BG - 3.18

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्िचदर्थव्यपाश्रयः।।3.18।।

naiva tasya kṛitenārtho nākṛiteneha kaśhchana na chāsya sarva-bhūteṣhu kaśhchid artha-vyapāśhrayaḥ

  • na - not
  • eva - indeed
  • tasya - his
  • kṛitena - by discharge of duty
  • arthaḥ - gain
  • na - not
  • akṛitena - without discharge of duty
  • iha - here
  • kaśhchana - whatsoever
  • na - never
  • cha - and
  • asya - of that person
  • sarva-bhūteṣhu - among all living beings
  • kaśhchit - any
  • artha - necessity
  • vyapāśhrayaḥ - to depend upon

Translation

For him, there is no interest whatsoever in what is done or not done; nor does he depend on any being for any purpose.

Commentary

By - Swami Sivananda

3.18 न not? एव even? तस्य of hi? कृतेन by action? अर्थः concern? न not? अकृतेन by actions not done? इह here? कश्चन् any? न not? च and? अस्य of this man? सर्वभूतेषु in all beings? कश्चित् any? अर्थव्यपाश्रयः depending for any object.Commentary The sage who is thus rejoicing in the Self does not gain anything by doing any action. For him really no purpose is served by an action. No evil (Pratyavaya Dosha) can touch him from inaction. He does not lose anything from inaction. He need not depend upon anybody to gain a particular object. He need not exert himself to get the favour of anybody.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

 3.18।। व्याख्या--'नैव तस्य कृतेनार्थः'--प्रत्येक मनुष्यकी कुछ-न-कुछ करनेकी प्रवृत्ति होती है। जबतक यह करनेकी प्रवृत्ति किसी सांसारिक वस्तुकी प्राप्तिके लिये होती है, तबतक उसका अपने लिये 'करना' शेष रहता ही है। अपने लियेकुछ-न-कुछ पानेकी इच्छासे ही मनुष्य बँधता है। उस इच्छाकी निवृत्तिके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकता है।कर्म दो प्रकारसे किये जाते हैं। कामना-पूर्तिके लिये और कामना-निवृत्तिके लिये। साधारण मनुष्य तो कामना-पूर्तिके लिये कर्म करते हैं, पर कर्मयोगी कामना-निवृत्तिके लिये कर्म करता है। इसलिये कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें कोई भी कामना न रहनेके कारण उसका किसी भी कर्तव्यसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। उसके द्वारा निःस्वार्थभावसे समस्त सृष्टिके हितके लिये स्वतः कर्तव्य-कर्म होते हैं।कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका कर्मोंसे अपने लिये (व्यक्तिगत सुख-आरामके लिये) कोई सम्बन्ध नहीं रहता। इस महापुरुषका यह अनुभव होता है कि पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि केवल संसारके हैं और संसारसे मिले हैं व्यक्तिगत नहीं हैं। अतः इनके द्वारा केवल संसारके लिये ही कर्म करना है, अपने लिये नहीं। कारण यह है कि संसारकी सहायताके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। इसके अलावा मिली हुई कर्म-सामग्रीका सम्बन्ध भी समष्टि संसारके साथ ही है, अपने साथ नहीं। इसलिये अपना कुछ नहीं है। व्यष्टिके लिये समष्टि हो ही नहीं सकती। मनुष्यकी यही गलती होती है कि वह अपने लिये समष्टिका उपयोग करना चाहता है इसीसे उसे अशान्ति होती है। अगर वह शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका समष्टिके लिये उपयोग करे तो उसे महान् शान्ति प्राप्त हो सकती है। कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें यही विशेषता रहती है कि उसके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका उपयोग मात्र संसारके लिये ही होता है। अतः उसका शरीरादिकी क्रियाओंसे अपना कोई प्रयोजन नहीं रहता। प्रयोजन न रहनेपर भी उस महापुरुषसे स्वाभाविक ही लोगोंके लिये आदर्शरूप उत्तम कर्म होते हैं। जिसका कर्म करनेसे प्रयोजन रहता है उससे आदर्श कर्म नहीं--होते यह सिद्धान्त है। 'नाकृतेनेह कश्चन'--जो मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे अपना सम्बन्ध मानता है और आलस्य, प्रमाद आदिमें रुचि रखता है, वह कर्मोंको नहीं करना चाहता; क्योंकि उसका प्रयोजन प्रमाद, आलस्य, आराम आदिसे उत्पन्न तामस-सुख रहता है (गीता 18।39)। परन्तु यह महापुरुष, जो सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठ चुका है, तामस सुखमें प्रवृत्त हो ही कैसे सकता है? क्योंकि इसका शरीरादिसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता, फिर आलस्य-आराम आदिमें रुचि रहनेका तो प्रश्न ही नहीं उठता।'मार्मिक बात'प्रायः साधक कर्मोंके न करनेको ही महत्त्व देते हैं। वे कर्मोंसे उपरत होकर समाधिमें स्थित होना चाहते हैं, जिससे कोई भी चिन्तन बाकी न रहे। यह बात श्रेष्ठ और लाभप्रद तो, है पर सिद्धान्त नहीं है। यद्यपि प्रवृत्ति-(करना-) की अपेक्षा निवृत्ति (न करना) श्रेष्ठ है, तथापि यह तत्त्व नहीं है।प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना)--दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं। निर्विकल्प समाधितक सब प्रकृतिका राज्य है, क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी व्युत्थान होता है। क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है--'प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः' और क्रिया हुए बिना व्युत्थानका होना सम्भव ही नहीं। इसलिये चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिकी तरह सोना, बैठना खड़ा होना मौन होना मूर्च्छित होना और समाधिस्थ होना भी क्रिया है (टिप्पणी प0 142)। वास्तविक तत्त्व(चेतन स्वरूप) में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही नहीं हैं। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंका निर्लिप्त प्रकाशक है।शरीरसे तादात्म्य होनेपर ही (शरीरको लेकर) करना और न करना ये दो विभाग (द्वन्द्व) होते हैं। वास्तवमें करना और न करना दोनोंकी एक ही जाति है। शरीरसे सम्बन्ध रखकर न करना भी वास्तवमें करना ही है। जैसे 'गच्छति' (जाता है) क्रिया है ऐसे ही 'तिष्ठति' (खड़ा है) भी क्रिया ही है। यद्यपि स्थूल दृष्टिसे 'गच्छति' में क्रिया स्पष्ट दिखायी देती है और 'तिष्ठति' में क्रिया नहीं दिखायी देती है, तथापि सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो जिस शरीरमें 'जाने' की क्रिया थी, उसीमें अब 'खड़े रहने' की क्रिया है। इसी प्रकार किसी कामको करना और न 'करना' इन दोनोंमें ही क्रिया है। अतः जिस प्रकार क्रियाओंका स्थूलरूपसे दिखायी देना (प्रवृत्ति) प्रकृतिमें ही है, उसी प्रकार स्थूल दृष्टिसे क्रियाओंका दिखायी न देना (निवृत्ति) भी प्रकृतिमें ही है। जिसका प्रकृति एवं उसके कार्यसे भौतिक तथा आध्यात्मिक और लौकिक तथा पारलौकिक कोई प्रयोजन नहीं रहता, उस महापुरुषका करने एवं न करनेसे कोई स्वार्थ नहीं रहता।जडताके साथ सम्बन्ध रहनेपर ही करने और न करनेका प्रश्न होता है; क्योंकि जडताके सम्बन्धके बिना कोई क्रिया होती ही नहीं। इस महापुरुषका जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति--दोनोंसे अतीत सहज-निवृत्त-तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। अतः साधकको जडता-(शरीरमें अहंता और ममता) से सम्बन्धविच्छेद करनेकी ही आवश्यकता है। तत्त्व तो सदा ज्यों-का-त्यों विद्यमान है ही।'न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः' शरीर तथा संसारसे किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध न रहनेके कारण उस महापुरुषकी समस्त क्रियाएँ स्वतः दूसरोंके हितके लिये होती हैं। जैसे शरीरके सभी अङ्ग स्वतः शरीरके हितमें लगे रहते हैं, ऐसे ही उस महापुरुषका अपना कहलानेवाला शरीर (जो संसारका एक छोटा-सा अङ्ग है) स्वतः संसारके हितमें लगा रहता है। उसका भाव और उसकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ संसारके हितके लिये ही होती हैं। जैसे अपने हाथोंसे अपना ही मुख धोनेपर अपनेमें स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीरके द्वारा संसारका हित होनेपर उस महापुरुषमें किञ्चित् भी स्वार्थ प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता। पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सिद्ध महापुरुषके लिये कहा कि उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है--'तस्य कार्यं न विद्यते।' उसका हेतु बताते हुए भगवान्ने इस श्लोकमें उस महापुरुषके लिये तीन बातें कही हैं--(1) कर्म करनेसे उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता, (2) कर्म न करनेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता और (3) किसी भी प्राणी और पदार्थसे उसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् कुछ पानेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता।वस्तुतः स्वरूपमें करने अथवा न करनेका कोई प्रयोजन नहीं है और किसी व्यक्ति तथा वस्तुके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है। कारण कि शुद्ध स्वरूपके द्वारा कोई क्रिया होती ही नहीं। जो भी क्रिया होती है, वह प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोंके सम्बन्धसे ही होती है। इसलिये अपने लिये कुछ करनेका विधान ही नहीं है।जबतक मनुष्यमें करनेका राग, पानेकी इच्छा, जीनेकी आशा और मरनेका भय रहता है, तबतक उसपर कर्तव्यका दायित्व रहता है। परन्तु जिसमें किसी भी क्रियाको करने अथवा न करनेका कोई राग नहीं है, संसारकी किसी भी वस्तु आदिको प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं है, जीवित रहनेकी कोई आशा नहीं है और मृत्युसे कोई भय नहीं है, उसे कर्तव्य करना नहीं पड़ता, प्रत्युत उससे स्वतः कर्तव्य-कर्म होते रहते हैं।जहाँ अकर्तव्य होनेकी सम्भावना हो, वहीं कर्तव्य पालनकी प्रेरणा रहती है।'विशेष बात'गीतामें भगवान्की ऐसी शैली रही है कि वे भिन्नभिन्न साधनोंसे परमात्माकी ओर चलनेवाले साधकोंके भिन्न-भिन्न लक्षणोंके अनुसार ही परमात्माको प्राप्त सिद्ध महापुरुषोंके लक्षणोंका वर्णन करते हैं। यहाँ सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें भी इसी शैलीका प्रयोग किया गया है। जो साधन जहाँसे प्रारम्भ होता है, अन्तमें वहीं उसकी समाप्ति होती है। गीतामें कर्मयोगका प्रकरण यद्यपि दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकसे प्रारम्भ होता है, तथापि कर्मयोगके मूल साधनका विवेचन दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें किया गया है। उस श्लोक (2। 47) के चार चरणोंमें बताया गया है-- (1) कर्मण्येवाधिकारस्ते (तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है) (2) मा फलेषु कदाचन (कर्मफलोंमें तेरा कभी भी अधिकार नहीं है)। (3) मा कर्मफलहेतुर्भूः (तू कर्मफलका हेतु मत बन)। (4) मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो)। प्रस्तुत श्लोक (3। 18) में ठीक उपर्युक्त साधनाकी सिद्धिकी बात है। वहाँ (2। 47) में दूसरे और तीसरे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह प्रस्तुत श्लोकके उत्तरार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका किसी प्राणी और पदार्थसे कोई स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। वहाँ पहले और चौथे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह प्रस्तुत श्लोकके पूर्वार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका कर्म करने अथवा न करने--दोनोंसे ही कोई प्रयोजन नहीं रहता। इस प्रकार सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें 'कर्मयोग' से सिद्ध हुए महापुरुषके लक्षणोंका ही वर्णन किया गया है।कर्मयोगके साधनकी दृष्टिसे वास्तवमें अठारहवाँ श्लोक पहले तथा सत्रहवाँ श्लोक बादमें आना चाहिये। कारण कि जब कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषका कर्म करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणी-पदार्थसे किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। तब उसकी रति, तृप्ति और संतुष्टि अपने-आपमें ही हो जाती है। परन्तु सोलहवें श्लोकमें भगवान्ने 'मोघं पार्थ स जीवति' पदोंसे कर्तव्य-पालन न करनेवाले मनुष्यके जीनेको निरर्थक बतलाया था; अतः सत्रहवें श्लोकमें 'यः तु' पद देकर यह बतलाते हैं कि यदि सिद्ध महापुरुष कर्तव्य-कर्म नहीं करता तो उसका जीना निरर्थक नहीं है, प्रत्युत महान् सार्थक है। कारण कि उसने मनुष्यजन्मके उद्देश्यको पूरा कर लिया है। अतः उसके लिये अब कुछ भी करना शेष नहीं रहा।जिस स्थितिमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता उस स्थितिको साधारण-से-साधारण मनुष्य भी प्रत्येक अवस्थामें तत्परता एवं लगनपूर्वक, निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करनेपर प्राप्त कर सकता है; क्योंकि उसकी प्राप्तिमें सभी स्वतन्त्र और अधिकारी हैं। कर्तव्यका सम्बन्ध प्रत्येक परिस्थितिसे जुड़ा हुआ है। इसलिये प्रत्येकपरिस्थितिमें कर्तव्य निहित रहता है। केवल सुखलोलुपतासे ही मनुष्य कर्तव्यको भूलता है। यदि वह निःस्वार्थ-भावसे दूसरोंकी सेवा करके अपनी सुखलोलुपता मिटा डाले, तो जीवनके सभी दुःखोंसे छुटकारा पाकर परम शान्तिको प्राप्ति हो सकता है। इस परम शान्तिकी प्राप्तिमें सबका समान अधिकार है। संसारके सर्वोपरि पदार्थ, पद आदि सबको समानरूपसे मिलने सम्भव नहीं हैं; किन्तु परम शान्ति सबको समानरूपसेही मिलती है।  सम्बन्ध--पीछेके दो श्लोकोंमें वर्णित महापुरुषकी स्थितिको प्राप्त करनेके लिये साधकको क्या करना चाहिये--इसपर भगवान् आगेके श्लोकमें साधन बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।3.18।। सामान्य मनुष्य कर्म में दो कारणों से प्रवृत्त होता है (क) कर्म करने से (कृत) कुछ लाभ की आशा और (ख) कर्म न करने से (अकृत) किसी हानि का भय। परन्तु जिसने अपने परम पूर्ण आत्मस्वरूप को साक्षात् कर लिया ऐसे तृप्त और सन्तुष्ट पुरुष को कर्म करने अथवा न करने से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता क्योंकि उसे न अधिक लाभ की आशा होती है और न हानि का भय। आत्मानुभूति में स्थित वह पुरुष आनन्द के लिये किसी भी वस्तु या व्यक्ति पर आश्रित नहीं होता। परमार्थ दृष्टि से बाह्य विषय रूप जगत् आत्मस्वरूप से भिन्न नहीं है। वास्तव में आत्मा ही अविद्या वृत्ति से जगत् के रूप में प्रतीत होता है।चूँकि तुमने समुद्र के समान पूर्णत्व प्राप्त नहीं किया है इसलिए

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।3.18।।इतश्चात्मविदो न किंचित्कर्तव्यमित्याह किञ्चेति। अभ्युदयनिःश्रेयसयोरन्यतरत्प्रयोजनं कृतेन सुकृतेनात्मविदो भविष्यतीत्याशङ्क्याह नैवेति। प्रत्यवायनिवृत्तये स्वरूपप्रच्युतिप्रत्याख्यानाय वा कर्म स्यादित्याशङ्क्याह नेत्यादिना। ब्रह्मादिषु स्थावरान्तेषु भूतेषु कंचिद्भूतविशेषमाश्रित्य कश्चिदर्थो विदुषः साध्यो भविष्यति तदर्थं तेन कर्तव्यं कर्मेत्याशङ्क्याह नचेति। तत्राद्यं पादमादत्ते नैवेति। तं व्याचष्टे तस्येति। आत्मविदः स्वर्गाद्यभ्युदयानर्थित्वं निःश्रेयसस्य च प्राप्तत्वान्न कृतं कर्मार्थवदित्यर्थः। आत्मविदा चेत्कर्म न क्रियते तर्हि तेनाकृतेन तस्यानर्थो भविष्यतीति तत्प्रत्याख्यानार्थं तस्य कर्तव्यं कर्मेति शङ्कते तर्हीति। द्वितीयपादेनोत्तरमाह नेत्यादिना। अतो न तन्निवृत्त्यर्थं कृतमर्थवदिति शेषः। द्वितीयं भागं विभजते नचास्येति। व्यपाश्रयणमालम्बनं नेति संबन्धः। पदार्थमुक्त्वा वाक्यार्थमाह कंचिदिति। भूतविशेषस्याश्रितस्यापि क्रियाद्वारा प्रयोजनप्रसवहेतुत्वमिति मत्वाह येनेति। तर्हि मयापि यथोक्तं तत्त्वमाश्रित्य त्याज्यमेव कर्मेत्यर्जुनस्य मतमाशङ्क्याह न त्वमिति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।3.18।। चतुर्थपादं विवृणोति नैवेति। तस्यात्मरतेः कृतेन कर्मणाभ्युदयार्थेन ज्ञानार्थेन मोक्षार्थेन वा प्रयोजनं नैवास्ति। स्वर्गस्य तुच्छरुपेण ज्ञातत्वात्। ज्ञानस्य जातत्वात्नास्त्यकृतः कृतेन इतिश्रुत्या मोक्षस्य कर्माकार्यत्वप्रतिपादनात्। अस्तु तर्ह्यकृतेन प्रत्यवायाख्योऽर्थ इत्यत आह नेति। इह लोके कश्चिदपि प्रत्यवायप्राप्तिरुपः स्वहानिलक्षणोऽर्थो नास्ति आत्मरतेः नित्यकरणेऽधिकृतत्वाभावात्। तस्मिन्काले प्रत्यवायजनकभावरुपविहितान्यकर्मणि तस्य व्यापृतत्वाभावाच्च। यतो यत्किंचिदपि कस्मादपि तस्य साध्यं नास्तीत्याह नचेति। अस्य सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु कश्चिदर्थोऽर्थामाश्रयणीयः सेवनीयो नास्ति येन तदर्था क्रियानुष्ठेया स्यात्। अस्मिन्श्लोके भूमिकारुढस्येत्यादिशब्दस्याभावेनाप्रासङ्गिकं वासिष्ठोक्तभूमिकाप्रदर्शनं कैश्चित्कृतमिति बोध्यम्।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।3.18।।तस्य कर्मकाले वक्तव्योऽहमिति कञ्चित्प्रत्युक्त्वा तत्कृतावात्मरत्यधिकः प्तमो वाऽर्थो नास्ति। न च सन्ध्याद्यकृतौ कश्चिद्दोषोऽस्ति। न चैतदपहाय सर्वभूतेषु कश्चित्प्रयोजनाश्रयः। अर्थो येन दर्शनादिना भवति सोऽर्थव्यपाश्रयः। ज्ञानमात्रेण यद्यपि प्रत्यवायो न भवति तदर्जुनस्यपि सममिति न तस्य कर्मोपदेशोपयोग्ये तद्भवति। ईषत्प्रारब्धानर्थसूचकं च तद्भवति। महच्चेद्वृत्रहत्यादिवत्।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।3.18।।एतदेवाह नैवेति। तस्यात्मरतेः कृतेन कर्मणार्थः प्रयोजनं नास्ति। स्वर्गादौ लिप्साभावात्। मोक्षस्य चाक्रियासाध्यत्वात्नास्त्यकृतः कृतेन इति श्रुतेः। अकृतो मोक्षः कृतेन कर्मणा नास्तीति श्रुत्यर्थः। अकृतेन विरुद्धकर्मणाप्यर्थो नरकादिरस्य नास्ति। अत्र कृताकृतशब्दौ मित्रामित्रपदवत्परस्परविरुद्धार्थवाचितया पुण्यपापवचनौ। ये तु अकृतेनेति भावे निष्ठा। नित्याकरणाद्गर्हितत्वरूपो वा प्रत्यवायप्राप्तिरूपो वा कश्चनार्थो विदुषो नास्तीति व्याचक्षते। तेषामप्यभावात् भावोत्पत्तेरनभ्युपगमान्नित्यानां काले यदन्यदविहितं क्रियते तत एव प्रत्यवायोत्पादो वक्तव्य इति घट्टकुट्यां प्रभातवृत्तान्त आपद्यते। अत्रोपपत्तिमाह न चेति। चो हेतौ। यस्मादात्मरतेः सर्वभूतेषु चेतनाचेतनेषूत्तममध्यमाधमेषु कश्चिदप्यर्थव्यपाश्रयः सुखभोगात्मकप्रयोजनाभिसंबन्धो नास्ति आत्मरतित्वादेव निष्कामत्वाद्विदुषः पुण्यपापफलसंबन्धो नास्तीत्यर्थः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।3.18।।अत एव तस्य आत्मदर्शनाय कृतेन तत्साधनेन न अर्थः न किञ्चित् प्रयोजनम् अकृतेन आत्मदर्शनसाधनेन न कश्चिद् अनर्थः असाधनायत्तात्मदर्शनत्वात्। स्वत एवात्मव्यतिरिक्तसकलाचिद्वस्तुविमुखस्य अस्य सर्वेषु प्रकृतिपरिणामविशेषेषु आकाशादिषु भूतेषु सकार्येषु न कश्चित् प्रयोजनतया साधनतया वा व्यपाश्रयः यतः तद्विमुखीकरणाय साधनारम्भः स हि मुक्त एव।यस्माद् असाधनायत्तात्मदर्शनस्य एव साधनाप्रवृत्तिः यस्मात् च साधने प्रवृत्तस्य अपि सुशकत्वाद् अप्रमादत्वात् तदन्तर्गतात्मयाथात्म्यानुसन्धानत्वाद् च ज्ञानयोगिनः अपि देहयात्रायाः कर्मानुवृत्त्यपेक्षत्वात् च कर्मयोग एव आत्मदर्शननिर्वृत्तौ श्रेयान्

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।3.18।।तत्र हेतुमाह नैव तस्येति। कृतेन कर्मणा तस्यार्थः पुण्यं नैवास्ति। न चाकृतेन कश्चन कोऽपि प्रत्यवायोऽस्ति। निरहंकारत्वेन विधिनिषेधातीतत्वात् तथापितस्मात्तदेषां न प्रियं यदेतन्मनुष्या विदुः इति श्रुतेर्मोक्षे देवकृतविघ्नसंभवात्तत्परिहारार्थ कर्मभिर्देवाः सेव्या इत्याशङ्क्योक्तम्। सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु कश्चिदप्यर्थञ्यपाश्रयः आश्रय एव व्यपाश्रयः। अर्थे मोक्ष आश्रयणीयोऽस्य नास्तीत्यर्थः। विघ्नाभावस्य श्रुत्यैवोक्तत्वात्। तथाच श्रुतिःतस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशते आत्मा ह्येषां स भवति इति। हनेत्यव्ययमप्यर्थे। देवा अपि तस्यात्मतत्त्वज्ञास्याभूत्यै ब्रह्मताप्रतिबन्धनायनेशते न शक्नुवन्तीति श्रुतेरर्थः। देवकृतास्तु विघ्नाः सभ्यग्ज्ञानोत्पत्तेः प्रागेवयदेतद्ब्रह्म मनुष्या विदुस्तदेषां देवानां न प्रियम् इति श्रुत्या ब्रह्मज्ञानस्यैवाप्रियत्वोक्त्या तत्रैव विघ्नकर्तृत्वस्य सूचितत्वात्।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।3.18।।अर्थशब्दस्यात्र प्रयोजनविषयतां वदन्तस्य कार्यं न विद्यते इत्यनेन पौनरुक्त्यं परिहरति न किञ्चित्प्रयोजनमिति। प्रयोजनाभावात् कर्तव्यं नास्तीत्युक्तं भवति।नाकृतेन इत्यत्रार्थो न निषेध्यः किन्त्वकरणे प्रत्यवाय इत्यभिप्रायेणाह न कश्चिदनर्थ इति। अर्थानर्थौ ह्यात्मदर्शनतदभावौ तत्र पूर्वस्य सिद्धत्वात् न साध्यत्वम् उत्तरस्य चात्यन्तनिवृत्तत्वान्न निवर्तनीयत्वमित्यभिप्रायेणाह असाधनायत्तात्मदर्शनत्वादिति।न चास्य इत्यादिना प्रतिबन्धनिवृत्त्यर्थमपेक्षा नास्तीत्युच्यत इत्यभिप्रायेणाह स्वत एवेत्यादि। अस्येतिशब्द आत्मरतिरित्यादिनिर्दिष्टप्रकारपरामर्शीत्यभिप्रायेणोक्तंसकलाचिद्वस्तुविमुखस्येति। सर्वशब्दस्यात्रासङ्कोचेन सावान्तरभेदसमस्तप्राकृतभोग्यविषयतामाहप्रकृतीत्यादिना सकार्येष्वित्यन्तेन। परिणामशब्देनात्र भूतशब्दस्य भवनक्रियायोगिपरत्वं दर्शितम्।अर्थव्यपाश्रयः इत्यत्रार्थशब्दो भावप्रधान इति व्यनक्ति प्रयोजनतया व्यपाश्रय इति। व्यपाश्रयः स्वीकरणम्। अर्थ एव व्यपाश्रयः स्वीकरणीयमिति वाऽभिप्रेतम्। एतेन प्रयोजननिमित्तो व्यपाश्रय इति परव्याख्या निरस्ता। नचास्येत्यादेर्हेत्वभिप्रायेण वा मुक्त एव हि साधननिरपेक्ष इति श्लोकद्वयार्थनिगमनाभिप्रायेण चोच्यते स हि मुक्त एवेति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।3.17 3.19।।यश्चेत्यादि पूरुष इत्यन्तम्। आत्मरतेस्तु कर्म इन्द्रियव्यापारतयैव कुर्वतः करणाकरणेषु समता। अत एव नासौ भूतेषु किंचिदात्मप्रयोजनमपेक्ष्य निग्रहानुग्रहौ करोति अपि तु करणीयमिदम् इत्येतावता। तस्मादसक्त एव करणीयं कर्म कुर्यात्।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।3.18।।यदीयं कार्याभावोक्तिर्न ज्ञानिमात्रस्य किन्त्वसम्प्रज्ञातसमाधिस्थस्यैव तर्हिनैव तस्य कृतेनार्थः इत्युत्तरं वाक्यं न सम्बध्यते असम्प्रज्ञातसमाधेः करणस्यैवाभावेन तत्प्रयोजनाभावकथनस्यैवायोगात् ज्ञानिनस्तु करणसम्भवेन तत्प्रयोजनप्रतिषेधोपपत्तिरिति चेत् न तर्ह्यतीव मनस्समाधानमपि न कार्यमित्याक्षेपस्यतस्य कार्यं न विद्यते 3।17 इत्युत्तरं कस्मादुक्तं कर्मकृतिकाले त्वयाऽहमुद्बोधनीय इति कञ्चित्प्रत्युक्त्वा समाहितस्तेन योगशास्त्रोदितोपायैरुद्बोधितः कर्म करोतीति कुतो नोक्तम् इत्याशङ्खानिरासायेदमेवमुच्यत इत्यभिप्रेत्य व्याचष्टे तस्येति। तस्यासम्प्रज्ञातसमाधिस्थस्यार्थो नास्तीति सम्बन्धः। उक्त्वोद्बुद्धस्येति शेषः। एवं तर्हि तस्यैव महत्सुखत्वादित्याद्युक्तिविरोध इत्यत उक्तम् आत्मेति। समो वाऽऽत्मरत्या। समप्रतिषेधः कैमुत्यार्थः। न तु समव्ययफलं कर्मानुष्ठीयते। नन्वत्र कश्चनेत्यस्य विशेष्याकाङ्क्षायां सन्निधानादर्थ इति सम्बध्यते। तथा चेदमयुक्तम्। न हि कर्माकरणेऽर्थप्राप्तिरस्ति येन प्रतिषेधः सङ्गच्छते। अर्थसन्निधानादपि योग्यताया बलवत्त्वात्कश्चन दोष इत्यध्याह्रियत। तथाप्यश्वमेधाद्यकृतौ प्रत्यवायाप्राप्तेः प्रतिषेधोऽसङ्गत एवेत्यतोनाकृतेन इत्येतत् व्याचष्टे न चेति। मा भूद्यज्ञादिकरणार्थमुत्थानं नित्यनैमित्तिकाकरणे प्रत्यवायप्राप्तेः तदर्थं तु स्यादित्याशङ्कानिरासार्थमेतत्। सन्ध्येति तत्कालेऽनुष्ठेयं कर्मोच्यते। मा भूदल्पस्य यज्ञादेरनुष्ठाने प्रयोजनाभावः सन्ध्याद्यकृतौ प्रत्यवायश्च तथापि गुरुदेवतादिपूजाकरणाकरणयोरर्थप्रत्यवायौ स्यातामेव। अतस्तत्सन्निधिप्राप्तावुत्थानमावश्यकमेवेत्याशङ्कानिरासार्थंन चास्य इत्युक्तं तदयुक्तम् उक्तविरोधादेवेत्यतो व्याचष्टे न चैतदिति। एतदसम्प्रज्ञातसमाधानं अपहायोत्थितस्येति शेषः।अपहाय इत्यनेन गुर्वादिपूजाया अपि आधिक्यं निषेधति आधिक्यस्यैव पूर्वत्यागोपयोगित्वात्। सर्वभूतेषु गुर्वादिषु। नन्वर्थव्यपाश्रयो नामार्थप्राप्तिः तथा च सर्वभूतेभ्य इति स्यादित्यत आह अर्थ इति। अनेनार्थस्य व्यपाश्रयः प्राप्तिर्येन दर्शनादिना व्यापारेण भवतीति व्यधिकरणो बहुव्रीहिरयमित्युक्तं भवति। तथा च दर्शनादेर्विषया गुर्वादय इति सप्तम्युपपत्तिः। अनेनानर्थव्यपाश्रयोऽप्युपलक्ष्यते। स्यादेतत् किमनेनायासेन ज्ञानिमात्रविषयमेतत्किं न स्यात् ज्ञानमात्रेण प्रत्यवायाभावात्तत्राप्यस्यार्थस्य सम्भवात्। अवधारणादेश्चोपचरितार्थत्वसम्भवादित्यत आह ज्ञानेति तज्ज्ञानमात्रम्। इतिशब्दो हेतौ। एतत्कार्याभाववचनं प्रत्युत विरोधि इति हृदयम्। प्रत्यवायो न भवतीत्यङ्गीकृत्योक्तम्। वस्तुतस्तु ज्ञानिनोऽप्यस्ति। प्रतिषिद्धकर्मकरणादिनाऽनिष्टप्राप्तिरित्याह ईषदिति। सूचिते च तदैव चित्तखेदः। उपलक्षणं चैतत्। मुक्तावानन्दह्रास इत्यपि द्रष्टव्यम्। (पुनश्च) मुक्तावानन्दह्रास इति श्रीनिवासतीर्थः। उपलक्षणमिति कृष्णाचार्यटिप्पणी। तथा विहितकरणे नानन्दवृद्धिरपीति।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।3.18।।नन्वात्मविदोऽप्यभ्युदयार्थं निःश्रेयसार्थं प्रत्यवायपरिहारार्थं वा कर्म स्यादित्यतआह तस्यात्मरतेः कृतेन कर्मणाभ्युदयलक्षणो निःश्रेयसलक्षणो वाऽर्थः प्रयोजनं नैवास्ति। तस्य स्वर्गाद्यभ्युदयानर्थित्वात् निःश्रेयसस्य च कर्मासाध्यत्वात्। तथाचं श्रुतिःपरीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन इति। अकृतो नित्यो मोक्षः कृतेन कर्मणा नास्तीत्यर्थः। ज्ञानसाध्यस्यापि व्यावृत्तिरेवकारेण सूचिता। आत्मरूपस्य हि निःश्रेयसस्य नित्यप्राप्तस्याज्ञानमात्रमप्राप्तिः। तच्च तत्वज्ञानमात्रापनोद्यम्। तस्मिंस्तत्त्वज्ञानेनापनुन्ने तस्यात्मविदो न किंचित्कर्मसाध्यं ज्ञानसाध्यं वा प्रयोजनमस्तीत्यर्थः। एवंभूतेनापि प्रत्यवायपरिहारार्थं कर्माण्यनुष्ठेयान्येवेत्यत आह नाकृतेनेति भावे निष्ठा। नित्यकर्माकरणेनेह लोके गर्हितत्वरूपः प्रत्यवायप्राप्तिरूपो वा कश्चनार्थो नास्ति। सर्वत्रोपपत्तिमाहोत्तरार्धेन। चो हेतौ। यस्मादस्यात्मविदः सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु कोऽप्यर्थव्यपाश्रयः प्रयोजनसंबन्धो नास्ति कंचिद्भूतविशेषमाश्रित्य कोऽपि क्रियासाध्योऽर्थो नास्तीति वाक्यार्थः। अतोऽस्य कृताकृते निष्प्रयोजने।नैनं कृताकृते तपतः इति श्रुतेः।तस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषां स भवति इति श्रुतेर्देवा अपि तस्य मोक्षाभवनाय न समर्था इत्युक्तेर्न विघ्नाभावार्थमपि देवाराधनरूपकर्मानुष्ठानमित्यभिप्रायः। एतादृशो ब्रह्मविद्भूमिकासप्तकभेदेन निरूपितो वसिष्ठेनज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा परिकीर्तिता। विचारणा द्वितीया स्यात्तृतीया तनुमानसा।।सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका। पदार्थाभावनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता इति। तत्र नित्यानित्यवस्तुविवेकादिपुरःसरा फलपर्यवसायिनी मोक्षेच्छा प्रथमा। ततो गुरुमुपसृत्य वेदान्तवाक्यविचारः श्रवणमननात्मको द्वितीया। ततो निदिध्यासनाभ्यासेन मनस एकाग्रतया सूक्ष्मवस्तुग्रहणयोग्यत्वं तृतीया। एतद्भूमिकात्रयं साधनरूपं जाग्रदवस्थोच्यते योगिभिः अभेदेन जगतो भानात्। तदुक्तम्भूमिकात्रितयं त्वेतद्राम जाग्रदिति स्थितम्। यथावद्भेदबुद्ध्येदं जगज्जाग्रति दृश्यते।। इति। ततो वेदान्तवाक्यान्निर्विकल्पको ब्रह्मात्मैक्यसाक्षात्कारश्चतुर्थी भूमिका फलरूपा सत्त्वापत्तिः स्वप्नावस्थोच्यते। सर्वस्यापि जगतो मिथ्यात्वेन स्फुरणात्। तदुक्तंअद्वैते स्थैर्यमायाते द्वैते प्रशममागते। पश्यन्ति स्वप्नवल्लोकं चतुर्थी भूमिकामिताः।। इति। सोऽयं चतुर्थभूमिं प्राप्तो योगी ब्रह्मिविदित्युच्यते। पञ्चमीषष्ठीसप्तम्यस्तुं भूमिका जीवन्मुक्तेरेवावान्तरभेदाः। तत्र सविकल्पकसमाध्यभ्यासेन निरुद्धे मनसि या निर्विकल्पकसमाध्यवस्था साऽसंसक्तिरिति सुषुप्तिरिति चोच्यते। ततः स्वयमेव व्युत्थानात्। सोऽयं योगी ब्रह्मविद्वरः। ततस्तदभ्यासपरिपाकेण या चिरकालावस्थायिनी सा पदार्थाभावनीति गाढसुषुप्तिरिति चोच्यते। ततः स्वयमनुत्थितस्य योगिनः परप्रयत्नेनैव व्युत्थानात् सोऽयं ब्रह्मविद्वरीयान्। उक्तंहिपञ्चमीं भूमिकामेत्य सुषुप्तिपदनामिकाम्। षष्ठीं गाढसुषुप्त्याख्यां क्रमात्पतति भूमिकाम्।। इति। यस्यास्तु समाध्यवस्थायाः न स्वतो न वा परतो व्युत्थितो भवति सर्वथा भेददर्शनाभावात् किंतु सर्वदा तन्मय एव स्वप्रयत्नमन्तरेणैव परमेश्वरप्रेरितप्राणवायुवशादन्यैर्निर्वाह्यमाणदैहिकव्यवहारः परिपूर्णपरमानन्दघन एव सर्वतस्तिष्ठति सा सप्तमी तुरीयावस्था। तां प्राप्तो ब्रह्मविद्वरिष्ठ इत्युच्यते। उक्तंहिषष्ठ्यां भूम्यामसौ स्थित्वा सप्तमीं भूमिमाप्नुयात्। किंचिदेवैष संपन्नस्त्वथवैष न किंचन।।विदेहमुक्तता तूक्ता सप्तमी योगमूमिका। अगम्या वचसां शान्ता सा सीमा योगभूमिषु।। इति। यामधिकृत्य श्रीमद्भागवते स्मर्यतेदेहं च नश्वरमवस्थिमुत्थितं वा सिद्धो न पश्यतियतोऽध्यगमत्स्वरूपम्। दैवादुपेतमथ दैववशादपेतं वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्धः।।देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत्स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः। तं सप्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः।। इति। श्रुतिश्चतद्यथाऽहिनिर्ल्वयनी वल्मीके मृता प्रत्यस्ता शयीतैवमेवेदं शरीरं शेतेऽथायमशरीरो मृतः प्राणो ब्रह्मैव तेज एव इति। तत्रायं संग्रहः चतुर्थीभूमिकाज्ञानं तिस्रः स्युः साधनं पुरा। जीवन्मुक्तेरवस्थास्तु परास्तिस्रः प्रकीर्तिताः।। अत्र प्रथमभूमित्रयमारूढोऽज्ञोऽपि न कर्माधिकारी किं पुनस्तत्त्वज्ञानी तद्विशिष्टो जीवन्मुक्तो वेत्यभिप्रायः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।3.18।।तस्य तादृशस्य भक्तस्य कृतेनापि कर्मणा अर्थः प्रयोजनं पुण्यादिरूपं नास्तीत्यर्थः। अकृतेन च कश्चन प्रत्यवायपापादिकं च नास्तीत्यर्थः। अस्य भक्तस्य सर्वभूतेषु देवादिषु अर्थार्थं मोक्षभक्त्याद्यर्थं च व्यपाश्रय आश्रयो नास्तीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।3.18।। नैव तस्य परमात्मरतेः कृतेन कर्मणा अर्थः प्रयोजनमस्ति। अस्तु तर्हि अकृतेन अकरणेन प्रत्यवायाख्यः अनर्थः न अकृतेन इह लोके कश्चन कश्चिदपि प्रत्यवायप्राप्तिरूपः आत्महानिलक्षणो वा नैव अस्ति। न च अस्य सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु भूतेषु कश्चित् अर्थव्यपाश्रयः प्रयोजननिमित्तक्रियासाध्यः व्यपाश्रयः व्यपाश्रयणम् आलम्बनं कञ्चित् भूतविशेषमाश्रित्य न साध्यः कश्चिदर्थः अस्ति येन तदर्था क्रिया अनुष्ठेया स्यात्। न त्वम् एतस्मिन् सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीये सम्यग्दर्शने वर्तसे।।यतः एवम्

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।3.18।।नैवेति। तस्य कृतेन निषिद्धेन चार्थः फलं सुखदुःखादि नास्ति। किञ्चार्थार्थमाश्रयः कश्चिन्नास्ति।