इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ। तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3.34।।
indriyasyendriyasyārthe rāga-dveṣhau vyavasthitau tayor na vaśham āgachchhet tau hyasya paripanthinau
Attachment and aversion for the objects of the senses abide in the senses; let no one come under their sway; for, they are his enemies.
3.34 इन्द्रियस्य इन्द्रियस्य of each sense? अर्थे in the object? रागद्वेषौ attachment and aversion? व्यवस्थितौ seated? तयोः of these two? न not? वशम् sway? आगच्छेत् should come under? तौ these two? हि verily? अस्य his? परिपन्थिनौ foes.Commentary Each sense has got attraction for a pleasant object and aversion for a disagreeable object. If one can control these two currents? viz.? attachment and aversion? he will not come under the sway of these two currents. Here lies the scope for personal exertion or Purushartha. Nature which contains the sum total of ones Samskaras or the latent selfproductive impressions of the past actions of merit and demerit draws a man to its course through the two currents? attachment and aversion. If one can control these two currents? if he can rise above the sway of love and hate through discrimination and Vichara or right eniry? he can coner Nature and attain immortality and eternal bliss. He willl no longer be subject to his own nature now. One should always exert to free himself from attachment and aversion to the objects of the senses.
3.34।। व्याख्या--'इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ'--प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें राग-द्वेषको अलग-अलग स्थित बतानेके लिये यहाँ 'इन्द्रियस्य' पद दो बार प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक इन्द्रिय-(श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण-) के प्रत्येक विषय-(शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-) में अनुकूलता-प्रतिकूलताकी मान्यतासे मनुष्यके राग-द्वेष स्थित रहते हैं। इन्द्रियके विषयमें अनुकूलताका भाव होनेपर मनुष्यका उस विषयमें 'राग' हो जाता है और प्रतिकूलताका भाव होनेपर उस विषयमें 'द्वेष' हो जाता है।वास्तवमें देखा जाय तो राग-द्वेष इन्द्रियोंके विषयोंमें नहीं रहते। यदि विषयोंमें राग-द्वेष स्थित होते तो एक ही विषय सभीको समानरूपसे प्रिय अथवा अप्रिय लगता। परन्तु ऐसा होता नहीं; जैसे--वर्षा किसानको तो प्रिय लगती है, पर कुम्हारको अप्रिय। एक मनुष्यको भी कोई विषय सदा प्रिय या अप्रिय नहीं लगता; जैसे--ठंडी हवा गरमीमें अच्छी लगती है, पर सरदीमें बुरी। इस प्रकार सब विषय अपने अनुकूलता या प्रतिकूलताके भावसे ही प्रिय अथवा अप्रिय लगते हैं अर्थात् मनुष्य विषयोंमें अपना अनुकूल या प्रतिकूल भाव करके उनको अच्छा या बुरा मानकर राग-द्वेष कर लेता है। इसलिये भगवान्ने राग-द्वेषको प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें स्थित बताया है। वास्तवमें राग-द्वेष माने हुए 'अहम्'-(मैं-पन-) में रहते हैं (टिप्पणी प0 176)। शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध हीअहम् कहलाता है। अतः जबतक शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध रहता है, तबतक उसमें रागद्वेष रहते हैं और वे ही राग-द्वेष, बुद्धि, मन, इन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रतीत होते हैं। इसी अध्यायके सैंतीसवेंसे तैंतालीसवें श्लोकतक भगवान्ने इन्हीं राग-द्वेषको 'काम' और 'क्रोध' के नामसे कहा है। राग और द्वेषके ही स्थूलरूप काम और क्रोध हैं। चालीसवें श्लोकमें बताया है कि यह 'काम' इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें रहता है। विषयोंकी तरह इनमें (इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें) 'काम' की प्रतीति होनेके कारण ही भगवान्ने इनको 'काम' का निवास-स्थान बताया है। जैसे विषयोंमें राग-द्वेषकी प्रतीतिमात्र है, ऐसे ही इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें भी रागद्वेषकी प्रतीतिमात्र है। ये इन्द्रियाँ मन और बुद्धि तो केवल कर्म करनेके करण (औजार) हैं। इनमें काम-क्रोध अथवा राग-द्वेष हैं ही कहाँ? इसके सिवाय दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर उनमें रहनेवाला उसका राग निवृत्त नहीं होता। यह राग परमात्माका साक्षात्कार होनेपर निवृत्त हो जाता है। 'तयोर्न वशमागच्छेत्' इन पदोंसे भगवान् साधकको आश्वासन देते हैं कि राग-द्वेषकी वृत्ति उत्पन्न होनेपर उसे साधन और साध्यसे कभी निराश नहीं होना चाहिये ,अपितु राग-द्वेषकी वृत्तिके वशीभूत होकर उसे किसी कार्यमें प्रवृत्त अथवा निवृत्त नहीं होना चाहिये। कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति शास्त्रके अनुसार ही होनी चाहिये (गीता 16।24)। यदि राग-द्वेषको लेकर ही साधककी कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है तो इसका तात्पर्य यह होता है कि साधक राग-द्वेषके वशमें हो गया। रागपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे 'राग' पुष्ट होता है और द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे 'द्वेष' पुष्ट होता है। इस प्रकार राग-द्वेष पुष्ट होनेके फलस्वरूप पतन ही होता है।जब साधक संसारका कार्य छोड़कर भजनमें लगता है, तब संसारकी अनेक अच्छी और बुरी स्फुरणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं, जिनसे वह घबरा जाता है। यहाँ भगवान् साधकको मानो आश्वासन देते हैं कि उसे इन स्फुरणाओंसे घबराना नहीं चाहिये। इन स्फुरणाओंकी वास्तवमें सत्ता ही नहीं है; क्योंकि ये उत्पन्न होती हैं; और यह सिद्धान्त है कि उत्पन्न होनेवाली वस्तु नष्ट होनेवाली होती है। अतः विचारपूर्वक देखा जाय तो स्फुरणाएँ आ नहीं रही हैं, प्रत्युत जा रही हैं। कारण यह है कि संसारका कार्य करते समय अवकाश न मिलनेसे स्फुरणाएँ दबी रहती हैं और संसारका कार्य छोड़ते ही अवकाश मिलनेसे पुराने संस्कार स्फुरणाओंके रूपमें बाहर निकलने लगते हैं। अतः साधकको इन अच्छी या बुरी स्फुरणाओंसे भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये, प्रत्युत सावधानीपूर्वक इनकी उपेक्षा करते हुए स्वयं तटस्थ रहना चाहिये। इसी प्रकारउसे पदार्थ, व्यक्ति, विषय आदिमें भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये।
।।3.34।। पूर्व श्लोक में कहा गया था कि शास्त्राध्ययन करने वाला ज्ञानवान् पुरुष भी नैतिकता का उच्च जीवन जीने में अपने को असमर्थ पाता है क्योंकि उसकी कुछ निम्न स्तर की प्रवृत्तियाँ कभीकभी उससे अधिक शक्तिशाली सिद्ध होती हैं। सर्वत्र अनुपलब्ध औषधि का उपचार लिख देना रोग का निवारण करना नहीं कहलाता। दार्शनिक तत्त्ववेत्ता का यह कर्तव्य है कि वह केवल हमारे वर्तमान जीवन की दुर्बलताओं को ही नहीं दर्शाये बल्कि पूर्णत्व की स्थिति का ज्ञान कराकर उस साधन मार्ग को भी दिखाये जिससे हम दोषमुक्त होकर पूर्णस्वरूप में स्थित हो सकें। केवल ऐसा करके ही वह दार्शनिक तत्त्वविज्ञ पुरुष अपनी पीढ़ी को कृतार्थ कर सकता है।यह सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभावानुसार कार्य करता है परन्तु यह स्वभाव वह अपने कर्म एवं विचारों के द्वारा बनाता है और न कि किसी अन्य के कारण। अत यहाँ पुरुषार्थ के लिये अवसर है। उसी को यहाँ श्रीकृष्ण बता रहे हैं। प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के मन में राग अथवा द्वेष उत्पन्न होता है। शब्दस्पर्शादि इन्द्रियों के विषय स्वयं किसी भी प्रकार हमारे अन्तकरण में दुख या विक्षेप उत्पन्न नहीं कर सकते। विषयों के ग्रहण करके मन किसी के प्रति राग और किसी के प्रति द्वेष रखता है और मन के इन रागद्वेषों के कारण प्रिय या अप्रिय विषय के दर्शन अथवा प्राप्ति से मनुष्य को हर्ष या विषाद होता है। स्वयं रागद्वेष्ा को उत्पन्न करके मनुष्य का फिर प्रयत्न होता है प्रिय की प्राप्ति और अप्रिय का त्याग। विषयों के प्रति राग और द्वेष सदा परिवर्तित होते रहने के कारण वह सदा ही क्षुब्धचित्त बना रहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये रागद्वेष ही लुटेरे हैं जो मन की शांति का हरण कर लेते हैं और जिनके कारण मनुष्य सच्चा जीवन नहीं जी पाता। वास्तव में यह दुख की बात है।वस्तुस्थिति को दर्शाकर भगवान् समस्त साधकों को उपदेश देते हैं कि मनुष्य को चाहिये कि वह इन दोनों के वश में न होवे।प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में बाह्य जगत् से पलायन करने का उपदेश गीता में कहीं पर भी नहीं मिलता। भगवान् का उपदेश तो यहाँ और अभी जीवन की उपलब्ध परिस्थितियों में शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से सब अनुभवों को प्राप्त करते हुये जीने के लिये है। आग्रह केवल इस बात का है कि सभी परिस्थितियों में मनुष्य को मन आदि उपाधियों का स्वामी बनकर रहना चाहिये और न कि उनका दास बनकर। इस प्रकार के स्वामित्व को प्राप्त करने का उपाय राग और द्वेष से मुक्त हो जाना है।रागद्वेष से मुक्ति पाने के लिये मिथ्या अहंकार तथा तज्जनित अन्य प्रवृत्तियों को समाप्त करना चाहिये क्योंकि राग और द्वेष अहंकार से सम्बन्धित हैं। इसलिए अहंकाररहित कर्म करने पर वासनाओं का क्षय हो जाता है। वासनाओं से उत्पन्न होता है मन और वहीं पर अहंकार का खेल होता है। जैसेजैसे वासनायें क्षीण होती जाती हैं वैसेवैसे मन भी नष्ट हो जाता है। मन के नष्ट होने पर शुद्ध आत्मा का प्रतिबिम्ब रूप अहंकार भी नष्ट हो जाता है।भगवान् वासना क्षय का उपाय निम्न श्लोक में बताते हैं
।।3.34।।सर्वस्य भूतवर्गस्य प्रकृतिवशवर्तित्वे लौकिकवैदिकपुरुषकारविषयाभावाद्विधिनिषेधानर्थक्यमिति शङ्कते यदीति। ननु यस्य न प्रकृतिरस्ति तस्य पुरुषकारसंभवादर्थवत्त्वं तद्विषये विधिनिषेधयोर्भविष्यति नेत्याह नचेति। शङ्कितदोषं श्लोकेन परिहरति इदमित्यादिना। वीप्सायाः सर्वकरणागोचरत्वं दर्शयति सर्वेति। प्रत्यर्थं रागद्वेषयोरव्यवस्थायाः प्राप्तौ प्रत्यादिशति इष्ट इति। प्रतिविषयं विभागेन तयोरन्यतरस्यावश्यकत्वेऽपि पुरुषकारविषयाभावप्रयुक्त्या प्रागुक्तं दूषणं कथं समाधेयमित्याशङ्क्याह तत्रेति। तयोरित्याद्यवतारितं भागं विभजते शास्त्रार्थ इति। प्रकृतिवशत्वाज्जन्तोर्नैव नियोज्यत्वमित्याशङ्क्याह या हीति। रागद्वेषद्वारा प्रकृतिवशवर्तित्वे स्वधर्मत्यागादि दुर्वारमित्युक्तम् इदानीं विवेकविज्ञानेन रागादिनिवारणे शास्त्रीयदृष्ट्या प्रकृतिपारवश्यं परिहर्तुं शक्यमित्याह यदेति। मिथ्याज्ञाननिबन्धनौ हि रागद्वेषौ तत्प्रतिपक्षत्वं विवेकविज्ञानस्य मिथ्याज्ञानविरोधित्वादवधेयम्। रागद्वेषयोर्मूलनिवृत्त्या निवृत्तौ प्रतिबन्धध्वंसे कार्यसिद्धिमभिसंधायोक्तं तदेति। एवकारस्यान्ययोगव्यवच्छेदकत्वं दर्शयति नेति। पूर्वोक्तं नियोगमुपसंहरति तस्मादिति। तत्र हेतुमाह यत इति। हिशब्दोपात्तो हेतुर्यत इति प्रकटितः स च पूर्वेण तच्छब्देन संबन्धनीयः। पुरुषपरिपन्थित्वमेव तयोः सोदाहरणं स्फोरयति श्रेयोमार्गस्येति।
।।3.34।।ननु सर्वस्यापि प्राणिजातस्य प्रकृत्यायत्तत्वात्पुरुषकारस्य विषयालाभाद्विधिनिषेधशास्त्रानर्थक्यं प्राप्तमित्याशङक्याह इन्द्रियस्येति। सर्वेन्द्रियाणामर्थे शब्दादिविषये इष्टे रागोऽनिष्टे द्वेष इति प्रतिविषयं रागद्वेषाववश्यंभाविनौ तस्मात्तयोर्वशं नागच्छेत्तदधीनो न प्रवर्त्तेत। तत्रायमेव पुरुषप्रयत्नस्य शास्त्रस्य च विषय उच्यते। तथाहि इन्द्रियार्थसंनिकर्षे पदार्थ ज्ञानं ततो मिथ्याज्ञानवशात्तत्र रागादिः प्रकृतिश्च रागादिपुरःसरैव पुरुषं स्वकार्ये प्रवर्तयति तदा निषिद्धाचरणं विहितत्यागश्च संपद्यते। यदा पुनः शास्त्रदृष्ट्या पूर्वमेव यथावद्वस्तु प्रतिभाति तदा मिथ्याज्ञाननिवृत्त्या रागादिर्निवर्तते। सहकारीनिवृत्त्या च प्रकृतिः प्रवर्तयितुं न शक्नोति। तस्मात्प्रथममेव पुरुषकारेण रागद्वेषयोर्वशं नागच्छेत्। नच पुरुषकारे शास्त्रे च प्रवृत्तिरेव न सिध्यति प्रकृत्तेः प्रतिबन्धिकायाः सत्त्वादिति वाच्यम्। अदृष्टस्य दृष्टसामग्रींविना प्रतिबन्धकत्वाभावात्। ननु तुल्यन्यायेन दृष्टस्यापि शास्त्रादौ प्रवृत्तिरुपस्यादृष्टापेक्षतया प्रकृत्यधीनत्वमेव पुनरागतमिति चेत्तर्हि तदनुकूलसंस्कारोऽपि ब्राह्मणाद्यधिकारिजनेऽस्त्येवेति न काचिदनुपपत्तिः। नच ततएव सर्वं भविष्यति किं विधिनिषेधमोक्षपरैः शास्त्रैरिति वाच्यम्। अदृष्टस्य दृष्टसामग्र्यपेक्षाया आवश्यकत्वस्योक्तत्वात्। तथाच यथा लोके संस्काररुपेण स्थितस्य कामस्य कामिनीदर्शनमुद्बोधकं तथा शास्त्रमपि। ननु शास्त्रश्रवणे प्रवृत्तिजनकस्य तस्य किमुद्दीपकमितिचेत् यथा जनकस्य क्रीडार्थमुद्यानं गतस्याकस्मिकं सिद्धवाक्यश्रवणं यथावा कार्यान्तरवशाच्छ्रवणशालायामागतस्य तत्रत्यशब्दश्रवणं यथावा केनचिल्लौकिकेन निमित्तेन मित्रतां प्राप्तस्य कस्यचिच्छिष्टस्य वचनमिति गृहाणेत्यलं विस्तरेण। हि यस्मात्तौ रागद्वेषौ अस्य पुरुषस्य परिपन्थिनौ श्रेयोमार्गस्य विघ्नकरौ तस्कराविव पथि।
।।3.34।।तथापि शक्तितो निग्रहः कार्यः। निग्रहात्सद्यः प्रयोजनाभावेऽपि भवत्येवातिप्रयत्नत इत्याशयवानाह इन्द्रियस्येति। तथा ह्युक्तम् संस्कारो बलवानेष ब्रह्माद्या अपि तद्वशाः। तथापि सोऽन्यथाकर्तुं शक्यतेऽतिप्रयत्नतः इति।
।।3.34।।एवं तर्हि पुरुषस्य स्वातन्त्र्याभावाद्विधिनिषेधशास्त्रं व्यर्थमित्याशङ्क्याह इन्द्रियस्येति। इन्द्रियस्येन्द्रियस्येति द्विर्वचनं वीप्सायाम्। प्रतीन्द्रियं स्वे स्वेऽर्थे शब्दादौ वचनादौ च विषये रागद्वेषौ अनुकूले रागः प्रतिकूले द्वेषश्च व्यवस्थितौ नित्यसंबद्धौ तत्र तयोर्वशं नागच्छेदिति शास्त्रस्याभ्यनुज्ञा। पुरुषस्य च तदनुष्ठाने स्वातन्त्र्यमस्ति। हि यतः तौ रागद्वेषावेवास्य प्राणिनः परिपन्थिनौ विरोधिनौ दृष्टद्वारेण प्रवर्तकत्वात्। न तु प्रकृत्यनुसारी ईश्वरोऽस्य परिपन्थी। तस्य वैषम्यादिदोषापत्तेः। अयं भावः यथा ह्यस्तनेन स्वाज्ञोल्लङ्घनजेनापराधेन कुपितो राजाऽपराधिनं हि निगडादौ निग्रहीतुं स्वीयान्भटान्प्रवर्तयति स एवाद्यतनेन दानमानेन प्रसादित एनं तेषामेव भटानामाधिपत्ये नियुङ्क्ते। एवं पूर्वकर्मानुसारी ईश्वरो रागादिद्वारा पुरुषं बाधमानोऽपि विधिप्रतिषेधशास्त्रानुसारिणा तेनैव भक्ति ध्यानप्रणिधानेनावर्जितः एनं रागादिजये नियुङ्क्ते तस्माद्विधिप्रतिषेधशास्त्रस्य नानर्थक्यम्। पुरुषस्य स्वातन्त्र्यसत्त्वात्। नापीश्वरे वैषम्यादिकम्। प्राणिकर्मायत्तत्वादिति।
।।3.34।।श्रोत्रदिज्ञानेन्द्रियस्य अर्थे शब्दादौ वागादिकर्मेन्द्रियस्य च अर्थे वचनादौ प्राचीनवासनाजनिततदनुबुभूषारूपो रागः अवर्जनीयो व्यवस्थितः तदनुभवे प्रतिहते च अवर्जनीयो द्वेषो व्यवस्थितः तौ एव ज्ञानयोगाय यतमानं नियमितसर्वेन्द्रियं स्ववशे कृत्वा प्रसह्य स्वकार्येषु नियोजयतः। ततः च अयम् आत्मस्वरूपानुभवविमुखो विनष्टो भवति। तयोः न वशम् आगच्छेत् ज्ञानयोगारम्भेण रागद्वेषवशम् आगम्य न विनश्येत्। तौ रागद्वेषौ हि अस्य दुर्जयौ शत्रू आत्मज्ञानाभ्यासं वारयतः।
।।3.34।।नन्वेवं प्रकृत्यधीनैव चेत्पुरुषस्य प्रवृत्तिः तर्हि विधिनिषेधवैयर्थ्यं प्राप्तमित्याशङ्क्याह इन्द्रियस्येन्द्रियस्येति। वीप्सया प्रत्येकं सर्वेषामिन्द्रियाणामित्युक्तम्। अर्थे स्वस्वविषयेऽनुकूले रागः प्रतिकूले द्वेषश्चेत्येवं रागद्वेषौ व्यवस्थिताववश्यंभाविनौ। ततश्च तदनुरूपा प्रवृत्तिरिति भूतानां प्रकृतिः तथापि तयोर्वशवर्ती न भवेदिति शास्त्रेण नियम्यते। हि यस्मादस्य मुमुक्षोस्तौ परिपन्थिनौ प्रतिपक्षौ। अयं भावः। विषयस्मरणादिना रागद्वेषावुत्पाद्यानवहितं पुरुषमनर्थेऽपि गम्भीरे स्रोतसीव प्रकृतिर्बलात्प्रवर्तयति शास्त्रं तु ततः प्रागेव विषयेषु रागद्वेषप्रतिबन्धके परमेश्वरभजनादौ प्रवर्तयति। गम्भीरस्रोतःपातात्पूर्वमेव नावमाश्रित इव नानर्थं प्राप्नोतीति।
।।3.34।।वासनायाः स्वानुरूपचेष्टाहेतुत्वेऽवान्तरव्यापारोऽनन्तरमुच्यत इत्यभिप्रायेणाह प्रकृत्यनुयायित्वेति। इन्द्रियस्येन्द्रियस्येति वीप्सा सर्वेन्द्रियसङ्ग्रहार्थेत्यभिप्रायेण ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियोपादानम्। अर्थशब्दोऽत्र विषयपरः। साध्यस्य च व्यापारविषयत्वाद्वचनादेरप्यत्रार्थशब्दार्थता दर्शिता।व्यवस्थितौ इत्यत्रोपसर्गार्थविवरणम् अवर्जनीय इति। वासनाया इच्छाद्वारेणैव प्रवृत्तिहेतुत्ववचनात् ज्ञानवासनैव कर्महेतुत्ववेषेण कर्मवासनत्युच्यते न तु वासनान्तरमस्तीत्यपि सूचितं भवति।इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ इत्युक्ते शब्दादिविषयेषु रागवद्द्वेषोऽपि किं स्वरसवाही इति शङ्का स्यात् तद्व्युदासायाहतदनुभव इति। ततः किं इति शङ्कायांसदृशं चेष्टते 3।33 इत्यनेनैकीकृत्यानुसन्दधानस्तात्पर्यार्थमाहतावेवमिति। एवमुक्तवासनानुयायित्वप्रकारेणेत्यर्थः।नियमितसर्वेन्द्रियमित्यनेन बलात् क्षणमात्रनिमीलनादिनियमनमुच्यतेस्वकार्येष्विति विषयानुभवेषु वचनादानादिषु कर्मसु चेत्यर्थः।सङ्गात्सञ्जायते इत्यारभ्यबुद्धिनाशात्प्रणश्यति 2।6263 इत्यन्तं पूर्वप्रपञ्चितमवसरे स्मारयति ततश्चायमिति।तयोर्न वशमागच्छेत् इत्येतन्न तावद्रागद्वेषनिषेधमात्रम् तदा ह्यौचित्यात् ज्ञानयोगाङ्गविधानं स्यात्। तच्च ज्ञानयोगानादरणीयताप्रकरणासङ्गतम् अतोऽत्र यया वचनव्यक्त्या ज्ञानयोगानादरणीयता सूच्येत सैव ग्राह्येत्यभिप्रायेणाह ज्ञानयोगेति। कर्मयोगारम्भे तु चिराभ्यस्तसजातीयविषयेषु प्रवृत्तेर्न रागद्वेषयोर्बलात्कार इति भावः।आगम्य न विनश्येदिति विनाशहेतुभूतं तद्वशगमनं परिहरेदित्यर्थः। तद्वशगमने कथं विनाशः इति शङ्कायां चतुर्थपादमवतारयतितौ हीति।काम एष क्रोध एषः 3।37़ इत्यादिभिः श्लोकैर्वक्ष्यमाणमाकारमभिप्रेत्यदुर्जयौ शत्रू इत्युक्तम्। परिपन्थित्वं प्रकृतविषयं योजयति आत्मज्ञानाभ्यासं वारयत इति। मुक्तिघण्टापथे लुण्टाकवदवस्थितावित्यर्थः।
।।3.34 3.35।।कथं तर्हि बन्धः इत्थमित्युच्यते (N omits इत्थम् K omits इति)।इन्द्रियस्येति। श्रेयानिति। संसारी च प्रतिविषयं रागं द्वेषं च गृह्णाति यतः कर्माणि आत्मकर्तृकाण्येव विमूढत्वादभिमन्यते इति सममपि भोजनादिव्यवहारं कुर्वतोः ज्ञानिसंसारिणोरस्त्ययं विशेषः। अयं नः सिद्धान्तः सर्वथा मुक्तसंगस्य स्वधर्मचारिणो नास्ति कश्चित् पुण्यपापात्मको बन्धः। स्वधर्मो हि हृदयादनपायी स्वरसनिरूढ ( N K निगूढः) एव न तेन कश्चिदपि रिक्तो जन्तुर्जायते इत्यत्याज्यः।
।।3.34।।इन्द्रियस्य इत्यस्य सङ्गतिमाह तथापीति। एवं तर्हिमयि सर्वाणि कर्माणि 3।30 इतिविधानं फलकथनं च व्यर्थमित्याशङ्क्येति भावः। यद्यपिप्रकृतिं यान्ति भूतानि 3।33 इति निग्रहोऽकिञ्चित्करस्तस्यापि व्याहतमेतदुच्यत इत्यत उक्तं निग्रहादिति। निग्रहादित्याद्याशयवांस्तथापीत्याद्याहेति योजना। अत्रागमसम्मतिमाह तथाहीति।
।।3.34।।ननु सर्वस्य प्राणिवर्गस्य प्रकृतिवशवर्तित्वे लौकिकवैदिकपुरुषकारविषयाभावाद्विधिनिषेधानर्थक्यं प्राप्तं नच प्रकृतिशून्यः कश्चिदस्ति यं प्रति तदर्थवत्त्वं स्यादित्यत आह इन्द्रिस्येन्द्रियस्येति वीप्सया सर्वेषामिन्द्रियाणामर्थे विषये शब्दे स्पर्शे रुपे रसे गन्धे च एवं कर्मेन्द्रिविषयेऽपि वचनादावनुकूले शास्त्रनिषिद्धेऽपि रागः प्रतिकूले शास्त्रविहितेऽपि द्वेष इत्येवं प्रतीन्द्रियार्थं रागद्वेषौ व्यवस्थितावानुकूल्यप्रातिकूल्यव्यवस्थया स्थितौ नत्वनियमेन सर्वत्र तौ भवतः। तत्र पुरुषकारस्य शास्त्रस्य चायं विषयो यत्तयोर्वशं नागच्छेदिति। कथं। या हि पुरुषस्य प्रकृतिः सा बलवदनिष्टानुबन्धित्वज्ञानाभावसहकृतेष्टसाधनत्वज्ञाननिबन्धनं रागं पुरस्कृत्यैव शास्त्रनिषिद्धे कलञ्जभक्षणादौ प्रवर्तयति तथा बलवदिष्टसाधनत्वज्ञानाभावसहकृतानिष्टसाधनत्वज्ञाननिबन्धनं द्वेषं पुरस्कृत्यैव शास्त्रविहितादपि सन्ध्यावन्दनादेर्निवर्तयति। तत्र शास्त्रेण प्रतिषिद्धस्य बलवदनिष्टानुबन्धित्वे ज्ञापिते सहकार्यभावात्केवलं दृष्टेष्टसाधनताज्ञानं मधुविषसंपृक्तान्नभोजनइव तत्र न रागं जनयितुं शक्नोति। एवं विहितस्य शास्त्रेण बलवदिष्टानुबन्धित्वे बोधिते सहकार्यभावात्केवलमनिष्टसाधनत्वज्ञानं भोजनादाविव तत्र न द्वेषं जनयितुं शक्नोति। ततश्चाप्रतिबद्धं शास्त्रं विहिते पुरुषं प्रवर्तयति निषिद्धाच्च निवर्तयतीति शास्त्रीयविवेकविज्ञानप्राबल्येन स्वाभाविकरागद्वेषयोः कारणोपमर्देनोपमर्दान्न प्रकृतिर्विपरीतमार्गे पुरुषं शास्त्रदृष्टिं प्रवर्तयितुं शक्नोतीति न शास्त्रस्य पुरुषकारस्य च वैयर्थ्यप्रसङ्गः। तयो रागद्वेषयोर्वशं नागच्छेत्तदधीनो न प्रवर्तेत निवर्तेत वा। किंतु शास्त्रीयतद्विपक्षज्ञानेन तत्कारणविघटनद्वारा तौ नाशयेत्। हि यस्मात् तौ रागद्वेषौ स्वाभाविकदोषप्रयुक्तौ अस्य पुरुषस्य श्रेयोर्थिनः परिपन्थिनौ शत्रू श्रेयोमार्गस्य विघ्नकर्तारौ दस्यूइव पथिकस्य। इदं चद्वये ह प्राजापत्या देवाश्चासुराश्च ततः कानीयसा एव देवा ज्यायसा असुरास्त एषु लोकेष्वस्पर्धन्त इत्यादिश्रुतौ स्वाभाविकरागद्वेषनिमित्तशास्त्रविपरीतप्रवृत्तिमसुरत्वेन शास्त्रीयप्रवृत्तिं च देवत्वेन निरूप्य व्याख्यातमतिविस्तरेणेत्युपरम्यते।
।।3.34।।ननु प्रकृतेर्भगवद्दत्तसामर्थ्यान्निग्रहादीनामसाधकत्वे पुरुषसज्जीवानां कथं फलसिद्धिः इत्यत आहुः इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थ इति। इन्द्रियस्य इन्द्रियाणां जात्यभिप्रायेणैकवचनम् इन्द्रियस्यार्थे रूपादौ रागद्वेषौ व्यवस्थितौ नियतभाव्यौ। इष्टे रागोऽनिष्टे द्वेषः। अवश्यमेतौ भाविनौ। तयोरिष्टानिष्टयोः रागद्वेषयोर्वा वशं नागच्छेत्। यतस्तावस्य परिपन्थिनौ द्वेषिणौ मार्गविच्छेदकौ। अत्रायमर्थः मायायाः स्वीयान्तानां तत्सम्बन्धिनां च मोहनसामर्थ्यं भगवता दत्तमतः पुरुषांशो जीव इन्द्रियादिवशं नागच्छेत्तदा मोहो न भवेत्। मायायाः स्वसम्बन्धिमोहकसामर्थ्यज्ञापनायैव पूर्वं भूतानीति नपुंसकलिङ्गमुक्तम्। अत्रोपदेशे चास्येत्यनेन पुल्लिङ्गमुक्तं विषयादिसङ्गस्य मोहरूपत्वादेव श्रीभागवते 3।31।35 न तथाऽस्य भवेन्मोहो बन्धश्चात्मप्रसङ्गतः। योषित्सङ्गाद्यथा पुंसो यथा तत्सङ्गिसङ्गतः।। इत्युक्तम्।
।।3.34।। इन्द्रियस्येन्द्रियस्य अर्थे सर्वेन्द्रियाणामर्थे शब्दादिविषये इष्टे रागः अनिष्टे द्वेषः इत्येवं प्रतीन्द्रियार्थं रागद्वेषौ अवश्यंभाविनौ तत्र अयं पुरुषकारस्य शास्त्रार्थस्य च विषय उच्यते। शास्त्रार्थे प्रवृत्तः पूर्वमेव रागद्वेषयोर्वशं नागच्छेत्। या हि पुरुषस्य प्रकृतिः सा रागद्वेषपुरःसरैव स्वकार्ये पुरुषं प्रवर्तयति। तदा स्वधर्मपरित्यागः परधर्मानुष्ठानं च भवति। यदा पुनः रागद्वेषौ तत्प्रतिपक्षेण नियमयति तदा शास्त्रदृष्टिरेव पुरुषः भवति न प्रकृतिवशः। तस्मात् तयोः रागद्वेषयोः वशं न आगच्छेत् यतः तौ हि अस्य पुरुषस्य परिपन्थिनौ श्रेयोमार्गस्य विघ्नकर्तारौ तस्करौ इव पथीत्यर्थः।।तत्र रागद्वेषप्रयुक्तो मन्यते शास्त्रार्थमप्यन्यथा परधर्मोऽपि धर्मत्वात् अनुष्ठेय एव इति तदसत्
।।3.34।।नन्वेवं सति विधिनिषेधवैयर्थ्यं प्रकृत्यधीनत्वात्सर्वस्येत्याशङ्क्याह इन्द्रियस्येति। न हि विधिनिषेधौ तत्त्वज्ञात्यन्ताज्ञयोः प्रवर्त्तकौ अविषयत्वात्। किन्तु मध्यमस्येति इन्द्रियरसवानेवाधिकारीति तस्य प्रतीन्द्रियार्थं रागद्वेषावन्तरस्वकृतौ व्यवस्थितौ तदनधीनत्वमेव सिद्धिहेतुरिति अतस्तयोर्न वशमागच्छेत् तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ विवेकवित्तस्य कुपथप्रापकौ प्रसभं घातकावित्यर्थः।