आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।6.3।।
ārurukṣhor muner yogaṁ karma kāraṇam uchyate yogārūḍhasya tasyaiva śhamaḥ kāraṇam uchyate
For a sage who wishes to attain to Yoga, action is said to be the means; for the same sage who has attained Yoga, inaction is said to be the means.
6.3 आरुरुक्षोः wishing to climb? मुनेः of a Muni or sage? योगम् Yoga? कर्म action? कारणम् the cause? उच्यते is said? योगारूढस्य of one who has attained to Yoga? तस्य of him? एव even? शमः inaction (iescence)? कारणम् the cause? उच्यते is said.Commentary For a man who cannot practise meditation for a long time and who is not able to keep his mind steady in meditation? action is a means to get himself enthroned in Yoga. Action purifies his mind and makes the mind fit for the practice of steady meditation. Action leads to steady concentration and meditation.For the sage who is enthroned in Yoga? Sama or renunciation of actions is said to be the means.The more perfectly he abstains from actions? the more steady his mind is? and the more peaceful,he is? the more easily and thoroughly does his mind get fixed in the Self. For a Brahmana there is no wealth like unto the knowledge of oneness and homogeneity (of the Self in all beings)? truthfulness? good character? steadiness? harmlessness? straightforwardness and renunciation of all actions. (Mahabharata? Santi Parva? 175.38)
।।6.3।। व्याख्या--'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते'--जो योग-(समता-) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये (योगारूढ़ होनेमें) निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्म करना कारण है। तात्पर्य है कि करनेका वेग मिटानेमें प्राप्त कर्तव्य-कर्म करना कारण है; क्योंकि कोई भी व्यक्ति जन्मा है, पला है और जीवित है तो उसका जीवन दूसरोंकी सहायताके बिना चल ही नहीं सकता। उसके पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्तक कोई ऐसी चीज नहीं है, जो प्रकृतिकी न हो। इसलिये जबतक वह इन प्राकृत चीजोंको संसारकी सेवामें नहीं लगाता, तबतक वह योगारूढ़ नहीं हो सकता अर्थात् समतामें स्थित नहीं हो सकता; क्योंकि प्राकृत वस्तुमात्रकी संसारके साथ एकता है, अपने साथ एकता है ही नहीं। प्राकृत पदार्थोंमें जो अपनापन दीखता है, उसका तात्पर्य है कि उनको दूसरोंकी सेवामें लगानेका दायित्व हमारेपर है। अतः उन सबको दूसरोंकी सेवामें लगानेका भाव होनेसे सम्पूर्ण क्रियाओंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जायगा और वह स्वयं योगारूढ़ हो जायगा। यही बात भगवान्ने दूसरी जगह अन्वय-व्यतिरेक रीतिसे कही है कि यज्ञके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवालोंके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं अर्थात् किञ्चिन्मात्र भी बन्धनकारक नहीं होते (गीता 4। 23) और यज्ञसे अन्यत्र अर्थात् अपने लिये किये गये कर्म बन्धनकारक होते हैं (गीता 3। 9)।योगारूढ़ होनेमें कर्म कारण क्यों हैं? क्योंकि फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें हमारी समता है या नहीं, उसका हमारेपर क्या असर पड़ता है--इसका पता तभी लगेगा, जब हम कर्म करेंगे। समताकी पहचान कर्म करनेसे ही होगी। तात्पर्य है कि कर्म करते हुए यदि हमारेमें समता रही, राग-द्वेष नहीं हुए, तब तो ठीक है; क्योंकि वह कर्म 'योग' में कारण हो गया। परन्तु यदि हमारेमें समता नहीं रही, राग-द्वेष हो गये; तो हमारा जडताके साथ सम्बन्ध होनेसे वह कर्म 'योग' में कारण नहीं बना।
।।6.3।। ध्यानयोग पर आरूढ़ होने के इच्छुक व्यक्ति के लिए प्रथम साधन कहा गया है कर्म। जगत् में कर्तृत्व के अभिमान और फलासक्ति का त्याग करके कर्म करने से पूर्व संचित वासनाओं का क्षय होता है और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं।यहाँ योगारूढ़ होने के विषय को स्पष्ट करने के लिए अश्वारोहण (घोड़े की सवारी) के अत्यन्त उपयुक्त रूपक का प्रयोग किया गया है। जब मनुष्य किसी स्वच्छंद अश्व पर पहली बार सवार होने का प्रयत्न करता है तब पहले तो वह अश्व ही उस पर सवार हो जाता है यदि कोई व्यक्ति युद्ध के अश्व को अपने पूर्णवश में करना चाहे तो कुछ काल तक उसे उस अश्व पर सवार होने का प्रयास करना पड़ता है। एक पैर को पायदान पर रखकर जीन पर झूलते हुए दूसरे पैर को पृथ्वी से उठाकर (उछलकर) अश्व की पीठ पर बैठने और उसे अपने वश में करने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। एक बार उस पर सवार हो जाने के बाद उसे अपने वश में रखना सरल काय्र्ा है परन्तु तब तक अश्वारोही को उस अवस्था में से गुजरना पड़ता है जब तक वह पूर्णरूप से न अश्व पर बैठा होता है और न पृथ्वी पर खड़ा होता है।प्रारम्भ में हम केवल कर्म करने वाले होते हैं अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुए हम परिश्रम करते हैं पसीना बहाते हैं रोते हैं हँसते हैं। जब व्यक्ति इस प्रकार के कर्मों से थक जाता है तब वह मनोरूप अश्व पर आरूढ़ होना चाहता है। ऐसे ही व्यक्ति को कहते हैं आरुरुक्ष (आरूढ़ होने की इच्छा वाला)। वह पुरुष कर्म तो पूर्व के समान ही करता है परन्तु अहंकार और स्वार्थ को त्यागकर। यज्ञ भावना से किये गये कर्म वासनाओं को नष्ट करके अन्तकरण को शुद्ध एवं सुसंगठित कर देते हैं। ऐसे शुद्धान्तकरण वाले साधक को शनैशनै कर्म से निवृत्त होकर ध्यान का अभ्यास अधिक करना चाहिए। जब वह मन पर विजय प्राप्त करके उसकी प्रवृत्त्ायों को अपने वश में कर लेता है तब वह योगारूढ़ कहा जाता है। मन के समत्व प्राप्त योगारूढ़ व्यक्ति के लिए ज्ञानरूप शम अर्थात् शांति वह साधन है जिसके द्वारा वह अपने पूर्णस्वरूप में स्थित हो सकता है।इस प्रकार एक ही व्यक्ति के लिए उसके विकास की अवस्थाओं को देखते हुए कर्म और ध्यान की दो साधनाएँ बतायी गयी हैं जो परस्पर विरोधी नहीं है । एक अवस्था में निष्काम कर्मों का आचरण उपयुक्त है तथापि कुछ काल के पश्चात् वह भी कभीकभी मनुष्य की शांति को भंग करके उसे मानो पृथ्वी पर पटक देता है। दुग्ध चूर्ण को पानी में घोलकर बनाया हुआ पतला दूध एक छोटे से शिशु के लिए तो पुष्टिवर्धक होता है परन्तु दूध की वह बोतल बड़े बालक के लिए पर्याप्त नहीं होती जो दिन भर खेलता है और काम करता है। उसे मक्खन और रोटी की आवश्यकता होती है। किन्तु यही रोटी शिशु के लिए प्राणघातक हो सकती है।इसी प्रकार साधना की प्रारम्भिक अवस्था में निष्काम कर्म समीचीन है परन्तु और अधिक विकसित हुए साधक को आवश्यक है आत्मचिन्तनरूप निदिध्यासन। पहले अहंकार रहित कर्म साधन है और तत्पश्चात् आत्मस्वरूप का ध्यान। इस ध्यानाभ्यास की आवश्यकता तब तक होती है जब तक साधक निश्चयात्मक रूप से यह अनुभव न कर ले कि शुद्ध आत्मा ही पारमार्थिक सत्य वस्तु है न कि अहंकार। तत्पश्चात् वह कर्म करे अथवा न करे उसे इस ज्ञान की विस्मृति नहीं होती।इस प्रकार आत्मोन्नति के मार्ग में कर्मों का एक निश्चित स्थान होना सिद्ध होता है और उसी प्रकार इसका उपदेश देने वाले मनीषियों की बुद्धिमत्ता भी प्रमाणित होती है।कब यह साधक योगरूढ़ बन जाता है उत्तर है
।।6.3।।परमार्थसंन्यासस्य कर्मयोगान्तर्भावे कर्मयोगस्यैव सदा कर्तव्यत्वमापद्येत तेनेतरस्यापि कृतत्वसिद्धेरित्याशङ्क्योक्तानुवादपूर्वकमुत्तरश्लोकतात्पर्यमाह ध्यानयोगस्येति। भाविन्या वृत्त्या मुनेर्योगमारोढुमिच्छोरिष्यमाणस्य योगारोहणस्य कर्म हेतुश्चेदपेक्षितं योगमारूढस्यापि तत्फलप्राप्तौ तदेव कारणं भविष्यति तस्य कारणत्वे क्लृप्तशक्तित्वादित्याशङ्क्याह योगारूढस्येति। अनारूढस्येत्येतस्यैवार्थं स्फुटयति ध्यानेति। मुनित्वं कर्मफलसंन्यासिन्यौपचारिकमित्याह कर्मफलेति। साधनं चित्तशुद्धिद्वारा ध्यानयोगप्राप्तीच्छायामिति शेषः। तस्येति प्रकृतस्य कर्मिणो ग्रहणम्। एवकारो भिन्नक्रमः शमशब्देन संबध्यते। कस्यान्ययोगव्यवच्छेदेन शमो हेतुरिति तत्राह योगारूढत्वस्येति। सर्वव्यापारोपरमरूपोपशमस्य योगारूढत्वे कारणत्वं विवृणोति यावद्यावदिति। सर्वकर्मनिवृत्तावायासाभावाद्वशीकृतस्येन्द्रियग्रामस्य चित्तसमाधाने योगारूढत्वं सिध्यतीत्यर्थः। सर्वकर्मोपरमस्य पुरुषार्थसाधनत्वे पौराणिकीं संमतिमाह तथाचेति। एकता सर्वेषु भूतेषु वस्तुतो द्वैताभावोपलक्षितत्वमिति प्रतिपत्तिः। समता तेष्वेवौपाधिकविशेषेऽपि स्वतो निर्विशेषत्वधीः। सत्यता तेषामेव हितवचनम्। शीलं स्वभावसंपत्तिः। स्थितिः स्थैर्यम्। दण्डनिधानमहिंसनम्। आर्जवमवक्रत्वम्। क्रियाभ्यः सर्वाभ्यः सकाशादुपरतिश्चेत्येतदुक्तं सर्वं यथा यादृशमेतादृशं नान्यद्ब्राह्मणस्य वित्तं पुमर्थसाधनमस्ति तस्मादेतदेवास्य निरतिशयं पुरुषार्थसाधनमित्यर्थः।
।।6.3।।किं प्रशस्तत्वाद्यावज्जीवं कर्मयोग एवानुष्ठेय इत्याशङ्कायां ध्यानयोगाधिकारसंपत्तिपर्यन्तमवधिमभिप्रेत्य कर्मयोगस्य ध्नायोगसाधनत्वप्रदर्शनेन उत्तरमाह आरुरुक्षोरिति। योगं ध्यानयोगमारुक्षोरारोढुमिच्छोर्ध्यानयोगेऽवस्थातुमसमर्थस्य। यत्तु योगं ज्ञानयोगमिति तन्न। ध्यानयोगस्यैव प्रक्रान्तत्वात्। कस्यारुरुक्षोः मुनेः। कर्मफलसंन्यासिन इत्यर्थः। यत्तु मनेर्निदिध्यासनाख्यज्ञानयोगवतः श्रवणमननक्रमेण योगमारुरुक्षोरिति तन्न। निदिध्यासनवतः पुनः श्रवणमननक्रमस्यानपेक्षणात् तयोर्निदिध्यासनार्थत्वात्। कर्मफलाभिसंधिरहितं कारणं साधनमुच्यते। तस्यैव पूर्वं कर्मिणः पश्चाद्योगारुढस्य प्राप्तध्यानयोगस्य शम उपशमः सर्वकर्मभ्यो निवृत्तिः कारणं योगारुढताया आत्मसाक्षात्कारनिर्विकल्पसमाधिपर्यन्तायाः साधनमुच्यते। एतेन योगमन्तःकरणशुद्धिरुपं वैराग्यं आरुरुक्षोर्नत्वारुढस्य मुनेर्भविष्यतः कर्मफलतृष्णात्यागिनः कर्म कारणं योगारोहणे साधनमनुष्ठेयमुच्यते। योगारुढस्य योगं पूर्वोक्तं प्राप्तवतस्तु तस्यैव शमः सर्वकर्मसंन्यास एव कारणमनुष्ठेयतया ज्ञानपरिपाकसाधनमुच्यत इति प्रत्युक्तम। ध्यानयोगस्यैवास्मिन्नध्याये वर्णनीयत्वेन तत्पक्षे श्लोकस्य सभ्यगुपपत्त्या वर्णनीयार्थम। श्रोतं विहायाश्रौतार्थवर्णनस्यानुचितत्वात्।योगसूत्रं त्रिभिः श्लोकैः पञ्चमान्ते यदीरितम्। षष्ठ आरभ्यतेऽध्यायस्तह्याख्यानाय विस्तरात्।। तत्र सर्वकर्मत्यागेन योगं विधास्यंस्त्याज्यत्वेन हीनत्वमाशङ्क्य कर्मयोगं द्वाभ्यां स्तुतवानिति स्वपूर्वग्रन्थादप्यस्मिन् तृतीयश्लोके ध्यानयोगविधानवर्णनस्यावश्यकत्वात्। कदा योगारुढो भवतीत्युच्यत इत्युत्तरश्लोकमवतार्य योगं समाधिमारुढो योगारुढ इत्युच्यत इति योगारुढशब्दार्थप्रदर्शनपरस्वग्रन्थतन्मूलविरोधाच्च।
।।6.3।।कियत्कालं कर्म कर्त्तव्यं इत्यत आह आरुरुक्षोर्मुनेरिति। योगमारुरुक्षोपायसम्पूर्तिमिच्छोः। योगमारूढस्य सम्पूर्णोपायस्य अपरोक्षज्ञानिन इत्यर्थः। कारणं परमसुखकारणम्। अपरोक्षज्ञानिनोऽपि समाध्यादि फलमुक्तम् पृ.199200। तस्य सर्वोपशमेन समाधिरेव कारणं प्राधान्येनेत्यर्थः। तथापि यदा भोक्तव्योपरमस्तदैव सम्यगसम्प्रज्ञातसमाधिर्जायते अन्यदा तु भगवच्चरितादौ स्थितिः। तच्चोक्तम् ये त्वां पश्यन्ति भगवंस्त एव सुखिनः परम्। तेषामेव तु संक्रम्य समाधिर्जायते नृणाम्। भोक्तव्यकर्मण्यक्षीणे जपेन कथयाऽपि वा। वर्तयन्ति महात्मानस्तद्भक्तास्तत्परायणाः इति।
।।6.3।।तत्र कर्मानुष्ठानस्यावधिमाह आरुरुक्षोरिति। यावद्धि योगं यमनियमाद्यष्टाङ्गोपेतमत्यौत्कण्ठ्यादारोढुमिच्छति तावत्कर्माण्यनुतिष्ठेत्। तस्यारुरुक्षोर्मुनेरारुरुक्षाकारणं तीव्रवैराग्योत्पादनद्वारा कर्म भवति। तस्यैव योगारूढस्य योगाङ्गानुष्ठाने प्रवृत्तस्य विक्षेपासहस्य योगारोहे कर्मणां शमः संन्यासः कारणमुच्यते। नहि कर्मसु व्यापृतोऽनन्यचित्ततया योगमनुष्ठातुमीष्टे।
।।6.3।।योगम् आत्मावलोकनं प्राप्तुम् इच्छोः मुमुक्षोः कर्मयोग एव कारणम् उच्यते तस्य एव योगारूढस्य प्रतिष्ठितयोगस्य एव शमः कर्मनिवृत्तिः कारणम् उच्यते। यावदात्मावलोकनरूपमोक्षप्राप्तिः तावत्कर्म कार्यम् इत्यर्थः।कदा प्रतिष्ठितयोगो भवति इत्यत्र आह
।।6.3।।तर्हि यावज्जीवं कर्मयोग एव प्राप्त इत्याशङ्क्य तस्यावधिमाह आरुरुक्षोरिति। ज्ञानयोगमारोढुं प्राप्तुमिच्छोः पुंसस्तदारोहे कारणं कर्मोच्यते चित्तशुद्धिकरत्वात्। ज्ञानयोगमारूढस्य तु तस्यैव ज्ञाननिष्ठस्य शमः समाधिश्चित्तविक्षेपकर्मोपरमो ज्ञानपरिपाके कारणमुच्यते।
।।6.3।।आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते इत्यत्र विशेषविधिः शेषनिषेधपर इत्यभिप्रायेणाह कर्मयोग एवेति। कर्मयोगमात्रसाध्यो हि योगः न परमात्मावलोकनमित्यभिप्रायेणाह आत्मावलोकनमिति।आमोक्षाद्यत्किञ्चित्कर्म कर्तव्यमित्यभिप्रायेणाह मुमुक्षोरिति। आत्मावलोकनस्यात्र मोक्षकल्पतया मोक्षशब्दोपचारः।योगारूढस्य इति युक्तावस्थाविषयत्वभ्रमव्युदासायप्रतिष्ठितयोगस्येत्युक्तम्।कर्म कारणं इत्युक्तकर्मप्रतियोगिकः शमस्तन्निवृत्तिरेवात्र भवितुमर्हतीत्यभिप्रायेणशमः कर्मनिवृत्तिरित्युक्तम्। एतेनमुनिरत्र परिव्राजकः शमश्च पारिव्रज्यारूपः इति परोक्तं निरस्तम्। ननु प्रतिष्ठितयोगस्य किं कारणापेक्षया न ह्यन्यदस्य कार्यमस्तीति शङ्कायांयोगारूढस्य इत्यादिना कर्मनिवृत्तिविधानं ततः पूर्वमनिवृत्त्यभिप्रायमिति दर्शयति यावदिति।
।।6.3।।यद्यपि द्यूतम् (N हतम्) असिंहासननं राज्यम् इति रीत्या युक्त्या च केवलस्य निष्क्रियस्य संन्यासित्वं नोपपद्यते (K उपपद्यते) इत्युक्तम्। तथापि आरुरुक्षोरिति मुनेः ज्ञानवतः कर्म करणीयम् कारणं प्रापकम्। शमः प्राप्तभूमावुपरमः (NK भूमावनुपरमः)। कारणमत्र लक्षणम्।
।।6.3।।नन्वेवं समाधियोगस्याधिकारिणि निरूपितेतं प्रति समाधिरभिधेयः आरुरुक्षोरित्यादि किमर्थमुच्यते इत्यत आह कियदिति। समाधियोगाधिकारत्वेनोक्तं कर्म किं सकृदनुष्ठेयं उताफलप्राप्तेः इति प्रश्नार्थः। ननु योगो नाम नाश्वादिरिवारोढव्यः तत्कथमुच्यते योगमारुरुक्षोर्योगारूढस्येति तत्राह योगमिति। उपरिभवनसादृश्यादुपचार इत्यर्थः। उपायः समाधिरेव। समाधेः फलपरिमाणाद्यवच्छेदाभावात् कीदृशी सम्पूर्णता इत्यत आह अपरोक्षेति। साधनस्य हि पूर्णता साध्याय पर्याप्तत्वम्। अतो यावताऽपरोक्षज्ञानं सम्पद्यते तावत्त्वं सम्पूर्णत्वमिति भावः। ननु योगमारुरुक्षोः कर्म कारणं सन्निधानाद्योगारोहस्येति लभ्यते। कारणत्वाच्च तत्पर्यन्तं कर्तव्यमिति कार्यापेक्षया नियतपूर्वक्षणभावित्वात्कारणस्य। योगारूढस्य तु शमः किं प्रति कारणं ज्ञानस्य तत एव सिद्धेरित्यत आह कारणमिति। परमसुखं मुक्तिगतम्। नन्वयं प्रश्नोयदा ते मोहकलिलं 2।52 इति परिहृतः। मैवम्। तत्र ज्ञानार्थिनाऽत्र तु योगारोहार्थिनेति भेदात् तयोश्च साध्यसाधनयोः पृथक्त्वात्।अपरोक्षज्ञानिनः इति चानतिविप्रकर्षेणोक्तत्वात्। तथोक्तं ऐहिकमप्रस्तुतप्रतिबन्धः ब्र.सू.3।4।51 इति। अथवा योगारूढस्यापि कर्तव्यं वक्तुं प्रश्नोत्तरानुवादोऽयमिति। नन्वपरोक्षज्ञानिनोऽनाधेयातिशयस्य कथं शमः परमसुखकारणमुच्यते इत्यत आह अपरोक्षेति। उक्तं समर्थितं द्वितीये।समाध्यादि इत्यनेन शमशब्दार्थः समाधिरिति सूचितम्। तत्किं तस्यान्यत्कर्तव्यमेव नास्ति इत्यत आह तस्येति। सर्वोपशमेन सर्वविषयोपरतिलक्षणेनेति समाधौ शमशब्दं समर्थयितुमुक्तम्। कारणं सुखाभिवृद्धेः। तदविरोधेनान्यत्कार्यमिति भावः। यदि ज्ञानिनः समाधिरानन्दवृद्धेः कारणं तर्हि तमेव कुतो न कुर्युः कुतश्च व्याख्यानादौ प्रवर्तन्ते इत्यत आह तथापीति। भोक्तव्योपरमः प्रतिबन्धकप्रारब्धकर्मोपरमः। अन्यदा सम्यक् समाधिप्रतिबन्धककर्मानुपरमकाले। अत्रागमसम्मतिमाह तच्चेति। परं केवलम्। तेषामेव सम्यगेव समाधिश्च जायत इति योजना। वर्तयन्ति वर्तन्ते कालं नयन्तीति वा।
।।6.3।।तत्किं प्रशस्तत्वात्कर्मयोग एव यावज्जीवमनुष्ठेय इति नेत्याह योगमन्तःकरणशुद्धिरूपं वैराग्यमारुरुक्षोरारोढुमिच्छोर्न त्वारूढस्य मुनेर्भविष्यतः कर्मफलतृष्णात्यागिनः कर्म शास्त्रविहितमग्निहोत्रादि नित्यं भगवदर्पणबुद्ध्या कृतं कारणं योगारोहणे साधनमनुष्ठेयमुच्यते वेदमुखेन मया। योगारूढस्य योगमन्तःकरणशुद्धिरूपं वैराग्यं प्राप्तवतस्तु तस्यैव पूर्वं कर्मिणोऽपि सतः शमः सर्वकर्मसंन्यासएव कारणमनुष्ठेयतया ज्ञानपरिपाकसाधनमुच्यते।
।।6.3।।ननु स्वसुखानुभवसङ्कल्पत्यागः सिद्धस्य भवति साधनदशापन्नस्य किं कर्त्तव्यं इत्यत आह आरुरुक्षोरिति। योगं आरुरुक्षोः संयोगरसप्राप्तीच्छोर्मुनेर्मननशीलस्य कारणं कर्म सेवात्मकमनुकारणरूपमुच्यते कथ्यत इत्यर्थः तस्यैव सेवादिकरणेन योगारूढस्य संयोगरसव्याप्तमनसः शमः अनुकरणादिकृतिरहितभावनाप्रवणस्थितिः कारणमुच्यते कथ्यते तत्प्राप्त्यर्थमिति शेषः।
।।6.3।। आरुरुक्षोः आरोढुमिच्छतः अनारूढस्य ध्यानयोगे अवस्थातुमशक्तस्यैवेत्यर्थः। कस्य तस्य आरुरुक्षोः मुनेः कर्मफलसंन्यासिन इत्यर्थः। किमारुरुक्षोः योगम्। कर्म कारणं साधनम् उच्यते। योगारूढस्य पुनः तस्यैव शमः उपशमः सर्वकर्मभ्यो निवृत्तिः कारणं योगारूढस्य साधनम् उच्यते इत्यर्थः। यावद्यावत् कर्मभ्यः उपरमते तावत्तावत् निरायासस्य जितेन्द्रियस्य चित्तं समाधीयते। तथा सति स झटिति योगारूढो भवति। तथा चोक्तं व्यासेन नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति चित्तं यथैकता समता सत्यता च। शीलं स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः (महा0 शान्ति0 175।37) इति।।अथेदानीं कदा योगारूढो भवति इत्युच्यते
।।6.3।।तत्र योगेऽपि साङ्ख्यवत्कर्त्तव्यव्यवस्थामाह आरुरुक्षोरिति। योगमात्मसंयमनं पदमारुरुक्षोरधिकारिणस्त्वादृशस्योक्तरीत्या कर्म स्वधर्मकरणं तदारोहे कारणमुच्यते। तस्यैव योगारूढस्य सतः सर्वतः संयतचेतसः शमः समस्तसङ्कल्पपरित्यागस्तद्दाढर्ये कारणं स्थूणाखननवन्मतं योगारूढतया सिद्धत्वात्।