पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः। जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44।।
pūrvābhyāsena tenaiva hriyate hyavaśho ’pi saḥ jijñāsur api yogasya śhabda-brahmātivartate
By that same former practice, he is borne on in spite of himself. Even he who merely wishes to know Yoga goes beyond the Brahmanic word.
6.44 पूर्वाभ्यासेन former practice? तेन by that? एव verily? ह्रियते is borne? हि indeed? अवशः helpless? अपि even? सः he? जिज्ञासुः he who wishes to know Yoga? अपि even? योगस्य of Yoga? शब्दब्रह्म wordBrahman? अतिवर्तते goes beyond.Commentary The man who fell from Yoga is carried to the goal which he intended to reach in his previous birth? by the force of the Samskaras of the practice of Yoga though he may not be conscious of them and even if he may not be willing to adopt the course of Yogic discipline on account of the force of some evil Karma. If he had not done any great evil action which could overwhelm his Yogic tendencies he will certainly continue his Yogic practices in this birth very vigorously through the force of the Yogic Samskaras created by his Yogic practices in his previous birth. If the force of the evil action is stronger? the Yogic tendencies will be overpowered or suppressed for some time. As soon as the fruits of the evil actions are exhausted? the force of the Yogic Samskaras will begin to manifest itself. He will start his Yogic practices vigorously and attain the final beatitude of life.Even an enirer in whom a desire for information about Yoga is kindled goes beyond the Brahmic word? i.e.? the Vedas. He rises superior to the performer of the Vedic rituals and ceremonies. He is beyond the entanglement of forms and ceremonies. He is not satisfied with mere ritualism. He thirsts for a satisfaction higher than that given by the sensual objects. He who simply wishes to know the nature of the principles of Yoga frees himself from the SabdaBrahma? i.e.? from the effects of the Vedic rituals and ceremonies. If this be the case of a simple enirer? how much more exalted should be the condition of a real practitioner or knower of Yoga or of one who is established in Nirvikalpa Samadhi He will be absolutely free from the effects of the Vedic rituals and ceremonies. He will enjoy the eternal bliss and the everlasting peace of the Eternal.An aspirant who is desirous of obtaining Moksha alone is not affected by the sin of nonperformance of action even if he renounces all the obligatory and optional or occasional duties. He goes beyond the word of Brahman (the scripture or the Vedas).When such is the case of an aspirant who is without any spiritual inclinations or Samskaras of the previous birth? how much more exalted will be the state of that student who has done Yogic practices in his previous birth? who has fallen from Yoga in his previous birth? and who has taken up Yoga in this birth? renouncing all the worldly activitiesImpelled by the strong desire for liberation he practises rigorous Sadhana in this birth. He is constrained? as it were? by the force of the good Samskaras of his previous birth to take to Yogic practices in spite of himself.In this verse the Lord lays stress on the fact that no effort in the practice of Yoga goes in vain. Even the smallest effor will have its effect sooner or later in this birth or another. Therefore there is no cause for disappointment even for the dullest type of spiritual aspirant.
।।6.44।। व्याख्या--पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः--योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टको जैसी साधनकी सुविधा मिलती है, जैसा वायुमण्डल मिलता है, जैसा सङ्ग मिलता है, जैसी शिक्षा मिलती है, वैसी साधनकी सुविधा, वायुमण्डल, सङ्ग, शिक्षा आदि श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवालोंकोनहीं मिलती। परन्तु स्वर्गादि लोकोंमें जानेसे पहले मनुष्यजन्ममें जितना योगका साधन किया है, सांसारिक भोगोंका त्याग किया है, उसके अन्तःकरणमें जितने अच्छे संस्कार पड़े हैं, उस मनुष्य-जन्ममें किये हुए अभ्यासके कारण ही भोगोंमें आसक्त होता हुआ भी वह परमात्माकी तरफ जबर्दस्ती खिंच जाता है।
।।6.44।। बैंक में हमारे खाते में जमा राशि वही होगी जो पासबुक में दर्शायी गयी होती है। बैंक से हमे उस राशि से अधिक धन नहीं प्राप्त हो सकता और न ही कम राशि दिखाकर हमें धोखा दिया जा सकता है। इसी प्रकार व्यक्ति के हृदय के विकास में भी कोई भी देवता उस व्यक्ति को उसके प्रयत्नों से अधिक न दे सकता है और न कुछ अपहरण कर सकता है। प्रतिदिन के जीवन में अनुभूत अखण्डता के समान ही प्रत्येक जन्म पूर्व जीवन की अगली कड़ी है। जैसे आज का दिन बीते हुए कल का विस्तार है। इस तथ्य को सम्यक् प्रकार से ध्यान में रखकर इस श्लोक का मनन करने पर इसका तात्पर्य सरलता से समझ में आ जायेगा।जिस व्यक्ति ने अपने पूर्व जन्म में योग साधना की होगी वह उस पूर्वभ्यास के कारण अपने आप अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होगा। हमारे इस लोक के जीवन में भी इस तथ्य की सत्यता प्रमाणित होती है। एक शिक्षित तथा सुसंस्कृत व्यक्ति के व्यवहार और संभाषण में उसकी शिक्षा का प्रभाव सहज ही व्यक्त होता है जिसके लिए उसे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। कोई भी सुसंस्कृत व्यक्ति दीर्घकाल तक सफलतापूर्वक मूढ़ पुरुष का अभिनय नहीं कर सकता और उसी प्रकार न हीं एक दुष्ट व्यक्ति सभ्य पुरुष जैसा व्यवहार कर सकता है। कभीनकभी वे दोनों अनजाने ही अपने वास्तविक स्वभाव का परिचय सम्भाषण विचार और कर्म द्वारा व्यक्त कर देंगे।इसी प्रकार योगभ्रष्ट पुरुष भी जन्म लेने पर अवशसा हुआ स्वत ही योग की ओर खिंचा चला जायेगा। यदि जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं तब भी उन सभी में जिस सम और शान्त भाव में वह रहता है वह स्वयं उसके लिए भी एक आश्चर्य ही होता है।यह मात्र सिद्धांत नहीं है। समाज के सभी स्तरों के जीवन में इसका सत्यत्व प्रमाणित होता है। पूर्व संस्कारों की शक्ति अत्यन्त प्रबल होती है। एक लुटेरा भी दृढ़ निश्चयपूर्वक की गई साधना के फलस्वरूप आदि कवि बाल्मीकि बन गया। ऐसे अनेक उदाहरण हमें इतिहास में देखने को मिलते हैं। इन सबका सन्तोषजनक स्पष्टीकरण यही हो सकता है कि जीव का अस्तित्व देह से भिन्न है जो अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न शरीर धारण करता है। इसलिए उसके अर्जित संस्कारों का प्रभाव किसी देह विशेष में भी दृष्टिगोचर होता है।योगभ्रष्ट पुरुष पुन साधना मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। उसे चाहे राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया जाय अथवा बाजार के कोलाहल या किसी गली के असम्मान पूर्ण स्थान पर बैठा दिया जाय सभी स्थानों पर उसकी सहृदयता और उसका दार्शनिक स्वभाव छिपा नहीं रह सकता। चाहे वह संसार की समस्त सम्पत्ति का स्वामी हो जाये चाहे राजसत्ता की असीम शक्ति उसे प्राप्त हो जाये चाहे अपार आदर और स्नेह उसे मिले किन्तु इन समस्त प्रलोभनों के द्वारा उसे योगमार्ग से विचलित नहीं किया जा सकता। यदि सम्पूर्ण जगत् उसके विचित्र व्यवहार एवं असामान्य आचरण को विस्मय से देखता हो तो वह स्वयं भी अपनी ओर सबसे अधिक आश्चर्य से देख रहा होता है इस ध्यानयोग की महत्ता को दर्शाते हुए भगवान् कहते हैं कि जो केवल योग का जिज्ञासु है वह शब्दब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है। श्रीशंकराचार्य के अनुसार शब्दब्रह्म से तात्पर्य वेदों के कर्मकाण्ड से है जहाँ विभिन्न प्रकार के फल प्राप्त करने के लिए यज्ञयागादि साधन बताये गये है। अर्थ यह हुआ कि जो केवल जिज्ञासु है वह इन सब फलों की कामना से मुक्त हो जाता है तब फिर ज्ञानी के विषय में क्या कहनाकिस कारण से योगी श्रेष्ठ है इस पर कहते हैं
।।6.44।।यदि पूर्वसंस्कारोऽस्येच्छामुपनयन्न प्रवर्तयति तथाच प्रवृत्तिरनिच्छया स्यादित्याशङ्क्याह पूर्वेति। स हि योगभ्रष्टः समनन्तरजन्मकृतसंस्कारवशादुत्तरस्मिञ्जन्मनि अनिच्छन्नपि योगं प्रत्येवाकृष्टो भवतीत्यर्थः। तत्र कैमुतिकन्यायं सूचयति जिज्ञासुरिति। पूर्वार्धं विभजते यः पूर्वेति। तस्मान्नेच्छया तस्य प्रवृत्तिरिति शेषः। योगभ्रष्टस्याधर्मादिप्रतिबन्धेऽपि तर्हि पूर्वाभ्यासवशाद्बुद्धिसंबन्धः स्यादित्याशङ्क्याह नेत्यादिना। यदि योगभ्रष्टेन योगाभ्यासजनितसंस्कारप्राबल्यात्प्रबलमरधर्मप्रभेदरूपं कर्म न कृतं स्यात्तदा तेन संस्कारेण वशीकृतः सन्निच्छादिरहितोऽपि बुद्धिसंबन्धभाग्भवतीत्यर्थः। विपक्षे योगसंस्कारस्याभिभूतत्वान्न कार्यारम्भकत्वमित्याह अधर्मश्चेदिति। योगजसंस्कारस्याधर्माभिभूतस्य कार्यमकृत्वैवाभिभावकप्राबल्ये प्रणाशः स्यादित्याशङ्क्याह तत्क्षये त्विति। कालव्यवधानान्निवृत्तिं शङ्कित्वोक्तं नेति। तृणजलायुकादृष्टान्तश्रुत्या संस्कारस्य दीर्घतायाः समधिगतत्वादिति भावः। कैमुतिकन्यायोक्तिपरमुत्तरार्धं विभजते जिज्ञासुरपीत्यादिना। अत्रापि संन्यासीति विशेषणं पूर्ववदवधेयमित्याह सामर्थ्यादिति। नहि कर्मी कर्ममार्गे प्रवृत्तस्ततो भ्रष्टः शङ्कितुं शक्यते अतः संन्यासी पूर्वोक्तैर्विशेषणैर्विशिष्टो योगभ्रष्टोऽभीष्टः सोऽपि वैदिकं कर्म तत्फलं चातिवर्तते किमुत योगं बुद्ध्वा तन्निष्ठः सदाभ्यासं कुर्वन्कर्म तत्फलं चातिवर्तत इति वक्तव्यमिति योजना। योगनिष्ठस्य कर्मतत्फलातिवर्तनं ततोऽधिकफलावाप्तिर्विवक्ष्यते।
।।6.44।।कथंभूतं बुद्धिसंयोगं लभत इत्यपेक्षायां तेनैव पूर्वाभ्यासेनावशस्यापि योगभ्रष्टस्य बुद्धिंप्रत्येवाहरणरुपमित्याह पूर्वेति। यः पूर्व जन्मानि कृतोऽभ्यासः तेनैव बलवता हि यसमादवशः पित्राद्यधीनोऽपि सः योगभ्रष्टो ह्नियते स्ववशीक्रियते योगाभ्याससंस्कारात् बलवत्तरस्याधर्मस्य प्रतिबन्धकस्याभावात् प्रतिबन्धे सत्यपि पूर्वाभ्यासस्तत्क्षयः प्रतीक्षते। ननु तस्य नाशोऽस्ति। एतदेव कैमुत्येन द्रढयति। योगस्य जिज्ञासुर्नतु यतमानो योगी सोऽपि शब्दब्रह्म वेदोक्तकर्मानुष्ठानफलमतिवर्तते मुञ्चति किमुत यो योगं ज्ञात्वा तन्निष्ठोभ्यासं कुर्यात्। एतेन ननु योगिनां दरिद्राणां कुले जातस्य बुद्धिसंयोगोऽस्तु नाम शुचीनां श्रीमतां कुले उत्पन्नस्य द्रव्यजनितभोगादिप्रतिबन्धवशाद्धुद्धिसंयोगो न भविष्यतीत्याङ्कापि परास्ता।
।।6.44।।योगस्य जिज्ञासुरपि। ज्ञातव्यो मया योग इति यस्यातीवेच्छा सोऽपि शब्दब्रह्मातिवर्तते। परं ब्रह्म प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।6.44।।कुतो यतते शिक्षितोऽपीत्यत आह पूर्वेति। अवशोऽपि प्रह्नादादिवत्पित्रादिभिरन्यथा नीयमानोऽपि तेनैव पूर्वाभ्यासेन बलवता ह्रियते योगप्रवणः क्रियते। यतो योगस्य जिज्ञासुर्ज्ञानमात्रमिच्छन्यो भवति सोऽपि शब्दब्रह्म कर्मकाण्डं वेदमप्यतिक्रम्य वर्तते किं पुनः पित्राद्याज्ञाम्। इत्थं पूर्वाभ्यासबलं यन्महान्तमपि पित्रादियत्नं वृथा करोतीत्यर्थः।
।।6.44।।तेन पूर्वाभ्यासेन पूर्वेण योगविषयेण अभ्यासेन सः योगभ्रष्टो हि अवशः अपि योगे एव ह्रियते प्रसिद्धं हि एतद् योगमाहात्म्यम् इत्यर्थः। अप्रवृत्तयोगोयोगजिज्ञासुः अपि ततः चलितमानसः पुनरपि ताम् एव जिज्ञासां प्राप्य कर्मयोगादिकं योगम् अनुष्ठाय शब्दब्रह्म अतिवर्तते।शब्दब्रह्म देवमनुष्यपृथिव्यन्तरिक्षस्वर्गादिशब्दाभिलापयोग्यं ब्रह्म प्रकृतिः प्रकृतिसम्बन्धाद् विमुक्तो देवमनुष्यादिशब्दाभिलापानर्हं ज्ञानानन्दैकतानम् आत्मानं प्राप्नोति इत्यर्थः।यत एवं योगमाहात्म्यम् ततः
।।6.44।।तत्र हेतुः पूर्वेति। तेनैव पूर्वदेहकृताभ्यासेनावशोऽपि कुतश्चिदन्तरायादनिच्छन्नपि संह्रियते। विषयेभ्यः परावर्त्य ब्रह्मनिष्ठः क्रियते। तदेवं पूर्वाभ्यासवशेन प्रयत्नं कुर्वञ्शनैर्मुच्यत इतीममर्थं कैमुत्यन्यायेन स्फुटयति जिज्ञासुरिति सार्धेन। योगस्य स्वरूपं जिज्ञासुरेव केवलं नतु प्राप्तयोगः। एवंभूतो योगे प्रविष्टमात्रोऽपि पापवशाद्योगभ्रष्टोऽपि शब्दब्रह्म वेदमतिवर्तते वेदोक्तकर्मफलान्यतिक्रामति। तेभ्योऽधिकं फलं प्राप्य मुच्यत इत्यर्थः।
।।6.44।।तेनेत्यस्यार्थोयोगविषयेणेति।तेनैव इत्यवधारणफलितमाह योग एव ह्रियत इति। हिशब्दार्थमाहप्रसिद्धमिति। प्रसिद्धिश्चादिभरतविदुरभीष्मादिवृत्तान्तेषु द्रष्टव्या। पार्थकुरुनन्दनशब्दाभ्यामुभयकुलशुद्ध्यादिसूचकाभ्यामर्जुनस्यापि शुचीनां श्रीमतामित्याद्यन्वयः सूचितः।जिज्ञासुः इत्यादिप्रकरणवशाद्वासनया विच्छिन्नघटकत्वप्रदर्शनार्थमित्याह अप्रवृत्तेति।जिज्ञासुरपि इति सन्नन्तापिशब्दयोः सामर्थ्यात् अप्रवृत्तयोग इत्युक्तम्। यद्यपिन लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम् अष्टा.2।3।69 इति कर्मणि षष्ठीनिषेधः तथाप्यत्र सम्बन्धसामान्यविवक्षयायोगस्य इति षष्ठी। योगिनश्चलितस्य योगः प्रक्रान्तयोगस्य चलितस्थ तत्प्रक्रमः योगमारुरुक्षोश्चलितस्यारुरुक्षेति तत्तदवस्थानुरूपं प्रति समाधानमिति भावः।कर्मयोगादिकं कर्मयोगज्ञानयोगावित्यर्थः। यद्वा कर्मयोग उपक्रमो यस्यात्मसाक्षात्काररूपस्य योगस्य स तथोक्तः। ब्रह्मशब्दोऽत्र न परब्रह्मविषयः तस्यातिवर्तनीयत्वानुपपत्तेःशब्दब्रह्म इति विशेषणायोगाच्च। अत एव न जीवविषयः नापि वेदविषयः तस्याप्यनिवर्तनीयत्वानिरूपणात्। नापि लक्षणया वेदप्रतिपाद्यकर्मविषयः तत्फलविषयो वा तत्रापि वेदे ब्रह्मशब्दस्य गौणः प्रयोगः तदस्य परस्ताल्लक्षणा उपनिषदंशात्सङ्कोच इति बहुदोषप्रसङ्गात्। नापि शब्दजन्यं ज्ञानमात्रं शब्दब्रह्म योगं जिज्ञासोस्तदतिवृत्तेर्विरुद्धत्वात्।स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत् वि.पु.6।62 इत्यादिप्रकोपप्रसङ्गाच्च। योगमारुरुक्षुः पुरुषः शब्दश्रवणजनितज्ञानमात्रवतः पुरुषादधिकःब्राह्मणेषु च विद्वांसो विद्वत्सु कृतबुद्धयः। कृतबुद्धिषु कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवादिनः मनुः1।97 इतिवदिति चेत् तदपि न अध्याहाराद्यापातात् अप्रस्तुताभिधानप्रसङ्गात् पूर्वोत्तरवाक्यानन्वयाच्च। अतः प्रकृतावपि ब्रह्मशब्दप्रयोगस्यात्रापि प्राचुर्यादतिवर्तनीयत्वौचित्याच्च ब्रह्मशब्दोऽत्र प्रकृतिविषयः। तस्या एव भोग्यभोगोपकरणभोगस्थानाख्यपरिणामप्रदर्शनायशब्दब्रह्म इति व्यपदेशः। सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरः। नामानि कृत्वा तै.आ.3।12।7 इत्यादिश्रुतेः। विभक्तरूपा हि प्रकृतिर्देवादिशब्दाभिलप्या तदेतदखिलमभिप्रेत्यदेवमनुष्येत्यादिकमुक्तम्। प्रकृत्यतिवर्तनशब्दार्थं फलितं च दर्शयतिप्रकृतिसम्बन्धादिति।देवमनुष्येत्यादिनापुमान्न देवो न नरः वि.पु.2।13।98 इत्यादिकं स्मारितम्।ज्ञानानन्दैकतानमित्यनेन चनाहं देवो न मर्त्यो वा न तिर्यक् स्थावरोऽपि वा। ज्ञानानन्दमयस्त्वात्मा शेषो हि परमात्मनः पां.रा. इत्यादिकम्।
।।6.43 6.45।।तत्रेत्यादि परां गतिमित्यन्तम्। संसिद्धौ मोक्षात्मिकायाम्। अवशः परतन्त्र एव किल तेन पूर्वाभ्यासेन बलादेव योगाभ्यासं प्रति नीयते। न चैतत् सामान्यम्। योगजिज्ञासामात्रेणैव हि शब्दब्रह्मातिवृत्तिः मन्त्रस्वाध्यायादिरूपं च शब्दब्रह्म अतिवर्तते न स्वीकुरुते।ततः जिज्ञासानन्तरम् यत्नवान् अभ्यासक्रमेण देहान्ते वासुदेवत्वं प्राप्नोति। न चासौ तेनैव देहेन सिद्ध इति मन्तव्यम्। अपि तु बहूनि जन्मानि तेन तदभ्यस्तमिति मन्तव्यम्। अत एव यस्य अनन्यव्यापारतया भगद्व्यापारानुरागित्वं स योगभ्रष्ट इति निश्चेयम् ( N निश्चेयः)।
।।6.44।।उप्रत्यययोगेन लोकाव्यय अष्टा.2।3।69 इति षष्ठीनिषेधात् योगस्य स्वरूपमित्यध्याहृत्य कश्चिद्व्याख्यातवान्। श्रमो वृथैवनञा निर्दिष्टमनित्यम् इत्यस्यानित्यत्वात्। अतः कात्यायनोद्विषः शतुर्वा वचनं अष्टा.2।3।69 वार्तिकं इत्याद्यवोचदित्यभिप्रेत्याह योगस्येति।ब्रह्मजिज्ञासा ब्र.सू.1।1।1 इत्यादाविव विचारार्थताशङ्कानिरासाय व्याचष्टे ज्ञातव्य इति। अतीवेत्युप्रत्ययस्यार्थः।सनाशंसभिक्षउः अष्टा.3।3।168 इति तच्छीलादौ तस्य विहितत्वात् इच्छार्थे बाधकाभावादिति भावः।शब्दब्रह्मातिवर्तते इत्येतद्वेदोक्तकर्मकारिभ्योऽतिरिच्यत इति कश्चिद्व्याचष्टे तदसत्।ततो याति परां गतिम् 16।22 इत्यस्यार्थस्य परामर्शादिति भावेनाह शब्देति। शब्दब्रह्मशब्देन वैदिकविधिनिषेधावत्रोच्येते। तदतिवर्तनं परंब्रह्मप्राप्तस्यैवेत्यत एवमुक्तम्।
।।6.44।।ननु यो ब्रह्मविदां ब्राह्मणानां सर्वप्रमादकारणशून्ये कुले समुत्पन्नस्तस्य मध्ये विषयभोगव्यवधानाभावादव्यवहितप्राग्भवीयसंस्कारोद्वोधात्पुनरपि सर्वकर्मसंन्यासपूर्वको ज्ञानसाधनलाभो भवतु नाम। यस्तु श्रीमतां महाराजचक्रवर्तिनां कुले बहुविधविषयभोगव्यवधानेनोत्पन्नस्तस्य विषयभोगवासनाप्राबल्यात्प्रमादकारणसंभवाच्च कथमतिव्यवहितज्ञानसंस्कारोद्बोधः क्षत्रियत्वेन सर्वकर्मसंन्यासानर्हस्य कथं वा ज्ञानसाधनलाभ इति। तत्रोच्यते अतिचिरव्यवहितजन्मोपचितेनापि तेनैव पूर्वाभ्यासेन प्रागर्जितज्ञानसंस्कारेणावशोऽपि मोक्षसाधनायाप्रयतमानोऽपि ह्रियते स्ववशीक्रियते अकस्मादेव भोगवासनाभ्यो व्युत्थाप्य मोक्षसाधनोन्मुखः क्रियते ज्ञानवासनाया एवाल्पकालाभ्यस्ताया अपि वस्तुविषयत्वेनावस्तुविषयाभ्यो भोगवासनाभ्यः प्राबल्यात्। पश्य यथा त्वमेव युद्धे प्रवृत्तो ज्ञानायाप्रयतमानोऽपि पूर्वसंस्कारप्राबल्यादकस्मादेव रणभूमौ ज्ञानोन्मुखोऽभूरिति। अतएव प्रागुक्तं नेहाभिक्रमनाशोऽस्तीति। अनेकजन्मसहस्रव्यवहितोऽपि ज्ञानसंस्कारः स्वकार्यं करोत्येव सर्वविरोध्युपमर्देनेत्यभिप्रायः। सर्वकर्मसंन्यासाभावेऽपि हि क्षत्रियस्य ज्ञानाधिकारः स्थित एव। यथा पाटच्चरेण बहूनां रक्षिणां मध्ये विद्यमानमप्यश्वादिद्रव्यं स्वयमनिच्छदपि तान्सर्वानभिभूय स्वसामर्थ्यविशेषादेवापह्रियते पश्चात्तु कदापहृतमिति विमर्शो भवति एवं बहूनां ज्ञानप्रतिबन्धकानां मध्ये विद्यमानोऽपि योगभ्रष्टः स्वयमनिच्छन्नपि ज्ञानसंस्कारेण बलवता स्वसामर्थ्यविशेषादेव सर्वान्प्रतिबन्धकानभिभूयात्मवशीक्रियत इति हृञः प्रयोगेण सूचितम्। अतएव संस्कारप्राबल्याज्जिज्ञासुर्ज्ञातुमिच्छुरपि योगस्य मोक्षसाधनज्ञानस्य विषयं ब्रह्मज्ञानं प्रथमभूमिकायां स्थितः संन्यासीति यावत्। सोऽपि तस्यामेव भूमिकायां मृतोऽन्तराले बहून्विषयान्भुक्त्वा महाराजचक्रवर्तिनां कुले समुत्पन्नोऽपि योगभ्रष्टः प्रागुपचितज्ञानसंस्कारप्राबल्यात्तस्मिञ्जन्मनि शब्दब्रह्म वेदं कर्मप्रतिपादकमतिवर्ततेऽतिक्रम्य तिष्ठति। कर्माधिकारातिक्रमेण ज्ञानाधिकारी भवतीत्यर्थः। एतेनापि ज्ञानकर्मसमुच्चयो निराकृत इति द्रष्टव्यम्। समुच्चये हि ज्ञानिनोऽपि कर्मकाण्डातिक्रमाभावात्।
।।6.44।।ननु भूयोऽपि यत्ने पूर्ववदेव चेत्स्यात्तदा किं जन्मना यत्नेन चेत्याशङ्क्याह पूर्वाभ्यासेनेति। तेनैव पूर्वाभ्यासेन श्रद्धामयेन अवशोऽपि तादृक्कुलजन्मप्राप्त्या कुलरीत्यापि अन्यभावेभ्यो हीयते परावर्त्तते भगवत्संयोगरसनिष्ठः क्रियत इति भावः। ननु पूर्वप्रवृत्त्या श्रद्धायुक्तया चेन्न सिद्धिरभूत् तदा कथमिदानीं तेनैव साधनेन सिद्धिर्भविष्यति इत्याशङ्क्याह जिज्ञासुरपीति। योगस्य स्वरूपजिज्ञासुरेव शब्दब्रह्म नामरूपात्मकं विप्रयोगसामयिकजीवनहेतुरूपमतिवर्त्तते अतिक्रामति। परमक्लेशाविर्भावेन गुणगानादित्यागेन लौकिकदेहत्यागेनालौकिकदेहमाप्नोतीति भावः। तथा चायमर्थः पूर्वश्रद्धया प्रवृत्तस्तु योगजिज्ञासया न प्रवृत्तः किन्तु साधारण्येन वाक्यश्रद्धयैव प्रवृत्तौ तेन सिद्धिरभूत्। अधुना तूत्तमकुलजन्माप्त्या तत्स्वरूपं कुरुते अतः प्राप्स्यतीति।
।।6.44।। यः पूर्वजन्मनि कृतः अभ्यासः सः पूर्वाभ्यासः तेनैव बलवता ह्रियते संसिद्धौ हि यस्मात् अवशोऽपि सः योगभ्रष्टः न कृतं चेत् योगाभ्यासजात् संस्कारात् बलवत्तरमधर्मादिलक्षणं कर्म तदा योगाभ्यासजनितेन संस्कारेण ह्रियते अधर्मश्चेत् बलवत्तरः कृतः तेन योगजोऽपि संस्कारः अभिभूयत एव तत्क्षये तु योगजः संस्कारः स्वयमेव कार्यमारभते न दीर्घकालस्थस्यापि विनाशः तस्य अस्ति इत्यर्थः। अतः जिज्ञासुरपि योगस्य स्वरूपं ज्ञातुमिच्छन् अपि योगमार्गे प्रवृत्तः संन्यासी योगभ्रष्टः सामर्थ्यात् सोऽपि शब्दब्रह्म वेदोक्तकर्मानुष्ठानफलम् अतिवर्तते अतिक्रामति अपाकरिष्यति किमुत बुद्ध्वा यः योगं तन्निष्ठः अभ्यासं कुर्यात्।।कुतश्च योगित्वं श्रेयः इति
।।6.44।।पूर्वदेहकृताभ्यासेनावशोऽपि कुतश्चिदन्तरायादनिच्छन्नपि ह्रियते विषयेभ्यः परावृत्त्य योगनिष्ठः क्रियते। किञ्च कैमुत्येन दृढयति जिज्ञासुरपीति। यः कश्चिद्योगस्य जिज्ञासावानपि भवति सोऽपि शब्दब्रह्मातिवर्त्तते शब्दब्रह्मातिक्राम्यति परमहंस इव सम्पूजितो भवति। किमुत तन्निष्ठः शब्दब्रह्मातिलङ्घनो भवतीति वक्तव्यम् यद्वा शब्दब्रह्मातिवर्त्ततेऽर्थात्परं ब्रह्म शब्दब्रह्मतात्पर्यभूतं पारोक्ष्येण जानाति तत्प्रभावेणेत्यर्थः।