BG - 3.15

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।3.15।।

karma brahmodbhavaṁ viddhi brahmākṣhara-samudbhavam tasmāt sarva-gataṁ brahma nityaṁ yajñe pratiṣhṭhitam

  • karma - duties
  • brahma - in the Vedas
  • udbhavam - manifested
  • viddhi - you should know
  • brahma - The Vedas
  • akṣhara - from the Imperishable (God)
  • samudbhavam - directly manifested
  • tasmāt - therefore
  • sarva-gatam - all-pervading
  • brahma - The Lord
  • nityam - eternally
  • yajñe - in sacrifice
  • pratiṣhṭhitam - established

Translation

Know that action comes from Brahma, and Brahma comes from the Imperishable. Therefore, the all-pervasive Brahma ever rests in sacrifice.

Commentary

By - Swami Sivananda

3.15 कर्म action? ब्रह्मोद्भवम् arisen from Brahma? विद्धि know? ब्रह्म Brahma? अक्षरसमुद्भवम् arisen from the Imperishable? तस्मात् therefore? सर्वगतम् allpervading? ब्रह्म Brahma? नित्यम् ever? यज्ञे in sacrifice? प्रतिष्ठितम् (is) established.Commentary Brahma may mean Veda. Just as the breath comes out of a man? so also the Veda is the breath of the Imperishable or the Omniscient. The Veda ever rests in the sacrifice? i.e.? it deals chiefly with sacrifices and the ways of their performance. (Cf.IV.24 to 32).Karma Action? Brahmodbhavam arisen from the injunctions of the Vedas.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

 3.15।। व्याख्या--'अन्नाद्भवन्ति भूतानि'--प्राणोंको धारण करनेके लिये जो खाया जाता है, वह 'अन्न' (टिप्पणी प0 136.2) कहलाता है। जिस प्राणीका जो खाद्य है, जिसे ग्रहण करनेसे उसके शरीरकी उत्पत्ति, भरण और पुष्टि होती है, उसे ही यहाँ 'अन्न' नामसे कहा गया है; जैसे--मिट्टीका कीड़ा मिट्टी खाकर जीता है तो मिट्टी ही उसके लिये अन्न है।जरायुज (मनुष्य, पशु आदि), उद्भिज्ज (वृक्षादि), अण्डज (पक्षी सर्प चींटी आदि) और स्वेदज (जूँ आदि)--ये चारों प्रकारके प्राणी अन्नसे ही उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्नसे ही जीवित रहते हैं (टिप्पणी प0 137.1)।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।3.15।। विश्व में चल रहे सामूहिक यज्ञ कर्म के चक्र का वेदों की परिचित भाषा में यहाँ वर्णन किया गया है। प्राणियों की उत्पत्ति एवं पोषण का कारण अन्न है। पृथ्वी में स्थित खनिज सम्पत्ति पोषक अन्न का रूप तभी लेती है जब जल वृष्टि होती है। वर्षा के बिना न तो वनस्पति जीवन की वृद्धि होगी और न पशुओं का जीवन ही सम्भव होगा। यज्ञ के फलस्वरूप वर्षा होती है तथा यज्ञ का सम्पादन मनुष्य के कर्मों द्वारा होता है।सूक्ष्म विचार के अभाव में यह श्लोक विचित्र ही प्रतीत होता है। आधुनिक शिक्षित व्यक्ति अन्न (पदार्थ) से प्राणियों की तथा वर्षा से पोषक अन्न की उत्पत्ति होने को तो समझ पाता है परन्तु उसे यह समझने में कठिनाई होती है कि यज्ञ से वर्षा की उत्पत्ति किस प्रकार होती है।भगवान् श्रीकृष्ण के शब्दों में हम यह मानने को बाध्य नहीं हैं कि वे अर्जुन को कर्मकाण्ड के अनुष्ठान का उपदेश दे रहे हैं। गीता में अनेक स्थानों पर वेद काल में प्रचलित और परिचित शब्दों को नये अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। यहाँ भी पर्जन्य से केवल जलवृष्टि ही समझना उचित नहीं। पर्जन्य से तात्पर्य उस स्थिति से है जो पृथ्वी में स्थित तत्त्वों का भक्षण योग्य पोषक अन्न में रूपान्तर करने के लिए आवश्यक है। इसी प्रकार प्रत्येक कार्य क्षेत्र में उपभोग्य लाभ (अन्न) विद्यमान होता है जिसकी प्राप्ति तभी संभव है जब उसके अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। इस प्रकार की अनुकूल परिस्थिति (पर्जन्य) का निर्माण सब लोगों के निस्वार्थ सेवाभाव से किये गये कर्मोंे (यज्ञ) से ही संभव होकर समाज के उपभोग्य वस्तुओं (अन्न) की उत्पत्ति होती है।उदाहरणार्थ नदी के व्यर्थ ही बहते हुये पानी को रोक कर बांध के निर्माण से उसका उपयोग नदी के तट की उपजाऊ किन्तु अब तक नहीं जोती गई भूमि की सिंचाई के लिये किया जा सकता है। त्याग और परिश्रम से ही बांध का निर्माण संभव होगा। उसके पूर्ण होने पर नदी के दोनों किनारों की भूमि को जोतने के लिये अनुकूल परिस्थिति बन जायेगी। सींची हुई भूमि से अन्न प्राप्त करने के लिये निरन्तर परिश्रम की आवश्यकता है जैस भूमि जोतना बीजारोपण सिंचन और रक्षण आदि।यहाँ हमें बताया गया है कि इस कर्म चक्र का सम्बन्ध परम सत्य (ब्रह्म) से किस प्रकार है और कैसे वह ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है। सम्यक् कर्म का सिद्धांत (यज्ञ) तथा कर्म की क्षमता भी सृष्टिकर्त्ता ब्रह्माजी से ही सबको प्राप्त हुई और स्वयं ब्रह्माजी अक्षरअविनाशी परम तत्त्व ब्रह्म से ही प्रगट हुये हैं। नवजात शिशु में कर्म की क्षमता है और वह क्षमता सृष्टिकर्त्ता का दिया हुआ उपहार है इसलिये सर्वगत ब्रह्म सदैव व्यक्ति के अथवा समूह के उन कर्मों में (यज्ञ) प्रतिष्ठित है जो विश्व के कल्याण के लिये सेवाभाव से किये गये हों।इस कर्मचक्र का पालन करने वाला पुरुष प्रकृति के सामंजस्य में अपना योगदान देता है। इसका उल्लंघन करने वाले के विषय में भगवान् कहते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।3.15।।यदपूर्वहेतुत्वेन कर्मोक्तं तत्किं चैत्यवन्दनादि किं वाग्निहोत्रादीति संदिहानं प्रत्याह कर्मेति। किमिति कर्मणो ब्रह्मोद्भवत्वमुच्यते सर्वस्य तदुद्भवत्वाविशेषादित्याशङ्क्याह ब्रह्म वेद इति। ब्रह्म तर्हि वेदाख्यमनादिनिधनमिति तत्राह ब्रह्म पुनरिति। अक्षरात्मनो वेदस्य पुनरक्षरेभ्यः सकाशादेव समुद्भवो न संभवतीत्याशङ्क्याह अक्षरमिति। ब्रह्मेत्यक्षरमेवोक्तं तत्कथं तस्मादेवोद्भवतीत्याशङ्क्य ब्रह्मशब्दार्थमुक्तमेव स्मारयति ब्रह्म वेद इति। ननु ब्रह्मशब्दितस्य वेदस्यापि पौरुषेयत्वात्प्रामाण्यसंदेहात्कथं त्वदुक्तमग्निहोत्रादिकं कर्म निर्धारयितुं शक्यते तत्राह यस्मादिति। कथं तर्हि तस्य यज्ञे प्रतिष्ठितत्वं सर्वगतत्वे विशेषायोगादित्याशङ्क्याह सर्वगतमपीति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।3.15।। कर्म ब्रह्म वेद उद्भवः कारणं यस्य तज्जानीहि ब्रह्म वेदाख्यमक्षरः परमात्मा समुद्भवः कारणं यस्य तत्अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङिगिरसः इत्यादिश्रुतेः। यस्मादेवं तस्मात्सर्वार्थप्रकाशकत्वात् सर्वगतमपि सद्वेदाख्यं ब्रह्म नित्यं सदा यज्ञविधिप्रधानत्वात् यज्ञे प्रतिष्ठितम्। यत्त्वक्षरं ब्रह्म सर्वदा यज्ञे प्रतिष्ठितं यज्ञेनोपायभूतेन प्राप्यत इत्यपरेषां व्याख्यानं तदरुचिग्रस्तम्। अरुचिबीजं तु पूर्वार्धस्थब्रह्मपदद्वयस्य वेदपरत्वेनात्रान्यपरत्वेवेदो वा प्रायदर्शनात् इतिन्यायविरोधादि।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।3.15।।कर्म ब्रह्मणो जायते एष ह्येव (एनं) साधु कर्म कारयति कौ.उ.3।9बुद्धिर्ज्ञानम् 10।4 इत्यादिभ्यः। न च मुख्ये सम्भाव्यमाने पारम्पर्येणौपचारिकं कल्प्यम्। न च जडानां स्वतः प्रवृत्तिः सम्भवति एतस्य वा अक्षरस्य बृ.उ.3।8।9 इति सर्वनियमनश्रुतेश्चद्रव्यं कर्म च कालश्च इत्यादेश्च। अचिन्त्यशक्तिश्चोक्ता। जीवस्य च प्रतिबिम्बस्य बिम्बपूर्वैव चेष्टान कर्तृत्वम् 5।14 इत्यादिनिषेधाच्च। अक्षराणि प्रसिद्धानि तेभ्यो ह्यभिव्यज्यते परं ब्रह्म। अन्यथाऽनादिनिधनमचिन्त्यं परिपूर्णमपि ब्रह्म को जानाति। न च रूढिं विना योगाङ्गीकारो युक्तः परामर्शाच्च तस्मात्सर्वगतं ब्रह्मेति।न ह्येकशब्देन द्विरुक्तेन भेदश्रुतिं विना वस्तुद्वयं कुत्रचिदुच्यते। तानि चाक्षराणि नित्यानि वाचा विरूपनित्यया। वृष्णे चोदस्व सुष्टुतिम् ऋक्सं.6।5।25तै.सं.5।6।11अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा म.भा.12।232।24अत एव च नित्यत्वम् ब्र.सू.1।3।29 इत्यादिश्रुतिस्मृतिभगवद्वचनेभ्यः। दोषश्चोक्तः सकंर्तृत्वे। मा.भा.2।13 न चाबुद्धिपूर्वमुत्पन्नानि तत्प्रमाणाभावात्। निश्श्वसितशब्दस्त्वक्लेशाभिप्रायः नाबुद्धिपूर्वाभिप्रायः। सोऽकामयत बृ.उ.1।2।45 इत्यादेश्चइष्टं हुतं इत्यादिरूपप्रपञ्चेन सहाभिधानाच्च महातात्पर्यविरोधाच्च तच्चोक्तं पुरस्तात्।न ह्यस्वातन्त्र्येण चोत्पत्तिकर्तुः प्राधान्यम्। अस्वातन्त्र्यं च तदमतिपूर्वकत्वेन भवति यथा रोगादीनां पुरुषस्य तज्जत्वेऽपि। उत्पत्तिवचनान्यभिव्यक्त्यर्थानि अभिमानिदेवताविषयाणि चनित्या उत्सृष्टा इति वचनात्।अभिव्यञ्जके कर्तृवचनं चास्तिकृत्स्नं शतपथं चक्रे इति। कथमादित्यस्था वेदास्तेनैव क्रियन्ते वचनमात्राच्च निर्णयात्मकशारीरकोक्तं बलवत् शास्त्रं योनिर्यस्य तत् शास्त्रयोनित्वम्।जन्माद्यस्य ब्रू.सू.1।1।2 इत्युक्ते प्रमाणं हि तत्रापेक्षितम् न तु तस्य जातत्वं वेदकारणत्वं वा न हि वेदकारणत्वं जगत्कारणत्व हेतुः। न हि विचित्रजगत्सृष्टेर्वेदसृष्टिरशक्या सृज्यत्वे। न च सर्वज्ञत्वे। यदि वेदस्रष्टा सर्वज्ञः किमिति न जगत्स्रष्टा सर्वज्ञः तस्माद्वेदप्रमामकत्वमेवात्र विवक्षितम् अतो नित्यान्यक्षराणि। यत एवं परम्परया यज्ञाभिव्यङ्ग्यं ब्रह्म तस्मात्तन्नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।3.15।।कर्म ब्रह्मोद्भवं वेदोद्भवम् वेद एव धर्मे प्रमाणं नतु पाखण्डादिप्रणीतागमः ब्रह्म वेदोप्यक्षरसमुद्भवम्।अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः इत्यादिश्रुतेः साक्षात्परमेश्वरादेवोत्पन्नः अतो न तत्र भ्रमविप्रलम्भकत्वादिदोषाक्रान्तपाखण्डादिवाक्यवदप्रामाण्यशङ्कास्तीति भावः। यस्मादेवं तस्मात्सर्वस्मिन्देशे काले च वर्तमानं ब्रह्म वेदः। एतेन वेदस्य नित्यत्वं शब्दस्य विभुत्वं च दर्शितम्। नित्यं नियमेन यज्ञे प्रतिष्ठितं तात्पर्येण पर्यवसन्नम्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।3.15।।कर्म ब्रह्मोद्भवम्। अत्र च ब्रह्मशब्दनिर्दिष्टं प्रकृतिपरिणामरूपशरीरम्तस्मादेतद् ब्रह्म नाम रूपमन्नं च जायते (मु0 1।1।9) इति ब्रह्मशब्देन प्रकृतिः निर्दिष्टा। इहापिमम योनिर्महद्ब्रह्म (गीता 14।3) इति वक्ष्यते। अतः कर्म ब्रह्मोद्भवम् इति प्रकृतिपरिणामरूपशरीरोद्भवं कर्म इत्युक्तं भवति। ब्रह्म अक्षरसमुद्भवम् इत्यत्र अक्षरशब्दनिर्दिष्टो जीवात्मा अन्नपानादिना तृप्ताक्षराधिष्ठितं शरीरं कर्मणे प्रभवति इति कर्मसाधनभूतं शरीरम् अक्षरसमुद्भवम्। तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म सर्वाधिकारिगतं शरीरं नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् यज्ञमूलम् इत्यर्थः।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।3.15।। तथा कर्मब्रह्मोद्भवमिति। तच्च यजमानादिव्यापाररुपं कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्म वेदस्तस्मात्प्रवृत्तं जानीहि। तच्च ब्रह्म वेदाख्यमक्षरात्परब्रह्मणः समुद्भूतं विद्धि।अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदः इति श्रुतेः। यत एवमक्षरादेव यज्ञप्रवृत्तेरत्यन्तं तस्याभिप्रेतो यज्ञः तस्मात्सर्वगतमप्यक्षरं ब्रह्म नित्यं सर्वदा यज्ञे प्रतिष्ठितम्। यज्ञेनोपायभूतेन प्राप्यत इति यज्ञे प्रतिष्ठितमुच्यते। उद्यमस्था सदा लक्ष्मीरितिवत्। यद्वा यस्माज्जगच्चक्रमूलं कर्मं तस्मात्सर्वगतं मन्त्रार्थवादैः सर्वेषु सिद्धार्थप्रतिपादकेषु भूतार्थाख्यानादिषु गतं स्थितमपि वेदाख्यं ब्रह्म सर्वदा यज्ञे च तात्पर्यरुपेण प्रतिष्ठितम्। अतो यज्ञादि कर्म कर्तव्यमित्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।3.15।।ननु कर्तृव्यापाररूपस्य कर्मणः कथं ब्रह्मोद्भवत्वम् तद्धि प्रत्यगात्मजन्यं शरीरेन्द्रियादिजन्यमिति वा निर्देष्टुं युक्तम् न च सर्वसाधारणं ब्रह्मणो हेतुत्वमिह विशिष्य निर्देष्टव्यम् ब्रह्मणश्चाक्षरसमुद्भवत्वमनुपपन्नम् ब्रह्मशब्दस्य परमात्मविषयत्वे जीवविषयत्वे वा द्वयोरपि नित्यत्वात् कारणभूतस्य कस्यचिदक्षरस्याभावात् ब्रह्माक्षरशब्दयोर्वेदपरमात्मविषयतयाशङ्करव्याख्याऽपि चक्रत्वासङ्गतायादवप्रकाशाद्युक्तं ब्रह्मशब्दस्य स्फोटादिपरत्वमक्षराणां तद्व्यञ्जकत्वादिकं च तत्तत्प्रक्रियादूषणादेव निरस्तम्।स्फोटत्वं वर्णसंश्रयः इति तु वर्णानां स्वार्थस्फुटीकरणशक्तिपरमित्याद्याशङ्क्याह अत्र चेति। चश्शङ्कानिवृत्तौ।अत्र इत्यनेन ब्रह्मशब्दस्य साक्षात्परमपुरुषे मुख्यत्वेऽपि प्रकरणादिबलात् तस्मादन्यत्र तद्गुणलेशयोगादौपचारिकोऽयमित्यभिप्रेतम्। द्रव्यार्जनादिकर्मणः शरीरिणा साध्यत्वात्तत्र शरीर्यंशस्याक्षरशब्देन विविच्य वक्ष्यमाणत्वात् शरीरांशस्य विवक्षयाऽयं ब्रह्मशब्द इति प्रकृतिपरिणामरूपं शरीरमित्युक्तम्। प्रकृतिपरिणामरूपे शरीरे तद्द्रव्यत्वेन ब्रह्मशब्दनिर्देशाय प्रकृतौ तत्प्रयोगं तावदाह तस्मादेतदिति। एतत् प्रधानाख्यं ब्रह्म कार्याकारेण नामरूपविभागविभक्तं चेतनभोग्यं च जायते इति हि श्रुत्यर्थः। न च तत्र ब्रह्मशब्दः परमात्मविषयः यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः। तस्मादेतद्ब्रह्म मुं.उ.1।1।9 इति परमात्मनः पृथङ्निर्दिष्टत्वात्। नापि प्रत्यगात्मविषयः नामरूपमन्नं च मुं.उ.1।1।9 इत्यनेन साक्षात्सम्बन्धायोगात् अन्नत्वं चात्यन्तामुखं स्यादिति भावः। योनिशब्दनिर्देशान्ममेति परमात्मनः पृथङ्निर्देशाच्चमम योनिर्महद्ब्रह्म 14।6 इत्यत्र ब्रह्मशब्दस्य प्रकृतिविषयत्वं सिद्धम्।अत इति ब्रह्मशब्दस्य प्रकृतौ प्रयोगाच्छरीरस्य च तत्परिणामरूपत्वाद्द्रव्यार्जनादेः शरीरसाध्यत्वात् परमात्मनश्च जन्यत्वायोगाच्चेत्यर्थः।एवमत्रत्यब्रह्मशब्दस्य शरीरविषयत्वे सिद्धे तदासन्ने प्रत्यगात्मनि अक्षरशब्दो युक्त इत्यभिप्रायेणाह ब्रह्माक्षरसमुद्भवमित्यत्रेति। जीवस्य चाक्षरशब्दवाच्यत्वं क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः श्वे.उ.1।10 कूटस्थोऽक्षरः 15।16 इत्यादिसिद्धम्। नन्वेवमपिब्रह्माक्षरसमुद्भवम् इत्ययुक्तम् स्वशरीरस्य सर्वस्य स्वबुद्धिपूर्वत्वाभावात्। न चात्र चक्रत्वं दृश्यते अन्नप्रभृतिशरीरपर्यन्तस्य कार्यकारणभावेऽपि शरीरहेतोरक्षरस्य अन्नादिजन्यत्वाभावात्। न चअन्नाद्भवन्ति भूतानि 3।14 इति जीवो निर्दिष्टः तत्र भूतशब्दस्यान्नविकारशरीरमात्रविषयत्वात् तत्राह अन्नपानादिनेति।अयमभिप्रायः न तावदिह शरीरमात्रमक्षरजन्यतया निर्दिष्टम् किन्तुकर्म ब्रह्मोद्भवम् इत्यनेन कर्म साधनभूतम् तत्साधनत्वं च शरीरस्य प्रत्यगात्माधिष्ठितस्यैव तस्य चाधिष्ठातृत्वशक्तिरन्नपानादिजनिततृप्तिनिबन्धना। एवं च सति कर्मसाधनत्वविशिष्टं शरीरं प्रत्यगात्माधिष्ठानहेतुकत्वादक्षरसमुद्भवमिति युक्तमेव। चक्रत्वं चोपपन्नम् अक्षरस्यापि शरीराधिष्ठानेऽन्नपानादिसापेक्षत्वात्। न ह्यवश्यमुत्पत्तावेवापेक्षा चक्रत्वे हेतुः यद्वा कर्म जीवाधिष्ठितशरीरजन्यम् जीवाधिष्ठितं शरीरं चान्नजन्यम्अन्नाद्भवन्ति भूतानि इति वचनात्।भूतशब्दश्चात्रभ्रामयन् सर्वभूतानि 18।61 इत्यादाविव सजीवशरीरपरः। अतोऽत्र चक्रत्वमुपपन्नम् इति।इमं च प्रकारमनन्तरं च वक्ष्यति। एवमस्मिन् चक्रेऽनुवर्तनीये पुरुषस्य शास्त्रवश्यस्य कर्तव्यांशनिष्कर्षायोच्यते तस्मादिति। सङ्कुचितस्य शरीरस्य सर्वव्याप्तत्वायोगादक्षरस्य तदाधारस्य च निर्दिष्टत्वात् तदवान्तरभेदसङ्ग्रहपरः सर्वशब्द इत्यभिप्रायेणोक्तंसर्वाधिकारिगतमिति। न केवलं कर्मयोगाधिकारिणः शरीरं यज्ञसापेक्षम् किन्तु ज्ञानयोगाधिकारिणोऽपीत्यर्थः। यज्ञे प्रतिष्ठितमित्यत्राधिकरणत्वाद्ययोगादाह यज्ञमूलमित्यर्थ इति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।3.14 3.15।।अन्नादिति। कर्मेति। अन्नात् अविभागभोग्यस्वभावात् कथंचित् मायाविद्याकालाद्यनेकापरपर्यायात् (S N विद्याप्रकृतिकाला ) भूतानि विचित्राणि भवन्ति। तच्च अन्नं पर्जन्यात् अविच्छिन्नसंवित्स्वभावात् आत्मनः भोक्तृतन्त्रात्मलाभत्वात् भोग्यतायाः। स च पर्जन्यो भोक्ता यज्ञात् भोगक्रियात्मनः भोगक्रियायत्तत्वात् भोक्तृत्वस्य। भोगक्रिया च कर्मणः क्रियाशक्तिस्वातन्त्र्यबलात्। तच्च स्वातन्त्र्यम् अविच्छिन्नमपि (S अविच्छन्नमपि अविच्छन्नस्यापि अनवच्छिन्नानन्त ) अनवच्छिन्नानन्तस्वातन्त्र्यपूर्णसमुच्चलन्महेश्वरभावपरमात्मब्रह्मणः संस्पर्शवशात् (S K ब्रह्मसंस्पर्श )। तच्च ( omits तच्च) उच्चलदच्छानाछादितैश्वर्यं ( N इच्छादितैश्वर्यम्) ब्रह्म अक्षरात् प्रशान्ताशेषैश्वर्यतरङ्गात् संविन्मात्रात्। इत्येवं सुव्यवस्थितो (S स्थितोऽयम् भोगक्रियायाम्) यज्ञः षडरं चक्रं वाहयन् तत्र (K omits तत्र S N substitute तत्तु) अरात्रयसंधानादपवर्गम् अरात्रयतन्त्रणात् व्यवहारमासूत्रयति इति विद्याविद्योल्लासतरंगसुभगं ब्रह्म ( तरङ्गं ब्रह्म) यज्ञे एव प्रतिष्ठितम्।अन्ये तु अन्नं तावद्वीर्यलोहितक्रमेण भूतकारणम् अन्नं च वृष्टिद्वारेण पर्जन्यात् सोऽपि अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यक् (S omits सम्यक् K omits the entire quotation ) इति आदित्यमेति। ततो वृष्टिर्यज्ञात् यज्ञः क्रियातः सा च ज्ञानपूर्विका ज्ञानमक्षरात् इति।अपरे तु अन्नं अद्यमानं विषयपञ्चकम् तत् आश्रित्य भूतानि इन्द्रियाणि विषयाश्चात्मनः स्फुरितरूपाः। अत आत्मैव विषयोपभोगेन पोष्यते। अतश्च सर्वगतं (S अतः सर्वगम्) ब्रह्म कर्मणि प्रतिष्ठितं तन्मयत्वात् तस्य इति ।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।3.15।।कर्म ब्रह्मोद्भवं ब्रह्मणा वेदेन प्रकाश्यं इति परेषां व्याख्यानमसदिति भावेनाह कर्मेति। ब्रह्मणः परब्रह्मणः। कुतः इत्यत आह एष हीति। अपव्याख्यानं प्रत्याख्याति न चेति। उद्भवशब्दस्य मुख्येऽभिधेये जन्मनि सम्भाव्यमाने सत्यौपचारिकं प्रकाशनमर्थतया न कल्प्यम्। तथा ब्रह्मशब्दस्य मुख्येऽभिधेये परब्रह्मणि सम्भाव्यमाने सत्यौपचारिकममुख्यं वेदाख्यं ब्रह्मशब्दार्थतया न कल्प्यम्। किञ्चैवं व्याचक्षाणेनापि वेदस्य कर्मप्रकाशकत्वमन्तर्यामिद्वारा परम्परयाऽङ्गीकार्यम्। तथाचान्ततोऽपि परब्रह्मण्यङ्गीकार्ये शब्द एव प्राप्तस्य तस्य परित्यागोऽनुपपन्नः। ननु वेदः स्वयमेव कर्मप्रकाशक इति किं परब्रह्मणा अतो न परम्परेत्यत आह न चेति। न केवलं जडत्वाद्वेदस्यान्याधीनत्वम् किन्त्वागमाद्विष्ण्वधीनत्वं च प्रसिद्धमित्याह एतस्येति विष्णोरिति शेषः। ननु शब्दस्यार्थप्रकाशनं स्वभावः न त्वागन्तुको व्यापारः यथाऽग्नेरौष्ण्यम्। ततो जडत्वेऽपि न परापेक्षेत्यतः स्वभावस्यापि भगवदधीनत्वे प्रमाणमाह द्रव्यमिति। प्रमाणसिद्धमपि स्वभावनियमनं विष्णोरसम्भावितमित्यत आह अचिन्त्येति। यदि जडस्य न स्वतः प्रवृत्तिस्तर्हि अभिमानिदेवताद्वाराऽस्तु तथाच नान्ततोऽपि परब्रह्माङ्गीकार इत्यत आह जीवस्य चेति। ततश्चाधिक्येन परम्परेति भावः। न केवलं प्रतिबिम्बत्वाज्जीवस्य स्वतः प्रवृत्त्यभावः किन्त्वामाच्चेत्याह नेति।ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् इत्यत्रब्रह्म वेदः अक्षरात्परब्रह्मणो जायते। इति परेषां व्याख्यानमसदिति भावेनाह अक्षराणीति। प्रसिद्धान्यकारादीनि नियतानुपूर्वीविशिष्टानि वेद इति यावत्। ननु समुद्भवशब्दस्य मुख्यार्थाङ्गीकारे किं बाधकं येनाभिव्यज्यत इत्यमुख्योऽर्थः स्वीक्रियते किञ्च प्रमाणान्तरेणापि ब्रह्माभिव्यक्तिसम्भवात्तेभ्य इति किमर्थमुक्तं इत्यत आह अन्यथेति। व्यक्त्यर्थत्वानङ्गीकारेऽनादिनिधनं ब्रह्म कथं जायते इति शेषः। तथा वेदस्य तदभिव्यञ्जकत्वानङ्गीकारे परिपूर्णत्वादचिन्त्यं ब्रह्म को जानाति वाक्यार्थद्वयसमुच्चयेऽपिशब्दः। समुद्भवशब्दस्य मुख्यार्थताभावात्परोक्तोऽर्थः किं न स्यात् इत्यत आह न चेति। ब्रह्मशब्दो हि परब्रह्मणि रूढः वेदे तु बृहत्त्वयोगेन प्रवृत्तः। तथाऽक्षरशब्दो वर्णेषु रूढः परब्रह्मणि त्वक्षरणयोगेन प्रवृत्तः। तथाचान्यथा व्याकुर्वता रूढिं परित्यज्य योगोऽङ्गीकृतः स्यात् तच्च न्यायबाह्यमित्यर्थः। इतश्च ब्रह्मशब्दः परब्रह्मवाचीत्याह परामर्शाच्चेति। उत्तरवाक्ये ब्रह्मशब्देन परब्रह्मणः परामर्शाच्च पूर्ववाक्यस्थो ब्रह्मशब्दः परब्रह्मार्थो ज्ञायते। तथा चाक्षरशब्दोऽप्यर्थाद्वेदवचनो भविष्यतीति शेषः।प्रागक्षरशब्दोक्तं परं ब्रह्मेदानीं ब्रह्मशब्देन परामृश्यते अतः पूर्वोक्तो ब्रह्मशब्दो वेदार्थ एवेत्यत आह न हीति। एकस्मिन्नेव प्रकरण इति शेषः। अन्नात्पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः तै.उ.2।1।1 इत्यादिव्यावृत्त्यर्थं भेदश्रुति विनेत्युक्तम्। श्रुतिशब्दश्च प्रमाणोपलक्षणार्थः। अत्रापि सर्वगतमिति विशेषणमस्तीति चेत् न वर्णानामपि सर्वगतत्वात्। विकारत्वान्नेति चेत् न अनन्तरमेव निराकरणात्। इदं च भास्करं प्रत्यभिहितम्। मायावादिना तु प्राग्ब्रह्मशब्दोक्तस्य वेदस्यैवायं परामर्श इत्यङ्गीकृतत्वात् यदप्यन्यथा व्याख्याने समुद्भवशब्दस्य मुख्यार्थतालाभ इत्यभिप्रेतं तदपि दुराशामात्रमित्याह तानि चेति। यान्यस्माभिः प्रसिद्धानि व्याख्यातानि अनेनाभिधानादिबलाद्ब्रह्माक्षरशब्दौ द्वावप्युभयत्र योगरूढाविति प्रत्यवस्थानमपि परास्तम्। परामर्शस्य वर्णनित्यत्वस्य चापरिहार्यत्वात् न केवलं श्रुत्यादिभ्यो वेदस्य नित्यत्वं किं तर्हि विपक्षे बाधकाच्चेत्याह दोषश्चेति।रचितत्वे च धर्मप्रमाणस्य मा.भा.2।13 इत्यत्र। ननु वेदाक्षराणि ब्रह्मणो बुद्धिपूर्वमुत्पन्नानि अतो न विपर्ययादिमूलत्वशङ्केत्यत आह न चेति। निश्श्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः बृ.उ.2।4।10 इति श्रुतिर्वेदानां ब्रह्मणोऽबुद्धिपूर्वमुत्पन्नत्वे प्रमाणमिति चेत् किमयं निश्श्वसितशब्दोऽबुद्धिपूर्वमुत्पन्नत्वस्य वाचकः उत निश्श्वसितमिव निश्श्वसितं इवार्थश्चाबुद्धिपूर्वमुत्पन्नत्त्वमिति गौण्या वृत्त्या तदभिप्रायः नाद्यः प्रमाणाभावात्। द्वितीयं दूषयति निश्श्वसितेति। अक्लेशेन निस्सरणस्यापीवार्थस्य सम्भवेन निश्वसितशब्दस्य तदभिप्रायतोपपत्तौ नाबुद्धिपूर्वोत्पत्त्यभिप्रायत्वनिश्चय इत्यर्थः। न च परस्येवास्माकमपि निश्चयायोग इति भावेनाह स इति। सोऽकामयत ৷৷. (सः) इदं सर्वमसृजत बृ.उ.1।2।45 इति ब्रह्मणः सर्वस्य सृष्टेरिच्छापूर्वकत्वमुच्यते। इच्छा च बुद्ध्याऽविनाभूता। अतो न किञ्चिद्ब्रह्मणोऽबुद्धिपूर्वमुत्पन्नमिति। ननु निश्श्वसितमेतत् इति श्रुतिर्नामप्रपञ्चस्याबुद्धिपूर्वमुत्पत्तिं वक्ति सोऽकामयत इति च रूपप्रपञ्चस्येच्छापूर्वमित्यतो न विरोध इत्यत आह इष्टमिति। एवं सति निश्श्वसितं इति श्रुतौइष्टं हुतमाशितं पायितमयं च लोकः परश्च लोकः इति नामप्रपञ्चस्य रूपप्रपञ्चेन सहाभिधानात्। रूपप्रपञ्चस्यापि निश्वसितशब्देनाबुद्धिपूर्वोत्पन्नत्वप्राप्तौ सोऽकामयत इति श्रुतिर्निर्विंषयैवापद्येतेति भावः। इतोऽपि नाबुद्धिपूर्वा ब्रह्मणः सृष्टिरित्याह महातात्पर्येति। परब्रह्मणः सर्वोत्तमत्वे यत्सर्ववेदानां महातात्पर्यं तद्विरोधाच्चेत्यर्थः। तदेव कुतः इत्यत आह तच्चेति। उक्तं साधितम्।कथं तद्विरोधः इत्यत आह न हीति। प्राधान्यं सर्वोत्तमत्वम्। अस्वातन्त्र्येणोत्पत्तिकर्तृत्वस्य प्राधान्यविरोधित्वेऽपि अबुद्धिपूर्वमुत्पादकत्वस्य किमायातं इत्यत आह अस्वातन्त्र्यं चेति। कार्यस्य पुरुषमतिपूर्वकत्वाभावे तत्र तस्य पुरुषस्यास्वातन्त्र्यं भवति तत्र दृष्टान्तमाह यथेति रोगादीनां पुरुषजत्वेऽपि बुद्धिपूर्वकत्वाभावात् तत्र पुरुषस्यास्वातन्त्र्यं तथेत्यर्थः। ततश्चाबुद्धिपूर्वमुत्पादकत्वादस्वातन्त्र्यम् अस्वातन्त्र्याच्चाप्राधान्यं प्रसज्येतेति। तथा च महातात्पर्यविरोध इत्युक्तं भवति। साक्षात्प्रसङ्गसम्भवेऽपि व्युत्पादनार्थमेवमुक्तम्। ननु वेदनित्यत्ववत्तदुत्पत्तावपि ऋचः सामानि जज्ञिरे ऋक्सं.6।4।18।4य.सं.31।7 इत्यादिवचनानि सन्ति तत्कथं निर्णयः इत्यतो विपक्षे बाधकोपेतानां नित्यत्ववाक्यानां प्राबल्यादुत्पत्तिवचनान्यन्यथाव्याख्येयानीत्याह उत्पत्तीति। उत्पत्तिवाची शब्दोऽभिव्यक्तौ क्व दृष्टः इत्यत आह नित्येति। अनादिनिधनतया नित्या न तूपचारेणेति मुख्यं नित्यत्वमुक्त्वा पुनरुत्सृष्टेत्युच्यते तत्र गत्यन्तराभावाद्व्यक्तिरेव ग्राह्येत्यर्थः। अन्यत्रापि प्रयोगं दर्शयति अभिव्यञ्जक इति। शतपथाभिव्यञ्जकतयानिश्चिते याज्ञवल्क्ये कर्तृशब्दोऽस्तीत्यर्थः। याज्ञवल्क्यः शतपथस्य कर्तैव किं न स्यात् इत्यत आह कथमिति। प्रागादित्ये स्थिताः ततो याज्ञवल्क्येनाधीता इत्येतत्प्रमितमित्यर्थः। इतोऽपि नित्यत्वपक्ष एव बलवानित्याह वचनेति। ऋचः सामानि इत्यादिकं वचनमात्रम्अत एव च नित्यत्वं 1।3।29 इति शारीरकोक्तं वाक्यं निर्णयात्मकम् वचनं च वृत्त्यन्तरेणापि सम्भवतीति न तूपचारितो वाक्यार्थावधारणात्मको निर्णयः। अतस्तस्मादिदं बलवदित्यर्थः। ननु शारीरकेशास्त्रयोनित्वात् 1।1।3 इति ब्रह्मणो वेदकारणत्वमुच्यत इत्यत आह शास्त्रमिति।ननु तत्पुरुषं परित्यज्य कुतो बहुव्रीहिरङ्गीक्रियते तथात्वे च ब्रह्मणो वेदाज्जातत्वं प्रसज्येत इत्यत आह जन्मादीति। लक्षणप्रमाणाभ्यां हि वस्तुनिर्णयः। तत्रजन्माद्यस्य इति सूत्रेण लक्षणेऽभिहिते कुतः प्रमाणादेवं प्रतिपत्तव्यं इति ब्रह्मणो जगज्जन्मादिकारणत्वे प्रमाणाकाङ्क्षा स्यात् न तु तस्य वेदाज्जातत्वं वेदकारणत्वं वाऽऽकाङ्क्षितम् आकाङ्क्षादिवशाच्च वाक्यार्थोऽवसेयः। ततो योनिशब्दं प्रमाणवाचिनमङ्गीकृत्य बहुव्रीहिरेवायं प्रतिपत्तव्यः न तु तत्पुरुषः वेदकारणत्वं च जगत्कारणत्वे हेतुत्वेनात्रोच्यते अतो नानाकाङ्क्षिताभिधानमेतदित्यत आह नहीति। अन्वयाभावात् एकदेशकारणत्वेन समुदायकारणत्वानुमानेऽतिप्रसङ्गाच्चेति हेरर्थः। मा भूदयं निश्चयहेतुः तथाप्यशक्यसृष्टेर्वेदस्य कर्तुर्ब्रह्मणो जगत्सृष्टिकर्तृत्वं सम्भवतीति सम्भावनाहेतुरयं स्यादित्यत आह न हीति। सम्भावना ह्यधिकेनाल्पस्य भवति यथा सहस्रेण शतस्य। नच समुदायसृष्टेस्तदेकदेशसृष्टिरधिकेति भावः। सृज्यत्वे वेदस्य कार्यत्वपक्ष इत्यर्थः। जगत्कारणत्वोक्त्या ब्रह्मणः सर्वज्ञत्वं प्रतीतं तत्स्फुटीकर्तुं तंत्र वेदकारणत्वं हेतुरनेनोच्यते अतो नासङ्गतिरित्यत आह न चेति। वेदकारणत्वं हेतुरित्यनुवर्तते। अबुद्धिपूर्वमुत्पन्नत्वाङ्गीकारादिति भावः। किञ्च यदि जगदेकदेशस्य वेदस्य स्रष्टा परमेश्वरः सर्वज्ञः सिद्ध्येत् तर्ह्यन्तर्भावितवेदस्य जगतः स्रष्टा सुतरां सर्वज्ञः सिद्ध्येदेव तथाचार्थादपि जन्मादिसूत्रेणैव सार्वज्ञस्य स्फुटं प्रतीतत्वात् पुनर्हेत्वाकाङ्क्षाभावेनासङ्गतिस्तदवस्थेति भावेनाह यदीति। सूत्रार्थमुपसंहरति तस्मादिति। ब्रह्मण इति शेषः। तानि चेत्यादिनोक्तमुपसंहरति अत इति। तथा च न समुद्भवशब्दस्य मुख्यार्थत्वलाभाय ब्रह्माक्षरशब्दार्थव्यत्ययः कार्य इति। तस्मादिति परामर्शविषयाप्रतीतेस्तं दर्शयन्वाक्यं व्याख्याति। यत इति। प्रतिष्ठितमित्युच्यत इति शेषः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।3.15।।तच्चापूर्वोत्पादकम् ब्रह्मोद्भवं ब्रह्म वेदः स एवोद्भवः प्रमाणं यस्य तत्तथा। वेदविहितमेव कर्माऽपूर्वसाधनं जानीहि नत्वन्यत्पाखण्डप्रतिपादितमित्यर्थः। ननु पाखण्डशास्त्रापेक्षया वेदस्य किं वैलक्षण्यं यतो वेदप्रतिपादित एव धर्मो नान्य इत्यत आह ब्रह्म वेदाख्यमक्षरसमुद्भवं अक्षरात्परमात्मनो निर्दोषात्पुरुषनिःश्वासन्यायेनाबुद्धिपूर्वं समुद्भव आविर्भावो यस्य तदक्षरसमुद्भवम्। तथाचापौरुषेयत्वेन निरस्तसमस्तदोषाशङ्कं वेदवाक्यं प्रमितिजनकतया प्रमाणमतीन्द्रियेऽर्थे नतु भ्रमप्रमादकरणापाटवविप्रलिप्सादिदोषवत्प्रणीतं पाखण्डवाक्यं प्रमितिजनकमिति भावः। तथाच श्रुतिःअस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्यस्यैवैतानि निःश्वसितानि इति। तस्मात्साक्षात्परमात्मसमुद्भवतया सर्वगतं सर्वप्रकाशकं नित्यमविनाशि च ब्रह्म वेदाख्यं यज्ञे धर्माख्येऽतीन्द्रिये प्रतिष्ठितं तात्पर्येण। अतः पाखण्डप्रतिपादितोपधर्मपरित्यागेन वेदबोधित एव धर्मोऽनुष्ठेय इत्यर्थः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।3.15।।ननु देवानां विभूतिरूपत्वेऽपि साक्षात्पुरुषोत्तमभजनाभावादनुचितमेवेत्याशङ्क्याह कर्मेति। कर्म ब्रह्मोद्भवं ब्रह्मणः सकाशादुद्भवं प्रकटं जानीहि। अत्रायं भावः वेदात्कर्मोत्पत्तिः स च ब्रह्मनिश्श्वासस्तेन तथा। ब्रह्मणः पुरुषोत्तमत्वज्ञापनार्थं विशिनष्टि अक्षरसमुद्भवमिति। तद्ब्रह्म अक्षरसमुद्भवम् अक्षरस्य समुद्भवो यस्मात्तादृशम्। अक्षरस्य पुरुषोत्तमचरणात्मकत्वात्तथा। तस्मात्कारणात् सर्वगतं सर्वव्यापकं सर्वरूपं नित्यं यद्ब्रह्म तदेव यज्ञे प्रतिष्ठितम्। तेन न पूर्वोक्तदोषसम्भावनेति भावः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।3.15।। कर्म ब्रह्मोद्भवं ब्रह्म वेदः सः उद्भवः कारणं प्रकाशको यस्य तत् कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि विजानीहि। ब्रह्म पुनः वेदाख्यम् अक्षरसमुद्भवम् अक्षरं ब्रह्म परमात्मा समुद्भवो यस्य तत् अक्षरसमुद्भवम्। ब्रह्म वेद इत्यर्थः। यस्मात् साक्षात् परमात्माख्यात् अक्षरात् पुरुषनिःश्वासवत् समुद्भूतं ब्रह्म तस्मात् सर्वार्थप्रकाशकत्वात् सर्वगतम् सर्वगतमपि सत् नित्यं सदा यज्ञविधिप्रधानत्वात् यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।3.15।।कर्म ब्रह्मोद्भवमिति। ब्रह्म वेदः प्रजापतिर्वा तस्यापि ब्रह्मतया निरूपणं ब्रह्मवादानुरोधात्। तदक्षरसमुद्भवं कूटस्थं प्रणवसम्भूतम्। यद्वा पुरुषोद्भूतम् ब्रह्मणः सर्वगतत्वात् सर्वं ब्रह्म इति वेदे निरूपणात्। ब्रह्मवाद एवाभिमत इत्याह। ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितमिति। पुरुष एवेदं सर्वं ऋक्सं.6।4।17।2य.सं.31।2 यज्ञो वै विष्णुः तै.सं.1।7।4 इति पुरुषावयवेषु यज्ञसम्भारकल्पनात्। ब्रह्मणोऽभिन्नो यज्ञः पूर्वं प्रजापतिना कृत्वोपदिष्ट इति यज्ञे ब्रह्म प्रतिष्ठितम्। एतच्च निबन्धे सुबोधिन्यां च विस्तृतम्।