BG - 5.23

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।5.23।।

śhaknotīhaiva yaḥ soḍhuṁ prāk śharīra-vimokṣhaṇāt kāma-krodhodbhavaṁ vegaṁ sa yuktaḥ sa sukhī naraḥ

  • śhaknoti - is able
  • iha eva - in the present body
  • yaḥ - who
  • soḍhum - to withstand
  • prāk - before
  • śharīra - the body
  • vimokṣhaṇāt - giving up
  • kāma - desire
  • krodha - anger
  • udbhavam - generated from
  • vegam - forces
  • saḥ - that person
  • yuktaḥ - yogi
  • saḥ - that person
  • sukhī - happy
  • naraḥ - person

Translation

He who is able, while still here in this world, to withstand the impulse born out of desire and anger before the liberation from the body, he is a Yogi, and he is a happy man.

Commentary

By - Swami Sivananda

5.23 शक्नोति is able? इह here (in this world)? एव even? यः who? सोढुम् to withstand? प्राक् before? शरीरविमोक्षणात् liberation from the body? कामक्रोधोद्भवम् born out of desire and anger? वेगम् the impulse? सः he? युक्तः united? सः he? सुखी happy? नरः man.Commentary Yukta means harmonised or steadfast in Yoga or selfabiding.Desire and anger are powerful enemies of peace. It is very difficult to annihilate them. You will have to make very strong efforts to destroy these enemies.When the word Kama (desire) is used in a general sense it includes all sorts of desires. It means lust in a special sense.While still here means while yet living. The impulse of desire is the agitation of the mind which is indicated by hairs standing on end and cheerful face. The impulse of anger is agitation of the mind which is indicated by fiery eyes? perspiration? biting of the lips and trembling of the body. In this verse you will clearly understand that he who has controlled desire and anger is the most happy man in this world? nor he who has immense wealth? a beautiful wife and beautiful children. Therefore you must try your level best to eradicate desire and anger? the dreadful enemies of eternal bliss.Kama (desire) is longing for a pleasant and agreeable object which gives pleasure and which is seen? heard of? or remembered. Anger is aversion towards an unpleasant and disagreeable object which gives pain and which is seen? heard or? or remembered.A Yogi controls the impulse born of desire and anger? destroyes the currents of likes and dislikes,and attains to eanimity of the mind? by resting in the innermost Self? and so he is very happy.(Cf.VI.18)

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

 5.23।। व्याख्या--'शक्नोतीहैव यः ৷৷. कामक्रोधोद्भवं वेगम्'--प्राणिमात्रको एक अलौकिक विवेक प्राप्त है। यह विवेक पशु-पक्षी आदि योनियोंमें प्रसुप्त रहता है। उनमें केवल अपनी-अपनी योनिके अनुसार शरीर-निर्वाहमात्रका विवेक रहता है। देव आदि योनियोंमें यह विवेक ढका रहता है; क्योंकि वे योनियाँ भोगोंके लिये मिलती हैं; अतः उनमें भोगोंकी बहुलता तथा भोगोंका उद्देश्य रहता है। मनुष्ययोनिमें भी भोगी और संग्रही मनुष्यका विवेक ढका रहता है। ढके रहनेपर भी यह विवेक मनुष्यको समय-समयपर भोग और संग्रहमें दुःख एवं दोषका दर्शन कराता रहता है। परन्तु इसे महत्त्व न देनेके कारण मनुष्य भोग और संग्रहमें फँसा रहता है। अतः मनुष्यको चाहिये कि वह इस विवेकको महत्त्व देकर इसे स्थायी बना ले। इसकी उसे पूर्ण स्वतन्त्रता है। विवेकको स्थायी बनाकर वह राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारोंको सर्वथा समाप्त कर सकता है। इसलिये भगवान् 'इह' पदसे मनुष्यको सावधान करते हैं कि अभी उसे ऐसा दुर्लभ अवसर प्राप्त है, जिसमें वह काम-क्रोधपर विजय प्राप्त करके सदाके लिये सुखी हो सकता है।मनुष्य-शरीर मुक्त होनेके लिये ही मिला है। इसलिये मनुष्यमात्र काम-क्रोधका वेग सहन करनेमें योग्य, अधिकारी और समर्थ है। इसमें किसी वर्ण, आश्रम आदिकी उपेक्षा भी नहीं है।मृत्युका कुछ पता नहीं कि कब आ जाय; अतः सबसे पहले काम-क्रोधके वेगको सहन कर लेना चाहिये। काम-क्रोधके वशीभूत नहीं होना है--यह सावधानी जीवनभर रखनी है। यह कार्य मनुष्य स्वयं ही कर सकता है, कोई दूसरा नहीं। इस कार्यको करनेका अवसर मनुष्य-शरीरमें ही है, दूसरे शरीरोंमें नहीं। इसलिये शरीर छूटनेसे पहले-पहले ही यह कार्य जरूर कर लेना चाहिये--यही भाव इन पदोंमें है।उपर्युक्त पदोंसे एक भाव यह भी लिया जा सकता है कि काम-क्रोधके वशीभूत होकर शरीर क्रिया करने लगे--ऐसी स्थितिसे पहले ही उनके वेगको सह लेना चाहिये। कारण कि काम-क्रोधके अनुसार क्रिया आरम्भ होनेके बाद शरीर और वृत्तियाँ अपने वशमें नहीं रहतीं।भोगोंको पानेकी इच्छासे पहले उनका संकल्प होता है। वह संकल्प होते ही सावधान हो जाना चाहिये कि मैं तो साधक हूँ, मुझे भोगोंमें नहीं फँसना है; क्योंकि यह साधकका काम नहीं है। इस तरह संकल्प उत्पन्न होते ही उसका त्याग कर देना चाहिये।पदार्थोंके प्रति राग (काम) रहनेके कारण 'अमुक पदार्थ सुन्दर और सुखप्रद हैं' आदि संकल्प उत्पन्न होते हैं। संकल्प उत्पन्न होनेके बाद उन पदार्थोंको प्राप्त करनेकी कामना उत्पन्न हो जाती है, और उनकी प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंके प्रति क्रोध उत्पन्न होता है। काम-क्रोधके वेगको सहन करनेका तात्पर्य है--काम-क्रोधके वेगको उत्पन्न ही न होने देना। काम-क्रोधका संकल्प उत्पन्न होनेके बाद वेग आता है और वेग आनेके बाद काम-क्रोधको रोकना कठिन हो जाता है, इसलिये काम-क्रोधके संकल्पको उत्पन्न न होने देनेमें ही उपर्युक्त पदोंका भाव प्रतीत होता है। कारण यह है कि काम-क्रोधका संकल्प उत्पन्न होनेपर अन्तःकरणमें अशान्ति, उत्तेजना, संघर्ष आदि होने लग जाते हैं, जिनके रहते हुए मनुष्य सुखी नहीं कहा जा सकता। परन्तु इसी श्लोकमें 'स सुखी' पदोंसे काम-क्रोधका वेग सहनेवाले मनुष्यको 'सुखी' बताया गया है। दूसरी बात यह है कि काम-क्रोधके वेगको मनुष्य अपनेसे शक्तिशाली पुरुषके सामने भयसे भी रोक सकता है अथवा व्यापारमें आमदनी होती देखकर लोभसे भी रोक सकता है। परन्तु इस प्रकार भय और लोभके कारण काम-क्रोधका वेग सहनेसे वह सुखी नहीं हो जाता; क्योंकि वह जैसे क्रोधमें फँसा था, ऐसे ही भय और लोभमें फँस गया। तीसरी बात यह है कि इस श्लोकमें 'युक्तः' पदसे काम-क्रोधका वेग सहनेवाले व्यक्तिको योगी कहा गया है; परन्तु संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं होता (गीता 6। 2)। इसलिये काम-क्रोधके वेगको रोकना अच्छा होते हुए भी साधकके लिये इनके संकल्पको उत्पन्न न होने देना ही उचित है। काम-क्रोधके संकल्पको रोकनेका उपाय है अपनेमें काम-क्रोधको न मानना। कारण कि हम (स्वयं) रहनेवाले हैं और काम-क्रोध आने-जानेवाले हैं। इसलिये वे हमारे साथ रहनेवाले नहीं हैं। दूसरी बात, हम काम-क्रोधको अपनेसे अलगरूपसे भी जानते हैं। जिस वस्तुको हम अलगरूपसे जानते हैं, वह वस्तु अपनेमें नहीं होती। तीसरी बात, काम-क्रोधसे रहित हुआ जा सकता है--'कामक्रोधवियुक्तानाम्'(गीता 5। 26) 'एतैर्विमुक्तः' (गीता 16। 22)। इनसे रहित वही हो सकता है, जो वास्तवमें पहलेसे ही इनसे रहित होता है। चौथी बात, भगवान्ने काम-क्रोधको (जो राग-द्वेषके ही स्थूलरूप हैं) क्षेत्र अर्थात् प्रकृतिके विकार बताया है (गीता 13। 6)। अतः ये प्रकृतिमें ही होते हैं, अपनेमें नहीं; क्योंकि स्वरूप निर्विकार है। इससे सिद्ध होता है कि काम-क्रोध अपनेमें नहीं हैं। इनको अपनेमें मानना मानो इनको निमन्त्रण देना है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।5.23।। भगवान् स्वयं अनुभव करते हैं कि उनके द्वारा ज्ञानी पुरुष का कुछ अत्यधिक उत्साह से किया हुआ वर्णन साधकों को असम्भव सा प्रतीत हो सकता है। कारण यह है कि मनुष्य़ का वर्तमान जीवन इतना अधिक दुखपूर्ण और परावलम्बी है कि साधारण मनुष्य पूर्ण आनन्द के जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। यदि कोई दर्शन ऐसा आदर्शवादी है जिसका हमारे व्यवहारिक जगत् से कोई सम्बन्ध ही न हो तो वह केवल एक मनोरंजक कल्पना तो हो सकता है परन्तु मनुष्य को श्रेष्ठतर बनाने की सार्मथ्य उसमें नहीं होगी।ऐसी त्रुटिपूर्ण धारणा को दूर करने के लिये श्रीकृष्ण सभी साधकों को यह कह कर आश्वस्त करते हैं कि आवश्यक प्रयत्नों के द्वारा इस आनन्दपूर्ण जीवन को इसी लोक में रहकर जिया जा सकता है।मेरे पितामह एक महान् वीणा वादक थे। आज तक उनकी वीणा घर में सुरक्षित रखी है। संगीत से मेरा भी प्रारम्भिक परिचय होने के कारण एक दिन अचानक मेरे मन में विचार आया कि क्यों न पितामह की वीणा का उपयोग कर रातोंरात महान् संगीतज्ञ बना जाय यह विचार करके यदि उस वीणा को मैं उसी स्थिति में बजाने का प्रयत्न करूँ तो उसमें से शुद्ध संगीत नहीं सुनाई पड़ सकता और हो सकता है कि उसके साथ अधिक खिलवाड़ करने से वह टूट ही जाय। उस वाद्य का उपयोग करने से पूर्व आवश्यकता है उसे स्वच्छ करने की उसके तार बदलने की और उसे स्वर में मिलाने की। इन सबके सुव्यवस्थित होने पर उसी वीणा पर मधुर संगीत सुना जा सकता है। ठीक इसी प्रकार अनादि काल से उपेक्षित हमारा अन्तकरण इस योग्य नहीं रहा है कि पूर्णत्व के गान को वह गा सके। अब हमको चाहिये कि साधनाभ्यास से उसे शुद्ध और सुव्यवस्थित करें जिससे उसमें पूर्ण आनन्द की अनुभूति हो और वह आनन्द उसके माध्यम से व्यक्त हो सके।अन्तकरण को पुर्नव्यवस्थित करने की विधि का वर्णन यहाँ भगवान् संक्षेप में किन्तु सुन्दर ढंग से कर रहे हैं। कभीकभी उनके कथन की संक्षिप्तता और सरलता ही उनके गम्भीर अभिप्राय को समझने में बाधक सी बन जाती है। उनके उपदेश में सरलता का आभास होता है परन्तु अर्थ गाम्भीर्य रहता है। काम और क्रोध के वेग को सहन करो और फिर वह व्यक्ति इसी जगत् और जीवन में योगी और सुखी है।सिगमण्ड फ्रायड के आधुनिक विद्यार्थियों तथा अन्य पुरुषों को भगवान् का कथन अवैज्ञानिक और रुक्ष उत्साह का प्रतीक प्रतीत हो सकता है। इसका कारण केवल यही है कि मानव व्यवहार तथा मनोविज्ञान की सतही बातों से उनके मन में अनेक धारणाएँ बन चुकी होती हैं पूर्वाग्रह दृढ़ हो गये होते हैं। परन्तु उक्त विचार की सम्यक् समीक्षा करने पर हम देखेंगे कि उसमें जीवन को सुखपूर्ण बनाने के लिए अत्यन्त उपयोगी सुझाव दिये गये हैं।बुद्धिरूपी पर्वत शृंग से नीचे की ओर तीव्रगति से सरकती हुई विचारों की हिमराशि का नाम है कामना जो हृदय रूपी घाटियों से गुजरती हुई बाह्य जगत् में स्थित प्रिय विषय की ओर अग्रसर होती है। जब विचाररूपी हिमराशि के फिसलन मार्ग पर शक्तिशाली अवरोधक लगा दिया जाता है तब उस अवरोधक तक शीघ्र ही पहुँचकर छिन्नभिन्न होकर वह आत्मविनाश का रूप धारण करती है जिसे कहते हैं क्रोध। काम और क्रोध यही दो वृत्तियां है जो साधारणत हमारे मन में अत्यन्त विक्षेप या क्षोभ उत्पन्न करती हैं। कामना की तीव्रता जितनी अधिक होती है उसमें विघ्न आने पर क्रोध का रूप भी उतना भयंकर होता है।मनुष्य विषयों की कामना केवल सुखप्राप्ति के लिये ही करता है। जिस व्यक्ति ने यह समझ लिया कि विषयों में सुख नहीं होता और आनन्द तो स्वयं का आत्मस्वरूप ही है वह व्यक्ति इन उपभोगों से विरक्त होकर स्वरूप में स्थित होने का प्रयत्न करेगा। ऐसे व्यक्ति के मन में विषयों की कामनाएँ नहीं होंगी और स्वाभाविक है कि उनके अभाव में क्रोध उत्पन्न होने के लिए कारण ही नहीं रह जायेगा। जिसने इन दो शक्तिशाली एवं दुर्जेय वृत्तियों को अपने वश में कर लिया है वही एक पुरुष इस जगत् के प्रलोभनों में स्वतन्त्ररूप से अप्रभावित रह सकता है। वही वास्तव में सुखी पुरुष है।अर्जुन के माध्यम से भगवान् का हम सबके लिये यही उपदेश है कि हमें काम और क्रोध को जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। उनका आश्वासन है कि इन पर विजय प्राप्त करने पर हम इसी जगत् और जीवन में परमानन्द का अनुभव कर सकते हैं।किन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ब्रह्म में स्थित होता है भगवान् कहते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।5.23।।उत्तरश्लोकस्य तात्पर्यमाह अयं चेति। श्रेयोमार्गप्रतिपक्षत्वं कष्टतमत्वे हेतुस्तत्रैव हेत्वन्तरमाह सर्वेति। प्रयत्नाधिक्यस्य कर्तव्यत्वे हेतुं सूचयति दुर्निवार्य इति। प्रसिद्धं हि कामक्रोधोद्भवस्य वेगस्य दुर्निवारत्वं येन मातरमपि चाधिरोहति पितरमपि हन्ति तमवश्यं परिहर्तव्यं दर्शयति शक्नोतीति। यथोक्तं वेगं बहिरनर्थरूपेण परिणामात्प्रागेव देहान्तरुत्पन्नं यः सोढुं क्षमते तं स्तौति स युक्त इति। मरणसीमाकरणस्य तात्पर्यमाह मरणेति। प्रसिद्धौ हिशब्दः। तत्र हेतुमाह अनन्तेति। व्याध्युपहतानां वृद्धानां च कामादिवेगो न भवतीत्याशङ्क्याह यावदिति। कामक्रोधोद्भवं वेगं व्याख्यातुमादौ कामं मनोविकारविशेषत्वेन व्याचष्टे काम इति। कथमस्य मनोविकारविशेषत्वं तदाह इन्द्रियेति। कामो गर्धिस्तृष्णेति पर्यायाः सन्तः शब्दा मनोविकारविशेषे पर्यवस्यन्तीत्यर्थः। क्रोधश्च मनोविकारविशेषस्तद्वदित्याह क्रोधश्चेति। तमेव क्रोधं स्पष्टयति आत्मन इति। एवं कामक्रोधौ व्याख्याय तयोरुत्कटत्वावस्थात्मनो वेगस्य ताभ्यामुत्पत्तिमुपन्यस्यति ताविति। यथोक्तवेगावगमोपायमुपदिशति रोमाञ्चनहृष्टनेत्रेत्यादिना। उभयविधवेगं यो जीवन्नेव सोढुं शक्नोति तं पुरुषधौरेयत्वेन स्तौति तमित्यादिना।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।5.23।।अयं च श्रयोमार्गप्रतिपक्षी कष्टतमो दोषः सर्वानर्थप्राप्तिहेतुः दुर्निवार्यश्चेति तत्परिहारे यत्नाधिक्यविधानायाह शक्नोतीति। यः इहैव जीवन्नेव इन्द्रियगोचरे प्राप्ते इष्टे विषये श्रुयमाणे स्मर्यमाणे वा सुखहेतौ या तृष्णा स कामः। क्रोधश्चैवंभूतेऽनिष्टे विषये द्वेषः। तौ कामक्रोधावुद्भवो यस्य स रोमाञ्चनहृष्टनेत्रवदनलिङ्गोऽन्तःकरणप्रक्षोभरुपः कामोद्भवो वेगः। गात्रप्रकम्पप्रस्वेदसंदष्टौष्ठपुटरक्तनेत्रवक्ततादिलिङग चित्तप्रक्षोभरुपः क्रोधोद्भवो वेगः। तं कामक्रोधोद्भवं शरीरविमोक्षणात्प्रागामरणात् सोढुं प्रसहितुं शक्नोति। मरणसीमाकरणं तु निमित्तानामनन्तत्वात् कामक्रोधोद्भवस्य वेगस्य जीवतोऽवश्यंभावित्वात् यावन्मरणं न विश्वसनीय इति कथनार्थं यः सोढुं श्कनोति स युक्तो योगी सुखी चेह लोके नरः स एव नर इति सूचनार्थ नरपदम्। यत्तु परे मरणादूर्ध्वंविलपन्तीभिर्युवतिभिरालिङ्ग्यमानोऽपि पुत्रादिभिर्दह्यमानोऽपि यथा प्राणाशून्यः कामक्रोधवेगं सहते तथा मरणात्प्राक् जीवन्नेव यः सहते स एव युक्तः सुखी चेत्यर्थः। तदुक्तं वसिष्ठेनप्राणे गते यथा देहः सुखं दुःखं न विन्दति। तथा चेत्प्राणायुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत् इति तन्मन्दम्। प्राणशून्ये कामक्रोधोद्भववेगस्याभावादत्र तद्दृष्टान्तीकरणस्यानुचितत्वात्।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।5.23।।तत्परित्यागं प्रशंसति शक्नोतीति। कामक्रोधोद्भवं वेगं सोढुं शक्नोति। शरीरविमोक्षणात्प्राक्। यथा मनुष्यशरीरे सोढुं सुशकः तथा नान्यत्रेति भावः। ब्रह्मलोकादिस्तु जितकामानामेव भवति।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।5.23।।कः पुनर्मुख्यः सुखीत्याह शक्नोतीति। इहैव जीवत्येव देहे प्राक्शरीरविमोक्षणाद्यावद्देहपातं मया कामक्रोधौ जिताविति विस्रम्भो न कर्तव्य इत्यर्थः। श्रुते दृष्टेऽनुमिते वा विषये यो गर्धस्तृष्णारूपोऽतृप्तिश्च स कामः क्रोधस्तादृशे एव विषये द्वेषस्तौ कामक्रोधावुद्भवो यस्य वेगस्य स रोमाञ्चहृष्टनेत्रवक्त्रलिङ्गोऽन्तःकरणप्रक्षोभरूपः कामोद्भवो वेगः। गात्रप्रकम्पप्रस्वेदसंदष्टौष्ठपुटरक्तनेत्रादिलिङ्गः क्रोधोद्भवो वेगस्तं कामक्रोधोद्भवं वेगं सोढुं यः शक्नोति स एव युक्तो योगी मुख्यः सुखी च नान्यः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।5.23।।शरीरविमोक्षणात् प्राग् इह एव साधनानुष्ठानदशायाम् एव आत्मानुभवप्रीत्या कामक्रोधोद्भवं वेगं सोढुं निरोद्धुं यः शक्नोति स युक्तः आत्मानुभवाय अर्हः। शरीरमोक्षणोत्तरकालम् आत्मानुभवसुखः संपत्स्यते।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।5.23।।तस्मान्मोक्ष एव परः पुरुषार्थस्तस्य च कामक्रोधवेगोऽतिप्रतिपक्षोऽतस्तत्सहनसमर्थ एव मोक्षभागित्याह शक्नोतीति। कामात्क्रोधाच्चोद्भवति यो वेगो मनोनेत्रादिक्षोभलक्षणस्तमिहैव तदुद्भवसमय एव यो नरः सोढुं प्रतिरोद्धुं शक्नोति। तदपि न क्षणमात्रं किंतु शरीरविमोक्षणात्प्राक्। यावद्देहपातमित्यर्थः। य एवंभूतः स एव मुक्तः समाहितः सुखी च भवति नान्यः। यद्वा मरणादूर्ध्वं विलपन्तीभिर्युवतीभिरालिङ्ग्यमानोऽपि पुत्रादिभिर्दह्यमानोऽपि यथा प्राणशून्यः कामक्रोधवेगं सहते तथा मरणात्प्रागपि जीवन्नेव यः सहेत स एव युक्तः सुखी चेत्यर्थः। तदुक्तं वसिष्ठेन प्राणे गते यथा देहः सुखं दुःखं न विन्दति। तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत्।। इति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।5.23।।एवं बाह्यस्पर्शेष्वसक्तस्यात्मनि सुखं विन्दतः प्राकृतभोगेषु दोषदर्शिनः स्वरसवाहिनीं दशामनुवदंस्तथाभूतस्यात्मसाक्षात्कारे तदधीनसुखे च योग्यतामाह शक्नोति इति। आशरीरपातात्कामक्रोधौ दुर्जयावित्यभिप्रायेणाह शरीरविमोक्षणात्प्रागिति। साक्षात्कारदशायां कामक्रोधप्रसङ्गो न विद्यत इति तत्प्रसङ्गनिवारणदशाज्ञापनायइहैव इत्यनेन साधनानुष्ठानदशोच्यते।विन्दत्यात्मनि यः सुखम् 5।21 इति पूर्वोक्तहेतुं स्मारयतिआत्मानुभवप्रीत्येति। वेगोऽत्र मनोवाक्कायानामतित्वरिता प्रवृत्तिः। तत्रानुचितविषयाभिध्याननीचचाटुनरपतिशुद्धान्तप्रवेशादयः कामजा वेगाः। परहिंसाद्युपायचिन्तनपरुषभाषणप्रहारादयः क्रोधजा वेगाः।सोढुम् इत्यस्य तितिक्षार्थत्वव्युदासायोक्तंनिरोद्धुमिति।शक्नोति शक्तः सन्नुत्सहत इत्यर्थः। युक्तशब्दोऽत्र समाधिलाभपर इत्याह आत्मानुभवायार्ह इति।प्राक्शरीरविमोक्षणात् इत्यस्य शरीरानन्तरमेव फलप्राप्तौ तात्पर्यम् अन्यथा तद्वचनस्य निष्फलत्वप्रसङ्गादित्यभिप्रायेणस एव शरीरविमोक्षौत्तरकालमित्युक्तम्।सुखमक्षयमश्नुते 2।21 इत्याद्युक्तफलभूतभविष्यत्सुखयोगोऽत्रापिस सुखी इति व्यपदिश्यत इत्यभिप्रायेणाह आत्मानुभवैकसुखः सम्पत्स्यत इति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।5.23।।शक्नोतीति। न चैतद्दुःशकम् शरीरान्तकालं यावत् क्रोधकामजो वेगः क्षणमात्रं यदि सह्यते तदा आत्यन्तिकी सुखप्राप्तिः।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।5.23।।उत्तरश्लोकमप्यन्तर्भावयितुमाह तदिति। कामभोगपरित्यागं सन्न्यासार्थमिति वर्तते। इहैव शरीरविमोक्षणात् प्रागिति प्रशंसायामनुपयुक्तमिति भावेन तद्विहायान्यद्योजयति कामेति। वेगं मनसोऽनवस्थानम्। एवं तर्हिइहैव शरीरविमोक्षणात् प्राक् इति किमर्थमुक्तं इत्यतस्तदनूद्य तात्पर्य माह शरीरेति। इहैवेत्यनुवादे ग्राह्यं अस्मिन्नेव लोक इति। अत एवोक्तं मनुष्यशरीर इति। अतोऽत्रैव तत्सहनाय प्रयतितव्यमित्यभिप्रायशेषः। ननु ब्रह्मलोकादौ तत्सहनमत्यन्तसुशकम् तत्कथमेवमुच्यते इत्यत आह ब्रह्मेति। तथा चान्योन्याश्रय इति भावः। अन्यत्रेति पश्वादिशरीरं व्युदस्तमिति हृदयम्। एतेनात्र वाक्यभेदः कार्य इति सूचितम्। शरीरविमोक्षणपर्यन्तं न सकृदिति कश्चित्। तदसत् तथा सत्याशरीरविमोक्षणादिति स्यात्। इहैवेति च व्यर्थम्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।5.23।।सर्वानर्थप्राप्तिहेतुर्दुर्निवारोऽयं श्रेयोमार्गप्रतिपक्षः कष्टतमो दोषो महता यत्नेन मुमुक्षुणा निवारणीय इति यत्नाधिक्यविधानाय पुनराह आत्मोऽनुकूलेषु सुखहेतुषु दृश्यमानेषु श्रूयमाणेषु स्मर्यमाणेषु वा तद्गुणानुसंधानाभ्यासेन यो रत्यात्मको गर्धोऽभिलाषस्तृष्णा लोभः स कामः। स्त्रीपुंसयोः परस्परव्यतिकराभिलाषे त्वत्यन्तनिरूढः कामशब्दः। एतदभिप्रायेणकामः क्रोधस्तथा लोभः इत्यत्र धनतृष्णा लोभः स्त्रीपुंसव्यतिकरस्तृष्णा कामः इति कामलोभौ पृथगुक्तौ। इह तु तृष्णासामान्याभिप्रायेण कामशब्दः प्रयुक्त इति लोभः पृथङ्नोक्तः। एवमात्मनः प्रतिकूलेषु दुःखहेतुषु दृश्यमानेषु श्रूयमाणेषु स्मर्यमाणेषु वा तत्तद्दोषानुसंधानाभ्यासेन यः प्रज्वलनात्मको द्वेषो मन्युः स क्रोधः। तयोरुत्कटावस्था लोकवेदविरोधप्रतिसंधानप्रतिबन्धकतया लोकवेदविरुद्धप्रवृत्त्युन्मुखत्वरूपा नदीवेगसाम्येन वेग इत्युच्यते। यथा हि नद्या वेगो वर्षास्वतिप्रबलतया लोकवेदविरोधप्रतिसंधानेनानिच्छन्तमपि गर्ते पातयित्वा मज्जयति चाधो नयति च तथा कामक्रोधयोरपि वेगो विषयाभिध्यानाभ्यासेन वर्षाकालस्थानीयेनातिप्रबलो लोकवेदविरोधप्रतिसंधानेनानिच्छन्तमपि विषयगर्ते पातयित्वा मज्जयति चाधो महानरकान्नयति चेति वेगपदप्रयोगेण सूचितम्। एतच्चाथ केन प्रयुक्तोऽयमित्यत्र विवृतम्। तमेतादृशं कामक्रोधोद्भवं वेगमन्तःकरणप्रक्षोभरूपं स्तम्भस्वेदाद्यनेकबाह्यविकारलिङ्गमाशरीरविमोक्षणाच्छरीरविमोक्षणपर्यन्तमनेकनिमित्तवशात्सर्वदा संभाव्यमानत्वेनाविस्रम्भणीयमन्तरुत्पन्नमात्रमिहैव बहिरिन्द्रियव्यापाररूपाद्गर्तपतनात्प्रागेव यो यतिर्धीरस्तिमिङ्गिल इव नदीवेगं विषयदोषदर्शनाभ्यासजेन वशीकारसंज्ञकवैराग्येण सोढुं तदनुरूपकार्यसंपादनेनानर्थकं कर्तुं शक्नोति समर्थो भवति स एव युक्तो योगी स एव सुखी स एव नरः पुमान्पुरुषार्थसंपादनात् तदितरस्त्वाहारनिद्राभयमैथुनादिपशुधर्ममात्ररतत्वेन मनुष्याकारः पशुरेवेति भावः। प्राक्शरीरविमोक्षणादित्यत्रान्यद्व्याख्यानं यथामरणादूर्ध्वं विलपन्तीभिर्युवतीभिरालिङ्ग्यमानोऽपि पुत्रादिभिर्दह्यमानोऽपि प्राणशून्यत्वात्कामक्रोधवेगं सहते तथा मरणात्प्रागपि जीवन्नेव यः सहते स युक्त इत्यादि। अत्र यदि मरणवज्जीवनेऽपि कामक्रोधानुत्पत्तिमात्रं ब्रूयात्तदैतद्युज्येत। यथोक्तं वसिष्ठेनप्राणे गते यथा देहः सुखं दुःखं न विन्दति। तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत्।। इति। इह तूत्पन्नयोः कामक्रोधयोर्वेगसहने प्रस्तुते तयोरनुत्पत्तिमात्रं न दृष्टान्त इति किमतिनिर्बन्धेन।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।5.23।।तस्माल्लौकिकभोगत्याग एव तत्सम्बन्धप्रापक इत्याह शक्नोतीति। यः शरीरविमोक्षणात् प्राक् अलौकिकदेहाप्तिकालात् पूर्वं कामक्रोधोद्भवं वेगं कामोद्भवं स्वेच्छाजनितरसभावाभावजं क्रोधोद्भवमन्येषु तदिच्छापूर्तिदर्शनक्षोभजं सोढुं शक्नोति स इहैव अस्मिन्नेव शरीरे युक्तो भावात्मरूपयुक्तः स सुखी नरः मद्भक्तः स्यादित्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।5.23।। शक्नोति उत्सहते इहैव जीवन्नेव यः सोढुं प्रसहितुं प्राक् पूर्वं शरीरविमोक्षणात् आ मरणात् इत्यर्थः। मरणसीमाकरणं जीवतोऽवश्यंभावि हि कामक्रोधोद्भवो वेगः अनन्तनिमित्तवान् हि सः इति यावत् मरणं तावत् न विश्रम्भणीय इत्यर्थः। कामः इन्द्रियगोचरप्राप्ते इष्टे विषये श्रूयमाणे स्मर्यमाणे वा अनुभूते सुखहेतौ या गर्धिः तृष्णा स कामः क्रोधश्च आत्मनः प्रतिकूलेषु दुःखहेतुषु दृश्यमानेषु श्रूयमाणेषु स्मर्यमाणेषु वा यो द्वेषः सः क्रोधः तौ कामक्रोधौ उद्भवो यस्य वेगस्य सः कामक्रोधोद्भवः वेगः। रोमाञ्चनप्रहृष्टनेत्रवदनादिलिङ्गः अन्तःकरणप्रक्षोभरूपः कामोद्भवो वेगः गात्रप्रकम्पप्रस्वेदसंदष्टोष्ठपुटरक्तनेत्रादिलिङ्गः क्रोधोद्भवो वेगः तं कामक्रोधोद्भवं वेगं यः उत्सहते प्रसहते सोढुं प्रसहितुम् सः युक्तः योगी सुखी च इह लोके नरः।।कथंभूतश्च ब्रह्मणि स्थितः ब्रह्म प्राप्नोति इति आह भगवान्

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।5.23।।अतो मोक्ष एव योगिनः पुरुषार्थः तत्र सर्वप्रतिपक्षसहनेनैव तल्लाभ इत्याह शक्नोतीहेति। शरीरत्यागात्प्रागेव कामक्रोधोद्भवं वेगं यः सोढुं शक्नोति सोद्वापि न मोक्षसाधनं त्यजति स ज्ञातव्यो योगी युक्तो ब्रह्मानन्दवांश्च अन्यथा तु गत शरीरे सिद्धमेवेति न पुरुषकारः स्यात्। एवमेवोक्तं वशिष्ठेन प्राणे गते यथा देही सुखं दुःखं न विन्दति। तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रयो भवेत् इति।