न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।।5.20।।
na prahṛiṣhyet priyaṁ prāpya nodvijet prāpya chāpriyam sthira-buddhir asammūḍho brahma-vid brahmaṇi sthitaḥ
Resting in Brahman, with a steady intellect and undeluded, the knower of Brahman neither rejoices upon obtaining what is pleasant nor grieves upon obtaining what is unpleasant.
5.20 न not? प्रहृष्येत् should rejoice? प्रियम् the pleasant? प्राप्य having obtained? न not? उद्विजेत् should be troubled? प्राप्य having obtained? च and? अप्रियम् the unpleasant? स्थिरबुद्धिः one with steady intellect? असम्मूढः undeluded? ब्रह्मवित् knower of Brahman? ब्रह्मणि in Brahman? स्थितः established.Commentary This is the state of a Jivanmukta or a liberated sage or a Brahmana who identifies himself with the Self or Atman. He always has a balanced mind. He is never deluded. He has abandoned all actions as he rests in Brahman. He who has an unbalanced mind? who identifies himself with the body and mind feels pleasure and pain? exhilaration of spirits when he gets a pleasant object and grief when he obtains an unpleasant object. (Cf.VI.21?27?28XIII.12XIV.20)
5.20।। व्याख्या--'न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्' शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, शास्त्र आदिके अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिकी प्राप्ति होना ही प्रिय को प्राप्त होना है।शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, शास्त्र आदिके प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, घटना परिस्थिति आदिकी प्राप्ति होना ही 'अप्रिय' को प्राप्त होना है।प्रिय और अप्रियको प्राप्त होनेपर भी साधकके अन्तःकरणमें हर्ष और शोक नहीं होने चाहिये। यहाँ प्रिय और अप्रियकी प्राप्तिका यह अर्थ नहीं है कि साधकके हृदयमें अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी-पदार्थोंके प्रति राग या द्वेष है, प्रत्युत यहाँ उन प्राणी-पदार्थोंकी प्राप्तिके ज्ञानको ही प्रिय और अप्रियकी प्राप्ति कहा गया है। प्रिय या अप्रियकी प्राप्ति अथवा अप्राप्तिका ज्ञान होनेमें कोई दोष नहीं है। अन्तःकरणमें उनकी प्राप्ति अथवा अप्राप्तिका असर पड़ना अर्थात् हर्ष-शोकादि विकार होना ही दोष है। प्रियता और अप्रियताका ज्ञान तो अन्तःकरणमें होता है, पर हर्षित और उद्विग्न कर्ता होता है। अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला पुरुष प्रकृतिके करणोंद्वारा होनेवाली क्रियाओँको लेकर 'मैं कर्ता हूँ' --ऐसा मान लेता है तथा हर्षित और उद्विग्न होता रहता है। परन्तु जिसका मोह दूर हो गया है, जो तत्त्ववेत्ता है, वह 'गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं'--ऐसा जानकर अपनेमें (स्वरूपमें) वास्तविक अकर्तृत्वका अनुभव करता है (गीता 3। 28)। स्वरूपका हर्षित और उद्विग्न होना सम्भव ही नहीं है।स्थिरबुद्धिः-- स्वरूपका ज्ञान स्वयंके द्वारा ही स्वयंको होता है। इसमें ज्ञाता और ज्ञेयका भाव नहीं रहता। यह ज्ञान करण-निरपेक्ष होता है अर्थात् इसमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि किसी करणकी अपेक्षा नहीं होती। करणोंसे होनेवाला ज्ञान स्थिर तथा सन्देहरहित नहीं होता, इसलिये वह अल्पज्ञान है। परन्तु स्वयं-(अपने होनेपन-) का ज्ञान स्वयंको ही होनेसे उसमें कभी परिवर्तन या सन्देह नहीं होता। जिस महापुरुषको ऐसे करण-निरपेक्ष ज्ञानका अनुभव हो गया है, उसकी कही जानेवाली बुद्धिमें यह ज्ञान इतनी दृढ़तासे उतर आता है कि उसमें कभी विकल्प, सन्देह, विपरीत भावना, असम्भावना आदि होती ही नहीं। इसलिये उसे 'स्थिरबुद्धिः' कहा गया है।'असम्मूढः'-- जो परमात्मतत्त्व सदासर्वत्र विद्यमान है, उसका अनुभव न होना और जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, उस उत्पत्ति-विनाशशील संसारको सत्य मानना--ऐसी मूढ़ता साधारण मनुष्यमें रहती है। इस मूढ़ताका जिसमें सर्वथा अभाव हो गया है, उसे ही यहाँ 'असम्मूढः' कहा गया है। 'ब्रह्मवित्' परमात्मासे अलग होकर परमात्माका अनुभव नहीं होता। परमात्माका अनुभव होनेमें अनुभविता, अनुभव और अनुभाव्य--यह त्रिपुटी नहीं रहती, प्रत्युत त्रिपुटीरहित अनुभवमात्र (ज्ञानमात्र) रहता है। वास्तवमें ब्रह्मको जाननेवाला कौन है--यह बताया नहीं जा सकता। कारण कि ब्रह्मको जाननेवाला ब्रह्मसे अभिन्न हो जाता है, (टिप्पणी प0 311) इसलिये वह अपनेको ब्रह्मवित् मानता ही नहीं अर्थात् उसमें 'मैं ब्रह्मको जानता हूँ' ऐसा अभिमान नहीं रहता।'ब्रह्मणि स्थितः'-- वास्तवमें सम्पूर्ण प्राणी तत्त्वसे नित्य-निरन्तर ब्रह्ममें ही स्थित हैं; परन्तु भूलसे अपनी स्थिति शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ही मानते रहनेके कारण मनुष्यको ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव नहीं होता। जिसे ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो गया है, ऐसे महापुरुषके लिये यहाँ 'ब्रह्मणि स्थितः' पदोंका प्रयोग हुआ है। ऐसे महापुरुषको प्रत्येक परिस्थितिमें नित्य-निरन्तर ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता रहता है।यद्यपि एक वस्तुकी दूसरी वस्तुमें स्थिति होती है, तथापि ब्रह्ममें स्थिति इस प्रकारकी नहीं है। कारण कि ब्रह्मका अनुभव होनेपर सर्वत्र एक ब्रह्म-ही-ब्रह्म रह जाता है। उसमें स्थिति माननेवाला दूसरा कोई रहता ही नहीं। जबतक कोई ब्रह्ममें अपनी स्थिति मानता है, तबतक ब्रह्मकी वास्तविक अनुभूतिमें कमी है, परिच्छिन्नता है। सम्बन्ध--ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव किस प्रकार होता है, इसका विवेचन आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।5.20।। एक कुशल चितेरा अपने सुन्दरतम चित्र को पूर्णता और सुन्दरता प्रदान करने के लिए चित्र पटल पर अपनी तूलिका से बारम्बार रेखायें बनाता है और थोड़ी दूर हटकर उनका अवलोकन करता है। इसी प्रकार एक कुशल और श्रेष्ठ चित्रकार के समान भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य के हृदय पटल पर ज्ञानी पुरुष का शब्द चित्र अंकित करते हुए उसमें ज्ञानी के मन के भावों का एवं गुणों का सुन्दर चित्रण करते हैं। अनेक श्लोकों के द्वारा ज्ञानी पुरुष का वर्णन करने में भगवान् का एक मात्र उद्देश्य यह है कि एक सामान्य पुरुष भी ज्ञानी के लक्षणों को स्पष्ट रूप से समझ सके। वे स्पष्ट करते हैं कि महात्मा पुरुष कोई गंगातट की निर्जीव पाषाणी प्रतिमा नहीं होता बल्कि वह ऐसा स्फूर्त समर्थ और कुशल व्यक्ति होता है जो अपनी पीढ़ी को प्रभावित करके उसका नवनिर्माण करता है।बाह्य जगत् में घटित होने वाली घटनाओं के कारण नहीं वरन् उनके साथ अपने सम्बन्धों के कारण मनुष्य हर्ष से उत्तेजित अथवा दुख से निराश होता है। महानगर में किसी एक व्यक्ति की मृत्यु से मनुष्य को दुख नहीं होता परन्तु उस मनुष्य के पिता की मृत्यु उसके लिए दुखदायी घटना बन जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि किसी व्यक्ति की मृत्युमात्र दुख का कारण नहीं बल्कि कारण तो मृत व्यक्ति के साथ का सम्बन्ध है। अपने मन के ऊपर विजय प्राप्त कर अनंतस्वरूप में स्थित ब्रह्मवित् पुरुष प्रिय या अप्रिय को प्राप्त कर सुख या दुख के आवेग में नहीं बह जाता। इसका अर्थ यह नहीं कि वह कोई लकड़ी के खिलौने या पत्थर की मूर्ति के समान जगत् में होने वाली घटनाओं को जानने में अथवा अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में समर्थ नहीं होता। इस श्लोक का अभिप्राय यह है कि ज्ञान के कारण उसे जो मन का समत्व प्राप्त होता है उसे ये घटनाएँ प्रभावित अथवा विचलित नहीं कर सकती हैं।तत्त्ववित् पुरुष की बुद्धि ज्ञान में स्थिर हो जाती है क्योंकि अहंकार और तज्जनित मिथ्या धारणाओं के विष का उसमें सर्वथा अभाव होता है। जिस क्रम से ज्ञानी पुरुष के विशेषण यहाँ बताये हैं उसका अध्ययन बड़ा रोचक है। प्रिय और अप्रिय वस्तुओं की उपस्थिति से जो विचलित रहता है वही स्थिरबुद्धि पुरुष है। स्थिर बुद्धि पुरुष संमोहरहित हो जाता है। जिसके मन में किसी प्रकार का मोह नहीं होता वही पुरुष ब्रह्मज्ञान का योग्य अधिकारी बनकर ब्रह्मवित् हो जाता है। और ब्रह्मवित् पुरुष ब्रह्म ही बनकर स्वस्वरूप में स्थित होकर इस जगत् में विचरण करता है।आगे कहते हैं
।।5.20।।नन्विष्टानिष्टप्राप्तिभ्यां हर्षविषादौ विद्वानपि कुर्वन्निर्दोषे ब्रह्मणि कथं स्थितिं लभेतेत्याशङ्क्याकाङ्क्षितं पूरयन्नुत्तरश्लोकमुत्थापयति यस्मादिति। आत्मज्ञाननिष्ठावतो विदुषो हर्षविषादनिमित्ताभावान्न तावुचितावित्याह स्थिरबुद्धिरिति। ननु हर्षविषादनिमित्तत्वं प्रियाप्रिययोः सिद्धमिति कथं तत्प्राप्त्या हर्षोद्वेगौ न कर्तव्याविति नियुज्यते तत्राह देहेति। विदुषोऽपि प्रियाप्रियप्राप्तिसामर्थ्यादेव हर्षविषादौ दुर्वारावित्याशङ्क्याह न केवलेति। अद्वितीयात्मदर्शनशीलस्य व्यतिरिक्तप्रियाप्रियप्राप्त्ययोगान्न तन्निमित्तौ हर्षविषादावित्यर्थः। इत्यपि विदुषो हर्षविषादावसंभावितावित्याह किंचेति। निर्दोषे ब्रह्मणि प्रागुक्ते दृढप्रतिपत्तिः संमोहेन हर्षादिहेतुना रहितो यथोक्ते सर्वदोषरहिते ब्रह्मण्यहमस्मीति विद्यावानशेषदोषशून्ये तस्मिन्नेव ब्रह्मणि स्थितस्तदनुरोधात्कर्माण्यमृष्यमाणो नैव हर्षविषादभागी भवितुमलमित्यर्थः।
।।5.20।।समे निर्दोषे ब्रह्मणि स्थितो जीवन्मुक्तिसुखार्थं कीदृशः स्यादित्याकाङ्क्षायामाह नेति। स्थिरा संशयवर्जिता सर्वभूतेष्वेकः समो निर्दोष आत्मेति बुद्धिर्यस्य। यतोऽसंमूढः संशयमूलभूतेन संमोहेन रहितः। यतस्तत्त्ववित् मोहनिवर्तकतत्तसाक्षात्कारवान्। तदपि कुतः। यतो ब्रह्मणि स्थितः सर्वं विक्षेपकारणं परित्यज्य श्रवणादिना तत्रैव स्थितः। तन्निष्ठ इतियावत्। एतादृशः प्रियः प्राप्य हर्षं न कुर्यात्। अप्रियं प्राप्योद्वेगं न कुर्यात्। एतादृशेनापि मनोनाशवासनाक्षयप्रयत्नेन हर्षविषादाभावत्वे यतितव्यं षष्ठ्यादिभूमिकायै इति सूचनार्थमुभयत्र लिङ्प्रयोगः।
।।5.20।।सन्न्यासयोगज्ञानानि मिलित्वा प्रपञ्च्यत्यध्यायशेषेण।
।।5.20।।न प्रहृष्येदिति। यस्मान्निर्दोषं समं ब्रह्म तस्मात् प्रियं पुत्रादिं प्राप्य न प्रहृष्येत्। अप्रियं शत्रुं दुःखदं प्राप्य नोद्विजेत्। बुद्धस्थितिरबुद्धेनानुष्ठेयति ज्ञापयितुमुभयत्र लिङ्प्रयोगः। स्थिरबुद्धिः प्रत्यगद्वैते श्रुतियुक्तिभ्यां स्थिरीकृतप्रज्ञः। असंमूढो ध्यानजसाक्षात्कारेण निर्गतमोहः। अतएव ब्रह्मविद्ब्रह्मभावस्य लब्धा। ब्रह्मभावं गत इत्यर्थः। ब्रह्मण्येव प्रत्यगद्वये व्युत्थानावस्थायामपि स्थितः। सर्वं ब्रह्मेत्येव पश्यन्नित्यर्थः।
।।5.20।।यादृशदेहस्थस्य यदवस्थस्य प्राचीनकर्मवासनया यत् प्रियं यच्च अप्रियं तद् उभयं प्राप्य हर्षोद्वेगौ न कुर्यात्।कथम् स्थिरबुद्धिः स्थिरे आत्मनि बुद्धिः यस्य स स्थिरबुद्धिः। असंमूढः अस्थिरेण शरीरेण स्थिरम् आत्मानम् एकीकृत्य मोहः संमोहः तद्रहितः।तत् च कथम् ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः उपदेशेन ब्रह्मवित् सन् तस्मिन् ब्रह्मणि अभ्यासयुक्तः।एतद् उक्तं भवति तत्त्वविदाम् उपदेशेन आत्मयाथात्म्यविद् भूत्वा तत्र एव यतमानो देहाभिमानं परित्यज्य स्थिररूपात्मावलोकनप्रियानुभवे व्यवस्थितः अस्थिरे प्राकृतप्रियाप्रिये प्राप्य. हर्षोद्वेगौ न कुर्याद् इति।
।।5.20।।ब्रह्मप्राप्तस्य लक्षणमाह नेति। यो ब्रह्मविद्भूत्वा ब्रह्मण्येव स्थितः स प्रियं प्राप्य न प्रहृष्येन्न प्रहृष्टो हर्षवान्स्यात्। अप्रियं च प्राप्य नोद्विजेत्। न विषीदेदित्यर्थः। यतः स्थिरबुद्धिः स्थिरा निश्चला बुद्धिर्यस्य। तत्कुतः। यतोऽसंमूढो निवृत्तमोहः।
।।5.20।।प्रियाप्रिये तदधीनहर्षोद्वेगौ च देहतदवस्थाद्युपाधिभेदनिबन्धनाविति व्यञ्जयितुंयादृशदेहस्थयदवस्थस्येत्याद्युक्तम्।यदवस्थस्येत्येतद्देहादिकृतज्ञानसङ्कोचाद्यवस्थाविषयं वा। प्रियाप्रियरूपकारणागमे तत्कार्यहर्षोद्वेगनिवृत्तिर्दुश्शकेत्यभिप्रायेणाह कथमिति। तत्रोत्तरं स्थिरबुद्धिरिति। समानाधिकरणसमासादप्युपयोगातिशयादत्र व्यधिकरणसमास उपपन्न इत्यभिप्रायेणाह स्थिरे आत्मनीति।असम्मूढः इत्यत्र समित्युपसर्ग एकीकारपरः एवंविधस्थिरबुद्धित्वासम्मूढत्वयोर्हेत्वाकाङ्क्षां दर्शयति तच्च कथमिति। स्थिरबुद्धित्वासम्मूढत्वे द्वे अपि सङ्कलय्य तदिति परामृश्यते।ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः इति शब्दाभ्यां सिद्धमवान्तरदशाविशेषं विशदयति उपदेशेनेत्यादिना। सन्नित्यनेनोपदेशजनितज्ञानमनूद्य विशिष्टं विज्ञानं विधीयते इति सूचितम्। उक्तमेवार्थं समदर्शित्वरूपज्ञानविपाकाभिलाषिणां अव्याकुलानुष्ठानपूर्वक्रमप्रदर्शनार्थं श्लोकस्थपदानां हेतुकार्यभावेन महावाक्यान्वयं दर्शयति एतदुक्तमिति। बाह्यकुदृष्ट्युपदेशनिवृत्त्यर्थम्तत्त्वविदामित्युक्तम्।भूत्वेत्येतदप्यनुवादत्वसूचनार्थम्।
।।5.20।।तस्य च इत्थं संभावना इत्याह न प्रहृष्येदिति। एतस्य समदर्शिनः शत्रुमित्रादिविभागोऽपि व्यवहारमात्र एव नान्तः ब्रह्मनिष्ठत्वात्।
।।5.20।।अत्र कश्चिदाध्यायपरिसमाप्तेः ज्ञानिनः कर्माभावः प्रतिपाद्यत इत्याह अपरस्तु ज्ञानस्वरूपं तत्सहकारिसाधनं च प्रतिपाद्यत इति। तदुभयमसत्। अप्रतीतेरिति भावेनाध्यायशेषप्रतिपाद्यमाह सन्न्यासेति। मिलित्वा मेलयित्वा शङ्कानुसारेणैव न तु प्रकरणभेदेनेत्यर्थः। पुनरुक्तिपरिहारार्थं प्रपञ्चयतीत्युक्तम्। सन्न्यासस्यादौ ग्रहणेनन प्रहृष्येत् इति सन्न्यासप्रपञ्चनमिति सूचितम्।
।।5.20।।यस्मान्निर्दोषं समं ब्रह्म तस्मात्तद्रूपमात्मानं साक्षात्कुर्वन् दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः इत्यत्र व्याख्यातं पूर्वार्धम्। जीवन्मुक्तानां स्वाभाविकं चरितमेव मुमुक्षुभिः प्रयत्नपूर्वकमनुष्ठेयमिति वदितुं लिङ्प्रत्ययौ। अद्वितीयात्मदर्शनशीलस्य व्यतिरिक्तप्रियाप्रियप्राप्त्ययोगान्न तन्निमित्तौः हर्षविषादावित्यर्थः। अद्वितीयात्मदर्शनमेव विवृणोति स्थिरबुद्धिः स्थिरा निश्चला संन्यासपूर्वकवेदान्तवाक्यविचारपरिपाकेन सर्वसंशयशून्यत्वेन निर्विचिकित्सा निश्चिता ब्रह्मणि बुद्धिर्यस्य स तथा। लब्धश्रवणमननफल इति यावत्। एतादृशस्य सर्वासंभावनाशून्यत्वेऽपि विपरीतभावनाप्रतिबन्धात्साक्षात्कारो नोदेतीति निदिध्यासनमाह असंमूढः निदिध्यासनस्य विजातीयप्रत्ययानन्तरितसजातीयप्रत्ययप्रवाहस्य परिपाकेन विपरीतभावनाख्यसंमोहरहितः ततः सर्वप्रतिबन्धापगमाद्ब्रह्मविद्ब्रह्मसाक्षात्कारवान् ततश्च समाधिपरिपाकेन निर्दोषे समे ब्रह्मण्येव स्थितो नान्यत्रेति ब्रह्मणि स्थितो जीवन्मुक्तः स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः। एतादृशस्य द्वैतदर्शनाभावात्प्रहर्षोद्वेगो न भवत इत्युचितमेव। साधकेन तु द्वैतदर्शने विद्यमानेऽपि विषयदोषदर्शनादिना प्रहर्षविषादौ त्याज्यावित्यभिप्रायः।
।।5.20।।एवं साम्यस्थितस्य ब्रह्मभावापत्तिमुक्त्वा तद्भावापन्नस्य लक्षणमाह न प्रहृष्येदिति। प्रियं प्राप्य संयोगेन न प्रहृष्येत्। यतः प्रकृष्टहर्षेणाग्रे मानोत्पत्त्या दोषः स्यात्। च पुनः अप्रियं विप्रयोगं प्राप्य नोद्विजेदुद्वेगं न प्राप्नुयात् यतो भगवता विप्रयोगः परमसुखदानार्थं दत्तस्तत्रोद्वेगेऽग्रे न तत्प्राप्तिः स्यात्। एवमवस्थाद्वये स्थिरबुद्धिः स असम्मूढः ब्रह्मवित् मोहाभावेन ब्रह्मस्वरूपज्ञ इति भावः। ब्रह्मणि ब्रह्मभावे स्थितः स इत्यर्थः।
।।5.20।। न प्रहृष्येत् प्रहर्षं न कुर्यात् प्रियम् इष्टं प्राप्य लब्ध्वा। न उद्विजेत् प्राप्य च अप्रियम् अनिष्टं लब्ध्वा। देहमात्रात्मदर्शिनां हि प्रियाप्रियप्राप्ती हर्षविषादौ कुर्वाते न केवलात्मदर्शिनः तस्य प्रियाप्रियप्राप्त्यसंभवात्। किञ्च सर्वभूतेषु एकः समः निर्दोषः आत्मा इति स्थिरा निर्विचिकित्सा बुद्धिः यस्य सः स्थिरबुद्धिः असंमूढः संमोहवर्जितश्च स्यात् यथोक्तब्रह्मवित् ब्रह्मणि स्थितः अकर्मकृत् सर्वकर्मसंन्यासी इत्यर्थःकिञ्च ब्रह्मणि स्थितः
।।5.20 5.21।।तादृशस्य परमानन्दावाप्तिगमकं लक्षणमाह द्वाभ्यां न प्रहृष्येदिति। यतः स्थिरबुद्धिः सम्मोहस्यासुरत्वात्तद्रहितश्च बाह्यविषयेष्वसक्तात्मा स योगी यदात्मनि सुखं सात्विकं विन्दति स एवोपशमसुखी ब्रह्मणि योगेन युक्तस्तदैक्यं प्राप्त आत्मा यस्य तथाभूतः सन्नक्षयं ब्रह्मसुखमनुभवतीत्यर्थः।