BG - 7.11

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्। धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।

balaṁ balavatāṁ chāhaṁ kāma-rāga-vivarjitam dharmāviruddho bhūteṣhu kāmo ’smi bharatarṣhabha

  • balam - strength
  • bala-vatām - of the strong
  • cha - and
  • aham - I
  • kāma - desire
  • rāga - passion
  • vivarjitam - devoid of
  • dharma-aviruddhaḥ - not conflicting with dharma
  • bhūteṣhu - in all beings
  • kāmaḥ - sexual activity
  • asmi - (I) am
  • bharata-ṛiṣhabha - Arjun, the best of the Bharats

Translation

Of the strong, I am the strength devoid of desire and attachment, and in all beings, I am the desire in accordance with Dharma, O Arjuna.

Commentary

By - Swami Sivananda

7.11 बलम् strength? बलवताम् of the strong? अस्मि am (I)? कामरागविवर्जितम् devoid of desire and attachment? धर्माविरुद्धः unopposed to Dharma? भूतेषु in beings? कामः desire? अस्मि am (I)? भरतर्षभ O Lord of the Bharatas.Commentary Kama Desire for those objects that come in contact with the senses.Raga attachment for those objects that come in contact with the senses.I am that strength which is necessary for the bare sustenance of the body. I am not the strength which generates desire and attachment for sensual objects as in the case of worldlyminded persons. I am the desire which is in accordance with the teachings of the scriptures or the code prescribing the duties of life. I am the desire for moderate eating and drinking? etc.? which are,necessary for the sustenance of the body and which help one in the practice of Yoga.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।7.11।। व्याख्या--'बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्'--कठिन-से-कठिन काम करते हुए भी अपने भीतर एक कामना-आसक्तिरहित शुद्ध, निर्मल उत्साह रहता है। काम पूरा होनेपर भी 'मेरा कार्य शास्त्र और धर्मके अनुकूल है तथा लोकमर्यादाके अनुसार सन्तजनानुमोदित है'--ऐसे विचारसे मनमें एक उत्साह रहता है। इसका नाम 'बल' है। यह बल भगवान्का ही स्वरूप है। अतः यह 'बल' ग्राह्य है। गीतामें भगवान्ने खुद ही बलकी व्याख्या कर दी है। सत्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'कामरागबलान्विताः' पदमें आया बल कामना और आसक्तिसे युक्त होनेसे दुराग्रह और हठका वाचक है। अतः यह बल भगवान्का स्वरूप नहीं है, प्रत्युत आसुरी सम्पत्ति होनेसे त्याज्य है। ऐसे ही 'सिद्धोऽहं बलवान्सुखी' (गीता 16। 14) और 'अहंकारं बलं दर्पम्' (गीता 16। 18 18। 53) पदोंमें आया बल भी त्याज्य है। छठे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें 'बलवद्दृढम्' पदमें आया बल शब्द मनका विशेषण है। वह बल भी आसुरी सम्पत्तिका ही है; क्योंकि उसमें कामना और आसक्ति है। परन्तु यहाँ (7। 11 में) जो बल आया है, वह कामना और आसक्तिसे रहित है, इसलिये यह सात्त्विक उत्साहका वाचक है और ग्राह्य है। सत्रहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें 'आयुःसत्त्वबलारोग्य ৷৷.' पदमें आया बल शब्द भी इसी सात्त्विक बलका वाचक है। 'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ'--हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! मनुष्योंमें (टिप्पणी प0 407.1) धर्मसे अविरुद्ध अर्थात् धर्मयुक्त 'काम' (टिप्पणी प0 407.2) मेरा स्वरूप है। कारण कि शास्त्र और लोक-मर्यादाके अनुसार शुभ-भावसे केवल सन्तान-उत्पत्तिके लिये जो काम होता है, वह काम मनुष्यके अधीन होता है। परंतु आसक्ति कामना सुखभोग आदिके लिये जो काम होता है उस काममें मनुष्य पराधीन हो जाता है और उसके वशमें होकर वह न करनेलायक शास्त्रविरुद्ध काममें प्रवृत्त हो जाता है। शास्त्रविरुद्ध काम पतनका तथा सम्पूर्ण पापों और दुःखोंका हेतु होता है। कृत्रिम उपायोंसे सन्तति-निरोध कराकर केवल भोग-बुद्धिसे काममें प्रवृत्त होना महान् नरकोंका दरवाजा है। जो सन्तानकी उत्पत्ति कर सके, वह 'पुरुष' कहलाता है और जो गर्भ धारण कर सके, वह 'स्त्री' कहलाती है (टिप्पणी प0 407.3)। अगर पुरुष और स्त्री आपरेशनके द्वारा अपनी सन्तानोत्पत्ति करनेकी योग्यता-(पुरुषत्व और स्त्रीत्व-) को नष्ट कर देते हैं, वे दोनों ही हिजड़े कहलानेयोग्य हैं। नपुंसक होनेके कारण देवकार्य (हवन-पूजन आदि) और पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) में उनका अधिकार नहीं रहता (टिप्पणी प0 407.4)। स्त्रीमें मातृशक्ति नष्ट हो जानेके कारण उसके लिये परम आदरणीय एवं प्रिय 'माँ' सम्बोधनका प्रयोग भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह या तो शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुसार केवल सन्तानोत्पत्तिके लिये कामका सेवन करे अथवा ब्रह्मचर्यका पालन करे।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।7.11।। सामान्य बुद्धिमत्ता के और मन्दबुद्धि के लोगों को अनेक उदाहरण देने के पश्चात् यहाँ इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण उस अत्यन्त मेधावी पुरुष के लिये तत्त्व का निर्देश करते हैं जिसमें यह क्षमता हो कि वह इस दिये हुये निर्देश पर सूक्ष्म विचार कर सके।बलवानों का बल मैं हूँ केवल इतने ही कथन में पूर्व कथित दृष्टान्तों की अपेक्षा कोई अधिक विशेषता नहीं दिखाई पड़ती। परन्तु बल शब्द को दिये गये विशेषण से इसको विशेष महत्त्व प्राप्त हो जाता है। सामान्यत मनुष्य में जब कामना व आसक्ति होती है तब वह अथक परिश्रम करते हुये दिखाई देता है और अपनी इच्छित वस्तु को पाने के लिये सम्पूर्ण शक्ति लगा देता है।कामना और आसक्ति इन दो प्रेरक वृत्तियों के बिना किसी बल की हम कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। यद्यपि सतही दृष्टि से काम और राग में हमें भेद नहीं दिखाई देता है तथापि शंकराचार्य अपने भाष्य में उसे स्पष्ट करते हुये कहते हैं. अप्राप्त वस्तु की इच्छा काम है और प्राप्त वस्तु में आसक्ति राग कहलाती है। मन की इन्हीं दो वृत्तियों के कारण व्यक्ति या परिवार समाज या राष्ट्र अपनी सार्मथ्य को प्रकट करते हैं। हड़ताल और दंगे उपद्रव और युद्ध इन सबके पीछे प्रेरक वृत्तियां हैं काम और राग। श्रीकृष्ण कहते हैं मैं बलवानों का काम और राग से वर्जित बल हूँ। स्पष्ट है कि यहाँ सामान्य बल की बात नहीं कही गयी है।इस कथन से मानों उन्हें सन्तोष नहीं होता है और इसलिये वे आगे और कहते हैं प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम मैं हूँ। जिसके कारण वस्तु का अस्तित्व होता है वह उसका धर्म कहलाता है। मनुष्य का अस्तित्व चैतन्य आत्मा के बिना नहीं हो सकता अत वह उसका वास्तविक धर्म या स्वरूप है। व्यवहार में जो विचार भावना और कर्म उसके दिव्य स्वरूप के विरुद्ध नहीं है वे धर्म के अन्तर्गत आते हैं। जिन विचारों एवं कर्मों से अपने आत्मस्वरूप को पहचानने में सहायता मिलती है उन्हें धर्म कहा जाता है और इसके विपरीत कर्म अधर्म कहलाते हैं क्योंकि वे उसकी आत्मविस्मृति को दृढ़ करते हैं। उनके वशीभूत होकर मनुष्य पतित होकर पशुवत् व्यवहार करने लगता है।धर्म की परिभाषा को ध्यान में रखकर इस श्लोक के अध्ययन से उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। धर्म के अविरुद्ध कामना से तात्पर्य साधक की उस इच्छा तथा क्षमता से है जिसके द्वारा वह अपनी दुर्बलताओं को समझकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करता है और आत्मोन्नति की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता जाता है। भगवान् के कथन को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मैं साधक नहीं वरन् उसमें स्थित आत्मज्ञान की प्रखर जिज्ञासा हूँ।अब तक के उपदेश तथा दृष्टान्तों का क्या यह अर्थ हुआ कि आत्मा वास्तव में अनात्म जड़ उपाधियों के बन्धन में आ गया है परिच्छिन्न उपाधि अपरिच्छिन्न आत्मा को कैसे सीमित कर सकती है इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।7.11।।यच्च बलवतां बलं तद्भूते मयि तेषां प्रोतत्वमित्याह बलमिति। कामक्रोधादिपूर्वकस्यापि बलस्यानुमतिं वारयति तच्चेति। कामरागयोरेकार्थत्वमाशङ्क्यार्थभेदमावेदयति कामस्तृष्णेत्यादिना। विशेषणसामर्थ्यसिद्धं व्यावर्त्य दर्शयति नत्विति। शास्त्रार्थाविरुद्धकामभूते मयि तथाविधकामवतां भूतानां प्रोतत्वं विवक्षित्वाह कि़ञ्चेति। धर्माविरुद्धं काममुदाहरति यथेति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।7.11।।बलं सामर्थ्यमोजस्तस्मिन्कामरागविवर्जिते कामोऽप्राप्तेषु विषयेषु प्राप्त्यभिलाषः रागः प्राप्तेषु तेषु रज्जनात्मकः प्रेम्णोऽतिशयः। क्रोधार्थो वा रागशब्दो व्याख्येयः। अस्मिन्पक्षे लक्षणादोष इति बोध्यम्। तद्रहिते देहधारणमात्रप्रयोजने बलभूते मयि बलवन्तः प्रोताः। तथा धर्मेण शास्त्रविहितेनाविरुद्धे देहधारणार्थेऽशनपानादिविषये कामे तद्रूपे मयि कामवतां भूतानां प्रोतत्वम्। भरतर्षमेति संबोधयन् भरतैः क्षत्रियवरैः सेवितं युद्धात्मकधर्मस्य साधकं कामरागविवर्जितं क्षत्रधर्मेण युद्धेन देहधारणमात्रप्रयोजनकं मद्विभूत्यात्मकं बलं स्वधर्मेण शत्रून्विजित्य धर्माविरुद्धं अन्नपानादिविषयं कामं च मद्विभूतिरुपं भरतानां मध्ये श्रेष्टत्वं त्युक्तुं नार्हसीति सूचयति।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।7.8 7.12।।इदं ज्ञानम्। रसोऽहमित्यादिविज्ञानम्। अबादयोऽपि तत एव। तथापि रसादिस्वभावाना सागणां च स्वभावत्वे सारत्वे च विशेषतोऽपि स एव नियमाकः न त्वबादिनियमानुबद्धो रसादिस्तत्सारत्वादिश्चेति दर्शयति अप्सु रस इत्यादिविशेषशब्दैः। भोगश्च विशेषतो रसादेरिति च उपासनार्थं च।उक्तं च गीताकल्पेरसादीनां रसादित्वे स्वभावत्वे तथैव च। सारत्वे सर्वधर्मेषु विशेषेणापि कारणम्। सारभोक्ता च सर्वत्र यतोऽतो जगदीश्वरः। रसादिमानिनां देहे स सर्वत्र व्यवस्थितः। अबादयः पार्षदाश्च ध्येयः स ज्ञानिनां हरिः। रसादिसम्पत्त्या अन्येषां वासुदेवो जगत्पतिः इति।स्वभावो जीव एव च।सर्वस्वभावो नियतस्तेनैव किमुतापरम्।न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् इति च।धर्माविरुद्धःकामरागबिवर्जितम्इत्याद्युपासनार्थम्। उक्तं च गीताकल्पेधर्मारुविद्धकामेऽसावुपास्यः काममिच्छता। विहीने कामरागादेर्बले च बलमिच्छता। ध्यातस्तत्र त्वनिच्छद्भिर्ज्ञानमेव ददाति च इत्यादि पुण्यो गन्ध इति भोगापेक्षया। तथा हि श्रुतिः पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान् पापं गच्छति बृ.उ.1।5।20 ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके कठो.3।1 इत्यादिका। ऋतं च पुण्यम्।ऋतं सत्यं तथा धर्मः सुकृतं चाभिधीयते इत्यभिधानात्।ऋतं तु मानसो धर्मः सत्यं स्यात्सम्प्रयोगगः इति च। नच अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति श्वे.उ.4।6 मुं.3।1।1ऋक्2।3।17।5अन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् इत्यादिविरोधि स्थूलानशनोक्तेः। आह च सूक्ष्माशनम्। प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरारादात्मनः।न चात्र जीव उच्यते शारीरादात्मन इति भेदाभिधानात्। स्वप्नादिश्च शारीर एवशारीरस्तु त्रिधा भिन्नो जाग्रदादिष्ववस्थितेः इति वचनाद्गारुडे। अस्मादिति त्वीश्वरव्यावृत्त्यर्थम्।शारीरौ तावुभौ ज्ञेयौ जीवश्चेश्वरसंज्ञितः। अनादिबन्धनस्त्वेको नित्यमुक्तस्तथाऽपरः इति वचनान्नारदीये भेदश्रुतेश्च। सति गत्यन्तरे पुरुषभेद एव कल्प्यो नत्ववस्थाभेदः। आह च प्रविविक्तभुग्यतो ह्यस्माच्छारीरात्पुरुषोत्तमः। अतोऽभोक्ता च भोक्ता च स्थूलाभोगात्स एव तु इति गीताकल्पे। न त्वहं तेष्विति तदनाधारत्वमुच्यते। उक्तं च तदाश्रितं जगत्सर्वं नासौ कुत्रचिदाश्रितः इति गीताकल्पे।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।7.11।।बलरूपे मयि बलवन्तः प्रोताः। कामरागविवर्जितं कामस्तृष्णा रागो रञ्जना। तौ हि आविद्यकौ। अतो निरवद्यस्य बलं तद्वर्जितम्। एवं धर्माविरुद्धकामरूपे मयि ईदृशाः कामवन्तः प्रोताः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।7.11।।एते सर्वे विलक्षणा भावा मत्त एव उत्पन्नाः मच्छेषभूता मच्छरीरतया मयि एव अवस्थिताः अतः तत्प्रकारः अहम् एव अवस्थितः।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।7.11।।किंच बलमिति। कामोऽप्राप्ते वस्तुन्यभिलाषो राजसः रागः पुनरभिलषितेऽर्थे प्राप्तेऽपि पुनरधिकेऽर्थे चित्तरञ्जनात्मकस्तृष्णापरपर्यायस्तामसः ताभ्यां विवर्जितं बलवतां बलमस्मि। सात्त्विकं स्वधर्मानुष्ठानसामर्थ्यमहमित्यर्थः। स्वधर्मेणाविरुद्धः स्वदारेषु पुत्रोत्पत्तिमात्रोपयोगी कामोऽहम्।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।। 7.11  एवंभूमिरापः 7।4 इत्यादिना भेदश्रुत्यर्थ उपबृंहितःमयि सर्वम् 7।7 इति तु घटकश्रुत्यर्थः अथ तदुभयनिर्वाहिताभेदश्रुत्यर्थोपबृंहणं क्रियत इत्यभिप्रायेणाह अत इति। केचित्मयि सर्वमिदम् इत्यस्य रसादिधर्मविशिष्टे मयि प्रोतमित्यर्थः तद्विवरणंरसोऽहम् इत्यादि इति व्याचख्युः तत्परिहारायाह सर्वस्य परमपुरुषशरीरत्वेनेति। परोक्ते त्वाधाराधेयभाववैपरीत्यादिदोष इति भावः। प्रकारवाचिशब्दानां प्रकारिणि पर्यवसानस्वाभाव्यं जातिगुणादिशब्देष्वपि सामान्यतः सिद्धमिति दर्शयितुं प्रकारत्वोपादानम्।अभिधानं मुख्यवृत्त्या बोधनम्। यद्यपि रसादिशब्दा लोके निष्कर्षकाः प्रयुज्यन्ते व्यधिकरणतया चात्रावादिद्रव्योपादानम् तथापि रसादीनां परमात्मशरीरभूतद्रव्यप्रकारत्वेन परमात्मनः प्रकारित्वाद्रसादिशब्दानां चात्र तत्समानाधिकरणतया प्रयोगात्तत्र निष्कर्षकत्वं नास्तीत्यभ्युपगन्तव्यम्। द्रव्योपादानं तु तत्रतत्र द्रव्ये प्रधानभूतरसगन्धादिप्रकारीभूतोऽहमिति ज्ञापनार्थम्। द्रव्यप्रकाराणां च तत्प्रकारत्वं काठिन्यवान् (न्येन)यो बिभर्ति वि.पु.1।14।28 इत्यादिषु प्रयुक्तमिति भावः। रसस्य पृथिव्यां वृत्तौ सत्यामप्यपां रूपादिगुणान्तरसद्भावेऽपिरसोऽहमप्सु इति विशिष्योपादानं तेजस्तत्त्वादब्रूपपरिणामस्य पूर्वतत्त्वानुत्पन्नरसप्रधानत्वात्। अन्यत्र चआत्तगन्धा तदा (ततो) भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते वि.पु.6।4।14 इत्यादिना च पृथिव्यादीनां गन्धरसाद्यधीनत्वमुक्तम्। एवमुत्तरत्रापि प्राधान्यतो विशेषनिर्देशे यथोचितं भाव्यम्।प्रभा स्वाश्रयातिरिक्तप्रसारितेजोद्रव्यविशेषः। प्रभयैव चन्द्रसूर्यौ जगदुपकारहेतुभूताविति तौ तत्प्रधानौ। सर्वेषां वेदानां बीजत्वादिना तेषुप्रणवः प्रधानभूतः।पौरुषं पुरुषस्य भावः यतः पुरुषबुद्धिरित्येके सन्तानपरम्पराहेतुभूतं रेत इत्यपरे यद्वा पौरुषं सामर्थ्यं कर्तृत्वशक्तिरित्यर्थः तयैव हि कर्तुरात्मनः कारकान्तरेभ्यः प्राधान्यम्। नृषु जीवेष्वित्यर्थः। यद्वा पौरुषं पुंस्त्वम् स्त्रीनपुंसकव्यावृत्तः सत्त्वादिस्वभावविशेषः। नृशब्दश्च पुरुषपर्यायः। पुण्यो गन्धः तुलस्यादिगन्धः सुरभिगन्धमात्रं वा तद्योगेन हि पृथिवी सत्त्वोन्मेषस्य सुखस्य वा हेतुर्भवति। विभावसुरत्राग्निः। तत्र च तेजो दाहकत्वशक्तिः। भूतशब्देनात्र शरीरिणो गृह्यन्ते। सर्वशब्देनात्र ब्रह्मशर्वादीनामपि सङ्ग्रहः। तेषु जीवनं प्राणनम् प्राणस्थितिहेतुर्वा। येन सर्वाणि भूतानि जीवन्ति भूतेषूपजीवनीयं वा रूपम्।सर्वभूतानां सनातनं बीजं प्रकृतितत्त्वम्। अथवा प्रधानधर्मनिर्देशप्रकरणत्वाद्बीजशब्दोऽत्रोपादानत्वाख्यस्वभावपरः। सर्वेषां परिणामिद्रव्याणां स्वकार्यपरिणामसामर्थ्यमित्यर्थः। अथवा बीजं प्ररोहकारणं जङ्गमस्थावरभूतानां तत्तदुपादानद्रव्यम्। बुद्धिः अध्यवसायः ज्ञानमात्रं वा। तेजस्विनः प्रतापशीलाः तेषां तेजः अनभिभवनीयत्वं पराभिभवसामर्थ्यं वा। तेजोऽभिमान इति केचित् प्रागल्भ्यमित्यपरे। बलं धारणादिशक्तिः। कामरागवशात् स्वकार्ये प्रवृत्तस्य बलस्य परपीडादिहेतुत्वाद्धर्मोपयुक्तशरीरादिधारणमात्रादिविषयत्वायकामरागविवर्जितम् इत्युक्तम्। काम इच्छायाः काष्ठा प्राप्तदशा। राग इच्छा। यद्वा कामशब्दः काम्यपरः तद्विषयो रागः कामरागः भूतेषु देवमनुष्यादिरूपेणावस्थितेषु जन्तुषु। धर्माविरुद्धः कामः स्वदारप्रीत्यादिः।अथरसोऽहम् इत्यादिसामानाधिकरण्यं सहेतुकमुपपादयति एत इति। न चायं तदधीनसामर्थ्यप्रदर्शनार्थोराजा राष्ट्रम् इत्यादिवदारोपः मुख्यसम्भवे वृत्त्यन्तरायोगादिति भावः।एत इत्यनेनेश्वरव्यतिरिक्तैरशक्यक्रियत्वमभिप्रेतम्।सर्व इत्यनेन ब्रह्मरुद्रादिभिरन्यैश्च क्रियमाणानामपि ब्रह्मादिशरीरपरमात्माधीनसृष्टत्वम्अहं कृत्स्नस्य 7।6 इति पूर्वोक्तं स्मारितम्। वक्ष्यमाणराजसतामसेभ्यो वैलक्षण्यार्थमुक्तंविलक्षणा इति।मत्त एव पृथग्विधाः 10।5 इति च वक्ष्यते। एतेनन विलक्षणत्वादस्य ब्र.सू.2।1।4 इत्यधिकरणार्थोऽपि स्मारितः।मत्त एवोत्पन्ना इत्यादि तत्तद्वस्त्वनुरूपं यथासम्भवं सामानाधिकरण्यहेतुः। गुणजातिशरीरेष्वनुगतः सामानाधिकरण्यहेतुरपृथक्सिद्धिरिति प्रदर्शनायोक्तंमय्येवावस्थिता इति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।7.10 7.11।।बीजमिति। बलमिति। बीजं सूक्ष्ममादिकारणम् ( सूक्ष्मादिकारणम्)। कामरागविवर्जितं बलं सकलवस्तुधारणसमर्थम् ऊर्जोरूपम् ( omits रूपम्)। कामः ( S omits कामः) इच्छा संविन्मात्ररूपा यस्या घटपटादिभिर्धर्मरूपैर्नास्ति विरोधः। इच्छा हि सर्वज्ञ भगवच्छक्तितया अनुयायिनी न क्वचिद्विरुध्यते धर्मैस्तु आगन्तुकैर्घटपटादिभिर्भिद्यते ( S घटादिभिर्भि ) इति तदुपासकतया शुद्धसंवित्स्वभावत्वं ज्ञानिनः। उक्तं च शिवोपनिषदि इच्छायामथ वा ज्ञाने जाते चित्तं निवेशयेत् (V 98 ) इतिजाते एव न तु बाह्यप्रसृते इत्यर्थ। एवं व्याख्यानं त्यक्त्वा ये परस्परानुपघातकं त्रिवर्गं सेवेत इत्याशयेन व्याचक्षते ते संप्रदायक्रममजानानाः भगवद्रहस्यं च व्याचक्षणा नमस्कार्या एव।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।7.8 7.12।।भूमिः 7।4 इत्यादिनेत्यत्रावधेरनुक्तेःरसोऽहं इत्याद्यपि ज्ञानप्रकरणमिति प्रतीतिः स्यात् तन्निरासाय तत्समाप्तिमाह इदमिति। एतावता ग्रन्थेन ज्ञानं निरूपितमित्यर्थ। कुतोऽत्र ज्ञानप्रकरणस्य समाप्तिः इत्यत आह रसोऽहमिति। इतिशब्दाद्यभावेऽपि प्रकरणान्तरारम्भ एव समाप्तिं गमयिष्यति। अलौकिकमाहात्म्यप्रतिपादनादस्य विज्ञानप्रकरणत्वं ज्ञायत इति भावः।प्रभवादेः इत्युक्तन्यायेनैवरसोऽहं इत्यादेरपि व्याख्यानं सिद्धम्। रसादीनां सत्तादिकारणत्वाद्भोक्तृत्वाच्च भगवान् रसादिरिति। नन्वबादयो धर्मिणो भगवदधीनास्तद्भोग्याश्चेत्यङ्गीक्रियते न वा। नेति पक्षेअहं कृत्स्नस्य 7।6 इत्युक्तविरोधः। आद्ये तुअप्सु रसः इत्यादेर्धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणां ग्रहणस्यानुपपत्तिरित्यतः प्रथमं पक्षं तावदङ्गीकरोति अबादयोऽपीति। धर्मिणोऽपि तदधीना एव तद्भोग्याश्चैव। ननु तत्रोक्तो दोष इत्यतः कारणत्वे तावद्विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह तथापीति। यद्यपि धर्मिणोऽपि भगवदधीना एव तथापि धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानं युज्यत इति शेषः। कथं इत्यत आह रसादीति। रसादयश्च ते स्वभावा अबादीनामनागन्तुकधर्माश्चेति रसादिस्वभावास्तेषां साराणामबादिधर्मेषु सङ्ख्यादिषु श्रेष्ठानां च तेषामेवाबादिस्वभावभूतानां तद्धर्मेषु श्रेष्ठानां च रसादीनामिति यावत्। स्वभावत्वेऽबादीनामिति शेषः। सारत्वेऽबादिधर्मेष्विति शेषः। रसादित्वे चेति चार्थः। स भगवानेव। विशेषतोऽपीत्यस्य व्यावर्त्यं न त्विति। अनुबद्धोऽनुषङ्गसिद्धः। तत्सारत्वादिश्चेति। तस्य रसादेरबादिधर्मेषु सारत्वमबादिस्वभावत्वं रसत्वादिकंचेत्यर्थः। यथा लोके कुविन्दादिः पटादिद्रव्येष्वेव व्यापारवाननुभूयते न तु तदीयेषु गन्धरसादिषु गुणेषु तद्धर्मेषु च गन्धत्वादिषु पृथग्व्यापारवान् किन्तु ते पटादिजन्मानुषङ्गिजन्मान एव। न तथा भगवान्। अपित्वबादेधर्मेषु रसादिषु तद्धर्मेषु च स्वभावत्वादिषु पृथक् प्रयत्नवान् नत्वबादिनियमानुषङ्गिसत्तादिकास्त इति दर्शयितुं विशेषशब्दा उपात्ता इत्यर्थः। भोगपक्षेऽपि प्रयोजनमाह भोगश्चेति। अबादिभोगादप्यतिशयेन रसादेर्भोगः परमेश्वरस्येति दर्शयति विशेषशब्दैरिति सम्बन्धः।रसोऽहं इत्याद्यभेदोक्तेरर्थान्तरं सूचयन् तत्रापि विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह उपासनार्थं चेति। विशेषतः रसादेरिति वर्तते। अर्थवशाद्रसादेरिति सप्तमीत्वेन विपरिणम्यते। रसादयः परमेश्वरोपासने प्रतिमात्वेनात्र विवक्षिताः। प्रतिमायां चाभेदोक्तिः प्रसिद्धा। प्रतिमात्ममबादीनां समानम्। योऽप्सु तिष्ठन् बृ.उ.7।3।4 इत्यादेः। अतः किं विशेषशब्दग्रहणेनेति चेत् अबादिभ्यो विशेषतः रसादिषु भगवदुपासनार्थं तदुपपत्तिरिति।उक्तेऽर्थत्रये प्रमाणमाह उक्तं चेति। तथा चशब्दः अन्योन्यसमुच्चये। एवशब्दस्येश्वर इत्यनेन सम्बन्धः। सर्वत्राबादिषु। ईश्वरो रसादिकं जगदित्युच्यत इत्यर्थः। अबादयोऽबाद्यभिमानिनः। ज्ञानिनां ज्ञानार्थिनां सम्पत्त्यै प्राप्त्यै अन्येषां रसार्थिनाम्। अबादय इति रसादीति च पादयोः सप्तनवाक्षरत्वेऽपि न वा एकेनाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति ऐ.ब्रा.1।6 इति वचनाददोषः। स्वभावस्य भगवदधीनत्वमलौकिकमित्यतस्तत्रान्यान्यपि वाक्यानि पठति स्वभाव इति। अस्त्वेवं धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानम् धर्माणां विशेषणोपादानं तु किमर्थमित्यत आह धर्मेति। आदिपदेनपुण्यो गन्धः इत्यस्य ग्रहणम्। कामादिषु विशिष्टंष्वेव भगवानुपास्यः न धर्मविरुद्धेष्वशुचिष्विति ज्ञापनाय कामादीनां धर्माणां धर्माविरुद्धत्वादिविशेषणोपादानमित्यर्थः। अत्र प्रमाणमाह उक्तं वेति। कामं पुरुषार्थम्। कामरागादेः कामरागादिना। अनिञ्छद्भिः कामादिकम्। गन्धस्य विशेषणोपादाने प्रयोजनान्तरमाह पुण्य इति। पुण्यगन्धस्यैव भगवतो भोगो न दुर्गन्धस्येति ज्ञापयितुमत्र विशेषणोपादानमित्यर्थः। ननु दुर्गन्धं भगवाननुभवति न वा नेति पक्षे सार्वज्ञाभावः आद्ये कथं भोगाभावः उच्यते अनुभूयमाना अपि दुर्गन्धादयो न फलहेतव इत्यभिप्रायः। सुगन्धस्तु सुखहेतुरित्युपपादितम्।शुचिवस्त्वेव भगवतो भोग्यमित्यत्र प्रमाणमाह तथा हीति। अमुमुपासकम्। कुतः तस्य देवत्वात्। तथापि कुतः न ह वै देवमात्रस्य पुण्यभोगनियमे देवोत्तमस्य सुतरां तत्सिद्धि।ऋतं कठो.3।1 इति श्रुतिः कथं प्रकृतोपयोगिनी इत्यत आह ऋतं चेति। कुतः इत्यतः सामान्यविशेषाभिधानादित्याह ऋतमिति।प्रयोगगः शब्दजन्यः। तथा च श्रुतावृतशब्दः पुण्यफलस्योपलक्षक इति भावः। स्यादिदं व्याख्यानं यदि भगवतो विषयभोगो युक्तः स्यात् न चैवम् तदङ्गीकारे श्रुत्यादिविरोधात्। ऋतं पिबन्तौ इति चात एव छत्रिन्यायेनोपचरितमित्यत आह न चेति। कुतो नेत्यत आह स्थूलेति। श्रुत्यादिषु स्थूलस्य जीवभोग्यस्य विषयस्याभोगोक्तेः सूक्ष्मभोगस्य चाङ्गीकारादिति भावः। सूक्ष्माशने प्रमिते भवेदियं व्यवस्था। तदेव कुतः इत्यत आह आह चेति। गन्धादिषु यो जीवेन्द्रियागोचरः सारभागस्तस्य भोगम्। परमेश्वरोऽस्माच्छारीरादात्मनो जीवादतिशयेन विलक्षणभोग एव भवति। अवतारेषु स्थूलमपि भुङक्ते इतीवशब्दः।ननु प्रविविक्ताहारतरोऽयं जीव एवेत्यत आह न चेति। न हि जीवो जीवादेव विलक्षणाहार इति युज्यत इत्यर्थः। ननु शारीराज्जागरावस्थाज्जीवात्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थः स एव प्रविविक्ताहार इत्यवस्थाभेदोपाधिकं जीवस्य भेदमङ्गीकृत्य व्याख्यास्यामीत्यत आह स्वप्नादिश्चेति।स्वपो नन् अष्टा.3।3।91 इति स्वप्नशब्दः कर्तरि। स्वप्नः सुषुप्तश्च शारीर एव न केवलं जाग्रत् तथाच त्र्यवस्थस्यापि शारीरशब्देन गृहीतत्वात् न ततो भेदः स्वप्नसुषुप्तयोरित्यर्थः। अवस्थात्रयवतोऽपि शारीरत्वं कुतः इत्यत आह शारीर स्त्विति। जाग्रदादिष्वंवस्थासु। अस्तु त्र्यवस्थोऽपि शारीरः तथाप्यस्मादिति विशेषणेनात्र शारीरादिति जाग्रदवस्थो गृह्यते। तस्माच्च स्वप्नाद्यवस्थस्य भेदोक्तिरुक्तविधया सम्भवति। भवत्पक्षेऽपि शारीरादिति जीवे सिद्धेऽस्मादिति विशेषणं व्यर्थं स्यादिति तत्राह अस्मादिति। नैतद्विशेषणसार्थक्यायेश्वरं परित्यज्य जीवोऽत्र ग्राह्यः शारीरादित्येवोक्तावीश्वरस्यापि प्राप्तावीश्वरादेवेश्वरस्य भेदानुपपत्तेः। तद्व्यावृत्त्यर्थं जीवमात्रपरिग्रहाय विशेषणमिति सार्थक्योपपत्तेरित्यर्थः। भवेदेवं यदि शारीरत्वमीश्वरस्यापि स्यात् तदेव कुतः इत्यत आह शारीराविति। नन्वेवं पक्षद्वयेऽप्युपपत्तावीश्वर एवात्रोच्यते न जीवः इति कुतः विनिगमनमित्यत आह भेदेति। चो हेतौ। भेदश्रुतेः स्वाभाविकभेदरूपे गत्यन्तरे सम्भवति पुरुषभेद एवार्थतया ग्राह्यः न त्ववस्थोपाधिको भेदः।मुख्यामुख्ययोर्मुख्ये सम्प्रत्ययात् अतो युक्तं विनिगमनम्। न केवलमुक्तव्यवस्था न्यायप्राप्ता किन्त्वागमसिद्धा चेत्याह आह चेति। अभोक्ता च भोक्ता चेत्येतयोर्व्युत्क्रमेणान्धयः।सर्वभूतस्थमात्मानं 6।29 इत्युक्तत्वात्।न त्वहं तेषु 7।12 इति कथमुच्यते इत्यत आह न त्वहमिति। तदनाधारत्वं तदुपजीवनेन स्थित्यभावः। कुत एतत् इत्यत आह उक्तं चेति। न केवलं मुक्तविरोधादिति चार्थः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।7.11।।अप्राप्तो विषयः प्राप्तिकारणाभावेऽपि प्राप्यतामित्याकारश्चित्तवृत्तिविशेषः कामः प्राप्तो विषयः क्षयकारणे सत्यपि न क्षीयतामित्येवमाकारश्चित्तवृत्तिविशेषो रञ्जनात्मा रागस्ताभ्यां विशेषेण वर्जितं सर्वथा तदाकाररजस्तमोविरहितं यत्स्वधर्मानुष्ठानाय देहेन्द्रियादिधारणसामर्थ्यं सात्त्विकं बलं बलवतां तादृशसात्त्विकबलयुक्तानां संसारपराङ्मुखानां तदहमस्मि। तद्रूपे मयि बलवन्तः प्रोता इत्यर्थः। चशब्दस्तुशब्दार्थे भिन्नक्रमः। कामरागविवर्जितमेव बलं मद्रूपत्वेन ध्येयं नतु संसारिणां कामरागकारणं बलमित्यर्थः। क्रोधार्थो वा रागशब्दो व्याख्येयः। धर्मो धर्मशास्त्रं तेनाविरुद्धोऽप्रतिषिद्धो धर्मानुकूलो वा यो भूतेषु प्राणिषु कामः शास्त्रानुमतजायापुत्रवित्तादिविषयोऽभिलाषः सोऽहमस्मि। हे भरतर्षभ शास्त्राविरुद्धकामभूते मयितथाविधकामयुक्तानां भूतानां प्रोतत्वमित्यर्थः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।7.11।।किञ्च बलवतां मद्वशीकरणलक्षणवतां बलं वशीकरणलक्षणमहम्। चकारेण तद्रूपोऽपि। कीदृशं बलं कामरागविवर्जितं वशीकृते मयि स्वाभिलाषत्वं स्वरञ्जनादिवर्जनम् किन्तु मदभिलाषादिभावः। तथा हे भरतर्षभ सत्कुलोत्पन्न तथा कामभावयोग्य धर्माविरुद्धः धर्मेण अविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि। अत्रायं भावः लौकिककामस्तु धर्मविरुद्धोऽस्ति यतोऽयं रसः स्वाऽविवाहितायामेव भवति प्रकटः सर्वधर्मविरुद्ध एव। अलौकिकस्तु रसात्मको धर्मरूप इति भावः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।7.11।। बलं सामर्थ्यम् ओजो बलवताम् अहम् तच्च बलं कामरागविवर्जितम् कामश्च रागश्च कामरागौ कामः तृष्णा असंनिकृष्टेषु विषयेषु रागो रञ्जना प्राप्तेषु विषयेषु ताभ्यां कामरागाभ्यां विवर्जितं देहादिधारणमात्रार्थं बलं सत्त्वमहमस्मि न तु यत्संसारिणां तृष्णारागकारणम्। किञ्च धर्माविरुद्धः धर्मेण शास्त्रार्थेन अविरुद्धो यः प्राणिषु भूतेषु कामः यथा देहधारणमात्राद्यर्थः अशनपानादिविषयः स कामः अस्मि हे भरतर्षभ।।किञ्च

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।7.11।।बलमिति। क्रियाशक्तिरूपं तदपि न प्रवृत्त्यात्मकमित्याह कामरागाविवर्जितमिति। तथैव कामोऽस्मि स च लोके धर्मविरोधीति तद्व्यावृत्त्यर्थमाह धर्माविरुद्ध इति। एते सप्तसप्त तत्तद्वयभेदा निरूपिताः।