मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।7.7।।
mattaḥ parataraṁ nānyat kiñchid asti dhanañjaya mayi sarvam idaṁ protaṁ sūtre maṇi-gaṇā iva
There is nothing higher than Me, O Arjuna. All this is strung on Me, like clusters of gems on a string.
7.7 मत्तः than Me? परतरम् higher? न not? अन्यत् other? किञ्चित् anyone? अस्ति is? धनञ्जय O Dhananjaya? मयि in Me? सर्वम् all? इदम् this? प्रोतम् is strung? सूत्रे on a string? मणिगणाः clusters of gems? इव like.Commentary There is no other cause of the universe but Me. I alone am the the cause of the universe. This illustration of gems and thread illustrates only the idea that all beings and the whole world are threaded on the Lord. The thread is not the cause of the gems. As Brahman is all in all there is nothing whatever higher than It.
।।7.7।। व्याख्या--'मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय'--हे अर्जुन ! मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है, मैं ही सब संसारका महाकारण हूँ। जैसे वायु आकाशसे ही उत्पन्न होती है, आकाशमें ही रहती है और आकाशमें ही लीन होती है अर्थात् आकाशके सिवाय वायुकी कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ऐसे ही संसार भगवान्से उत्पन्न होता है भगवान्में स्थित रहता है और भगवान्में ही लीन हो जाता है अर्थात् भगवान्के सिवाय संसारकी कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।यहाँ 'परतरम्' कहकर सबका मूल कारण बताया गया है। मूल कारणके आगे कोई कारण नहीं है अर्थात् मूल कारणका कोई उत्पादक नहीं है। भगवान् ही सबके मूल कारण हैं। यह संसार अर्थात् देश, काल, व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति आदि सभी परिवर्तनशील हैं। परन्तु जिसके होनेपनसे इन सबका होनापन दीखता है अर्थात् जिसकी सत्तासे ये सभी 'है' दीखते हैं, वह परमात्मा ही इन सबमें परिपूर्ण हैं। भगवान्ने इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें कहा कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा, जिसको जाननेके बाद कुछ जानना बाकी नहीं रहेगा--'यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते' और यहाँ कहते हैं कि मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है--'मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति।' दोनों ही जगह 'न अन्यत्'कहनेका तात्पर्य है कि जब मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं, तब मेरेको जाननेके बाद जानना कैसे बाकी रहेगा? अतः भगवान्ने यहाँ 'मयि सर्वमिदं प्रोतम्'और आगे 'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19) तथा 'सदसच्चाहम्'(9। 19) कहा है।जो कार्य होता है, वह कारणके सिवाय अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखता। वास्तवमें कारण ही कार्यरूपसे दीखता है। इस प्रकर जब कारणका ज्ञान हो जायगा, तब कार्य कारणमें लीन हो जायगा अर्थात् कार्यकी अलग सत्ता प्रतीत नहीं होगी और 'एक परमात्माके सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है'--ऐसा अनुभव स्वतः हो जायगा। 'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव'--यह सारा संसार सूतमें सूतकी ही मणियोंकी तरह मेरेमें पिरोया हुआ है अर्थात् मैं ही सारे संसारमें अनुस्यूत (व्याप्त) हूँ। जैसे सूतसे बनी मणियोंमें और सूतमें सूतके सिवाय अन्य कुछ नहीं है; ऐसे ही संसारमें मेरे सिवाय अन्य कोई तत्त्व नहीं है। तात्पर्य है कि जैसे सूतमें सूतकी मणियाँ पिरोयी गयी हों तो दीखनेमें मणियाँ और सूत अलग-अलग दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें सूत एक ही होता है। ऐसे ही संसारमें जितने प्राणी हैं, वे सभी नाम, रूप, आकृति आदिसे अलग-अलग दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें व्याप्त रहनेवाला चेतन-तत्त्व एक ही है। वह चेतन-तत्त्व मैं ही हूँ--'क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत'(गीता 13। 2) अर्थात् मणिरूप अपरा प्रकृति भी मेरा स्वरूप है और धागारूप परा प्रकृति भी मैं ही हूँ। दोनोंमें मैं ही परिपूर्ण हूँ, व्याप्त हूँ। साधक जब संसारको संसारबुद्धिसे देखता है, तब उसको संसारमें परिपूर्णरूपसे व्याप्त परमात्मा नहीं दीखते। जब उसको परमात्मतत्त्वका वास्तविक बोध हो जाता है, तब व्याप्य-व्यापक भाव मिटकर एक परमात्मतत्त्व ही दीखता है। इस तत्त्वको बतानेके लिये ही भगवान्ने यहाँ कारणरूपसे अपनी व्यापकताका वर्णन किया है। सम्बन्ध--जो कुछ कार्य दीखता है, उसके मूलमें परमात्मा ही हैं--यह ज्ञान करानेके लिये अब भगवान् आठवेंसे बारहवें श्लोकतकका प्रकरण आरम्भ करते हैं।
।।7.7।। इसके पूर्व के श्लोकों में कथित सिद्धान्त को स्वीकार करने पर हमें जगत् की ओर देखने के दो दृष्टिकोण मिलते हैं। एक है अपर अर्थात् कार्यरूप जगत् की दृष्टि से तथा दूसरा इससे भिन्न है पर अर्थात् कारण की दृष्टि से। जैसे मिट्टी की दृष्टि से उसमें विभिन्न रूप रंग वाले घटों का सर्वथा अभाव होता है वैसे ही चैतन्यस्वरूप पुरुष में न विषयों का स्थूल जगत् है और न विचारों का सूक्ष्म जगत्। मुझसे अन्य किञ्चिन्मात्र वस्तु नहीं है।स्वप्न से जागने पर जाग्रत् पुरुष के लिये स्वप्न जगत् की कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। समुद्र में असंख्य लहरें उठती हुई दिखाई देती हैं परन्तु वास्तव में वहाँ समुद्र के अतिरिक्त किसी का कोई अस्तित्व नहीं होता। उनकी उत्पत्ति स्थिति और लय स्थान समुद्र ही होता है। संक्षेप में कोई भी वस्तु अपने मूल स्वरूप का त्याग करके कदापि नहीं रह सकती है।पहले हमें बताया गया है कि प्रत्येक प्राणी में एक भाग अपरा प्रकृतिरूप है जिसका संयोग आत्मतत्त्व से हुआ है। यहाँ जिज्ञासु मन में शंका उठ सकती है कि क्या मुझमें स्थित आत्मा अन्य प्राणी की आत्मा से भिन्न है यह विचार हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचायेगा कि विभिन्न शरीरों में भिन्नभिन्न आत्मायें हैं अर्थात् आत्मा की अनेकता के सिद्धान्त पर हम पहुँच जायेंगे। .समस्त नामरूपों में आत्मा के एकत्व को दर्शाने के लिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि वे ही इस जगत् के अधिष्ठान हैं। वे सभी रूपों को इस प्रकार धारण करते हैं जैसे कण्ठाभरण में एक ही सूत्र सभी मणियों को पिरोये रहता है। यह दृष्टांत अत्यन्त सारगर्भित है। काव्य के सौन्दर्य के साथसाथ उसमें दर्शनशास्त्र का गम्भीर लाक्षणिक अर्थ भी निहित है। कण्ठाभरण में समस्त मणियाँ एक समान होते हुये दर्शनीय भी होती हैं परन्तु वे समस्त छोटीबड़ी मणियाँ जिस एक सूत्र में पिरोयी होती हैं वह सूत्र हमें दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि उसके कारण ही वह माला शोभायमान होती है।इसी प्रकार मणिमोती जिस पदार्थ से बने होते हैं वह उससे भिन्न होता है जिस पदार्थ से सूत्र बना होता है। वैसे ही यह जगत् असंख्य नामरूपों की एक वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि है जिसे इस पूर्णरूप में एक पारमार्थिक सत्य आत्मतत्त्व धारण किये रहता है। एक व्यक्ति विशेष में भी शरीर मन और बुद्धि परस्पर भिन्न होते हुये भी एक साथ कार्य करते हैं और समवेत रूप में जीवन का संगीत निसृत करते हैं। केवल यह आत्मतत्त्व ही इसका मूल कारण है।यह श्लोक ऐसा उदाहरण है जिसमें हमें महर्षि व्यास की काव्य एवं दर्शन की अपूर्व प्रतिभा के दर्शन होते हैं। यहाँ काव्य एवं दर्शन का सुन्दर समन्वय हुआ है।किस प्रकार मुझ में यह जगत् पिरोया हुआ है वह सुनो
।।7.7।।प्रधानात्परतोऽक्षरात्पुरुषवत्परमात्मनोऽपि परादन्यत्परं स्यादित्याशङ्क्य प्रकृतिद्वयद्वारा सर्वकारणत्वमीश्वरस्योक्तमुपजीव्य परिहरति यतस्तस्मादिति। नान्यदस्ति परमित्यत्र हेतुमाह मयीति। परतरशब्दार्थमाह अन्यदिति। स्वातन्त्र्यव्यावृत्त्यर्थमन्तरशब्दः। निषेधफलं कथयति अहमेवेति। सर्वजगत्कारणत्वेन सिद्धमर्थं द्वितीयार्धव्याख्यानेन विशदयति यस्मादिति। अतो (यथा) दीर्घेषु तिर्यक्षु च पटघटितेषु तन्तुषु पटस्यावगतिरवगम्यते तद्वन्मय्येवानुगतं जगदित्याह दीर्घेति। यथा च मणयः सूत्रेऽनुस्यूतास्तेनैव ध्रियन्ते तदभावे विप्रकीर्यन्ते यथा मयैवात्मभूतेन सर्वं व्याप्तं ततो निकृष्टं विनष्टमेव स्यादिति श्लोकोक्तं दृष्टान्तमाह सूत्र इति।
।।7.7।।यस्मादेवं तस्मान्मत्तः परमेस्वरात्परतरमन्यत्कारणान्तरं किंचिन्नास्ति न विद्यते अहमेव सर्वस्मात्परः जगत्कारणमित्यर्थः। परतराभावप्रदर्शनेन परम्। अतःसेतून्मानसंबन्धभेदव्यपदेशेभ्यः इति सूत्रोक्ताशङ्कापि परिहृता। परमेश्वरात्परमन्यदस्ति। कुतःअयमात्मा स सेतुः इति सेतोश्चतुष्पादित्याद्युन्मानस्यसता सोभ्य तदा संपन्नो भवति इति संबन्धस्यअथ य एोऽन्तरादित्येय एषोऽन्तरक्षिणि इति भदस्य व्यपदेशेभ्य इति तदर्थः। तथाच सिद्धान्तसूत्राणिसामान्यात्तु बुद्य्धर्थः पादवत्स्थानविशेषात्प्रकाशादिवत्उपपत्तेश्च तथान्यप्रतिषेधात्अनेन सर्वगतत्वमायामशब्दीदिभ्यः इति। तुशब्दः पूर्वपक्षव्यावृत्त्यर्थः। न ब्राह्मणोऽन्यात्किंचिद्भवितुमर्हति प्रमाणाभावात्। नह्यन्यस्यास्तित्वे किंचित्प्रमाणमुपलभामहे। सर्वस्य हि जनिमतो वस्तुजातस्य जन्मादि ब्रह्मणो भवतीति निर्धारितमनन्यत्वं च कारणात्कार्यस्य। नच ब्रह्मव्यतिरिक्तं किंचिदजं संभवतिसदेव सोभ्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् इत्यवधारणादेकविज्ञानेन च सर्वविज्ञानप्रतिज्ञानान्न ब्रह्मव्यतिरिक्तवस्त्वस्तित्वमवकल्पते। नतु सेत्वादिव्यपदेशो ब्रह्मव्यतिरिक्तत्वं सूचयतीत्युक्तं तत्प्रत्युच्यते। सेतुसामान्यात्सेतुशब्द आत्मनि प्रयुक्त इति श्लिष्यते जगतस्तन्मर्यादानां च विधारकत्वं सेतुसामान्यमात्मनोऽतः सेतुरिव सेतुरिति प्रकृत आत्मा स्तूयते। सेतुं तीर्त्वेत्यपि तरतेरतिक्रमासंभवात्प्राप्नोत्यर्थे एव वर्तते यथा व्याकरणं तीर्ण इति प्राप्त उच्यते नातिक्रान्तस्तद्वत् उन्मादव्यपदेशोऽपि न ब्रह्मव्यरिरिक्तवस्त्वस्तित्वप्रतिपत्त्यर्थः किंतु बुद्य्धर्थ उपासनार्थः पादवत्। यथा मनआकाशयोरध्यात्ममधितैवतं च ब्रह्मप्रतीकयोराम्रातयोश्चत्वारो वाक्प्राणचक्षुःश्रोत्राणीति सनःसंबन्धिनः पादाः कल्पिताः चत्वारश्चाग्निवायुसूर्यदिशः आकाशसंबन्धिनः आध्यानाय तद्वत्। यद्वा व्यवहाराय कार्षापणपादविभागकल्पनावत्। यदप्युक्तं संबन्धव्यपदेशाद्भेदव्यपदेशाच्च परमेश्वरात्परमिति तदप्यसत्। यत एकस्यापि स्थानविशेषापेक्षयैतौ य उपशमः स परमात्मना संबन्ध इत्युपाध्यपेक्षयोपचर्यते न मितत्वापेक्षया तथा भेदव्यपदेशोऽपि ब्रह्मण उपाधिभेदापेक्षयैव न स्वरुपभेदा पेक्षया। तत्र दृष्टान्तमाह प्रकाशवत्। यथैकस्यैव सौर्यादिप्रकाशस्य सूचीपाशादिषूपाध्यपेक्षस्यैव संबन्धभदव्यपदेशो तद्वत् मुख्यएव संबन्धादिः किं न स्यादित्याशङ्क्याह। उपपत्तेश्च उपचारस्यैवोपपत्तेश्च। एवं सेत्वादिव्यपदेशान्तपरपक्षे हेतूनुन्मथ्य संप्रति स्वपक्षं हेत्वन्तरेणोपसंहरति। तथान्यपर्तिषेधादपि न ब्रह्मणः परं बस्त्वन्तरमस्तीति गम्यते। तथाहिस एवाधस्तादहमेवाधस्तादात्मैवाधस्तात्स एवोपरिष्टात्सर्वं तं पदादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेद ब्रह्मैवेदं सर्वमात्मैवेदं सर्वं नेह नानास्ति किंचनयस्मात्परं नापरमस्ति किंचित्तदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्मम् इत्येवमादीनि स्वप्रकरणस्थानि अन्यार्थत्वेन परिणेतुम शक्यानि ब्रह्मव्यतिरिक्तं वस्त्वन्तरं वारयन्ति। सर्वान्तरश्रुतेश्च न परमात्मनोऽन्तरोऽन्य आत्मास्तीत्यवधार्यते। अनेन सेत्वादिव्यपदेशनिराकरणेनान्यप्रतिषेधसमाश्रयणेन च सर्वगतत्वमप्यात्मनः सिद्धं भवति।सर्वगतत्वं चास्यायामशब्दादिभ्यो विज्ञायते। आयामशब्दो व्यापिवचनः।यावान्वायमाकाशस्तावानेषोऽन्तर्हृदय आकाशःआकाशवत्सर्वगतश्च नित्यःज्यायान्दिवो ज्यायानन्तरिक्षात्नित्यः सर्वगतः स्थाणुः इत्येवमादयो हि श्रुतिस्मृतिन्यायाः सर्वगतत्वमात्मनो बोधयन्तीति दिग्विजये उत्तरगोग्रहे च राज्ञो भीष्मादींश्च विजित्य धनमाहृतवतस्त्वत्तः परतर एतादृशकर्मकर्ताऽन्यो यथा नास्ति तथा मत्तः परमन्यज्जगत्कारणं नास्तीति ध्वनयन्संबोधयति धनंजयेति। यत एवं तस्मान्मयि परमेश्वरे सर्वमिदं कार्यकारणात्मकं जगत्प्रोतं ग्रथितं यथा सूत्रे मणिगणा ग्रथितास्तद्वत्। अनेन स्थितिहेतुस्वमपि स्वस्यैव दर्शितम्। केचित्तु यस्मादहमेव मायया सर्वस्य जगतो जन्मस्थितिभङ्गहेतुस्तस्मात्परमार्थतो निखिलदृश्याकारपरिणतमायाधिष्ठानात्परमार्थसत्यात्परतरं परमार्थ सत्यं अन्यात्किंचिन्नास्ति। मयि कल्पितं परमार्थतो मत्तो न भिद्यत इत्यर्थः।तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः इति न्यायात्। व्यवहारदृष्ट्या तु मयि सद्रूपे स्फरणरुपे च सर्वमिदं जटजातं प्रोतं ग्रथितं मत्सत्तया सदिव मत्सफुरणेन स्फुरदिव व्यवहाराय मायामयाय कल्पते। सर्वस्य चैतन्यगथितत्वमात्रे दृष्टान्तः सूत्रे मणिगणा इव। अथवा सूत्रे तैजसात्मनि हिरण्यगर्भे स्वप्रदृशि स्वप्नप्राप्ता मणिगणा इव इति सर्वांशेऽपि दृष्टान्तो व्याख्यायेय इति वर्णयन्ति। अस्मिन्पक्षेनेह नानास्ति किंचन इतिवन्मत्तोऽन्यत्किंचिन्नास्तीत्येतावतैव मत्तः परमार्थसतोऽन्यद्भिन्नं किंचिद्वस्तु परमार्थसन्नास्तीत्यर्थस्य निर्वाहे मयि सर्वमिदं कल्पितं मनसि स्वप्नपदार्था इवेति वक्तव्ये परतरपदस्य प्रयोजनं प्रोतमित्यादेः स्वारस्यं च चिन्त्यम्।
।।7.7।।अहमेव परतरः मत्तोऽन्यत्परतरं न किञ्चिदपि।
।।7.7।।एवमेकविज्ञानात्सर्वविज्ञानं प्रकृतमात्मनो जगदुपादानत्वेनोपपाद्य तत एवात्मनो निर्विकारत्वहाने प्राप्ते आह मत्त इति। कारणान्मृदादेः परं पृथग्भूतं घटादि व्यवहारे तयोर्भेदानुभवात्। परतरं तु गवाश्वादिमृदनुपादानकत्वात्। एवं ब्रह्मणः परतरं तदनुपादानकं किञ्चिदपि नास्ति। हे धनंजय एवं प्रपञ्चे ब्रह्माव्यतिरेकं प्रदर्श्य ब्रह्मणि प्रपञ्चव्यतिरेकं सदृष्टान्तमाह मयीति। मयि सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सूत्रवत्सर्वत्रानुस्यूते यदिदं सर्वं मणिगणवत्परस्परव्यावृत्तं तत्प्रोतं तेन व्यावृत्तेभ्योऽनुवृत्तं भिन्नमिति न्यायेन प्रपञ्चातीतोऽहमतो न मम विकारित्वमित्यर्थः।
।।7.7।।यथा सर्वकारणस्य अपि प्रकृतिद्वयस्य कारणत्वेन सर्वाचेतनवस्तुशेषिणः चेतनस्य अपि शेषित्वेन कारणतया शेषितया च अहं परतरः तथा ज्ञानशक्तिबलादिगुणयोगेन च अहम् एव परतरः मत्तः अन्यत् मद्व्यतिरिक्तं किञ्चिद् ज्ञानबलादिगुणान्तरयोगि परतरं न अस्ति।सर्वम् इदं चिदचिद्वस्तुजातं कार्यावस्थं कारणावस्थं च मच्छरीरभूतं सूत्रे मणिगणवदात्मतया अवस्थिते मयि प्रोतम् आश्रितम्।यस्य पृथिवी शरीरम् (बृ0 उ0 3।7।3)यस्यात्मा शरीरम् (बृ उ 3।7।22)एष सर्वभूतान्तरात्मापहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः (सु0 उ0 7) इति आत्मशरीरभावेन अवस्थानम् च जगद्ब्रह्मणोः अन्तर्यामिब्राह्मणादिषु सिद्धम्।अतः सर्वस्य परमपुरुषशरीरत्वेन आत्मभूतपरमपुरुषप्रकारत्वात् सर्वप्रकारः परमपुरुष एव अवस्थित इति सर्वैः शब्दैः तस्य एव अभिधानम् इति तत्तत्सामानाधिकरण्येन आह रसः अहम् इति चतुर्भिः
।।7.7।। यस्मादेवं तस्मात् मत्त इति। मत्तः सकाशात्परतरं श्रेष्ठं जगतः सृष्टिसंहारयोः स्वतन्त्रं कारणं किंचिदपि नास्ति। स्थितिहेतुरप्यहमेवेत्याह मयीति। मयि सर्वमिदं जगत्प्रोतं ग्रथितं आश्रितमित्यर्थः। दृष्टान्तः स्पष्टः।
।।7.7।।मत्तः परतरम् इत्यत्र पूर्वोक्तस्यैवार्थस्य व्यतिरेकेण दृढीकरणमात्रपरत्वे मन्दप्रयोजनत्वम् अहं परतर इत्येवंरूपेण पूर्वमनुक्तेश्च तद्व्यतिरेकनिषेधोऽपि नातीवोचितः। अतोऽनुपदिष्टापूर्वार्थपरत्वमेव शब्दस्य सम्भवदपरित्याज्यमित्यभिप्रायेणाह यथेति। पूर्वश्लोकस्थतथाशब्दोऽत्रानुषक्तः ततश्चानन्तमहाविभूतियोगोऽनन्तगुणयोगे दृष्टान्तित इत्यभिप्रायेणाह तथा ज्ञानशक्तीति।शेषित्वेनेत्यन्तमर्थस्थितिप्रदर्शनम्कारणतया शेषितया चेति परतरत्वप्रकारकथनमित्यपुनरुक्तिः। नन्वहमेवेत्यवधारणमशक्यम् स्वस्मात्परतरनिषेधेऽपि समनिषेधाप्रतीतेरित्यत्राह मत्तोऽन्यदिति। मद्व्यतिरिक्तमिति। अयमभिप्रायः मत्तः इति पञ्चमीन परतरं इत्यनेनान्विता तथा सत्यन्यशब्दानन्वयप्रसङ्गात् अतोमत्तोऽन्यत्परतरं नास्ति इत्यन्वये अहमेव परतर इति फलितम् ततश्च समाभ्यधिकदरिद्रत्वमुक्तं भवति इति।ज्ञानबलादिगुणान्तरयोगि किञ्चिदपीत्यनेन ब्रह्मेशानादयोऽधिकारिणः परिशुद्धात्मानश्च क्रोडीकृताः। एवंभूमिरापः 7।4 इत्यादिना निरपेक्षप्रकृतिपरिणामवादः केवलचेतनसन्निधिमात्र परिणामित्वं प्रकृतिपुरुषयोरीश्वरं प्रत्यशेषत्ववादश्च निरस्तः।मत्तः परतरम् इत्यनेन तु त्रिमूर्त्यैक्यसाम्योत्तीर्णव्यक्त्यन्तरप्रवाहेश्वरपक्षाः प्रतिक्षिप्ताः।अथ पूर्वोक्तसर्वोपादानत्वप्रसक्तसविकारत्वपरिहारार्थं पृथक्सिद्धप्रकृतिपुरुषादिवादनिरासार्थं च सर्वाधारत्वमुखेन सर्वशरीरित्वमुच्यतेमयि इत्यर्धेन।सर्वमिदम् इत्यनेन सर्वावस्थसमस्तचिदचिद्वस्तुसंग्रह इत्यभिप्रायेणोक्तं चिदचिद्वस्तुजातमित्यादि। सूत्रमणिगणदृष्टान्तसामर्थ्यात्प्रोतम् इत्यनेन चानुप्रवेशाश्रयाश्रयि भावप्रतीतेः। शरीरलक्षणमपि सूचितमित्यभिप्रायेण मच्छरीरभूतमित्यादिकमुक्तम्। एकस्यैव सर्वाधारत्वमनुप्रविष्टस्य गूढत्वमाधेयभूतप्रकृत्याद्यधीनस्थितिविरहश्च सूत्रदृष्टान्तसिद्धः। प्रोतशब्देन सूत्रवद्बहिर्व्याप्त्यभावप्रतीतिव्युदासायाह आश्रितमिति। अत्र सुबालोपनिषद्वाक्योपादानमन्तर्यामिणो नारायणत्वव्यक्त्यर्थमन्तर्यामिब्राह्मणानुक्ततत्त्वान्तरसङ्ग्रहार्थं च।
।।7.6 7.7।।एतद्योनीनि इति। मत्तः इति। उपधारय अभ्यासाहितानुभवक्रमेण ( अभ्यासानुभव ) आत्मसमीपे कुरु। एवं च त्वमेवोपधारय यत् अहं वासुदेवो भूतः (S K वासुदेवीभूतः) सर्वस्य प्रभवः प्रलयश्च। अहम् ( N omit the sentence अहं प्रदर्शितम्) इत्यनेन प्रकृतिपुरुषपुरुषोत्तमेभ्यो व्यतिरिक्तोऽपि ईश्वरः सर्वथा सर्वानुगतत्वेन स्थित इति सांख्ययोगयोर्नास्ति भेदवादः इति प्रदर्शितम्। सूत्रे मणिगणा इव यथा तन्तुरनवध्रियमाणरूपोऽपि अन्तर्लीनतया स्थितः एवमहं सर्वत्र।
।।7.7।।नन्वपरं परं च तत्त्वमुक्त्वा परतरोऽहमिति वक्तव्यंमत्तः इति किमुच्यते इत्यतस्तात्पर्यमाह अहमेवेति। परापरप्रकृत्योः स्वाधीनत्वोक्त्यैव स्वस्य परतरत्वमुक्तप्रायम्। किं त्वपरतत्त्वं यथाऽनेकं भूम्यादिभेदेन तथा च परतत्त्वंमुक्तस्तु स्यात्पराभासः इति वचनात्। तथा परतरमपि किमनेकमुत त्वमेक एव इति जिज्ञासायामहमेव परतर इत्यनेनोच्यत इत्यर्थः। कथमनेनेदं लभ्यते भगवत्प्रतियोगिकाधिक्यवन्निषेधस्यात्र प्रतीतेरित्यतो योजयति मत्त इति। अन्यथा तरपोऽन्यशब्दस्य च वैयर्थ्यादिति भावः।
।।7.7।।यस्मादहमेव मायया सर्वस्य जगतो जन्मस्थितिभङ्गहेतुस्तस्मात्परमार्थतः निखिलदृश्याकारपरिणतमायाधिष्ठानात्सर्वभासकान्मत्तः सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वानुस्यूतात्स्वत्प्रकाशपरमानन्दचैतन्यघनात्परमार्थसत्यात्स्वप्नदृश इव स्वाप्निकं मायाविन इव मायिकं शुक्तिशकलावच्छिन्नचैतन्यादिवत्तदज्ञानकल्पितं रजतं परतरं परमार्थसत्यमन्यात्किंचिदपि नास्ति। हे धनंजय मयि कल्पितं परमार्थतो न मत्तो भिद्यत इत्यर्थः।तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः इति न्यायात्। व्यवहारदृष्ट्या तु मयि सद्रूपे स्फुरणरूपे च सर्वमिदं जडजातं प्रोतं ग्रथितं मत्सत्तया सदिव मत्स्फुरणेन च स्फुरदिव व्यवहाराय मायामयाय कल्प्यते। सर्वस्य चैतन्यग्रथितत्वमात्रे दृष्टान्तः सूत्रे मणिगणा इवेति। अथवा सूत्रै तैजसात्मनि हिरण्यगर्भे स्वप्नदृशि स्वप्नप्रोता मणिगणा इवेति सर्वांशे दृष्टान्तो व्याख्येयः। अन्ये तुपरमतः सेतून्मानसंबन्धभेदव्यपदेशेभ्यः इति सूत्रोक्तस्य पूर्वपक्षस्योत्तरत्वेन श्लोकमिमं व्याचक्षते। मत्तः सर्वज्ञात्सर्वशक्तेः सर्वकारणात्परतरं प्रशस्यतरं सर्वस्य जगतः सृष्टिसंहारयोः स्वतन्त्रं कारणमन्यन्नास्ति। हे धनंजय यस्मादेवं तस्मान्मयि सर्वकारणे सर्वमिदं कार्यजातं प्रोतं ग्रथितं नान्यत्र। सूत्रे मणिगणा इवेति दृष्टान्तस्तु ग्रथितत्वमात्रे नतु कारणत्वे। कनककुण्डलादिवदिति तु योग्यो दृष्टान्तः।
।।7.7।।यत उत्पत्तिप्रलयकारणमहमेवातो हे धनञ्जय मद्विभूतिरूप एतज्ज्ञानयोग्य मत्तः परतरं श्रेष्ठं जगत् जगति वा किञ्चित् अहं स इति भेदेनापि अन्यन्नास्ति एवमुत्पत्तिप्रलयकारणेन स्वत उत्तमत्वाभावमन्यस्योक्त्वा स्थितिहेतुत्वेनाऽपि तथा त्वमेवेति स्वस्य स्थितिहेतुत्वमाह मयीति। इदं सर्वं जगत् मयि प्रोतं ग्रथितं मदाश्रयत्वेन तिष्ठतीत्यर्थः। अत्र दृष्टान्तमाह सूत्रे प्रोता मणिगणा इव। अत्रायं भावः मणिगणाः क्रीडास्थजीवाधिदैविकरूपा यथा मयि तिष्ठन्ति तथेदं जगदप्याधिदैविकं मयि तिष्ठतीति भावः।
।।7.7।। मत्तः परमेश्वरात् परतरम् अन्यत् कारणान्तरं किञ्चित् नास्ति न विद्यते अहमेव जगत्कारणमित्यर्थः हे धनञ्जय। यस्मादेवं तस्मात् मयि परमेश्वरे सर्वाणि भूतानि सर्वमिदं जगत् प्रोतं अनुस्यूतम् अनुगतम् अनुविद्धं ग्रथितमित्यर्थ दीर्घतन्तुषु पटवत् सूत्रे च मणिगणा इव।।केन केन धर्मेण विशिष्टे त्वयि सर्वमिदं प्रोतमित्युच्यते
।।7.7।।यस्मादेवं तस्मादेव माहात्म्यं पूर्वं ज्ञातव्यं मत्तः परतरं नान्यदिति। अहमेव पर इत्यर्थः। किञ्चेदं सर्वं प्रोतमाश्रितं मयि तत्र यद्यत्स्वरूपमान्तरं बहिरिदं युष्मदाद्युपलभ्यमानत्वात्सत्त्वं जगत् मत्स्वरूपेणेदं नत्वविद्याकल्पितम्। तत्र दृष्टान्तः सूत्रे मणिगणा इव इत्यात्मशरीरभावेनावस्थानमुक्तं यस्य पृथिवी शरीरं बृ.उ.3।7।3 यस्मात्मा शरीरं श.प.ब्रा.14।5।6।5।30 य एषः ह्येषः सर्वभूतान्तरात्मा मुं.उ.2।1।4 इत्यादौ प्रसिद्धं विज्ञेयम्।