व्याख्यास्यते अतोऽत्र स्वभावतो नियतत्वं विवक्षितम्। ज्ञाननिष्ठाया दुष्करत्वे प्रस्तुते कर्मनिष्ठायां सौकर्यमेव चानन्तरं वक्तुमुचितमित्येतदखिलमभिप्रेत्याह नियतं व्याप्तमित्यादि। केन किन्निबन्धना व्याप्तिः इत्यत्राह प्रकृतिसंसृष्टेनेति।अकर्मणः इतिपदे नञस्तदन्यविषयत्वं विभक्तेश्च पञ्चमीत्वेनावधिविषयत्वं व्यञ्जयति ज्ञाननिष्ठाया अपीति। अत्राकर्मशब्दस्य ज्ञाननिष्ठाविषयत्वं कथम्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि 2।47 इत्यत्र हि स एव कर्माभावविषयतया व्याख्यातः तद्वदत्रापि अनुष्ठानत्यागे प्रसक्ते तस्मादनुष्ठानमेव ज्याय इति वक्तुमुचितमित्यत्राह नैष्कर्म्यमिति। अत्र उपक्रमे कर्मयोगज्ञानयोगयोः तारतम्यमनुयुक्तम् तस्यैव चोत्तरमिह विवक्षितम्। मुमुक्षुसाध्यत्वेन निर्दिष्टस्य नैष्कर्म्यस्य सुषुप्त्यादिसुलभकर्माभावत्वं चायुक्तम् कर्मानारम्भान्नैष्कर्म्यमित्यत्र साध्याविशेषप्रसङ्गाच्च। अतो ज्ञाननिष्ठैवात्राकर्मशब्देनाभिधीयत इत्यर्थः। कर्मनिष्ठाया ज्यायस्त्वे वक्ष्यमाणं हेत्वन्तरमाह कर्मणि क्रियमाणे चेत्यादिना। अनन्तरमेवेत्यासन्नत्वाभिधानेन तस्येहाभिप्रेतत्वं दर्शितम्। ज्ञानयोगशक्तस्यापि कर्मयोगानुष्ठानायाभिप्रायिकमर्थमाह कर्मण इति। इहज्ञाननिष्ठाया इति पञ्चमी अप्रसक्तप्रतियोगिकं ज्यायस्त्ववचनमयुक्तमिति भावः। उत्तरार्धस्यावतारमाह यदीति। अत्र त्वकर्मण इति बहुव्रीहिः।ते इत्यनेन सामानाधिकरण्यादिति व्यञ्जनायअकर्मणस्ते ज्ञाननिष्ठस्येत्युक्तम्। ननु सर्वकर्मपरित्यागिनो यदि शरीरयात्राऽपि न स्यात्ततो लब्धोपायस्य स्वरसतः प्रतिबन्धनिवृत्तेरयत्नलभ्यैव मुक्तिः स्यादित्याशङ्क्याह यावदिति। नहि साधनानुप्रवेशमात्रात् फलसिद्धिः किन्तु साधनसम्पूर्तेरिव सा च न त्रिचतुरदिवसलभ्या येन शरीरमुपेक्षेमहि। चिरकालसाध्यायां च साधनसम्पूर्तौ तावन्तं कालं शरीरमप्यवश्यं रक्षणीयम्। अनिष्पन्नोपायस्यौदासीन्यात् तत्परित्यागे प्रत्यवायोऽपि स्यादिति भावः। अस्तु शरीरधारणमपेक्षितम् तथापि तन्न स्वेच्छया चिरकालं कर्तुं शक्यम् नाप्यौदासीन्यमात्रान्निवृत्तिः आरम्भककर्मविशेषेण शरीरस्य नियतावधिकत्वात् स्मरन्ति च कर्मणां प्रतिनियतानिविवाहो जन्म मरणं इत्यादीनि। अस्तु वा स्वेच्छया शरीरधारणम् तथापि यत्किञ्चिल्लौकिकर्मणैवतत्सुशकमित्यत्राह न्यायार्जितेति।अयमभिप्रायः द्विविधानि कर्मफलानि नियतानि अनियतानि चेति प्रबलशापादिसम्भवानि नियतानि इतराण्यनियतानि। अनियतत्वं च तेषां देशकालाद्यपेक्षया न तु स्वरूपतः येन कर्मणां निष्फलत्वप्रसङ्गः स्यात्। ततश्च यान्यत्रानियतानि तत्र स्वव्यापारविषयता यान्यधिकृत्य प्रायश्चित्तमन्त्रौषधनीतिशास्त्रादीनि। अन्यथा विजिगीषुभिरुपपन्नपरिपन्थिभिरपि न चतुरङ्गादिकमङ्गीक्रियेत आतुरैरपि न भेषजमुपभुज्येत स्वेच्छया किञ्चित्करणाभावे स्वारसिककर्तृत्वाभावाच्छास्त्रस्याप्यनुदयः अत एवंज्ञानयोगमारुरुक्षता त्वया कर्मवश्यत्वमेव जगतो निवर्तितमिति सम्यगयत्नसिद्धो मोक्षः समर्थित इति भावः। एवं शरीरधारणाभावे स्वारसिकं विशरारुत्वं द्योतयति शरीरशब्दः। एवकारेण न्यायार्जनयज्ञशिष्टाशनादेर्नियमविधित्वं द्योतितम्। एवंविधा च शरीरयात्रा ज्ञानयोगसाध्यभक्तियोगदशायामप्यविच्छेद्येत्यभिप्रायेण आहाराशुद्धिश्रुत्युपादानम्। श्रौतस्यार्थस्यात्रापि विवक्षितत्वज्ञापनाय वक्ष्यमाणतामाह ते त्वघमिति। पूर्वोपपादितान् हेतून्बुद्धिस्थक्रमेण विविच्योद्गृह्णन्नाभिप्रायिकं शाब्दं चाखिलमर्थं सुखग्रहणाय सङ्कलय्य दर्शयति यत इति। ज्ञाननिष्ठायोग्यस्यापि कर्मयोगो ज्यायान् तस्मात्त्वं ज्ञानयोगयोग्योऽपि कर्मयोगमधिकुर्विति वा न त्वमिदानीं ज्ञानयोगयोग्यः अतः कैमुत्यात् कर्मयोगमेव कुर्विति वा त्वंशब्दाभिप्रायः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।3.8।।अतः नियतमिति। नियतं शास्त्रीयं कर्म कुरु। शरीरयात्रामात्रस्यापि कर्माधीनत्वात्।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।3.8।।उत्तरश्लोकपर्यालोचनया चैवमेवेति भावेन सङ्गतिं सूचयन् व्याचष्टे अत इति। अतश्शब्दपरामर्श्यं कर्म ज्याय इत्यादिनैवोच्यते।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।3.8।।यस्मादेवं तस्मान्मनसा ज्ञानेन्द्रियाणि निगृह्य कर्मेन्द्रियैः त्वं प्रागननुष्ठितशुद्धिहेतुकर्मा नियतं विध्युद्देशे फलसंबन्धशून्यता नियतनिमित्तेन कर्म श्रौतं स्मार्तं च नित्यमिति प्रसिद्धं कुरु। कुर्विति मध्यमपुरुषप्रयोगेणैव त्वमिति लब्धे त्वमिति पदमर्थान्तरे संक्रमितम्। कस्मादशुद्धान्तःकरणेन कर्मैव कर्तव्यम् हि यस्मात् अकर्मणोऽकरणात्कर्मैव ज्यायः प्रशस्यतरम्। न केवलं कर्माभावे तवान्तःकरणशुद्धिरेव न सिध्येत् किन्तु अकर्मणो युद्धादिकर्मरहितस्य ते तव शरीरयात्रा शरीरस्थितिरपि न प्रकर्षेण क्षात्रवृत्तिकृतत्वलक्षणेन सिध्येत्। तथाच प्रागुक्तम्। अपिचेत्यन्तःकरणशुद्धिसमुच्चयार्थः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।3.8।।यस्माल्लौकिकफलोत्पत्त्यर्थं कर्तुर्न फलमलौकिकं मदर्थं कर्मकर्तुरुत्तमं फलमतस्त्वं मदर्थं नियतं कर्म कुर्वित्याह नियतमिति। त्वं नियतं नित्यं मत्सेवादिरूपं कर्म कुरु। पूर्वोक्तन्यायेन मदर्थं वा यतोऽकर्मणः कर्मत्यागकर्तुर्ज्ञानवतः सकाशात् कर्म मत्सेवादिरूपं ज्याय अधिकतरम्। किञ्च ते मदर्थं मत्क्रीडार्थं गृहीतशरीरकार्यम्। अकर्मणः सेवादिरहितज्ञानमार्गे प्रपन्नस्य प्रकर्षण न सिद्ध्येत् न सेत्स्यतीत्यर्थः। ज्ञानमार्गेऽपि ज्ञानप्राप्तिपर्यन्तं शरीराऽपेक्षास्ति तदनन्तरं तु नापेक्षा भक्तिमार्गवत्अक्षण्वतां फलमिदं भाग.10।21।7 इति न्यायेन। तस्मात्सर्वात्मना सेन्द्रियशरीरकार्यसिद्धौ प्रकर्ष इति भावः। अत एव वियोगक्लेशादिरससिद्ध्यर्थं शरीरपदमुक्तम्।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।3.8।। नियतं नित्यं शास्त्रोपदिष्टम् यो यस्मिन् कर्मणि अधिकृतः फलाय च अश्रुतं तत् नियतं कर्म तत् कुरु त्वं हे अर्जुन यतः कर्म ज्यायः अधिकतरं फलतः हि यस्मात् अकर्मणः अकरणात् अनारम्भात्। कथम् शरीरयात्रा शरीरस्थितिः अपि च ते तव न प्रसिध्येत् प्रसिद्धिं न गच्छेत् अकर्मणः अकरणात्। अतः दृष्टः कर्माकर्मणोर्विशेषो लोके।।यच्च मन्यसे बन्धार्थत्वात् कर्म न कर्तव्यमिति तदप्यसत्। कथम्

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।3.8।।यतस्त्वं कर्मयोगे कर्माधिकारी भवसीत्यतो नियतं कर्म कुरु। अकर्मणस्तज्ज्यायः। न हि कर्म विना किञ्चिच्छरीरयात्रादिकमपि सिद्ध्यतीत्यतः कर्मैव भगवदीयेनाऽसक्ततया कार्यम्।