BG - 5.28

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः। विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।5.28।।

yatendriya-mano-buddhir munir mokṣa-parāyaṇaḥ vigatecchā-bhaya-krodho yaḥ sadā mukta eva saḥ

  • yata - controlled
  • indriya - senses
  • manaḥ - mind
  • buddhiḥ - intelligence
  • muniḥ - the transcendentalist
  • mokṣa - liberation
  • parāyaṇaḥ - being so destined
  • vigata - discarded
  • icchā - wishes
  • bhaya - fear
  • krodhaḥ - anger
  • yaḥ - one who
  • sadā - always
  • muktaḥ - liberated
  • eva - certainly
  • saḥ - he is

Translation

With the senses, mind, and intellect ever controlled, having liberation as their supreme goal, free from desire, fear, and anger, the sage is truly liberated forever.

Commentary

By - Swami Sivananda

5.28 यतेन्द्रियमनोबुद्धिः with senses? mind and intellect (ever) controlled? मुनिः the sage? मोक्षपरायणः having liberation as his supreme goal? विगतेच्छाभयक्रोधः free from desire? fear and anger? यः who? सदा for ever? मुक्तः free? एव verily? सः he.Commentary If one is free from desire? fear and anger he enjoys perfect peace of mind. When the senses? the mind and the intellect are subjugated? the sage does constant contemplation and,attains for ever to the absolute freedom or Moksha.The mind becomes restless when the modifications of deisre? fear and anger arise in it. When one becomes desireless? the mind moves towards the Self spontaneously liberation or Moksha becomes his highest goal.Muni is one who does Manana or reflection and contemplation.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

 5.28।। व्याख्या--'स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान्'--परमात्माके सिवाय सब पदार्थ बाह्य हैं। बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़ देनेका तात्पर्य है कि मनसे बाह्य विषयोंका चिन्तन न करे।बाह्य पदार्थोंके सम्बन्धका त्याग कर्मयोगमें सेवाके द्वारा और ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा किया जाता है। यहाँ भगवान् ध्यानयोगके द्वारा बाह्य पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेदकी बात कह रहे हैं। ध्यानयोगमें एकमात्र परमात्माका ही चिन्तन होनेसे बाह्य पदार्थोंसे विमुखता हो जाती है।वास्तवमें बाह्य पदार्थ बाधक नहीं हैं। बाधक है--इनसे रागपूर्वक माना हुआ अपना सम्बन्ध। इस माने हुए सम्बन्धका त्याग करनेमें ही उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य है। 'चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः' यहाँ 'भ्रुवोः अन्तरे'--पदोंसे दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीचमें रखना अथवा दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर रखना (गीता 6। 13)--ये दोनों ही अर्थ लिये जा सकते हैं।ध्यानकालमें नेत्रोंको सर्वथा बंद रखनेसे लयदोष अर्थात् निद्रा आनेकी सम्भावना रहती है, और नेत्रोंको सर्वथा खुला रखनेसे (सामने दृश्य रहनेसे) विक्षेपदोष आनेकी सम्भावना रहती है। इन दोनों प्रकारके दोषोंको दूर करनेके लिये आधे मुँदे हुए नेत्रोंकी दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीच स्थापित करनेके लिये कहा गया है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।5.28।। सूत्रस्थानीय इन श्लोकों में भगवान् ने ध्यानयोग का संक्षेप में संकेत किया है जिसका विस्तृत वर्णन अगले अध्याय में किया गया है। संस्कृत में ब्रह्मविद्या के ग्रन्थों की यह पारम्परिक शैली है कि प्राय उनमें एक अध्याय के अन्तिम श्लोकों में आगामी अध्याय के विषय की प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है।इन श्लोकों में ज्ञानी पुरुष के अर्थपूर्ण जीवन के सभी पक्षों का वर्णन मिलता है। वेदान्त के साधक पूर्णत्व का जीवन जीने के लिए सदैव उत्सुक एवं तत्पर रहते हैं। वे उन स्वप्नद्रष्टा पुरुषों के समान नहीं होते जो किसी आदर्शवादी कल्पना में रमना पसन्द करते हैं बल्कि वे तो अत्यन्त व्यवहारकुशल उपयोगी और प्रेरणा का जीवन जीना चाहते हैं। इसलिए उन्हें अव्यावहारिक एवं आदर्शवादी तत्त्वज्ञान का कोई आकर्षण नहीं होता।पूर्णरूप से मन का समत्व कैसे प्राप्त किया जाय यह शंका सभी साधकों के मन में उठती है। श्रीकृष्ण यहाँ संक्षेप में उस साधन क्रम का वर्णन करते हैं जिसके अभ्यास से सिद्ध पुरुष के सुसंगठित व्यक्तित्व को प्राप्त किया जा सकता है। इसी का विस्तार अगले अध्याय में है।बाह्य विषयों की स्वयं में यह सार्मथ्य नहीं है कि वे किसी व्यक्ति को क्षुब्ध या लुब्ध कर सकें। विक्षेप का होना तो उनके साथ हमारे सम्बन्ध पर निर्भर करता है। समुद्रतट पर खड़े होकर उसमें उत्ताल तरंगों को देखने मात्र से कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती किन्तु समुद्र में कूद पड़ने पर तरंगों के द्वारा हमें इधरउधर फेंका जाना प्रारंभ होता है। शब्दस्पर्श रूप आदि ग्रहण करने पर विक्षेप तभी होता है जब हम अपने मन की परिवर्तनशील परिस्थितियों से तादात्म्य करते हैं। इसलिए यदि हम बाह्य विषयों को बाहर ही रख सकें तो निश्चय ही ध्यानाभ्यास के लिए आवश्यक मनशान्ति प्राप्त की जा सकती है। यहाँ विषयों को बाहर रखने का अर्थ यह नहीं कि हम अपनी इंद्रियों का उपयोग करना बंद कर दें। इसका तात्पर्य यह है कि हम विषयों का चिन्तन न करें। विचार द्वारा यह जानकर कि उनमें सुख नहीं होता उनसे विरक्त हो जायें।अनेक साधक गुरु के उपदेशों का शाब्दिक अर्थ लेकर विचित्र ध्यानाभ्यास करने लगते हैं। ध्यान के लिए वे नेत्रदृष्टि को भृकुटियों के मध्य स्थिर करने का प्रयत्न करते हैं। यह तो उपदेश का अतिप्रसंग ही कहा जायेगा। जैसा कि श्री शंकराचार्य बताते हैं यहाँ दृष्टि को मानो भृकुटियों के बीच स्थिर करना है वास्तव में नहीं। यह एक मनोवौज्ञानिक सत्य है कि भृकुटियों के बीच दृष्टि को स्थिर करने की कल्पना से 45 अंश का कोण बनता है और यह स्थिति ध्यान के लिए अत्यन्त अनुकूल होती है।हमारे श्वासोच्छ्वास की गति एवं मन की स्थिति के बीच अत्यन्त समीप का सम्बन्ध है। मन के क्षुब्ध होने पर श्वासोच्छ्वास की लय भी बिगड़कर असंयमित हो जाती है। यहाँ प्राणापान की गति को सम करने का उपदेश है क्योंकि प्राणायाम मन को शान्त करने में उपयोगी होता है।प्रथम तो शरीर तथा प्राण को सुव्ययवस्थित करने का उपदेश है और तत्पश्चात् मन और बुद्धि को। इन्द्रियों की भूख मन की चंचलता और बुद्धि की अस्थिरता इन सबको संयमित करने का एक मात्र उपाय है मोक्ष को अपने जीवन का परम लक्ष्य बनाना। लक्ष्य का निर्धारण करने पर समस्त कर्मों का उसी लक्ष्य के प्रति अर्पण करना चाहिए। बुद्धि पर संयम होने का अर्थ इच्छा भय और क्रोध से मुक्त हो जाना है।उपर्युक्त तीनों गुणों में निकट का सम्बन्ध है। किसी अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करने की तीव्र लालसा को इच्छा कहते हैं। इच्छा के तीव्र होने पर वह वस्तु प्राप्त होगी अथवा नहीं इसका भय लगा रहता है और उसके प्राप्त हो जाने पर यह भय होता है कि कहीं खो न जाय। जब व्यक्ति इस प्रकार भयभीत होता है तब स्वाभाविक है कि उसके और वस्तु प्राप्ति के बीच कोई विघ्न आ जाये तब वह व्यक्ति क्रोधित हो जाता है। अत तीनों पर विजय पाना बुद्धि की सभी वृत्तियों को अपने वश में करना है। इस प्रकार इन दो श्लोकों में वर्णित गुणों से सम्पन्न व्यक्ति भगवान् के शब्दों में सदा मुक्त ही है।इन गुणों के होने पर मुक्ति दूर नहीं रहती इसलिए भगवान् यहाँ कहते हैं कि इच्छा भय और क्रोध से रहित व्यक्ति मुक्त ही है। व्यवहार में भी रोटी पकाना इस प्रकार की शब्दावली प्रचलित है। किन्तु वास्तव में गूंथे हुए आटे को पकाया जाता हैं और न कि रोटी को। परन्तु हम उस वाक्य के अभिप्राय को समझते हैं। ठीक वैसे ही यदि साधक सब साधन सम्पन्न होकर ध्यान का अभ्यास करे तो सब मिथ्या धारणाओं से मुक्त होकर वह शीघ्र ही नित्यमुक्त आत्मा का साक्षात् अनुभव करता है।इस प्रकार समाहित चित्त के पुरुष के लिए कौन सी वस्तु ज्ञेय और ध्येय है इस सम्बन्ध में कहते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।5.28।।विषयप्रावण्यं परित्यज्य चक्षुरपि भ्रुवोर्मध्ये विक्षेपपरिहारार्थं कृत्वा प्राणापानौ च नासाभ्यन्तरचरणशीलौ समौ न्यूनाधिकवर्जितौ कुम्भकेन निरुद्धौ कृत्वा करणानि सर्वाण्येवं संयम्य प्राणायामपरो भूत्वा किं कुर्यादित्यपेक्षायामाह यतेन्द्रियेति। इन्द्रियादिसंयमं कृत्वा मोक्षमेवापेक्षमाणो मननशीलः स्यादित्यर्थः। ज्ञानातिशयनिष्ठस्य सर्वदेच्छादिशून्यस्य संन्यासिनो मुक्तेरनायाससिद्धत्वान्न तस्य किंचिदपि कर्तव्यमस्तीत्याह विगतेति। पूर्वार्धाक्षराणि व्याकरोति यतेत्यादिना। द्वितीयार्धाक्षराणि व्याचष्टे विगतेत्यादिना।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।5.28।।यतानि संयतानि इन्द्रियादीनि येन स मुनिर्मननशीलः मोक्ष एव परमयनं परा गतिर्यस्य स मोक्षपरायणो मुमुक्षुः विगता इच्छादयो यस्मात्स य एवं वर्तते स मुमुक्षुरेव न तस्य मोक्षादन्यत्कर्तव्यमस्ति स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान् मोक्षपरायण इत्यनेन वैराग्यान्मुमुक्षुरधिकारी कथितः। चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोरित्यनेनासनजयेन लयविक्षेपराहित्यमुक्तम्। प्राणेत्यादिना प्राणायामो निरुपितः। स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यानित्यनेनैवअहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः इतिसूत्रोक्ता यमाः।शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः इति सूत्रोक्ता नियमाश्च प्रदर्शिताः। यतेन्द्रिय इति प्रत्याहारः यतमना इति धारणाध्याने यतबुद्धिरिति समाधिकथितः विगतेच्छाभक्रोध इति मोक्षपरायणस्य योगिनः स्वरुपनिरुपणमिति विवेकः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।5.27 5.28।।ध्यानप्रकारमाह स्पर्शानित्यादिना। बाह्यान्स्पर्शन्वहिः कृत्वा श्रोत्रादीनि योगेन नियम्येत्यर्थः। चक्षुर्भ्रुवोरन्तरं कृत्वा भ्रुवोर्मध्यमवलोकयन्नित्यर्थः। उक्तं च नासाग्रे वा भ्रुवोर्मध्ये ध्यानी चक्षुर्निधापयेत् इति। प्राणापानौ समौ कृत्वा कुम्भके स्थितत्वेत्यर्थः।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।5.28।।यतेन्द्रियेति। यस्मिन्कस्मिंश्चित्स्थूले विषये सूर्ये तद्रश्मिषु वा विष्णुप्रतिमायां वाऽनाहतध्वनौ वान्यत्र वा चक्षुराद्यन्यतमद्वारा मनो धारयेत्। तच्च मनस्तद्विषयाकारतां प्राप्तं तत्रैव स्थिराभ्यासेन विश्रान्तं स्वदेहमपि न पश्यति सेयं महाविदेहा नाम धारणा। अस्यां सिद्धायामिन्द्रियगणः स्वंस्वं विषयं न तु गृह्णाति। सोऽयं बहिर्विषयप्रत्याहारः पूर्वोक्तस्त्वान्तर इति भेदः। अतएव तयोस्तुल्यफलत्वं सूत्रितम्ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् इति। ततः अभ्यन्तरप्रत्याहारत् तथा बहिरकल्पिता वृत्तिर्महाविदेहा तत्संयमात्प्रकाशावरणक्षय इति। यदा चित्तं देहमविस्मृत्यैव हठेन पुरःस्थितमूर्त्याद्याकारं क्रियते तदा सा चित्तस्य मूर्त्याकारतारूपा वृत्तिः कल्पिता। यदा तु निरवशेषेण देहं विस्मृत्य चेतः केवलं ध्येयाकारमात्रं भवति सदा सा महाविदेहा नाम धारणा। तस्या अपि फलं तदेव। तत्संयमात्तस्यां चेतसो निग्रहात्प्रकाशावरणक्षयो भवति सोयं बाह्यविषयः समाधिः। वितर्काख्यो द्विविधः सवितर्कनिर्वितर्कभेदात्। तत्राद्यस्य लक्षणं सूत्रितंशब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का इति। सवितर्का नाम समापत्तिः समाधिरित्यर्थः। यदा विष्णुप्रतिमादौ पूर्वापरानुसंधानेन शब्दार्थोल्लेखेन च भावना प्रवर्तते तदा सवितर्का समापत्तिः। अस्मिन्नेवालम्बने पूर्वापराननुसंधानेन शब्दार्थोल्लेखनमन्तरेण भावना प्रवर्तते तदा निर्वितर्का नाम समापत्तिः। तथा च सूत्रंस्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्ये वार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का। स्मृतेः शब्दार्थस्मरणस्य परिशुद्धौ वर्जने सति भावयितुः स्वरूपेण शून्या तदाहमिदं भावयामीत्येवमाकारा वृत्तिरपि भावयितुर्नास्तीवेति भाति। यतोऽर्थमात्रनिर्भासा ध्येयार्थमात्रमस्यां भासते नत्वन्यदिति सूत्रार्थः। अस्यां सिद्धायां योगी जितेन्द्रिय इत्युच्यते। जितमना इति आभ्यन्तरप्रत्याहारपूर्वकं यदा मनःकल्पिते सूक्ष्मे विषये पूर्ववच्छब्दार्थोल्लेखपूर्वकं तद्वर्जं च मनसो भावना प्रवर्तते तदा ते उभे समापत्ती सविचारनिर्विचाराख्ये भवतः। तथा च सूत्रंएतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता इति। अत्र सूक्ष्मविषयेति ग्रहणात्पूर्वस्यां स्थूलविषयत्वं गम्यते। एतयैव द्विविधवितर्कसमापत्त्यैव निर्विचारसमापत्तौ दृढायां योगी जितमना इत्युच्यते। यदा पुनश्चेतसो मूर्त्याकारतां परित्यज्य सत्त्वोद्रेकात्समष्टिमनोमयविषया अहमेवेदं सर्वोऽस्मीत्येवमाकारा भावनाप्रवर्तते सोऽयं सानन्दः समाधिः। यदा तु तामपि भावनां परित्यज्य विषयवेदनमन्तरेणास्मीत्येतावन्मात्राकारा भावना प्रवर्तते साऽस्मिता। अस्मिताहंकारयोर्भेदस्तु क्रमेण विषयवैमुख्यतदाभिमुख्यमात्रकृतः। यथैक एव पूर्वाभिमुखः पश्चिमाभिमुखश्चेति तद्वत्। अस्यामवस्थायां योगी बुद्धितो विविक्तस्य त्वंपदार्थस्य साक्षात्काराज्जितबुद्धिरित्युच्यते। तदेतदुक्तं यतेन्द्रियमनोबुद्धिरिति। एतान्येव प्रसाधनानि गुणपर्वाण्युच्यन्ते। तथा च सूत्रम्विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि इति। तत्र विशेषाः स्थूलभूतानि एकादशेन्द्रियाणि च। अविशेषाः पञ्चतन्मात्राणि अहंकारश्च। लिङ्गमात्रं महत्तत्वम्। अलिङ्गं प्रधानम्। तत्र विशेषादविशेषं प्रविविक्षितो योगिनो दैनंदिनलयाभ्यासात्समनस्कानीन्द्रियाणि लीयन्ते स लयः। बहिर्मुखान्येव वा भवन्ति स विक्षेपः। एवमविशेषेभ्यो लिङ्गमात्रं विविक्षतोऽपि लयविक्षेपौ स्तः। लिङ्गमात्रात्परं पुरुषं प्रविविक्षतोऽपि तौ स्तः। तावेतौ लयविक्षेपौ हेयौ श्रूयेतेलयविक्षेपरिहतं मनः कृत्वा सुनिश्चलम्। यदा यात्युन्मनीभावं तदा तत्परमं पदम्। इति। एतेषु त्रिषु लीनेष्वाद्यः सुप्त एव। द्वितीयो विगलितदेहाहंकारत्वाद्विदेहसंज्ञः। तृतीयः प्रकृतिलय इति। एतयोः समाधिर्गौणः। अतएव सूत्रितम्भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् इति। भवप्रत्ययो जन्मान्तरहेतुरेषां समाधिर्भवति। यद्वा जन्मान्तरे एतेषां जन्मनैव समाधिसिद्धिः पक्षिणामाकाशगमनसिद्धिवद्भवतीति सूत्रार्थः। सर्वथापि तेषां सद्योमुक्तिर्नास्तीति सिद्धम्। यदातु अस्मितामात्रस्यापि निर्विकल्पे चिन्मात्रे लयो भवति तदायं विद्वान्कैवल्यं धर्ममेव समाध्याख्यमनुभवति। यमधिकृत्य श्रूयतेक्षणमेकं क्रतुशतस्य चतुःसप्तत्या यत्फलं तदवाप्नोति इति। अयमेव मोक्षाख्यः परमयनं प्राप्यं स्थानं यस्य स मुनिर्मोक्षपरायण इत्युच्यते। यतोऽस्यामेवावस्थायां योगी जीवन्मुक्त इत्युच्यते। विगतेच्छाभयक्रोध इति पादः प्रागेव व्याख्यातः। य एवंभूतः स सदा मुक्तः बन्धप्रतीतिकालेऽपि स मुक्त एवास्ति। अज्ञानमात्रव्यवधानान्मुक्तेः। एतेनाहंकारादेर्बन्धस्य कालत्रयेऽप्यसत्त्वोक्त्या मिथ्यात्वं दर्शितम्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।5.28।।बाह्यान् विषयस्पर्शान् बहिः कृत्वा बाह्येन्द्रियव्यापारं सर्वम् उपसंहृत्य योगयोग्यासने ऋजुकाय उपविश्य चक्षुः भ्रुवोः अन्तरे नासाग्रे विन्यस्य नासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानौ समौ कृत्वा उच्छवासनिः श्वासौ समगति कृत्वा आत्मावलोकनाद् अन्यत्र प्रवृत्त्यनर्हेन्द्रियमनोबुद्धिः तत एव विगतेच्छाभयक्रोधो मोक्षपरायणो मोक्षैकप्रयोजनो मुनिः आत्मावलोकनशीलो यः सदा मुक्त एव साध्यदशायाम् इव साधनदशायाम् अपि मुक्त एव स इत्यर्थः।उक्तस्य नित्यनैमित्तिककर्मेति कर्तव्यताकस्य कर्मयोगस्य योगशिरस्कस्य सुशकताम् आह

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।5.28।।यत इति। अनेनोपायेन यताः संयता इन्द्रियमनोबुद्धयो यस्य मोक्ष एव परमयनं प्राप्यं यस्य अतएव विगता इच्छाभयक्रोधा यस्य य एंवभूतो मुनिः स सदा जीवन्नपि मुक्त एवेत्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।। 5.28 ज्ञानकर्मात्मिके निष्ठे योगलक्षे सुसंस्कृते। आत्मानुभूतिसिद्ध्यर्थे पूर्वषट्केन चोदिते गी.सं.2 इति सङ्ग्रहमनुसन्दधान उत्तरश्लोकानां सङ्गतिमाह उक्तं कर्मयोगमिति। स्पर्शशब्दस्यात्रानुभवपरस्यानुभाव्यार्थज्ञापनायविषयस्पर्शानित्युक्तम्। फलितमाह बाह्येन्द्रियव्यापारं सर्वमुपसंहृत्येति।उपविश्यासने 6।12 इत्यादिवक्ष्यमाणानुसन्धानेनयोगयोग्येत्याद्युक्तम्।चक्षुः इत्येकवचनं करणाकारैक्यादिति दर्शयितुंचक्षुषी इत्युक्तम्।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं 6।13 इति वक्ष्यमाणेननासाग्रन्यस्तलोचनः इत्यादिप्रकरणान्तरोक्त्या चभ्रुवोरन्तरे कृत्वा इत्यस्यैकार्थ्यमाहनासाग्र इति। नासाभ्यन्तरसञ्चारमात्रस्य स्वतस्सिद्धस्य विधेयत्वायोगात्समौ कृत्वा इत्येतदेव विधेयमिति दर्शयितुंनासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानावित्यनुवादः। अपानस्य नासाभ्यन्तरसञ्चारव्यञ्जनायउच्छ्वासनिश्श्वासावित्युक्तम्। एक एव हि वायुर्नासापुटेन निष्कामन् प्रविशंश्च प्राणोऽपान इति चोच्यते। वृत्तिस्थानादिसाम्यायोगात्तद्गतिसाम्योक्तिः। न दीर्घमुच्छ्वसन्नापि निश्श्वसन्नित्यर्थः। साक्षात्कारात्यन्ताव्यवहितपूर्वावस्थाविषयत्वाद्यतशब्दस्यप्रवृत्त्यनर्हेत्यर्थ उक्तः।स्पर्शान् कृत्वा बहिर्बाह्यान् इत्यत्र प्रवृत्तिनिवारणम्यतेन्द्रियः इत्यादौ तु तत्फलभूता प्रवृत्त्यनर्हतेत्यपुनरुक्तिरिति भावः। ज्ञानार्थधातौ निष्पन्नस्य मुनिशब्दस्य योगावस्थायां आत्मसाक्षात्काररूपज्ञानविशेषे तात्पर्यमाहआत्मावलोकनशील इति। अत्र वाचंयमत्वादप्यन्तरङ्गभूतोऽयमर्थ इति भावः। सदाशब्दाभिप्रेतं व्यनक्तिसाध्यदशायामिवेति।मुक्त एव मुक्तप्राय इत्यर्थः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।5.27 5.28।।स्पर्शानिति। यतेन्द्रियेति। बाह्यस्पर्शान् बहिः कृत्वा अनङ्गीकृत्य भ्रुवोः वामदक्षिणदृष्ट्योः क्रोधरागात्मकयोः अन्तरे तद्रहिते स्थानविशेषे चक्षुरुपलक्षितानि सर्वेन्द्रियाणि कृत्वा विधाय प्राणापानौ धर्माधर्मौ चित्तवृत्त्यभ्यन्तरे साम्येनावस्थाप्य आसीत (K omits आसीत)। नसते कौटिल्येन असाम्येन क्रोधादिवशात् व्यवहरति इति नासा चित्तवृत्तिः। एतदेव बाह्ये। एवंविधो योगी सर्वव्यवहारान्वर्तयन्नपि मुक्त एव।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।5.27 5.28।।ध्यायिनां मुक्तत्वं साक्षाच्चेत्प्रमाणविरोधः ज्ञानद्वारा चेत्पुनरुक्तिरित्यतः श्लोकद्वयतात्पर्यमाह ध्यानेति। मुक्त एव स इति स्तुतिरिति भावः। पदानां व्यवहितत्वादन्वयमाह बाह्यानिति। स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः शब्दाद्याः। स्पर्शा बाह्या एव तेषां किं बहिष्करणं इत्यत आह श्रोत्रादीनीति। योगेन प्रत्याहारेण श्रोत्रादीनामनियमे पट्वभ्यासादरप्रत्ययवशाच्छब्दाद्या आन्तरा इव भवन्ति। तन्िनयमे तु बाह्या बहिष्कृताः स्युरिति भावः। कृत्वेत्यस्यानुवृत्त्या योजयति चक्षुरिति। दुर्घटमेतदित्यत आह भ्रुवोरिति। चक्षुर्वृत्तौ चक्षुश्शब्द इत्यर्थः।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं 6।13 इति वक्ष्यमाणविरोध इत्यत आह उक्तं चेति। न्यूनाधिकभावराहित्यं समीकरणमित्यन्यथाप्रतीतिनिरासायानूद्य व्याचष्टे प्राणेति। कुम्भके प्राणायामे ततश्च समौ निर्विकारौ निश्चलावित्यर्थः। इतरत्समीकरणं कुम्भकार्थमेवेति भावः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।5.27 5.28।।पूर्वमीश्वरार्पितसर्वभावस्य कर्मयोगेनान्तःकरणशुद्धिस्ततः सर्वकर्मसंन्यासस्ततः श्रवणादिपरस्य तत्त्वज्ञानं मोक्षसाधनमुदेतीत्युक्तम् अधुनास योगी ब्रह्मनिर्वाणम् इत्यत्र सूचितं ध्यानयोगं सम्यग्दर्शनस्यान्तरङ्गसाधनं विस्तरेण वक्तुं सूत्रस्थानीयांस्त्रीञ्श्लोकानाह भगवान्। एतेषामेव वृत्तिस्थानीयः कृत्स्नः षष्ठोऽध्यायो भविष्यति। तत्रापि द्वाभ्यां संक्षेपेण योग उच्यते। तृतीयेन तु तत्फलं परमात्मज्ञानमिति विवेकः स्पर्शाञ्शब्दादीन्बाह्यान्बहिर्भवानपि श्रोत्रादिद्वारा तत्तदाकारान्तःकरणवृत्तिभिरन्तःप्रविष्टान्पुनर्बहिरेव कृत्वा परवैराग्यवशेन तत्तदाकारां वृत्तिमनुत्पाद्येत्यर्थः। यद्येते आन्तरा भवेयुस्तदोपायसहस्रेणामि बहिर्न स्युः स्वभावभङ्गप्रसङ्गात् बाह्यानां तु रागवशादन्तःप्रविष्टानां वैराग्येण बहिर्गमनं संभवतीति वदितुं बाह्यानिति विशेषणम्। तदनेन वैराग्यमुक्त्वाभ्यासमाह चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः कृत्वेत्यनुषज्यते। अत्यन्तनिमीलने हि निद्राख्या लयात्मिका वृत्तिरेका भवेत्। प्रसारणे तु प्रमाणविपर्ययविकल्पस्मृतयश्चतस्रो विक्षेपात्मिकावृत्तयो भवेयुः। पञ्चापि तु वृत्तयो निरोद्धव्या इति अर्धनिमीलनेन भ्रूमध्ये चक्षुषो निधानम्। तथा प्राणापानौ समौ तुल्यावूर्ध्वाधोगतिविच्छेदेन नासाभ्यन्तरचारिणौ कुम्भकेन कृत्वा अनेनोपायेन यताः संयता इन्द्रियमनोबुद्धयो यस्य स तथा। मोक्षपरायणः सर्वविषयविरक्तो मुनिर्मननशीलो भवेत्। विगतेच्छाभयक्रोध इति वीतरागभयक्रोध इत्यत्र व्याख्यातम्। एतादृशो यः संन्यासी सदा भवति मुक्त एव सः। नतु मोक्षः तस्य कर्तव्योऽस्ति। अथवा य एतादृशः स सदा जीवन्नपि मुक्त एव।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।। 5.28 ननु स्पर्शभावरूपा स्थितिरतिकठिना अतः स्पर्शसंयोगेऽपि या प्राप्तिः स्यात् स्पर्शजबन्धाभावे न तथा भवेदित्यभिप्रायेणाह स्पर्शानिति द्वयेन। बहिर्बाह्यान् स्पर्शान् कृत्वा बाह्याँल्लौकिकान् स्पर्शानिन्द्रियादिविषयभोगान् बहिः तेषूत्तमाद्यभावेन प्रारब्धकर्मभोगवत्। किञ्च पुनर्भ्रुवोः कालयमरूपयोरन्तरैव चक्षुः दृष्टिं कृत्वा कालयममध्ये मरणरूपोऽस्मीति दृष्ट्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानावूर्ध्वाधोगतिरूपौ संयोगविप्रयोगसुखानुभवाविव समौ कृत्वा मोक्षपरायणः विषयादित्यागपरो विगतेच्छाभयक्रोधो भूत्वा यतेन्द्रियमनोबुद्धिः सन् यः सदा मुनिर्मननशीलो भवति स स्पर्शादिभिर्मुक्त एव स्यादित्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।5.27 5.28।। स्पर्शान् शब्दादीन् कृत्वा बहिः बाह्यान् श्रोत्रादिद्वारेण अन्तः बुद्धौ प्रवेशिताः शब्दादयः विषयाः तान् अचिन्तयतः शब्दादयो बाह्या बहिरेव कृताः भवन्ति तान् एवं बहिः कृत्वा चक्षुश्चैव अन्तरे भ्रुवोः कृत्वा इति अनुषज्यते। तथा प्राणापानौ नासाभ्यन्तरचारिणौ समौ कृत्वा यतेन्द्रियमनोबुद्धिः यतानि संयतानि इन्द्रियाणि मनः बुद्धिश्च यस्य सः यतेन्द्रियमनोबुद्धिः मननात् मुनिः संन्यासी मोक्षपरायणः एवं देहसंस्थानात् मोक्षपरायणः मोक्ष एव परम् अयनं परा गतिः यस्य सः अयं मोक्षपरायणो मुनिः भवेत्। विगतेच्छाभयक्रोधः इच्छा च भयं च क्रोधश्च इच्छाभयक्रोधाः ते विगताः यस्मात् सः विगतेच्छाभयक्रोधः यः एवं वर्तते सदा संन्यासी मुक्त एव सः न तस्य मोक्षायान्यः कर्तव्योऽस्ति।।एवं समाहितचित्तेन किं विज्ञेयम् इति उच्यते भोक्तारं यज्ञतपसां यज्ञानां तपसां च कर्तृरूपेण देवतारूपेण च सर्वलोकमहेश्वरं सर्वेषां लोकानां महान्तम् ईश्वरं सुहृदं सर्वभूतानां सर्वप्राणिनां प्रत्युपकारनिरपेक्षतया उपकारिणं सर्वभूतानां हृदयेशयं सर्वकर्मफलाध्यक्षं सर्वप्रत्ययसाक्षिणं मां नारायणं ज्ञात्वा शान्तिं सर्वसंसारोपरतिम् ऋच्छति प्राप्नोति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येपञ्चमोऽध्यायः।।

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।।5.27 5.28।।स योगी ब्रह्मनिर्वाणं 5।24 इत्यादौ प्रोक्तं तमेव योगं समासेन दर्शयन्नाह द्वाभ्याम् स्पर्शानिति।ईश्वरालम्बनं योगो जनयित्वा तु तादृशम्। बहुजन्मविपाकेन भक्तिं जनयति ध्रुवम्। योगेन तु निषिद्धेन यदि देहः प्रसिद्ध्यति। तदा कल्पान्तपर्यन्तं भावनातस्तु तत्फलम्। इति निबन्धे ईश्वरालम्बनस्यैव योगस्य भक्तिजनकत्वमिति। योगेश्वरालम्बनतायाः स्वरूपमाह स्पर्शाः बाह्याः रूपरसादयो विषयाश्चिन्तितता एवान्तः प्रविशन्ति तांस्तच्चिन्तात्यागेन बहिरेव कृत्वा ज्ञानप्रधानं चक्षुश्च भ्रुवोरन्तरे कृत्वा अर्द्धोन्मीलितलोचनेन मन एकाग्रं कृत्वेत्यर्थः। तथोर्द्धाधोगतिकौ प्राणापानौ च समौ कृत्वा कुम्भयित्वा प्राणायामाभिनयेन तदाह नासाभ्यन्तरचारिणाविति। एतेनोपायेन यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्योगफलं न तत्र सिद्धिकामः स्यात् किन्तु मोक्षपरायणः मोक्षार्थं पर ईश्वरस्तदालम्बनो यः स सदा प्रपञ्च एवमुक्त एव जीवन्मुक्त इत्यर्थः।