प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।6.14।।
praśhāntātmā vigata-bhīr brahmachāri-vrate sthitaḥ manaḥ sanyamya mach-chitto yukta āsīta mat-paraḥ
Serene-minded, fearless, firm in the vow of a Brahmachari, having controlled their mind, thinking of Me and balanced in mind, let them sit, having Me as their supreme goal.
6.14 प्रशान्तात्मा sereneminded? विगतभीः fearless? ब्रह्मचारिव्रते in the vow of Brahmacharya? स्थितः firm? मनः the mind? संयम्य having controlled? मच्चित्तः thinking on Me? युक्तः balanced? आसीत let him sit? मत्परः Me as the supreme goal.Commentary The spiritual aspirant should possess serenity of mind. The Divine Light can descend only in a serene mind. Serenity is attained by the eradication of Vasanas or desires and cravings. He should be fearless. This is the most important alification. A timid man or a coward is very far from Selfrealisation.A Brahmachari (celibate) should serve his Guru or the spiritual preceptor wholeheartedly and should live on alms. This also constitutes the BrahmachariVrata. The aspirant should control the modifications of the mind. He should be balanced in pleasure and pain? heat and cold? honour and dishonour. He should ever think of the Lord and take Him as the Supreme Goal.Brahmacharya also means continence. Semen or the vital fluid tones the nerves and the brain? and energises the whole system. That Brahmachari who has preserved this vital force by the vow,of celibacy and sublimated it into Ojas Sakti or radiant spiritual power can practise steady meditation for a long period. Only he can ascend the ladder of Yoga. Without Brahmacharya or celibacy not an iota or spiritual progress is possible. Continence is the very foundation on which the superstructure of meditation and Samadhi can be built up. Many persons waste this vital energy -- a great spiritual treasure indeed -- when they become blind and lose their power of reason under sexual excitement. Pitiable is their lot They cannot make substantial progress in Yoga.
।।6.14।। व्याख्या--'प्रशान्तात्मा'--जिसका अन्तःकरण राग-द्वेषसे रहित है, वह 'प्रशान्तात्मा' है। जिसका सांसारिक विशेषता प्राप्त करनेका, ऋद्धि-सिद्धि आदि प्राप्त करनेका उद्देश्य न होकर केवल परमात्मप्राप्तिका ही दृढ़ उद्देश्य होता है, उसके राग-द्वेष शिथिल होकर मिट जाते हैं। राग-द्वेष मिटनेपर स्वतः शान्ति आ जाती है, जो कि स्वतःसिद्ध है। तात्पर्य है कि संसारके सम्बन्धके कारण ही हर्ष, शोक, राग-द्वेष आदि द्वन्द्व होते हैं और इन्हीं द्वन्द्वोंके कारण शान्ति भङ्ग होती है। जब ये द्वन्द्व मिट जाते हैं, तब स्वतःसिद्ध शान्ति प्रकट हो जाती है। उस स्वतःसिद्ध शान्तिको प्राप्त करनेवालेका नाम ही 'प्रशान्तात्मा' है।
।।6.14।। कुछ काल तक ध्यान का निरन्तर अभ्यास करने के फलस्वरूप साधक को अधिकाधिक शांति और सन्तोष का अनुभव होता है अत्यन्त सूक्ष्म आन्तरिक शांति को प्राप्त पुरुष को यहाँ प्रशान्तात्मा कहा गया है। आत्मा को अपने शुद्ध और दिव्य स्वरूप में व्यक्त होने के लिए प्रशान्त अन्तकरण ही अत्यन्त उपयुक्त माध्यम है।ध्यानाभ्यास करने वाले साधक को केवल मानसिक भय के कारण आत्मानुभव की ऊँचाई नापने में कठिनाई होती है। शनैशनै योगी अपने मन की वैषयिक वासनाओं से मुक्त होता है और तदुपरांत यदि उसमें आवश्यक साधना की परिपक्वता न हो तो वह इस मन के अतीत आत्मतत्त्व के अनुभव से भयभीत हो जाता है। उसे लगता है कि वह शून्य में विलीन हो रहा है। अनादि काल से उपाधियों के साथ तादात्म्य करके जीवभाव में रहने से उसे विश्वास भी नहीं होता कि इन उपाधियों से परे किसी तत्त्व का अस्तित्व भी हो सकता है। यहाँ उन मछली बेचने वाली स्त्रियों की कथा का स्मरण होता है जिन्हें किसी कारणवश फूलों की दुकान मेें एक रात व्यतीत्ा करनी पड़ी। मछली की दुर्गन्ध की अभ्यस्त होने से वे फूलों की सुगन्ध के कारण तब तक नहीं सो पायीं जब तक कि मछली की टोकरियों को उन्होंने अपने सिरहाने नहीं रख लिया दुखदायी उपाधियों से दूर रहकर अनन्त आनन्द में प्रवेश करने से हम भयभीत हो जाते हैं।इस भय के कारण आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग ही अवरूद्ध हो जाता है। यदि सफलता प्राप्त भी होने लगे तो इसी मानसिक भय के कारण साधक उसकी उपेक्षा कर देगा। प्रशान्तचित्त होकर शास्त्राध्ययन के द्वारा निर्भय मन नित्य ध्यान का अभ्यास करने पर भी यदि ब्रह्मचर्य व्रत में दृढ़ स्थिति न हो तो सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। ब्रह्मचर्य व्रत औपनिषदिक अर्थ के साथसाथ इस शब्द का यहाँ विशिष्ट अर्थ भी है। सामान्यत ब्रह्मचर्य का अर्थ किया जाता है मैथुन का त्याग। परन्तु इस शब्द का अर्थ अधिक व्यापक है। केवल संभोग की वृत्ति का संयम ही ब्रह्मचर्य नहीं वरन् समस्त इन्द्रियों की प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण होना ब्रह्मचर्य है। परन्तु यह संयम विवेकपूर्वक होना चाहिए इच्छाओं का मूढ़ दमन नहीं। असंयमित मन विषयों की संवेदनाओं से विचलित और क्षुब्ध हो जाता है और अपनी सम्पूर्ण शक्ति को विनष्ट कर देता है।इन्द्रिय संयम के इस सामान्य अर्थ के अतिरिक्त भी ब्रह्मचर्य का विशेष प्रयोजन है। संस्कृत भाषा में ब्रह्मचारी का अर्थ है वह पुरुष जिसका स्वभाव ब्रह्म में विचरण करने का हो। इस दृष्टि से ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा अपने मन को निरन्तर ब्रह्मविचार और निदिध्यासन में स्थिर करने का प्रयत्न करना। यही एकमात्र मुख्य उपाय है जिसके द्वारा हम मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को शांत एवं संयमित कर सकते हैं।मन का स्वभाव ही किसी न किसी विषय का चिन्तन करना है। जब तक उसे उत्कृष्ट लक्ष्य का ज्ञान नहीं कराया जाता तब तक उसकी विषयाभिमुखी प्रवृत्ति उनसे विमुख नहीं हो सकती। पूर्ण ब्रह्मचर्य की सफलता का रहस्य भी यही है। किसी योगी की ओर आश्चर्यचकित होकर देखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हममें से प्रत्येक व्यक्ति उस योगी की सफलता को प्राप्त कर सकता है। उस सफलता के लिए आत्मसंयम की आवश्यकता है। इन्द्रियों के विषयों के आकर्षण से स्वयं को बचाने के निश्चयात्मक उपायों का ज्ञान न होने से ही मनुष्य उनके प्रलोभन में फँस जाता है और लोभ संवरण नहीं कर पाता।इस श्लोक में वर्णित तीनों गुणों से सम्पन्न साधक को ध्यान साधना में कठिनाई नहीं होती। प्रशान्ति निर्भयता और ब्रह्मचर्यये क्रमश बुद्धि मन और शरीर को ध्यान के योग्य बनाते हैं। इन तीनों के सुसंगठित होने पर साधक को अधिकतम शक्ति एवं शान्ति प्राप्त होती है जिनका उपयोग ध्यान के लिए किया जा सकता है। इस प्रकार नवशक्ति सम्पन्न साधक क्षमतावान हो जाता है। वह अपने भटकने वाले मन को सहज ही विषयों से परावृत्त करके आत्मतत्त्व का ध्यान कर सकता है।इस श्लोक में दिया गया यह निर्देश अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि साधक को मुझे ही परम लक्ष्य समझकर ध्यान के लिए बैठना चाहिए। यह हम अपने अनुभव से जानते हैं कि जिस वस्तु को हम सर्वाधिक महत्त्व देते हैं उसकी प्राप्ति के लिए सर्व प्रथम प्रयत्न करते हैं। इसलिए जो पुरुष परमात्मा को ही सर्वोच्च लक्ष्य समझकर निरन्तर साधनारत रहता है वह शीघ्र ही अपने अनन्त सनातन शान्त और आनन्द स्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है।
।।6.14।।योगं युञ्जानस्य विशेषणान्तराणि दर्शयति किञ्चेति। अन्तःकरणस्य प्रशान्ती रागद्वेषादिदोषराहित्यं तस्याश्च प्रकर्षो रागादिहेतोरपि निवृत्तिः विगतभयत्वं सर्वकर्मपरित्यागे शास्त्रीयनिश्चयवशान्निःसंदिग्धबुद्धित्वम्। भिक्षाभुक्त्यादीत्यादिशब्देन त्रिषवणस्नानशौचाचमनादि गृह्यते। विशेषणान्तरमाह किञ्चेति। उपसंहृत्य योगनिष्ठो भवेदिति शेषः। मनोवृत्त्युपसंहारे ध्यानमपि न सिध्येत्तस्य तद्वृत्त्यावृत्तिरूपत्वादित्याशङ्क्याह मच्चित्त इति। विषयान्तरविषयमनोवृत्त्युपसंहारेणात्मन्येव तन्नियमनान्न ध्यानानुपपत्तिरित्यर्थः। मच्चित्तत्वेनैव मत्परत्वस्य सिद्धत्वान्मत्पर इति पृथग्विशेषणमनर्थकमित्याशङ्क्याह भवतीति। अन्तःकरणशुद्धिर्योगस्यावान्तरफलम्।
।।6.14।।प्रशान्तात्मा प्रकर्षेण शान्तः आत्मान्तःकरणं यस्य सः। अनेन रम्यशब्दश्रवणादीना शान्तचित्तस्य क्षोभाभावाद्दिगव लोकनं वारितम्। व्याघ्रादिभयप्रयुक्तमपि तद्वारयति। विशेषेण गता भीर्भयं यस्मात्सः। व्याघ्रादिप्रयुक्तभयाभावेऽपि क्षुधादिजन्यभयं संभाव्याह। मनः संयम्य स्वादिष्ठान्नादौ प्रवृत्ता मनोवृत्तीरुपसंहृत्येत्यर्थः। एवंभूतः किं कुर्यादिति तत्राह। युक्तः समाहितः सन् मच्चितः मत्परश्चासीतेति मयि परमेश्वरे चित्तं यस्य सः। कश्चिद्रागी स्त्रीचित्तो नतु स्त्रियमेव परत्वेन गृह्णाति किं तर्हि राजानं वाराध्यत्वेन देवं वाराध्यत्वेन परमपुरुषार्थत्वेन च। अयं तु मच्चित्तो मत्परश्च अहमेव पर आराध्यः परमपुरुषार्थश्च यस्य सः। यत्तु तत्किं द्वितीयाद्यवस्थास्य संभवति ओमित्याह अयुक्त इति। अयुक्तो मत्परः अहं परोऽन्तर्यामी प्रेरको यस्येत्येवंरुपः। आस्ते तस्यां दशायामैक्यभावानाभावादिति तथाचायुक्तावस्थायां भिक्षाद्याचरतीति तात्पर्यमिति तन्न। वाक्यभेदप्रसङ्गात्। यथाश्रुतार्थसंभवे आसीतेत्यस्यास्त इत्यर्थकरणानुचितत्वाच्च।
।।6.12 6.14।।योगं समाधियोगं युञ्ज्यात्।
।।6.14।।एवमासने उपविष्टेन यत्कर्तव्यं तदाह प्रशान्तात्मेति। योगयुक्तो योगी ब्रह्मचारिव्रते भैक्षचर्यायां स्थितः संन्यासीत्यर्थः। मच्चितो मयि परमे चित्तं यस्य स एवंभूतो मय्येव मनः संयम्य मत्पर आसीत स प्रशान्तात्मा भूत्वा विगतभीर्भवतीति योजना। भवति हि कश्चिदात्मनोऽन्यमीश्वरं मत्वा तच्चित्तस्तमेवाराध्यत्वेनाभिगतः तत्रैव च मनसः संयमं करोति न तु स तत्परस्तमेव परमपुरुषार्थतया प्राप्यत्वेन मन्यते किंतु तत्प्रीत्यान्यदेव फलं कामयते अयं तु मच्चित्तो मय्येव मनः संयम्य मत्परो मामेव सर्वान्तरं प्रत्यगद्वयं कामयत इति। यतो मत्परोऽतएव प्रशान्तात्मा प्रकर्षेण बाह्याभ्यन्तरविषयत्यागेन समाधिसुखास्वादत्यागेन च शान्त उपरतः आत्मा चित्तं यस्य सोऽस्मितामात्रावशेषो विगतभीर्भवति। इयमेवावस्था सत्त्वपुरुषान्यथाख्यातिरिति ब्रह्मसाक्षात्कार इति च विकल्प्यते। सर्वथा तस्यां सिद्धायां पुरुषः परमपुरुषार्थभाग्भवति।
।।6.14।।कायशिरोग्रीवं समम् अचलं सापाश्रयतया स्थिरं धारयन् दिशश्च अनवलोकयन् स्वं नासिकाग्रं संप्रेक्ष्य प्रशान्तात्मा अत्यन्तनिर्वृतमनाः विगतभीः ब्रह्मचर्ययुक्तो मनः संयम्य मच्चित्तो युक्तः अवहितो मत्पर आसीत माम् एव चिन्तयन् आसीत।
।।6.14।। प्रशान्तेति। प्रशान्त आत्मा चित्तं यस्य विगता भीर्भयं यस्य ब्रह्मचारिव्रते ब्रह्मचर्ये स्थितः सन् मनः संयम्य प्रत्याहृत्य। मय्येव चित्तं यस्य अहमेव परः पुरुषार्थो यस्य स मत्परः एवं युक्तो भूत्वा आसीत तिष्ठेत्।
।। 6.14 एवं शुचिदेशासनादिरूपं बाह्यं योगोपकरणं मनसश्चैकाग्र्यमुक्तम् अथान्तरान्तरतमयोः कायमनसोः क्रमात्कर्तव्यनियमविशेषा उच्यन्ते समं इत्यादिश्लोकद्वयेन।कायशिरोग्रीवं इति द्वन्द्वैकवद्भावः तत एव नपुंसकता। अत्र सिद्धापर(मध्यापर) नामा शरीरस्य मध्यप्रदेशः कायशब्देन विवक्षितः।समं अचलं स्थिरम् इति धारणक्रियाविशेषणानिसमं इत्यत्रार्जवं विवक्षितम् अचलशब्देन निष्कम्पत्वेऽभिहितेऽपि स्थिरमित्येतदङ्गकम्पकरश्रमहेतुभूतपश्चाद्धारणप्रयत्ननिवृत्तिहेत्त्वभिप्रायमिति दर्शयितुंसापाश्रयतया स्थिरमित्युक्तम्। अनेनाचलत्वस्य चिरानुवर्तनयोग्यत्वमुक्तं भवति। बाह्येभ्यो व्यावर्तनं नासिकाग्रे स्थापनं चेति क्रमप्रदर्शनायदिशश्चानवलोकयन्स्वं नासिकाग्रं सम्प्रेक्ष्य इति व्युत्क्रमेणोक्तम्। यद्वा शतुरत्र हेत्वर्थत्वाद्दिक्छब्दोपलक्षितबाह्यसकलपदार्थावलोकननिवृत्त्यर्थं योगारम्भक्षणे स्वनासिकाग्रप्रेक्षणमिति भावः। भोग्येतरानुपयुक्तविषयनिरीक्षणमपि निवर्तनीयमित्यभिप्रायेणदिशश्चत्युक्तम्। निमीलनेनापि बाह्यानवलोकनसिद्धौ स्वनासिकाग्रावेक्षणं निद्रादिनिवृत्त्यर्थम्।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं इत्येतावत्यभिहिते परनासिकाग्रप्रेक्षणमपि शङ्क्येतेति तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तंस्वम् इति। मनस्यन्तर्मुखे नासाग्रसम्प्रेक्षणस्यासम्भवाच्चक्षुषो दृष्टिसन्निपातमात्रमिह विवक्षितम्। अतः सम्प्रेक्ष्येत्यत्रइवशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः इतिशाङ्करम्। नायनस्य तेजसः स्वच्छन्दवृत्त्या। नासाग्रसन्निपातमात्रमिह विवक्षितम्मनः संयम्य इति संयमस्याभिधानात् प्रशान्तात्मशब्दोऽयं योगोपयुक्तमनस्सन्तोषपर इत्यभिप्रायेणअत्यन्तनिर्वृतमना इत्युक्तम्।ब्रह्मचारिव्रते स्थितः इत्यनेन ब्रह्मचर्याश्रमप्रतीतिःशङ्करोक्तप्रक्रियया वा ब्रह्मचर्यगुरुशुश्रूषाभिक्षाचर्यादिधीः स्यादिति तद्व्यवच्छेदायाहब्रह्मचर्ययुक्त इति। ब्रह्मचर्यं च स्तनवति पिशितपिण्डे भोग्यताधीगर्भस्मरणालोकनालापादिरहितत्वमत्र विवक्षितम्। स्मरन्ति च ब्रह्मचर्यं च योषित्सु भोग्यताबुद्धिवर्जनम् इत्यादि। तथास्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम्। सङ्कल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिर्वृत्तिरेव च। एतन्मैथुनमष्टाङ्गं प्रवदन्ति मनीषिणः। विपरीतं ब्रह्मचर्यमेतदेवाष्टलक्षणम् अ.पु.372।10।11 इति। युक्तशब्दस्य पूर्वोत्तरप्रतिपन्नात्मावलोकनाभिधानादपि तदुपयुक्तावधानविषयत्वमत्रोचितमित्यभिप्रायेणअवहित इत्युक्तम्। मच्चित्तशब्दो भगवति चित्तस्यानुप्रवेशपरः। मत्परशब्दस्तु तदेकचित्तत्वपरः तदनुवृत्तिपरो वेत्यपौनरुक्त्यमाह मामेवेति। यद्वा स्त्र्यादौ भोग्यचिन्ता राजादौ च महति परधीर्लोके विभक्ता मयि तु तदुभयमित्यपुनरुक्तिः।
।।6.10 6.15।।ननु जितात्मनः इत्युक्तम् तत्कथं तज्जय इत्याशङ्क्य आरुरुक्षोः कश्चिदुपायः कायसमत्वादिकः (SN कायसमुद्धारकः) चित्तसंयम उपदिश्यते योगीत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। आत्मानं च चित्तं च युञ्जीत एकाग्रीकुर्यात्। सततमिति न परिमितं कालम्। एकाकित्वादिषु सत्सु एतद्युज्यते ( N युञ्जीत) नान्यथा। आसनस्थैर्यात् कालस्थैर्ये (S कालस्थैर्यम्) चित्तस्थैर्यम्। चित्तक्रियाः संकल्पात्मनः अन्याश्चेन्द्रियक्रिया येन यताः नियमं नीताः। धारयन् यत्नेन। नासिकाग्रस्यावलोकने सति दिशामनवलोकनम्। मत्परमतया युक्त आसीत (N आसीत्) इत्यर्थः (S omits इत्यर्थः)। एवमात्मानं युञ्जतः समादधतः शान्तिर्जायते यस्यां संस्थापर्यन्तकाष्ठा मत्प्राप्तिः (K प्राप्तिर्योगोऽस्तीति)।
।।6.12 6.14।।उपविश्यासन इत्यत्रापि योगशब्द एवमेव व्याख्येय इत्याह योगमिति। स्थानविवेकार्थं युञ्ज्यादित्युक्तम् कुर्यादिति यावत्।
।।6.14।।किंच निदाननिवृत्तरूपेण प्रकर्षेण शान्तो रागादिदोषरहित आत्मान्तःकरणं यस्य स प्रशान्तात्मा शास्त्रीयनिश्चयदार्ढ्याद्विगता भीः सर्वकर्मपरित्यागेन युक्तत्वायुक्तत्वशङ्का यस्य स विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते ब्रह्मचर्यगुरुशुश्रूषाभिक्षाभोजनादौ स्थितः सन् मनः संयम्य विषयाकारवृत्तिशून्यं कृत्वा मयि परमेश्वरे प्रत्यक्चिति सगुणे निर्गुणे वा चित्तं यस्य स मच्चित्तो मद्विषयकधारावाहिकचित्तवृत्तिमान्। पुत्रादौ प्रिये चिन्तनीये सति कथमेवं स्यादत आह मत्परः अहमेव परमानन्दरूपत्वात्परः पुरुषार्थः प्रियो यस्य स तथा।तदेतत्प्रेयः पुत्रात्प्रेयो वित्तात्प्रेयोऽन्यस्मात्सर्वस्मादन्तरतरो यदयमात्मा इति श्रुतेः। एवं विषयाकारसर्ववृत्तिनिरोधेन भगवदेकाकारचित्तवृत्तिर्युक्तः संप्रज्ञातसमाधिमानासीतोपविशेद्यथाशक्ति नतु स्वेच्छया व्युत्तिष्ठेदित्यर्थः। भवति कश्चिद्रागी स्त्रीचित्तो नतु स्त्रियमेव परत्वेनाराध्यत्वेन गुह्णाति किं तर्हि राजानं वा देवं वा। अयं तु मच्चित्तो मत्परश्च सर्वाराध्यत्वेन मामेव मन्यत इति भाष्यकृतां व्याख्या।।व्याख्यातृत्वेऽपि मे नात्र भाष्यकारेण तुल्यता। गुञ्जायाः किं नु हेम्नैकतुलारोहेऽपि तुल्यता।
।।6.14।।प्रशान्तात्मा भक्तिरसाभिनिविष्टचित्तः विगतभीःब्रह्मचारीश्रुत्यादिदुरापचरणरेणुभगवत्प्राप्तिसन्देहरहितः। ब्रह्मचारिव्रते स्थितः भगवदर्थेन्द्रियनिग्रहवान्। तादृशः सन् मनः संयम्य सर्वतः आकृष्य वशे कृत्वा मच्चित्तो मय्येव चित्तं यस्य। मत्परः अहमेव परः पुरुषार्थरूपो यस्य। एतादृशो भूत्वा युक्तः मद्योगस्थ आसीत तिष्ठेत्।
।।6.14।। प्रशान्तात्मा प्रकर्षेण शान्तः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सोऽयं प्रशान्तात्मा विगतभीः विगतभयः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ब्रह्मचारिणो व्रतं ब्रह्मचर्यं गुरुशुश्रूषाभिक्षान्नभुक्त्यादि तस्मिन् स्थितः तदनुष्ठाता भवेदित्यर्थः। किञ्च मनः संयम्य मनसः वृत्तीः उपसंहृत्य इत्येतत् मच्चित्तः मयि परमेश्वरे चित्तं यस्य सोऽयं मच्चित्तः युक्तः समाहितः सन् आसीत उपविशेत्। मत्परः अहं परो यस्य सोऽयं मत्परो भवति। कश्चित् रागी स्त्रीचित्तः न तु स्त्रियमेव परत्वेन गृह्णाति किं तर्हि राजानं महादेवं वा। अयं तु मच्चित्तो मत्परश्च।।अथेदानीं योगफलमुच्यते
।।6.14।।प्रशान्तात्मेति। मैत्र्यादिचित्तपरिकर्मवित्त्वात् अविद्यादिपञ्चक्लेशभयरहितः। सबीजयोगिनस्तस्य सम्प्रज्ञातसमाधिप्रकारमाह मनः संयम्य मच्चित्त इति। मनश्च तादृशं संयतं वासुदेवाधिष्ठितं चित्तरूपेण परिणमते इति तच्चित्तं तदधिष्ठातरि मयि यस्य स इति युक्तस्य भक्तिसम्बन्धिंत्वमुक्तम्। तदाह युक्तः सन्मत्पर आसीत।