यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।3.9।।
yajñārthāt karmaṇo ’nyatra loko ’yaṁ karma-bandhanaḥ tad-arthaṁ karma kaunteya mukta-saṅgaḥ samāchara
The world is bound by actions other than those performed for the sake of sacrifice; do thou, therefore, O son of Kunti (Arjuna), perform actions for that sake alone, free from attachment.
3.9 यज्ञार्थात् for the sake of sacrifice? कर्मणः of action? अन्यत्र otherwise? लोकः the world? अयम् this? कर्मबन्धनः bound by action? तदर्थम् for that sake? कर्म action? कौन्तेय O Kaunteya? मुक्तसंगः free from attachment? समाचार perform.Commentary Yajna means sacrifice or religious rite or any unselfish action done with a pure motive. It means also Isvara. The Taittiriya Samhita (of the Veda) says Yajna verily is Vishnu (174). If anyone does actions for the sake of the Lord? he is not bound. His heart is purified by performing actions for the sake of the Lord. Where this spirit of unselfishness does not govern the action? it will bind one to Samsara however good or glorious it may be. (Cf.II.48).
3.9।। व्याख्या--'यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र' गीताके अनुसार कर्तव्यमात्रका नाम 'यज्ञ' है। 'यज्ञ' शब्दके अन्तर्गत यज्ञ, दान, तप, होम, तीर्थ-सेवन, व्रत, वेदाध्ययन आदि समस्त शारीरिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक क्रियाएँ आ जाती हैं। कर्तव्य मानकर किये जानेवाले व्यापार, नौकरी, अध्ययन, अध्यापन आदि सब शास्त्रविहित कर्मोंका नाम भी यज्ञ है। दूसरोंको सुख पहुँचाने तथा उनका हित करनेके लिये जो भी कर्म किये जाते हैं वे सभी यज्ञार्थ कर्म हैं। यज्ञार्थ कर्म करनेसे आसक्ति बहुत जल्दी मिट जाती है तथा कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं (गीता 4। 23) अर्थात् वे कर्म स्वयं तो बन्धनकारक होते नहीं, प्रत्युत पूर्वसंचित कर्मसमूहको भी समाप्त कर देते हैं।वास्तवमें मनुष्यकी स्थिति उसके उद्दश्यके अनुसार होती है, क्रियाके अनुसार नहीं। जैसे व्यापारीका प्रधान उद्देश्य धन कमाना रहता है; अतः वास्तवमें उसकी स्थिति धनमें ही रहती है और दुकान बंद करते ही उसकी वृत्ति धनकी तरफ चली जाती है। ऐसे ही यज्ञार्थ कर्म करते समय कर्मयोगीकी स्थिति अपने उद्देश्य--परमात्मामें ही रहती है और कर्म समाप्त करते ही उसकी वृत्ति परमात्माकी तरफ चली जाती है। सभी वर्णोंके लिये अलग-अलग कर्म हैं। एक वर्णके लिये कोई कर्म स्वधर्म है तो वही दूसरे वर्णोंके लिये (विहित न होनेसे) परधर्म अर्थात् अन्यत्र कर्म हो जाता है; जैसे --भिक्षासे जीवन-निर्वाह करना ब्राह्मणके लिये तो स्वधर्म है, पर क्षत्रियके लिये परधर्म है। इसी प्रकार निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करना मनुष्यका स्वधर्म है और सकामभावसे कर्म करना परधर्म है। जितने भी सकाम और निषिद्ध कर्म हैं वे सब-के-सब 'अन्यत्र-कर्म' की श्रेणीमें ही हैं। अपने सुख मान बड़ाई आराम आदिके लिये जितने कर्म किये जायँ वे सबकेसब भी अन्यत्रकर्म हैं (टिप्पणी प0 126)। अतः छोटा-से-छोटा तथा बड़ा-से़-बड़ा जो भी कर्म किया जाय, उसमें साधकको सावधान रहना चाहिये कि कहीं किसी स्वार्थकी भावनासे तो कर्म नहीं हो रहा है ! साधक उसीको कहते हैं, जो निरन्तर सावधान रहता है। इसलिये साधकको अपनी साधनाके प्रति सतर्क, जागरूक रहना ही चाहिये। 'अन्यत्र-कर्म' के विषयमें दो गुप्त भाव--(1) किसीके आनेपर यदि कोई मनुष्य उसके प्रति 'आइये ! बैठिये ! 'आदि आदरसूचक शब्दोंका प्रयोग करता है, पर भीतरसे अपनेमें सज्जनताका आरोप करता है अथवा 'ऐसा कहनेसे आनेवाले व्यक्तिपर मेरा अच्छा असर पड़ेगा'--इस भावसे कहता है तो इसमें स्वार्थकी भावना छिपी रहनेसे यह 'अन्यत्र-कर्म' ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं। (2) सत्सङ्ग, सभा आदिमें कोई व्यक्ति मनमें इस भावको रखते हुए प्रश्न करता है कि वक्ता और श्रोतागण मुझे अच्छा जानकार समझेंगे तथा उनपर मेरा अच्छा असर पड़ेगा तो यह 'अन्यत्र-कर्म' ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं।तात्पर्य यह है कि साधक कर्म तो करे, पर उसमें स्वार्थ, कामना आदिका भाव नहीं रहना चाहिये। कर्मका निषेध नहीं है, प्रत्युत सकामभावका निषेध है।साधकको भोग और ऐश्वर्य-बुद्धिसे कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसी बुद्धिमें भोगसक्ति और कामना रहती है, जिससे कर्मयोगका आचरण नहीं हो पाता। निर्वाह-बुद्धिसे कर्म करनेपर भी जीनेकी कामना बनी रहती है। अतः निर्वाह-बुद्धि भी त्याज्य है। साधकको केवल साधनबुद्धिसे ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये। सबसे उत्तम साधक तो वह है, जो अपनी मुक्तिके लिये भी कोई कर्म न करके केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है। कारण कि अपना हित दूसरोंके लिये कर्म करनेसे होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं। दूसरोंके हितमें ही अपना हित है। दूसरोंके हितसे अपना हित अलग अलग मानना ही गलती है। इसलिये लौकिक तथा शास्त्रीय जो कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब केवल लोक-हितार्थ होने चाहिये। अपने सुखके लिये किया गया कर्म तो बन्धनकारक है ही, अपने व्यक्तिगत हितके लिये किया गया कर्म भी बन्धनकारक है। केवल अपने हितकी तरफ दृष्टि रखनेसे व्यक्तित्व बना रहता है। इसलिये और तो क्या, जप, चिन्तन, ध्यान, समाधि भी केवल लोकहितके लिये ही करे। तात्पर्य यह कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण--तीनों शरीरोंसे होनेवाली मात्र क्रिया संसारके लिये ही हो, अपने लिये नहीं। 'कर्म' संसारके लिय है और संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर परमात्माके साथ 'योग' अपने लिये है। इसीका नाम है--कर्मयोग। 'लोकोऽयं कर्मबन्धनः'-- कर्तव्य-कर्म (यज्ञ) करनेका अधिकार मुख्यरूपसे मनुष्यको ही है। इसका वर्णन भगवान्ने आगे सृष्टिचक्रके प्रसङ्ग (3। 14 16) में भी किया है। जिसका उद्देश्य प्राणिमात्रका हित करना, उनको सुख पहुँचाना होता है, उसीके द्वारा कर्तव्य-कर्म हुआ करते हैं। जब मनुष्य दूसरोंके हितके लिये कर्म न करके केवल अपने सुखके लिये कर्म करता है, तब वह बँध जाता है।आसक्ति और स्वार्थभावसे कर्म करना ही बन्धनका कारण है। आसक्ति और स्वार्थके न रहनेपर स्वतः सबके हितके लिये कर्म होते हैं। बन्धन भावसे होता है क्रियासे नहीं। मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत कर्मोंमें वह जो आसक्ति और स्वार्थभाव रखता है, उनसे ही वह बँधता है।'तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर'-- यहाँ 'मुक्तसङ्गः'पदसे भगवान्का यह तात्पर्य है कि कर्मोंमें, पदार्थोंमें तथा जिनसे कर्म किये जाते हैं, उन शरीर, मन, बुद्धि आदि सामग्रीमें ममता-आसक्ति होनेसे ही बन्धन होता है। ममता, आसक्ति रहनेसे कर्तव्य-कर्म भी स्वाभाविक एवं भलीभाँति नहीं होते। ममता-आसक्ति न रहनेसे परहितके लिये कर्तव्य-कर्मका स्वतः आचरण होता है और यदि कर्तव्य-कर्म प्राप्त न हो तो स्वतः निर्विकल्पतामें, स्वरूपमें स्थिति होती है। परिणामस्वरूप साधन निरन्तर होता है ओर असाधन कभी होता ही नहीं। आलस्य और प्रमादके कारण नियत कर्मका त्याग करना 'तामस त्याग' कहलाता है (गीता 18। 7), जिसका फल मूढ़ता अर्थात् मूढ़योनियोंकी प्राप्ति है--'अज्ञानं तमसः फलम्'(गीता 14। 16)। कर्मोंको दुःखरूप समझकर उनका त्याग करना'[राजस त्याग' कहलाता है (गीता 18। 8) जिसका फल दुःखोंकी प्राप्ति है--'रजसस्तु फलं दुःखम्' (गीता 14। 16)। इसलिये यहाँ भगवान् अर्जुनको कर्मोंका त्याग करनेके लिये नहीं कहते, प्रत्युत स्वार्थ, ममता, फलासक्ति, कामना, वासना, पक्षपात आदिसे रहित होकर शास्त्रविधिके अनुसार सुचारुरूपसे उत्साहपूर्वक कर्तव्य-कर्मोंको करनेकी आज्ञा देते हैं, जो 'सात्त्विक त्याग' कहलाता है (गीता 18। 9)। स्वयं भगवान् भी आगे चलकर कहते हैं कि मेरे लिये कुछ भी करना शेष नहीं है, फिर भी मैं सावधानीपूर्वक कर्म करता हूँ (3। 2223)। कर्तव्य-कर्मोंका अच्छी तरह आचरण करनेमें दो कारणोंसे शिथिलता आती है--(1) मनुष्यका स्वभाव है कि वह पहले फलकी कामना करके ही कर्ममें प्रवृत्त होता है। जब वह देखता है कि कर्मयोगके अनुसार फलकी कामना नहीं रखनी है तब वह विचार करता है कि कर्म ही क्यों करूँ (2) कर्म आरम्भ करनेके बाद जब अन्तमें उसे पता लग जाय कि इसका फल विपरीत होगा तब वह विचार करता है कि मैं कर्म तो अच्छासेअच्छा करूँ पर फल विपरीत मिले तो फिर कर्म करूँ ही क्योंकर्मयोगी न तो कोई कामना करता है और न कोई नाशवान् फल ही चाहता है वह तो मात्र संसारका हित सामने रखकर ही कर्तव्यकर्म करता है। अतः उपर्युक्त दोनों कारणोंसे उसके कर्तव्यकर्ममें शिथिलता नहीं आ सकती।
।।3.9।। प्रत्येक कर्म कर्त्ता के लिये बन्धन उत्पन्न नहीं करता। केवल अविवेकपूर्वक किये हुये कर्म ही मन में वासनाओं की वृद्धि करके परिच्छिन्न अहंकार और अपरिच्छिन्न आत्मस्वरूप के मध्य एक अभेद्य दीवार खड़ी कर देते हैं। वासनाओं से पूर्ण अन्तकरण वाले व्यक्ति में दिव्यत्व का कोई प्रकाश नहीं दिखाई देता। पारम्परिक अर्थानुसार यज्ञ के अतिरिक्त जो अन्य कर्म हैं वे वासनाओं को उत्पन्न कर व्यक्ति के विकास में अवरोधक बन जाते हैं।यहां यज्ञ शब्द का अर्थ है वे सब कर्म जिन्हें मनुष्य निस्वार्थ भाव एवं समर्पण की भावना से विश्व के कल्याण के लिये करता है। ऐसे कर्म व्यक्ति के पतन में नहीं वरन् उत्थान में ही सहायक होते हैं। यज्ञ शब्द का उपर्युक्त अर्थ समझ लेने पर आगे के श्लोक और अधिक स्पष्ट होंगे और उनमें उपदिष्ट ज्ञान सम्पूर्ण विश्व के उपयुक्त होगा।जब समाज के लोग आगे आकर परस्पर सहयोग एवं समर्पण की भावना से कर्म करेंगे केवल तभी वह समाज दारिद्रय और दुखों के बन्धनों से मुक्त हो सकता है यह एक ऐतिहासिक सत्य है। ऐसे कर्मों का सम्पादन अनासक्ति के होने से ही संभव होगा। अर्जुन में यह दोष आ गया था कि वह विरुद्ध पक्ष के व्यक्तियों के साथ अत्यन्त आसक्त हो गया और परिणामस्वरूप परिस्थिति को ठीक समझ नहीं पाया इसलिये समसामयिक कर्तव्य का त्याग कर कर्मक्षेत्र से पलायन करने की उसकी प्रवृत्ति हो गयी।कर्ममार्ग के अधिकारी व्यक्ति को निम्नलिखित कारणों से भी कर्म करना चाहिये
।।3.9।।कर्मणा बध्यते जन्तुः इति स्मृतेर्बन्धार्थं कर्म तन्न श्रेयोऽर्थिना कर्तव्यमित्याशङ्कामनमूद्य दूषयति यच्चेत्यादिना। कर्माधिकृतस्य तदकरणमयुक्तमिति प्रतिज्ञातं प्रश्नपूर्वकं विवृणोति कथमित्यादिना। फलाभिसन्धिमन्तरेण यज्ञार्थं कर्म कुर्वाणस्य बन्धाभावात्तादर्थ्येन कर्म कर्तव्यमित्याह तदर्थमिति। यज्ञार्थं कर्मेत्ययुक्तं नहि कर्मार्थमेव कर्मेत्याशङ्क्य व्याचष्टे यज्ञो वै विष्णुरिति। कथं तर्हि कर्मणा बध्यते जन्तुरिति स्मृतिस्तत्राह तस्मादिति। ईश्वरार्पणबुद्ध्या कृतस्य कर्मणो बन्धार्थत्वाभावे फलितमाह अत इति।
।।3.9।। ननुकर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते इति स्मृत्या यच्च मन्यसे बन्धार्थत्वात्कर्म न कर्तव्यमिति तदप्यसदित्याह यज्ञेति। यज्ञार्थादीश्वरार्थात्।यज्ञो वै विष्णुः इति श्रुतेः कर्मणोऽन्यत्रान्येन कर्मणाऽयं लोकः कर्म बन्धनं यस्य सः। ये त्वन्यत्र कर्मणि प्रवृत्तोऽयं लोकः कर्मणा बध्यत इति भाष्यविरुद्धं वर्णयन्ति तैः प्रवृत्तपदाध्याहारदोषः कर्मण्यनुशासनाभावाद्बहुलग्रहणस्यागतिकगतित्वात् ल्युडनुपपत्तिदोषो बहुव्रीह्यभावेन पुंलिङ्गानुपपत्तिदोषश्च परिहरणीयः। तस्मात्कर्मफलासंगवर्जितःसन् कर्म समाचर। कौन्तेयेति संबोधयन् स्वपक्षग्रहण उत्साहयति।
।।3.9।।कर्मणा बध्यते जन्तुः म.भा.12।241।7 इति कर्म बन्धकं स्मृतमित्यत आह यज्ञार्थादिति। कर्म बन्धनं यस्य लोकस्य स कर्मबन्धनः। यज्ञो विष्णुः यज्ञार्थं सङ्गरहितं कर्म न बन्धकमित्यर्थः।मुक्तसङ्ग इति सङ्ग विशेषणात् कामान्यः कामयते मुं.उ.3।2।2 इति श्रुतेश्चअनिष्टमिष्टं 18।12 इति वक्ष्यमाणत्वाच्चएतान्यपि तु कर्माणि 18।6 इति च तस्मान्नेष्टियाजुकः स्यात् बृ.उ.1।5।2 इति च विशेषवचनत्वे समेऽपि विशेषणं परिशिष्यते।
।।3.9।।ननुकर्मणा बध्यते जन्तुः इति कर्मणां बन्धकत्वस्मृतेः कथं मुमुक्षुं मां तत्र नियोजयसीत्याशङ्क्याह यज्ञार्थादिति। यज्ञः परमेश्वराराधनंयज्ञ देवपूजायाम् इति धात्वर्थानुगमात्। तदर्थंयज्ञो वै विष्णुः इति श्रुतेर्विष्णुर्वा तदाराधनार्थं यत्कर्म ततोऽन्यत्र कर्मणि स्वर्गाद्यर्थे प्रवृत्तोऽयं लोकः कर्मबन्धनः कर्मणा बध्यते नत्वीश्वराराधनार्थेन। अतस्तदर्थं ईश्वराराधनार्थं कर्म वर्णाश्रमोचितं हे कौन्तेय मुक्तसङ्गः फलाभिलाषशून्यः सन् समाचर सम्यक्कुरु।
।।3.9।।यज्ञादिशास्त्रीयकर्मशेषभूताद् द्रव्यार्जनादेः कर्मणः अन्यत्र आत्मीयप्रयोजनशेषभूते कर्मणि क्रियमाणे अयं लोकः कर्मबन्धनो भवति। अतः त्वं यज्ञाद्यर्थं द्रव्यार्जनादिकं कर्म समाचर तत्र आत्मप्रयोजनसाधनतया यः सङ्गः तस्मात् सङ्गात् मुक्तः सन् समाचर।एवं मुक्तसङ्गेन यज्ञाद्यर्थतया कर्मणि क्रियमाणे यज्ञादिभिः कर्मभिः आराधितः परमपुरुषः अस्य अनादिकालप्रवृत्तकर्मवासनां समुच्छिद्य अव्याकुलात्मावलोकनं ददाति इत्यर्थः।यज्ञशिष्टेन एव सर्वपुरुषार्थसाधननिष्ठानां शरीरधारणकर्तव्यताम् अयज्ञशिष्टेन शरीरधारणं कुर्वतां दोषं च आह
।।3.9।।सांख्यास्तु सर्वमपि कर्म बन्धकत्वान्न कार्यमित्याहुस्तन्निराकुर्वन्नाह यज्ञार्थादिति। यज्ञोऽत्र विष्णुः।यज्ञो वै विष्णुःइति श्रुतेः। तदाराधनार्थात्कर्मणोऽन्यत्र तदेकं विनाऽयं लोकः कर्मबन्धनः कर्मभिर्बध्यते न त्वीश्वराराधनार्थेन कर्मणा। अतस्तदर्थ विष्णुप्रीत्यर्थं मुक्तसङ्गो निष्कामः सन्कर्म सम्यगाचर।
।।3.9।।यज्ञार्थात् इति श्लोकः कर्मविधिनिषेधयोर्विषयव्यवस्थापक इति ज्ञापयितुं शङ्कते एवं तर्हीति।द्रव्यार्जनादेरित्यत्रादिशब्देन महायज्ञादिग्रहणम्।ममकारादीत्यत्र तु रागद्वेषाभिनिवेशवचनादानविहरणादिग्रहः। अहङ्कारममकारादेर्मनोवृत्तिविशेषत्वादिन्द्रियव्याकुलतारूपत्वोक्तिः।अस्य पुरुषस्येति मुमुक्षोरपीति भावः।कर्मवासनयेति प्राचीनयाऽनुपरतयाऽद्यतनव्यापाराभ्यासोपबृंहितया चेति भावः।बन्धनं भविष्यतीति उत्तरोत्तरशरीरबन्धादिना संसारानुवृत्तिप्रसङ्ग इत्यर्थः। अत्रयज्ञो वै विष्णुः तै.सं.1।7।4 इति श्रुतेःयज्ञ ईश्वरः इति परैर्व्याख्यातम् तच्चाविरुद्धमस्माकम् तथापि समनन्तरश्लोकपठितयज्ञशब्दैकार्थ्यमुचितमित्यभिप्रायेणाह यज्ञादिशास्त्रीयकर्मेति। यज्ञादीत्यादिशब्देन यज्ञशब्दस्योपलक्ष्यपरत्वं ज्ञाप्यते। शास्त्रीयकर्मशब्देनोपलक्षणोपलक्ष्याणां सामान्यतः सङ्ग्राहकाकारं तदर्थकर्मणो निर्दोषत्वहेतुं च दर्शयति।यज्ञार्थात् यज्ञप्रयोजनात्। तदिदं दर्शितंशेषभूतादिति। कर्मैव बन्धनं कर्मणा वा बन्धनं यस्य स कर्मबन्धनः तस्य च बन्धकत्वं स्ववासनाद्वारा न पुनः पापतया अविहितप्रतिषिद्धविषयत्वादत्र कर्मबन्धनशब्दस्य।अस्य पुरुषस्य कर्मवासनया बन्धनं भविष्यति इति शङ्काग्रन्थेनायमर्थो दर्शितः। लोकोऽत्र संसारिचेतनवर्गः।अत इति। यज्ञार्थस्य कर्मणो बन्धहेतुत्वभावादित्यर्थः। द्रव्यादिलाभहेतुभूतयुद्धप्रोत्साहनव्यक्त्यर्थंद्रव्यार्जनादिकमित्युक्तम्। तादर्थ्यं सङ्गत्यागश्चेत्युभयमपि विधेयमिति ज्ञापनाय पृथग्वाक्यकरणम्।कर्तृत्वफलत्यागयोर्विलक्षणं सङ्गत्यागस्य स्वरूपं दर्शयति तत्रेति। यत्किञ्चित्प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते इति चेत् सत्यं प्रयोजनसाधनत्वबुद्ध्यभावेऽपि सुहृदुपचारवद्भगवत्समाराधनरूपतया स्वरूपेण प्रयोजनत्वबुद्ध्या प्रवृत्त्युपपत्तिः।मुक्तसङ्गं इत्यत्र सङ्गस्य बन्धकत्वविवक्षयासङ्गान्मुक्त इत्युक्तम्। प्रकृतचोद्यस्यादृष्टद्वारा फलप्रदत्वेन परिहारं वदन्नतदर्थस्य बन्धहेतुत्वोक्त्या फलितं तदर्थस्य मोक्षहेतुत्वप्रकारं दर्शयति एवमिति। एतेन कर्मणामप्रामाणिकापूर्वद्वारा फलप्रदत्वमिति कुदृष्टिमतं निरस्तम् आर्थवादिकापेक्षितदेवताप्रीतिद्वारैव फलप्रदत्वोपपत्तौ स एनं प्रीतः प्रीणाति यजुः5।5।10।48 इत्यादिश्रुतहानाश्रुतकल्पनाद्यनुपपत्तेः।कर्मभिराराधित इत्यनेन हविर्ग्रहणं प्रीतिश्चाभिप्रेतेपरमपुरुष इति तदविनाभूतादित्यवर्णादिश्रुतिसिद्धविग्रहविशेषवत्त्वं सर्वब्रह्माण्डयुगपत्कर्मसन्निधिशक्तिश्चददातीति वरप्रदत्वमिति विग्रहादिपञ्चकप्रदर्शनम्।कर्मवासनां समुच्छिद्येति विपरीतवास नाचोद्यं परिहृतम्।
।।3.9।।यतः यज्ञार्थात् इति। यज्ञार्थात् अवश्यकरणीयात् अन्यानि कर्माणि बन्धकानि। अवश्यकर्तव्यं ( omits अवश्यकर्तव्यम्) मुक्तफलसंगतया क्रियमाणं न फलदम्।
।।3.9।।इदानीं तृतीयं पक्षमाशङ्क्य तत्परिहाराय श्लोकमवतारयति कर्मणेति। बन्धकं मोक्षस्य प्रतिबन्धकं अतो न करोमीति शेषः। तत्पुरुषत्वभ्रान्तिनिरासायाह कर्मेति। तत्पुरुषत्वेऽसङ्गतिः स्यादिति भावः। यज्ञशब्दस्य यागार्थत्वप्रतीतिमपाकर्तुमाह यज्ञ इति। अवैष्णवयागस्यापि बन्धकत्वादिति भावः। तदर्थमित्युत्तरवाक्यस्यासङ्गतिपरिहारायार्थात्सिद्धं पूर्ववाक्यार्थमाह यज्ञार्थमिति। सङ्गरहितमित्यनुक्तं कस्मादुक्तं इत्यत आह मुक्तेति। इष्टियाजुकः फलेच्छया यष्टा। ननुकर्मणा बध्यते जन्तुः इत्यपि विशेषवचनम् अविद्यादीनामनेकेषां बन्धकत्वेनाविद्यादिभिरिति सामान्यस्यानुपात्तत्वात् गीतावाक्यं कर्म न बन्धकमितीदमपि विशेषवचनं तत्कथं तत्परिहारायावतार्यं व्याख्यातं इत्यत आह विशेषेति। यद्युक्तविधया द्वयोर्विशेषवचनत्वं समं तथापि गीतावाक्येयज्ञार्थात् इत्यादिविशेषणमुच्यतेऽतस्तदपेक्षया तत्सामान्यवचनमेव अतो युक्तमेतद्व्याख्यानमिति भावः। अयमत्र प्रत्युत्तरक्रमःकर्मणा बध्यते इति वाक्यमाश्रित्य न युद्धादिकर्मत्यागः कार्यः तस्यावैष्णवकाम्यकर्मविषयत्वात्। कुतः सङ्कोचः इति चेत् परेणापि परिस्पन्दमात्रस्य त्यक्तुमशक्यत्वेनासङ्कुचितार्थतायाः स्वीकर्तुमशक्यत्वात्। तर्ह्यत एव बाधकाच्छरीरयात्रार्थकर्मव्यतिरिक्तविषयत्वं कल्प्यत इति चेत् न वैय्यर्थ्यात्। एवमपि मनोव्यापारस्याल्पकत्वेन प्रतिबन्धकाभावो न सिध्यति। तस्यैवान्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रयोजकत्वावधारणात् बाधकात्सङ्कोचमङ्गीकुर्वतां चायमपि सङ्कोचोऽङ्गीकार्यः विधानसामर्थ्यात् युद्धादीनामपि तत्तद्वर्णाश्रमोचितत्वात्। न च विधानस्यामुमुक्षुविषयत्वम् कल्पकाभावात्। न चेदमेव वाक्यं कल्पकम् तस्यावैष्णवादिकर्मत्यागेन चरितार्थत्वात् धर्मिपरित्यागाद्धर्ममात्रपरित्यागस्य ज्यायस्त्वात्। अतो न कर्मस्वरूपं त्याज्यमिति।
।।3.9।।कर्मणा बध्यते जन्तुः इति स्मृतेः सर्वं कर्म बन्धात्मकत्वान्मुमुक्षुणा न कर्तव्यमिति मत्वा तस्योत्तरमाह यज्ञः परमेश्वरःयज्ञो वै विष्णुः इति श्रुतेः तदाराधनार्थं यत्कर्म क्रियते तद्यज्ञार्थं तस्मात्मर्कणोऽन्यत्र कर्मणि प्रवृत्तोऽयं लोकः कर्माधिकारी कर्मबन्धनः कर्मणा बध्यते नत्वीश्वराराधनार्थेन। अतस्तदर्थं यज्ञार्थं कर्म हे कौन्तेय त्वं कर्मण्यधिकृतो मुक्तसङ्गः सन्समाचर सम्यक् श्रद्धादिपुरःसरमाचर।
।।3.9।।नन्वेवं चेत्तदा कर्माकरणं पूर्वं कथ मुक्तं इत्याशङ्क्याह यज्ञार्थादिति। अन्यत्र मत्सेवातोऽन्यत्र कर्ममार्गे कर्मबन्धनः कर्मनिबन्धनोऽयं लोकः।कर्मणो यज्ञार्थात् इत्युक्त्वा कर्म कार्यमित्याहुस्ततस्तत्कर्म न मत्फलकमिति मया बन्धकत्वात्तत्त्याग उक्तः यतस्तत्कर्म बन्धकमतस्तत्त्यक्त्वा कर्म कुर्वित्याह तदर्थमिति। तदर्थं यज्ञार्थं मुक्तसङ्गः सन् कर्म मत्सेवारूपं समाचर सम्यक्प्रकारेण कुरु।
।।3.9।। यज्ञो वै विष्णुः (तै0 सं0 1.7.4) इति श्रुतेः यज्ञः ईश्वरः तदर्थं यत् क्रियते तत् यज्ञार्थं कर्म। तस्मात् कर्मणः अन्यत्र अन्येन कर्मणा लोकः अयम् अधिकृतः कर्मकृत् कर्मबन्धनः कर्म बन्धनं यस्य सोऽयं कर्मबन्धनः लोकः न तु यज्ञार्थात्। अतः तदर्थं यज्ञार्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः कर्मफलसङ्गवर्जितः सन् समाचर निर्वर्तय।।इतश्च अधिकृतेन कर्म कर्तव्यम्
।।3.9।।साङ्ख्यास्त्वात्मातिरिक्तस्य बन्धकत्वमालोच्य कर्म न कार्यमिति वदन्ति तत्तदधिकृतविषयमपि न श्रौतमिति निर्णयमाह यज्ञार्थादिति। इज्यतेऽनेन सावयवो भगवानिति यज्ञस्तदर्थात्। वेदे हि मुख्यः कर्मयज्ञ एव भगवद्रूपत्वात्। ततोऽन्यत्र काम्ये परधर्मे वा बन्धनम्।यज्ञरूपो हरिः कर्मोपास्तिकाण्डे परे बृहत्। प्रेमभक्तौ तु स्वयं हीत्यानर्थक्यं न युज्यते।बुद्ध्वा चेत्कुरुते कर्म ततस्तद्बन्धकं न हि। अन्यथा करणे तस्य सर्वथाबन्धसम्भवः इत्यर्थो दर्शितः।