चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।
chatur-vidhā bhajante māṁ janāḥ sukṛitino ’rjuna ārto jijñāsur arthārthī jñānī cha bharatarṣhabha
Four kinds of virtuous men worship Me, O Arjuna, and they are the distressed, the seekers of knowledge, the seekers of wealth, and the wise, O Lord of the Bharatas.
7.16 चतुर्विधाः four kinds? भजन्ते worship? माम् Me? जनाः people? सुकृतिनः virtuous? अर्जुन O Arjuna? आर्तः the distressed? जिज्ञासुः the seeker of knowledge? अर्थार्थी the seeker of wealth? ज्ञानी the wise? च and? भरतर्षभ O lord of the Bharatas.Commentary The distressed is he who is suffering from a chronic and incurable disease? he whose life is in jeopardy on account of earthake? volcanic eruption? thunder? attack by a dacoit or enemy or tiger? etc. When Draupadi and Gajendra were in great distress they worshipped the Lord. These are the instances of Aarta Bhakti.Jijnasu is the enirer. He is dissatisfied with this world. There is a void in his life. He always feels that sensual pleasure is not the highest form of happiness and there is yet pure eternal bliss unmixed with grief and pain? which is to be found within. Janaka and Uddhava were devotees of this type.Seeker of wealth is he who craves for money? wife? children? position? name and fame. Sugriva? Vibhishana? Upamanyu and Dhruva were all devotees of this type.The wise are the men of knowledge who have attained to Selfillumination. Sukadeva was a JnaniBhakta.Kamsa? Sishupala and Ravana thought of the Lord constantly on account of fear and hatred (VairaBhakti). Hence they are also regarded as devotees.Be devoted to God? whatever be your motive. Devotion will purify the motive in due course.
।।7.16।। व्याख्या--'चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन'--सुकृती पवित्रात्मा मनुष्य अर्थात् भगवत्सम्बन्धी काम करनेवाले मनुष्य चार प्रकारके होते हैं। ये चारों मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् स्वयं मेरे शरण होते हैं।पूर्वश्लोकमें 'दुष्कृतिनः' पदसे भगवान्में न लगने-वाले मनुष्योंकी बात आयी थी। अब यहाँ 'सुकृतिनः' पदसे भगवान्में लगनेवाले मनुष्योंकी बात कहते हैं। ये सुकृती मनुष्य शास्त्रीय सकाम पुण्य-कर्म करनेवाले नहीं हैं, प्रत्युत भगवान्से अपना सम्बन्ध जोड़कर भगवत्सम्बन्धी कर्म करनेवाले हैं। सुकृती मनुष्य दो प्रकारके होते हैं--एक तो यज्ञ, दान, तप आदि और वर्ण-आश्रमके शास्त्रीय कर्म भगवान्के लिये करते हैं अथवा उनको भगवान्के अर्पण करते हैं और दूसरे भगवन्नामका जप तथा कीर्तन करना, भगवान्की लीला सुनना तथा कहना आदि केवल भगवत्सम्बन्धी कर्म करते हैं।जिनकी भगवान्में रुचि हो गयी है, वे ही भाग्यशाली हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं और वे ही मनुष्य कहलाने-योग्य हैं। वह रुचि चाहे किसी पूर्व पुण्यसे हो गयी हो, चाहे आफतके समय दूसरोंका सहारा छूट जानेसे हो गयी हो, चाहे किसी विश्वसनीय मनुष्यके द्वारा समयपर धोखा देनेसे हो गयी हो, चाहे, सत्सङ्ग स्वाध्याय अथवा विचार आदिसे हो गयी हो, किसी भी कारणसे भगवान्में रुचि होनेसे वे सभी सुकृती मनुष्य हैं।जब भगवान्की तरफ रुचि हो जाय, वही पवित्र दिन है, वही निर्मल समय है और वही सम्पत्ति है। जब भगवान्की तरफ रुचि नहीं होती, वही काला दिन है, वही विपत्ति है-- 'कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।।'(मानस 5। 32। 2)भगवान्ने कृपा करके भगवत्प्राप्तिरूप जिस उद्देश्यको लेकर जिन्हें मानव-शरीर दिया है, वे 'जनाः' (जन) कहलाते हैं। भगवान्का संकल्प मनुष्यमात्रके उद्धारके लिये बना है; अतः मनुष्यमात्र भगवान्की प्राप्तिका अधिकारी है। तात्पर्य है कि उस संकल्पमें भगवान्ने मनुष्यको अपने उद्धारकी स्वतन्त्रता दी है, जो कि अन्य प्राणियोंको नहीं मिलती; क्योंकि वे भोगयोनियाँ हैं और यह मानवशरीर कर्मयोनि है। वास्तवमें केवल भगवत्प्राप्तिके लिये ही होनेके कारण मानव-शरीरको साधनयोनि ही मानना चाहिये। इसलिये इस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करके मनुष्य शास्त्र-निषिद्ध कर्मोंको छोड़कर अगर भगवत्प्राप्तिके लिये ही लग जाय तो उसको भगवत्कृपासे अनायास ही भगवत्प्राप्ति हो सकती है। परन्तु जो मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके विपरीत मार्गपर चलते हैं, वे नरकों और चौरासी लाख योनियोंमें जाते हैं। इस तरह सबके उद्धारके भावको लेकर भगवान्ने कृपा करके जो मानव-शरीर दिया है, उस शरीरको पाकर भगवान्का भजन करनेवाले सुकृती मनुष्य ही जनाः अर्थात् मनुष्य कहलानेयोग्य हैं।
।।7.16।। समस्त पदार्थ एवं ऊर्जा का स्रोत आत्मा ही होने के कारण जड़ पदार्थों में यदि क्रिया होते दिखाई दे तो उसका प्रेरक स्रोत भी आत्मा ही होना चाहिए। वाष्प इंजन का प्रत्येक भाग लोहे का बना होता है और फिर भी यदि उसमें रेल के डिब्बों को खींचने की सार्मथ्य होती है तो निश्चय ही उस सार्मथ्य का स्रोत लोहे से भिन्न होना चाहिए। ठीक इसी प्रकार समस्त मनुष्य शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से जो सार्मथ्य प्रकट करते हैं वह आत्मचैतन्य के कारण ही संभव होता है। योगी हो या भोगी दोनों को कार्य करने के लिए आत्मचैतन्य का ही आह्वान करना पड़ता है। चाहे वे पीड़ा और कष्ट के समय सान्त्वना की कामना करें या विषय उपभोगों की इच्छा करें इन सबके लिए आत्मा की चेतनता आवश्यक होती है।एक विशेष दशा मे कार्य करने के लिए आत्मा का आह्वान करना ही भजन या प्रार्थना है। प्रार्थना विधि में भक्त स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित करके ईश्वर के अनुग्रह की कामना करता है। इसको समझने के लिए हम विद्युत् का दृष्टान्त ले सकते हैं। विद्युत् पंखा हीटर रेडियो आदि स्वयं कुछ कार्य नहीं कर सकते। विद्युत् शक्ति के इनमें प्रवाहित होने पर ये अपनेअपने कार्य के द्वारा समाज की सेवा कर पाते हैं। यही विद्युत् शक्ति का आह्वान है।स्पष्ट है कि सभी यन्त्रों के लिए विद्युत् आवश्यक है लेकिन उसका उपयोग किस यन्त्र के लिए करना है वह हमारी इच्छा पर निर्भर करता है। शीत ऋतु के दिनों में पंखा चलाकर हमें और अधिक कष्ट उठाना पड़े तो उसका दोष विद्युत् को नहीं दिया जा सकता और न ही उसे क्रूर कहा जा सकता है। विखण्डित मन में जब चैतन्य व्यक्त होता है तो मन के अवगुणों के लिए आत्मा को दोष नहीं दिया जा सकता।इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि एक मात्र आत्मा ही चैतन्य स्वरूप है। भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापी हो या पुण्यात्मा मूढ़ हो या बुद्धिमान आलसी हो या क्रियाशील भीरु हो या साहसी सब मुझे ही भजते हैं और मैं उन सबके हृदय में व्यक्त होता हूँ। शरीर मन या बुद्धि से कार्य करने के लिए सभी मनुष्यों को जाने या अनजाने मेरा आह्वान करना पड़ता है।इस श्लोक में पुण्यकर्मी भक्तों का चार प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। वे हैं (क) आर्त आर्त का सामान्य अर्थ है दुख से पीड़ित व्यक्ति। दुखार्त भक्त अपने कष्ट के निवारण के लिए भक्ति करता है। यह सामान्य दुख के विषय में हुआ किन्तु ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिन्हें जीवन में सब प्रकार की सुखसुविधाएं उपलब्ध होने पर भी वे एक प्रकार की आन्तरिक अशान्ति का अनुभव करते हैं। इस अशान्ति की निवृत्ति भगवत्स्वरूप की प्राप्ति से ही होती है। ऐसे आर्त भक्त भी मेरा भजन करते हैं।(ख) जिज्ञासु जो साधक शास्त्राध्ययन के द्वारा मुझे जानना चाहते हैं वे जिज्ञासु भक्त हैं।(ग) अर्थार्थी किसीनकिसी कार्यक्षेत्र में इष्ट फल को प्राप्त करने के लिए जो लोग कर्म करते हुए मेरे अनुग्रह की कामना करते हैं उन्हें अर्थार्थी कहते हैं। कामना की पूर्ति इनका लक्ष्य होता है।(घ) ज्ञानी उपर्युक्त तीनों से भिन्न ज्ञानी भक्त विरला ही होता है जो न किसी फल की इच्छा रखता है और न मुझसे कोई अपेक्षा। वह स्वयं को ही मुझे अर्पित कर देता है। वह मेरे स्वरूप को पहचान कर मेरे साथ एकत्व को प्राप्त हो जाता है।इन चर्तुविध भक्तों में सर्वश्रेष्ठ कौन है
।।7.16।।केषां तर्हि तन्निष्ठता सुकरेति तत्राह ये पुनरिति। ते भजन्ते भगवन्तमिति शेषः। ये त्वां भजन्ते ते किं सर्वे मायां तरन्ति नैव प्रार्थनावैचित्र्यादित्याह चतुर्विधा इति। आपन्नस्तन्निवृत्तिमिच्छन्निति शेषः।तत्त्वविदिति। शब्दज्ञानवानात्मतत्त्वसाक्षात्कारमात्रार्थी मुमुक्षुरित्यर्थः।
।।7.16।।के पुनस्त्वां प्रतिपद्यन्ते इत्यपेक्षायामाह चतुर्विधा इति। सुकृतिनः पुण्यकर्माणो जना नरोत्तमा मां भजन्ति। तेज पुण्यतारम्येन चतुर्विधाः। आर्तो रोगादिजनितपीडापरिगृहीतः जिज्ञासुः भगवत्तत्त्वं ज्ञातुमिच्छुः अर्थार्थी धनादिकामः ज्ञानी विष्णुतत्त्ववित्। चकारज्ज्ञानिनो निष्कामत्वं सूचयति। अर्जुनेति संबोधयन् सुकृततर्मणा स्वच्छतामापन्नस्यैव मद्भजनभाजनतेति ध्वनयति। सुकृतं च स्ववर्णाश्रमाविरोधि स्वकुलपरंपरागतं तथाच मद्भजनाधिकारकारकं क्षत्रियस्य विहितं स्वकुलपरंपरागतं युद्ध कर्तुमर्हसीति द्योतयन्नाह भरतर्षभेति।
।।7.15 7.16।।तर्हि सर्वेऽपि किमिति नात्याययन्नित्यत आह न मामिति। दुष्कृतित्वान्मूढाः अत एव नराधमाः। अपहृतज्ञानत्वाच्च मूढाः अत एवासुरं भावमाश्रिताः। स च वक्ष्यतेप्रवृत्तिं निवृत्तिं च 16।7 इत्यादिना। अपहारोऽभिभवः। उक्तं चैतद्व्यासयोगेज्ञानं स्वभावो जीवानां मायया ह्यधिभूयते इति। असुषु रता असुराः तच्चोक्तं नारदीये ज्ञानप्रधाना देवास्तु असुरास्तु रता असौ इति।
।।7.16।।येतु सत्यपि देहाद्यध्यासे मत्तो बिभ्यति मत्प्रीत्यर्थं सुकृतमेवाचरन्ति तेऽपि चतुर्विधा न केवलं सर्वे मदेककामा इत्याशयेनाह चतुर्विधा इति। आर्तः पीडितः पीडापरिहारार्थी। जिज्ञासुः स्वाज्ञाननाशार्थी। अर्थार्थी धनाद्यर्थी। ज्ञानी चेति चतुर्विधा मां भजन्ते।
।।7.16।।सुकृतिनः पुण्यकर्माणो मां शरणम् उपगम्य माम् एव भजन्ते। ते चे सुकृततारतम्येन चतुर्विधाः सुकृतगरीयस्त्वेन प्रतिपत्तिवैशेष्याद् उत्तरोत्तराधिकतमाः भवन्ति।आर्त्तः प्रतिष्ठाहीनो भ्रष्टैश्वर्यः पुनस्तत्प्राप्तिकामः। अर्थार्थी अप्राप्तैश्वर्यतया ऐश्वर्यकामः तयोः मुखभेदमात्रम् ऐश्वर्यविषयतया ऐक्याद् एक एव अधिकारः।जिज्ञासुः प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपावाप्तीच्छुः ज्ञानम् एव अस्य स्वरूपम् इति जिज्ञासुः इति उक्तम्।ज्ञानी चइतस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् (गीता 7।5) इत्यादिना अभिहितभगवच्छेषतैकरसात्मस्वरूपवित् प्रकृतिवियुक्तकेवलात्मनि अपर्यवस्यन् भगवन्तं प्रेप्सुः भगवन्तम् परमप्राप्यं मन्वानः।
।।7.16।।सुकृतिनस्तु मां भजन्ति ते च सुकृततारतम्येन चतुर्विधा इत्याह चतुर्विधा इति। पूर्वजन्मसु ये कृतपुण्या जनास्ते मां भजन्ति। ते तु चतुर्विधाःआर्तो रोगाद्यभिभूतः। स यदि पूर्वं कृतपुण्यस्तर्हि मां भजति अन्यथा क्षुद्रदेवताभजनेन संसरति। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्। जिज्ञासुरात्मज्ञानेच्छुः अर्थार्थी अत्र वा परत्र वा भोगसाधनभूतार्थलिप्सुः ज्ञानी च आत्मवित्।
।।7.16।।चतुर्विधा भजन्ते इत्यत्र भजनपर्यवसिता प्रपत्तिर्विधित्सिता पूर्वश्लोके तन्निषेधादत्र तद्विधानस्यैवोचितत्वादित्यभिप्रायेणशरणमुपगम्येत्युक्तम्। सुकृतित्वाविशेषे कथमधिकारिभेद इत्यत्रोक्तंसुकृततारतम्येनेति। तारतम्यं विवृणोतिसुकृतगरीयस्त्वेनेति। विश्वासादेः साधारणत्वेऽपि प्रपत्तेर्वैशिष्ट्यं फलेच्छाभेदात्। आर्तशब्दोऽत्रार्तिमूलपूर्वस्थितिशैथिल्यपर इत्यभिप्रायेणाहप्रतिष्ठाहीन इति। आर्तस्य हि परभजनमार्तिनिवृत्त्यर्थमेवेत्यभिप्रायेणाहभ्रष्टैश्वर्यः पुनस्तत्प्राप्तिकाम इति। पाठक्रमादप्यर्थक्रमस्य प्रबलत्वाज्जिज्ञासोः प्रागेवार्थार्थिन उपादानम्। आर्तात्तस्य विशेषं दर्शयतिअप्राप्तेति। अर्थशब्दोऽत्रार्थनीयभोगविशेषपरः। फलद्वारा ह्यधिकारिभेदोऽभिधीयते फलं चार्तस्यार्थार्थिनश्चैश्वर्यमेकमेव। यदा पुनस्तदवान्तरभेदेन भेदक्लृप्तिः तदा भेदान्तरमपि वक्तुं शक्यमित्यत्राहतयोरिति। प्रसिद्धेनावान्तरभेदेन विशेषव्यपदेशमात्रमिति भावः। जिज्ञासुशब्देन ज्ञानार्थिमात्रं किं न गृह्यते। भगवन्तमेव वा जिज्ञासुः भक्तिश्रद्धारहितः कुतूहलमात्रेण भगवन्तं जिज्ञासमानो वा यथैकतमे द्विततादयःयूयं जिज्ञासवो भक्ताः इति।आरोग्यं भास्करादिच्छेच्छ्रियमिच्छेद्धुताशनात्। ईश्वराज्ज्ञानमन्विच्छेन्मोक्षमिच्छेज्जनार्दनात्।।म.पु.77।49 इत्युक्ताधिकारिचतुष्टये चात्र प्रत्यभिज्ञायमाने जिज्ञासुरपि स एव भवितुमर्हति तत्राहप्रकृतीति। भगवन्तं जिज्ञासोरन्ततो भगवानेव प्राप्यतयाऽभिमत इति न पुरुषार्थभेदः तद्भेदाच्चात्राधिकारिभेदः प्रतिपाद्यते।आर्तः अर्थार्थी इति बाह्यपुरुषार्थाभिलाषिणो निर्दिष्टाः। भगवदर्थी चज्ञानी इति जीवात्मस्वरूपं चाधिकानन्दस्वरूपं प्राप्यं चान्यत्र प्रसिद्धम् अत्रापि परस्तादधिकारिभेदः समर्थयिष्यते अतः परिशेषादात्मार्थिविषयोऽयं जिज्ञासुशब्द इति भावः। ज्ञानार्थिवाचके जिज्ञासुशब्दे कथमात्मार्थित्वं व्याक्रियते इत्यत्राह ज्ञानमेवेति। ज्ञानमिह शुद्धात्मानुभवरूपं विवक्षितमिति भावः। ज्ञानिनोऽधिकार्यन्तरत्वानुगुणान्वक्ष्यमाणान् विशेषाननुसन्धाय विशिष्टज्ञानत्वं दर्शयतिइतस्त्वन्यामित्यादिना।केवलात्मन्यपर्यवस्यन्निति नगरं प्रविविक्षोरध्वगस्य च्छायातरुमूलस्वापवदात्मानुभवविलम्ब इति भावः। अत्र जिज्ञासोर्वक्तव्यं सर्वमष्टमे प्रपञ्चयिष्यामः। विशिष्टज्ञानफलभूतं पुरुषार्थान्तरपरिग्रहमाहभगवन्तं प्रेप्सुरिति। तत्र हेतुमाह भगन्वतमिति।भगवन्तमेवेत्यात्मानुभवविलम्बाक्षमत्वमभिप्रेतम्।
।।7.16 7.19।।चतुर्विधा इत्यादि सुदुर्लभ इत्यन्तम्। ये तु मां भजन्ते ते सुकृतिनः। ते च चत्वारः। सर्वे चैते उदाराः। यतः अन्ये कृपणबुद्धयः आर्त्तिनिवारणम् अर्थादि च तुल्यपाणिपादोदरशरीरसत्त्वेभ्योऽधिकतरं वा आत्मन्यूनेभ्यो मार्गयन्ते। ज्ञान्यपेक्षया तु ते न्यूनसत्त्वाः यतः तेषां तावत्यपि भेदोऽस्ति भगवतः इदमहमभिलष्यामि इति भेदस्य स्फुटप्रतिभासात्। ज्ञानी तु मामेवाभेदतया अवलम्बते इति (S omits इति) ततोऽहमभिन्न एव। तस्य च अहमेव प्रियः न तु फलम्। अत एव स वासुदेव एव सर्वम् इत्येव (S वासुदेवः सर्वमेवम्) दृढप्रतिपत्तिपवित्रीकृतहृदयः।
।।7.15 7.16।।उत्तरवाक्यं प्रकृतानुपयुक्तमित्यत आह तर्हीति। यदि त्वत्प्रतिपत्तिर्मायातरणोपायस्तर्हीत्यर्थः। त्वां प्रपद्येति शेषः। तथा चमामेव 7।14 इत्युक्तमसदिति भावः। दुष्कृतित्वादीनां प्रयोजनान्तराभावात् हेतुत्वेनान्वये स्थिते किं ते पञ्चापि साक्षाद्भगवदप्रतिपत्तिहेतवः किं वा हेतुहेतुमद्भावेन इत्यपेक्षायामाह दुष्कृतित्वादिति। मूढाः मिथ्याज्ञानिनः विपर्ययस्याधर्मकार्यत्वप्रसिद्धेः। अत एव मूढत्वादेव। देवानामुत्तममध्यममनुष्याणां च केवलमिथ्याज्ञानित्वाभावात्। अधिष्ठानयाथात्म्याज्ञानस्य विपर्ययहेतुत्वप्रसिद्धेरपहृतज्ञानत्वाच्च मूढाः। अत एव नराधमत्वादेव। जीवत्रैविध्यविवक्षायां नराधमानामसुरेष्वन्तर्भावस्य प्रसिद्धत्वात् आसुरभावाश्रयणान्न मां प्रपद्यन्त इत्यर्थः। नन्वासुरो भावो हि हिंसानृतादिलक्षणोऽन्यैर्व्याख्यातः (शं.) तद्रहिताश्च क्षपणकादयो न भगवन्तं प्रपद्यन्ते तत्कथमस्य हेतुत्वमित्यत आह स चेति। एतेषामन्यतमः सर्वेवप्यस्तीति भावः। ननु मुक्तौ योग्यानामयोग्यानां च भगवन्तमप्रतिपद्यमानानां एते धर्मा वक्तव्याः तत्र मुक्तियोग्यानां सम्यग्ज्ञानस्वभावात् तत्कथमपहृतज्ञानत्वं इत्यत आह अपहार इति। आगमवाक्यमपि सज्जीवविषयं मुक्तियोग्यानामसुर भावाश्रयणप्रवृत्त्याद्यज्ञानेनोक्तम्। प्रकारान्तरेण घटयितुमाह असुष्विति। इन्द्रियेषु तत्प्रीणन् एव रताः। असौ इति जातावेकवचनम्। पदसन्धेर्विवक्षाधीनत्वादसन्धिर्न दोषः। त्रिभिरित्यत्र भगवतो गौणविग्रहत्वज्ञानस्य कारणमुक्तम्। अत्र तु स्वदोषादेव न मां प्रपद्यन्ते। न तु मत्प्रपत्तेर्मायातरणोपायत्वाभावादित्यतो महान्भेदः।
।।7.16।।ये त्वासुरभावहिताः पुण्यकर्माणो विवेकिनस्ते पुण्यकर्मतारतम्येन चतुर्विधाः सन्तो मामेव भजन्ते क्रमेण च कामनाराहित्येन मत्प्रसादान्मायां तरन्तीत्याह ये सुकृतिनः पूर्वजन्मकृतपुण्यसंचया जनाः सफलजन्मानस्त एव नान्ये ते मां भजन्ते सेवन्ते। हे अर्जुन ते च त्रयः सकामा एकोऽकाम इत्येवं चतुर्विधाः। आर्तः आर्त्या शत्रुव्याध्याद्यापदाग्रस्तस्तन्निवृत्तिमिच्छन् यथा मखभङ्गेन कुपित इन्द्रे वर्षति व्रजवासी जनः यथा वा जरासन्धकारागारवर्ती राजनिचयः द्यूतसभायां वस्त्राकर्षणे द्रौपदी च ग्राहग्रस्तो गजेन्द्रश्च। जिज्ञासुरात्मज्ञानार्थी मुमुक्षुः यथा मुचुकुन्दः यथा वा मैथिलो जनकः श्रुतदेवश्च निवृत्ते मौसले यथा चोद्धवः। अर्थार्थी इह वा परत्र वा यद्भोगोपकरणं तल्लिप्सुः। तत्रेह यथा सुग्रीवो बिभीषणश्च यथा चोपमन्युः परत्र यथा ध्रुवः। एते त्रयोऽपि भगवद्भजनेन मायां तरन्ति। तत्र जिज्ञासुर्ज्ञानोत्पत्त्या साक्षादेव मायां तरति आर्तोऽर्थार्थी च जिज्ञासुत्वं प्राप्येति विशेषः। आर्तस्यार्थार्थिनश्च जिज्ञासुत्वसंभवाज्जिज्ञासोश्चार्तत्वज्ञानोपकरणार्थार्थित्वसंभवादुभयोर्मध्ये जिज्ञासुरुद्दिष्टः। तदेते त्रयः सकामा व्याख्याताः। निष्कामश्चतुर्थ इदानीमुच्यते ज्ञानी च ज्ञानं भगवत्तत्त्वसाक्षात्कारस्तेन नित्ययुक्तो ज्ञानी तीर्णमायो निवृत्तसर्वकामः। चकारो यस्य कस्यापि निष्कामप्रेमभक्तस्य ज्ञानिन्यन्तर्भावार्थः। हे भरतर्षभ त्वमपि जिज्ञासुर्वा ज्ञानी वेति कतमोऽहं भक्त इति माशङ्किष्ठा इत्यर्थः। तत्र निष्कामभक्तो ज्ञानी यथा सनकादिर्यथा नारदो यथा प्रह्लादो यथा पृथुर्यथा वा शुकः। निष्कामः शुद्धप्रेमभक्तो यथा गोपिकादिर्यथा वाऽक्रूरयुधिष्ठिरादिः। कंसशिशुपालादयस्तु भयाद्द्वेषाच्च संततभगवच्चिन्तापरा अपि न भक्ताः भगवदनुरक्तेरभावात्। भगवदनुरक्तिरूपायास्तु भक्तेः स्वरूपं साधनं भेदास्तथाऽभक्तानामपि भगवद्भक्तिरसायनेऽस्माभिः सविशेषं प्रपञ्चिता इतीहोपरम्यते।
।।7.16।।एवं दुष्टकर्मकर्त्तारो न भजन्तीत्युक्तं तर्हि के भजन्ति इत्याकाङ्क्षायामाह चतुर्विधा इति। हे अर्जुन सावधानतया श्रोतव्यत्वेन सम्बोध्य सुकृतिनः पूर्वजन्मसञ्चितपुण्यराशयो जनाः मां भजन्ति। अन्यथा भजने प्रवृत्तिरेव न स्यात्। अतएवनराणां क्षीणपापानां कृष्णे भक्तिः प्रजायते इति श्रीभागवते उक्तम्। ते च चतुर्विधाः। चतुर्विधत्वं प्रकटयति आर्त इति। आर्तः संसारक्लेशादियुक्तः तन्निवृत्त्यर्थं धर्मरूपेण मां भजति। जिज्ञासुः कामात्मकमत्स्वरूपज्ञानेच्छुः कामरूपेण मां भजति। अर्थार्थी मत्सेवौपयिकसाधनसम्पत्त्यर्थरूपेण मां भजति। च पुनः। ज्ञानी शास्त्रार्थज्ञानवान्न मोक्षरूपेण मां भजति। भरतर्षभ इति सम्बोधनं सत्कुलोत्पन्नानामेव भजनप्रवृत्तिर्भवतीति ज्ञापनार्थम्।
।।7.16।। चतुर्विधाः चतुःप्रकाराः भजन्ते सेवन्ते मां जनाः सुकृतिनः पुण्यकर्माणः हे अर्जुन। आर्तः आर्तिपरिगृहीतः तस्करव्याघ्ररोगादिना अभिभूतः आपन्नः जिज्ञासुः भगवत्तत्त्वं ज्ञातुमिच्छति यः अर्थार्थी धनकामः ज्ञानी विष्णोः तत्त्वविच्च हे भरतर्षभ।।
।।7.16।।सुकृतिनस्तु भजन्त्येवेत्याह चतुर्विधा इति। सुकृतिरेव तत्र प्रवर्तिकेति सुकृतिन इत्युक्तम्। ते च सेवकाः सुकृतिनस्त एव तारतम्येन चतुर्विधाः स्थूलरीत्येति। तदाह आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चेति। यदार्त्यादिनाऽपि भगवत्सम्बन्धित्वं ते सुकृतिनो ज्ञेयाः यथा गजेन्द्रशौनकध्रुवशुकादयः एतेन तेषामर्त्यादिना भजने पूर्वसुकृतिरेव हेतुरिति गम्यते। यत्र च भजनं दृश्यते सुकृतिश्च हेतुर्न भवति ते च गोप्यादयः पुष्टिमार्गीया भक्ताः। यद्यपि ते कामाद्युपाधिकाः स्नेहवन्तस्तथापि तत्रालौकिकभगवत्स्वरूपात्मकतद्वत्वान्न स्नेहस्य प्राकृतत्वं न च जन्मान्तरीयसुकृतिसाध्यः स इति वाच्यम् तथागमकवाक्याभावात् प्रत्युत सर्वकृतिनिषेधवाक्यसत्त्वाच्च। तथाहिते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः। अव्रतातप्ततपसो मत्सङ्गात् (सत्सङ्गात्) मामुपागाताः भाग.11।12।7 इत्यादि पूर्वजन्मन्यपि स्नेहार्थं साधनकरणाभावादित्याशयः। किञ्च स्वस्य साक्षात्कृतस्य सर्वफलभूतस्य प्रमेयबलेन स्वसङ्गस्य प्राशस्त्यमप्युक्तं साधकतमत्वं चव्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यः भाग.11।12।6 इत्यत्र इत्थं च स्वरूपानुग्रहेतरसाधनासाध्यस्वप्राप्तिरुक्ताकेवलेनैव भावेन गोप्यो गावः खगा नगाः भाग.11।12।8 इत्यादिना दृढीकृता च। तद्विषयास्ते उभयदृष्टादृष्टसाधनरहिताः साधनफलात्मकभगवत्स्वरूपानुग्रहबलेनैवालौकिककामस्नेहवन्त इति तेषामेतेषु चतुर्विधेषु चकारेण समावेशः परप्रतिपादितः (मधुसूदनसरस्वतीभिः प्रतिपादितः) न घटत इति वयं अवोचाम। इदं तुभक्त्या ह्यनन्यया शक्यः 11।54 इत्यादौ सिद्धमिति न प्रतन्यते।