दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते। ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।4.25।।
daivam evāpare yajñaṁ yoginaḥ paryupāsate brahmāgnāvapare yajñaṁ yajñenaivopajuhvati
Some yogis perform sacrifice to the gods alone; while others, who have realized the Self, offer the Self as sacrifice in the fire of Brahman alone.
4.25 दैवम् pertaining to Devas? एव only? अपरे some? यज्ञम् sacrifice? योगिनः Yogis? पर्युपासते perform? ब्रह्माग्नौ in the fire of Brahman? अपरे others? यज्ञम् sacrifice? यज्ञेन by sacrifice? एव verily? उपजुह्वति offer as sacrifice.Commentary Some Yogis who are devoted to Karma Yoga perform sacrificial rites to the shining ones or Devas (gods). The second Yajna is JnanaYajna or the wisdom sacrifice performed by those who are devoted to Jnana Yoga. The oblation in this sacrifice is the Self. Yajna here means the Self. The Upadhis or the limiting adjuncts such as the physical body? the mind? the intellect? etc.? which are superimposed on Brahman through ignorance are sublated and the identity of the individual soul with the Supreme Soul or Brahman is realised. To sacrifice the self in Brahman is to know through direct cognition (Aparoksha Anubhuti) that the individual soul is identical with Brahman. This is the highest Yajna. Those who are established in Brahman? those who have realised their oneness with the Supreme Soul or Paramatma perform this kind of sacrifice. This is superior to all other sacrifices.
।।4.25।। व्याख्या--'दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते'-- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सर्वत्र ब्रह्मदर्शनरूप यज्ञ करनेवाले साधकका वर्णन किया। यहाँ भगवान् 'अपरे' पदसे उससे भिन्न प्रकारके यज्ञ करनेवाले साधकोंका वर्णन करते हैं।यहाँ 'योगिनः' पद यज्ञार्थ कर्म करनेवाले निष्काम साधकोंके लिये आया है।सम्पूर्ण क्रियाओं तथा पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर उन्हें केवल भगवान्का और भगवान्के लिये ही मानना 'दैवयज्ञ' अर्थात् भगवदर्पणरूप यज्ञ है। भगवान् देवोंके भी देव हैं ,इसलिये सब कुछ उनके अर्पण कर देनेको ही यहाँ 'दैवयज्ञ' कहा गया है।किसी भी क्रिया और पदार्थमें किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति, ममता और कामना न रखकर उन्हें सर्वथा भगवान्का मानना ही दैवयज्ञका भलीभाँति अनुष्ठान करना है।'ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति'--इस श्लोकके पूर्वार्धमें बताये गये दैवयज्ञसे भिन्न दूसरे यज्ञका वर्णन करनेके लिये यहाँ 'अपरे' पद आया है।चेतनका जडसे तादात्म्य होनेके कारण ही उसे जीवात्मा कहते हैं। विवेक-विचारपूर्वक जडसे सर्वथा विमुख होकर परमात्मामें लीन हो जानेको यहाँ यज्ञ कहा गया है। लीन होनेका तात्पर्य है--परमात्मतत्त्वसे भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता किञ्चिन्मात्र न रखना।
।।4.25।। जगत् में कार्य करते हुए ज्ञानी पुरुष के हृदय के भाव को ही कुछ श्लोकों में बताया गया है। साधक के मन में एक शंका सदैव उठती है कि ध्यानावस्था में बुद्धि से भी परे अर्थात् उसकी द्रष्टा आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है परन्तु कुछ काल के लिये ही। गौतम बुद्ध जैसे कुछ महापुरुषों को हम कार्य में अत्याधिक व्यस्त देखते हैं जबकि कोई महात्मा एक स्थान पर ही रहकर अपने सीमित क्षेत्र में कार्य करते देखे जाते हैं जैसे भगवान् रमण महर्षि। कुछ अन्य सन्त सामान्य जीवन ही व्यतीत करते हैं। साधक को यह जानने की उत्सुकता रहती है कि जगत् में अनेक वस्तुओं के सम्पर्क में आने पर ज्ञानी पुरुष के मन की क्या भावना होती है।जो पुरुष सभी उपलब्ध साधनों के उपयोग से अपने आपको शारीरिक मानसिक एवं बौद्धिक अपूर्णताओं दुर्बलताओं से ऊँचा उठाने का सतत् प्रयत्न करता है वह योगी कहलाता है। इस दृष्टि से इस श्लोक के केवल सामान्य अर्थ को ही ग्रहण करना उचित नहीं होगा।जो प्रकाशरूप है उसे कहते हैं देव। अध्यात्म की दृष्टि से ये देव पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन इन्द्रियों के द्वारा शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध ये पाँच विषय प्रकाशित किये जाते हैं। साधक तथा सिद्ध पुरुष भी इन्द्रियों के माध्यम से ही विषय ग्रहण करते हैं परन्तु उनकी दृष्टि में यह भी एक यज्ञ है जिसमें विषयों की आहुतियाँ इन्द्रियरूप देवों को दी जारही हैं। अज्ञानी के लिये जो विषयग्रहण की क्रिया मात्र है वही ज्ञानियों की दृष्टि से विषयों की इन्द्रियों के प्रति भक्ति की साधना है।यज्ञ की भावना बनाये रखने से साधक को धीरेधीरे उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट सभी प्रकार के इन्द्रियोपभोगों से वैराग्य हो जाता है जो आन्तरिक समता बनाये रखने में सहायक होता है।देवयज्ञ के वर्णन के बाद श्रीकृष्ण कहते हैं अन्य लोग ब्रह्मयज्ञ करते हैं जिसमें ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ (आत्मा) के द्वारा यज्ञ का (आत्मा का) हवन करते हैं। अध्यात्म की दृष्टि से विचार करने पर इस कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। जब तक हम शरीर धारण किये हुए इस जगत् में रहते हैं तब तक विषयों के साथ हमारा सम्पर्क अवश्य रहता है। परन्तु हमें जो सुखदुख का अनुभव होता है वह बाह्य जगत् के कारण नहीं वरन् हमारे विषयों के प्रति रागद्वेष के कारण होता है। विषयों में स्वयं सुख या दुख देने की क्षमता नहीं है।ज्ञानी पुरुष जानते हैं कि इन्द्रियाँ विषय ग्रहण की साधन मात्र हैं और वे केवल चैतन्य आत्मा के सानिध्य से ही कार्य कर सकती हैं। इस ज्ञान के कारण वे इन्द्रियों की ब्रह्मज्ञान की अग्नि में स्वयं ही आहुति देते हैं। यहाँ साधकों को उपदेश हैं कि वे अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का उपयोग स्वार्थ के लिये न करके जगत् की सेवार्थ करें इससे वे जगत् में रहकर कार्य करते हुए भी विषयासक्ति के बन्धन में नहीं पड़ सकते।अगले श्लोक में भगवान् दो प्रकार के यज्ञ बताते हैं
।।4.25।।ज्ञानस्य यज्ञत्वं संपाद्य पूर्वश्लोके स्थिते सत्यधुना तस्यैव ज्ञानस्य स्तुत्यर्थं यज्ञान्तरनिर्देशार्थमुत्तरग्रन्थप्रवृत्तिरित्याह तत्रेति। सर्वस्य श्रेयःसाधनस्य मुख्यगौणवृत्तिभ्यां यज्ञत्वं दर्शयन्नादौ यज्ञद्वयमादर्शयति दैवमेवेत्यादिना। प्रतीकमादाय दैवयज्ञं व्याचष्टे देवा इति। सम्यग्ज्ञानाख्यं यज्ञं विभजते ब्रह्माग्नाविति। तत्र ब्रह्मशब्दार्थं श्रुत्यवष्टम्भेन स्पष्टयति सत्यमिति। यदजमनृतं विपरीतमपरिच्छिन्नं ब्रह्म तस्य परमानन्दत्वेन परमपुरुषार्थत्वमाह विज्ञानमिति। तस्य ज्ञानाधिकरणत्वेनज्ञानत्वमौपचारिकमित्याशङ्क्याह यत्साक्षादिति। जीवब्रह्मविभागे कथमपरिच्छिन्नत्वमित्याशङ्क्य विशिनष्टि य आत्मेति। परस्यैवात्मत्वं सर्वस्माद्देहादेरव्याकृतान्तादान्तरत्वेन साधयति सर्वान्तर इति। विधिमुखं सर्वमेवोपनिषद्वाक्यं ब्रह्मविषयमादिशब्दार्थः। निषेधमुखं ब्रह्मविषयमुपनिषद्वाक्यमशेषमेवार्थतो निबध्नाति अशनायेति। ब्रह्मण्यग्निशब्दप्रयोगे निमित्तमाह स होमेति। बुद्ध्यारूढतया सर्वस्य दाहकत्वाद्विलयस्य वा हेतुत्वादिति द्रष्टव्यम्। यज्ञशब्दस्यात्मनि त्वंपदार्थे प्रयोगे हेतुमाह आत्मनामस्विति। आधाराधेयभावेन वास्तवभेदं ब्रह्मात्मनोर्व्यावर्तयति परमार्थत इति। कथं तर्हि होमो नहि तस्यैव तत्र होमः संभवतीत्याशङ्क्याह बुद्ध्यादीति। उपाधिसंयोगफलं कथयति अध्यस्तेति। उपाध्यध्यासद्वारा तद्धर्माध्यासे प्राप्तमर्थं निर्दिशति आहुतीति। इत्थंभूतलक्षणां तृतीयामेव व्याकरोति उक्तेति। अशनायादिसर्वसंसारधर्मवर्जितेन निर्विशेषेण स्वरूपेणेति यावत्। आत्मनो ब्रह्मणि होममेव प्रकटयति सोपाधिकस्येति। अपर इत्यस्यार्थं स्फोरयति ब्रह्मेति। उक्तस्य ज्ञानयज्ञस्य दैवयज्ञादिषु ब्रह्मार्पणमित्यादिश्लोकैरुपक्षिप्यमाणत्वं दर्शयति सोऽयमिति। उपक्षेपप्रयोजनमाह श्रेयानिति।
।।4.25।। सभ्यग्दर्शनस्य यज्ञत्वं संपाद्य तत्स्तुत्यर्थमन्येऽपि यज्ञा उपक्षिप्यन्ते दैवमेवेत्यादिना। देवा एवेज्यन्तेऽनेनाग्निष्टोमादिनासौ दैवो यज्ञस्तमपरे कर्मयोगिनः पर्युपासते कुर्वन्ति ब्रह्माग्नौसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इत्यादिश्रुत्युक्तमसंसारिस्वरुपं ब्रह्म तदेव होमाधिकरणविवक्षयाऽग्निः तस्मिन्नपरे ब्रह्मविदः। आत्मनाभसु यज्ञशब्दस्य पाठात्। यज्ञमात्मानं जीवमाहुतिरुपं यज्ञेन सत्यादिलक्षणेनोपजुह्वति सोपाधिकस्यात्मनो निरुपाधिकेन परब्रह्मरुपेणैव। यदवलोकनं स तस्मिन्होमस्तं कुर्वन्तीत्यर्थः। ब्रह्मरुपेऽग्नौ यज्ञेनैवोपायेन ब्रह्मार्पणमित्युक्तप्रकारेण यज्ञमुपजुह्वति। यज्ञादिसर्वकर्म प्रविलापयन्तीत्यर्थ इति वा। अस्मिन्पक्षे यज्ञं यज्ञेनेत्यनयोः स्वारस्यं श्रोत्रादीनीत्यादिनोक्तयज्ञानुगुण्यं चिन्त्यम्।
।।4.25।।यज्ञभेदानाह दैवमित्यादिना। दैवं भगवन्तम् स एव तेषां यज्ञः। भगवदुपासनं यज्ञमिति क्रियाविशेषण्। नान्यत्तेषामस्ति यतीनां केषाञ्चित्। यज्ञं भगवन्तम्। यज्ञेन यज्ञम् ऋक्सं.8।4।19।6 यजुस्सं.31।16 यज्ञो विष्णुर्देवता इत्यादिश्रुतिः। यज्ञेन प्रसिद्धेनैव यज्ञं प्रति जुह्वतीति सर्वत्र समम्। तं यज्ञं ऋक्सं.8।4।18।2 यजुस्सं.31।9 इत्यादौ। उक्तं चविष्णुं रुद्रेण पशुना ब्रह्मा ज्येष्ठेन सूनुना। अयजन्मानसे यज्ञे पितरं प्रपितामहः इति।
।।4.25।।एवं सम्यग्दर्शनस्य यज्ञत्वं संपाद्य तत्स्तुत्यर्थं यज्ञान्तराण्युपक्षिपति दैवमेवेत्यादिना। दैवं देवताप्रधानमेव दर्शपूर्णमासादियज्ञं नान्यं एके योगिनः कर्मयोगिनः पर्युपासते अपरे तु ब्रह्मैव सत्यज्ञानानन्तानन्दात्मकमखण्डैकरसं वस्तु तदेव ज्ञातं सत्सर्वकर्मदग्धृत्वादग्निरिवाग्निर्ब्राह्माग्निस्तत्र यज्ञं जीवम्। यज्ञशब्दस्यात्मनामसु पाठात्। सोपाधिं यज्ञेनैवात्मनैव निरुपाधिकेन रूपेण जुह्वति घटाकाशमिव महाकाशे उपाधिप्रहाणेन प्रविलापयन्ति सोऽयं ज्ञानयज्ञो मुख्यः।
।।4.25।।दैवं दैवार्चनरूपं यज्ञम् अपरे कर्मयोगिनः पर्युपासते सेवन्ते तत्र एव निष्ठां कुर्वन्ति इत्यर्थः। अपरे ब्रह्माग्नौ यज्ञं यज्ञेन एव उपजुह्वति। यज्ञं यज्ञरूपं ब्रह्मात्मकम् आज्यादिद्रव्यं यज्ञेन यज्ञसाधनभूतेन स्रुगादिना जुह्वति। अत्र यज्ञशब्दो हविःस्रुगादियज्ञसाधने वर्तते। ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः इति न्यायेन यागहोमयोर्निष्ठां कुर्वन्ति।
।।4.25।।एतदेव यज्ञत्वेन संपादितं सर्वत्र ब्रह्मदर्शनलक्षणं ज्ञानं सर्वयज्ञोपायप्राप्यत्वात्सर्वयज्ञेभ्यः श्रेष्ठमित्यवं स्तोतुं अधिकारिभेदेन ज्ञानोपायभूतान्बहून्यज्ञानाह दैवमित्यष्टभिः। देवा इन्द्रवरुणादय इज्यन्ते यस्मिन्। एवकारेणेन्द्रादिषु ब्रह्मबुद्धिराहित्यं दर्शितम्। तं दैवं यज्ञं अपरे कर्मयोगिनः पर्युपासते श्रद्धयानुतिष्ठन्ति। अपरे तु ज्ञानयोगिनो ब्रह्मरूपेऽग्नौ यज्ञेनैवोपायभूतेन ब्रह्मार्पणमित्युक्तप्रकारेण यज्ञमुपजुह्वति। यज्ञादिसर्वकर्माणि प्रविलापयन्तीत्यर्थः। सोऽयं ज्ञानयज्ञः।
।।4.25।।उक्तार्थसङ्गतिपूर्वकंदैवमेव इत्यादेःप्राणान्प्राणेषु जुह्वति 4।30 इत्यन्तस्य प्रघट्टकस्यार्थमाह एवं कर्मण इति। देवसम्बन्धि दैवम् तत्सम्बन्धित्वं च तदर्चनरूपत्वमितिदेवार्चनरूपमित्युक्तम्।दैवमेव इत्यवधारणेनअपरे इत्यादिना च विकल्पः सिद्धः ततश्च देवसम्बन्धमात्रं साधारणं नात्र वाच्यम् अतोऽर्चनशब्देन वक्ष्यमाणयागहोमादिभ्यो व्यावृत्तिः सूचिता। यागादेरपि देवार्चनत्वेऽपि तत्तद्देवतारूपादिसपर्यायां ह्यर्चनशब्दः प्रसिद्धः।कर्मयोगेन योगिनाम् 3।3 इत्युपक्रमवदत्रापि योगिशब्दः कर्मयोगनिष्ठविषय इति ज्ञापनायकर्मयोगिन इत्युक्तम्। दैवस्य यज्ञत्वेन दृष्टिरत्र विधीयत इति भ्रमव्युदासाय निरन्तरानुष्ठानप्रयुक्तचरणपर्यायेण व्याख्याति सेवन्त इति।सेवा भक्तिरुपास्तिः इति नैघण्टुकाः। अत्रसेवोपासनशब्दौ सेव्यं प्रति करणत्रयस्यानुकूलवृत्तिनैरन्तर्यपरौ न तु ध्यानमात्रपरौ भक्तिशब्दस्तु ध्यानस्य प्रीतिरूपतां वक्ति। ननु मन्वादिभिःदेवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेव च मनुः2।176 इति नित्यकर्मतया स्मरणाद्देवतार्चनरूपो यज्ञः सर्वेषामपि कर्मयोगिनामवश्यकर्तव्यः स कथं विकल्प्यत इत्यत्राह तत्रैव निष्ठां कुर्वन्तीत्यर्थ इति।ननुब्रह्मार्पणं इत्यत्र श्लोके कश्चित्कर्मयोगभेदोऽभिहितः अर्पणहविरग्न्यादिविशेषनिर्देशेनावान्तरभेदप्रतीतेः। तत्र चतेन इति कर्ताऽपि निर्दिष्टः तत्प्रतियोगिकोऽयमपरशब्द इति किं नाङ्गीक्रियते तदुच्यते ब्रह्मार्पणं इति श्लोको न कर्मयोगस्वरूपभेदविषयः किन्तु सर्वेषामपि कर्मयोगानां ब्रह्मात्मकत्वानुसन्धानाख्यसाधारणगुणविषयः तत्रैवब्रह्मकर्मसमाधिना 4।24 इति सामान्येनोक्तेः। अतोऽर्पणहविरादिग्रहणं तत्तत्कर्मयोगभेदापेक्षिततत्तत्कारकविशेषोपलक्षणार्थम्। अत एव निवृत्तिलक्षणयज्ञप्रसङ्गात्दैवमेवापरे इत्यादिभिः प्रवृत्तिलक्षणयज्ञोक्तिरिति परोक्तं परास्तम्।ब्रह्माग्नावपरे यज्ञम् इत्यत्र यज्ञस्वरूपस्य परमात्मादेर्वा साक्षाद्धोतव्यत्वहोमसाधनत्वानुपपत्तेर्यज्ञसाधनलक्षणया द्वितीयान्तयज्ञशब्दो हविर्विषयः तृतीयान्तस्तु स्रुगादिविषय इत्याह अत्रेति। ननुब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् इति पूर्वमेवोक्तम् अत्रापिब्रह्माग्नावपरे इत्युच्यते अतोऽत्रयज्ञं यज्ञेन इत्यनयोरर्थोऽन्यथा वर्णनीयः इतरथा पौनरुक्त्यप्रसङ्गः सर्वकर्मयोगसाधारणस्यार्थस्य विशेषतया निर्देशोऽप्यनुपपन्न इत्यत्राहब्रह्मार्पणं ब्रह्महविरिति न्यायेनेति। अत्र यज्ञशब्दाज्जुह्वतिशब्दाच्च यागहोमयोर्निष्ठाया एव विवक्षितत्वादवान्तरभेदत्वमपौनरुक्त्यं चोपपन्नमिति भावः। अत्राग्नित्वेन कल्पिते ब्रह्मणि यज्ञशब्दनिर्दिष्टं जीवमपूर्वं वा हविष्ट्वेनपरिकल्प्य प्रक्षिपन्तीत्यादिपरव्याख्यानानि शब्दवृत्तिपरिक्लेशादेव निरस्तानि। कर्मप्रकरणाच्चात्र सर्वत्र मानसयज्ञत्वक्लृप्तिपक्षोऽप्ययुक्तः।
।।4.25।।दैवमेवेति। अपरे दैवानि क्रीडनशीलानि (K क्रीडाशीलानि) इन्द्रियाणि आश्रित्य यः स्थितो यज्ञो निजविषयग्रहणलक्षणः तमेव परितः उपासते आमूलाद्विमृशन्ते स्वात्मलाभं लभन्ते। अत एव ते योगिनः सर्वावस्थासु सततमेव योगयुक्तत्वात्। नित्ययोगे ह्यत्रायं मत्वर्थीयः इनिः । एनमेव च विषयग्रहणात्मकं यज्ञं यज्ञेनैव तेनैव उक्त लक्षणेन अपरे पूरयितुमशक्ये ब्रह्माग्नौ जुह्वति इति कैश्चित् व्याख्यातम्।मुनेस्तु पौर्वापर्याविरुद्धत्वात् योऽर्थ तस्य हृदि स्थितः तं प्रकाशयामः। केचिद्योगयुक्तः सन्तो दैवं नानारूपेन्द्रादिदेवतोद्देशेनैव बाह्यद्रव्यमयं यज्ञमुपाचरन्ति। तं च क्रियमाणमेव यज्ञं यज्ञेन कर्तव्यमिदमित्येव बुद्ध्या फलानपेक्षया (S पेक्षितया) अपरे दुष्पूरे ब्रह्माग्नौ अर्पयन्तीति द्रव्ययज्ञा अपि परं ( omits परम) ब्रह्म यान्ति। यतो वक्ष्यते सर्वेऽप्येते यज्ञविदः इति (गीता 4.30) श्रुतिरपियज्ञेन यजमयजन्त देवाः(ऋ. सं. X 164 50 ) इति।
।।4.25।।उत्तरप्रकरणप्रतिपाद्यं बुद्ध्यारोहार्थमाह यज्ञेति। सामान्यतः कर्मस्वरूपमुक्तम् तच्च यज्ञादिभेदभिन्नम्। तत्रनायं लोकोऽस्ति 4।31 इति वक्ष्यति तदनुपपन्नम् यत्याद्याश्रमविलोपप्रसङ्गादित्याद्याशङ्कानिरासार्थमिति शेषः। तत्रदैवं देवविषयं इति व्याख्यानमसत्।द्रव्ययज्ञाः 4।28 इत्यस्य पुनरुक्तत्वादिति भावेनाह दैवमिति। एवं तर्हिकेचित् भगवन्तमुपासते इत्युक्तं स्यात्। तथा च नेयं यज्ञोक्तिरित्यत आह स एवेति। स इति परामृष्टं दर्शयति भगवदिति। भगवदुपासनस्य यज्ञत्वमिह कथं लभ्यते इत्यत आह यज्ञमिति। भगवदित्यादिकं क्रियाविशेषणत्वप्रदर्शनार्थमेकमेव वाक्यम्। साधनं परित्यज्य धात्वर्थमात्रस्य विशेषणं क्रियाविशेषणम्। अवधारणार्थं दर्शयति नान्यदिति। अन्यद्भगवदुपासनात्। अनेन एवशब्दो भिन्नक्रम इत्युक्तं भवति। दैवमेवोपासते नान्यदिति तु प्रकृतासङ्गतम्। केषाञ्चित्परमहंसानाम्। अन्येषां बाह्यकर्मणोऽपि भावात्। यद्वाकेषाञ्चित् इत्यस्यैव व्याख्यानं यतीनामिति।ब्रह्माग्नौ इत्यस्यआत्मानमात्मनैव मनसा वा ब्रह्मणैकीभावयन्ति इति व्याख्यानमसदिति भावेन यज्ञमित्येतद्व्याचष्टे यज्ञमिति। भगवतो यज्ञशब्दार्थत्वं कुतः इत्यत आह यज्ञेनेति।यज्ञेन इत्यस्यार्थमाह यज्ञेनेति। एवशब्देनापव्याख्यानं निराकरोति। एवं चेद्यज्ञमित्यस्य कथमन्वयः इत्यत आह यज्ञमिति। एतद्व्याख्यानमन्यत्रातिदिशति इति सर्वत्रेति। अतिप्रसङ्गनिवारणायसर्वत्र इत्युक्तं विवृणोति तमिति। एवं तर्ह्यग्रतो जातं तं पुरुषं यज्ञं भगवन्तं प्रति बर्हिषि प्रौक्षन्नित्यर्थः स्यात्। स च निर्मूल इत्यत आह उक्तं चेति।
।।4.25।।अधुना सम्यग्दर्शनस्य यज्ञरूपत्वेन स्तावकतया ब्रह्मार्पणमन्त्रे स्थिते पुनरपि तस्य स्तुत्यर्थमितरान्यज्ञानुपन्यस्यति देवा इन्द्राग्नायादय इज्यन्ते येन स दैवस्तमेव यज्ञं दर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादिरूपमपरे योगिनः कर्मिणः पर्युपासते सर्वदा कुर्वन्ति न ज्ञानयज्ञम्। एवं कर्मयज्ञमुक्त्वाऽन्तःकरणशुद्धिद्वारेण तत्फलभूतं ज्ञानयज्ञमाह ब्रह्माग्नौ सत्यज्ञानानन्तानन्दरूपं निरस्तसमस्तविशेषं ब्रह्म तत्पदार्थस्तस्मिन्नग्नौ यज्ञं प्रत्यगात्मानं त्वंपदार्थं यज्ञेनैव। यज्ञशब्द आत्मनामसु यास्केन पठितः। इत्थंभूतलक्षणे तृतीया। एवकारो भेदाभेदव्यावृत्त्यर्थः। त्वंपदार्थाभेदेनैवोपजुह्वति तत्स्वरूपतया पश्यन्तीत्यर्थः। अपरे पूर्वविलक्षणास्तत्त्वदर्शननिष्ठाः संन्यासिन इत्यर्थः। जीवब्रह्माभेददर्शनं यज्ञत्वेन संपाद्य तत्साधनयज्ञमध्ये पठ्यतेश्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ इत्यादिना स्तोतुम्।
।।4.25।।ननु ब्रह्मात्मकत्वे सति ज्ञानाज्ञानकृतं कर्म कथं न ब्रह्मणि लीयतेऽग्निस्पर्शे दाहवत् इत्याशङ्क्य सजातीयप्रचयसंवलित एवाग्निर्दाहसमर्थः न तु विस्फुलिङ्गात्मक इति सर्वत्र ब्रह्मात्मकज्ञानाभावे तज्ज्ञानानुरूपमेवागाधजलनिमग्नस्य ग्रहणसामर्थ्यं पूर्णघटवत् फलं भवतीत्याह दैवमित्यादिषड्भिः। अपरे योगिनः यत्किञ्चित्स्वरूपज्ञानेन कर्मफलेच्छया कर्मकर्त्तारः। यज्ञं कर्म दैवमेव ज्ञात्वा पर्युपासते परितः सर्वभावेन कुर्वन्ति। तेषां लौकिकदेहेन साधनात्मकभगवत्सेवायां सुखरूपं फलं भवतीत्यर्थः। अपरे तत्त्वज्ञानानुसारिणो ब्रह्माग्नौ अग्निं ब्रह्मस्वरूपं ज्ञात्वा तस्मिन् यज्ञं यज्ञात्मकं विष्णुं यज्ञेनैव यज्ञात्मकविष्णुरूपेण हविषा उपजुह्वति होमं कुर्वन्ति।
।।4.25)दैवमेव देवा इज्यन्ते येन यज्ञेन असौ दैवो यज्ञः तमेव अपरे यज्ञं योगिनः कर्मिणः पर्युपासते कुर्वन्तीत्यर्थः। ब्रह्माग्नौ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तैत्ति0 उ0 2.1) विज्ञानमानन्दं ब्रह्म (बृह0 उ0 3.9.22) यत् साक्षादपरोक्षात् ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः (बृह0 उ0 3.4.1) इत्यादिवचनोक्तम् अशनायादिसर्वसंसारधर्मवर्जितम् नेति नेति इति निरस्ताशेषविशेषं ब्रह्मशब्देन उच्यते। ब्रह्म च तत् अग्निश्च सः होमाधिकरणत्वविवक्षया ब्रह्माग्निः। तस्मिन् ब्रह्माग्नौ अपरे अन्ये ब्रह्मविदः यज्ञम् यज्ञशब्दवाच्य आत्मा आत्मनामसु यज्ञशब्दस्य पाठात् तम् आत्मानं यज्ञं परमार्थतः परमेव ब्रह्म सन्तं बुद्ध्याद्युपाधिसंयुक्तम् अध्यस्तसर्वोपाधिधर्मकम् आहुतिरूपं यज्ञेनैव आत्मनैव उक्तलक्षणेन उपजुह्वति प्रक्षिपन्ति सोपाधिकस्य आत्मनः निरुपाधिकेन परब्रह्मस्वरूपेणैव यद्दर्शनं स तस्मिन् होमः तं कुर्वन्ति ब्रह्मात्मैकत्वदर्शननिष्ठाः संन्यासिनः इत्यर्थः।।सोऽयं सम्यग्दर्शनलक्षणः यज्ञः दैवयज्ञादिषु यज्ञेषु उपक्षिप्यते ब्रह्मार्पणम् इत्यादिश्लोकैः प्रस्तुतः श्रेयान् द्रव्यमयाद्यज्ञात् ज्ञानयज्ञः परंतप (गीता 4.33) इत्यादिना स्तुत्यर्थम्
।।4.25।।एवं तत्कर्मणो ब्रह्मभावज्ञानकारणतां प्रतिपाद्यधिकारिभेदेन प्रसङ्गादन्यानपि बहून् यज्ञानाह दैवमेवापरे इति। तत्तद्देवाराधनात्मकं योगिनो योगकर्मिणः ब्रह्माग्नाविति ज्ञानिनो ब्रह्मवादिन उक्तप्रकारकं ब्रह्माग्नौ यज्ञं कर्म भावितेन ब्रह्मणा यज्ञेनोपजुह्वति प्रविलापयन्ति।