BG - 6.5

उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।6.5।।

uddhared ātmanātmānaṁ nātmānam avasādayet ātmaiva hyātmano bandhur ātmaiva ripur ātmanaḥ

  • uddharet - elevate
  • ātmanā - through the mind
  • ātmānam - the self
  • na - not
  • ātmānam - the self
  • avasādayet - degrade
  • ātmā - the mind
  • eva - certainly
  • hi - indeed
  • ātmanaḥ - of the self
  • bandhuḥ - friend
  • ātmā - the mind
  • eva - certainly
  • ripuḥ - enemy
  • ātmanaḥ - of the self

Translation

One should raise oneself by one's own self alone; let not one lower oneself; for the self alone is one's own friend, and the self alone is one's own enemy.

Commentary

By - Swami Sivananda

6.5 उद्धरेत् should raise? आत्मना by the Self? आत्मानम् the self? न not? आत्मानम् the self? अवसादयेत् let (him) lower? आत्मा the Self? एव only? हि verily? आत्मनः of the self? बन्धुः friend? आत्मा the Self? एव only? रिपुः the enemy? आत्मनः of the self.Commentary Practise Yog. Discipline the senses and the mind. Elevate yourself and become a Yogarudha. Attain to Yoga. Shine gloriously as a dynamic Yogi. Do not sink into the ocean of Samsara (transmigration). Do not become a wordlyminded man. Do not become a slave of lust? greed and anger. Rise above worldliness? become divine and attain Godhead.You alone are your friend you alone are your enemy. The socalled worldly friend is not your real friend? because he gets attached to you? wastes your time and puts obstacles on your path of Yoga. He is very selfish and keeps friendship with you only to extract something. If he is not able to get from you the object of his selfish interest? he forsakes you. Therefore he is your enemy in reality. If you are attached to your friend on account of delusion or affection? this will become a cause of your bondage to Samsara.Friends and enemies are not outside. They exist in the mind only. It is the mind that makes a friend an enemy and an enemy a friend. Therefore the Self alone is the friend of oneself? and the Self alone is the enemy of oneself. The lower mind or the Asuddha Manas (impure mind) is your real enemy because it binds you to the Samsara? and the higher mind or the Sattvic mind (Suddha Manas or the pure mind) is your real friend? because it helps you in the attainment of Moksha.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।6.5।। व्याख्या-- 'उद्धरेदात्मनात्मानम्'--अपने-आपसे अपना उद्धार करे--इसका तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिसे अपने-आपको ऊँचा उठाये। अपने स्वरूपसे जो एकदेशीय 'मैं'-पन दीखता है, उससे भी अपनेको ऊँचा उठाये। कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ आदि और 'मैं'-पन--ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं; अपना स्वरूप नहीं है। जो अपना स्वरूप नहीं है, उससे अपनेको ऊँचा उठाये।अपना स्वरूप परमात्माके साथ एक है और शरीर, इन्द्रियाँ आदि तथा 'मैं'-पन प्रकृतिके साथ एक है। अगर यह अपना उद्धार करनेमें, अपनेको ऊँचा उठानेमें शरीर इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी सहायता मानेगा, इनका सहारा लेगा तो फिर जडताका त्याग कैसे होगा? क्योंकि जड वस्तुओंसे सम्बन्ध मानना, उनकीआवश्यकता समझना उनका सहारा लेना ही खास बन्धन है। जो अपने हैं, अपनेमें हैं, अभी हैं और यहाँ हैं, ऐसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिकी आवश्यकता नहीं है। कारण कि असत्के द्वारा सत्की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत असत्के त्यागसे सत्की प्राप्ति होती है।दूसरा भाव, अभी पूर्वश्लोकमें आया है कि प्राकृत पदार्थ, क्रिया और संकल्पमें आसक्त न हो, उनमें फँसे नहीं, प्रत्युत उनसे अपने-आपको ऊपर उठाये। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पदार्थ, क्रिया और संकल्पका आरम्भ तथा अन्त होता है, उनका संयोग तथा वियोग होता है, पर अपने (स्वयंके) अभावका और परिवर्तनका अनुभव किसीको नहीं होता। स्वयं सदा एकरूप रहता है। अतः उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ आदिमें न फँसना, उनके अधीन न होना, उनसे निर्लिप्त रहना ही अपना उद्धार करना है। मनुष्यमात्रमें एक ऐसी विचारशक्ति है, जिसको काममें लानेसे वह अपना उद्धार कर सकता है। 'ज्ञानयोग'का साधक उस विचारशक्तिसे जड-चेतनका अलगाव करके चेतन (अपने स्वरूप) में स्थित हो जाता है और जड (शरीर-संसार) से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है। 'भक्तियोग' का साधक उसी विचारशक्तिसे 'मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं' इस प्रकार भगवान्से आत्मीयता करके अपना उद्धार कर लेता है। 'कर्मयोग' का साधक उसी विचारशक्तिसे मिले हुए शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि पदार्थोंको संसारका ही मानते हुए संसारकी सेवामें लगाकर उन पदार्थोंमें सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है और अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। इस दृष्टिसे मनुष्य अपनी विचारशक्तिको काममें लेकर किसी भी योग-मार्गसे अपना कल्याण कर सकता है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।6.5।। शास्त्र के रूप में गीता का प्रयोजन सत्य का और केवल सत्य का ही प्रतिपादन करना है। यह बात और है कि किसी काल विशेष में लोगों की धारणाएं कुछ अन्य प्रकार की बन गयीं हों परन्तु सत्य के प्रतिपादन में समाज में प्रचलित मान्यताओं का कोई महत्व नहीं होता। यह प्रचलित मान्यता कि किसी बाह्य स्रोत जैसे ईश्वर की कृपा साधक की निरन्तर सहायता करके उसे साधन मार्ग में आगे बढ़ाती है हानिकारक नहीं है परन्तु इस मान्यता के साथ ही स्वयं का पुरुषार्थ भी होना पूर्ण सफलता के लिये आवश्यक है। मनुष्य को आत्मोद्धार अपने द्वारा ही करना चाहिये यह स्पष्ट घोषणा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की है। यह कोई यमुना तट पर गोपियों के साथ रासलीला करते हुये आनन्दपूर्ण क्षणों में किया हुआ श्रीकृष्ण का मधुर विनोद नहीं वरन् समरांगण के चरम तनावपूर्ण क्षणों में अर्जुन को किया हुआ आह्वान है और अपने अवतार कार्य की परिपूर्णता भी है। यदि मनुष्य सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति चाहता है तो उसको अपनी सुप्त आन्तरिक शक्तियों को वर्तमान की हीन स्थिति से ऊँचा उठाना होगा और अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानना होगा।प्रत्येक मनुष्य के मन में एक आदर्श की कल्पना होती है। यद्यपि बौद्धिक स्तर पर वह उस आदर्श को स्पष्ट देखता है परन्तु दुर्भाग्य से वह आदर्श हमेशा कल्पना में ही बना रहता है और व्यवहारिक जगत् में वास्तविकता का रूप नहीं ले पाता। हो सकता है हम अपनी बुद्धि से यह जानते हों कि हमें क्या होना चाहिये परन्तु व्यवहार में हम अपने ही आदर्श के सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। आदर्शमैं और वास्तविकमैंके बीच की खाई ही मनुष्य के पूर्णत्व से पतन का मापदण्ड है।अधिकांश लोग अपने दोहरे व्यक्तित्व के विषय में अनभिज्ञ ही होते हैं। सामान्यत हम अपने को आदर्श व्यक्ति समझते हैं जबकि वास्तव में हम अनेक दोषों से युक्त रहते हैं किन्तु इसे हम स्वीकार नहीं करते। समाज में हम ऐसे व्यक्ति को भी देखते हैं जो स्वयं अत्यन्त स्वार्थी होते हुए अपने पड़ोसी की अल्पसी स्वार्थपरता की भी कटु आलोचना करता है दर्पण विहीन देश में संभव है कि एक वक्रदृष्टि का पुरुष दूसरे वक्रदृष्टि वाले पुरुष की खिल्ली उड़ाये क्योंकि वह स्वयं नहीं जानता कि उसकी अपनी आंखे एक दूसरे के साथ कौन सा कोण बना रही हैं।ध्यानपूर्वक आत्मनिरीक्षण करने पर ज्ञात होता है कि बौद्धिक स्तर पर हमारा आदर्श एक नैतिक स्नेहपूर्ण और अनुशासित व्यक्ति का होता है जो हम बनना भी चाहते हैं किन्तु मन के भावनात्मक जगत् में हम अपनी ही आसक्तियों राग और द्वेष प्रेम और घृणा काम और क्रोध के विकारों से पीडित होते हैं और फिर हम एक गली के सामान्य कुत्ते के समान व्यवहार करने लगते हैं जो मांसमज्जा रहित शुष्क हड्डी के लिए अपनी ही जाति के कुत्ते के साथ लड़ाईझगड़ा करता रहता है जब तक मनुष्य अपने इस दोहरे व्यक्तित्त्व के प्रति सजग नहीं होता तब तक उसके लिये धर्म का कोई अर्थ या प्रयोजन नहीं होता। आदर्श और वास्तविकता के बीच की खाई को जिसने पहचान लिया और जो स्वयं का उद्धार करना चाहता है उसके लिये जो साधन बताया जाता है उसे धर्म कहते हैं।हमारा मन ही विनाशक है जो हमें विषय सुखों की ओर लुभाकर उनका दास बना देता है। मन ही है जो आदर्श को भुलाकर निम्न प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है। ऐसे ही मन को बुद्धि के नियन्त्रण में लाना है जो आत्मा को व्यक्त करने की सर्वश्रेष्ठ उपाधि है। संक्षेप में जब बुद्धि की विवेक सार्मथ्य के प्रभाव का उपयोग चंचल स्वभाव के विषयाभिमुख मन को संयमित करने में किया जाता है तब वही मन श्रेष्ठ और दिव्य स्वरूप के साथ युक्त हो जाता है। जिस प्रक्रिया के द्वारा इस कार्य को सम्पन्न किया जाता है उसे आध्यात्मिक साधन कहते हैं।आत्मोद्धार का यह कार्य किसी को ठेका देकर नहीं कराया जा सकता प्रत्येक साधक को यह कार्य स्वयं ही करना होगा यह अकेले नितान्त अकेले चलने का मार्ग है।कोई भी गुरु इसका उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं ले सकता और न कोई शास्त्र इस मुक्ति का वचन दे सकता है पूजा की कोई वेदी अपने आशीर्वाद मात्र से निकृष्ट को उत्कृष्ट नहीं बना सकती। यह सत्य है कि आत्मविकास के मार्ग में गुरु शास्त्र और मन्दिर का अपना स्थान है प्रयोजन है और प्रभाव भी है तथापि अपने अवगुणों एवं मिथ्या धारणाओं से स्वयं को मुक्त करने का मुख्य कार्य तो हमें स्वयं ही करना होगा।अब तक भगवान् ने जो उपचार बताया वह कुछ अंशों में आधुनिक मनोविज्ञान में कहा जाने वाला आत्मनिरीक्षण का मार्ग है जिसमें यह प्रयत्न किया जाता है कि अपने दोषों को समझें मिथ्या का त्याग करें जहाँ तक सम्भव हो सके श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करें आदि। परन्तु यह आंशिक उपचार ही है सम्पूर्ण नहीं।यहाँ श्रीकृष्ण पूर्ण उपचार का वर्णन करते हैं। आत्मनिरीक्षण में निर्दिष्ट साधना को करना मात्र पर्याप्त नहीं है वरन् हमारा प्रयत्न यह होना चाहिये कि आन्तरिक राक्षस के राज्य पर जो कुछ विजय हम पाते हैं उसे सुरक्षित रखें न कि उसे पुन लौटा दें। इस एक ही वाक्य में भगवान् हमें सावधान करते हैं आत्मा का पुन अधपतन न होने दें।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में एक महान् विचार को सुन्दर शैली में व्यक्त किया गया है जिसने व्यासजी को अमर बना दिया है। हम स्वयं ही अपने मित्र हैं और शत्रु भी। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों पर विचार करके उक्त कथन की सत्यता को प्रमाणित कर सकता है। दर्शनशास्त्र की दृष्टि से इसका अभिप्राय गम्भीर है।निम्नस्तर के मन का उत्थान संभव है यदि वह श्रेष्ठ गुणों के प्रभाव मे आने के लिए तत्पर है। जिस मात्रा में वह सहयोग करेगा उसी मात्रा में ही उसका उत्थान भी होगा। चैतन्य आत्मा तो नित्य उपलब्ध है जिससे चेतना पाकर मनुष्य अपना उत्थान अथवा पतन कर सकता है। दोनों विकल्प मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत हैं। इनमें से वह किसे चुनता है यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है।यहाँ एक प्रश्न मन में आ सकता है कि कौन सा पुरुष स्वयं का ही मित्र है और कौन सा पुरुष स्वयं का ही शत्रु उत्तर है

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।6.5।।योगारूढस्य किं स्यादित्याशङ्क्याह यदैवमिति। योगारोहस्य दृष्टादृष्टोपायैरवश्यकर्तव्यतायै मुक्तिहेतुत्वं तद्विपर्ययस्याधःपतनहेतुत्वं च दर्शयति अत इति। तत्र हेतुमाह आत्मैव हीति। उद्धरणापेक्षामात्मनः सूचयति संसारेति। संसारादूर्ध्वं हरणं कीदृगित्याशङ्क्याह योगारूढतामिति। योगप्राप्तावनास्था तु न कर्तव्येत्याह नात्मानमिति। योगप्राप्त्युपायश्चेन्नानुष्ठीयते तदा योगाभावे संसारपरिहारासंभवादात्माधो नीतः स्यादित्यर्थः। नन्वात्मानं संसारे निमग्नं तदीयो बन्धुस्तस्मादुद्धरिष्यति नेत्याह आत्मैव हीति। कुतोऽवधारणमन्यस्यापि प्रसिद्धस्य बन्धोः संभवात्तत्राह नहीति। अन्यो बन्धुः सन्नपि संसारमुक्तये न भवतीत्येतदुपपादयति बन्धुरपीति। स्नेहादीत्यादिशब्दात्तदनुगुणप्रवृत्तिविषयत्वं गृह्यते। आत्मातिरिक्तस्यापि शत्रोरपकारिणः सुप्रसिद्धत्वादवधारणमनुचितमित्याशङ्क्याह योऽन्य इति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।6.5।।यदैवं योगारुढस्तदा तेनात्मना त्माद्धृतो भवति संसारानर्थसमूहात् अतः संसारार्णवे निमग्नमात्मानमात्मनोद्धरेत् तत ऊर्ध्वं नयेद्योगारुढतामापादयेत्। आत्मनं नावसादयेन्नाधो नयेत्। हि यस्मादात्मैव बन्धुः संसारान्मोचको नान्यः कश्चन पुत्रादिः प्रत्युत मोक्षं प्रति प्रतिकूलएव स्नेहादिबन्धनायतनत्वात्।बन्धवो दृढबन्धन मित्युक्तत्वात् तथात्मैवात्मनो रिपुः नान्यो बाह्योऽपकारी। तस्यात्मप्रयुक्तत्वात्। तस्माद्युक्तमेवोभयत्रावधारणम्। आत्मैव बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन इत्युक्तं तत्र किंलक्षण आत्मात्मनो बन्धुरात्मात्मनो रिपुश्चेति तत्राह बन्धुरिति। तस्यात्मनः स आत्मा बन्धुः येनात्मना आत्मैव कार्यकरणसंघात एव जितः वशीकृतः श्रेयोऽभिमुखः जितेन्द्रिय इत्यर्थः। अनात्मनः अजितात्मनस्त्वजितकार्यकरणसंघातस्यात्मैव स्वयमेव शत्रुत्वे शत्रुभावे वर्तेत शत्रुवत्। यथात्मेतर आत्मनोपकारी तथात्मात्मनोपकारे वर्तेतेत्यर्थः। तथा चैतदनुरोधात्पुनःपुनरात्मशब्दस्वारस्याच्चोद्धरेदात्मनात्मानमित्यत्रापि स्वं स्वेनैवोद्धरेत्। हि यस्मात्स्वयमेव स्वस्य बन्धुः स्वयमेव स्वस्य शत्रुरित्यर्थः। एतेनात्मना विवेकयुक्तेन मनसा आत्मानं स्वं जीवं आत्मैव विवेकयुक्तं मनएवात्मनः स्वस्य बन्धुः येनात्मैवात्मना विवेकयुक्तेन मनसा जितो नतु शास्त्रादिनेति प्रत्युक्तम्। यत्तु नन्विन्द्रियार्थेष्वनासक्तौ तस्य सर्वसंकल्पसंन्यासिनः किं प्रयोजनं तत्राह उद्धरेदिति। अत्रोत्तरार्धस्थमात्मेतिपदं पूर्वार्धेऽनुषञ्जनीयम्। तथाचायं संबन्धः आत्मा पूर्वपूर्वापरिमितजन्मोपार्जितपुण्यपुञ्जपूर्णमन्तःकरणं कर्तृ आत्मानं प्रत्यञ्चं कर्म अन्तःकरणापरपर्यायजडाशयनिमग्नतया सकलानर्थभाजनतां गतं आत्मना विवेकवैराग्यादिसंपन्नेनोद्धरेदुक्तजडाशयात्पृथक् कुर्यात् न स्वधर्मैः कर्तृत्वादिभिस्तिरस्कुर्यात्। यत आत्मानं स्वस्य स्वधर्माणां च सत्तायाः प्रत्यगधीनत्वात् स्वजीवनभूतम् तथा चेदृशमुपकारं कुर्वत उद्धरणं तिरस्काराकरणं चोचितमेव। एवंच यदीन्द्रियार्थेषु सक्तः स्यात्तर्हि हविषा कृष्णवर्त्मेवेत्यादिन्यायेन कामानुपरमात् तत्क्रोधाद्युपस्थितौ न कदाचित्प्रतीचः संसारादुद्धारः स्यादिति युक्तएवेन्द्रियार्थेष्वनासक्त इत्याकूतम्। यद्वा आत्मा प्रत्यगात्मान्तर्यामी आत्मना विवेकादिसंपन्नेनान्तःकरणेन कर्तृत्वाद्यभिमानकलुषमन्तःकरणं उद्धरेत् कण्टकेनेव कण्टकं दूरेणोत्सादयेत्। कुतएवं कर्तव्यमत आह नात्मानमवसादयेदिति। आत्मानं प्रत्यग्रूपं स्वं नावसादयेत् न विशीर्ण परमात्मनो विभक्तरुपं कुर्यादित्यर्थः। ननु तदेवमेकमन्तःकरणमात्मन उपकारकमपकारकं च कथं भवतीत्याशङ्क्य स्वभावसहकारिवशात् विषस्येव मरणजीवनहेतुतया भेदं पुनरुक्तात्मपदप्रयोगात्सूचयन्नाह। आत्मैवान्तःकरणमेव विवेकादिसंपन्नं आत्मनो जीवस्य बन्धुः बन्धध्वंसहेतुः तथा विवेकाद्यसंपन्नमन्तःकरणमेव आत्मनः स्वभावज्जीवस्य सर्वानर्थात्मकबन्धनहेतुत्वादित्यर्थः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।6.5।।स च योगारोहः प्रयत्नेन कर्तव्य इत्याह उद्धरेदित्यादिना।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।6.5।।उद्धरेदिति। एवं क्रमेण कर्मद्वारा चित्तशुद्धिं संपाद्य योगारूढोऽभ्यासवैराग्यबलेनात्मानमुद्धरेत्। हि यस्मादात्मैवात्मनो बन्धुर्न पुत्रादय उद्धर्तुं क्षमाः। आत्मैव रिपुरात्मनः नत्वन्ये शत्रवः संसारे मज्जयितुमेनं क्षमा इत्यर्थः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।6.5।।आत्मना मनसा विषयाननुषक्तेन मनसा आत्मानम् उद्धरेत्। तद्विपरीतेन मनसा आत्मानं न अवसादयेत्। आत्मा एव मन एव हि आत्मनो बन्धुः तद् एव आत्मनो रिपुः।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।6.5।।अतो विषयासक्तित्यागे मोक्षं तदासक्तौ च बन्धं पर्यालोच्य रागादिस्वभावं त्यजेदित्याह उद्धरेदिति। आत्मना विवेकयुक्तेनात्मानं संसारादुद्धरेन्नत्ववसादयेदधो न नयेत्। हि यस्मादात्मैव मनःसङ्गादुपरत आत्मनः स्वस्य बन्धुरुपकारकः रिपुरपकारकश्च।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।6.5।।श्लोकद्वयाभिप्रेतमर्थं विवृणोतीत्याह तदेवाहेति।आत्मना इत्यस्य करणार्थत्वौचित्यात्मनसेत्युक्तम्।विषयाननुषक्तेन तद्विपरीतेनेत्युभयं क्रियाद्वयसामर्थ्यात् पूर्वोत्तरानुसन्धानाच्चोक्तम्।उद्धरेत् योगारूढतापादनेन संसारसमुद्रादुत्तारयेत् न पुनरधो नयेदित्यर्थः। आत्मोद्धरणात्मावसादयोर्द्वयोरपि मनसो हेतुत्वं प्रपञ्च्यते आत्मैवेति। अन्ये बन्धवोऽपवर्गविरोधित्वादबन्धवः। अन्ये च रिपव आत्मप्रवृत्तिमूला इत्यवधारणाभिप्रायः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।6.5 6.6।।अस्यां च बुद्धौ अवश्यमेवावधेयमित्याह उद्धरेदिति। बन्धुरिति। अत्र च नान्य उपायः अपि तु आत्मैव मन एवेत्यर्थः। जितं हि मनो मित्रं घोरतरसंसारोद्धरणं करोति अजितं तु तीव्रनिरयपातनात् शत्रुत्वं कुरुते।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।6.5।।नन्वेवं विद्ध्युपयुक्तमुक्त्वा समाधियोगे विधेये किमर्थमात्मोद्धारकर्तव्यतोच्यते इत्यतोऽनया वाचोभङ्ग्या योग एव विधीयत इत्याह स चेति। तस्याधिकार्यादिकमुक्तं स एव च योग इति वक्तव्ये यदाऽऽरोहग्रहणं कृतं तेन तावत्पर्यन्तं योगः कर्तव्यः न मध्य एव त्याज्य इति ज्ञापितम्। प्रयत्नेनाभियोगेन।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।6.5।। यो यदैवं योगारूढो भवति तदा तेनात्मनैवात्मोद्धृतो भवति संसारानर्थव्रातात् अतः आत्मना विवेकयुक्तेन मनसा आत्मानं स्वं जीवं संसारसमुद्रे निमग्नं तत् उद्धरेत् उत् ऊर्ध्वं हरेत्। विषयासङ्गपरित्यागेन योगारूढतामापादयेदित्यर्थः।नतु विषयासङ्गेनात्मानमवसादयेत्संसारसमुद्रे मज्जयेत्। हि यस्मादात्मैवात्मनो बन्धुर्हितकारी संसारबन्धनान्मोचनहेतुर्नान्यः कश्चित्। लौकिकस्य बन्धोरपि स्नेहानुबन्धेन बन्धहेतुत्वात्। आत्मैव नान्यः कश्चित् रिपुः शत्रुरहितकारिविषयबन्धनागारप्रवेशात्कोशकार इवात्मनः स्वस्य। बाह्यस्यापि रिपोरात्मप्रयुक्तत्वाद्युक्तमवधारणमात्मैव रिपुरात्मन इति।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।6.5।।ननु कर्मसु भगवल्लीलानुकरणरूपेषु मनोहरणैकस्वभावेषु कथमासक्तिर्न स्यात् इत्याकाङ्क्षायामाह उद्धरेदिति। आत्मना पुरुषोत्तमरूपेण आत्मानं जीवं कर्मभ्य उद्धरेत् आत्मानं न अवसादयेत् तत्रैवासक्तियुक्तं न कुर्यात्। हि युक्तश्चायमर्थः। आत्मनो जीवस्य आत्मैव जीव एव बन्धुः हितकृत्। आत्मनो जीवस्य आत्मैव स एव रिपुः शत्रुः अत्र आत्मना आत्मानमुद्धरेद्बन्धुभावेन न रिपुभावेन अवसादयेत्।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।6.5।। उद्धरेत् संसारसागरे निमग्नम् आत्मना आत्मानं ततः उत् ऊर्ध्वं हरेत् उद्धरेत् योगारूढतामापादयेदित्यर्थः। न आत्मानम् अवसादयेत् न अधः नयेत् न अधः गमयेत्। आत्मैव हि यस्मात् आत्मनः बन्धुः। न हि अन्यः कश्चित् बन्धुः यः संसारमुक्तये भवति। बन्धुरपि तावत् मोक्षं प्रति प्रतिकूल एव स्नेहादिबन्धनायतनत्वात्। तस्मात् युक्तमवधारणम् आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः इति। आत्मैव रिपुः शत्रुः। यः अन्यः अपकारी बाह्यः शत्रुः सोऽपि आत्मप्रयुक्त एवेति युक्तमेव अवधारणम् आत्मैवरिपुरात्मनः इति।।आत्मैव बन्धुः आत्मैव रिपुः आत्मनः इत्युक्तम्। तत्र किंलक्षण आत्मा आत्मनो बन्धुः किंलक्षणो वा आत्मा आत्मनो रिपुः इत्युच्यते

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।6.5।।अतो विषयेष्वननुषञ्जनं कर्म कृत्वैवात्मानमात्मना स्वेनोद्धरेन्नावसादयेच्च। परोपदेशस्य प्रवर्त्तकत्वमेव नान्यदित्याशयेनात्मनाऽऽत्मानमुद्धरेदित्युक्तम्। तथाहि आत्मैव कर्त्तैव न परो बन्ध्वादिर्भवति। उक्तं च भागवते 5।5।19 गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात् ৷৷. न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्। इति।