यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।6.30।।
yo māṁ paśhyati sarvatra sarvaṁ cha mayi paśhyati tasyāhaṁ na praṇaśhyāmi sa cha me na praṇaśhyati
He who sees Me everywhere and sees everything in Me, never becomes separated from Me, nor do I from him.
6.30 यः who? माम् Me? पश्यति sees? सर्वत्र everywhere? सर्वम् all? च and? मयि in Me? पश्यति sees? तस्य of him? अहम् I? न not? प्रणश्यामि vanish? सः he? च and? मे to Me? न not? प्रणश्यति vanishes.Commentary In this verse the Lord describes the effect of the vision of the unity of the Self or oneness.He who sees Me? the Self of all? in all beings? and everything (from Brahma the Creator down to the blade of grass) in Me? I am not lost to him? nor is he lost to Me. I and the sage or seer of unity of the Self become identical or one and the same. I never leave his presence nor does he leave My presence. I never lose hold of him nor does he lose hold of Me. I dwell in him and he dwells in Me.
।।6.30।। व्याख्या--'यो मां पश्यति सर्वत्र'--जो भक्त सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पशु, पक्षी, देवता, यक्ष, राक्षस, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदिमें मेरेको देखता है। जैसे, ब्रह्माजी जब बछड़ों और ग्वालबालोंको चुराकर ले गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये। बछड़े और ग्वालबाल ही नहीं, प्रत्युत उनके बेंत, सींग, बाँसुरी, वस्त्र, आभूषण आदि भी भगवान् स्वयं ही बन गये (टिप्पणी प0 364)। यह लीला एक वर्षतक चलती रही, पर किसीको इसका पता नहीं चला। बछड़ोंमेंसे कई बछ़ड़े तो केवल दूध ही पीनेवाले थे, इसलिये वे घरपर ही रहते थे और बड़े बछड़ोंको भगवान् श्रीकृष्ण अपने साथ वनमें ले जाते थे। एक दिन दाऊ दादा (बलरामजी) ने देखा कि छोटे बछड़ोंवाली गायें भी अपने पहलेके (बड़े) बछड़ोंको देखकर उनको दूध पिलानेके लिये हुंकार मारती हुई दौड़ पड़ीं। बड़े गोपोंने उन गायोंको बहुत रोका, पर वे रुकी नहीं। इससे गोपोंको उन गायोंपर बहुत गुस्सा आ गया। परन्तु जब उन्होंने अपने-अपने बालकोंको देखा, तब उनका गुस्सा शान्त हो गया और स्नेह उमड़ पड़ा। वे बालकोंको हृदयसे लगाने लगे, उनका माथा सूँघने लगे। इस लीलाको देखकर दाऊ दादाने सोचा कि यह क्या बात है; उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो उनको बछड़ों और ग्वालबालोंके रूपमें भगवान् श्रीकृष्ण ही दिखायी दिये। ऐसे ही भगवान्का सिद्ध भक्त सब जगह भगवान्को ही देखता है अर्थात् उसकी दृष्टिमें भगवत्सत्ताके सिवाय दूसरी किञ्चिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती। 'सर्वं च मयि पश्यति'--और जो भक्त देश, काल. वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिको मेरे ही अन्तर्गत देखता है। जैसे, गीताका उपदेश देते समय अर्जुनके द्वारा प्रार्थना करनेपर भगवान् अपना विश्वरूप दिखाते हुए कहते हैं कि चराचर सारे संसारको मेरे एक अंशमें स्थित देख--'इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। मम देहे' ৷৷. (11। 7) तो अर्जुन भी कहते हैं कि मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देख रहा हूँ--'पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्' (11। 15)। सञ्जयने भी कहा कि अर्जुनने भगवान्के शरीरमें सारे संसारको देखा--'तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा' (11। 13)। तात्पर्य है कि अर्जुनने भगवान्के शरीरमें सब कुछ भगवत्स्वरूप ही देखा। ऐसे ही भक्त देखने, सुनने, समझनेमें जो कुछ आता है, उसको भगवान्में ही देखता है और भगवत्स्वरूप ही देखता है।
।।6.30।। पहले यह कहा गया था कि ब्रह्मसंस्पर्श से योगी अत्यन्त सुख प्राप्त करता है। ब्रह्मसंस्पर्श से तात्पर्य आत्मा और ब्रह्म के एकत्व से है जो उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है। इस ज्ञान को स्वयं भगवान् ही यहाँ स्पष्ट दर्शा रहे हैं। आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र आत्मा का अनुभव करता है।जो मुझे सबमें और सब को मुझमें देखता है अन्य स्थानों के समान ही यहाँ प्रयुक्त मैं शब्द का अर्थ आत्मा है न कि देवकीपुत्र कृष्ण। इस व्याख्या के प्रकाश में जो पुरुष पूर्व श्लोक के साथ इस श्लोक को पढ़ेगा उसे प्रसिद्ध ईशावास्योपनिषद् की इस घोषणा का गूढ़ अर्थ स्पष्ट हो जायेगा ।वह मुझसे वियुक्त नहीं होता बुद्धि से अतीत आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् जीव पाता है कि वह स्वयं आत्मस्वरूप (शिवोऽहम्) है। स्वप्नद्रष्टा पुरुष जागने पर स्वयं जाग्रत् पुरुष बन जाता है वह जाग्रत् पुरुष को उससे भिन्न रहकर कभी नहीं जान सकता।और न मैं उससे वियुक्त होता हूँ द्वैतवादी लोग अपने जीवभाव और देहात्मभाव की दृढ़ता के कारण इस अद्वैत स्वरूप को स्वीकार नहीं कर पाते । जिस स्पष्टता से यहाँ जीव के दिव्य स्वरूप की घोषणा की गयी है उसे और अधिक स्पष्ट नहीं किया जा सकता। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ किसी भी प्रकार से इस तथ्य को गूढ़ और गोपन नहीं रखना चाहते कि अनात्म उपाधियों से तादात्म्य को त्यागने पर योगी स्वयं परमात्मस्वरूप बन जाता है। हो सकता है कि किन्हींकिन्हीं लोगों के लिए यह सत्य चौंका देने वाला हो तथापि है तो वह सत्य ही। जिन्हें इसे स्वीकार करने में संकोच होता हो वे अपने जीव भाव को ही दृढ़ बनाये रख सकते हैं। परन्तु भारत में गुरुओं की परम्परा ने तथा विश्व के अन्य अनुभवी सन्तों ने इसी सत्य की पुष्टि की है कि एक व्यक्ति के हृदय में स्थित आत्मा ही सर्वत्र नामरूपों में स्थित है।वर्तमान दशा में हम अपने आप से ही दूर हो चुके हैं अहंकार एक राजद्रोही है जिसने आत्मसाम्राज्य से स्वयं का निष्कासन कर लिया है। आत्मप्राप्ति पर अहंकार उसमें पूर्णतया विलीन हो जाता है। स्वप्नद्रष्टा के जागने पर वह जाग्रत् पुरुष से भिन्न नहीं रह सकता। भगवान् यहाँ कहते हैं कि साधक और मैं एक दूसरे से कभी वियुक्त नहीं होते।वास्तव में यदि हम यह समझ लेते हैं कि आत्मविस्मृति के कारण परमात्मा जीवभाव को प्राप्त सा हुआ है तो यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि आत्मज्ञान के द्वारा जीव पुन परमात्मस्वरूप को प्राप्त हो सकता है। जैसे एक अभिनेता रंगमंच पर भिक्षुक का अभिनय करते हुए भी वास्तव में भिक्षुक नहीं बन जाता और नाटक की समाप्ति पर भिक्षुक के वेष को त्यागकर पुन स्वरूप को प्राप्त हो जाता है वैसे ही आत्मज्ञान के विषय में भी जीव का ब्रह्मरूप होना है। वेदान्त की यह साहसिक घोषणा समझनी कठिन नहीं है परन्तु सामान्य अज्ञानी जन इससे स्तब्ध होकर रह जाते हैं और अपने दोषों के कारण इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते। उनमें इतना साहस और विश्वास नहीं कि वे दिव्य जीवन जीने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले सकें। इस श्लोक में भगवान् का कथन परमार्थ सत्य के स्वरूप के संबंध में उपनिषदों के निष्कर्ष के विषय में रंचमात्र भी सन्देह नहीं रहने देता।पूर्व श्लोक में कथित सम्यक् दर्शन को पुन बताकर कहते हैं
।।6.30।।उक्तस्यैकत्वज्ञानस्य फलविकल्पत्वशङ्कां शिथिलयति एतस्येति। तत्रैकत्वदर्शनमनुवदति यो मामिति। तत्फलमिदानीमुपन्यस्यति तस्येति। ज्ञानानुवादभागं विभजते यो मामिति। तत्फलोक्तिभागं व्याचष्टे तस्यैवमिति। अनेकत्वदर्शिनोऽपीश्वरो नित्यत्वान्न प्रणश्यतीत्याशङ्क्याह नेति। अहं परमानन्दो न तं प्रति परोक्षीभवामीत्यर्थः। स चेत्यादि व्याचष्टे विद्वानिति। विद्वानिवाविद्वानपीश्वरस्य न नश्यतीत्याशङ्क्योक्तं नेत्यादिना। अविदुषश्च स्वरूपेण सतोऽपि व्यवहितत्वादविद्यया नष्टप्रायतेत्यर्थः। ईश्वरस्य विदुषस्च परस्परमपरोक्षत्वे हेतुमाह तस्य चेति। आत्मैकत्वेऽपि कथं मिथोऽपरोक्षत्वं तत्राह स्वात्मेति। विद्वदीश्वरयोरेकत्वानुवादेन विद्याफलं विवृणोति यस्माच्चेति। तस्मादेकत्वदर्शनार्थं प्रयतितव्यमिति शेषः।
।।6.30।।एकत्वदर्शनस्य फलमाह य इति। यो मां वासुदेवं प्रत्यगभिन्नं सर्वत्र तस्मन्नधिष्ठानरुपं पश्यत्यपरोक्षीकरोति स सर्वं च ब्रह्मादिभूतजातं मयि प्रत्यगभिन्ने वासुदेवे कल्पितं पश्यति तस्य ब्रह्मात्मैक्यसाक्षात्कारवतः। अहं प्रत्यगभिन्नपरमात्मा न प्रणश्यामि अदृश्यः परोक्षो न भवामि। स च विद्वानात्मैकत्वदर्शी मम प्रत्यगभिन्नस्य वासुदेवस्य न प्रणश्यति परोक्षो न भवति। यद्यपि विद्वानिवाविद्वानपि ईश्वरस्य न प्रणश्यति तथाप्यविदुशोऽविद्यया व्यवहितत्वात्परोक्षप्रायता। यत्तु एवं शुद्धं त्वंपदार्थे निरुप्य शुद्धं तत्पदार्थं निरुपयति। यो योगी मामीश्वरं तत्पदार्थ्रपञ्चकारणं मायोपाधिविवेकेन सर्वत्र प्रपञ्चे सद्रूपेण स्फुरणरुपेण चानुस्यूतं सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं परमार्थसत्यमानन्दघनमनन्तं पश्यति योगजेन प्रत्यक्षेणापरोक्षीकरोति तथा सर्वप्रपञ्चजाते मायया मय्योरोपितं मद्भिन्नतया मृषात्वेनैव पश्यति तस्यैव विवेकदर्शिनः अहं तत्पदार्थो भगवान्न प्रणशयामि ईश्वरः कश्चिन्मदभिन्नोऽस्तीति परोक्षज्ञानविषयो न भवामि कुंतु योगजापरोक्षज्ञानविषयो भवामि। यद्यपि वाक्यजापरोक्षज्ञानविषयत्वं पदार्थाभेदेनैव तथापि केवलस्यापि तत्पदार्थस्य योगजापरोक्षज्ञानविषयत्वमुपपद्यत एव। योगजेन प्रत्यक्षेण मामपरोक्षीकुर्वन्स च मे न प्रणश्यति परोक्षो न भवति। स्वात्मा हि मम स विद्वानिति प्रियत्वात्सर्वदा मदपरोक्षज्ञानगोचरो भवति।ये ता मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् इत्त्युक्तेरिति केचित्। तत्र मूलतद्भाष्यस्वव्याख्यानविरुद्धापातनिकातं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामिनावेदविन्मनुते तं बृहन्तम् इत्यादिश्रुतिविरुद्धा। योगजाखण्डापरोक्षज्ञानकल्पना न नादर्तव्या। तस्यैत्यादेः संकोचकपदाद्यभावेन कदाप्यहं तस्य परोक्षी न भवामीत्यर्थं विहाय कदाचित्समाध्यादिकारे योगजप्रत्यक्षेणेति कल्पनाया अयोगाच्चेति दिक्।
।।6.30।।फलमाह यो मामिति। तस्याहं न प्रणश्यामीति सर्वदा योगक्षेमवहः स्यामित्यर्थः। स च मे न प्रणश्यति सर्वदा मद्भक्तो भवति। सत्यपि स्वामिन्यरक्षत्यनाथः एवं भृत्येऽप्यभजत्यभृत्य इति हि प्रसिद्धिः। उक्तं चसर्वदा सर्वभूतेषु समं मां यः प्रपश्यति। अचला तस्य भक्तिः स्याद्योगक्षेमं वहाम्यहम् (৷৷.वहोऽस्म्यम्) इति गारुडे।
।।6.30।।अस्यात्मैकत्वदर्शनस्यापि फलमाह यो मामिति। सर्वत्रास्मच्छब्दः प्रत्यगात्मपरः। यो योगी आत्मानं सर्वत्र पश्यति सर्वं चात्मनि पश्यति तस्य योगिनो ज्ञात आत्मा न प्रणश्यति अदर्शनं न गच्छति। ज्ञात आत्मा न पुनस्तिरोभवति। सकृन्नष्टस्य मूलाज्ञानस्य बीजाभावेन पुनरुदयासंभवादित्यर्थः। ननु कार्यकारणसंघाताभिमानिना शुक्तिरूप्यवद्ब्रह्मण्यध्यस्तेन तदभिमानत्यागपूर्वकं ज्ञातं स्वाधिष्ठानभूतं ब्रह्म मा तिरोधायि बुद्धेस्तत्त्वपक्षपातित्वात् ब्रह्मदृष्ट्या तु मुक्तजीवस्य निरन्वयोच्छेदो भवतीत्याशङ्क्याह स च मे न प्रणश्यतीति। स च विद्वान्मे मम न प्रणश्यति न तिरोभवति मदभिन्नत्वात्। भवेदेतदेवं यदि जीवो मय्यध्यस्तो वा मम विकारो वा भवेत्तदा निरन्वयोच्छेदं प्राप्नुयात्। अहमेव तु सः।तत्त्वमसिअहं ब्रह्मास्मिअयमात्मा ब्रह्म इत्यादिशास्त्रात्। तस्माद्युक्तमुक्तं स च मे न प्रणश्यतीति।
।।6.30।।ततो विपाकदशाम् आपन्नो मम साधर्म्यम् उपागतःनिरञ्जनः परमं साम्यमुपैति (मु0 उ0 3।1।3) इत्युच्यमानं सर्वस्य आत्मवस्तुनो विधूतपुण्यपापस्य स्वरूपेण अवस्थितस्य मत्साम्यं पश्यन् यः सर्वत्र आत्मवस्तुनि मां पश्यति सर्वम् आत्मवस्तु च मयि पश्यति अन्योन्यसाम्याद् अन्यतरदर्शनेन अन्यतरद् अपि ईदृशम् इति पश्यति तस्य स्वात्मस्वरूपं पश्यतः अहं तत्साम्यात् न प्रणश्यामि न अदर्शनम् उपयामि मम अपि मां पश्यतः मत्साम्यात् स्वात्मानं मत्समम् अवलोकयन् स न अदर्शनम् उपयाति।ततो विपाकदशाम् आह
।।6.30।।एवंभूतात्मज्ञानस्य सर्वभूतात्मतया मदुपासनं मुख्यं कारणमित्याह य इति। मां परमेश्वरं सर्वत्र भूतमात्रे यः पश्यति सर्वं च प्राणिमात्रं मयि यः पश्यति तस्याहं न प्रणश्याम्यदृश्यो न भवामि स च ममादृश्यो न भवति। प्रत्यक्षो भूत्वा कृपादृष्ट्या तं विलोक्यानुगृह्णामीत्यर्थः।
6.3031 इति विशेषनिर्देशायुक्ते श्लोकद्वये प्रतिपादयितुमुचितत्वात्अस्य परमात्मविषयत्वेयो माम् इति श्लोकद्वयेन मात्रया पौनरुक्त्यं च स्यात्।योऽयं योगः 6।33 इत्येतदनुवादे च साम्यमात्रमेवोच्यते न तु परस्पराधाराधेयभावः। प्रागपिविद्याविनय 5।18 इत्यादौ साम्यमात्रमेवोक्तम्। अतोऽत्र जीवानां परस्परसाम्यमेव विवक्षितमिति।।।6.30।।एवं देवमनुष्यादिप्रकृतिपरिणामविशेषरूपभेदनिरसने ज्ञानद्रव्यतयैकरूपत्वानुसन्धानमुक्तम् अथ तस्यैव देवादिभेदहेतुभूतपुण्यपापतारतम्यविधूननेन परमात्मना परमसाम्यानुसन्धानमुच्यते यो मां इति। अस्यापि श्लोकस्य साम्यविषयत्वे हेतुः प्रागेवोक्तः।ततोऽपि विपाकदशापन्नः प्रथमदशातोऽधिकां विपाकदशां प्राप्त इत्यर्थः। जीवात्मनां परमात्मनश्च साधर्म्यं स्मारयति मम साधर्म्यमिति।उपागतः बुद्ध्या प्राप्त इत्यर्थः। नह्यसाविदानीं मुक्तः पुण्यपापविधूननेन साम्यप्रतिपादनाय निरञ्जनः इति श्रुतिरुपात्ता। तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति मुं.उ.3।1।3 इति हि सायो मां पश्यति इत्यनुवादः तत्सिद्धौ हि भवति। सा कुतः इति शङ्कायां साम्यं तावदुपात्तश्रुत्यादिसिद्धम्। तदनुसन्धानं च विहितम् ततश्च तदनुवादोऽप्युपपन्न इति ज्ञापनायमत्साम्यं पश्यन् यः सर्वत्रात्मवस्तुनि मां पश्यतीत्यवान्तरवचनव्यक्तिभेदो दर्शितः। परमात्मनः सर्वव्यापितया सर्वेषां परमात्मनिष्ठतया च प्रतीतिर्ह्यत्र स्वरसतो जायते तच्चात्र प्रकरणादिवशादनुचितम्। ततश्च साम्यदर्शनमेव विवक्षितमिति वाच्यम् तदप्ययुक्तम् स्वात्मानुसन्धानस्वरूपयोगविपाके परमात्मनोन्येषां च स्फुरणाभावादिति पूर्ववच्छङ्कायामाह अन्योन्येति।अन्यतरर्शनेनान्यतरदपीति एकव्यक्तिदर्शनेन व्यक्त्यन्तरमपीत्यर्थः।तस्याहं इत्यादौ न तावत्प्रध्वंसनिषेधः क्रियते नित्यतया बहुप्रमाणप्रतिपादितयोर्जीवेश्वरयोरिदानीमनित्यत्वशङ्काभावात्तस्य न प्रणश्यामि इत्यादिपरस्परप्रतियोगिनिर्देशानुपपत्तेश्च। न हि किञ्चिदपि वस्तु किञ्चित्प्रत्यनष्टं किञ्चित्प्रति च नष्टं भवति। अतोऽसावदर्शनविषय एवात्र नाशशब्दः। नशिधातोश्च अदर्शनार्थत्वं धातुपाठपठितम्। ततश्च न प्रणश्यामीति कोऽर्थः नाशदर्शनमुपयामीति तदेतद्दर्शयति तस्येत्यादिना। तादृशत्वानुसन्धानस्याभावो निषिध्यत इति भावः।स च मे न प्रणश्यति इत्येतद्दृष्टान्तार्थं साम्यस्य सर्वज्ञबुद्धिविषयतया प्रामाणिकत्वार्थं पूर्ववच्छङ्कापरिहारार्थं चेत्यभिप्रायेणाह ममापीति। सर्वसाक्षात्कारिणोऽपि मम स्वरूपानुसन्धानांशेऽपि तत्साम्यात्तत्स्वरूपमप्यनुसंहितं भवति हीत्यर्थः। स इत्यनेन तदवस्थस्य मुक्तप्रायत्वं विवक्षितमिति व्यञ्जयितुमाह मत्साम्यात्स्यात्मानं मत्सममवलोकयन्निति।
।।6.30।।एष एवार्थः स्पष्टीक्रियते (K omits this sentence ) यो मामिति। प्रणाशः अकार्यकारित्वात् (S कारकत्वात्)। तथाहि परमात्मनः सर्वगतं रूपं यो न पश्यति तस्य परमात्मा पलायितः स्वरूपप्रकटीकाराभावात्। यच्चेदं (N यश्चेदम्) वस्तुजातं तत् तद्भासनात्मनि परमात्मनि ( omits परमात्मनि) निर्विष्टं भाति ( SK विनिविष्टं भाति ( K भवति) तथाविधं यो न पश्यति स परमात्मस्वरूपात् प्रणष्टः तद्व्यतिरेके सति अनिर्भासनात्। यस्तु सर्वगतं मां पश्यति तस्याहं न प्रणष्टः स्वरूपेण भासनात्। भावांश्च मयि पश्यति तत् तेषां भासनोपपत्तौ द्रष्टृतायां परिपूर्णायां स न प्रणष्टः परमात्मनः।
।।6.30।।किञ्चैतदर्थानुवादेन फलप्रतिपादकं उत्तरवाक्यमप्यस्य भगवद्विषयत्वं ज्ञापयतीति भावेनाह फलमिति। अस्य ध्यान विशेषस्येति शेषः। ननु भगवांस्तद्ध्यायी च सर्वान्प्रति नित्यौ तत्कथमेतत् इत्यत आह तस्येति। कथमयमर्थो लभ्यते इत्यत आह सत्यपीति। अविद्यमाननाथोऽयमिति भृत्ये प्रसिद्धिः एवं सत्यपि भृत्येऽभजत्यविद्यमानभृत्योऽयमिति स्वामिनि प्रसिद्धिः। एतदुक्तं भवतिविद्यमानस्यापि स्वयोग्यव्यापाराकरणसादृश्यादुपचारेणाविद्यमानता। प्रकृते तु तथात्वाभावात्न प्रणश्यामि इत्यादिरूढोपचारश्चायम्। अतो न प्रयोजनान्वेषणमिति। अत्र पुराणसम्मतिमाह उक्तं चेति।
।।6.30।।एवं शुद्धं त्वंपदार्थं निरूप्य शुद्धं तत्पदार्थं निरूपयति यो योगी मामीश्वरं तत्पदार्थमशेषप्रपञ्चकारणमायौपाधिकमुपाधिविवेकेन सर्वत्र प्रपञ्चे सद्रूपेण स्फुरणरूपेण चानुस्यूतं सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं परमार्थसत्यमानन्दघनमनन्तं पश्यति योगजेन प्रत्यक्षेणापरोक्षीकरोति तथा सर्वं च प्रपञ्चजातं मायया मय्यारोपितं मद्भिन्नतया मृषात्वेनैव पश्यति तस्यैवंविवेकदर्शिनोऽहं तत्पदार्थों भगवान्न प्रणश्यामि ईश्वरः कश्चिन्मद्भिन्नोऽस्तीति परोक्षज्ञानविषयो न भवामि किंतु योगजापरोक्षज्ञानविषयो भवामि। यद्यपि वाक्यजापरोक्षज्ञानविषयत्वं त्वंपदार्थाभेदेनैव तथापि केवलस्यापि तत्पदार्थस्य योगजापरोक्षज्ञानविषयत्वमुपपद्यत एव। एवं योगजेन प्रत्यक्षेण मामपरोक्षीकुर्वन् स च मे न प्रणश्यति परोक्षो न भवति। स्वात्मा हि मम स विद्वानतिप्रियत्वात्सर्वदा मदपरोक्षज्ञानगोचरो भवतिये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् इत्युक्तेः। तथैव शरशय्यास्थभीष्मध्यानस्य युधिष्ठिरं प्रति भगवतोक्तेः। अविद्वांस्तु स्वात्मानमपि सन्तं भगवन्तं न पश्यति अतो भगवान् पश्यन्नपि तं न पश्यति।स एनमविदितो न भुनक्ति इति श्रुतेः। विद्वांस्तु सदैव संनिहितो भगवतोऽनुग्रहभाजनमित्यर्थः।
।।6.30।।एवं स्वरूपज्ञानफलमाह यो मामिति। यः सर्वत्र जीवेषु वियोगावस्थायां मां पश्यति संयोगावस्थायां मयि सर्वं पश्यति तस्याहं न प्रणश्यामि न कदाचिदपि वियुक्तो भवामि। स च मे मत्तः न प्रणश्यति न वियुक्तो भवतीत्यर्थः।
।।6.30।। यो मां पश्यति वासुदेवं सर्वस्य आत्मानं सर्वत्र सर्वेषु भूतेषु सर्वं च ब्रह्मादिभूतजातं मयि सर्वात्मनि पश्यति तस्य एवं आत्मैकत्वदर्शिनः अहम् ईश्वरो न प्रणश्यामि न परोक्षतां गमिष्यामि। स च मे न प्रणश्यति स च विद्वान् मम वासुदेवस्य न प्रणश्यति न परोक्षो भवति तस्य च मम च एकात्मकत्वात् स्वात्मा हि नाम आत्मनः प्रिय एव भवति यस्माच्च अहमेव सर्वात्मैकत्वदर्शी।।इत्येतत् पूर्वश्लोकार्थं सम्यग्दर्शनमनूद्य तत्फलं मोक्षः अभिधीयते
।।6.29 6.30।।एतादृशस्य योगिनो ब्रह्मसुखाविर्भावो वामदेववत्सर्वात्मभावे भवतीत्याह। गुह्यः असम्प्रज्ञातसमाधिर्द्विविधः अक्षरब्रह्मविषयको भगवद्विषयकश्च तत्र पूर्वस्य फलमाह भगवान् सर्वभूतस्थमिति। सर्वभूतस्थितमात्मानं पश्यति सर्वभूतानि च स्वात्मनि अवस्थानेन कार्यकारणवस्त्वैक्यमर्शनेन वा पश्यति तथा चानन्दांशाविर्भावे भगवदात्मकत्वेन तस्य व्यापकत्वं प्रकटीभवतीत्यर्थः। द्वितीयस्याह ततोऽपि गुह्यतरम्। वासुदेवं मां योगजधर्मेण पश्यति सर्वभूतानि स्वं च मय्यवस्थानेनाभेदेन च पश्यति ऐतदात्म्यमिदं सर्वं छा.उ.अ.6खं.816वासुदेवः सर्वं 7।19अखण्डं कृष्णवत्सर्वं स आत्मा तत्त्वमसि छा.उ.अ.6खं.816योऽसौ सोऽहं योऽहं सोऽसौ इति श्रुतिस्मृतिवाक्यात्। तत्राभेदोपासना तामसी काचित्तान्त्रिकीत्यग्रे वक्ष्यतिएकत्वेन पृथक्त्वेन 9।15 इत्यादौ। अतस्ततो विभिद्याह तस्याहं न प्रणश्यामीति नादृश्यो भवामीत्याह। स ममादृश्यो न भवति आनन्दाविर्भावरूपेण चतुर्भुजादिरूपो भूत्वा प्रत्यक्षं कृपादृष्टया तमनुगृह्णामीत्यर्थः।