यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।7.21।।
yo yo yāṁ yāṁ tanuṁ bhaktaḥ śhraddhayārchitum ichchhati tasya tasyāchalāṁ śhraddhāṁ tām eva vidadhāmyaham
Whatever form any devotee desires to worship with faith, I make that same faith of his firm and unflinching.
7.21 यः who? यः who? याम् which? याम् which? तनुम् form? भक्तः devotee? श्रद्धया with faith? अर्चितुम् to worship? इच्छति desires? तस्य तस्य of him? अचलाम् unflinching? श्रद्धाम् faith? ताम् that? एव surely? विदधामि make? अहम् I.Commentary Tanu or body is used here in the sense of a Devata (god).The Lord? the indweller of all beings? makes the faith of that devotee who worships the lesser divinities? which is born of the Samskaras of his previous birth? steady and unswerving. (Cf.IV.11IX.22and23)
।।7.21।। व्याख्या--'यो यो यां यां तनुं भक्तः ৷৷. तामेव विदधाम्यहम्'--जो-जो मनुष्य जिस-जिस देवताका भक्त होकर श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करना चाहता है ,उस-उस मनुष्यकी श्रद्धा उस-उस देवताके प्रति मैं अचल (दृढ़) कर देता हूँ। वे दूसरोंमें न लगकर मेरेमें ही लग जायँ--ऐसा मैं नहीं करता। यद्यपि उन-उन देवताओंमें लगनेसे कामनाके कारण उनका कल्याण नहीं होता, फिर भी मैं उनको उनमें लगा देता हूँ, तो जो मेरेमें श्रद्धा-प्रेम रखते हैं, अपना कल्याण करना चाहते हैं, उनकी श्रद्धाको मैं अपने प्रति दृढ़ कैसे नहीं करूँगा अर्थात् अवश्य करूँगा। कारण कि मैं प्राणिमात्रका सुहृद् हूँ--'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29)।इसपर यह शङ्का होती है कि आप सबकी श्रद्धा अपनेमें ही दृढ़ क्यों नहीं करते? इसपर भगवान् मानो यह कहते हैं कि अगर मैं सबकी श्रद्धाको अपने प्रति दृढ़ करूँ तो मनुष्यजन्मकी स्वतन्त्रता, सार्थकता ही कहाँ रही तथा मेरी स्वार्थपरताका त्याग कहाँ हुआ? अगर लोगोंको अपनेमें ही लगानेका मेरा आग्रह रहे, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ऐसा बर्ताव तो दुनियाके सभी स्वार्थी जीवोंका स्वाभाविक होता है। अतः मैं इस स्वार्थपरताको मिटाकर ऐसा स्वभाव सिखाना चाहता हूँ कि कोई भी मनुष्य पक्षपात करके दूसरोंसे केवल अपनी पूजा-प्रतिष्ठा करवानेमें ही न लगा रहे और किसीको पराधीन न बनाये।अब दूसरी शङ्का यह होती है कि आप उनकी श्रद्धाको उन देवताओंके प्रति दृढ़ कर देते हैं, इससे आपकी साधुता तो सिद्ध हो गयी, पर उन जीवोंका तो आपसे विमुख होनेसे अहित ही हुआ? इसका समाधान यह है कि अगर मैं उनकी श्रद्धाको दूसरोंसे हटाकर अपनेमें लगानेका भाव रखूँगा तो उनकी मेरेमें अश्रद्धा हो जायगी। परन्तु अगर मैं अपनेमें लगानेका भाव नहीं रखूँगा और उनको स्वतन्त्रता दूँगा, तो उस स्वतन्त्रताको पानेवालोंमें जो बुद्धिमान् होंगे, वे मेरे इस बर्तावको देखकर मेरी तरफ ही आकृष्ट होंगे। अतः उनके उद्धारका यही तरीका बढ़िया है। अब तीसरी शङ्का यह होती है कि जब आप स्वयं उनकी श्रद्धाको दूसरोंमें दृढ़ कर देते हैं, तो फिर उस श्रद्धाको कोई मिटा ही नहीं सकता। फिर तो उसका पतन ही होता चला जायगा? इसका समाधान यह है कि मैं उनकी श्रद्धाको देवताओंके प्रति ही दृढ़ करता हूँ, दूसरोंके प्रति नहीं--ऐसी बात नहीं है। मैं तो उनकी इच्छाके अनुसार ही उनकी श्रद्धाको दृढ़ करता हूँ और अपनी इच्छाको बदलनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है, योग्य है। इच्छाको बदलनेमें वे परवश, निर्बल और अयोग्य नहीं हैं। अगर इच्छाको बदलनेमें वे परवश होते तो फिर मनुष्यजन्मकी महिमा ही कहाँ रही? और इच्छा (कामना-) का त्याग करनेकी आज्ञा भी मैं कैसे दे सकता था--'जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्' (गीता 3। 43)?
।।7.21।। इस अध्याय के प्रारम्भिक भाग में ही आत्मानात्म विवेक (जड़चेतन का विभाजन) करके भगवान् श्रीकृष्ण ने वर्णन किया है कि किस प्रकार उनमें समस्त नामरूप पिरोये हुए हैं। उसके पश्चात् उन्होंने यह भी बताया कि किस प्रकार त्रिगुणात्मिका मायाजनित विकारों से मोहित होकर मनुष्य अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को नहीं पहचान पाता। आत्मचैतन्य के बिना शरीर मन और बुद्धि की जड़ उपाधियाँ स्वयं कार्य नहीं कर सकती हैं।जगत् में देखा जाता है कि सभी भक्तजन एक ही रूप में ईश्वर की आराधना नहीं करते। प्रत्येक भक्त अपने इष्ट देवता की पूजा के द्वारा सत्य तक पहुँचने का प्रयत्न करता है। भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं कि कोई भी भक्त किसी भी स्थान पर मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारा या गिरजाघर में एकान्त में या सार्वजनिक स्थान में किसी भी रूप में ईश्वर की पूजा श्रद्धा के साथ करता है उसकी उस श्रद्धा को उसके इष्ट देवता में मैं स्थिर करता हूँ। गीता के मर्म को जानने वाला सच्चा विद्यार्थी कदापि कट्टरपंथी पृथकतावादी या असहिष्णु नहीं हो सकता। ईश्वर के सभी सगुण रूपों का अधिष्ठान एक परम सत्य ही है जहाँ से भक्त के हृदय में भक्तिरूपी पौधा पल्लवित पुष्पित और फलित होने के लिए श्रद्धारूपी जल प्राप्त करता है क्योंकि भगवान् स्वयं कहते हैं मैं उस श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।आध्यात्मदृष्टि से विचार करने पर इस श्लोक का और अधिक गम्भीर अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है।मनुष्य जिस विषय का निरन्तर चिन्तन करता रहता है उसमें वह दृढ़ता से आसक्त और स्थित हो जाता है। अखण्ड चिन्तन से मन में उस विषय के संस्कार दृढ़ हो जाते हैं और फिर उसके अनुसार ही उस मनुष्य की इच्छायें और कर्म होते हैं। इसी नियम के अनुसार सतत आत्मचिन्तन करने से भी मनुष्य अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है।सारांशत भगवान् का कथन हैं कि जैसा हम विचार करते हैं वैसा ही हम बनते हैं। अत यदि कोई व्यक्ति दुर्गुणों का शिकार हो गया हो अथवा अन्य व्यक्ति दैवी गुणों से संपन्न हो तो यह दोनों के भिन्नभिन्न विचारों का ही परिणाम समझना चाहिए। विचार प्रकृति का अंग है विचारों के अनुरूप जगत् होता है जिसका एक अधिष्ठान है सर्वव्यापी आत्मतत्त्व।सतत समृद्ध हो रही श्रद्धा के द्वारा मनुष्य किस प्रकार इष्ट फल को प्राप्त करता है
।।7.21।।तत्तद्देवताप्रसादात्कामिनामपि सर्वेश्वरे सर्वात्मके वासुदेवे क्रमेण भक्तिर्भविष्यतीत्याशङ्क्याह तेषां चेति। स्वभावतो जन्मान्तरीयसंस्कारवशादित्यर्थः। भगवद्विहितया स्थिरया श्रद्धया संस्काराधीनया देवताविशेषमाराधयतोऽपि भगवदनुग्रहादेव फलप्राप्तिरित्याह यो यो यां यामिति।
।।7.21।।ननु तत्तत्कामैर्हृतज्ञानानामपि तेषां तत्तद्देवतानुग्रहात्क्रमेण विवेके लब्धे त्वयि वासुदेवे भक्तिर्मविष्यतीति चेत्तत्राह य इति। यः कामी यां यां देवतातनुं श्रद्धया संयुक्तो भक्तः सन्नर्चितुं पूजयितुमिच्छति तस्य तस्य कामिनः श्रद्धां यया भक्तः सन्नर्चितुमिच्छति तामेवाचलां स्थिरां विदधामि करोमि। यां यां तनुमिति यच्छब्धान्वयस्तु यो यां देवतातनुमर्चितुमिच्छतीत्यादिवदद्भिराचार्यौरुत्तरश्लोकस्थ तस्या इत्यनेन दर्शितः। एतेन यां देवतातनुं प्रति श्रद्धां विदधामि तामेव श्रद्धामिति व्याख्याने यच्छब्दान्वयः स्पष्टस्तस्मात्प्रतिशब्दमध्याहृत्य व्याख्यातमिति प्रत्युक्तम्। तामेव श्रद्धामिति भाष्यकृद्य्धाख्याने प्रतिशब्दाध्याहारं विनैव उक्तरीत्या यच्छब्दान्वयस्य स्पष्टत्वेननैवंवदतामज्ञताया अतिस्फटत्वात्।
।।7.21 7.22।।यां यां ब्रह्मादिरूपां तनुम्। उक्तं च नारदीयेअन्तो ब्रह्मादिभक्तानां मद्भक्तानामनन्तता इति।मुक्तश्च कां गतिं गच्छेन्मोक्षश्चैव किमात्मकः म.भा.12।334।3 इत्यादेः परिहारसन्दर्भाच्च मोक्षधर्मेषु।अवतारे महाविष्णोर्भक्तः कुत्र च मुच्यते त्यादेश्च ब्रह्मवैवर्ते।
।।7.21।।किंच यो यो भक्तः सात्विको राजसस्तामसो वा यां यां तनुं तादृशीमेव देवादिरूपां यक्षरक्षोरूपां भूतप्रेतरूपां वा मूर्तिं श्रद्धया तादृश्यैवार्चितुमिच्छति तस्य तस्य भक्तस्य तामेव श्रद्धां सात्त्विकीं राजसीं तामसीं वाहं सर्वेश्वरोऽचलां विदधामि।
।।7.21।।ता अपि देवताः मदीयाः तनवःय आदित्ये तिष्ठन्यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरम् (बृ0 उ0 3।7।9) इत्यादिश्रुतिभिः प्रतिपादिताः मदीयाः तनवः। इति अजानन् अपि यो यो यां यां मदीयाम् इन्द्रादिकां तनुं भक्तः श्रद्धया अर्चितुम् इच्छति तस्य तस्य अजानतः अपि मत्तनुविषया एषा श्रद्धा इति अहम् एव अनुसन्धाय ताम् एव अचलां निर्विघ्नां विदधामि अहम्।
।।7.21।।यो यो यां यामिति। तेषां मध्ये यो यो भक्तः यां यां तनुं देवतारूपां मदीयामेव मूर्तिं श्रद्धयार्चितुमिच्छति प्रवर्तते तस्य तस्य भक्तस्य तत्तन्मूर्तिविषयां तामेव श्रद्धामचलां दृढामहमन्तर्यामी विदधामि करोमि।
7.21 इति वक्ष्यमाणवशादत्रापि प्रपत्तेरर्चनाङ्गत्वं दर्शयति ता एवाश्रित्यार्चयन्त इति। विश्वासगर्भफलप्रदत्ववरणपूर्वकं तत्तत्कर्मभिः प्रीणयन्तीत्यर्थः। प्रपत्तिस्वरूपसामर्थ्यादवधारणसिद्धिः।तदेकोपायता याञ्चा इति हि तल्लक्षणम्।।।7.21।।एवं देवतान्तरफलान्तरसक्ता अपि तत्तदाराधनतत्फलयोः शैथिल्ये सतिअलाभे मत्तकाशिन्या दृष्टा तिर्यक्षु कामिता म.भा. इति न्यायेन अनर्थहेतुषु निषिद्धेषूपायेषु निमज्जेयुरिति भयात्परमकारुणिकोऽहमेव तत्तदाराधनहेतुश्रद्धाविघ्नशान्तिं तत्फलं च प्रयच्छामीति श्लोकद्वयेनाह यो य इति। एक एवश्वरो रामकृष्णाद्यवतारवदादित्यादिविग्रहभाक् न तु चेतनान्तरमस्तीति कुदृष्टिमतनिरासायाह ता अपीति।अयमभिप्रायः पूर्वश्लोकेप्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः 7।20 इति निर्देशं न तावदीश्वरासाधारणविग्रहविशेषविषयस्तद्विशिष्टेश्वरविषयो वा भवितुमर्हति तत्रान्यदेवतात्वव्यपदेशायोगाद्रामकृष्णादिवदेव। ततश्च चेतनान्तरविषयत्वमवश्याभ्युपगमनीयम्।देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि 7।23 इति च पृथग्वक्ष्यते। अतोऽत्र तनुशब्दः पूर्वोत्तरपरामर्शवशाच्चेतनविशेषविषयः इति सर्वासां चेतनविशेषरूपदेवतानामीश्वरशरीरत्वप्रदर्शनार्थं श्रुतिमुदाहरतिय आदित्य इति। नात्र तनुत्वेन भजनं विवक्षितम्। तथा सति प्रतर्दनविद्यादिष्विव परमात्मोपासनत्वप्रसङ्गात्।न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेन 9।24 इति वक्ष्यमाणत्वाच्चेत्यभिप्रायेणाह मदीयास्तनव इति। अजानन्नपीति। तर्हि तनुत्वेनात्र निर्देशोऽनुपपन्नो निरर्थकश्चयां यां देवतां इत्येव हि वक्तव्यमित्यत्राह तस्य तस्येति। यथा नरपतेरात्मस्वरूपमजानतोऽपि राजशरीरप्रसाधनादिकं कर्तुरन्ततो राजात्मनैव फलमिति न्यायसूचनादुपपन्नोऽत्र तनुशब्द इति भावः। जातायाः श्रद्धाया अचलत्वं नाम प्रतिबन्धकराहित्येनाफललाभाय निरन्तरसन्तन्यमानत्वमित्यभिप्रायेणोक्तंनिर्विघ्नामिति।
।।7.20 7.23।।कामैरित्यादि मामपीत्यन्तम्। ये पुनः स्वेन स्वेनोत्तमादिकामनास्वभावेन विचित्रेण परिच्छिन्नमनसस्ते कामनापहृतचेतनाः (N चेतस)) तत्समुचितामेव ममैवावान्तरतनुं देवताविशेषमुपासते। अतो मत एव कामफलमुपाददते (S पासते)। किं तु तस्यान्तोऽस्ति निजयैव वासनया परिमितीकृतत्त्वात्। अत एवेन्द्रादिभावनातात्पर्येण यागादि कुर्वन्तस्तथाविधमेव फलमुपाददते। मत्प्राप्तिपरास्तु मामेव।
।।7.21 7.22।।रामकृष्णादिरूपां भगवत्तनुमिति प्रतीतिनिरासायाह यां यामिति। कुत एतत्अन्तवत्तु फलं तेषां 7।23 इति तद्भक्तानामन्तवत्फलवचनात्। तस्य च ब्रह्मादिग्रहणे सम्भवाद्भगवद्ग्रहणे चाम्सम्भवादिति भावेनाह उक्त चेति। फलस्येति शेषः। गम्यत इति गतिः इत्यादेः प्रश्नस्य परिहाररूपवाक्यसन्दर्भाच्च। बहुत्वादनुदाहरणमिति भावः। अनन्तफलत्वं मूलरूपभक्तानामस्तु अवतारतनुभक्तानामन्तवत्फलाङ्गीकारे को विरोधः इत्यत आह अवतार इति। कुत्र चावतारे।
।।7.21।।तत्तद्देवताप्रसादात्तेषामपि सर्वेश्वरे भगवति वासुदेवे भक्तिर्भविष्यतीति न शङ्कनीयम्। यतः तेषां मध्ये यो यः कामी यां यां तनुं देवतामूर्तिं श्रद्धया जन्मान्तरवासनाबलप्रादुर्भूतया भक्त्या संयुक्तः सन्नर्चितुं अर्चयितुमिच्छति प्रवर्तते। चौरादिकस्यार्चयतेर्णिजभावपक्षे रूपमिदम्। तस्य तस्य कामिनस्तामेव देवतातनुं प्रति श्रद्धां पूर्ववासनावशात्प्राप्तां भक्तिमचलां स्थिरां विदधामि करोम्यहमन्तर्यामी नतु मद्विषयां श्रद्धां तस्य तस्य करोमीत्यर्थः। तामेव श्रद्धामिति व्याख्याने यच्छब्दानन्वयः स्पष्टस्तस्मात्प्रतिशब्दमध्याहृत्य व्याख्यातम्।
।।7.21।।अतोऽहमपि तान् स्वरूपरसदानायोग्यांस्तद्देवताभजने दृढान् करोमीत्याह यो य इति। यो यो भक्तो यां यां तनुं यां यां देवतामूर्तिं श्रद्धया स्वकामसिद्ध्यर्थं शुद्धान्तःकरणेन अर्चितुमिच्छति तस्य भक्तस्य तामेव श्रद्धामचलां शास्त्रज्ञानादिना वा चालयितुमयोग्यामहमेव विदधामि करोमि पोषयामि चेत्यर्थः।
।।7.21।। यः यः कामी यां यां देवतातनुं श्रद्धया संयुक्तः भक्तश्च सन् अर्चितुं पूजयितुम् इच्छति तस्य तस्य कामिनः अचलां स्थिरां श्रद्धां तामेव विदधामि स्थिरीकरोमि।।ययैव पूर्वं प्रवृत्तः स्वभावतो यः यां देवतातनुं श्रद्धया अर्चितुम् इच्छति
।।7.21।।ता अपि देवता मदीयाः शरीरभूताः य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरं बृ.उ.3।7।9 इत्यादिश्रुतिभिस्तथाप्रतिपादनात्। तदजानन्नेव यो यो यां यां इति तस्याजानतोऽपि मच्छरीरभूतविषयकैषा श्रद्धेत्यहमोकोऽनुसन्धाय तां श्रद्धामेवाचलां विदधामि।