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As Krishna says, patience is a virtue
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनाऽऽत्मनः। छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।4.42।।
tasmād ajñāna-sambhūtaṁ hṛit-sthaṁ jñānāsinātmanaḥ chhittvainaṁ sanśhayaṁ yogam ātiṣhṭhottiṣhṭha bhārata
Therefore, with the sword of knowledge (of the Self), cut asunder the doubt of the self, born of ignorance, residing in your heart, and take refuge in Yoga. Arise, O Arjuna!
4.42 तस्मात् therefore? अज्ञानसंभूतम् born out of ignorance? हृत्स्थम् residing in the heart? ज्ञानासिना by the sword of knowledge? आत्मनः of the Self? छित्त्वा having cut? एनम् this? संशयम् doubt? योगम् Yoga? आत्तिष्ठ take refuge? उत्तिष्ठ arise? भारत O Bharata.Commentary Doubt causes a great deal of mental torment. It is most sinful. It is born of ignorance. Kill it ruthlessly with the knowledge of the Self. Now stand up and fight? O Arjuna.(This chapter is known by the names Jnana Yoga? Abhyasa Yoga and jnanakarmasannyasa Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the fourth discourse entitledThe Yoga of the Division of Wisdom. ,
।।4.42।। व्याख्या--'तस्मादज्ञानसम्भूतं ৷৷. छित्त्वैनं संशयम्'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने यह सिद्धान्त बताया कि जिसने समताके द्वारा समस्त कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है और ज्ञानके द्वारा समस्त संशयोंको नष्ट कर दिया है, उस आत्मपरायण कर्मयोगीको कर्म नहीं बाँधते अर्थात् वह जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है। अब भगवान् 'तस्मात्' पदसे अर्जुनको भी वैसा ही जानकर कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं।अर्जुनके हृदयमें संशय था--युद्धरूप घोर कर्मसे मेरा कल्याण कैसे होगा? और कल्याणके लिये मैं कर्मयोगका अनुष्ठान करूँ अथवा ज्ञानयोगका? इस श्लोकमें भगवान् इस संशयको दूर करनेकी प्रेरणा करते हैं ;क्योंकि संशयके रहते हुए कर्तव्यका पालन ठीक तरहसे नहीं हो सकता।'अज्ञानसम्भूतम्' पदका भाव है कि सब संशय अज्ञानसे अर्थात् कर्मोंके और योगके तत्त्वको ठीक-ठीक न समझनेसे ही उत्पन्न होते हैं। क्रियाओँ और पदार्थोंको अपना और अपने लिये मानना ही अज्ञान है। यह अज्ञान जबतक रहता है, तबतक अन्तःकरणमें संशय रहते हैं; क्योंकि क्रियाएँ और पदार्थ विनाशी हैं और स्वरूप अविनाशी है। तीसरे अध्यायमें कर्मयोगका आचरण करनेकी और इस चौथे अध्यायमें कर्मयोगको तत्त्वसे जाननेकी बात विशेषरूपसे आयी है। कारण कि कर्म करनेके साथ-साथ कर्मको जाननेकी भी बहुत आवश्यकता है। ठीक-ठीक जाने बिना कोई भी कर्म बढ़िया रीतिसे नहीं होता। इसके सिवाय अच्छी तरह जानकर कर्म करनेसे जो कर्म बाँधने-वाले होते हैं, वे ही कर्म मुक्त करनेवाले हो जाते हैं (गीता 4। 16 32)। इसलिये इसअध्यायमें भगवान्ने कर्मोंको तत्त्वसे जाननेपर विशेष जोर दिया है।पूर्वश्लोकमें भी 'ज्ञानसंछिन्नसंशयम्' पद इसी अर्थमें आया है। जो मनुष्य कर्म करनेकी विद्याको जान लेता है, उसके समस्त संशयोंका नाश हो जाता है। कर्म करनेकी विद्या है--अपने लिये कुछ करना ही नहीं है। 'योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत'--अर्जुन अपने धनुष-बाणका त्याग करके रथके मध्यभागमें बैठ गये थे (1। 47)। उन्होंने भगवान्से साफ कह दिया था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा'--'न योत्स्ये' (गीता 2। 9)। यहाँ भगवान् अर्जुनको योगमें स्थित होकर युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा देते हैं। यही बात भगवान्ने दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें योगस्थः कुरु कर्माणि (योगमें स्थित होकर कर्तव्य-कर्म कर) पदोंसे भी कही थी। योगका अर्थ 'समता' है--'समत्वं योग उच्यते' (गीता 2। 48)। अर्जुन युद्धको पाप समझते थे (गीता 1। 36 45)। इसलिये भगवान् अर्जुनको समतामें स्थित होकर युद्ध करनेकी आज्ञा देते हैं; क्योंकि समतामें स्थित होकर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगता (गीता 2। 38)। इसलिये समतामें स्थित होकर कर्तव्य-कर्म करना ही कर्म-बन्धनसे छूटनेका उपाय है।
।।4.42।। इस अन्तिम श्लोक में श्रीकृष्ण द्वारा दी गया सम्मति संक्षिप्त होते हुये भी प्रेमाग्रहपूर्ण है। यह श्लोक अर्जुन के प्रति उनकी स्नेह भावना से झंकृत हो रहा है।हिमालय की गिरिकन्दराओं के शान्त और एकान्त वातावरण मे दिये गये ऋषियों के उपदेश को यहाँ श्रीकृष्ण अपने योद्धामित्र अर्जुन को युद्ध की भाषा में ही समझाते हैं। हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न आत्मविषयक संशय को ज्ञान की तलवार द्वारा छिन्नभिन्न करने के लिये वे अर्जुन को प्रोत्साहित करते हैं।यहाँ संशय को हृदय मे स्थित कहा गया है आज के शिक्षित पुरुष को यह कुछ विचित्र जान पड़ेगा क्योंकि संशय बुद्धि से उत्पन्न होता है हृदय से नहीं।वेदान्त की धारण के अनुसार बुद्धि का निवास स्थान हृदय है। परन्तु स्थूल शरीर का अंगरूप हृदय यहां अभिप्रेत नहीं है। दर्शनशास्त्र में हृदय शब्द का मनोवैज्ञानिक अर्थ मे साहित्यिक प्रयोग किया जाता है। प्रेम सहानुभूति तथा इसी प्रकार की मनुष्य की श्रेष्ठ एवं आदर्श भावनाओं का स्रोत हृदय ही है। इस प्रेम से परिपूर्ण हृदय से जो बुद्धि कार्य करती है वही वास्तव में दर्शनशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य की बुद्धि मानी जा सकती है। इसलिये जब यहाँ संशय को हृदय में स्थित कहा गया तब उसका तात्पर्य कुछ साधकों की विकृत बुद्धि से है जिसके कारण वे आत्मदर्शन नहीं कर पाते। अनेक प्रकार के संशयों की आत्यन्तिक निवृत्ति तभी संभव होगी जब साधक पुरुष आत्मा का साक्षात् अनुभव कर लेगा।यह योग के अभ्यास द्वारा ही संभव है। परन्तु योग का अर्थ कोई रहस्यमयी साधना नहीं जिसे कोई विरले गुरु गुप्त रूप से बतायेंगे और न ही वह ऐसी साधना है जिसका अभ्यास हिमालय की निर्जन गुफाओं में बैठकर करना पड़ेगा। योग सम्बन्धित जो भी भय उत्पन्न करने वाली मिथ्या धारणाएं है गीता में उन्हें सदा के लिये दूर करके उस शब्द को सुपरिचित और व्यावहारिक बना दिया गया है। जीवन के सभी कार्य क्षेत्रों में योग उपयोगी है। भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा इस अध्याय में जो बारह प्रकार के यज्ञ बताये गये हैं वे ही योग शब्द से लक्षित हैं।इस अध्याय की समाप्ति अर्जुन को उठने के आह्वान के साथ होती है उत्तिष्ठ भारत। यद्यपि गीतोपदेश के सन्दर्भ में भारत शब्द अर्जुन को ही सम्बोधित करता है तथापि अर्जुन के माध्यम से समस्त साधकों का यहाँ आह्वान किया गया है। यज्ञ साधना का आचरण करके हमको अधिकाधिक अन्तकरण शुद्धि प्राप्त करनी चाहिये जिससे कि निदिध्यासन के द्वारा हम विकास के चरम लक्ष्य परम शान्ति को प्राप्त कर सकें।Conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्याय।।
।।4.42।।तस्मादित्यादिसमनन्तरश्लोकगततत्पदापेक्षितमर्थमाह यस्मादिति। सतां कर्मणामस्मदादिषु फलारम्भकत्वोपलम्भाद्विदुष्यपि तेषां तद्भाव्यमनपबाधमित्याशङ्क्याह ज्ञानाग्नीति। ननु संदिहानस्य तत्प्रतिबन्धान्न कर्मयोगानुष्ठानं नापि तद्धेतुकज्ञानं तत्रापि संशयावतारादित्याशङ्क्याह यस्माच्चेति। श्लोकाक्षराणि व्याचष्टे तस्मादित्यादिना। पापिष्ठमिति संशयस्य सर्वानर्थमूलत्वेन त्याज्यत्वं सूच्यते। विवेकाग्रहप्रसूतत्वादपि तस्यावहेयत्वमविवेकस्यानर्थकरत्वप्रसिद्धेरित्याह अविवेकादिति। नच तस्य चैतन्यवदात्मनिष्ठत्वादत्याज्यत्वं शङ्कितव्यमित्याह हृदीति। शोकमोहाभ्यामभिभूतस्य पुंसो मनसि प्रादुर्भवतः संशयस्य प्रबलप्रतिबन्धकाभावेनैव प्रध्वंसः सिध्येदित्याशङ्क्याह ज्ञानासिनेति। स्वाश्रयस्य संशयस्य स्वाश्रयेणैव ज्ञानेन समुच्छेदसंभवात्किमिति स्वस्येति विशेषणमित्याशङ्क्याह आत्मविषयत्वादिति। स्थाण्वादिविषयः संशयस्तद्विषयेण ज्ञानेन देवदत्तनिष्ठेन तन्निष्ठो व्यावर्त्यते प्रकृते त्वात्मविषयस्तदाश्रयश्च संशयस्तथाविधेन ज्ञानेनापनीयते तेन विशेषणमर्थवदित्यर्थः। तदेव प्रपञ्चयति नहीति। आत्माश्रयत्वस्य प्रकृते संशये सिद्धत्वेनाविवक्षितत्वात्तद्विषयस्य तद्विषयेणैव तस्य तेन निवृत्तिर्विवक्षितेत्युपसंहरति अत इति। संशयसमुच्छित्त्यनन्तरं कर्तव्यमुपदिशति छित्त्वैनमिति। अग्निहोत्रादिकं कर्म भगवदाज्ञया क्रमेण करिष्यामि युद्धात्पुनरुपरिरंसैवेत्याशङ्क्याह उत्तिष्ठेति। भरतान्वये महति क्षत्रियवंशे प्रसूतस्य समुपस्थितसमरविमुखत्वमनुचितमिति मन्वानः सन्नाह भारतेति। तदनेन योगस्य कृत्रिमत्वं भगवतोऽनीश्वरत्वं च निराकृत्य कर्मादावकर्मादिदर्शनादात्मनः सम्यग्ज्ञानात्प्रणिपातादेर्बहिरङ्गादन्तरङ्गाच्च श्रद्धादेरुद्भूतादशेषानर्थनिवृत्त्या ब्रह्मभावमभिदधता सर्वस्मादुत्कृष्टे तस्मिन्नसंशयानस्याधिकारादशेषदोषवन्तम्। संशयं हित्वोत्तमस्य ज्ञाननिष्ठापरस्य कर्मनिष्ठेति स्थापितम्।इत्यानन्दगिरिकृतगीताभाष्यटीकायां चतुर्थोऽध्यायः।।4।।
।।4.42।।यस्माच्चित्तशुद्धिलभ्यं ज्ञानमेवभूतं यस्माच्च संशयात्मा विनश्यति यस्माच्च ज्ञानसंच्छिन्नसंशयः कर्मभिर्न निबध्यते तस्मात्पापिष्ठमात्मनः संशयं अज्ञानादविवेकाज्जातं बुद्धौ स्थितं शोकमोहादिदोषहरं सभ्यग्दर्शनं ज्ञानं तदेवासिः खड्गः तेनात्मो ज्ञानासिना छित्त्वा योगमात्मज्ञानोपायं कर्मानुष्ठानमातिष्ठ कुर्वित्यर्थः। इदानीं तु स्वधर्मभूताय युद्धायोत्तिष्ठ। भारतेति तत्र योग्यतासूचकं संबोधनम्। तदनेन चतुर्थाध्यायेन योगस्य संप्रदायसिद्धत्वं भगवतो वासुदेवस्य सर्वज्ञत्वमीश्वरत्वं च प्रतिपाद्य योग्यतासंपत्तये कर्मनिष्ठां तत्साध्यां ज्ञाननिष्ठामत्युत्तमां तत्र प्रणिपातादीनि बहिरङ्गसाधनानि श्रद्धादीन्यन्तरङ्गाणि तस्याः फलं सर्वानर्थनिवृत्त्या ब्रह्मभावं अतिपापिष्ठं संशयं चाभिदधताऽशेषदोषवन्तं संशयं विहायोत्तमाधिकरिणो ज्ञाननिष्ठाऽपरस्य कर्मनिष्ठेति स्थापितम्।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां चतुर्थोऽध्यायः।।4।।
।।4.42।।तस्मादिति। हृत्स्थं बुद्धिस्थम्। ज्ञानासिना ज्ञानखङ्गेन। योगं सम्यग्दर्शनोपायम्। निष्कामकर्म आतिष्ठ कुरु। उत्तिष्ठ। युद्धायेति शेषः।
।।4.42।।तस्माद् अनाद्यज्ञानसंभूतं हृत्स्थम् आत्मविषयं संशयं मया उपदिष्टेन आत्मज्ञानासिना छित्त्वा मया उपदिष्टं कर्मयोगम् आतिष्ठ तदर्थम् उत्तिष्ठ भारत इति।
।।4.42।।तस्मादिति। यस्मादेवं तस्मादात्मनोऽज्ञानेन संभूतं हृदि स्थितमेनं संशयं शोकादिनिमित्तं देहात्मविवेकज्ञानखङ्गेन छित्त्वा परमात्मज्ञानोपायभूतं कर्मयोगमातिष्ठाश्रय। तत्र च प्रथमं प्रस्तुताय युद्धायोत्तिष्ठ। हे भारत इति क्षत्रियत्वेन युद्धस्य स्वधर्मत्वं दर्शितम्।
।।4.42।।एवं विस्तरेणोपपाद्योपसंहृतोऽर्थोऽर्जुनं प्रति कर्तव्यतया निगम्यते तस्मादितिश्लोकेन। संशयस्याज्ञानसम्भूतत्वं विशेषाग्रहस्य संशयहेतुत्वात्। हृत्स्थं हृदि शल्यमिवार्पितम् यद्वा हृत्स्थमित्यान्तरमिति भावः।आत्मनः इति षष्ठ्या विषयविषयित्वलक्षणसम्बन्धविशेषे पर्यवसानमत्र विवक्षितमिति द्योतनायआत्मविषयं संशयमित्युक्तम्। यद्वाएनं संशयम् इति निर्देशादात्मविषयत्वं सिद्धम्आत्मनः इत्यस्य तुज्ञानासिना इत्यनेनान्वयायआत्मज्ञानासिनेत्युक्तम्। काकाक्षिन्यायेन वोभयत्रान्वयः।मयेत्यनेनोपदेष्टुः सर्वज्ञत्वकारुणिकत्वादिपौष्कल्यादाप्ततमत्वं विवक्षितम्। कर्मयोगोपदेशोपसंहारतया योगशब्दोऽत्र नेतरविषय इति ज्ञापनायमयोपदिष्टं कर्मयोगमित्युक्तम्। भरतकुलसम्भूतार्जुनस्य स्वधर्मभूतयुद्धार्थमुत्थानमेव कर्मयोगार्थमुत्थानमिति भारतशब्दाभिप्रायव्यञ्जनायतदर्थमुत्तिष्ठ भारतेत्युक्तम्। तेनैव मोक्षोपाययोग्यत्वाय योगिवंशप्रसूतत्वमप्यर्जुनस्य सूच्यते।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां चतुर्थोऽध्यायः।।4।।
।।4.42।।यत एवम् (S omits यत एवम्) तस्मादिति। संशयं छित्त्वा योगं कर्मसु कौशलम् उक्तक्रमेण आतिष्ठ। ततश्च उत्तिष्ठ त्वं स्वव्यापारं कर्तव्यतामात्रेण कुर्विति।
।।4.42।।यस्मादेवं अज्ञानादविवेकात्संभूतमुत्पन्नं हृत्स्थं हृदि बुद्धौ स्थितं करणस्याश्रयस्य च ज्ञाने शत्रुः सुखेन हन्तुं शक्यत इत्युभयोपन्यासः। एनं सर्वानर्थमूलभूतं संशयमात्मनो ज्ञानासिना आत्मविषयकनिश्चयखङ्गेन छित्त्वा योगंसम्यग्दर्शनोपायं निष्कामकर्मातिष्ठ कुरु। अत इदानीमुत्तिष्ठ युद्धाय हे भारत भरतवंशे जातस्य युद्धोद्यमो न निष्फल इति भावः। स्वस्यानीशत्वाबाधेन भक्तिश्रद्धे दृढीकृते। धीहेतुः कर्मनिष्ठा च हरिणेहोपसंहृता।
।।4.42।।यतः संशयात्मा न पश्यति आत्मज्ञानवन्तं च कर्माणि न निबध्नन्ति तस्मादात्मज्ञानेन संशयं त्यजेत्याह तस्मादिति। हे भारत सत्कुलोत्पन्न संशयकरणायोग्य यस्मात् संशयेन नश्यति तस्मादात्मनः अज्ञानसम्मूतं आत्मस्वरूपाज्ञानोत्पन्नं हृत्स्थं हृदिस्थं एनं प्रत्यक्षमनुभूयमानं मद्वचनेष्वविश्वासात्मकं संशयं ज्ञानासिना ज्ञानात्मकखङ्गेन छित्त्वा योगं मदात्मकं मत्प्राप्त्यर्थं आतिष्ठ कुरु उत्तिष्ठ सावधानो भव।
।।4.42) तस्मात् पापिष्ठम् अज्ञानसंभूतम् अज्ञानात् अविवेकात् जातं हृत्स्थं हृदि बुद्धौ स्थितं ज्ञानासिना शोकमोहादिदोषहरं सम्यग्दर्शनं ज्ञानं तदेव असिः खङ्गः तेन ज्ञानासिना आत्मनः स्वस्य आत्मविषयत्वात् संशयस्य। न हि परस्य संशयः परेण च्छेत्तव्यतां प्राप्तः येन स्वस्येति विशेष्येत। अतः आत्मविषयोऽपि स्वस्यैव भवति। छित्त्वा एनं संशयं स्वविनाशहेतुभूतम् योगं सम्यग्दर्शनोपायं कर्मानुष्ठानम् आतिष्ठ कुर्वित्यर्थः। उत्तिष्ठ च इदानीं युद्धाय भारत इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रोगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येचतुर्थोऽध्यायः।।
।।4.42।।तस्मात्त्वमपि साङख्यबुद्ध्याऽनात्मभूतं संशयं छित्त्वोक्तं योगमातिष्ठ युद्धाय च स्वकर्मणे उद्युक्तो भव तदापि निर्बन्धनतेति भावः।