तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।
tad viddhi praṇipātena paripraśhnena sevayā upadekṣhyanti te jñānaṁ jñāninas tattva-darśhinaḥ
Know that the wise who have realized the truth will instruct thee in that knowledge through long prostration, supplication, and service.
4.34 तत् That? विद्धि know? प्रणिपातेन by long prostration? परिप्रश्नेन by estion? सेवया by service? उपदेक्ष्यन्ति will instruct? ते to thee? ज्ञानम् knowledge? ज्ञानिनः the wise? तत्त्वदर्शिनः those who have realised the Truth.Commentary Go to the teachers (those who are well versed in the scriptures dealing with Brahman or Brahmasrotris? and who are established in Brahman or Brahmanishthas). Prostrate yourself before them with profound humility and perfect devotion. Ask them estions? O venerable Guru What is the cause of bondage How can I get liberation What is the nature of ignorance What is the nature of knowledge What is the AntarangaSadhana (inward spiritual practice) for attaining Selfrealisation Serve the Guru wholeheartedly. A teacher who is versed in the scriptures (Sastras) but who has no direct Selfrealisaiton will not be able to help you in the attainment of the knowledge of the Self. He who has knowledge of the scriptures and who is also established in Brahman will be able to instruct thee in that knowledge and help thee in the attainment of Selfrealisation. Mere prostrations alone will not do. They may be tinged with hypocrisy. You must have perfect faith in your Guru and his teaching. You must serve him wholeheartedly with great devotion. Now hypocrisy is not possible.
4.34।। व्याख्या--'तद्विद्धि'--अर्जुनने पहले कहा था कि युद्धमें स्वजनोंको मारकर मैं हित नहीं देखता (गीता 1। 31) इन आततायियोंको मारनेसे तो पाप ही लगेगा (गीता 1। 36)। युद्ध करनेकी अपेक्षा मैं भिक्षा माँगकर जीवन-निर्वाह करना श्रेष्ठ समझता हूँ (गीता 2। 5)। इस तरह अर्जुन युद्धरूप कर्तव्य-कर्मका त्याग करना श्रेष्ठ मानते हैं; परन्तु भगवान्के मतानुसार ज्ञानप्राप्तिके लिये कर्मोंका त्याग करना आवश्यक नहीं है (गीता 3। 20 4। 15)। इसीलिये यहाँ भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि अगर तू कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके ज्ञान प्राप्त करनेको ही श्रेष्ठ मानता है, तो तू किसी तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषके पास ही जाकर विधिपूर्वक ज्ञानको प्राप्त कर; मैं तुझे ऐसा उपदेश नहीं दूँगा। वास्तवमें यहाँ भगवान्का अभिप्राय अर्जुनको ज्ञानी महापुरुषके पास भेजनेका नहीं, प्रत्युत उन्हें चेतानेका प्रतीत होता है। जैसे कोई महापुरुष किसीको उसके कल्याणकी बात कह रहा है, पर श्रद्धाकी कमीके कारण सुननेवालेको वह बात नहीं जँचती, तो वह महापुरुष उसे कह देता है कि तू किसी दूसरे महापुरुषके पास जाकर अपने कल्याणका उपाय पूछ; ऐसे ही भगवान् मानो यह कहे रहे हैं कि अगर तूझे मेरी बात नहीं जँचती, तो तू किसी ज्ञानी महापुरुषके पास जाकर प्रचलित प्रणालीसे ज्ञान प्राप्त कर। ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणाली है--कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके, जिज्ञासापूर्वक श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरुके पास जाकर विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करना (टिप्पणी प0 263)।आगे चलकर भगवान्ने अड़तीसवें श्लोकमें कहा है कि यही तत्त्वज्ञान तुझे अपना कर्तव्य-कर्म करते-करते (कर्मयोग सिद्ध होते ही) दूसरे किसी साधनके बिना स्वयं अपने-आपमें प्राप्त हो जायगा। उसके लिये किसी दूसरेके पास जानेकी जरूरत नहीं है।'प्रणिपातेन'-- ज्ञान-प्राप्तिके लिये गुरुके पास जाकर उन्हें साष्टाङ्ग दण्डवत् -प्रणाम करे। तात्पर्य यह है कि गुरुके पास नीच पुरुषकी तरह रहे 'नीचवत् सेवेत सद्गुरुम्' जिससे अपने शरीरसे गुरुका कभी निरादर, तिरस्कार न हो जाय। नम्रता, सरलता और जिज्ञासुभावसे उनके पास रहे और उनकी सेवा करे। अपने-आपको उनके समर्पित कर दे; उनके अधीन हो जाय। शरीर और वस्तुएँ--दोनों उनके अर्पण कर दे। साष्टाङ्ग दण्डवत्-प्रणामसे अपना शरीर और सेवासे अपनी वस्तुएँ उनके अर्पण कर दे।'सेवया'--शरीर और वस्तुओंसे गुरुकी सेवा करे। जिससे वे प्रसन्न हों, वैसा काम करे। उनकी प्रसन्नता प्राप्त करनी हो तो अपने-आपको सर्वथा उनके अधीन कर दे। उनके मनके, संकेतके, आज्ञाके अनुकूल काम करे। यही वास्तविक सेवा है।सन्त-महापुरुषकी सबसे बड़ी सेवा है--उनके सिद्धान्तोंके अनुसार अपना जीवन बनाना। कारण कि उन्हें सिद्धान्त जितने प्रिय होते हैं, उतना अपना शरीर प्रिय नहीं होता। सिद्धान्तकी रक्षाके लिये वे अपने शरीरतकका सहर्ष त्याग कर देते हैं। इसलिये सच्चा सेवक उनके सिद्धान्तोंका दृढ़तापूर्वक पालन करता है।
।।4.34।। जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए ज्ञान का उपदेश अनिवार्य है। उस ज्ञानोपदेश को देने के लिए गुरु का जिन गुणों से सम्पन्न होना आवश्यक है उन्हें इस श्लोक में बताया गया है। गुरु के उपदेश से पूर्णतया लाभान्वित होने के लिए शिष्य में जिस भावना तथा बौद्धिक क्षमता का होना आवश्यक है उसका भी यहाँ वर्णन किया गया है।प्रणिपातेन वैसे तो साष्टांग दण्डवत शरीर से किया जाता है परन्तु यहाँ प्रणिपात से शिष्य का प्रपन्नभाव और नम्रता गुरु के प्रति आदर एवं आज्ञाकारिता अभिप्रेत है। सामान्यत लोगों को अपने ही विषय में पूर्ण अज्ञान होता है। वे न तो अपने मन की प्रवृत्तियों को जानते हैं और न ही मनसंयम की साधना को। अत उनके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे गुरु के समीप रहकर उनके दिये उपदेशों को समझने तथा उसके अनुसार आचरण करने में सदा तत्पर रहें।जिस प्रकार जल का प्रवाह ऊपरी धरातल से नीचे की ओर होता है उसी प्रकार ज्ञान का उपदेश भी ज्ञानी गुरु के मुख से जिज्ञासु शिष्य के लिये दिया जाता है। इसलिये शिष्य में नम्रता का भाव होना आवश्यक है जिससे कि उपदेश को यथावत् ग्रहण कर सके।परिप्रश्नेन प्रश्नों के द्वारा गुरु की बुद्धि मंजूषा में निहित ज्ञान निधि को हम खोल देते हैं। एक निष्णात गुरु शिष्य के प्रश्न से ही उसके बौद्धिक स्तर को समझ लेते हैं। शिष्य के विचारों में हुई त्रुटि को दूर करते हुए वे अनायास ही उसके विचारों को सही दिशा भी प्रदान करते हैं। प्रश्नोत्तर रूप इस संवाद के द्वारा गुरु के पूर्णत्व की आभा शिष्य को भी प्राप्त हो जाती है इसलिये हिन्दू धर्म में गुरु और शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर की यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है जिसे सत्संग कहते हैं। विश्व के सभी धर्मों में शिष्य को यह विशेष अधिकार प्राप्त नहीं है। वास्तव में केवल वेदान्त दर्शन ही हमारी बुद्धि को पूर्ण स्वतन्त्रता देता है। उसका व्यापार साधकों की अन्धश्रद्धा पर नहीं चलता। अन्य धर्मों में श्रद्धा का अत्याधिक महत्व होने के कारण उनके धर्मग्रन्थों में बौद्धिक दृष्टि से अनेक त्रुटियां रह गयी हैं जिनका समाधानकारक उत्तर नहीं मिलता। अत उनके धर्मगुरुओं के लिये आवश्यक है कि शास्त्र संबन्धी प्रश्नों को पूछने के अधिकार से साधकों को वंचित रखा जाय।सेवया गुरु को फल फूल और मिष्ठान आदि अर्पण करना ही सेवा नहीं कही जाती। यद्यपि आज धार्मिक संस्थानों एवं आश्रमों में इसी को ही सेवा समझा जाता है। गुरु के उपदेश को ग्रहण करके उसी के अनुसार आचरण करने का प्रयत्न ही गुरु की वास्तविक सेवा है। इससे बढ़कर और कोई सेवा नहीं हो सकती।शिष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिये गुरु में मुख्यत दो गुणों का होना आवश्यक है (क) आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान तथा (ख) अनन्त स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थिति। इन दो गुणों को इस श्लोक में क्रमश ज्ञानिन और तत्त्वदर्शिन शब्दों से बताया गया है। केवल पुस्तकीय ज्ञान से प्रकाण्ड पंडित बना जा सकता है लेकिन योग्य गुरु नहीं। शास्त्रों से अनभिज्ञ आत्मानुभवी पुरुष मौन हो जायेगा क्योंकि शब्दों से परे अपने निज अनुभव को वह व्यक्त ही नहीं कर पायेगा। अत गुरु का शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मनिष्ठ होना आवश्यक है।उपर्युक्त कथन से भगवान् का अभिप्राय यह है कि ज्ञानी और तत्त्वदर्शी आचार्य द्वारा उपादिष्ट ज्ञान ही फलदायी होता है और अन्य ज्ञान नहीं। अस्तु निम्नलिखित कथन भी सत्य ही है कि
।।4.34।।यद्येवं प्रशस्यतरमिदं ज्ञानं तर्हि केनोपायेन तत्प्राप्तिरिति पृच्छति तदेतदिति। ज्ञानप्राप्तौ प्रत्यासन्नमुपायमुपदिशति उच्यत इति। तद्विज्ञानं गुरुभ्यो विद्धि गुरवश्च प्रणिपातादिभिरुपायैरावर्जितचेतसो वदिष्यन्तीत्याह तद्विद्धीति। उपदेष्टृत्वमुपदेशकर्तृत्वम्। परोक्षज्ञानमात्रेण न भवतीत्याह उपदेक्ष्यन्तीति। तदिति प्रेप्सितं ज्ञानसाधनं गृह्यते येन विधिनेति शेषदर्शनात्। यद्वा येनाचार्यावर्जनप्रकारेण तदुपदेशवशादपेक्षितं ज्ञानं लभ्यते तथा तज्ज्ञानमाचार्येभ्यो लभस्वेत्यर्थः। तदेव स्फुटयति आचार्या इति। एवमादिनेत्यादिशब्देन शमादयो गृह्यन्ते एवमादिना विद्धीति पूर्वेण संबन्धः। उत्तरार्धं व्याचष्टे प्रश्रयेणेति। प्रश्रयो भक्तिश्रद्धापूर्वको निरतिशयो नतिविशेषः यथोक्तविशेषणं पूर्वोक्तेन प्रकारेण प्रशस्यतममित्यर्थः। विशेषणस्य पौनरुक्त्यपरिहारार्थमर्थभेदं कथयति ज्ञानवन्तोऽपीति। ज्ञानिन इत्युक्त्वा पुनस्तत्त्वदर्शिन इति ब्रुवतो भगवतोऽभिप्रायमाह ये सम्यगिति। बहुवचनं चैतदाचार्यविषयं बहुभ्यः श्रोतव्यं बहुधा चेति सामान्यन्यायाभ्यनुज्ञानार्थं न त्वात्मज्ञानमधिकृत्याचार्यबहुत्वं विवक्षितम् तस्य तत्त्वसाक्षात्कारवदाचार्यमात्रोपदेशादेवोदयसंभवात्।
।।4.34।।तदेतत्सर्वोत्तमं ज्ञानं तर्हि केन साधनेन लभ्यत इत्यत आह तदिति। यत्र सर्वकर्मफलमन्तर्भवति तज्ज्ञानं विद्धि जानीहि। येन विधिनां प्राप्यत इति विद्धि लभस्वेत्यर्थस्तु अदादेर्ज्ञानार्थत्वात् मुख्ये संभवति अमुख्यस्यान्याय्यत्वादाचार्यैर्न प्रदर्शितः। आचार्यानभिगभ्य प्रकर्षेण नीचैः पतनं प्रणिपातो दीर्घनमस्कारः तेनकथं बन्धः कथं मोक्षः कस्य केन विमुच्यते। विद्याविद्ये कथंभूते कोऽहं दृश्यमिदं च किम् इतिपरिप्रश्नेन सेवया गुरुशुश्रूषा गुर्वाभिमुख्यसंपादिकया मायाविनिर्मुक्तया इत्येवमादिना प्रश्रयेण प्रसादिता गुरुवो ज्ञानिनः न्यायविचारपूर्वकवेदार्थज्ञाः तत्त्वदर्शिनः तत्त्वसाक्षात्कारवन्तः ते ज्ञानमुपदेक्ष्यन्ति पद्वाक्यप्रमाणज्ञैः सम्यक्तत्त्वविलोकिभिःउक्ताज्ज्ञानाद्भवेत्कार्यं नान्यैरिति हरेर्मतम् तथाच श्रुतिःतद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् इति। बहुवचनं त्वादरार्थमिति बोध्यम्।
।।4.34।।इदानीमपि ज्ञान्येव। तथाऽप्यभिभवान्मोहः। मा तूक्ता।
।।4.34।।तद्विद्धीति। ज्ञानिनः ग्रन्थज्ञाः। तत्त्वदर्शिनोऽनुभववन्तः। ज्ञानं ब्रह्म स्पष्टार्थः श्लोकः।
।।4.34।।तद् आत्मविषयं ज्ञानम्अविनाशि तु तद् विद्धि (गीता 2।17) इति आरभ्यएषा तेऽभिहिता (गीता 2।39) इत्यन्तेन मया उपदिष्टम् मदुक्तकर्मणि वर्तमानः त्वं विपाकानुगुणं काले प्रणिपातपरिप्रश्नसेवाभिः विशदाकारं ज्ञानिभ्यो विद्धि।साक्षात्कृतात्मस्वरूपाः तु ज्ञानिनः प्रणिपातादिभिः सेविताः ज्ञानबुभुत्सया परितः पृच्छतः तव आशयम् आलक्ष्य ज्ञानम् उपदेक्ष्यन्ति।आत्मयाथात्म्यविषयसाक्षात्काररूपस्य लक्षणम् आह
।।4.34।।एवंभूतात्मज्ञाने साधनमाह तद्विद्धीति। तज्ज्ञानं विद्धि प्राप्नुहि। ज्ञानिनां प्रणिपातेन दण्डवन्नमस्कारेण ततः परिप्रश्नेन कुतोऽयं मम संसारः कथं वा निवर्तत इति प्रश्नेन सेवया शुश्रूषया च ज्ञानिनः शास्त्रज्ञास्तत्त्वदर्शिनः अपरोक्षानुभवसंपन्नाश्च ते तुभ्यं ज्ञानमुपदेशेन संपादयिष्यन्ति।
।।4.34।।उपदिष्टमेव ज्ञानं तत्तद्विपाकदशाया प्रतिक्षणवैशद्याय पुनः पुनर्ज्ञानिभ्यः श्रोतव्यमित्युच्यते तद्विद्धि इति श्लोकेन। तदिति परोक्षवन्निर्देशः प्रकरणप्रा द्युक्तप्रकारपरामर्शीति व्यञ्जनायअविनाशि इत्यादिमयापदिष्टमित्यन्तमुक्तम्। इतः पूर्वमनुपदिष्टस्य ज्ञानस्य कस्यचिच्छ्रोतव्यत्वं नात्रोच्यत इति भावः।तद्युक्तकर्मणि वर्तमानस्त्वमिति विपाकहेतुः।विपाकानुगुणं कालेकाल इति प्रश्नावसरः। अदृष्टद्वारा प्रणिपातादेर्विपाकानुगुण्यं वा विवक्षितम्। गुरुमेवाभिगच्छेत् मुं.उ.1।2।12 इत्यादिविधिप्राप्तं चैतत्। प्रणिपातादेरितरेतरयोगो विवक्षित इति व्यञ्जनायप्रणिपातपरिप्रश्नसेवाभिः इति द्वन्द्वसमासेन व्याख्या।स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत् वि.पु.6।6।2 इत्यादीनि शास्त्राणिकालेकाल इति वीप्सया द्योतितानि।विशदाकारमिति पुनः श्रवणस्य नैष्फल्यपरिहारः। ननु किमिदानीं भगवता ज्ञानमविशदमुपदिष्टं किंवा बीभत्सुना अविशब्देन ज्ञातं येनैतदुच्यते इत्येतदपिविपाकानुगुणशब्देन परिहृतम् विशदमेवोपदिष्टं भगवता अवधानादिमांश्च अर्जुनः तथाप्यनादिकर्मोपार्जितैरनन्तैः पापकवाटैरन्तःकरणरूपस्य तत्त्वज्ञानप्रसरद्वारस्योपरुद्धत्वादिदानीं नातिवैशद्यं जायतेये तु त्वदङ्घ्रिसरसीरुहभक्तिहीनास्तेषाममीभिरपि नैव यथार्थबोधः। पित्तघ्नमञ्जनमनाप्नुषि जातु नेत्रे नैव प्रभाभिरपि शङ्खसितत्वबुद्धिः वै.स्त.16 इतिवत् यथावस्थितकर्मयोगनिरस्तेषु पापेषु विशदज्ञानार्हावस्था स्यात् तदा च पूर्वोपदिष्टस्य सामान्यतो ज्ञातस्यार्थस्य ज्ञातांशसंवादाय अज्ञातांशज्ञानाय विस्मृतप्रतिबोधनाय च पुनश्श्रवणं कार्यमिति। अयमर्थोऽनुगीतावृत्तान्तेन व्यक्तो भविष्यति। ज्ञानिनः अहं वा अन्यो वेति भावः।तत्त्वदर्शिनः इति विशेषणं तेषामेतज्ज्ञानोपदेष्ट्टत्वाधिकारं सूचयतीति व्यञ्जनायसाक्षात्कृतात्मस्वरूपा इत्युक्तम्। तत्त्वदर्शिभिरपिनासंवत्सरवासिने प्रब्रूयात् न विनयादिरहिताय च वक्तव्यम् इत्यादिविधिप्रयुक्तविलम्बोऽनतिलङ्घनीय इत्याह प्रणिपातादिभिरिति। तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक् इत्युपक्रम्य प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम् मुं.उ.1।2।13 इति श्रुतेर्विधिपरत्वं च तत्त्वदर्शित्वाज्जानन्तस्ते यथावदुपदेक्ष्यन्तीति भावः। प्रकर्षेण नीचैः पतनं प्रणिपातः प्रश्नपूर्वाङ्गभूतः प्रणामोपसङ्ग्रहादिर्विवक्षितः। परिप्रश्नः स्वबुद्धिमत्तातिरेकगूहनेनाजानत इव साक्षात्प्रष्टव्यानभिधानेन तदनुबन्धिविषयः प्रश्नः। प्रतिवादिवत्कुयुक्तिभिः प्रत्यवस्थानं न कर्तव्यमिति भावः। सेवा तु भक्तिश्चिरानुवर्तनं वा।
।।4.34 4.35।।तद्विद्धीति। यज्ज्ञात्वेति। तच्च ज्ञानं प्रणिपातेन भक्त्या परिप्रश्नेन ऊहापोहतर्कवितर्कादिभिः सेवया अभ्यासेन जानीहि। यतः एवंभूतस्य तव ज्ञानिनः निजा एव संवित्तिविशेषानुगृहीता इन्द्रियविशेषाः तत्त्वम् उप समीपे देक्ष्यन्ति प्रापयिष्यन्ति। तथाहि ते तत्त्वमेव दर्शयन्तीति तत्त्वदर्शिनः। उक्तं हि योग एव योगस्योपाध्यायः इति।ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा (Y S I 48 ) इति च।अन्ये ज्ञानिनः पुरुषा इति व्याख्यायमाने भगवान् स्वयं यत् उपदिष्टवान् तदसत्यमित्युक्तं स्यात्। अथवा एवमभिधाने (S. अभिधानेन च) प्रयोजनम् अन्येऽपि लोकाः प्रणिपातादिना ज्ञानिभ्यो ज्ञानं गृह्णीयुः न यथाकथंचित् इति समयप्रतिपादनम्।आत्मनि मयि मत्स्वरूपतां यति (S K प्राप्ते) आत्मनि इति सामानाधिकरण्यम्। अथोशब्दः पादपूरणे। आत्मना ईश्वरस्य साम्ये कोऽपि विशेष उक्तः। असाम्ये विकल्पार्थानुपपत्तिः।
।।4.34।।तद्विद्धि इत्युक्तत्वात् इदानीमर्जुनो न ज्ञानीति प्रतीतिं निवारयति इदानीमपीति।तद्विद्धि इत्यधिकज्ञानच्चैमुक्तमिति भावः। ज्ञानी चेत्तर्हियज्ज्ञात्वा 4।35 इति तस्य मोहः कथमुच्यते इत्यत आह तथापीति। अभिभवात् ज्ञानस्य। अर्जुनस्य ज्ञानित्वे सिद्धे भवेदेतत्। तत्रैव किं प्रमाणं इत्यत आह मा त्विति।
।।4.34।।एतादृशज्ञानप्राप्तौ कोऽतिप्रत्यासन्न उपाय इति उच्यते तत्सर्वकर्मफलभूतं ज्ञानं विद्धि लभस्व। आचार्यानभिगम्य तेषां प्रणिपातेन प्रकर्षेण नीचैः पतनं प्रणिपातो दीर्घनमस्कारस्तेन। कोऽहं कथं बद्धोऽस्मि केनोपायेन मुच्येयमित्यादिना परिप्रश्नेन बहुविषयेण प्रश्नेन। सेवया सर्वभावेन तदनुकूलकारितया। एवं भक्तिश्रद्धातिशयपूर्वकेणावनतिविशेषेणाभिमुखाः सन्तः उपदेक्ष्यन्ति उपदेशेन संपादयिष्यन्ति ते तुभ्यं ज्ञानं परमात्मविषयं साक्षान्मोक्षफलं ज्ञानिनः पदवाक्यन्यायादिमाननिपुणास्तत्त्वदर्शिनः कृतसाक्षात्काराः। साक्षात्कारवद्भिरुपदिष्टमेव ज्ञानं फलपर्यवसायि नतु तद्रहितैः पदवाक्यमाननिपुणैरपीति भगवतो मतम्तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् इति श्रुतिसंवादि। तत्रापि श्रोत्रियमधीतवेदं ब्रह्मनिष्ठं कृतब्रह्मसाक्षात्कारमिति व्याख्यानात्। बहुवचनं चेदमाचार्यविषयमेकस्मिन्नपि गौरवातिशयार्थं नतु बहुत्वविवक्षया। एकस्मादेव तत्त्वसाक्षात्कारवत आचार्यात्तत्त्वज्ञानोदये सत्याचार्यान्तरगमनस्य तदर्थमयोगादिति द्रष्टव्यम्।
।।4.34।।तज्ज्ञानं कथं स्यात् इत्यत आह तदिति। तज्ज्ञानं ज्ञानिनो मत्स्वरूपविदः प्रणिपातेन नम्रतया परिप्रश्नेन जिज्ञासुतया प्रश्नेन सेवया भगवद्बुद्ध्या ते तव ज्ञानिनः मत्स्वरूपविदः तत्त्वदर्शिनः योग्यानामुपदेशदातारमहं प्रसन्नो भवामीति पश्यन्त्यतो ज्ञानमुपदेक्ष्यन्ति।
।।4.34।। तत् विद्धि विजानीहि येन विधिना प्राप्यते इति। आचार्यान् अभिगम्य प्रणिपातेन प्रकर्षेण नीचैः पतनं प्रणिपातः दीर्घनमस्कारः तेन कथं बन्धः कथं मोक्षः का विद्या का चाविद्या इति परिप्रश्नेन सेवया गुरुशुश्रूषया एवमादिना। प्रश्रयेण आवर्जिता आचार्या उपदेक्ष्यन्ति कथयिष्यन्ति ते ज्ञानं यथोक्तविशेषणं ज्ञानिनः। ज्ञानवन्तोऽपि केचित् यथावत् तत्त्वदर्शनशीलाः अपरे न अतो विशिनष्टि तत्त्वदर्शिनः इति। ये सम्यग्दर्शिनः तैः उपदिष्टं ज्ञानं कार्यक्षमं भवति नेतरत् इति भगवतो मतम्।।तथा च सति इदमपि समर्थं वचनम्
।।4.34।।तत्र साधनमाहुः तद्विद्धीति। प्रथमं प्रणिपातेन कायिकेनामानित्वसाधनेन ततश्च वाचिकेन महदुपसदनं गत्वा प्रणयकृतेन परिप्रश्नेन आन्तरीयेण सेवनेन च। तेषां वा सेवनेनैतत्कृतेन त्वं तत्प्राप्नुहि इतिपृथगेव मुख्यं साधनंस्यान्महत्सेवया इति वाक्यात्। ततस्ते तुभ्यं उपदेशेन तज्ज्ञानं सम्पादयिष्यन्ति तत्त्वदर्शिनः।