शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।6.25।।
śhanaiḥ śhanair uparamed buddhyā dhṛiti-gṛihītayā ātma-sansthaṁ manaḥ kṛitvā na kiñchid api chintayet
Little by little, let him attain steadiness of the intellect by holding it firmly; having made the mind establish itself in the Self, let him not think of anything else.
6.25 शनैः gradually? शनैः gradually? उपरमेत् let him attain to ietude? बुद्ध्या by the intellect? धृतिगृहीतया held in firmness? आत्मसंस्थम् placed in the Self? मनः the mind? कृत्वा having made? न not? किञ्चित् anything? अपि even? चिन्तयेत् let him think.Commentary The practitioner of Yoga should attain tranillity gradually or by degrees? by,means of the intellect controlled by steadiness. The peace of the Eternal will fill the heart gradually with thrill and bliss through the constant and protracted practice of steady conentration. He should make the mind constantly abide in the Self within through ceaseless practice. If anyone constantly thinks of the immortal Self within? the mind will cease to think of the objects of sensepleasure. The mental energy should be directed along the spiritual channel by Atmachintana or constant contemplation on the Self.
।।6.25।। व्याख्या--'बुद्ध्या धृतिगृहीतया'--साधन करते-करते प्रायः साधकोंको उकताहट होती है, निराशा होती है कि ध्यान लगाते, विचार करते इतने दिन हो गये पर तत्त्वप्राप्ति नहीं हुई, तो अब क्या होगी कैसे होगी? इस बातको लेकर भगवान् ध्यानयोगके साधकको सावधान करते हैं कि उसको ध्यानयोगका अभ्यास करते हुए सिद्धि प्राप्त न हो, तो भी उकताना नहीं चाहिये, प्रत्युत धैर्य रखना चाहिये। जैसे सिद्धि प्राप्त होनेपर, सफलता होनेपर धैर्य रहता है, विफलता होनेपर भी वैसा ही धैर्य रहना चाहिये कि वर्ष-के-वर्ष बीत जायँ, शरीर चला जाय, तो भी परवाह नहीं, पर तत्त्वको तो प्राप्त करना ही है (टिप्पणी प0 357)। कारण कि इससे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा काम है नहीं। इसलिये इसको समाप्त करके आगे क्या काम करना है? यदि इससे भी बढ़कर कोई काम है तो इसको छोड़ो और उस कामको अभी करो!--इस प्रकार बुद्धिको वशमें कर ले अर्थात् बुद्धिमें मान, बड़ाई, आराम आदिको लेकर जो संसारका महत्त्व पड़ा है, उस महत्त्वको हटा दे। तात्पर्य है कि पूर्वश्लोकमें जिन विषयोंका त्याग करनेके लिये कहा गया है, धैर्यपूर्वक बुद्धिसे उन विषयोंसे उपराम हो जाय।
।।6.25।। पूर्व श्लोकों के अनुसार योग का लक्ष्य है मन का अपने स्वस्वरूप में स्थित हो जाना। यह स्थिति परम आनन्दस्वरूप बतायी गयी है। परन्तु इस स्थिति को प्राप्त करने के उपायों को दर्शाये बिना विषय का सैद्धान्तिक निरूपण मात्र साधकों के लिए अधिक उपयोगी नहीं होता।विचाराधीन दो श्लोकों में ध्यान की सूक्ष्म कला का वर्णन किया गया है। मन को एकाग्र कैसे करें तत्पश्चात् उस समाहित चित्त के द्वारा आत्मा का ध्यान करके तद्रूप कैसे हो इसका विस्तृत विवेचन इन श्लोकों में मिलता है।समस्त कामनाओं का निशेष त्यागकर इन्द्रिय वर्ग को विषयों से सम्यक् प्रकार अपने वश में करना चाहिए। इस श्लोक का प्रत्येक शब्द सफलता के द्वार का सूचक होने से उसकी व्याख्या की आवश्यकता है। यहाँ विशेष रूप से कहा गया है कि सब कामनाओं का निशेष त्याग करना आवश्यक है। इससे आत्मानुभूति की स्थिति के स्वरूप के सम्बन्ध में किसी भी साधक के मन में कोई शंका नहीं रह जानी चाहिए। अशेषत से तात्पर्य यह है कि ध्यान के अन्तिम चरण में साधक को योग के पूर्णत्व की प्राप्ति की इच्छा का भी त्याग कर देना चाहिए यहाँ कामनात्याग को एक अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यक गुण बताया है परन्तु दुर्भाग्य से अविवेकी लोगों ने कामना को दिये हुए विशेषण की ओर ध्यान नहीं दिया और शास्त्रों के अर्थों को विकृत कर दिया है। उन्होंने यही समझा कि शास्त्र में महत्त्वाकांक्षा रहित जीवन का उपदेश दिया गया है और इस विपरीत धारणा के कारण वे तमोगुण की अकर्मण्यता में फंस जाते है।संकल्प प्रभवान् इस विशेषण की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इसी अध्याय के दूसरे श्लोक की व्याख्या में संकल्प शब्द का अर्थ बताया जा चुका है। उस दृष्टि से यहाँ अर्थ होगा कि ऐसी कामनाओं को त्यागना है जो विषयों में सुख होने के संकल्प से उत्पन्न होकर मन में असंख्य विक्षेपों को जन्म देती हैं।यदि मनुष्य इन संकल्पजनित इच्छाओं को त्यागने में सफल हो जाता है तो उसके मन में वह सार्मथ्य और दृढ़ता आ जाती है कि वह इन्द्रियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकता है। सर्वप्रथम इन्द्रियों के उन्मत्त अश्वों को वश में कर लें तो फिर उन्हें सब विषयों से परावृत्त करने में सरलता होती है।यह एक अनुभूत सत्य है कि मन स्वनिर्मित विक्षेपों के कारण दुर्बल होकर इन्द्रियों को अपने वश में नहीं रख पाता। कामनात्याग से उसमें यह क्षमता आ जाती है। परन्तु मन की यह शक्ति और शांति शीघ्रता से किये गये कर्म या कल्पना से नहीं प्राप्त होती है और न किसी विचित्र रहस्यमयी साधना से। यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि साधक को धीरेधीरे अपने मन को शांत करना चाहिए।निसन्देह इन्द्रियों की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति को संयमित करने पर कुछ मात्रा में मनशांति प्राप्त होती है। तब इस शांति को स्थिर और दृढ़ करने की आवश्यकता होती है। उसका उपाय बताते हुए भगवान् कहते हैं धैर्ययुक्त बुद्धि से मन को आत्मा में स्थिर करना चाहिए। अभ्यास के क्रम में इस उपदेश का बहुत महत्त्व है।सर्वप्रथम इन्द्रियों को मन के द्वारा संयमित करे और तत्पश्चात् मन को उससे सूक्ष्मतर विवेकवती बुद्धि के द्वारा आत्मा में स्थिर करे। ध्येय विषयक वृत्ति के अतिरिक्त अन्य सब वृत्तियों के त्याग के द्वारा ही मन को संयमित करना संभव है। वृत्तियों का प्रवाह मन कहलाता है अत आत्मा के स्वरूप पर सतत अनुसंधान करने से मन आत्मा में ही स्थित हो जायेगा। आत्मा में पूर्णतया स्थित हो जाने पर वह एक दिव्य अलौकिक शान्ति में निमग्न हो जाता है। मनुष्य अपने सजग पुरुषार्थ के द्वारा इस स्थिति तक पहुँच सकता है जो ध्यानयोग का अन्तिम सोपान है।सभी साधकों के द्वारा अभ्यसनीय इस योग का उपदेश देते हुये भगवान् उन्हें सावधान करते हैं कि योग की उपर्युक्त चरम स्थिति तक पहुँचने के पश्चात् किसी अन्य विषय का चिन्तन नहीं करना चाहिये।इस शांत क्षणको पाने के उपरान्त साधक को और कोई कर्तव्य और प्राप्तव्य शेष नहीं रह जाता। उसको इतना ही ध्यान रखना होता है कि किसी नवीन वृत्तिप्रवाह का प्रारम्भ न हो और मन की शान्ति सुदृढ़ रहे। द्वार खटखटाओ और तुम अन्दर प्रवेश करोगे यह भगवान् का आश्वासन है।विश्व के किसी भी धर्मग्रन्थ में केवल दो श्लोकों में ध्यानयोग की विधि से सम्बन्धित निर्देशों का इतना विस्तृत विवरण नहीं मिलता। स्वयं गीता में भी किसी अन्य स्थान पर ऐसा वर्णन नहीं किया गया है। इस दृष्टि से ये दो सारगर्भित श्लोक अतुलनीय और अनुपम हैं।योगाभ्यास में प्रवृत्त जिन साधकों का मन चंचल औरअस्थिर होता है उनके लिए अगले श्लोक में उपाय बताते हैं
।।6.25।।कामत्यागद्वारेणेन्द्रियाणि प्रत्याहृत्य किं कुर्यादिति शङ्कितारं प्रत्याह शनैः शनैरिति। सहसाविषयेभ्यः सकाशादुपरमे मनसो न स्वास्थ्यं संभवतीत्यभिप्रेत्याह न सहसेति। तत्र साधनं धैर्ययुक्ता बुद्धिरित्याह कयेत्यादिना। भूम्यादीरव्याकृतपर्यन्ताः प्रकृतीरष्ट पूर्वपूर्वत्र धारणं कृत्वोत्तरोत्तरक्रमेण प्रविलापयेदिति भावः। अव्यक्तमात्मनि प्रविलाप्यात्ममात्रनिष्ठं मनो विधाय चिन्तयितव्याभावादतिस्वस्थो भवेदित्याह आत्मेति। तत्र संस्थितिमेव मनसो विवृणोति आत्मैवेति। योगविधिमुपक्रम्य किमिदमुक्तमित्याशङ्क्याह एष इति। यन्मनसो नैश्चल्यमिति शेषः।
।।6.25।।एवं कृत्वा किं कुर्यादित्यत आह शनैरिति। धृतिगृहीतया धैर्ययुक्तया बुद्य्धोपरमेन्मनस उपरतिं संपादयेत्। शनैः शनैः क्रमेण नतु सहसा। ननूपरतिं प्रापितमपि मनः पुनः पदार्थान्तरचिन्तरनेनोपरतिं हास्यतीत्याशङ्क्याह। आत्मसंस्थमात्मैव सर्वं न ततोऽन्यत् किंचिदस्तीत्येवमात्मसंस्थं मनः कृत्वा आत्मेतरवस्त्वभावान्न किंचिदपि चिन्तयेत्। मनसो मैश्चल्यस्य परमयोगावधित्वात्।
।।6.25।।बुद्धेः कारणत्वं मनोनिग्रहे आत्मरमणे च।
।।6.25।।शनैः शनैरिति। भूमिकाजयक्रमेण दिव्यादिव्यविषयेभ्य उपरमेद्वव्यावृत्तो भवेत्। कथम्। धृतिगृहीतया बुद्ध्येति। धृतिःधृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः। योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्विकी इत्युक्तलक्षणा तया गृहीतया वशीकृतया बुद्ध्योपरमेत्। तथा एवमुपरतं मनः आत्मनि स्वरूपे संस्था स्थितिर्यस्य न तु दृश्ये द्रष्टरि वा तत्तथा आत्मैकाकारमेकाग्रमित्यर्थः। द्रष्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थंसर्वार्थतैकार्थतयोः क्षयोदयौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः इति सूत्रितमैकाग्र्यं प्रापयेत्। सूत्रार्थस्तु अहमिदं पश्यामीत्यनुभवे हि द्रष्टा दृश्यं दर्शनं च भासते। तत्र दर्शनभानमप्रत्याख्येयमतो द्रष्टरि दृश्ये चोपरक्तं चित्तं सवार्थमिति। न तु दर्शनोपरक्ततापि सर्वार्थतायां गणिता। तदभावे चित्तस्य नाशापत्तेः। द्रष्टृदृश्योपरागाभावे तु एकार्थं तदुच्यते यथा स्वप्ने। तत्र हि दृश्यं नास्तीति पामराणामपि प्रसिद्धम्। द्रष्टापि नास्ति। तदा इन्द्रियाणामभावात्।आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्ता इतिश्रुत्यैव भोक्तृत्वस्येन्द्रियसंनियोगशिष्टत्वात्। किंतु द्रष्टृदृश्यवासनावासितं चित्रपटसदृशमेकं मन एवास्ति। तच्च स्वयंज्योतिषा पुरुषेण भास्यमानं जाग्रद्वत्स्वप्नेऽपि द्रष्टृदृश्योपरागं प्रकाशयति। तद्वासनावासितत्वात्। एवं सति यदा सर्वार्थतायाः क्षय एकार्थताया उदयश्च तदा चित्तस्यैकाग्रतारूपः परिणामो भवतीति। तदेवमात्मसंस्थं मनः कृत्वेति संप्रज्ञातसमाधिरुक्तः। तत्रापि पूर्वाभ्यासवशाच्चित्तस्य द्रष्टृदृश्योपरागो वासनामयो भातीति तन्निवारणेनासंप्रज्ञातसमाधिमाह न किंचिदपि चिन्तयेदिति। ध्यातृध्यानध्येयविभागमपि न स्मरेत्किंतु अखण्डैकरससंविदात्मना सुषुप्तवत्तिष्ठेदित्यर्थः।
।।6.25।। स्पर्शजाः सङ्कल्पजाश्च इति द्विविधाः कामाः स्पर्शजाः शीतोष्णादयः सङ्कल्पजाः पुत्रपौत्रक्षेत्रादयः तत्र सङ्कल्पप्रभवाः स्वरूपेण एव त्यक्तुं शक्याः तान् सर्वान् मनसा एव तदनन्वयानुसन्धानेन त्यक्त्वा स्पर्शजेषु अवर्जनीयेषु तन्निमित्तहर्षो द्वेगौ त्यक्त्वा समन्ततः सर्वस्माद् विषयात् सर्वम् इन्द्रियग्रामं विनियम्य शनैः शनैः धृतिगृहीतया विवेकविषयया बुद्ध्या सर्वस्माद् आत्मव्यतिरिक्ताद् उपरम्य आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिद् अपि चिन्तयेत्।
।।6.25।।यदि तु प्राक्तनकर्मसंस्कारेण मनो विचलेत्तर्हि धारणया स्थिरीकुर्यादित्याह शनैरिति। धृतिर्धारणा तया गृहीतया वशीकृतया बुद्ध्यात्मसंस्थमात्मन्येव सम्यक् स्थितं निश्चलं मनः कृत्वोपरमेत्। तच्च शनैःशनैरभ्यासक्रमेण नतु सहसा। उपरमस्वरूपमाह। न किंचिदपि चिन्तयेत्। निश्चले मनसि स्वयमेव प्रकाशमानपरमानन्दस्वरूपो भूत्वात्मध्यानादपि न निवर्तेतेत्यर्थः।
।। 6.25 अथ ममकारपरित्यागादिकं प्राग्विप्रकीर्णोक्तमखिलमिदानीं सुखग्रहणायेह सौकर्यप्रदर्शनाय च सङ्कलय्य योगदशापर्यन्ततया स्मार्यतेसङ्कल्प इत्यादिभिः श्लोकैः।सङ्कल्पप्रभवान् सर्वान् कामांस्त्यक्त्वा इत्येतावतैव सिद्धौ पुनःअशेषतः इति पदं निश्शेषत्यागानर्हाणां विषयाणां सूचकम्। न चोत्तरवाक्ये तदन्वयः ग्रामशब्देन पर्याप्तत्वात्। अतः प्रयुक्तपदवैयर्थ्यपरिहारायअशेषतश्च कामांस्त्यक्त्वा इति चकाराभावेऽपि योज्यम्। अपि च सङ्कल्पप्रभवत्वेन विशेषणमेव असङ्कल्पप्रभवकामसूचकमित्यभिप्रायेण विभजते स्पर्शजा इति।मनसैव इति पदं मध्यस्थितत्वादपेक्षितत्वाच्च काकाक्षिन्यायेन पूर्वोत्तरान्वितमिति दर्शयितुंतान् सर्वान् मनसैवेत्यादिकमुक्तम्। कामत्यागकरणस्य मनसोऽवान्तरव्यापारतदनन्वयानुसन्धानम् कर्मोपाधिकशरीरान्विता हि पुत्रादयः न त्वात्मस्वरूपान्विता इत्यनुसन्धानेनेत्यर्थः।न प्रहृष्येत् 5।20 इत्यादिभिः प्रागेवोक्तं स्मारयतिस्पर्शजेष्वित्यादिना।समन्ततः इत्यत्र पदच्छेदादिभ्रमव्युदासायाह सर्वस्माद्विषयादिति। प्रक्रान्तादशिथिलत्वरूपाया धृतेर्हेतुमाहविवेकविषययेति। उपरम्य बाह्यालाभार्थं मानसमुद्योगं वारयित्वेत्यर्थः। उपरम्येति व्याख्यानमङ्गत्वद्योतनाय।किञ्चिदपीति आत्मव्यतिरिक्तमनुकूलप्रतिकूलोदासीनं सर्वमित्यर्थः।
।।6.24 6.25।।कामानां त्यागे (SN कामानामुपायत्यागे) उपायः संकल्पत्याग इत्याह संकल्पेति। शनैः शनैरिति। मनसैव न (S omit न) व्यापारोपरमेण। धृतिं गृहीत्वा क्रमात् क्रममभिलाषदुःखं प्रतनूकृत्य किंचिदपि विषयाणां त्यागग्रहणादिकं न चिन्तयेत्।यत्तु (S यथात्वन्यैर् यथा तु कैश्चिद्) अन्यैर्व्याख्यातम् नकिञ्चिदपि चिन्तयेत् इति तन्नास्मभ्यं रुचितम्। शून्यवादप्रसंगात्।।6.24 6.25।।कामानां त्यागे (SN कामानामुपायत्यागे) उपायः संकल्पत्याग इत्याह संकल्पेति। शनैः शनैरिति। मनसैव न (S omit न) व्यापारोपरमेण। धृतिं गृहीत्वा क्रमात् क्रममभिलाषदुःखं प्रतनूकृत्य किंचिदपि विषयाणां त्यागग्रहणादिकं न चिन्तयेत्।यत्तु (S यथात्वन्यैर् यथा तु कैश्चिद्) अन्यैर्व्याख्यातम् नकिञ्चिदपि चिन्तयेत् इति तन्नास्मभ्यं रुचितम्। शून्यवादप्रसंगात्।
।।6.25।।शनैःशनैरुपरमेद्बुद्ध्या इति बुद्धेरपीन्द्रियग्रामनियमने कारणत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् कथमेतदित्यत आह बुद्धेरिति। अनेनोपरमेदित्यस्यार्थद्वयमुक्तं भवति।
।।6.25।।भूमिकाजयक्रमेण शनैःशनैरुपरमेत्। धृतिर्धैर्यमखिन्नता तथा गृहीता या बुद्धिरवश्यकर्तव्यतानिश्चयरूपा तया यदा कदाचिदवश्यं भविष्यत्येव योगः किं त्वरयेत्येवंरूपया शनैःशनैर्गुरूपदिष्टामार्गेण मनो निरुन्ध्यात्। एतेनानिर्वेदनिश्चयौ प्रागुक्तौ दर्शितौ। तथाच श्रुतिःयच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि। ज्ञानं महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि।। इति। वागिति वाचं लौकिकीं वैदिकीं च मनसि व्यापारवति नियच्छेत्।नानुध्यायाद्बहूञ्छब्दान्वाचो विग्लापनं हि तत् इति श्रुतेः। वाग्वृत्तिनिरोधेन मनोवृत्तिमात्रशेषो भवेदित्यर्थः। चक्षुरादिनिरोधोऽप्येतस्यां भूमौ द्रष्टव्यः। मनसीति छान्दसं दैर्ध्यम्। तन्मनः कर्मेन्द्रियज्ञानेन्द्रियसहकारि नानाविधविकल्पसाधनं करणम्। ज्ञाने जानातीति ज्ञानमिति व्युत्पत्त्या ज्ञातर्यात्मनि ज्ञातृत्वोपाधावहंकारे नियच्छेत् मनोव्यापारान्परित्यज्याहंकारमात्रं परिशेषयेत्। तच्च ज्ञानं ज्ञातृत्वोपाधिमहंकारमात्मनि महति महत्तत्त्वे सर्वव्यापके नियच्छेत्। द्विविधो ह्यहंकारो विशेषरूपः सामान्यरूपश्चेति। अयमहमेतस्य पुत्र इत्येवं व्यक्तमभिमन्यमानो विशेषरूपो व्यष्ट्यहंकारः। अस्मीत्येतावन्मात्रभिमन्यमानः सामान्यरूपः समष्ट्यहंकारः। स च हिरण्यगर्भो महानात्मेति च सर्वानुस्यूतत्वादुच्यते। ताभ्यामहंकारभ्यां विविक्तो निरुपाधिकः शान्तात्मा सर्वान्तरश्चिदेकरसस्तस्मिन्महान्तमात्मानं समष्टिबुद्धिं नियच्छेत्। एवं तत्कारणमव्यक्तमपि नियच्छेत्। ततो निरुपाधिकस्त्वंपदलक्ष्यः शुद्ध आत्मा साक्षात्कृतो भवति। शुद्धे हि चिदेकरसे प्रत्यगात्मनि जडशक्तिरूपमनिर्वाच्यमव्यक्तं प्रकृतिरुपाधिः। सा च प्रथमं सामान्याहंकाररूपं महत्तत्वं नाम धृत्वा व्यक्तीभवति। ततो बहिर्विशेषाहंकारूपेण ततो बहिर्मनोरूपेण ततो बहिर्वागादीन्द्रियरूपेण। तदेतच्छ्रत्याभिहितंइन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः।।महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः।। इति। तत्र गवादिष्विव वाङ्निरोधः प्रथमा भूमिः।।बालमुग्धादिष्विव निर्मनस्त्वं द्वितीया। तन्द्र्यमिवाहंकारराहित्यं तृतीया। सुषुप्ताविव महत्तत्त्वराहित्यं चतुर्थी। तदेतद्भूमिचतुष्टयमपेक्ष्य शनैःशनैःरुपरमेदित्युक्तम्। यद्यपि महत्तत्त्वशान्तात्मनोर्मध्ये महत्तत्त्वोपादानमव्याकृताख्यं तत्त्वं श्रुत्योदाहारि तथापि तत्र महत्तत्त्वस्य नियमनं नाभ्यधायि। सुषुप्ताविव जीवस्वरूपस्यसता सोम्य तदा संपन्नो भवति इति श्रुतेः स्वरूपलयप्रसङ्गात्। तस्य च कर्मक्षये सति पुरुषप्रयत्नमन्तरेण स्वतएव सिद्धत्वात्तत्त्वदर्शनानुपयोगित्वाच्चदृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः इति पूर्वमभिधाय सूक्ष्मत्वसिद्धये निरोधसमाधेरभिधानात्। सच तत्त्वदिदृक्षोर्दर्शनसाधनत्वेन दृष्टतत्त्वस्य च जीवन्मुक्तिरूपक्लेशक्षयायापेक्षितः। ननु शान्तात्मन्यवरुद्धस्य चित्तस्य वृत्तिरहितत्वेन सुषुप्तिवदर्शनहेतुत्वमिति चेत्। न। स्वतःसिद्धस्य दर्शनस्य निवारयितुमशक्यत्वात्। तदुक्तम्आत्मानात्माकारं स्वभावतोऽवस्थितं सदा चित्तम्। आत्मैकाकारतया तिरस्कृतानात्मदृष्टि विदधीत।। यथा घट उत्पद्यमानः स्वतो वियत्पूर्ण एवोत्पद्यते। जलतण्डुलादिपूरणं तूत्पन्ने घटे पश्चात्पुरुषप्रयत्नेन भवति। तत्र जलादौ निःसारितेऽपि वियन्निःसारयितुं न शक्यते। मुखपिधानेऽप्यन्तर्वियदवतिष्ठत एव तथा चित्तमुत्पद्यमानं चैतन्यपूर्णमेवोत्पद्यते। उत्पन्ने तु तस्मिन्मूषानिषिक्तद्रुतताम्रवद्धटदुःखादिरूपत्वं भोगहेतुधर्माधर्मसहकृतसामग्रीवशाद्भवति। तत्र घटदुःखाद्यनात्माकारे विरामप्रत्ययाभ्यासेन निवारितेऽपि निर्निमित्तश्चिदाकारो वारयितुं न शक्यते। ततो निरोधसमाधिना निर्वृत्तिकेन चित्तेन संस्कारमात्रशेषतयातिसूक्ष्मत्वेन निरुपाधिकचिदात्ममात्राभिमुखत्वाद्वृत्तिं विनैव निर्विघ्नमात्मानुभूयते। तदेतदाहआत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् इति। आत्मनि निरुपाधिके प्रतीचि संस्था समाप्तिर्यस्य तदात्मसंस्थं सर्वप्रकारवृत्तिशून्यं स्वभावसिद्धात्माकारमात्रविशिष्टं मनः कृत्वा धृतिगृहीतया विवेकबुद्ध्या संपाद्यासंप्रघातसमाधिस्थः सन् किंचिदपि अनात्मानमात्मानं वा न चिन्तयेन्न वृत्त्या विषयीकुर्यात्। अनात्माकारवृत्तौ हि व्युत्थानमेव स्यात्। आत्माकारवृत्तौ च संप्रज्ञातः समाधिरित्यसंप्रज्ञातसमाधिस्थैर्याय कामपि चित्तवृत्तिं नोत्पादयेदित्यर्थः।
।।6.25।।ननु कथमिन्द्रियग्रामं विनियच्छेदित्यपेक्षयामाह शनैः शनैरिति। धृतिगृहीतया वियोगतापादिदुःखसहनशीलधैर्यगृहीतया बुद्ध्या मनः आत्मसंस्थं भावात्मकस्थितं कृत्वा शनैःशनैरुपरमेत् स्वभोगरूपेभ्य उपशमयेत्। कथमुपरतिर्भवेदित्यत आह न किञ्चिदपि चिन्तयेदिति। भावात्मकस्वरूपातिरिक्तं किञ्चिदपि न चिन्तयेन्न भावयेत्।
।।6.25।। शनैः शनैः न सहसा उपरमेत् उपरतिं कुर्यात्। कया बुद्ध्या। किंविशिष्टया धृतिगृहीतया धृत्या धैर्येण गृहीतया धृतिगृहीतया धैर्येण युक्तया इत्यर्थः। आत्मसंस्थम् आत्मनि संस्थितम् आत्मैव सर्वं न ततोऽन्यत् किञ्चिदस्ति इत्येवमात्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्। एष योगस्य परमो विधिः।।तत्र एवमात्मसंस्थं मनः कर्तुं प्रवृत्तो योगी
।।6.22 6.25।।तदेव विशिनष्टि यं लब्ध्वेति। एतेनेष्टप्राप्त्यनिष्टनिवृत्तिफलको योगः समन्वितःतं विद्यात् ৷৷. योगसंज्ञितं दुःखसंयोगेन वियोग एव योग इति विरुद्धलक्षणया उच्यते। यस्मादेवं महाफलो योगस्तस्मात्स एव यत्नोऽभ्यसनीयः इत्याह सार्धेन। स निश्चयेनेति यत्नेन।