बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।7.19।।
bahūnāṁ janmanām ante jñānavān māṁ prapadyate vāsudevaḥ sarvam iti sa mahātmā su-durlabhaḥ
At the end of many births, the wise man comes to Me, realizing that all this is Vaasudeva (the innermost Self); such a great soul (Mahatma) is very hard to find.
7.19 बहूनाम् of many? जन्मनाम् of births? अन्ते in the end? ज्ञानवान् the wise? माम् to Me? प्रपद्यते approaches? वासुदेवः Vaasudeva? सर्वम् all? इति thus? सः he? महात्मा the great soul? सुदुर्लभः (is) very hard to find.Commentary Vaasudeva is a name of Lord Krishna as He is the son of Vasudeva. He is the allpervading Brahman.The aspirant gradually evolves through Yogic practices? selfless service? devotion and constant meditation in many births and ultimately attains the inner Self. He realises that all is Vaasudeva. It is very difficult to find such a great soul? who has attained to perfection. No one is eal to him. That is the reason why the Lord has said? One in a thousand perchance strives for perfection even among those successful strivers? only one perchance knows Me in essence. (Cf.VII.3.)
।।7.19।। व्याख्या बहूनां जन्मनामन्ते मनुष्यजन्म सम्पूर्ण जन्मोंका अन्तिम जन्म है। भगवान्ने जीवको मनुष्यशरीर देकर उसे जन्ममरणके प्रवाहसे अलग होकर अपनी प्राप्तिका पूरा अधिकार दिया है। परन्तु यह मनुष्य भगवान्को प्राप्त न करके रागके कारण फिर पुराने प्रवाहमें अर्थात् जन्ममरणके चक्करमें चला जाता है। इसलिये भगवान् कहते हैं अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि (गीता 9। 3)। जहाँ भगवान् आसुरी योनियों और नरकोंके अधिकारियोंका वर्णन करते हैं वहाँ दुर्गुणदुराचारोंके कारण भगवत्प्राप्तिकी सम्भावना न दीखनेपर भी भगवान् कहते हैं मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् (गीता 16। 20) अर्थात् मेरेको प्राप्त किये बिना ही ये प्राणी अधम गतिको चले गये अर्थात् वे मरनेके बाद मनुष्ययोनिमें भी चले जाते तो कमसेकम मनुष्य तो रह जाते पर वे मेरी प्राप्तिका पूरा अधिकार प्राप्त करके भी अधम गतिको चले गयेसंतोंकी वाणीमें और शास्त्रोंमें आता है कि मनुष्यजन्म केवल अपना कल्याण करनेके लिये मिला है विषयोंका सुख भोगनेके लिये तथा स्वर्गकी प्राप्तिके लिये नहीं (टिप्पणी प0 422)। इसलिये गीतानें स्वर्गकी प्राप्ति चाहनेवालोंको मूढ़ और तुच्छ बुद्धिवाले कहा है अविपश्चितः (2। 42) और अल्पमेधसाम् (7। 23)।यह मनुष्यजन्म सम्पूर्ण जन्मोंका आदि जन्म भी है और अन्तिम जन्म भी है। सम्पूर्ण जन्मोंका आरम्भ मनुष्यजन्मसे ही होता है अर्थात् मनुष्यजन्ममें किये हुए पाप चौरासी लाख योनियों और नरकोंमें भोगनेपर भी समाप्त नहीं होते बाकी ही रहते हैं इसलिये यह सम्पूर्ण जन्मोंका आदि जन्म है। मनुष्यजन्ममें सम्पूर्ण पापोंका नाश करके सम्पूर्ण वासनाओंका नाश करके अपना कल्याण कर सकते हैं भगवान्को प्राप्त कर सकते हैं इसलिये यह सम्पूर्ण जन्मोंका अन्तिम जन्म है।भगवान्ने आठवें अध्यायके छठे श्लोकमें कहा है कि जो मनुष्य अन्तसमयमें जिसजिस भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है उसउस भावको ही वह प्राप्त होता है। इस तरह मनुष्यको जिस किसी भावका स्मरण करनेमें जो स्वतन्त्रता दी गयी है इससे मालूम होता है कि भगवान्ने मनुष्यको पूरा अधिकार दिया है अर्थात् मनुष्यके उद्धारके लिये भगवान्ने अपनी तरफसे यह अन्तिम जन्म दिया है। अब इसके आगे यह नये जन्मकी तैयारी कर ले अथवा अपना उद्धार कर ले इसमें यह सर्वथा स्वतन्त्र है (टिप्पणी प0 423)। इस बातको लेकर गीता मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्तिका अधिकारी मानती है और डंकेकी चोटके साथ खुले शब्दोंमें कहती है कि वर्तमानका दुराचारीसेदुराचारी पूर्वजन्मके पापोंके कारण नीच योनिमें जन्मा हुआ पापयोनि और चारों वर्णवाले स्त्रीपुरुष ये सभी भगवान्का आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त हो सकते हैं (गीता 9। 30 33)। गीताने (9। 32 में) ऐसा विचित्र पापयोनि शब्द कहा है जिसमें शूद्रसे भी नीचे कहे और माने जानेवाले चाण्डाल यवन आदि तथा पशुपक्षी कीटपतंग वृक्षलता आदि सभी लिये जा सकते हैं। हाँ यह बात अलग है कि पशुपक्षी आदि मनुष्येतर प्राणियोंमें परमात्माकी तरफ चलनेकी योग्यता नहीं है परन्तु परमात्माके अंश होनेसे उनके लिये परमात्माकी तरफसे मना नहीं है। उनमेंसे बहुतसे प्राणी भगवान् और संतमहापुरुषोंकी कृपासे तथा तीर्थ और भगवद्धामके प्रभावसे परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं। देवता भोगयोनि हैं वे भोगोंमें ही लगे रहते हैं इसलिये उनको अपना उद्धार करना है ऐसा विचार नहीं होता। परन्तु वे अगर किसी कारणसे भगवान्की तरफ लग जायँ तो उनका भी उद्धार हो जाता है। इन्द्रको भी ज्ञान प्राप्त हुआ था ऐसा शास्त्रोंमें आता है।भगवान्की तरफसे मनुष्यमात्रका जन्म अन्तिम जन्म है। कारण कि भगवान्का यह संकल्प है कि मेरे दिये हुए इस शरीरसे यह अपना कल्याण कर ले। अतः यह अपना कोई संकल्प न रखकर केवल निमित्तमात्र बन जाय तो भगवान्के संकल्पसे इसका कल्याण हो जाय। जैसे ग्यारहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा है मेरे द्वारा मारे हुएको ही तू मार दे मया हतांस्त्वं जहि। तू चिन्ता मत कर मा व्यथिष्ठाः। तू युद्ध कर तेरी विजय होगी युध्यस्व जेतासि। इसी तरहसे भगवान्ने कृपा करके मनुष्यशरीर दिया है। अगर मनुष्य भगवान्से विमुख होकर संसारके रागमें न फँसे तो भगवान्के उस संकल्पसे अनायास ही मुक्त हो जाय।भगवान्का संकल्प ऐसा नहीं है कि साधककी इच्छाके बिना उसका कल्याण हो जाय अर्थात् जैसे शाप या वरदान दिया जाता है वैसा यह संकल्प नहीं है। तो फिर कैसा है यह संकल्प भगवान्ने मनुष्यको अपना कल्याण करनेकी स्वतन्त्रता इन मनुष्यजन्ममें दी है। अगर यह प्राणी उस स्वतन्त्रताका दुरुपयोग न करे अर्थात् भगवान् और शास्त्रोंसे विपरीत न चले कमसेकम अपने विवेकके विरुद्ध न चले तो उससे भगवान् और शास्त्रोंके अनुकूल चलना स्वाभाविक होगा। कारण कि भगवान् और शास्त्रोंसे विपरीत न चलनेपर दो अवस्थाओंमेंसे एक अवस्था स्वाभाविक होगी या तो वह शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिसे कुछ नहीं करेगा या केवल भगवान् और शास्त्रके अनुकूल ही करेगा।कुछ नहीं करनेकी अवस्थामें अर्थात् कुछ करनेकी रुचि न रहनेकी अवस्थामें मन बुद्धि इन्द्रियों आदिके साथ सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। कारण कि कुछनकुछ करनेकी इच्छासे ही कर्तृत्वाभिमान उत्पन्न होकर अन्तःकरण और इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध जुड़ता है और अपने लिये करनेसे फलके साथ सम्बन्ध जुड़ता है। कुछ भी न करनेसे न कर्तृत्वअभिमान होगा और न फलेच्छा होगी प्रत्युत स्वरूपमें स्वतः स्थिति होगी।शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार निष्कामभावपूर्वक कर्म करनेकी अवस्थामें करनेका प्रवाह मिट जाता है और क्रिया तथा पदार्थसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। क्रिया और पदार्थसे सम्बन्धविच्छेद होनेसे नयी कामना होगी नहीं और पुराना राग मिट जायगा तो स्वतः बोध हो जायगा तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति (गीता 4। 32)।गीतामें आया है निष्कामभावसे विधिपूर्वक अपने कर्तव्यकर्मका पालन किया जाय तो अनादिकालसे बने हुए सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं (4। 23)। ज्ञानयोगसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे तर जाता है (4। 36)। भगवान् भक्तको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं (18। 66)। जो भगवान्को अजअनादि जानता है वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है (10। 3)। इस प्रकार कर्मयोग ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनों योगोंसे पाप नष्ट हो जाते हैं। तात्पर्य यह निकला कि अन्तिम मनुष्यजन्म केवल कल्याणके लिये ही मिला है।मनुष्यजन्ममें सत्सङ्ग मिल जाय गीताजैसे ग्रन्थसे परिचय हो जाय भगवन्नामसे परिचय हो जाय तो साधकको यह समझना चाहिये कि भगवान्ने बहुत विशेषतासे कृपा कर दी है अतः अब तो हमारा उद्धार होगा ही अब आगे हमारा जन्ममरण नहीं होगा। कारण कि अगर हमारा उद्धार नहीं होना होता तो ऐसा मौका नहीं मिलता। परन्तु भगवान्की कृपासे उद्धार होगा ही इसके भरोसे साधन नहीं छोड़ना चाहिये प्रत्युत तत्परता और उत्साहपूर्वक साधनमें लगे रहना चाहिये। समय सार्थक बने कोई समय खाली न जाय ऐसी सावधानी हरदम रखनी चाहिये। परन्तु अपने कल्याणकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये क्योंकि अबतक जिसने इतना प्रबन्ध किया है वही आगे भी करेगा। जैसे किसीने भोजनके लिये निमन्त्रण दे दिया आसन बिछा दिया आसनपर बैठा दिया पत्तल दे दी लोटेमें जल भरकर पासमें रख दिया। अब कोई चिन्ता करे कि यह व्यक्ति भोजन देगा कि नहीं देगा तो यह बिलकुल गलतीकी बात है। कारण कि अगर भोजन नहीं देना होता तो वह निमन्त्रण क्यों देता भोजनकी तैयारी क्यों करता परन्तु जब उसने निमन्त्रण दिया है बुलाया है तैयारी की है तब उसको भोजन देना ही पड़ेगा। हम भोजनकी चिन्ता क्यों करें अब तो बस ज्योंज्यों भोजनके पदार्थ आयें त्योंत्यों उनको पाते जायँ। ऐसे ही भगवान्ने हमको मनुष्यशरीर दिया है और उद्धारकी सब सामग्री (सत्सङ्ग भगवन्नाम आदि) जुटा दी है तो हमारा उद्धार होगा ही अब तो हम संसारसमुद्रके किनारे आ गये हैं ऐसा दृढ़ विश्वास करके निमित्तमात्र बनकर साधन करना चाहिये।जिसके पूर्वजन्मोंके पुण्य होते हैं वही भगवान्की तरफ चल सकता है अगर ऐसा माना जाय तो पूर्वजन्मोंके पापपुण्योंका फल तो पशुपक्षीकीटपतंग आदि योनिवाले प्राणी भोगते ही हैं फिर मनुष्यमें और उन प्राणियोंमें क्या फरक रहेगा भगवान्का कृपा करके मनुष्यशरीर देना कहाँ सार्थक होगा तथा मनुष्यजन्मकी विलक्षणता महिमा क्या होगी मनुष्यजन्मकी महिमा तो इसीमें है कि मनुष्य भगवान्का आश्रय लेकर अपने कल्याणके मार्गमें लग जाय (टिप्पणी प0 424.1)।वासुदेवः सर्वम् (टिप्पणी प0 424.2) महासर्गके आदिमें एक भगवान् ही अनेक रूपोंमें हो जाते हैं सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति (छान्दोग्य0 6। 2। 3) और अन्तमें अर्थात् महाप्रलयमें एक भगवान् ही शेष रह जाते हैं शिष्यते शेषसंज्ञः (श्रीमद्भा0 10। 3। 25)। इस प्रकार जब आदि और अन्तमें एक भगवान् ही रहते हैं तब बीचमें दूसरा कहाँसे आया क्योंकि संसारकी रचना करनेमें भगवान्के पास अपने सिवाय कोई सामग्री नहीं थी वे तो स्वयं संसारके रूपसे प्रकट हुए हैं। इसलिये यह सब वासुदेव ही है।जो चीज आदि और अन्तमें होती है वही चीज मध्यमें भी होती है। जैसे सोनेके गहने आदिमें सोना थे और अन्तमें सोना रहेंगे तो गहनोंमें दूसरी चीज कहाँसे आयेगी केवल सोनाहीसोना है। मिट्टीसे बननेवाले बर्तन पहले मिट्टी थे और अन्तमें मिट्टी हो जायँगे तो बीचमें मिट्टीके सिवाय क्या है केवल मिट्टीहीमिट्टी है। खाँड़से बने हुए खिलौने पहले खाँड़ थे और अन्तमें खाँड़ ही हो जायँगे तो बीचमें खाँड़के सिवाय क्या है केवल खाँड़हीखाँड़ है। इसी तरह सृष्टिके पहले भगवान् थे और अन्तमें भगवान् ही रहेंगे तो बीचमें भगवान्के सिवाय क्या है केवल भगवान्हीभगवान् हैं। जैसे सोनेको चाहे गहनोंके रूपमें देखें चाहे पासेके रूपमें देखें चाहे वर्कके रूपमें देखें है वह सोना ही। ऐसे ही संसारमें अनेक रूपोंमें अनेक आकृतियोंमें एक भगवान् ही हैं।जबतक मनुष्यकी दृष्टि गहनोंकी तरफ उसकी आकृतियोंकी तरफ रहती है उसीको महत्त्व देती है तबतक यह सोना ही है इस तरफ उसकी दृष्टि नहीं जाती। ऐसे ही जबतक मनुष्यकी दृष्टि संसारकी तरफ रहती है उसीको महत्त्व देती है तबतक सब कुछ भगवान् ही हैं इस तरफ उसकी दृष्टि नहीं जाती। परन्तु जब गहनोंकी तरफ दृष्टि नहीं रहती तब गहनोंमें सोनेकी भावना नहीं होती प्रत्युत यह सोना ही है ऐसी भावना होती है। ऐसे ही जब संसारकी तरफ दृष्टि नहीं रहती तब संसारमें भगवान्की भावना नहीं होती प्रत्युत सब कुछ भगवान् ही हैं भगवान्के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं ऐसी भावना होती है। कारण कि संसारमें भगवान्की भावना करनेसे संसारकी सत्ता साथमें रहती है अर्थात् संसारकी भावना रखते हुए उसकी सत्ता मानते हुए उसमें भगवान्की भावना करते हैं। अतः जबतक संसारकी सत्ता मानते हैं संसारको महत्त्व देते हैं तबतक संसारमें भगवान्की भावना करते रहनेपर भी वासुदेवः सर्वम् का अनुभव नहीं होता।ब्रह्मभूत मनुष्य निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होता है (5। 24) ब्रह्मभूत योगीको उत्तम सुख मिलता है (6। 27) ब्रह्मभूत भगवान्की पराभक्तिको प्राप्त होता है और उस भक्तिसे तत्त्वको जानकर उसमें प्रवेश करता है (18। 54 55) गीताकी दृष्टिसे ये तीनों ही अवस्थाएँ हैं। अवस्थाओंमें परिवर्तन होता है। परन्तु वासुदेवः सर्वम् यह अवस्था नहीं है प्रत्युत वास्तविक तत्त्व है। इसमें कभी परिवर्तन नहीं होता।यह जो कुछ संसार दीखता है सब भगवान्का ही स्वरूप है। भगवान्के सिवाय इस संसारकी स्वतन्त्र सत्ता थी नहीं है नहीं और कभी होगी भी नहीं। अतः देखने सुनने और समझनेमें जो कुछ संसार आता है वह सबकासब भगवत्स्वरूप ही है। भगवान्की आज्ञा है मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः।अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा।।(श्रीमद्भा0 11। 13। 24)मनसे वाणीसे दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है वह सब मैं ही हूँ। मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धान्त आपलोग विचारपूर्वक समझ लीजिये।इस आज्ञाके अनुसार ही उस ज्ञानी अर्थात् प्रेमीका जीवन हो जाता है। वह सब जगह भगवान्को ही देखता है यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति (गीता 6। 30)। वह सब कुछ करता हुआ भी भगवान्में ही रहता है सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते (गीता 6। 31)।किसीको एक जगह भी अपनी प्रिय वस्तु मिल जाती है तो उसको बड़ी प्रसन्नता होती है फिर जिसको सब जगह ही अपने प्यारे इष्टदेवका अनुभव होता है (टिप्पणी प0 425) उसकी प्रसन्नताका आनन्दका क्या ठिकाना उस आनन्दमें विभोर होकर भगवान्का प्रेमी भक्त कभी हँसता है कभी रोता है कभी नाचता है और कभी चुप होकर शान्त हो जाता है (टिप्पणी प0 426)। इस तरह उसका जीवन अलौकिक आनन्दसे परिपूर्ण हो जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी करना जानना और पाना बाकी नहीं रहता। वह सर्वथा पूर्ण हो जाता है अर्थात् उसके लिये किसी भी अवस्थामें किसी भी परिस्थितिमें कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता।जो भक्तिमार्गपर चलता है वह यह सत् है और यह असत् है इस विवेकको लेकर नहीं चलता। उसमें विवेकज्ञानकी प्रधानता नहीं रहती। उसमें केवल भगवद्भावकी ही प्रधानता रहती है। केवल भगवद्भावकी प्रधानता रहनेके कारण उसके लिये यह सब संसार चिन्मय हो जाता है। उसकी दृष्टिमें जडता रहती हीनहीं। भगवान्में तल्लीनता होनेसे भक्तका शरीर भी जड नहीं रहता प्रत्युत चिन्मय हो जाता है जैसे मीराबाईका शरीर (चिन्मय होनेसे) भगवान्के विग्रहमें लीन हो गया था।ज्ञानमार्गमें जहाँ सत्असत्का विवेक होता है वहाँ परिणाममें सत्असत् दोकी सत्ता नहीं रहती केवल सत्स्वरूप ही रह जाता है। परन्तु भक्तिमार्गमें सत्असत् सब कुछ भगवत्स्वरूप ही हो जाता है। फिर भक्त भगवत्स्वरूप संसारकी सेवा करता है। सेवामें पहले तो सेवा सेवक और सेव्य ये तीन होते हैं। परन्तु जब भगवद्भावकी अत्यधिक गाढ़ता हो जाती है तब सेवकभावकी विस्मृति हो जाती है। फिर भक्त स्वयं सेवारूप होकर सेव्यमें लीन हो जाता है। केवल एक भगवत्तत्त्व ही शेष रह जाता है। इस तरह भगवद्भावमें तल्लीन हुए भगवान्के प्रेमी भक्त जहाँकहीं भी विचरते हैं वहाँ उनके दर्शन स्पर्श भाषण आदिका प्राणियोंपर बड़ा असर पड़ता है।जबतक मनुष्योंकी पदार्थोंमें भोगबुद्धि रहती है तबतक उनको उन पदार्थोंका वास्तविक स्वरूप समझमें नहीं आता। परन्तु जब भोगबुद्धि सर्वथा हट जाती है तब केवल भगवत्स्वरूप ही देखनेमें आ जाता है।मार्मिक बातवासुदेवः सर्वम् इस तत्त्वको समझनेके दो प्रकार हैं (1) संसारका अभाव करके परमात्माको रखना अर्थात् संसार नहीं है और परमात्मा है (2) सब कुछ भगवान्हीभगवान् हैं। इसमें जो परिवर्तन दीखता है वह भी भगवान्का ही स्वरूप है क्योंकि भगवान्के सिवाय उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।उपर्युक्त दोनों ही प्रकार साधकोंके लिये हैं। जिस साधकका पदार्थोंको लेकर संसारमें आकर्षण (राग) है उसको यह सब कुछ नहीं है केवल परमात्मा ही है इस प्रणालीको अपनाना चाहिये। जिस साधकका पदार्थोंको लेकर संसारमें किञ्चिन्मात्र भी आकर्षण नहीं है और जो केवल भगवान्के स्मरण चिन्तन जप कीर्तन आदिमें लगा रहता है उसको संसाररूपसे सब कुछ भगवान् ही हैं इस प्रणालीको अपनाना चाहिये। वास्तवमें देखा जाय तो ये दोनों प्रणालियाँ तत्त्वसे एक ही हैं। इन दोनोंमें फरक इतना ही है कि जैसे सोनेमें गहने और गहनोंके नाम रूप आकृति आदि अलगअलग होते हुए भी सब कुछ सोनाहीसोना जानना। जहाँपर संसारका अभाव करके परमात्माको तत्त्वसे जानना है वहाँ विवेक की प्रधानता है और जहाँ संसारको भगवत्स्वरूप मानना है वहाँ भाव की प्रधानता है। निर्गुणके उपासकोंमें विवेककी प्रधानता होती है और सगुणके उपासकोंमें भावकी प्रधानता होती है।संसारका अभाव करके परमात्मतत्त्वको जानना भी तत्त्वसे जानना है और संसारको भगवत्स्वरूप मानना भी तत्त्वसे जानना है। कारण कि वास्तवमें तत्त्व एक ही है। फरक इतना ही है कि ज्ञानमार्गमें जाननेकी प्रधानता रहती है और भक्तिमार्गमें माननेकी प्रधानता रहती है। इसलिये भगवान्ने ज्ञानमार्गमें माननेको भी जाननेके अर्थमें लिया है इति मत्वा न सज्जते (गीता 3। 28) और भक्तिमार्गमें जाननेको भी माननेके अर्थमें लिया है (5। 29 9। 13 10। 3 7 24 27 41)। इसमें एक खास बात समझनेकी है कि परमात्माको जानना और मानना दोनों ही ज्ञान हैं तथा संसारको सत्ता देकर संसारको जानना और मानना दोनों ही अज्ञान हैं।संसारको तत्त्वसे जाननेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जाता है और परमात्माको तत्त्वसे जाननेपर परमात्माका अनुभव हो जाता है। ऐसे ही संसार भगवत्स्वरूप है ऐसा दृढ़तासे माननेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जाता है और फिर संसाररूपसे न दीखकर भगवत्स्वरूप दीखने लग जाता है। तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेपर जानना और मानना दोनों एक हो जाते हैं।इति ज्ञानवान्मां प्रपद्यते जो प्रतिक्षण बदलनेवाले संसारकी सत्ताको मानते हैं वे अज्ञानी हैं मूढ़ हैं परन्तु जिनकी दृष्टि कभी न बदलनेवाले भगवत्तत्त्वकी तरफ रहती है वे ज्ञानवान् हैं असम्मूढ़ हैं।ज्ञानवान् कहनेका तात्पर्य है कि वह तत्त्वसे समझता है कि सब जगह सबमें और सबके रूपमें वस्तुतः एक भगवान् ही हैं। ऐसे ज्ञानवान्को ही आगे पन्द्रहवें अध्यायके उन्नसीवें श्लोकमें सर्ववित् कहा गया है।ज्ञानवान्की शरणागति अर्थार्थी आर्त और जिज्ञासु भक्तोंकी तरह नहीं है। भगवान्ने ज्ञानीको अपनी आत्मा बताया है ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् (गीता 7। 18)। जब ज्ञानी भगवान्की आत्मा हुआ तो ज्ञानीकी आत्मा भगवान् हुए। अतः एक भगवत्तत्त्वके सिवाय दूसरी सत्ता ही नहीं रही। इसलिये ज्ञानीकी शरणागति उन तीनों भक्तोंसे विलक्षण होती है। उसके अनुभवमें एक भगवत्तत्त्वके सिवाय कोई दूसरी सत्ता होती ही नहीं यही उसकी शरणागति है।भगवान्की दृष्टिमें अपने सिवाय कोई अन्य तत्त्व है ही नहीं मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव (गीता 7। 7)। जैसे सूतकी मालामें मणियोंकी जगह सूतकी गाँठ लगा दी तो मालामें सूतके सिवाय अन्य क्या रहा केवल सूत ही रहा। हाँ दीखनेमें गाँठ अलग दीखती हैं और धागा अलग दीखता है परन्तु तत्त्वसे एक ही चीज (सूत) है। ऐसे ही परमात्मा संसारमें व्यापक दीखते हैं परन्तु तत्त्वसे परमात्मा और संसार एक ही है। उनमें व्याप्यव्यापकका भाव नहीं है। अतः सब कुछ एक वासुदेव ही है ऐसा जिसको अनुभव होता है वह भी भगवत्स्वरूप ही हुआ। भगवत्स्वरूप हो जाना ही उसकी शरणागति है।स महात्मा सुदुर्लभः बहुतसे मनुष्य तो हमें परमात्माकी प्राप्ति करनी है इस तरफ दृष्टि ही नहीं डालते और ऐसा चाहते ही नहीं। जो इस तरफ दृष्टि डालते हैं वे भी उत्कण्ठापूर्वक अनन्यभावसे अपने जीवनको सफल करनेमें नहीं लगते। जो अपना कल्याण करनेमें लगते हैं वे भी मूर्खताके कारण परमात्मप्राप्तिसे निराश होकर अपने असली अवसरको खो देते हैं जिससे वे परम लाभसे वञ्चित रह जाते हैं।इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मनुष्योंमें हजारों और हजारोंमें कोई एक मनुष्य वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न करता है। यत्न करनेवाले उन सिद्धोंमें भी कोई एक मनुष्य सब कुछ वासुदेव ही है ऐसा तत्त्वसे जानता है। ऐसा तत्त्वसे जाननेवाला महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि परमात्मा दुर्लभ हैं प्रत्युत सच्चे हृदयसे परमात्मप्राप्तिके लिये लगनेवाले दुर्लभ हैं। सच्चे हृदयसे परमात्मप्राप्तिके लिये लगनेपर मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्ति हो सकती है क्योंकि उसकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है।संसारमें सबकेसब मनुष्य धनी नहीं हो सकते। सांसारिक भोगसामग्री सबको समान रीतिसे नहीं मिल सकती। परन्तु जो परमात्मतत्त्व भगवान् शंकरको प्राप्त है सनकादिकोंको प्राप्त है नारद वसिष्ठ आदि देवर्षिमहर्षियोंको प्राप्त है वही तत्त्व सब मनुष्योंको समानरूपसे अवश्य प्राप्त हो सकता है। इसलिये मनुष्यको ऐसा दुर्लभ अवसर कभी नहीं खोना चाहिये।भगवान्की यह एक अलौकिक विलक्षणता है कि वे भूखेके लिये अन्नरूपसे प्यासेके लिये जलरूपसे और विषयीके लिये शब्द स्पर्श रूप रस और गन्धरूपसे बनकर आते हैं। वे ही मनबुद्धिइन्द्रियाँ बनकर आते हैं। वे ही संकल्पविकल्प बनकर आते हैं। वे ही व्यक्ति बनकर आते हैं। परन्तु साथहीसाथ दुःखरूपसे आकर मनुष्यको चेताते हैं कि अगर तुम इन वस्तुओंको भोग्य मानकर इनके भोक्ता बनोगे तो इसके फलस्वरूप तुमको दुःखहीदुःख भोगना पड़ेगा। इसलिये मनुष्यको शर्म आनी चाहिये कि मैं भगवान्को भोगसामग्री बनाता हूँ मेरे सुखके लिये भगवान्को सुखकी सामग्री बनना पड़ता है भगवान् कितने विचित्रदयालु हैं कि यह प्राणी जो चाहता है भगवान् वैसे ही बन जाते हैंदेखने सुनने और समझनेमें जो कुछ आ रहा है और जो मनबुद्धिइन्द्रियोंका विषय नहीं है वह सब भगवान् ही हैं और भगवान्का ही है ऐसा मान ले वास्तविकतासे अनुभव कर ले तो मनुष्य विलक्षण हो जाता है स महात्मा सुदुर्लभः हो जाता है।एक वैरागी बाबाजी थे। वे गणेशजीका पूजन किया करते थे। उनके पास सोनेकी बनी हुई एक गणेशजीकी और एक चूहेकी मूर्ति थी। वे दोनों मूर्तियाँ तौलमें बराबर थीं। एक बार बाबाजीने तीर्थोंमें जानेका विचार किया और वे उन मूर्तियोंकी बिक्री करनेके लिये सुनारके पास गये। सुनारने उन दोनों मूर्तियोंको तौलकर दोनोंके बराबर दाम बता दिये तो बाबाजी सुनारपर बिगड़ गये कि तू क्या कह रहा है गणेशजी तो देवता हैं और चूहा उनका वाहन है पर तू दोनोंका बराबर मूल्य बता रहा है यह कैसे हो सकता है सुनार बोला कि बाबाजी मैं गणेश और चूहेको नहीं खरीदता हूँ मैं तो सोना खरीदता हूँ सोनेका जितना वजन होगा उसके अनुसार ही उसका मूल्य होगा। अगर सुनार गणेश और चूहेको देखेगा तो उसको सोना नहीं दीखेगा और अगर सोनेको देखेगा तो उसको गणेश और चूहा नहीं दीखेगा। इसलिये सुनार न गणेशको देखता है न चूहेको वह तो केवल सोनेको ही देखता है। ऐसे ही भगवान्के साथ अभिन्न हुआ महात्मा संसारको नहीं देखता वह तो केवल भगवान्को ही देखता है।कोई एक सन्त रास्तेमें चलतेचलते किसी खेतमें लघुशङ्का करनेको बैठे। उस खेतके मालिकने उनको देखा तो मतीरा (तरबूजा) चुरानेवाला यही आदमी है ऐसा समझकर पीछेसे आकर उनके सिरपर लाठी मार दी। फिर देखा कि ये तो कोई बाबाजी हैं अतः हाथ जोड़कर बोला महाराज मैंने आपको जाना नहीं और चोर समझकर लाठी मार दी इसलिये महाराज मुझे माफ करो। सन्तने कहा माफ क्या करना तूने मेरेको तो मारा नहीं तूने तो चोरको मारा है। उसने कहा अब क्या करूँ महाराज सन्तने कहा तेरी जैसी मरजी हो वैसे कर। उसने सन्तको बैलगाड़ीमें ले जाकर अस्पतालमें भरती कर दिया। वहाँ मलहमपट्टी करनेके बाद कोई आदमी दूध लेकर आया और बोला महाराज दूध पी लो। सन्तने कहा तू ब़ड़ा चालाकहोशियार है। तेरे विचित्रविचित्र रूप हैं। तू विचित्रविचित्र लीलाएँ करता है। पहले तो तूने लाठीसे मारा और अब कहता है दूध पी लो वह आदमी डर गया और कहने लगा बाबाजी मैंने नहीं मारा है। सन्त बोले बिलकुल झूठी बात है। मैं पहचानता हूँ तू ही था। तूने ही मारा है। तेरे सिवाय और कौन आये कहाँसे आये और कैसे आये पहले तो मारा लाठीसे और अब आया दूध पिलाने मैं दूध पी लूँगा पर था तू ही। इस तरह बाबाजी तो अपनी वासुदेवः सर्वम् वाली भाषामें बोल रहे थे और वह सोच रहा था कि बाबाजी कहीं फँसा न दें तात्पर्य यह है कि सन्त केवल भगवान्को ही देखते हैं कि लाठी मारनेवाला मरहमपट्टी करनेवाला दूध पिलानेवाला सब वह ही है।महात्माओंकी महिमाजहाँ सन्तमहात्माओंका वर्णन आता है वहाँ कहा गया है (1) जो उँचे दर्जेके तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं वे अभिन्नभाव और अखण्डरूपसे केवल अपने स्वरूपमें अथवा भगवत्तत्त्वमें स्थित रहते हैं। उनके जीवनसे उनके दर्शनसे उनके चिन्तनसे उनके शरीरका स्पर्श की हुई वायुके स्पर्शसे जीवोंका कल्याण होता रहता है।(2) जो मनुष्य उन महापुरुषोंकी महिमाको नहीं जानते उनके सामने वे महापुरुष अपने भावोंसे नीचे उतरते हैं तो कुछ कह देते हैं जैसे सन्तमहात्माओंने ऐसा किया है उनके किये हुए आचरणों और कहे हुए वचनोंके अनुसार ही शास्त्र बनते हैं आदि।(3) जब वे इससे भी नीचे उतरते हैं तो कह देते हैं कि सन्तमहात्माओंकी आज्ञाका पालन करना चाहिये।(4) जिनसे उपर्युक्त बातका पालन नहीं होता उन साधकोंके सामने वे स्वयं ऐसा विधान कर देते हैं कि ऐसा करना चाहिये ऐसा नहीं करना चाहिये।(5) जब वे इससे भी नीचे उतरते हैं तो ऐसा करो और ऐसा मत करो ऐसी आज्ञा दे देते हैं।सन्तोंकी आज्ञामें जो सिद्धान्त भरा हुआ है वह आज्ञापालकमें उतर आता है। उनकी आज्ञापालनके बिना भी उनके सिद्धान्तका पालन करनेवालोंका कल्याण हो जाता है परन्तु वे महात्मा आज्ञाके रूपमें जिसको जो कुछ कह देते हैं उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करनेवालेको कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं।(6) जो उनकी आज्ञाका पालन नहीं करते ऐसे नीच दर्जेके साधकोंको वे कहींकहीं कभीकभी शाप या वरदान दे देते हैं।इस परम्परामें देखा जाय तो (1) जो कुछ नहीं करते निरन्तर अपने स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं यह उन सन्तमहापुरुषोंका ऊँचा दर्जा हो गया (2) शास्त्रोंने ऐसा कहा सन्तमहात्माओंने ऐसा किया इस तरह संकेत करनेसे उन सन्तोंका दूसरा दर्जा हो गया (3) सन्तमहात्माओंकी आज्ञा पालन करना चाहिये ऐसा कहनेसे सन्तोंका तीसरा दर्जा हो गया (4) ऐसा करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये इस तरहका विधान करनेसे उन सन्तोंका चौथा दर्जा हो गया (5) तुम ऐसा करो और ऐसा मत करो ऐसा कहना उन सन्तोंके पाँचवें दर्जेकी बात हो गयी (6) शाप और वरदान देना उन सन्तोंके छठे दर्जेकी बात हो गयी। इन सब दर्जोंमें सन्तमहापुरुषोंका जो नीचे उतरना है उसमें उनकी क्रमशः अधिकाधिक दयालुता है। वे शाप और वरदान दे दें ताड़ना कर दें इसमें उन सन्तोंका दर्जा तो नीचे हुआ पर इसमें उनका अत्यधिक त्याग है। कारण कि उन्होंने जीवोंके उद्धारके लिये ही नीचा दर्जा स्वीकार कर लिया है। इसमें उनका लेशमात्र भी अपना स्वार्थ नहीं है।ऐसे ही भगवान् भी अपने स्वरूपमें नित्यनिरन्तर स्थित रहते हैं यह उनके ऊँचे दर्जेकी बात है परन्तु वे ही भगवान् अत्यधिक कृपालुताके कारण कृपाके परवश होकर जीवोंका उद्धार करनेके लिये अवतार लेकर आदर्श लीला करते हैं। उनकी लीलाओंको देखनेसुननेसे लोगोंका उद्धार होता है। भगवान् और भी नीचे उतरते हैं तो उपदेश देते हैं। उससे भी नीचे उतरते हैं तो आज्ञा दे देते हैं। और भी नीचे उतरते हैं तो शासन करके लोगोंको सही रास्तेपर लाते हैं। उससे भी नीचे उतरते हैं तो शाप और वरदान दे देते हैं अथवा उसके और संसारके हितके लिये उसका शरीरसे वियोग भी करा देते हैं। सम्बन्ध जो भगवान्की महत्ताको समझकर भगवान्की शरण होते हैं ऐसे भक्तोंका वर्णन सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक करनेके बाद अब भगवान् आगेके तीन श्लोकोंमें देवताओंके शरण होनेवाले मनुष्योंका वर्णन करते हैं।
।।7.19।। सर्वोच्च ज्ञान को प्राप्त हुए श्रेष्ठ महात्मा पुरुष जगत् में विरले ही होते हैं यह भगवान् श्रीकृष्ण का कथन है। हिन्दू धर्म के पतन काल में इस प्रकार के कथन को अत्यन्त निराशावादी माना जाने लगा। परन्तु थोड़े विचार से ही इस प्रकार के निष्कर्ष का दोष स्पष्ट हो जायेगा। सृष्टि में समस्त चेतन जीवों की तुलना में मानव की संख्या अत्यन्त कम अनुपात में है। मनुष्यजाति में भी सभी परिपक्व बुद्धि एवं उच्च भावनाओं से सम्पन्न नहीं होते हैं।अन्तकरण के श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न होने पर भी बहुत कम लोग हैं जो गम्भीरतापूर्वक शास्त्राध्ययन करते हैं और शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान को अपने जीवन में जीने वालों की संख्या तो नगण्य ही होती है। अनेक लोगों को केवल बौद्धिक ज्ञान से ही सन्तोष हो जाता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विकास के चरम लक्ष्य आत्मानुभूति तक पहुँचने वाले ज्ञानी पुरुष विरले ही होंगे।डार्विन के समान प्राचीन काल में ऋषियों ने सभी प्राणियों का निरीक्षण करके यह पाया कि प्राणी का अपने निम्न स्तर से उच्च स्तर तक का विकास होने के लिए दीर्घकालावधि की अपेक्षा होती है जिसमें विभिन्न परिस्थितियों एवं जन्मों से गुजरते हुए वह विकास के श्रेष्ठतर रूप को प्राप्त करता है। यह कालावधि करोड़ों वर्ष की हो सकती है। इससे हम कल्पना कर सकते हैं कि अहंकार को हटाकर अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा प्राप्त हो सकने वाले विकास के सर्वोच्च लक्ष्य सम्पूर्ण आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए कितने जन्मों की तपस्या होनी चाहिए। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम इसी वर्तमान जन्म में ही जीवन के इस सर्वोच्च लक्ष्य ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते। गीता का कथन निराशाजनक नहीं वरन् उत्साहवर्धक है। यहाँ बताये गये असंख्य जन्म ज्ञान प्राप्ति के पूर्व के हैं पश्चात् के नहीं। यदि मनुष्य अपने जीवन की अनेक उपलब्धियों से भी असन्तुष्ट होकर जीवन का वास्तविक लक्ष्य जानने का प्रयत्न करता है तो यह स्वयं ही विकास की एक अवस्था है। तत्पश्चात् शास्त्रों के अध्ययन में उसकी प्रवृत्ति हो और तत्प्रतिपादित सिद्धांतों को ग्रहण करने की सार्मथ्य हो तो स्पष्ट है कि वह आत्मदेव के मन्दिर के द्वार तक पहुँच गया है। अत और अधिक लगन से प्रयत्न करने पर इसी जन्म में वह मानव जन्म के परम पुरुषार्थ आत्मसंस्थिति को प्राप्त हो सकता है। साधक को साधना में अग्रसर होने के लिए उत्साहित करना ही भगवान् के उक्त कथन का एक मात्र प्रयोजन है।यह सब आत्मा या वासुदेव ही है इस ज्ञान को प्राप्त न करने का कारण वे अगले श्लोक में बताते हैं
।।7.19।।उत्तरश्लोकस्य गतार्थत्वं परिहरति ज्ञानीति। ज्ञानार्थसंस्कारो वासना तत्तज्जन्मनि पुण्यकर्मानुष्ठानजनिता बुद्धिशुद्धिस्तदाश्रयाणां तद्वतामनन्तानां जन्मनामिति यावत्। ज्ञानवत्त्वं प्राक्तनेष्वपि जन्मसु संभावितमित्याशङ्क्याह प्राप्तेति। ज्ञानवतो भगवत्प्रतिपत्तिं प्रश्नद्वारा विवृणोति कथमिति। यथोक्तज्ञानस्य तद्वतश्च दुर्लभत्वं सूचयति य एवमिति। महत्सर्वोत्कृष्टमात्मशब्दितं वैभवमस्येति महात्मा। महात्मत्वे फलितमाह अत इति। तत्र वाक्योपक्रमानुकूल्यं कथयति मनुष्याणामिति।
।।7.19।।ज्ञानी अतिदुर्लभ इति पुनरपि तं स्तौति। बहूनां ज्ञानार्थ पुण्यसंस्काराश्रयणामन्ते सर्वपुण्यसंस्कारपरिपाकरुपे चरमजन्मनि लब्धपरिपाकज्ञानो मां वासुदेवं प्रत्यगात्मनं प्रपद्यते। कथं प्रपद्यत आह। वासुदेवः सर्वमिति। यदिदं सर्वं चराचरात्मकं भ्रान्त्या भाति तत्सर्वं किमपि वासुदेवातिरिक्तं न भवतिवाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यंतदनन्त्वमारम्भणशब्दादिभ्यः इत्यादिश्रुतिसूत्रेभ्यः सर्वाधिष्टानं मां ज्ञात्वा मामेव परमात्मानं निरतिशयनिरुपाधिप्रेमविषयत्वेन भजति स महात्मा न तत्समोऽभ्यधिको वान्योऽस्तीत्यर्थः। अतः सुदुर्लभः अतिशयेन दुर्लभः। तदुक्तंमनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः इति।
।।7.19।।बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्भवति। तच्चोक्तं ब्राह्म बहुभिर्जन्मभिर्ज्ञात्वा ततो मां प्रतिपद्यते इति।
।।7.19।।किंच वासुदेवः सर्वमिति ज्ञानवान् यो बहूनां जन्मनामन्ते चरमजन्मनि मां प्रपद्यते सम्यग्दर्शनेनापरोक्षीकरोति स महात्मा ब्रह्मभूतः सुदुर्लभ इति योजना।
।।7.19।।बहूनां जन्मनां पुण्यजन्मनाम् अन्ते अवसाने वासुदेवशेषतैकरसः अहं तदायत्तस्वरूपस्थितिप्रवृत्तिः च स च असंख्येयैः कल्याणगुणैः परतरः इति ज्ञानवान् भूत्वा वासुदेव एव मम परमप्राप्यं प्रापकं च अन्यदपि यन्मनोरथवर्ति स एव मम् तत् सर्वम् इति मां यो प्रपद्यते माम् उपास्ते स महात्मा महामनाः सुदुर्लभः दुर्लभतरः लोके।वासुदेवः सर्वम् इत्यस्य अयम् एव अर्थः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहम् (गीता 7।17)आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् (गीता 7।18) इति प्रकमात्।ज्ञानवान् च अयम् उक्तलक्षण एव अस्य एव पूर्वोक्तज्ञानित्वात्।भूमिरापः इति आरभ्य अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा। अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।।
।।7.19।।एवंभूतो मद्भक्तोऽतिदुर्लभ इत्याह बहूनामिति। बहूनां जन्मनां किंचित्किंचित्पुण्योपचयेनान्ते चरमे जन्मनि ज्ञानवान्सन्सर्वमिदं चराचरं वासुदेव एवेति सर्वात्मदृष्ट्या मां प्रपद्यते भजति अतः स महात्माऽपरिच्छिन्नदृष्टिः सुदुर्लभः।
।।7.19।।पुनरप्युक्तज्ञानवत्त्वस्यानेकजन्मसाध्यपुण्यफलत्वेन दुर्लभतरतया ज्ञानिनः श्रैष्ठ्यं दर्शयति बहूनाम् इति श्लोकेन।ये जन्मकोटिभिः सिद्धास्तेषामन्तेऽत्र संस्थितिः इति भगवच्छास्त्रंजन्मान्तरसहस्रेषु पां.गी.4 इत्यादिकां स्मृतिं चानुसन्दधान आह नाल्पेति।बहूनां जन्मनाम् इत्यत्र न तावद्बहुजन्मसद्भावमात्रं विवक्षितम् तस्यात्रानुपयुक्तत्वात्। न च बहुजन्ममात्रस्य ज्ञानहेतुत्वमुच्यते सर्वेषामयत्नतो ज्ञानित्वप्रसङ्गात् अतःपुण्यजन्मनां इति विशेषितम्। ईदृशज्ञानवत्त्वमेवम्भूतविशिष्टप्रपत्तौ हेतुरिति दर्शयितुं ज्ञानवतोऽनेकजन्मभ्रमव्युदासाय चज्ञानवान् भूत्वेत्युक्तम्।वासुदेवः सर्वम् ति सामानाधिकरण्यस्य बाधाध्यासतादात्म्यादिविषयत्वायोगाच्छरीरशरीरिभावादिनिर्वाहादपि प्रकरणविशेषसिद्धस्यार्थस्य ग्राह्यतरत्वात्परमप्राप्यमित्यादिकमुक्तम्। लौकिकं धारकादिकमभिप्रेत्याहअन्यदपीत्यादि।त्वमेव माता च पिता त्वमेव ना.हृ.10माता पिता भ्राता निवासः शरणं सुहृद्गतिर्नारायणः इत्यादिकमपीहाभिप्रेतम्। प्रपत्तेरत्रोपासनाङ्गत्वादाहमामुपास्त इति। ज्ञानिनोऽपि स्वरूपमहत्त्वं प्रमाणविरुद्धम् पङ्क्तिपावनत्वादिमाहात्म्यं सदपि प्रकृतेऽनपेक्षितम् तस्माज्ज्ञानविशेषाधीनमाहात्म्यमिह विवक्षितमित्याहमहामना इति। फलान्तरपरस्यापि भगवदुपासकस्य दुर्लभत्वात्तद्व्यवच्छेदाय सुशब्द इति दर्शयितुंदुर्लभतर इत्युक्तम्।वासुदेवः सर्वम् इति सामानाधिकरण्यस्य पराभिमतमर्थं प्रतिक्षिपन् स्वोक्तं द्रढयतिवासुदेव इति। अत्र ह्युपक्रमः प्राप्यभेदनिबन्धनाधिकारिभेदपरः। प्रकरणविरुद्धप्रकरणानुपयुक्तो वाऽर्थः प्रकरणविशेषसिद्धोपयुक्ततमार्थे जागरूकेऽनादरणीय इति भावः।ज्ञानवान् इत्यत्रापि निर्विशेषादिज्ञानजीवमात्रज्ञानादिव्युदासायाहनिवांश्चायमिति। उक्तलक्षणः वासुदेवशेषतैकरसस्वात्मवेदीत्यर्थः। उक्तलक्षणत्वे हेतुमाह अस्यैव पूर्वोक्तज्ञानित्वादितिज्ञानी च भरतर्षभ 7।16 इति पूर्वोक्ते ज्ञानिनि कथमुक्तलक्षणत्वं इत्यत्राहभूमिराप इत्यारभ्येति। यद्वा पूर्वोक्तज्ञानित्वादित्येकभक्तित्वादिकं विवक्षितम्भूमिरापः इत्यादिना हेत्वन्तरोक्तिः।कार्यकारणोभयावस्थस्येति कार्यत्वकारणत्वरूपोभयावस्थाविशिष्टस्येत्यर्थः। स्वरूपस्थित्यादितादधीन्यंमयि सर्वं 7।7रसोऽहम् 7।8 इत्यादिषु व्यक्तम्। उक्तलक्षणत्वं निगमयति अत इति।स एवेति वासुदेवशेषतैकरसोऽहम् इत्यादिनोक्तलक्षण एवेत्यर्थः।
।।7.16 7.19।।चतुर्विधा इत्यादि सुदुर्लभ इत्यन्तम्। ये तु मां भजन्ते ते सुकृतिनः। ते च चत्वारः। सर्वे चैते उदाराः। यतः अन्ये कृपणबुद्धयः आर्त्तिनिवारणम् अर्थादि च तुल्यपाणिपादोदरशरीरसत्त्वेभ्योऽधिकतरं वा आत्मन्यूनेभ्यो मार्गयन्ते। ज्ञान्यपेक्षया तु ते न्यूनसत्त्वाः यतः तेषां तावत्यपि भेदोऽस्ति भगवतः इदमहमभिलष्यामि इति भेदस्य स्फुटप्रतिभासात्। ज्ञानी तु मामेवाभेदतया अवलम्बते इति (S omits इति) ततोऽहमभिन्न एव। तस्य च अहमेव प्रियः न तु फलम्। अत एव स वासुदेव एव सर्वम् इत्येव (S वासुदेवः सर्वमेवम्) दृढप्रतिपत्तिपवित्रीकृतहृदयः।
।।7.19।।बहूनां जन्मनां इत्यत्र ज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं भगवत्प्रतिपत्तौ बहुजन्मव्यवधानमुच्यत इति निरासार्थमाह बहूनामिति। प्रतीतमेव किं न स्यात् इत्यत आह तच्चेति। ततस्तदैव।
।।7.19।।यस्मादेवं तस्मात् बहूनां जन्मनां किंचित्किंचित्पुण्योपचयहेतूनामन्ते चरमे जन्मनि सर्वसुकृतविपाकरूपे वासुदेवः सर्वमिति ज्ञानवान्सन्मां निरुपाधिप्रेमास्पदं प्रपद्यते सर्वदा समस्तप्रेमविषयत्वेन भजते। सकलमिदमहं च वासुदेव इति दृष्ट्या सर्वप्रेम्णां मय्येव पर्यवसायित्वात्। अतः स एव ज्ञानपूर्वकमद्भक्तिमान्महात्मात्यन्तशुद्धान्तःकरणत्वाज्जीवन्मुक्तः सर्वोत्कृष्टो न तत्समोऽन्योऽस्ति अधिकस्तु नास्त्येव अतः सुदुर्लभो मनुष्याणां सहस्रेषु दुःखेनापि लब्धुमशक्यः अतः स निरतिशयमत्प्रीतिविषय इति युक्तमेवेत्यर्थः।
।।7.19।।ये पूर्वोक्तास्ते कथं मोक्षमनुभवन्ति इत्याकाङ्क्षायामाह बहूनामिति। बहूनां जन्मनां धर्मादित्रययुक्तानामन्ते अन्तिमजन्मनि ज्ञानवान् भवति। ततो मां प्रपद्यते मुक्तो भवतीत्यर्थः। यस्तु भक्त उक्तः स तु दुर्लभ इत्याह वासुदेव इति। सर्वमैहिकं पारलौकिकं च वासुदेवः स महात्मा महान् मदर्थमेव अहमेव वा आत्मा तादृशः स दुर्लभोऽप्राप्य इत्यर्थः। यद्वा दुःखेन क्लेशेन भगवानिव लभ्य इति भावः।
।।7.19।। बहूनां जन्मनां ज्ञानार्थसंस्काराश्रयाणाम् अन्ते समाप्तौ ज्ञानवान् प्राप्तपरिपाकज्ञानः मां वासुदेवं प्रत्यगात्मानं प्रत्यक्षतः प्रपद्यते। कथम् वासुदेवः सर्वम् इति। यः एवं सर्वात्मानं मां नारायणं प्रतिपद्यते सः महात्मा न तत्समः अन्यः अस्ति अधिको वा। अतः सुदुर्लभः मनुष्याणां सहस्रेषु इति हि उक्तम्।।आत्मैव सर्वो वासुदेव इत्येवमप्रतिपत्तौ कारणमुच्यते
।।7.19।।एवम्भूतोऽतिदुर्लभ इत्याह बहूनामिति। आत्मज्ञानं तु कदाचिदेकजन्मन्यपि सिद्धं भवति भगवज्ज्ञानं तु न तथेति ततोऽपि प्रपत्तिभक्तिरतिदुर्लभा सा चेद्भवति स महादुर्लभः। यो बहूनां जन्मनामन्ते चरमजन्मनि पूर्वसुकतसञ्चयेन यत्सन्तुष्टभगवता दत्तं स्वज्ञानं तद्वान् भवति स दुर्लभः। तादृशोऽपि मां पुरुषोत्तमं परमात्मानं प्रपन्नो विज्ञानवानतिदुर्लभः यतो ज्ञानमपि तस्य नात्मैकविषयकं किन्तु भगवत्सर्वविषयकं तदाह वासुदेवः सर्वमिति।कृष्ण एवाखण्डं(ण्डः)सर्वं इत्यभेदज्ञानवान्। तथैतदुक्तं निबन्धे अखण्डाद्वैतभाने तु सर्वं ब्रह्मैव नान्यथा। ज्ञानाद्विकल्पबुद्धिस्तु बाध्यते न स्वरूपतः। भिन्नत्वं नैव युज्येत ब्रह्मोपादानतः क्वचित्। वाचारम्भणमात्रत्वाद्भेदः केनोपजायते इति। अतएव महात्माऽपरिच्छिन्नात्मा एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानवान् स सुदुर्लभःसुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने इति श्रीभागवते षष्ठस्कन्धे () रुद्रोक्तेः।