विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18।।
vidyā-vinaya-sampanne brāhmaṇe gavi hastini śhuni chaiva śhva-pāke cha paṇḍitāḥ sama-darśhinaḥ
Sages look with an equal eye on a Brahmana endowed with learning and humility, on a cow, an elephant, a dog, and even an outcaste.
5.18 विद्याविनयसंपन्ने upon one endowed with learning and humility? ब्राह्मणे on a Brahmana? गवि on a cow? हस्तिनि on an elephant? शुनि on a dog? च and? एव even? श्वपाके on an outcaste? च and? पण्डिताः sages? समदर्शिनः eal seeing.Commentary The liberated sage or Jivanmukta or a Brahmana has eal vision as he beholds the Self only everywhere. This magnificent vision of a Jnani is beyond description. Atman or Brahman is not at all affected by the Upadhis or limiting adjuncts as He is extremely subtle? pure? formless and attributeless. The suns reflection falls on the river Ganga? on the ocean or on a dirty stream. The sun is not at all affected in any way. This makes no difference to the sun. So is the case with the Supreme Self. The Upadhis (limiting adjuncts) cannot affect Him. Just as the ether is not affected by the limiting adjuncts? viz.? a pot? the walls of a room? cloud? etc.? so also the Self is not affected by the Upadhis.The Brahmana is Sattvic. The cow is Rajasic. The elephant? the dog and the outcaste are Tamasic. The sge sees in all of them the one homogeneous immortal Self Who is not affected by the three Gunas and their tendencies. (Cf.VI.8?32XIV.24)
5.18।। व्याख्या--विद्याविनयसम्पन्ने ৷৷. पण्डिताः समदर्शिनः यहाँ ब्राह्मणके लिये दो विशेषण दिये गये हैं विद्यायुक्त और विनययुक्त अर्थात् ऐसा ब्राह्मण जो विद्वान् भी है और विनम्र स्वभाववाला (ब्राह्मणपनेके अभिमानसे रहित) भी है। ब्राह्मण होनेसे वह जातिसे तो ऊँचा है ही साथहीसाथ विद्या और विनयसे भी सम्पन्न है यह ब्राह्मणत्वकी पूर्णता है। जहाँ पूर्णता होती है वहाँ अभिमान नहीं रहता। अभिमान वहीं रहता है जहाँ पूर्णता नहीं होती।ब्राह्मण और चाण्डालमें तथा गाय हाथी एवं कुत्तेमें व्यवहारकी विषमता अनिवार्य है। इनमें समान बर्ताव शास्त्र भी नहीं कहता उचित भी नहीं और कर सकते भी नहीं। जैसे पूजन विद्याविनययुक्त ब्राह्मणका ही हो सकता है न कि चाण्डालका दूध गायका ही पीया जाता है न कि कुतियाका सवारी हाथीकी ही हो सकती है न कि कुत्तेकी। इन पाँचों प्राणियोंका उदाहरण देकर भगवान् यह कह रहे हैं कि इनमें व्यवहारकी समता सम्भव न होनेपर भी तत्त्वतः सबमें एक ही परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है। महापुरुषोंकी दृष्टि उस परमात्मतत्त्वपर ही सदासर्वदा रहती है। इसलिये उनकी दृष्टि कभी विषम नहीं होती। यहाँ एक शङ्का हो सकती है कि दृष्टि विषम हुए बिना व्यवहारमें भिन्नता कैसे होगी इसका समाधान यह है कि अपने शरीरके सब अङ्गों (मस्तक पैर हाथ गुदा आदि) में हमारी दृष्टि अर्थात् अपनेपन और हितकी भावना समान रहती है फिर भी हम उनके व्यवहारमें भेद रखते हैं जैसे किसीको पैर लग जाय तो क्षमायाचना करते हैं पर किसीको हाथ लग जाय तो क्षमायाचना नहीं करते। प्रणाम मस्तक और हाथोंसे करते हैं पैरोंसे नहीं। गुदासे हाथ लगनेपर हाथ धोते हैं हाथसे हाथ लगनेपर नहीं। इतना ही नहीं एक हाथकी अँगुलियोंमें भी व्यवहारमें भेद रहता है। किसीको तर्जनी अँगुली दिखाने और अँगूठा दिखानेका तो भेद तो सब जानते ही हैं। इस प्रकार शरीरके भिन्नभिन्न अङ्गोंके व्यवहारमें तो भेद होता है पर आत्मीयतामें भेद नहीं होता। इसलिये शरीरके किसी भी पीड़ित अङ्गकी उपेक्षा नहीं होती। व्यवहारमें भेद होनेपर भी पीड़ा मिटानेमें हम समानताका व्यवहार करते हैं। शरीरके सभी अङ्गोंके सुखदुःखमें हमारा एक ही भाव रहता है (गीता 6। 32)। इसी प्रकार प्राणियोंमें खानपान गुण आचरण जाति आदिका भेद होनेसे उनके साथ ज्ञानी महापुरुषोंके व्यवहारमें भी भेद होता है और होना भी चाहिये। परन्तु उन सब प्राणियोंमें एक ही परमात्मतत्त्व परिपूर्ण होनेके कारण महापुरुषकी दृष्टिमें भेद नहीं होता। उन प्राणियोंके प्रति महापुरुषकी आत्मीयता प्रेम हित दया आदिके भावमें कभी फरक नहीं पड़ता। उनके अन्तःकरणमें रागद्वेष ममता आसक्ति अभिमान पक्षपात विषमता आदिका सर्वथा अभाव होता है। जैसे अपने शरीरके किसी अङ्गका दुःख दूर करनेकी चेष्टा स्वाभाविक होती है ऐसे ही पता लगनेपर दूसरे प्राणीका दुःख दूर करनेकी और उसे सुख पहुँचानेकी चेष्टा भी उनके द्वारा स्वाभाविक होती है। यही कारण है कि भगवान्ने यहाँ महापुरुषोंको समदर्शी कहा है न कि समवर्ती। गीतामें दूसरी जगह भी सम देखनेकी या समबुद्धिकी ही बात आयी है जैसे समबुद्धिर्विशिष्यते (6। 9) सर्वत्र समदर्शनः (6। 29) आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति (6। 32) सर्वत्र समबुद्धयः (12। 4) समं सर्वेषु भूतेषु ৷৷. यः पश्यति स पश्यति (13। 27) और समं पश्यन् हि सर्वत्र (13। 28)।श्रीशङ्कराचार्यजी महाराज कहते हैं भावाद्वैतं सदा कुर्यात् क्रियाद्वैतं न कुत्रचित्। (तत्त्वोपदेश)भावमें ही सदा अद्वैत होना चाहिये क्रिया (व्यवहार) में कहीं नहीं।समतासम्बन्धी विशेष बात आजकल समतापर विशेष चर्चा चल रही है। सबके साथ समताका बर्ताव करो ऐसा प्रचार किया जा रहा है। परन्तु वास्तवमें समता किसे कहते हैं और वह कब आती है इसे समझनेकी बड़ी आवश्यकता है। समता कोई खेलतमाशा नहीं है प्रत्युत परमात्माका साक्षात् स्वरूप है। जिनका मन समतामें स्थित हो जाता है वे यहाँ जीतेजी ही संसारपर विजय प्राप्त कर लेते हैं और परब्रह्म परमात्माका अनुभव कर लेते हैं (गीता 5। 19)। यह समता तब आती है जब दूसरोंका दुःख अपना दुःख और दूसरोंका सुख अपना सुख हो जाता है। गीतामें भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन जो पुरुष अपने शरीरकी तरह सब जगह सम देखता है और सुख अथवा दुःखको भी सब जगह सम देखता है वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है (6। 12)। जैसे शरीरके किसी भी अङ्गमें पीड़ा होनेपर उसको दूर करनेकी लगन लग जाती है ऐसे ही किसी प्राणीको दुःख सन्ताप आदि होनेपर उसको दूर करनेकी लगन लग जाय तब समता आती है। सन्तोंके लक्षणोंमें भी आया है पर दुख दुख सुख सुख देखे पर (मानस 7। 38। 1)जबतक अपने सुखकी लालसा है तबतक चाहे जितना उद्योग कर लें समता नहीं आयेगी। परन्तु जब हृदयसे यह लगन लग जायगी कि दूसरोंको सुख कैसे पहुँचे उनको आराम कैसे हो उनको लाभ कैसे हो उनका कल्याण कैसे हो तब समता स्वतः आ जायगी। इसका आरम्भ सर्वप्रथम अपने घरसे करना चाहिये। हृदयमें ऐसा भाव हो कि किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख या कष्ट न पहुँचे किसीका कभी अनिष्ट न हो। चाहे मैं कितना ही कष्ट पाऊँ पर मेरे मातापिता स्त्रीपुत्र भाईभौजाई आदिको सुख होना चाहिये। घरवालोंको सुख पहुँचानेसे अपने हृदयमें शान्ति आयेगी ही। जहाँ अपने घरका भी सम्बन्ध नहीं है वहाँ सुख पहुँचायेंगे तो विशेष आनन्दकी लहरें आने लग जायँगी। परन्तु ममतापूर्वक सुख पहुँचानेसे हमारी उन्नति नहीं होगी। जहाँ हमारी ममता न हो वहाँ सुख पहुँचायें अथवा जहाँ हम ममतापूर्वक सुख पहुँचाते हैं वहाँसे अपनी ममता हटा लें दोनोंका परिणाम एक ही होगा।चित्रकूटमें लक्ष्मणजी भगवान् राम और सीताकी सेवा कैसे करते हैं यह बताते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि ।।(मानस 2। 142। 1)अर्थात् लक्ष्मणजी भगवान् राम और सीताजीकी वैसे ही सेवा करते हैं जैसे अज्ञानी मनुष्य अपने शरीरकी सेवा करता है। अपने शरीरकी सेवा करना उसे सुख पहुँचाना समझदारी नहीं है। अपने शरीरकी सेवा तो पशु भी करते हैं। जैसे बँदरीकी अपने बच्चेपर इतनी ममता रहती है कि उसके मरनेके बाद भी वह उसके शरीरको पकड़े हुए चलती है छोड़ती नहीं। परन्तु जब कोई वस्तु खानेके लिये मिल जाती है तब वह स्वयं तो खा लेती है पर बच्चेको नहीं खाने देती। बच्चा खानेकी चेष्टा करता है तो उसे ऐसी घुड़की मारती है कि वह चींचीं करते भाग जाता है। अतः ममताके रहते हुए समताका आना असम्भव है।जिससे हमें कुछ लेना नहीं है जिससे हमारा कोई स्वार्थ नहीं है ऐसे व्यक्तिके साथ भी हम प्रेमपूर्वकअच्छासेअच्छा बर्ताव करें जिससे उसका हित हो। कोई व्यक्ति मार्गमें भटक गया है उसे मार्गका पता नहीं है और वह हमसे पूछता है। हम उसे बड़ी प्रसन्नतासे मार्ग बतायें अथवा कुछ दूरतक उसके साथ चलें तो हमें हृदयमें प्रत्यक्ष सुखका शान्तिका अनुभव होगा। परन्तु यदि हम जानते हुए भी उसे मार्ग नहीं बतायेंगे तो हमारे हृदयमें सुख नहीं होगा। यह अनुभवकी बात है कोई करके देख ले। किसीको प्यास लगी है तो उसे बता दे कि भाई इधर आओ इधर ठण्डा जल है। फिर हम अपना हृदय देखें। हमारे हृदयमें प्रसन्नता आयेगी सुख आयेगा। यह सुख हमारा कल्याण करनेवाला है। दूसरा दुःख पाये पर मैं सुख ले लूँ यह सुख पतन करनेवाला है। इससे न तो व्यवहारमें हमारी उन्नति होगी और न परमार्थमें। हम सत्सङ्गका आयोजन करते हैं। उसमें आनेवाले व्यक्तियोंके बैठनेकी व्यवस्था करते हैं तो उनसे प्रेमपूर्वक कहें कि आइये यहाँ बैठिये। उन्हें वहाँ बैठायें जहाँसे वे ठीक तरहसे कैसे सुन सकें। वे आरामसे कैसे बैठ सकें ठीक तरहसे कैसे सुन सकें ऐसा भाव रखकर उनसे बर्ताव करें। ऐसा करनेसे हमारे हृदयमें प्रत्यक्ष शान्ति आयेगी। पर वहीं हुक्म चलायें कि क्या करते हो इधर बैठो इधर नहीं तो बात वही होनेपर भी हृदयमें शान्ति नहीं आयेगी। भीतरमें जो अभिमान है वह दूसरोंको चुभेगा बुरा लगेगा। ऐसा बर्ताव करें और चाहें कि समता आ जाय तो वह कभी आयेगी नहीं। सबके हितमें जिसकी प्रीति हो गयी है उन्हें भगवान् प्राप्त हो जाते हैं ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः (गीता 12। 4)। कारण कि भगवान् प्राणिमात्रके परम सुहृद् हैं (गीता 5। 29)। वे प्राणिमात्रका पालनपोषण करनेवाले हैं। आस्तिकसेआस्तिक हो अथवा नास्तिकसेनास्तिक दोनोंके लिये भगवान्का विधान बराबर है। एक व्यक्ति बड़ा आस्तिक है भगवान्को बहुत मानता है और उन्हें पानेके लिये साधनभजन करता है और एक व्यक्ति ऐसा नास्तिक है कि संसारसे भगवान्का खाता उठा देना चाहता है। भगवान्को माननेसे और भगवान्के कारण ही दुनिया दुःख पा रही है भगवान् नामकी कोई चीज है ही नहीं ऐसा उसके हृदयमें भाव है और ऐसा ही प्रचार करता है। ऐसे नास्तिकसेनास्तिक व्यक्तिकी भी प्यास जल मिटाता है और यही जल आस्तिकसेआस्तिक व्यक्तिकी भी प्यास मिटाता है। जलमें यह भेद नहीं है कि वह आस्तिककी प्यास ठीक तरहसे शान्ति करे और नास्तिककी प्यास शान्त न करे। वह समान रीतिसे सबकी प्यास मिटाता है। ऐसे ही सूर्य समान रीतिसे सबको प्रकाश देता है हवा समान रीतिसे सबको श्वास लेने देती है पृथ्वी समान रीतिसे सबको रहनेका स्थान देती है। इस प्रकार भगवान्की रची हुई प्रत्येक वस्तु सबको समान रीतिसे मिलती है। समताका अर्थ यह नहीं है कि समान रीतिसे सबके साथ रोटीबेटी (भोजन और विवाह) का बर्ताव करें। व्यवहारमें समता तो महान् पतन करनेवाली चीज है। समान बर्ताव यमराजका मौतका नाम है क्योंकि उसके बर्तावमें विषमता नहीं होती। चाहे महात्मा हो चाहे गृहस्थ हो चाहे साधु हो चाहे पशु हो चाहे देवता हो मौत सबकी बराबर होती है। इसलिये यमराजको समवर्ती (समान बर्ताव करनेवाला) कहा गया है (टिप्पणी प0 307)। अतः जो समान बर्ताव करते हैं वे भी यमराज हैं।पशुओंमें भी समान बर्ताव पाया जाता है। कुत्ता ब्राह्मणकी रसोईमें जाता है तो पैर धोकर नहीं जाता। ब्राह्मणकी रसोई हो अथवा हरिजनकी वह तो जैसा है वैसा ही चला जाता है क्योंकि यह उसकी समता है। पर मनुष्यके लिये यह समता नहीं है प्रत्युत महान् पशुता है। समता तो यह है कि दूसरेका दुःख कैसे मिटे दूसरेको सुख कैसे हो आराम कैसे हो ऐसी समता रखते हुए बर्तावमें पवित्रता निर्मलता रखनी चाहिये। बर्तावमें पवित्रता रखनेसे अन्तःकरण पवित्र निर्मल होता है। परन्तु बर्तावमें अपवित्रता रखनेसे खानपान आदि एक करनेसे अन्तःकरणमें अपवित्रता आती है जिससे अशान्ति बढ़ती है। केवल बाहरका बर्ताव समान रखना शास्त्र और समाजकी मर्यादाके विरुद्ध है। इससे समाजमें संघर्ष पैदा होता है।वर्णोंमें ब्राह्मण ऊँचे हैं और शूद्र नीचे हैं ऐसा शास्त्रोंका सिद्धान्त नहीं है। ब्राह्मण उपदेशके द्वारा क्षत्रिय रक्षाके द्वारा वैश्य धनसम्पत्ति आवश्यक वस्तुओँके द्वारा और शूद्र शरीरसे परिश्रम करके सभी वर्णोंकी सेवाकरे। इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे अपने कर्तव्यपालनमें परिश्रम न करें प्रत्युत अपने कर्तव्यपालनमें समान रीतिसे सभी परिश्रम करें। जिसके पास जिस प्रकारकी शक्ति विद्या वस्तु कला आदि है उसके द्वारा चारों ही वर्ण चारों वर्णोंकी सेवा करें उनके कार्योंमें सहायक बनें। परन्तु चारों वर्णोंकी सेवा करनेमें भेदभाव न रखें।आजकल वर्णाश्रमको मिटाकर पार्टीबाजी हो रही है। आज वर्णाश्रममें इतनी लड़ाई नहीं है जितनी लड़ाई पार्टीबाजीमें हो रही है यह प्रत्यक्ष बात है। पहले लोग चारों वर्णों और आश्रमोंकी मर्यादामें चलते थे और सुखशान्तिपूर्वक रहते थे। आज वर्णाश्रमकी मर्यादाको मिटाकर अनेक पार्टियाँ बनायी जा रही हैं जिससे संघर्षको बढ़ावा मिल रहा है। गाँवोंमें सब लोगोंको पानी मिलना कठिन हो रहा है। जिनके अधिकारमें कुआँ है वे कहते हैं कि तुमने उस पार्टीको वोट दिया है इसलिये तुम यहाँसे पानी नहीं भर सकते। माँ बाप और बेटा तीनों अलगअलग पार्टियोंको वोट देते हैं और घरमें लड़ते हैं। भीतरमें वैर बाँध लिया कि तुम उस पार्टीके और हम इस पार्टीके। कितना महान् अनर्थ हो रहा हैयदि समता लानी हो तो दूसरा व्यक्ति किसी भी वर्ण आश्रम धर्म सम्प्रदाय मत आदिका क्यों न हो उसे सुख देना है उसका दुःख दूर करना है और उसका वास्तविक हित करना है। उनमें यह भेद हो सकता है कि आप रामराम कहते हैं हम कृष्णकृष्ण कहेंगे आप वैष्णव हैं हम शैव हैं आप मुसलमान हैं हम हिन्दू हैं इत्यादि। परन्तु इससे कोई बाधा नहीं आती है। बाधा तब आती है जब यह भाव रहता है कि वे हमारी पार्टीके नहीं हैं इसलिये उनको चाहे दुःख होता रहे पर हमें और हमारी पार्टीवालोंको सुख हो जाय। यह भाव महान् पतन करनेवाला है। इसलिये कभी किसी वर्ण आदिके मनुष्योंको कष्ट हो तो उनके हितकी चिन्ता समान रीतिसे होनी चाहिये और उन्हें सुख हो तो उससे प्रसन्नता समान रीतिसे होनी चाहिये। जैसे ब्राह्मणों और हरिजनोंमें संघर्ष हुआ। उसमें हरिजनोंकी हार और ब्राह्मणोंकी जीत होनेपर हमारे मनमें प्रसन्नता हो अथवा ब्राह्मणोंकी हार और हरिजनोंकी जीत होनेपर हमारे मनमें दुःख हो तो यह विषमता है जो बहुत हानिकारक है। ब्राह्मणों और हरिजनों दोनोंके प्रति ही हमारे मनमें हितकी समान भावना होनी चाहिये। किसीका भी अहित हमें सहन न हो। किसीका भी दुःख हमें समान रीतिसे खटकना चाहिये। यदि ब्राह्मण दुःखी है तो उसे सुख पहुँचायें और यदि हरिजन दुःखी है तो उसे सुख न पहुँचायें ऐसा पक्षपात नहीं होना चाहिये प्रत्युत हरिजनको सुख पहुँचानेकी विशेष चेष्टा होनी चाहिये। हरिजनोंको सुख पहुँचानेकी चेष्टा करते हुए भी ब्राह्मणोंके दुःखकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिये। इस प्रकार किसी भी वर्ण आश्रम धर्म सम्प्रदाय आदिको लेकर पक्षपात नहीं होना चाहिये। सभीके प्रति समान रीतिसे हितका बर्ताव होना चाहिये। यदि कोई निम्नवर्ग है और उसे हम ऊँचा उठाना चाहते हों तो उस वर्गके लोगोंके भावों और आचरणोंको शुद्ध और श्रेष्ठ बनाना चाहिये उनके पास वस्तुओंकी कमी हो तो उसकी पूर्ति करनी चाहिये परन्तु उन्हें उकसाकर उनके हृदयोंमें दूसरे वर्गके प्रति ईर्ष्या और द्वेषके भाव भर देना अत्यन्त ही अहितकर घातक है तथा लोकपरलोकमें पतन करनेवाला है। कारण कि ईर्ष्या द्वेष अभिमान आदि मनुष्यका महान् पतन करनेवाले हैं। यदि ऐसे भाव ब्राह्मणोंमें हैं तो उनका भी पतन होगा और हरिजनोंमें हैं तो उनका भी पतन होगा। उत्थान तो सद्भावों सद्गुणों सदाचारोंसे ही होता है। भोजन वस्त्र मकान आदि निर्वाहकी वस्तुओंकी जिनके पास कमी है उन्हें ये वस्तुएँ विशेषतासे देनी चाहिये चाहे वे किसी भी वर्ण आश्रम धर्म सम्प्रदाय आदिके क्यों न हों। सबका जीवनयापन सुखपूर्वक होना चाहिये। सभी सुखी हों सभी नीरोग हों सभीका हित हो कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न हो (टिप्पणी प0 308) ऐसा भाव रखते हुए यथायोग्य बर्ताव करना ही समता है जो सम्पूर्ण मनुष्योंके लिये हितकर है। सम्बन्ध अब भगवान् पूर्वश्लोकमें वर्णित समताकी विशेष महिमा कहते हैं।
।।5.18।। अपने ज्ञानानुसार ही हमारी जगत् को देखने की दृष्टि होती है। आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र समरूप विद्यमान दिव्य आत्मतत्त्व का ही दर्शन करता है। समुद्र मंे उठती हुई असंख्य लहरों के प्रति समुद्र की अलगअलग भावना नहीं हो सकती। मिट्टी की दृष्टि से मिट्टी से निर्मित सभी घट एक समान ही हैं। इसी प्रकार जिस अहंकार रहित पुरुष ने अपने ब्रह्मस्वरूप को पहचान लिया है उसकी नामरूपमय सृष्टि की ओर देखने की दृष्टि सम बन जाती है। दृष्टिगोचर सभी प्रकार के भेद केवल उपाधियों में ही हैं। मनुष्यमनुष्य में भेद शरीर के रूप और रंग में हो सकता है अथवा मन के स्वभाव या बुद्धि की प्रखरता में। परन्तु जीवन तत्त्व तो सबमें सदा एक ही होता है।इसलिए इस श्लोक में कहा गया है कि विद्याविनययुक्त ब्राह्मण गाय हाथी श्वान और चाण्डाल इन सबकी ओर आत्मप्रज्ञा प्राप्त पण्डित पुरुष समदृष्टि से देखता है। सब उपाधियों में एक ही परम सत्य विराजमान है।आत्मसाक्षात्कार का मुख्य लक्षण है समदर्शन। ज्ञानी पुरुष अपने व्यक्तिगत रागद्वेष के आधार पर भेद नहीं करता। आत्मरूप से अनुभव किये परम सत्य को ही विभिन्न नामरूपों में व्यक्त देखता है।इस श्लोक के सन्दर्भ में श्री शंकराचार्य गौतमस्मृति को उद्धृत करते हुए एक शंका उठाते हैं जिसका निराकरण अगले श्लोक में किया गया है। उस स्मृति ग्रन्थ के अनुसार जैसे पूजनीय व्यक्ति का अनादर करना दोषयुक्त है वैसे ही अनादरणीय व्यक्ति का सम्मान करने में भी उतना ही दोष है। स्मृति के इस कथन की दृष्टि से ब्राह्मण के असमान ही श्वान को आदर देना अथवा जो अनादर श्वान का किया जाता है उतना ही असम्मान एक श्रेष्ठ ब्राह्मण का करना ये दोनों ही पापपूर्ण कर्म होंगे। परन्तु समदर्शी पुरुष इस दोष से सर्वथा मुक्त होते हैं। उसका कारण यह है कि
।।5.18।।यदपुनरावृत्तिसाधनं तत्त्वज्ञानं तदेव प्रश्नद्वारेण विवृणोति येषामित्यादिना। विद्या वेदार्थविज्ञानमित्यङ्गीकृत्य विनय व्याचष्टे विनय इति। उपशमो निरहंकारत्वमनौद्धत्यम्। पदार्थमेवमुक्त्वा वाक्यार्थं दर्शयति विद्वानिति। गवीत्याद्यनूद्य वाक्यार्थं कथयति विद्येति। हस्त्यादौ पण्डिताः समदर्शिन इत्युत्तरत्र संबन्धः। तत्र तत्र प्राणिभेदेषु तत्तद्गुणैस्तत्तन्निमित्तसंस्कारैश्च संस्पृष्टत्वसंभवान्न ब्रह्मणः समत्वमित्याशङ्क्याह सत्त्वादीति। तज्जैश्चेत्यत्र तच्छब्देन सत्त्वमेव गृह्यते। सात्त्विकसंस्कारैरिव राजससंस्कारैरपि सर्वथैवासंस्पृष्टं ब्रह्मेत्याह तथेति। राजसैरिव तामसैरपि संस्कारैर्ब्रह्मात्यन्तमेवास्पृष्टमित्याह तथा तामसैरिति। ब्रह्मणोऽद्वितीयत्वं कूटस्थत्वमसङ्गत्वं चोक्तेऽर्थे हेतुरिति मत्वा समशब्दार्थमाह सममिति। समदर्शित्वमेव पाण्डित्यं तद्व्याचष्टे ब्रह्मेति।
।।5.18।। येषां ज्ञानेन नाशितमात्मनोऽज्ञानं ते पण्डिता मोक्षगामिनः कथमात्मतत्त्वं पश्यन्तीति तत्राह विद्येति। विद्या आत्मबोधः विनय उपशम औद्धत्याद्यभावः। दैन्यवारणाय विद्यापदमौद्धत्यादिवारणाय विनयपदं ताभ्यां संपन्ने युक्ते उत्तमसंस्कारवति सात्त्विके ब्राह्मणे मध्यमायां राजस्यां गवि संस्काररहितायां अधमे केवलतामसे हस्तिनि गजे शुनि सारभेये श्वपाके चाण्डाले। तामसानां बहूनामुपादानं तु सात्त्विकराजसापेक्षया तेषां बाहुल्यसूचनार्थम्। समं सत्त्वादिगुणैस्तज्जन्यसंस्कारैश्चास्पृष्टमेकमविक्रियं गङ्गाजले तडागोदके मूत्रादावच्छिन्नाकाशमिव ब्रह्म द्रष्टुं शीलं येषां ते पण्डिताः समदर्शिन इत्यर्थः। यत्तु ननु ज्ञानसंन्याससंपन्नानामेव जीवे कोऽयमतिशयो यत्परैक्यं नाम। नहि मनुष्याणां लोके उत्तममध्यमतया व्यवह्नियमाणानां पशूनां वा तादृशानां न जीवोऽस्ति सन्वा न परैक्यं प्रतिपद्यते। इत्याशङ्क्याह विद्येति।अत्र गवि हस्तिनि शुनीति गोत्वादिजात्याधारपिण्डरुपोपाधी नाभुत्तममध्यमाधमानामुक्तत्वान्मानुषपिण्डानामप्यात्मोपाधीनामेवं विवेको ज्ञेयः। ब्राह्मणस्योत्तमस्य पृथगभिधानात्। विद्यासंपन्नाबशिष्टौ क्षत्रियवैश्यपिण्डौ। विनयसंपन्नस्त्रैवर्णिकसेवामात्रधर्मकः शूद्रपिण्डः। पिण्डसमुदायाभिप्रायं चैकवचनम्। तथोत्तमो ब्राह्मणः क्षत्रियवैश्यौ मध्यमौ ततः किंचिन्निकृष्टः शूद्रः सर्वथाधमः श्वपाकः। एतेषु मानुषपशूत्तममध्यमाधमेषु पिण्डेष्वात्मोपाधिषु सत्स्वप्यनुपहितं सर्वत्राविशेषत्वात् समं ब्रह्मैव तत्रतत्र प्रविष्टं पण्डिताः पश्यन्ति नत्वात्मानमेव ब्रह्मात्मकं पश्यन्तीत्यर्थ इतीतरे व्याचख्युः। तन्मन्दम्। सर्वभूतात्मभूतब्रह्मदर्शिन इत्येतावतैवोक्तार्थे सिद्धेऽमूलोक्तानामुपाधिभेदानां क्लिष्टकल्पनया प्रदर्शितानां समपदस्य च वैयर्थ्यप्रसङ्गात्।
।।5.18।।परमेश्वरस्वरूपाणां सर्वत्र साम्यदर्शनं चापरोक्षज्ञानसाधनमित्याशयवानाह विद्येति।
।।5.18।।एतेषां जगति दृष्टिमाह विद्येति। उत्तमब्राह्मणे चण्डालादौ वा समं ब्रह्मैव सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च भासमानं द्रष्टुं शीलं येषां ते समदर्शिनः। यथोक्तम्अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम्। आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम्। इति। चराचरं जगद्ब्रह्मदृष्ट्यैव पश्यन्तीत्यर्थः।
।।5.18।।विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणो गोहस्तिश्वपचादिषु अत्यन्तविषमाकारतया प्रतीयमानेषु च आत्मसु पण्डिताः आत्मयाथात्म्यविदो ज्ञानैकाकारतया सर्वत्र समदर्शिनः। विषमाकारः तु प्रकृतेः न आत्मनःआत्मा तु सर्वत्र ज्ञानैकाकारतया समः इति पश्यन्ति इत्यर्थः।
।।5.18।।कीदृशास्ते ज्ञानिनो येऽपुनरावृत्तिं गच्छन्तीत्यपेक्षायामाह विद्याविनयसंपन्न इति। विषमेष्वपि समं ब्रह्मैव द्रष्टुं शीलं येषां ते। पण्डिताः ज्ञानिन इत्यर्थः। तत्र विद्याविनयाभ्यां युक्ते ब्राह्मणे च शुनो यः पचति तस्मिञ्श्वपाके चेति कर्मणा वैषम्यम्। गवि हस्तिनि शुनि चेति जातितो वैषम्यं दर्शितम्।
।।5.18।।कीदृशोऽयमात्मसाक्षात्कारः इत्याकाङ्क्षायांयेन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि 4।35 इति प्रागुक्तं व्यनक्ति विद्याविनय इति श्लोकेन।विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे इति पदद्वयं न समानाधिकरणं निर्विशेषणसमुदायसहपठितत्वाद्विद्याविनयसम्पन्नविशेषणप्रतिशीर्षानुक्तेश्च।गवि हस्तिनि इत्याकारवैषम्यं द्वाभ्यां दर्शितम् श्वश्वपचशब्दाभ्यां वृत्त्या वैषम्यम् तद्वत्पूर्वाभ्यामपि मिथो वैषम्यमेवाभिप्रेतम् अतोब्राह्मणे इति ब्राह्मणत्वजात्याक्रान्ततामात्रं विवक्षितमिति दर्शयति केवलब्राह्मण इति। सात्त्विकराजसतामसरूपानेकोदाहरणाभिप्रेतमाह अत्यन्तविषमेति।आत्मस्विति शरीराणामन्योन्यवैषम्यनिषेधो दुश्शक इति भावः। अत्र समदर्शित्वोपयुक्तमूहापोहक्षमत्वं पण्डितत्वमिति दर्शयितुंआत्मयाथात्म्यविद इत्युक्तम्। सम द्रष्टुं शीलं येषां ते समदर्शिनः। ननु प्रत्यक्षसिद्धं शरीरवैषम्यम् शरीरिणामपि तत्तद्विशिष्टत्वात्तत्कृतज्ञानादिवैषम्यं च दुरपह्नवम् अतोऽत्यन्तविषमेषु पदार्थत्वादिवत्स्थूलं सामान्यमकिञ्चित्करमित्यत्राहविषमाकारस्त्विति।प्रकृतेः इति सम्बन्धसामान्ये षष्ठी। तेन साक्षात्प्रकृतिगतं देवत्वादिकं तत्प्रयुक्तं सुखित्वादिकं च कथञ्चित्सम्बन्धमात्रात् प्रकृतेरित्युक्तम्। न शरीरगतं वैषम्यं प्रतिषिध्यते किन्तु तदेवात्र प्रतिपाद्यते न च तत्तच्छरीरविशिष्टत्वलक्षणं तन्मूलज्ञानसङ्कोचादिलक्षणं वा वैषम्यमपह्नूयते अपितु तस्यौपाधिकत्वमुच्यते। न च शरीरादिविशिष्टत्वं विरोधि स्वाभाविकस्वरूपसाम्यमात्रपरत्वात्। न चैतदत्यन्तस्थूलं शुद्धानामात्मनां स्वरूपभेदस्य दुर्विवेचत्वात्स्फुटविशेषाकारान्तराभावादिति भावः। ननु तथापि ब्राह्मणादिषु पूज्यत्वादिसाम्यबुद्धौ अभोज्यान्नत्वादिदोषः स्मृतस्तत्राह आत्मा त्विति।
।।5.18।।अत्रापि भावयन्निति ज्ञानस्यैवेयं धारा उक्ता।
।।5.18।।विद्याविनयेत्यादिप्रकृतानुपयुक्तमयुक्तं च कथमुच्यते इत्यत आह परमेश्वरेति। सर्वत्र ब्राह्मणादिषु स्थितानां सर्वत्र गुणेषु दोषाभावेषु वा साम्यं तारतम्याभावः। तद्बुद्धित्वादिना सहास्य समुच्चयार्थश्चशब्दः। परमेश्वरविषयतानिर्दोषं हि 5।19 इत्युत्तरवाक्यगम्या अपरोक्षज्ञानसाधनता च प्रकरणगम्येत्यत आशयवानित्युक्तम्। पण्डितशब्दस्तु परोक्षज्ञानवचनः पाण्डित्यमागमज्ञानमिति वचनात्।
।।5.18।।देहपातादूर्ध्वं विदेहकैवल्यरूपं ज्ञानफलमुक्त्वा प्रारब्धकर्मवशात्सत्यपि देहे जीवन्मुक्तिरूपं तत्फलमाह विद्या वेदार्थपरिज्ञानं ब्रह्मविद्या वा विनयो निरहंकारत्वम् अनौद्धृत्यमिति यावत्। ताभ्यां संपन्ने ब्रह्मविदि विनीते च ब्राह्मणे सात्त्विकेसर्वोत्तमे। तथा गवि संस्कारहीनायां राजस्यां मध्यमायाम्। तथा हस्तिनि शुनि श्वपाके चात्यन्ततामसे सर्वाधर्मेऽपि सत्त्वादिगुणैस्तज्जैश्च संस्कारैरस्पृष्टमेव समं ब्रह्म द्रष्टुं शीलं येषां ते समदर्शिनः पण्डिता ज्ञानिनः। यथा गङ्गातोये तडागे सुरायां मूत्रे वा प्रतिबिम्बितस्यादित्यस्य न तद्गुणदोषसंबन्धस्तथा ब्रह्मणोऽपि चिदामासद्वारा प्रतिबिम्बितस्य नोपाधिगतगुणदोषसंबन्ध इति प्रतिसंदधानाः सर्वत्र समदृष्ट्यैव रागद्वेषराहित्येन परमानन्दस्फूर्त्या जीवन्मुक्तिमनुभवन्तीत्यर्थः।
।।5.18।।तेषां लक्षणमाह विद्येति। विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे श्वपाके शुनो यः पचति तस्िमँश्च गवि हस्तिनि शुनि च समदर्शिनः मदंशात्मज्ञानेन ते पण्डिता ज्ञानिनः ज्ञेया इत्यर्थः।
।।5.18।। विद्याविनयसंपन्ने विद्या च विनयश्च विद्याविनयौ विद्या आत्मनो बोधो विनयः उपशमः ताभ्यां विद्याविनयाभ्यां संपन्नः विद्याविनयसंपन्नः विद्वान् विनीतश्च यो ब्राह्मणः तस्मिन् ब्राह्मणे गवि हस्तिनि शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः। विद्याविनयसंपन्ने उत्तमसंस्कारवति ब्राह्मणे सात्त्विके मध्यमायां च राजस्यां गवि संस्कारहीनायाम् अत्यन्तमेव केवलतामसे हस्त्यादौ च सत्त्वादिगुणैः तज्जैश्च संस्कारैः तथा राजसैः तथा तामसैश्च संस्कारैः अत्यन्तमेव अस्पृष्टं समम् एकम् अविक्रियं तत् ब्रह्म द्रष्टुं शीलं येषां ते पण्डिताः समदर्शिनः।।ननु अभोज्यान्नाः ते दोषवन्तः समासमाभ्यां विषमसमे पूजातः (गौ0 स्म0 17.20) इति स्मृतेः। न ते दोषवन्तः। कथम्
।।5.18।।कीदृशास्ते इति जिज्ञासायां तेषां स्वरूपमाह विद्येति। एतेषु विषमेषु गवादिष्वपि समं ब्रह्म द्रष्टुं शीलं येषां ते पण्डिता उक्तलक्षणाः।