Loading the wisdom of the Gita...
As Krishna says, patience is a virtue
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्।।3.26।।
na buddhi-bhedaṁ janayed ajñānāṁ karma-saṅginām joṣhayet sarva-karmāṇi vidvān yuktaḥ samācharan
Let no wise man unsettle the minds of ignorant people who are attached to action; he should engage them in all actions, himself fulfilling them with devotion.
3.26 न not? बुद्धिभेदम् unsettlement in the mind? जनयेत् should produce? अज्ञानाम् of the ignorant? कर्मसङ्गिनाम् of the persons attached to actions? जोषयेत् should engage? सर्वकर्माणि all actions? विद्वान् the wise? युक्तः balanced? समाचरन् performing.Commentary An ignorant may says to himelf? I shall do this action and thery enjoy its fruit. A wise man should not unsettle his belief. On the contrary he himself should set an example by performing his duties diligently but without attachment. The wise man should also persuade the ignorant never to neglect their duties. If need be? he should place before them in vivid colours the happiness they would enjoy here and hereafter by discharging such duties. When their hearts get purified in course of time? the wise man could sow the seeds of Karma Yoga (selfless service without deire) in them.
3.26।। व्याख्या--'सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो तथा कुर्वन्ति भारत'-- जिन मनुष्योंकी शास्त्र, शास्त्र-पद्धति और शास्त्र-विहित शुभकर्मोंपर पूरी श्रद्धा है एवं शास्त्रविहित कर्मोंका फल अवश्य मिलता है-- इस बातपर पूरा विश्वास है; जो न तो तत्त्वज्ञ हैं और न दुराचारी हैं; किन्तु कर्मों, भोगों एवं पदार्थोंमें आसक्त हैं, ऐसे मनुष्योंके लिये यहाँ 'सक्ताः अविद्वांसः' पद आये हैं। शास्त्रोंके ज्ञाता होनेपर भी केवल कामनाके कारण ऐसे मनुष्य अविद्वान् (अज्ञानी) कहे गये हैं। ऐसे पुरुष शास्त्रज्ञ तो हैं, पर तत्त्वज्ञ नहीं। ये केवल अपने लिये कर्म करते हैं, इसीलिये अज्ञानी कहलाते हैं।ऐसे अविद्वान् मनुष्य कर्मोंमें कभी प्रमाद, आलस्य आदि न रखकर सावधानी और तत्परतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग विधिसे कर्म करते हैं; क्योंकि उनकी ऐसी मान्यता रहती है कि कर्मोंको करनेमें कोई कमी आ जानेसे उनके फलमें भी कमी आ जायगी। भगवान् उनके इस प्रकार कर्म करनेकी रीतिको आदर्श मानकर सर्वथा आसक्तिरहित विद्वान्के लिये भी इसी विधिसे लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं। 'कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्'-- जिसमें कामना, ममता, आसक्ति, वासना, पक्षपात, स्वार्थ आदिका सर्वथा अभाव हो गया है और शरीरादि पदार्थोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी लगाव नहीं रहा, ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुषके लिये यहाँ 'असक्तः विद्वान्' पद आये हैं (टिप्पणी प0 158)।बीसवें 'श्लोकमें''लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्' कहकर फिर इक्कीसवें श्लोकमें जिसकी व्याख्या की गयी, उसीको यहाँ 'लोकसंग्रहं चिकीर्षुः'पदोंसे कहा गया है।श्रेष्ठ मनुष्य (आसक्तिरहित विद्वान्) के सभी आचरण स्वाभाविक ही यज्ञके लिये, मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये होते हैं। जैसे भोगी मनुष्यकी भोगोंमें, मोही मनुष्यकी कुटुम्बमें और लोभी मनुष्यकी धनमें रति होती है, ऐसे ही श्रेष्ठ मनुष्यकी प्राणिमात्रके हितमें रति होती है। उसके अन्तःकरणमें 'मैं लोकहित करता हूँ'-- ऐसा भाव भी नहीं होता, प्रत्युत उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक लोकहित होता है। प्राकृत पदार्थमात्रसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेके कारण उस ज्ञानी महापुरुषके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी 'लोकसंग्रह' पदमें आये 'लोक' शब्दके अन्तर्गत आते हैं।दूसरे लोगोंको ऐसे ज्ञानी महापुरुष लोकसंग्रहकी इच्छावाले दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें लोकसंग्रहकी भी इच्छा नहीं होती। कारण कि वे संसारसे प्राप्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, पद, अधिकार, धन, योग्यता, सामर्थ्य आदिको साधनावस्थासे ही कभी किञ्चिन्मात्र भी अपने और अपने लिये नहीं मानते, प्रत्युत संसारके और संसारकी सेवाके लिये ही मानते हैं, जो कि वास्तवमें है। वही प्रवाह रहनेके कारण सिद्धावस्थामें भी उनके कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ स्वतःस्वाभाविक, किसी प्रकारकी इच्छाके बिना संसारकी सेवामें लगे रहते हैं।इस श्लोकमें 'यथा' और 'तथा' पद कर्म करनेके प्रकारके अर्थमें आये हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अज्ञानी (सकाम) पुरुष अपने स्वार्थके लिये सावधानी और तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी लोकसंग्रह अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करे। ज्ञानी पुरुषको प्राणिमात्रके हितका भाव रखकर सम्पूर्ण लौकिक और वैदिक कर्तव्य-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये। सबका कल्याण कैसे हो?-- इस भावसे कर्तव्य-कर्म करनेपर लोकमें अच्छे भावोंका प्रचार स्वतः होता है।अज्ञानी पुरुष तो फलकी प्राप्तिके लिये सावधानी और तत्परतासे विधिपूर्वक कर्तव्य-कर्म करता है, पर ज्ञानी पुरुषकी फलमें आसक्ति नहीं होती और उसके लिये कोई कर्तव्य भी नहीं होता। अतः उसके द्वारा कर्मकी उपेक्षा होना सम्भव है। इसीलिये भगवान् कर्म करनेके विषयमें ज्ञानी पुरुषको भी अज्ञानी (सकाम) पुरुषकी ही तरह कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।इक्कीसवें श्लोकमें तो विद्वान्को 'आदर्श' बताया गया था पर यहाँ उसे 'अनुयायी' बताया है। तात्पर्य यह है कि विद्वान् चाहे आदर्श हो अथवा अनुयायी, उसके द्वारा स्वतः लोगसंग्रह होता है। जैसे भगवान् श्रीराम प्रजाको उपदेश भी देते हैं और पिताजीकी आज्ञाका पालन करके वनवास भी जाते हैं। दोनों ही परिस्थितियोंमें उनके द्वारा लोकसंग्रह होता है; क्योंकि उनका कर्मोंके करने अथवा न करनेसे अपना कोई प्रयोजन नहीं था।जब विद्वान् आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म करता है, तब आसक्तियुक्त चित्तवाले पुरुषोंके अन्तःकरणपर भी विद्वान्के कर्मोंका स्वतः प्रभाव पड़ता है, चाहे उन पुरुषोंको यह महापुरुष निष्कामभावसे कर्म कर रहा है'-- ऐसा प्रत्यक्ष दीखे या न दीखे। मनुष्यके निष्कामभावोंका दूसरोंपर स्वाभाविक प्रभाव पड़ता है-- यह सिद्धान्त है। इसलिये आसक्तिरहित विद्वान्के भावों आचरणोंका प्रभाव मनुष्योंपर ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी आदिपर भी पड़ता है।
।।3.26।। यह संभव है कि आत्मानुभूति के पश्चात् ज्ञानी पुरुष जब कार्य क्षेत्र में प्रवेश करे तो तत्त्वज्ञान का सर्वोच्च उपदेश देना प्रारम्भ कर दे जिसे समझने की योग्यता लोगों में न हो। उस पीढ़ी के लोग उस विद्वान पुरुष के कथन का विपरीत अर्थ लगाकर यह समझ सकते हैं कि कर्म का संन्यास सत्य की प्राप्ति का सीधा मार्ग है। ऐसे गुरुओं को यहाँ सावधान किया गया है क्यांेकि इससे लोगों का कर्म करने में उत्साह कम हो सकता है।जीवन गतिशील है। कोई भी निष्क्रिय होकर बैठ नहीं सकता। जीवन की निरन्तर अग्रगामी कर्मरूपी गतिशील धारा के प्रवाह के मध्य में यदि कोई मार्गदर्शक गुरु दोनों हाथ उठाकर अपनी पीढ़ी के लोगों को अकस्मात रुकने का आदेश दें तो उस प्रवाह में वे स्वयं ही छिन्नभिन्न होकर रह जायेंगे। अनेक धर्मोपदेशकों ने यह गलती की और उन्हें उसका मूल्य भी चुकाना पड़ा। यहाँ श्रीकृष्ण मार्गदर्शन करते हुये कहते हैं कि ऐसे धर्मोपदेशकों को चाहिये कि वे समय की गति को पहचान कर कार्य करें जीवनी शक्ति का विरोध करके नहीं।समाज के मार्गदर्शन की पद्धति इस श्लोक में बताई गई है जो समस्त नेतृत्व वर्ग के लिये उपयोगी है। वे सामाजिक राजनैतिक अथवा सांस्कृतिक किसी भी क्षेत्र में क्यों न कार्य कर रहे हों। यदि किसी काल में कोई समाज किसी विशेष दिशा में आगे बढ़ रहा हो तो नेता को अपनी पीढ़ी के साथ मिलकर स्वयं के उदाहरण के द्वारा धीरेधीरे लोगों को सही दिशा में ले जाने का प्रयत्न करना चाहिये।यदि कोई व्यक्ति हरिद्वार जाने के लिये कार को तेज गति से परन्तु विपरीत दिशा में चला रहा हो तो उसकी दिशा सुधारने का उपाय यह नहीं कि अचानक उसे रोक दें किन्तु उसकी दिशा मात्र को बदलें। कार के रुक जाने मात्र से वह किसी लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकेगा।इसी प्रकार मनुष्य को कर्म करते रहना चाहिये। यदि वह गलत दिशा में भी जा रहा हो तो केवल कर्म से ही वह सही दिशा में आगे बढ़ सकता है। विद्वान् पुरुष अज्ञानी को कर्म की प्रवृत्ति से विचलित न करे बल्कि स्वयं कुशलतापूर्वक कर्म का आचरण करे जिससे सामान्य जन उसका सरलता से अनुसरण कर सकें।किस प्रकार अज्ञानी पुरुष कर्म में आसक्त होता है
।।3.26।।वृत्तमनूद्योत्तरश्लोकमवतारयति एवमिति। कर्तव्यं कर्मेति शेषः। पूर्वार्धमेवं व्याख्यायोत्तरार्धं प्रश्नपूर्वकमवतार्य व्याचष्टे किंतु कुर्यादिति। सर्वकर्माणि कारयेत्तेषु प्रीतिं कुर्वन्निति शेषः। कथं कारयेदित्याकाङ्क्षायामाह तदेवेति।
।।3.26।। लोकसंग्रह चिकीर्षोस्तत्त्वविद इदमुपदिश्यते नेति। अज्ञानामतएव कर्मसङ्गिनां फलार्थं कर्मण्यासक्तानां इदं कर्म भयावश्यं कर्तव्यं तत्फलं च भोक्तव्यमिति निश्चितरुपाया बुद्धेर्भेदनं चालनं न कर्मणेत्याद्युपदेशेन नोत्पादयेत्। किंतु विद्वान्युक्तः समाहितः सन्नविदुषां कर्म स्वयं समाचरन्सर्वकर्माणि जोषयेत्कारयेत्। अन्यथा कर्मसु तेषां श्रद्धापगमे चित्तशुद्य्धभावज्ज्ञानाप्राप्त्योभयभ्रष्टत्वं स्यादिति भावः।
।।3.26।।विद्वान् अज्ञानां कर्मस्वासक्तानां बुद्धिभेदं बुद्धेश्चालनं न जनयेन्नोत्पादयेत् किंतु तान्सर्वाणि कर्माणि जोषयेत्सेवयेत्। कथम्। युक्त आदृतो भूत्वा समाचरन्।
।।3.26।।अज्ञानाम् आत्मन्यकृत्स्नवित्तया ज्ञानयोगोपादानाशक्तानां मुमुक्षूणां कर्मसङ्गिनाम् अनादिकर्मवासनया कर्मणि एव नियतत्वेन कर्मयोगाधिकारिणांकर्मयोगाद् अन्यथात्मावलोकनम् अस्ति इति न बुद्धिभेदं जनयेत्। किं तर्हि आत्मनि कृत्स्नवित्तया ज्ञानयोगशक्तः अपि पूर्वोक्तरीत्याकर्मयोग एव ज्ञानयोगनिरपेक्ष आत्मावलोकनसाधनम् इति बुद्ध्या युक्तः कर्म एव आचरन् सर्वकर्मसु अकृत्स्नविदां प्रीतिं जनयेत्।अथ कर्मयोगम् अनुतिष्ठतो विदुषः अविदुषश्च विशेषं प्रदर्शयन् कर्मयोगापेक्षितम् आत्मनः अकर्तृत्वानुसन्धानप्रकारम् उपदिशति
।।3.26।।ननु कृपया तत्त्वज्ञानमेवोपदेष्टुं युक्तं नेत्याह नेति। अज्ञानामतएव कर्मसङिगनां कर्मासक्तानामकर्तात्मोपदेशेन बुद्धेर्भेदमन्यथात्वं न जनयेत्कर्मणः सकाशाद्बुद्धिचालनं न कुर्यादपि तु जोषयेत्सेवयेत्।जुषी प्रीतिसेवनयोः अज्ञान्कर्माणि कारयेत्। कथम्। युक्तोऽवहितो भूत्वा स्वयं च समाचरन्। बुद्धिचालने कृते सति कर्मसु श्रद्धानिवृत्तेर्ज्ञानस्य चानुत्पत्तेस्तेषामुभयभ्रंशः स्यादिति भावः।
।।3.26।।लोकस्य सङ्ग्रहणमेकीकृत्य स्वीकरणं स्वानुष्ठाने समानाभिप्रायतया सयूथ्यतापादनमित्यर्थः। कर्मवासना उत्तरोत्तरपुण्यपापारम्भकपूर्वपूर्वपुण्यपापांशविशेषः उत्तरोत्तरशरीरप्रेरणसमर्थस्मृतिहेतुः पूर्वपूर्वशरीरप्रेरणानुभवविशेषजनितसंस्कारो वा वादित्रवादनादिसंस्कारवत्। बुद्धिभेदो बुद्धेरन्यथाकरणम् तच्च प्रकृतविषयं दर्शयति कर्मयोगादन्यदित्यादिना।युक्तः इत्यनेन लोकसङ्ग्रहार्थं कुर्वतः स्वापेक्षितविलम्बाभावाय प्रागुक्तनिरपेक्षत्वबुद्धियोगो विवक्षित इतिबुद्ध्या युक्त इत्युक्तम्।जोषयेत् इत्यस्यार्थ प्रीतिं जनयेदिति।जुषी प्रीतिसेवनयोः इति धातुः। कर्मसङ्गिनः पुरुषान् सर्वकर्माणि जोषयेदित्यन्वयः।।प्रकृतेः इत्यादिश्लोकचतुष्टयस्यार्थमाह कर्मयोगमिति।विदुषोऽविदुषश्चेति व्युत्क्रमेण श्लोकद्वयार्थः। तृतीये त्वेतद्विशदीकरणमुखेनाविचालनमुक्तम्।कर्मयोगापेक्षितंकर्मयोगेति कर्तव्यताभूतमित्यर्थः।प्रकृतेर्गुणैः इत्युक्ते प्रसिद्धिप्रकर्षादिसिद्धं विशेषं प्रस्तुतानुपयुक्तशब्दादिप्राकृतगुणव्यवच्छेदायाहसत्त्वादिभिरिति। वक्ष्यमाणसात्विकादिकर्मविभागंसर्वशः इति प्रकारवाचिपदसूचितमाह स्वानुरूपमिति।कर्ता इति तृजन्तयोगात् षष्ठीप्राप्तिः स्यादिति तत्परिहाराय कर्मसु कर्तृत्वाहन्त्वोक्तिभ्रमव्युदासाय चकर्माणि प्रतीत्युक्तम्। तृन्नन्तत्वविवक्षायां त्वियं फलितोक्तिः।अहङ्कारविमूढात्मेति समानांशत्रयस्य बह्वर्थपरस्य अत्रार्थं विवक्षन् विगृह्णातिअहङ्कारेणेति। नात्राहम्भावमात्रमुच्यते तस्यात्मस्वभावान्तर्गतत्वात् नापि अहङ्काराख्यमचिद्द्रव्यं तस्यापि देहात्मभ्रमं द्वारीकृत्य कार्यकरत्वे सति अव्यवहितस्यैव वक्तुमुचितत्वात् नापि गर्वः उत्कृष्टपरिभवादिहेतुत्वेनानिर्देशात्। अतोऽहङ्कार इति देहात्मभ्रम एवात्र विवक्षित इत्यभिप्रायेणाह अहङ्कारो नाम अनहमर्थे प्रकृतावहमभिमान इति। एतेनाहङ्कारशब्दस्याभूततद्भावे च्विप्रत्ययेन व्युप्तत्तिर्दर्शिता।अज्ञातात्मस्वरूप इति। विमूढ आत्मा स्वरूपं यस्य स विमूढात्मादिशो विमुह्येयुः इतिवद्विमूढशब्दोऽत्र मोहविषयसमानाधिकरण इति भावः।गुणकर्मविभागयोः इत्यत्र उपसर्जनान्वयिषष्ठीत्वादपि विषयसप्तमीत्वमुचितमिति मत्वोक्तं सत्त्वादिगुणविभागे तत्तत्कर्मविभागे चेति। विभागशब्दो द्वन्द्वात्परत्वात् प्रत्येकमन्वितः। गुणानां साक्षाद्गुणेषु वृत्त्यभावात् परोक्तप्रक्रिययेन्द्रियतद्विषयादिविवक्षायां पदद्वयोपचारात् सप्तम्यन्तो गुणशब्दो गुणकार्येष्वौपचारिक इत्यभिप्रायेणोक्तंस्वगुणेषु स्वेषु कार्येष्विति। गुणकार्याणि च विभजिष्यन्ते। यद्वा कारणस्य प्राधान्यात्कार्यस्य च तदपेक्षया गुणत्वादेवमुक्तम्।
।।3.26।।यतस्ते न (S स्ते सम्य ) सम्यग्ज्ञानेन पूताः अतो बुद्धेर्भेदनं विचालनं ( N विगलनम्) तेषां परमोऽयमनर्थ इत्यनुग्रहाय भेदयेन्न धियमेषाम् तदाह (S एतदाह) न बुद्धीति। स्वयं चैवं बुद्ध्यमानः कर्माणि कुर्यात् न च लोकानां बुद्धिं भिन्द्यात्।
।।3.26।।ननु कर्मानुष्ठानेनैव लोकसंग्रहः कर्तव्यो नतु तत्त्वज्ञानोपदेशेनेति को हेतुरत आह अज्ञानामविवेकिनां कर्तृत्वाभिमानेन फलाभिसंधिना च कर्मसङ्गिनां कर्मण्यभिनिविष्टानां या बुद्धिरहमेतत्कर्म करिष्ये एतत्फलं च भोक्ष्य इति तस्या भेदं विचालनं अकर्त्रात्मोपदेशेन न कुर्यात् किंतु युक्तोऽवहितः सन् विद्वान् लोकसंग्रहं चिकीर्षुः अविद्वदधिकारिकाणि सर्वकर्माणि समाचरन् तेषां श्रद्धामुत्पाद्य जोषयेत् प्रीत्या सेवयेत्। अनधिकारिणामुपदेशेनं बुद्धिविचालने कृते कर्मसु श्रद्धानिवृत्तेर्ज्ञानस्य चानुत्पत्तेरुभयभ्रष्टत्वं स्यात्। तथाचोक्तंअज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत्। महानिरयजालेषु स तेन विनियोजितः।। इति।
।।3.26।।ननु लोकसङ्ग्रहार्थमेव चेत्कर्म कर्त्तव्यं तदा यथाकथञ्चित्कर्त्तव्यम्। यथा तेऽज्ञानेन कुर्वन्ति तथा करणं किं प्रयोजनकं इत्याकाङ्क्षायामाह न बुद्धिभेदं जनयेदिति। कर्मसङ्गिनां बुद्धिभेदं न जनयेत्। तथाकरणे तेषां भ्रमो भवेत् भ्रमे सति कर्म न कुर्युरेव। ननु कर्मणा चित्तशुद्धौ सत्यां कथं भ्रम इत्यत आह अज्ञानामिति। न हि अज्ञाश्चित्तशुद्ध्यर्थं कर्म कुर्वन्ति किन्तु कर्मैवेश्वरं मन्यमानाः फलरूपेणान्यं पण्डितं कर्म कुर्वाणं वीक्ष्य कुर्वन्ति अत एव कर्मसङ्गिनामित्युक्तं न तु कर्मिणाम्। विद्वान् युक्तो मां हृदि स्थाप्य मद्युक्तः स्वयं समाचरन् सम्यगाचरन् मत्सेवादि कुर्वन् अन्येषां वृत्त्यर्थं सदा कर्माणि अन्यानज्ञान् जोषयेत् कर्म कारयेदित्यर्थः।
।।3.26।। बुद्धेर्भेदः बुद्धिभेदः मया इदं कर्तव्यं भोक्तव्यं चास्य कर्मणः फलम् इति निश्चयरूपाया बुद्धेः भेदनं चालनं बुद्धिभेदः तं न जनयेत् न उत्पादयेत् अज्ञानाम् अविवेकिनां कर्मसङ्गिनां कर्मणि आसक्तानां आसङ्गवताम्। किं नु कुर्यात् जोषयेत् कारयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् स्वयं तदेव अविदुषां कर्म युक्तः अभियुक्तः समाचरन्।।अविद्वानज्ञः कथं कर्मसु सज्जते इत्याह
।।3.26।।नन्वज्ञेषु तु सक्ततया कर्मनिष्ठेषु कृपया साङ्ख्यप्रकारभेद उपदेष्टुं युक्तो विदुषा नहिनहीत्याह न बुद्धिभेदमिति। प्रकारभेदोपदेशे तेषां बुद्धिभेद एव भवति फलादिसङ्गितया ज्ञातत्वात्। अतो जोषयेत्प्रीणयेत्सेवयेच्च स्वयं कृत्वा परिसङ्खयातात्पर्येण शनैः शनैः शिक्षयेत्। अन्यथा बुद्धिभेदः।