श्री भगवानुवाच असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।
śhrī bhagavān uvācha asanśhayaṁ mahā-bāho mano durnigrahaṁ chalam abhyāsena tu kaunteya vairāgyeṇa cha gṛihyate
The Blessed Lord said, "Undoubtedly, O mighty-armed Arjuna, the mind is difficult to control and restless; but with practice and dispassion, it can be restrained."
6.35 असंशयम् undoubtedly? महाबाहो O mightyarmed? मनः the mind? दुर्निग्रहम् difficult to control? चलम् restless? अभ्यासेन by practice? तु but? कौन्तेय O Kaunteya? वैराग्येण by dispassion? च and? गृह्यते is restrained. Commentary The constant or repeated effort to keep the wandering mind steady by constant meditation on the Lakshya (centre? ideal? goal or object of meditation) is Abhyasa or practice. The same idea or thought of the Self or God is constantly repeated. This constant repetition destroys Vikshepa or the vacillation of the mind and desires? and makes it steady and onepointed.Vairagya is dispassion or indifference to senseobjects in this world or in the other? here or hereafter? seen or unseen? heard or unheard? achieved through constantly looking into the evil in them (DoshaDrishti). You will have to train the mind by constant reflection on the immortal? allblissful Self. You must make the mind realise the transitory nature of the wordly enjoyments. You must suggest to the mind to look for its enjoyment not in the perishable and changing external objects but in the immortal? changeless Self within. Gradually the mind will be withdrawn from the external objects.
।।6.35।। व्याख्या--'असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्'--यहाँ 'महाबाहो' सम्बोधनका तात्पर्य शूरवीरता बतानेमें है अर्थात् अभ्यास करते हुए कभी उकताना नहीं चाहिये। अपनेमें धैर्यपूर्वक वैसी ही शूरवीरता रखनी चाहिये।अर्जुनने पहले चञ्चलताके कारण मनका निग्रह करना बड़ा कठिन बताया। उसी बातपर भगवान् कहते हैं कि तुम जो कहते हो, वह एकदम ठीक बात है, निःसन्दिग्ध बात है; क्योंकि मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है। 'अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते' अर्जुनकी माता कुन्ती बहुत विवेकवती तथा भोगोंसे विरक्त रहनेवाली थीं। कुन्तीने भगवान् श्रीकृष्णसे विपत्तिका वरदान माँगा था (टिप्पणी प0 370)। ऐसा वरदान माँगनेवाला इतिहासमें बहुत कम मिलता है। अतः यहाँ 'कौन्तेय' सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनको कुन्ती माताकी याद दिलाते हैं कि जैसे तुम्हारी माता कुन्ती बड़ी विरक्त है, ऐसे ही तुम भी संसारसे विरक्त होकर परमात्मामें लगो अर्थात् मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगाओ।मनको बार-बार ध्येयमें लगानेका नाम 'अभ्यास' है। इस अभ्यासकी सिद्धि समय लगानेसे होती है। समय भी निरन्तर लगाया जाय, रोजाना लगाया जाय। कभी अभ्यास किया, कभी नहीं किया--ऐसा नहीं हो। तात्पर्य है कि अभ्यास निरन्तर होना चाहिये और अपने ध्येयमें महत्त्व तथा आदर-बुद्धि होनी चाहिये। इस तरह अभ्यास करनेसे अभ्यास दृढ़ हो जाता है। अभ्यासके दो भेद हैं--(1) अपना जो लक्ष्य, ध्येय है, उसमें मनोवृत्तिको लगाये और दूसरी वृत्ति आ जाय अर्थात् दूसरा कुछ भी चिन्तन आ जाय, उसकी अपेक्षा कर दे, उससे उदासीन हो जाय। (2) जहाँ-जहाँ मन चला जाय, वहाँ-वहाँ ही अपने लक्ष्यको, इष्टको देखे।उपर्युक्त दो साधनोंके सिवाय मन लगानेके कई उपाय हैं; जैसे--
।।6.35।। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को पूर्णरूप से जानते थे वह एक वीर योद्धा कर्मशील साहसी और यथार्थवादी पुरुष था। ऐसे असामान्य व्यक्तित्व का पुरुष जब गुरु के उपदिष्ट तत्त्वज्ञान से सहमत होकर उसकी सत्यता या व्यावहारिकता के विषय में सन्देह करता है तब गुरु में भी मन के सन्तुलन तथा शिष्य की विद्रोही बुद्धि को समझने और समझाने की असाधारण क्षमता का होना आवश्यक होता है। गीता में इस स्थान पर संक्षेप में स्थिति यह है कि भगवान् के उपदेशानुसार मन के स्थिर होने पर आत्मानुभूति होती है जबकि अर्जुन का कहना है कि चंचल मन स्थिर नहीं हो सकता अत आत्मानुभूति भी असंभव है।जब अर्जुन के समान समर्थ व्यक्ति किसी विचार को अपने मन में दृढ़ कर लेता है तो उसे समझाने का सर्वोत्तम उपाय है प्रारम्भ में उसके विचार को मान लेना। विजय के लिए सन्धि दार्शनिक शास्त्रार्थ में सफलता का रहस्य है और विशेषकर इस प्रकार पूर्वाग्रहों से पूर्ण स्थिति में जो अज्ञानी के लिए स्वाभाविक होती है। इस प्रकार महान मनोवैज्ञानिक श्रीकृष्ण प्रश्न के उत्तर में असंशयं कहकर प्रथम शब्द से ही अपने शक्तिशाली प्रतिस्पर्धी को निशस्त्र कर देते हैं और फिर महाबाहो के सम्बोधन से उसके अभिमान को जाग्रत करते हैं। भगवान् स्वीकार करते हैं कि मन का निग्रह करना कठिन है और इसलिए मन की स्थायी शान्ति और समता सरलता से प्राप्त नहीं हो सकती।इस स्वीकारोक्ति से अर्जुन प्रशंसित होता है। महाबाहो शब्द से उसे स्मरण कराते हैं कि वह एक वीर योद्धा है। भगवान् के कथन में व्यंग का पुट स्पष्ट झलकता है दुष्कर और असाध्य कार्य को सम्पन्न कर दिखाने में ही एक शक्तिशाली पुरुष की महानता होती है न कि अपने ही आंगन के उपवन के कुछ फूल तोड़कर लाने में निसन्देह मन एक शक्ति सम्पन्न शत्रु है परन्तु जितना बड़ा शत्रु होगा उस पर प्राप्त विजय भी उतनी ही श्रेष्ठ होगी।दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण सावधानीपूर्वक चुने हुए उपयुक्त शब्दों का प्रयोग करते हैं जिससे अर्जुन का मन शान्त और स्थिर हो सके ।हे कौन्तेय मन को वश में किया जा सकता है। अभ्यास और वैराग्य के द्वारा प्रारम्भ में उसे वश में करके पूर्णतया आत्मसंस्थ कर सकते हैं यह भगवान् की आश्वासनपूर्ण स्पष्टोक्ति है।बाह्य विषयों में आसक्ति तथा कर्मफलों की हठीली आशा ये ही दो प्रमुख कारण मन में विक्षेप उत्पन्न होने के हैं। इसके कारण मन का संयमन कठिन हो जाता है। यहाँ वैराग्य शब्द से इनका ही त्याग सूचित किया गया है। श्री शंकराचार्य के अनुसार अभ्यास का अर्थ है ध्येय विषयक चित्तवृत्ति की पुनरावृत्ति। सामान्यत ध्यानाभ्यास में इच्छाओं के बारम्बार उठने से यह समान प्रत्यय आवृत्ति खण्डित होती रहती है। परिणाम यह होता है कि पुनपुन मन ध्येय वस्तु के अतिरिक्त अन्य विषयों में विचरण करने लगता है और मनुष्य का आन्तरिक सन्तुलन एवं व्यक्तित्व भी छिन्न भिन्न हो जाता है।इस दृष्टि से अभ्यास वैराग्य को दृढ़ करता है और वैराग्य अभ्यास को। दोनों के दृढ़ होने से सफलता निश्चित हो जाती है।शास्त्रीय ग्रन्थों में प्रयुक्त शब्दों के क्रम की ओर ध्यान देना चाहिए क्योंकि उनमें महत्व की उतरती सीढ़ी में शब्दों का क्रम रखा जाता है । कभीकभी साधकों के मन में यह प्रश्न आता है कि क्या वह मन में स्वाभाविक वैराग्य होने की प्रतीक्षा करें अथवा ध्यान का अभ्यास प्रारम्भ कर दें। अधिकांश लोग व्यर्थ ही वैराग्य की प्रतीक्षा करते रहते हैं। गीता में अभ्यास को प्राथमिकता देकर यह स्पष्ट किया गया है कि अभ्यास के पूर्व वैराग्य की प्रतीक्षा करना उतना ही हास्यास्पद है जितना कि बिना बीज बोये फसल की प्रतीक्षा करना।हमको जीवन का विश्लेषण और अनुभवों पर विचार करते रहना चाहिए और इस प्रकार जानते रहना चाहिए कि हमने जीवन में क्या किया और कितना पाया। यदि ज्ञात होता है कि लाभ से अधिक हानि हुई है तो स्वाभाविक ही हम विचार करेगें कि किस प्रकार जीवन को सुनियोजित ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है और अधिकसेअधिक आनन्द प्राप्त किया जा सकता है। इसी क्रम में फिर शास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ होगा जो हमें जीवनादर्श के आश्चर्य नैतिक मूल्यों की शान्ति आत्मसंयम के आनन्द आत्मविकास के रोमान्च और अहंकार के परिच्छिन्न जीवन के घुटन भरे दुखों का ज्ञान करायेगा।जिस क्षण हम अपनी जीवन पद्धति के प्रति जागरूक हो जाते हैं उसी क्षण अभ्यास का आरम्भ समझना चाहिए। इसके फलस्वरूप सहज स्वाभाविक रूप से जो अनासक्ति का भाव उत्पन्न होता है वही वास्तविक और स्थायी वैराग्य है। अन्यथा वैराग्य तो मूढ़ तापसी जीवन का मिथ्या प्रदर्शन मात्र है जो मनुष्य को संकुचित प्रवृत्ति का बना देता है इतना ही नहीं उसकी बुद्धि को इस प्रकार विकृत कर देता है कि वह उन्माद तथा अन्य पीड़ादायक मनोरोगों का शिकार बन जाता है। विवेक के अभ्यास से उत्पन्न वैराग्य ही आत्मिक उन्नति का साधन है। बौद्धिक परिपक्वता एवं श्रेष्ठतर लक्ष्य के ज्ञान से तथा वस्तु व्यक्ति परिस्थिति और जीवन की घटनाओं के सही मूल्यांकन के द्वारा विषयों के प्रति हमारी आसक्ति स्वत छूट जानी चाहिए। जीवन में सम्यक् अभ्यास और स्थायी वैराग्य के आ जाने पर अन्य विक्षेपों के कारणों के अभाव में मन अपने वश में आ जाता है और तत्पश्चात् वह एक ही संसार को जानता है और वह है सन्तुलन और समता का संसार।तब फिर आत्मसंयमरहित पुरुष का क्या होगा
।।6.35।।प्रश्नमङ्गीकृत्य प्रतिवचनमुत्थापयति श्रीभगवानिति। कुत्र संशयराहित्यं तत्राह मन इति। कथं तर्हि मनोनिरोधो भवति तत्राह किं त्विति। अभ्यासस्वरूपं सामान्येन निदर्शयति अभ्यासो नामेति। कस्यांचिच्चित्तभूमावित्यविशेषितो ध्येयो विषयो निर्दिश्यते समानप्रत्ययावृत्तिर्विजातीयप्रत्ययान्तरितेति शेषः। चित्तस्येति षष्ठी प्रत्ययस्य तद्विकारत्वद्योतनार्था। वैराग्यस्वरूपं निरूपयति वैराग्यमिति। तेषु वैतृष्ण्यं वैराग्यं नामेति संबन्धः। तत्र हेतुं सूचयति दोषेति। विषयेषु तृष्णाविषयेषु दोषदर्शनमभ्यस्यते तेन वैतृष्ण्यं जायते। निगृह्यमाणं निर्दिशति विक्षेपेति। तस्मिन्गृहीते निरुद्धे मनोनिरोधेऽस्य किं स्यादित्यपेक्षायामाह एवमिति। अभ्यासहेतुकवैराग्यद्वारा चित्तप्रचारनिरोधे निरुद्धवृत्तिकं मनो विषयविमुखमन्तर्निष्ठं भवतीत्यर्थः।
।।6.35।।प्रश्नमभिनन्दन् श्रीभगवानुवाच। असंशयं मनश्चलं दुर्निग्रहं चेत्यस्मिन्नर्थे संशयो नास्ति। यद्यपि दुर्निग्रहं तथापि तु अभ्यासेन चित्तभूमौ कस्यांचिद्विजातीयप्रत्ययानन्तरितसमानप्रत्ययावृत्तिलक्षणेन वैराग्यं नाम दष्टादृष्टेषु भोगेषु दोषदर्शनाभ्यासा द्वैतृष्ण्यं तेन च गृह्यते। विक्षिप्तत्वादिकं त्यक्त्वा निरुध्यत इत्यर्थः। पूर्वोर्धे महाबाहो इति संबोधयन्महाबाहुनातिबलेन जितनिवातकवचादिना त्वयापि यद्येवमुच्यते तर्हि मनसो दुर्निग्रहत्वे संशयो नास्तीति सूचयति। बाह्वदिबलसाध्यो मनसो निग्रहो न भवति किंत्वभ्यासवैराग्यसाध्यः। यथातिप्रबलै राजभिः स्वग्रहे वासयितुं दुर्घटो दुर्वासा अपि तव मात्राऽबलया कुन्त्या विषयेषुवैराग्येण तत्सेवनपरत्वं परित्यज्य तच्छुश्रुषाभ्यासेन च स्वग्रहे निवासितः प्रसादितश्च तथा त्वं तत्पुत्रो मदुक्तेनोपायेन दुर्निग्रहमपि मनो निग्रहीतुं योग्योऽसीति सूचयन्नाह हे कौन्तेयेति।
।।6.35।।मनसो दुर्ग्रहत्वमभ्युपेत्य भगवानुवाच। यद्यप्येवं तथाप्यभ्यासवैराग्याभ्यां समुच्चिताभ्यां दुर्निग्रहमपि मनो निगृह्यते। तत्राभ्यासो नाम कस्यांचिच्चित्तभूमौ समानप्रत्ययावृत्तिः। वैराग्यं तु दृष्टादृष्टेष्टभोगेषु ससाधनेषु दोषदर्शनेन वैतृष्ण्यम्। तत्र यथा कैदारिकः केदारेषु कुल्याजलं संचारयन्नेकस्य द्वारं पिधायारपरस्योद्धाटयति तद्वद्वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते अभ्यासेन कल्याणस्रोत उद्घाट्यत इति द्वयोरप्यावश्यकत्वम्। तथा च सूत्रम् अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः इति।
।।6.35।।श्रीभगवानुवाच चलस्वभावतया मनो दुर्निग्रहम् एव इत्यत्र न संशयः तथापि आत्मनो गुणाकरत्वाभ्यासजनिताभिमुख्येन आत्मव्यतिरिक्तेषु विषयेषु अपि दोषाकरत्वदर्शनजनितैवतृष्ण्येन च कथञ्चिद् गृह्यते।
।।6.35।।तदुक्तं चञ्चलत्वादिकमङ्गीकृत्यैव मनोनिग्रहोपायं श्रीभगवानुवाच असंशयमिति। चञ्चलत्वादिना मनो निरोद्धुमशक्यमिति यद्वदसि एतन्निःसंशयमेव तथापि तु विषयाचिन्तनपूर्वकमभ्यासेन परमात्माकारप्रत्ययया वृत्त्या विषयवैतृष्ण्येन च गृह्यते निगृह्यते। अभ्यासेन लयप्रतिबन्धाद्वैराग्येण च विक्षेपप्रतिबन्धादुपरतवृत्तिकं सत्परमात्माकारेण परिणतं तिष्ठतीत्यर्थः। तदुक्तं योगशास्त्रे मनसो वृत्तिशून्यस्य ब्रह्माकारतया स्थितिः। या संप्रज्ञातनामासौ समाधिरभिधीयते।। इति।
।।6.35।।अथार्जुनेन कण्ठोक्तमनुवदन् बुभुत्सितमुपायं श्लोकद्वयेनाह भगवान्। तत्रदुर्निग्रहंचलम् इति पदद्वयमर्जुनोक्तप्रतिज्ञाहेत्वनुवादरूपमाहचलस्वभावतयेति।असंशयं इत्येतत्सत्यमितिवदर्धाङ्गीकारपरम्। तुशब्दाभिप्रेतं विशेषं दर्शयतितथापीति। अनुकूलतयाऽभ्यासो हि तत्र प्रावण्यहेतुः स्यादित्यभ्यासविशेषं तत्फलं च व्यनक्तिआत्मन इति। नित्यत्वज्ञानत्वानन्दत्वाकर्मवश्यत्वामलत्वादयोऽत्र गुणाः। कथञ्चिदित्यवधानार्थम्। एवं मनसो ग्रहणोपाय उक्तः ततश्चएतस्याहं न पश्यामि 6।33 इत्युक्तमर्थं विषयविशेषे व्यवस्थापयति असंयत इति श्लोकेन। मनोनिग्रहप्रकरणत्वात् असंयतवश्यशब्दसमभिव्याहारसामर्थ्याच्चात्र आत्मशब्दो मनोविषयः। महाबाहुशब्दसम्बुद्धिसूचितमाहमहतापि बलेनेति।उपायेन तु यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः पं.तं. इति भावः।मे मतिः इत्यनेन निस्सन्देहत्वं विवक्षितमित्याहदुष्प्राप एवेति।उपायतस्तु वश्यात्मनेति व्याख्येयान्वयप्रदर्शनम्। तद्व्याख्यानंपूर्वेत्यादि। उक्तलक्षणं कर्ममात्रं मनोनिग्रहोपायः अभ्यासवैराग्ये तु तस्यैवाङ्गतयोक्ते इति भावः यतमानेन योगमभ्यस्यतेत्यर्थः।
।।6.35।।अत्र उत्तरम् असंशयमिति। वैराग्येण विषयोत्सुकता विनाश्यते। अभ्यासेन मोक्षपक्षः क्रमात् क्रमं विषयीक्रियते इति द्वयोरुपादानम्। उक्तं च तत्रभवता भाष्यकृता उभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति।
।।6.35 6.36।।संयतेति श्लोको व्यर्थ इव प्रतीयते तन्निवर्त्यामाशङ्कां सूचयन् तात्पर्यमाह न चेति। यथा मत्तमातङ्गः स्वयमेव श्रान्तः शान्तो भवति तथा विषयैस्तुष्टं मनः कदाचित्स्वयमेव नियतं भवति किमभ्यासादिना इत्येतन्नैवेत्यर्थः। कुतः इत्यत आह शुभेति। सदेति पूर्वेण सम्बन्धः। अनेनात्र शुभेच्छादिकमप्युलक्षितमिति सूचितम्। मुक्तिबीजत्वान्मनोनियमनस्य मुक्तिरित्युक्तम्।
।।6.35।।तमिममाक्षेपं परिहरन् श्रीभगवानुवाच सम्यग्विदितं ते चित्तचेष्टितं मनो निग्रहीतुं शक्ष्यसीति संतोषेण संबोधयति। हे महाबाहो महान्तौ साक्षान्महादेवेनापि सह कृतप्रहरणौ बाहू यस्येति निरतिशयमुत्कर्षं सूचयति। प्रारब्धकर्मप्राबल्यादसंयतात्मना दुर्निग्रहं दुःखेनापि निग्रहीतुमशक्यम्। प्रमाथि बलवद्दृढमिति विशेषणत्रयं पिण्डीकृत्यैतदुक्तम्। चलं स्वाभावचञ्चलं मन इत्यसंशयं नास्त्येव संशयोऽत्र। सत्यमेवैतद्ब्रवीषीत्यर्थः। एवं सत्यपि संयतात्मना समाधिमात्रोपायेन योगिनाऽभ्यासेन वैराग्येण च गृह्यते निगृह्यते सर्ववृत्तिशून्यं क्रियते तन्मन इत्यर्थः। अनिग्रहीतुरसंयतात्मनः सकाशात्संयतात्मनो निग्रहीतुर्विशेषद्योतनाय तुशब्दः। मनोनिग्रहेऽभ्यासवैराग्ययोः समुच्चयबोधनाय चशब्दः। हे कौन्तेयेति पितृष्वसृपुत्रस्त्वमवश्यं मया सुखी कर्तव्य इति स्नेहसंबन्धसूचनेनाश्वासयति। अत्र प्रथमार्धेन चित्तस्य हठनिग्रहो न संभवतीति द्वितीयार्धेन तु क्रमनिग्रहः संभवतीत्युक्तम्। द्विविधो हि मनसो निग्रहः हठेन क्रमेण च। तत्र चक्षुःश्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि वाक्पाण्यादीनि कर्मेन्द्रियाणि च तद्गोलिकमात्रोपरोधेन हठान्निगृह्यन्ते। तद्दृष्टान्तेन मनोऽपि हठेन निग्रहीष्यामीति मूढस्य भ्रान्तिर्भवति। नच तथा निग्रहीतुं शक्यते तद्गोलकस्य हृदयकमलस्य निरोद्धुमशक्यत्वात्। अतएव च क्रमनिग्रह एव युक्तः। तदेतद्भगवान्वसिष्ठ आहउपविश्योपविश्यैव चित्तज्ञेन मुहुर्मुहुः। न शक्यते मनो जेतुं विना युक्तिमनिन्दिताम्।।अङ्कुशेन विना मत्तो यथा दुष्टमतङ्गजः। अध्यात्मविद्याधिगमः साधुसङ्गम एव च।।वासनासंपरित्यागः प्राणस्पन्दनिरोधनम्। एतास्ता युक्तयः पुष्टाः सन्ति चित्तजये किल।।सतीषु युक्तिष्वेताषु हठान्नियमयन्ति ये। चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिघ्नन्ति तमोऽञ्जनैः इति। क्रमनिग्रहे चाध्यात्मविद्याधिगम एक उपायः। सा हि दृश्यस्य मिथ्यात्वं दृग्वस्तुनश्च परमार्थसत्यपरमानन्दस्वप्रकाशत्वं बोधयति। तथाच सत्येतन्मनः स्वगोचरेषु दृश्येषु मिथ्यात्वेन प्रयोजनाभावं प्रयोजनवति च परमार्थसत्यपरमानन्दरूपे दृग्वस्तुनि स्वप्रकाशत्वेन स्वागोचरत्वं बुद्ध्वा निरिन्धनाग्निवत्स्वयमेवोपशाम्यति। यस्तु बोधितमपि तत्त्वं न सम्यग्बुध्यते यो वा विस्मरति तयोः साधुसङ्गम एवोपायः। साधवो हि पुनःपुनर्बोधयन्ति स्मारयन्ति च। यस्तु विद्यामदादिदुर्वासनया पीड्यमानो न साधूननुवर्तितुमुत्सहते तस्य पूर्वोक्तविवेकेन वासनापरित्याग एवोपायः। यस्तु वासनानामतिप्राबल्यात्तास्त्यक्तुं न शक्नोति तस्य प्राणस्पन्दनिरोध एवोपायः। प्राणस्पन्दवासनयोश्चित्तप्रेरकत्वात्तयोर्निरोधे चित्तशान्तिरुपपद्यते। तदेतदाह स एवद्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने। एकस्मिंश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः।।प्राणायामदृढाभ्यासैर्युक्त्या च गुरुदत्तया। आसनाशनयोगेन प्राणस्पन्दो निरुध्यते।।असङ्गव्यवहारित्वाद्भवभावनवर्जनात्। शरीरनाशदर्शित्वाद्वासना न प्रवर्तते।।वासनासंपरिहत्यागाच्चित्तं गच्छत्यचित्तताम्। प्राणस्पन्दनिरोधा़च्च यथेच्छसि तथा कुरु।।एतावन्मात्रकं मन्ये रूपं चित्तस्य राघव। यद्भावनं वस्तुनोऽन्तर्वस्तुत्वेन रसेन च।।यदा न भाव्यते किंचिद्धेयोपादेयरूपि यत्। स्थीयते सकलं त्यक्त्वा तदा चित्तं न जायते।।अवासनत्वात्सततं यदा न मनुते मनः। अमनस्ता तदोदेति परमात्मपदप्रदा।। इति। अत्र द्वावेवोपायौ पर्यवसितौ प्राणस्पन्दनिरोधार्थमभ्यासः वासनापरित्यागार्थं च वैराग्यमिति। साधुसंगमाध्यात्मविद्याधिगमौ त्वभ्यासवैराग्योपपादकतयाऽन्यथासिद्धौ तयोरेवान्तरर्भावः। अतएव भगवताऽभ्यासेन वैराग्येण चेति द्वयमेवोक्तम्। अतएव भगवान्पतञ्जलिरसूत्रयत्अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः इति। तासां प्रागुक्तानां प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतिरूपेण पञ्चविधानामनन्तानामासुरत्वेन क्लिष्टानां दैवत्वेनाक्लिष्टानामपि वृत्तीनां सर्वासामपि निरोधो निरिन्धनाग्निवदुपशमाख्यः परिणामोऽभ्यासेन वैराग्येण च समुच्चितेन भवति। तदुक्तं योगभाष्येचित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। तत्र या कैवल्यप्राग्भारा विवेकनिम्ना सा कल्याणवहा। या त्वविवेकनिम्ना संसारप्राग्भारा सा पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन च कल्याणस्रोत उद्धाठ्यते इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति। प्राग्भारे निम्नपदेतदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तमित्यत्र व्याख्यायते। तथा तीव्रवेगोपेतं नदीप्रवाहं सेतुबन्धनेन निर्वाय कुल्याप्रणयनेन क्षेत्राभिमुखं तिर्यक्प्रवाहान्तरमुत्पाद्यते तथा वैराग्येण चित्तनद्या विषयप्रवाहं निवार्यं समाध्यभ्यासेन प्रशान्तवाहिता संपाद्यत इति द्वारभेदात्समुच्चय एव। एकद्वारत्वे हि व्रीहियववद्विकल्पः स्यादिति। मन्त्रजपदेवताध्यानादीनां क्रियारूपाणामावृत्तिलक्षणोऽभ्यासः संभवति। सर्वव्यापारोपरमस्य तु समाधेः को नामाभ्यास इति शङ्कां निवारयितुमभ्यासंसूत्रयतिस्मतत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः इति। तत्र स्वरूपावस्थिते द्रष्टरि शुद्धे चिदात्मनि चित्तस्यावृत्तिकस्य प्रशान्तवाहितारूपा निश्चलतास्थितिस्तदर्थं यत्नो मनस उत्साहः स्वभावचाञ्चल्याद्बहिः प्रवाहशीलं चित्तं सर्वथा निरोत्स्यामीत्येवंविधः। स आवर्त्यमानोऽभ्यास उच्यते।सतु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः अनिर्वेदेन दीर्घकालासेवितो विच्छेदाभावेन निरन्तरासेवितः सत्कारेण श्रद्धातिशयेन च सेवितः। सोऽभ्यासो दृढभूमिर्विषयसूखवासनया चालयितुमशक्यो भवति। अदीर्घकालत्वे दीर्घकालत्वेपि विच्छिद्य विच्छिद्य सेवने श्रद्धातिशयाभावे च लयविक्षेपकषायसुखास्वादानामपरिहारे व्युत्थानसंस्कारप्राबल्याददृढभूमिरभ्यासः फलाय न स्यादिति त्रयमुपात्तम्। वैराग्यं तु द्विविधं अपरं परं च। यतमानसंज्ञाव्यतिरेकसंज्ञैकेन्द्रियसंज्ञावशीकारसंज्ञाभेदैरपरं चतुर्धा। तत्र पूर्वभूमिजयेनोत्तरभूमिसंपादनविवक्षया चतुर्थमेवासूत्रयत्दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञावैराग्यम् इति। स्त्रियोऽन्नपानमैश्वर्यमित्यादयो दृष्टा विषयाः। स्वर्गो विदेहता प्रकृतिलय इत्यादयो वैदिकत्वेनानुश्रविका विषयास्तेषूभयविधेष्वपि सत्यामेव तृष्णायां विवेकतारतम्येन यतमानादित्रयं भवति। अत्र जगति किं सारं किमसारमिति गुरुशास्त्राभ्यां ज्ञास्यामीत्युद्योगो यतमानम्। स्वचित्ते पूर्वविद्यमानदोषाणां मध्येऽभ्यस्यमानविवेकेनैते पक्वाः एतेऽवशिष्टा इति चिकित्सकवद्विवेचनं व्यतिरेकः। दृष्टानुश्रविकविषयप्रवृत्तेर्दुःखात्मत्वबोधेन बहिरिन्द्रियप्रवृत्तिमजनयन्त्या अपि तृष्णाया औत्सुक्यमात्रेण मनस्यवस्थानमेकेन्द्रियम्। मनस्यपि तृष्णाशून्यत्वेन सर्वथा वैतृष्ण्यं तृष्णाविरोधिनी चित्तवृत्तिर्ज्ञानप्रसादरूपा वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् संप्रज्ञातस्य समाधेरन्तरङगं साधनमसंप्रज्ञातस्य तु बहिरङ्गम्। तस्य त्वन्तरङ्गसाधनं परमेव वैराग्यम्। तच्चासूत्रयत्तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्णयम् इति। संप्रज्ञातसमाधिपाटवेन गुणत्रयात्मकात्प्रधानाद्विविक्तस्य पुरुषस्य ख्यातिः साक्षात्कार उत्पद्यते। ततश्चाशेषगुणत्रयव्यवहारेषु वैतृष्ण्यं यद्भवति तत्परं श्रेष्ठं फलभूतं वैराग्यम्। तत्परिपाकनिमित्ताच्च चित्तोपशमपरिपाकादविलम्बेन कैवल्यमिति।
।।6.35।।एवमर्जुनोक्तचञ्चलत्वादिकमङ्गीकृत्य तन्निग्रहसाधनमाह भगवान् श्रीभगवानुवाच असंशयमिति। हे महाबाहो क्रियाशक्तिसमर्थ मनो दुर्निग्रहं चञ्चलं यद्वदसि तदसंशयं निस्सन्दिग्धं तादृशमेवास्तु। तु पुनस्तथापि कौन्तेय मदुक्तिविश्वसनैकयोग्य भक्तपुत्र अभ्यासेनयतो यतो निश्चलति 26 इति पूर्वोक्तप्रकारेणाऽन्यत्र हीनत्वज्ञानपूर्वकमप्युत्तमज्ञानेन चाञ्चल्यानुसरणप्रकारेण गृह्यते। च पुनः। तथा ज्ञानेन मत्सम्बन्धातिरिक्तेषु वैराग्येण गृह्यते वशीक्रियत इत्यर्थः।
।।6.35।। असंशयं नास्ति संशयः मनो दुर्निग्रहं चलम् इत्यत्र हे महाबाहो। किंतु अभ्यासेन तु अभ्यासो नाम चित्तभूमौ कस्यांचित् समानप्रत्ययावृत्तिः चित्तस्य। वैराग्येण वैराग्यं नाम दृष्टादृष्टेष्टभोगेषु दोषदर्शनाभ्यासात् वैतृष्ण्यम्। तेन च वैराग्येण गृह्यते विक्षेपरूपः प्रचारः चित्तस्य। एवं तत् मनः गृह्यते निगृह्यते निरुध्यते इत्यर्थः।।यः पुनः असंयतात्मा तेन
।।6.35।।एवं तदुक्तमङ्गीकृत्य तन्निग्रहोपायं श्रीभगवानुवाच असंशयमिति। तथाप्यभ्यासवैराग्याभ्यां निग्रहो भवति।