BG - 7.27

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत। सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।7.27।।

ichchhā-dveṣha-samutthena dvandva-mohena bhārata sarva-bhūtāni sammohaṁ sarge yānti parantapa

  • ichchhā - desire
  • dveṣha - aversion
  • samutthena - arise from
  • dvandva - of duality
  • mohena - from the illusion
  • bhārata - Arjun, descendant of Bharat
  • sarva - all
  • bhūtāni - living beings
  • sammoham - into delusion
  • sarge - since birth
  • yānti - enter
  • parantapa - Arjun, conqueror of enemies

Translation

O Bharata, all beings are subject to delusion at birth due to the delusion of the pairs of opposites arising from desire and aversion, O Parantapa.

Commentary

By - Swami Sivananda

7.27 इच्छाद्वेषसमुत्थेन arisen from desire and aversion? द्वन्द्वमोहेन by the delusion of the pairs of opposites? भारत O Bharata? सर्वभूतानि all beings? संमोहम् to delusion? सर्गे at birth? यान्ति are subject? परन्तप O Parantapa (scorcher of the foes).Commentary Where there is pleasure there is Raga or attachment where there is pain there is Dvesha or aversion. There is the instinct in man to preserve his body. Man wishes to attain those objects which help the preservation of the body. He wishes to get rid of those objects which give pain to the body and the mind. On account of delusion caused by the pairs of opposites? desire and aversion spring up and man cannot get the knowledge of the things as they are? even of this external universe of senseexperience and it needs no saying that in a man whose intellect is overwhelmed by desire and aversion there cannot arise the transcendental knowledge of the innermost Self.Raga (attraction) and Dvesha (repulsion)? pleasure and pain? heat and cold? happiness and misery? joy and sorrow? success and failure? censure and priase? honour and dishonour are the Dvandvas or the pairs of opposites. Desire and aversion (or attraction and repulsion) induce delusion in all beings and serve as obstacles to the dawn of the knowledge of the Self.He whose intellect is obscured by the delusion caused by the pairs of opposites is not able to realise I am the Self. Therefore he does not adore Me as the Self.He who is a victim of RagaDvesha loses the power of discrimination. He wishes that pleasant objects should last for ever and that disagreeable or unpleasant objects should disappear immediately. How could this be Objects that are conditioned in time? space and causation will perish. That which is agreeable and pleasant now will become disagreeable and unpleasant after some time. The mind is ever fluctuating. It demands variety and gets disgusted with monotony.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।7.27।। व्याख्या--'इच्छाद्वेषसमुत्थेन ৷৷. सर्गे यान्ति परंतप'--इच्छा और द्वेषसे द्वन्द्वमोह पैदा होता है, जिससे मोहित होकर प्राणी भगवान्से बिलकुल विमुख हो जाते हैं और विमुख होनेसे बार-बार संसारमें जन्म लेते हैं।मनुष्यको संसारसे विमुख होकर केवल भगवान्में लगनेकी आवश्यकता है। भगवान्में न लगनेमें बड़ी बाधा क्या है? यह मनुष्यशरीर विवेक-प्रधान है; अतः मनुष्यकी प्रवृत्ति और निवृत्ति पशु-पक्षियोंकी तरह न होकर अपने विवेकके अनुसार होनी चाहिये। परन्तु मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व न देकर राग और द्वेषको लेकर ही प्रवृत्ति और निवृत्ति करता है, जिससे उसका पतन होता है।मनुष्यकी दो मनोवृत्तियाँ हैं--एक तरफ लगाना और एक तरफसे हटाना। मनुष्यको परमात्मामें तो अपनी वृत्ति लगानी है और संसारसे अपनी वृत्ति हटानी है अर्थात् परमात्मासे तो प्रेम करना है और संसारसे वैराग्य करना है। परन्तु इन दोनों वृत्तियोंको जब मनुष्य केवल संसारमें ही लगा देता है तब वही प्रेम और वैराग्य क्रमशः राग और द्वेषका रूप धारण कर लेते हैं, जिससे मनुष्य संसारमें उलझ जाता है और भगवान्से सर्वथा विमुख हो जाता है। फिर भगवान्की तरफ चलनेका अवसर ही नहीं मिलता। कभी-कभी वह सत्संगकी बातें भी सुनता है, शास्त्र भी पढ़ता है, अच्छी बातोंपर विचार भी करता है, मनमें अच्छी बातें पैदा हो जाती हैं तो उनको ठीक भी समझता है। फिर भी उसके मनमें रागके कारण यह बात गहरी बैठी रहती है कि मुझे तो सांसारिक अनुकूलताको प्राप्त करना है और प्रतिकूलताको हटाना है, यह मेरा खास काम है; क्योंकि इसके बिना मेरा जीवननिर्वाह नहीं होगा। इस प्रकार वह हृदयमें दृढ़तासे रागद्वेषको पकड़े रखता है जिससे सुनने पढ़ने और विचार करनेपर भी उसकी वृत्ति रागद्वेषरूप द्वन्द्वको नहीं छोड़ती। इसीसे वह परमात्माकी तरफ चल नहीं सकता।द्वन्द्वोंमें भी अगर उसका राग मुख्यरूपसे एक ही विषयमें हो जाय तो भी ठीक है। जैसे भक्त बिल्वमंगलकी वृत्ति चिन्तामणि नामक वेश्यामें लग गयी तो उनकी वृत्ति संसारसे तो हट ही गयी। जब वेश्याने यह ताड़ना की ऐसे हाड़मांसके शरीरमें तू आकृष्ट हो गया अगर भगवान्में इतना आकृष्ट हो जाता तो तू निहाल हो जाता तब उनकी वृत्ति वेश्यासे हटकर भगवान्में लग गयी और उनका उद्धार हो गया। इसी तरहसे गोपियोंका भगवान्में राग हो गया तो वह राग भी कल्याण करनेवाला हो गया। शिशुपालका भगवान्के साथ वैर (द्वेष) रहा तो वैरपूर्वक भगवान्का चिन्तन करनेसे भी उसका कल्याण हो गया। कंसको भगवान्से भय हुआ तो भयवृत्तिसे भगवान्का चिन्तन करनेसे उसका भी कल्याण हो गया। हाँ यह बात जरूर है कि वैर और भयसे भगवान्का चिन्तन करनसे शिशुपाल और कंस भक्तिके आनन्दको नहीं ले सके। तात्पर्य यह है कि किसी भी तरहसे भगवान्की तरफ आकर्षण हो जाय तो मनुष्यका उद्धार हो जाता है। परन्तु संसारमें रागद्वेष कामक्रोध ठीकबेठीक अनुकूलप्रतिकूल आदि द्वन्द्व रहनेसे मूढ़ता दृढ़ होती है और मनुष्यका पतन हो जाता है।दूसरी रीतिसे यों समझें कि संसारका सम्बन्ध द्वन्द्वसे दृढ़ होता है। जब कामनाको लेकर मनोवृत्तिका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है तब सांसारिक अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर रागद्वेष हो जाते हैं अर्थात् एक ही पदार्थ कभी ठीक लगता है कभी बेठीक लगता है कभी उसमें राग होता है कभी द्वेष होता है जिनसे संसारका सम्बन्ध दृढ़ हो जाता है। इसलिये भगवान्ने दूसरे अध्यायमें 'निर्द्वन्द्वः'(2। 45) पदसे द्वन्द्वरहित होनेकी आज्ञा दी है। निर्द्वन्द्व पुरुष सुखपूर्वक मुक्त होता है--'निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते' (5। 3)। सुखदुःख आदि द्वन्द्वोंसे रहित होकर भक्तजन अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं--'द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' (15। 5)। भगवान्ने द्वन्द्वको मनुष्यका खास शत्रु बताया है (3। 34)। जो द्वन्द्वमोहसे रहित होते हैं वे दृढ़व्रती होकर भगवान्का भजन करते हैं (7। 28) इत्यादि रूपसे गीतामें द्वन्द्वरहित होनेकी बात बहुत बार आयी है।जन्ममरणमें जानेका कारण क्या है शास्त्रोंकी दृष्टिसे तो जन्ममरणका कारण अज्ञान है परन्तु सन्तवाणीको देखा जाय तो जन्ममरणका खास कारण रागके कारण प्राप्त परिस्थितिका दुरुपयोग है। फलेच्छापूर्वक शास्त्रविहित कर्म करनेसे और प्राप्त परिस्थितिका दुरुपयोग करनेसे अर्थात् भगवदाज्ञाविरुद्ध कर्म करनेसे सत्असत् योनियोंकी प्राप्ति होती है अर्थात् देवताओँकी योनि चौरासी लाख योनि और नरक प्राप्त होते हैं।प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करनेसे सम्मोह अर्थात् जन्ममरण मिट जाता है। उसका सदुपयोग कैसे करें हमारेको जो अवस्था परिस्थिति मिली है उसका दुरुपयोग न करनेका निर्णय किया जाय कि हम दुरुपयोग नहीं करेंगे अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध काम नहीं करेंगे। इस प्रकार रागरहित होकर दुरुपयोग न करनेका निर्णय होनेपर सदुपयोग अपनेआप होने लगेगा अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुकूल काम होने लगेगा। जब सदुपयोग होने लगेगा तो उसका हमें अभिमान नहीं होगा। कारण कि हमने तो दुरुपयोग न करनेका विचार किया है सदुपयोग करनेका विचार तो हमने किया ही नहीं फिर करनेका अभिमान कैसे इससे तो कर्तृत्वअभिमानका त्याग हो जायगा। जब हमने सदुपयोग किया ही नहीं तो उसका फल भी हम कैसे चाहेंगे क्योंकि सदुपयोग तो हुआ है किया नहीं। अतः इससे फलेच्छाका त्याग हो जायगा। कर्तृत्वअभिमान और फलेच्छाका होनेसे अर्थात् बन्धनका अभाव होनेसे मुक्ति स्वतःसिद्ध है।प्रायः साधकोंमें यह बात गहराईसे बैठी हुई है कि साधनभजन जपध्यान आदि करनेका विभाग अलग है और सांसारिक कामधंधा करनेका विभाग अलग है। इन दो विभागोंके कारण साधक भजनध्यान आदिको तो बढ़ावा देते हैं पर सांसारिक कामधंधा करते हुए रागद्वेष कामक्रोध आदिकी तरफ ध्यान नहीं देते प्रत्युत ऐसी दृढ़ भावना बना लेते हैं कि कामधंधा करते हुए तो रागद्वेष होते ही हैं ये मिटनेवाले थोड़े ही हैं। इस भावनासे बड़ा भारी अनर्थ यह होता है कि साधकके रागद्वेष बने रहते हैं जिससे उसके साधनमें जल्दी उन्नति नहीं होती। वास्तवमें साधक चाहे पारमार्थिक कार्य करे चाहे सांसारिक कार्य करे उसके अन्तःकरणमें रागद्वेष नहीं रहने चाहिये।पारमार्थिक और सांसारिक क्रियाओंमें भेद होनेपर भी साधकके भावमें भेद नहीं होना चाहिये अर्थात् पारमार्थिक और सांसारिक दोनों क्रियाएँ करते समय साधकका भाव एक ही रहना चाहिये कि मैं साधक हूँ और मुझे भगवत्प्राप्ति करनी है। इस प्रकार क्रियाभेद तो रहेगा ही और रहना भी चाहिये पर भावभेद नहीं रहेगा। भावभेद न रहनेसे अर्थात् एक भगवत्प्राप्तिका ही भाव (उद्देश्य) रहनेसे पारमार्थिक और सांसारिक दोनों ही क्रियाएँ साधन बन जायँगी। 

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।7.27।। एक अत्यन्त वैज्ञानिक एवं सूक्ष्म दार्शनिक सत्य को इस श्लोक में सूचित किया गया है। इस तथ्य का वर्णन करने में कि क्यों और कैसे यह जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप को नहीं जान पाता है भगवान् श्रीकृष्ण मूलभूत उन सिद्धांतों को बताते हैं जो आधुनिक जीवशास्त्रियों ने जीव के विकास के सम्बन्ध में शोध करके प्रस्तुत किये हैं।आत्मसुरक्षा की सर्वाधिक प्रबल स्वाभाविक प्रवृत्ति के वशीभूत मनुष्य जगत् में जीने का प्रयत्न करता है। सुरक्षा की यह प्रवृत्ति बुद्धि में उन वस्तुओं की इचछाओं के रूप में व्यक्त होती है जिनके द्वारा मनुष्य अपने सांसारिक जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने की अपेक्षा रखता है।प्रिय वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा को इच्छा कहते हैं। यदि कोई वस्तु या व्यक्ति इस इच्छापूर्ति में बाधक बनता है तो उसकी ओर मन की प्रतिक्रिया द्वेष या क्रोध के रूप में व्यक्त होती है। इच्छा और द्वेष की दो शक्तियों के बीच होने वाले शक्ति परीक्षण में दुर्भाग्यशाली जीव छिन्नभिन्न होकर मरणासन्न व्यक्ति की असह्य पीड़ा को भोगता है। स्वाभाविक ही ऐसा व्यक्ति सदा प्रिय की ओर प्रवृत्ति और द्वेष की ओर से निवृत्ति में व्यस्त रहता है। शीघ्र ही वह व्यक्ति अत्याधिक व्यस्त और पूर्णतया भ्रमित होकर थक जाता है। मन में उत्पन्न होने वाले विक्षेप दिनप्रतिदिन बढ़ते हुए अशान्ति की वृद्धि करते हैं। इन्हीं विक्षेपों के आवरण के फलस्वरूप मनुष्य को अपने सत्यस्वरूप का दर्शन नहीं हो पाता।अत आत्मा की अपरोक्षानुभूति का एकमात्र उपाय है मन को संयमित करके उसके विक्षेपों पर पूर्ण विजय प्राप्त करना। विश्व के सभी धर्मों में जो क्रिया प्रधान भावना प्रधान या विचार प्रधान आध्यात्मिक साधनाएं बतायी जाती हैं उन सबका प्रयोजन केवल मन को पूर्णतया शान्त करने का ही है। परम शान्ति का क्षण ही आत्मानुभूति आत्मप्रकाश और आत्ममिलन का क्षण होता है।परन्तु दुर्भाग्य है कि प्राणीमात्र उत्पत्ति काल में ही संमोह को प्राप्त होते हैं दैवी करुणा से भरे स्वर में भगवान् श्रीकृष्ण का यह कथन है। दुखपूर्ण प्रारब्ध को मनुष्य का यह कोई नैराश्यपूर्ण समर्पण नहीं है कि जिससे मुक्ति पाने में वह जन्म से ही अशक्त बना दिया गया हो। ईसाई धर्म के समान कृष्ण धर्म किसी व्यक्ति को पाप का पुत्र नहीं मानता। यमुना कुञ्ज विहारी दुर्दम्य आशावादी आशा के संदेशवाहक जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ मात्र दार्शनिक सत्य को ही व्यक्त कर रहे हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी देह विशेष और उपलब्ध वातावरण में जन्म लेने की त्रासदी अपनी अतृप्त वासनाओं और प्रच्छन्न कामनाओं की परितृप्ति के लिए स्वयं ही निर्माण करता है।इस मोह जाल से मुक्ति पाना और सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करना जीवन का पावन लक्ष्य है। गीता भगवान् द्वारा विरचित काव्य है जो विपरीत ज्ञान में फंसे लोगों को भ्रमजाल से निकालकर पूर्णानन्द में विहार कराता है।सत्य के साधकों के गुण दर्शाने के लिए भगवान् आगे कहते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।7.27।।भगवत्तत्त्वविज्ञानप्रतिबन्धकं मूलाज्ञानातिरिक्तं प्रश्नद्वारेणोदाहरति केनेत्यादिना। पुनःशब्दात्प्रतिबन्धकान्तरविवक्षा गम्यते। अपरोक्षमवान्तरप्रतिबन्धकमिदमा गृह्यते। विशेषमाकाङ्क्षापूर्वकं निक्षिपति केनेति। विशेषापेक्षायामिति। द्वन्द्वशब्देन गृहीतयोरपीच्छाद्वेषयोर्ग्रहणं द्वन्द्वशब्दार्थोपलक्षणार्थमित्यभिप्रेत्याह तावेवेति। तयोरपर्यायमेकत्रानुपपत्तिं गृहीत्वा विशिनष्टि यथाकालमिति। नच तयोरनधिकरणं किंचिदपि भूतं संसारमण्डले संभवतीत्याह सर्वभूतैरिति। तथापि कथं तयोर्मोहहेतुत्वमित्याशङ्क्याह तत्रेति। तयोराश्रयः सप्तम्यर्थः। उक्तमेवार्थं कैमुतिकन्यायेन प्रपञ्चयति नहीति। पूर्वभागानुवादपूर्वकमुत्तरभागेन फलितमाह अत इति। प्रत्यगात्मन्यहंकारादिप्रतिबन्धप्रभावतो ज्ञानोत्पत्तेरसंभवोऽतःशब्दार्थः। कुलप्रसूत्यभिमानेन स्वरूपशक्त्या च युक्तस्यैव यथोक्तप्रतिबन्धप्रतिविधानसामर्थ्यमिति द्योतनार्थं भारत परंतपेति संबोधनद्वयम्। तत्त्वज्ञानप्रतिबन्धे प्रकृतभवान्तरकारणमुपसंहरति मोहेति। जायमानभूतानां मोहपरतन्त्रत्वे फलितमाह यत इति। भगवत्तत्त्ववेदनाभावे तन्निष्ठत्ववैधुर्यं फलतीत्याह अतएवेति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।7.27।।भगवत्तत्वापरिज्ञाने मूलज्ञानं निमित्तमुक्त्वा तत्र प्रतिबन्धकान्तरमाह। इच्छाद्वेषाभ्यां रागद्वेषाभ्यासमनुकूलप्रतिकूलविषयाभ्यामुत्थितेन शीतोष्णसुखदुःखनिमित्तेन मोहेन चित्त्व्याकुलतापादकेन सर्वाणि भूतानि सर्गे उत्पत्ति काले प्राप्ते संमोहमतिमूढतां यान्ति गच्छन्ति। इत्छाद्वेषवशीकृतचित्तस्य बाह्यपदार्थोष्वपि यथा भूतार्थविषयं ज्ञानं नोत्पद्यते ताभ्यामाविष्टुबद्धेः संमूढस्य प्रत्गात्मनि बहुप्रतिबन्धे सति तन्नेत्पद्यत इति किमु वक्तव्यमिति भारत परंतपेति संबोधनद्वेयेनोत्तमवंशोद्भवत्वात् स्वतः शत्रुतापनत्वेनोत्कृष्टशक्तिमत्वाच्च उक्तप्रतिबन्धेन संमोहं गन्तुमयोग्योऽसीत सूचयति। यत्तु केन पुनर्निमित्तेनातीतादीनिं भूतानि न जानन्तीत्याशङ्क्याह इच्छेति। इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन शोभनाशोभनसत्यासत्यनित्यानित्यात्मानात्मसु विपर्यय स्तेन सर्वभूतानि सर्गे सृष्टिविषये संमोहमविवेकं यान्ति। अयं भावः यो हि सृष्टे रुपमानन्दस्वरुपं च तत्त्वतो जानाति स ब्रह्मवित् सर्वज्ञत्वादतीतादीञ्जानाति। सृष्टौ च सर्वेषां मोहोऽस्ति अशोभने स्त्र्यादौ शोभनाध्यासादसत्ये प्रप़ञ्चे सत्यत्वाध्यासात् सत्ये चात्मनोऽसङ्गत्वेऽसत्यत्वाध्यासात् अनित्ये स्वर्गादौ नित्यत्वाध्यासादनात्मनि देहादावात्मत्वाध्यासात्। अतो विपर्ययेण सृष्टिज्ञानं प्रतिबद्धम्। तेन च सार्वज्ञ्यं न जायतेऽस्मदादीनामिति तच्चिन्त्यम्। मां तु वेद न कश्चनेत्युक्त्या त्वदवेदनं केन प्रतिबन्धेनेति प्रश्नेनैवेतच्छ्लोकावतरणस्यौचित्येन तदनुसारिव्याख्यानस्यैव न्याय्यत्वात्। उत्तरश्लोके भजन्ते मां दृढव्रता इतिवाक्यशेषविरोधाच्च। विष्णुतत्त्वज्ञानाज्ज्ञातव्यान्तरानवशेषेऽपि ईश्वरवत्रैकालिकखिलज्ञानस्यालाभाच्चेति दिक्।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।7.27।।द्वन्द्वमोहेन सुखदुःखादिविषयमोहेन इच्छाद्वेषयोः प्रवृद्धयोर्न हि किञ्चिज्ज्ञातुं शक्यम्। कारणान्तरमेतत्। सर्गे सर्गकाले आरभ्यैव शरीरे हि सतीच्छादयः। पूर्वं त्वज्ञानमात्रम्।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।7.27।।केन पुनर्निमित्तेनातीतादीनि भूतानि न जानन्तीत्याशङ्क्याह इच्छेति। इच्छा रागः द्वेषस्ताभ्यां समुत्थितो द्वन्द्वमोहः शोभनाशोभनसत्यासत्यनित्यानित्यात्मानात्मसु विपर्ययः अशोभने शोभनबुद्धिः शोभने वा अशोभनबुद्धिरित्येवंरूपस्तेन। हे भारत भरतान्वय सर्वभूतानि सर्गे सृष्टिविषये मोहमविवेकं यान्ति हे परंतप। अयं भावः यो हि सृष्टेरुपादानं स्वरूपं च तत्त्वतो जानाति स ब्रह्मवित् सर्वज्ञत्वादतीतादीञ्जानाति सृष्टौ च सर्वेषां मोहोऽस्ति अशोभने स्त्र्यादौ शोभनाध्यासात् असत्ये प्रपञ्चे सत्यत्वाध्यासात् सत्ये चात्मनोऽसङ्गत्वेऽसत्यत्वाध्यासात् अनित्ये स्वर्गादौ नित्यत्वाध्यासात् अनात्मनि देहादावात्माध्यासात्। अतो विपर्ययेण सृष्टिज्ञानं प्रतिबद्धं तेन च सार्वज्ञ्यं न जायतेऽस्मदादीनामिति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।7.27।।तथाहि इच्छाद्वेषाभ्यां समुत्थेन शीतोष्णादिद्वन्द्वाख्येन मोहेन सर्वभूतानि सर्गे जन्मकाल एव संमोहं यान्ति। एतद् उक्तं भवति गुणमयेषु सुखदुःखादिद्वन्द्वेषु पूर्वपूर्वजन्मनि यद्विषयौ इच्छाद्वेषौ रागद्वैषौ अभ्यस्तौ तद्वासनया पुनरपि जन्मकाल एव तदेव द्वन्द्वाख्यम् इच्छाद्वेषविषयत्वेन समुपस्थितं भूतानां मोहनं भवति तेन मोहेन सर्वभूतानि संमोहं यान्ति तद्विषयेच्छाद्वेषस्वभावानि भवन्ति न मत्संश्लेषवियोगसुखदुःखस्वभावानि। ज्ञानी तु मत्संश्लेषवियोगैकसुखदुःखस्वभावः न तत्स्वभावं किमपि भूतं जायते इति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।7.27।।तदेवं मायाविषयत्वेन जीवानां परमेश्वराज्ञानमुक्तम् तस्यैवाज्ञानस्य दृढत्वे कारणमाह इच्छाद्वेषसमुत्थेनेति। सृज्यत इति सर्गः सर्गे स्थूलदेहोत्पत्तौ सत्यां तदनुकूल इच्छा तत्प्रतिकूले च द्वेषः ताभ्यां समुत्थः समुद्भूतो यः शीतोष्णसुखदुःखादिद्वन्द्वनिमित्तो मोहो विवेकभ्रंशः तेन सर्वभूतानि संमोहं च अहमेव सुखी दुःखी चेति गाढतरमभिनिवेशं प्राप्नुवन्ति अतस्तानि मज्ज्ञानाभावान्न मां जानन्तीति भावः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।7.27।।एवं ज्ञानिनो दौर्लभ्याय कालत्रयवर्तिसर्वभूतसाधारणं भगवदज्ञानकारणंइच्छा इति श्लोकेनोच्यत इत्यभिप्रायेणाह तथाहीति। पदार्थमन्वयार्थं च दर्शयतिइच्छाद्वेषाभ्यामिति। इच्छाद्वेषाभ्यां समुत्तिष्ठतीति इच्छाद्वेषसमुत्थः। ननु जन्मकाल एवेच्छाद्वेषौ कारणाभावान्न सम्भवतः सम्भवन्तौ वा भगवद्विषयौ किं न स्याताम् न चेच्छाद्वेषमात्रेण शीतोष्णादेरुत्थानं तस्य च हेमन्तघर्मादिस्वकारणाधीनत्वात् द्वन्द्वस्य च कथं मोहशब्दार्थता मोहेन मोहं यान्तीत्यात्माश्रयादिप्रसङ्गः। इच्छाद्वेषावेव द्वन्द्वशब्देन गृह्येते अतो द्वन्द्वनिमित्तो मोहो द्वन्द्वमोह इत्यादि परव्याख्यानं च पुनरुक्त्यादिदुस्स्थम्। एतेनसुखं मे भूयात्दुःखं मा भूत् इत्यभिनिवेशो द्वन्द्वमोह इत्यपि मन्दमुक्तमित्यादिकमाशङ्क्याह एतदुक्तं भवतीति। जन्मान्तरवासनाख्यं कारणमस्ति वासनायाश्च स्वकारणस्वभावविषयत्वादिच्छाद्वेषयोर्न भगवत्संश्लेषविश्लेषविषयत्वप्रसङ्गः। उत्थानं चेच्छाद्वेषविषयतया स्फुरणमेव। मोहशब्दस्य करणे व्युत्पत्त्या द्वन्द्वे प्रयोगः। मोहकारणस्य मोहजनने च नात्माश्रयादिरिति भावः। अभोग्ये भोग्यताबुद्धिः अद्वेष्ये च द्वेष्यताबुद्धिरिह सम्मोह इत्यभिप्रायेणाह तद्विषयेति। एवंविधसम्मोहवशादिच्छाद्वेषयोः साक्षात्प्राप्तविषयपरित्यागं दर्शयति न मत्संश्लेषेति। उचितविषयेच्छाद्वेषशालिनं सुदुर्लभं ज्ञानिनं तद्व्यतिरेकप्रकाशनाय दर्शयतिज्ञानी त्विति।ज्ञानी तु परमैकान्ती तदायत्तात्मजीवनः। तत्संश्लेषवियोगैकसुखदुःखस्तदेकधीः गी.सं.27 इति सङ्ग्रहः। तद्व्यतिरेकमेव भूतानां जन्मसिद्धं दर्शयति न तदिति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।7.27।।ननु च कर्माण्येव क्रियमाणानि प्रलयकाले मोक्षं विदधते (S विदधति N प्रविदधति) । अन्यथा किमिति महाप्रलय उपजायते इत्याशङ्कायामारभते ( मारभ्यते N मिदमारभ्यते) ।इच्छेति। इच्छाद्वेषक्रोधमोहादिभिस्तावन्मोहात्मक एव स परं स्फीतीभावमुपनीयते येन प्रकृतिजठरान्तर्वर्ति समग्रमेव जगत् निजकार्यकरणमात्राक्षममेव प्रसुप्ततामवलम्बते आमोहं वासनानुभवात् प्रतिदिनं रात्रिसमये सौषुप्तवत्। न तु तावता विमुक्तरूपता मोहानुभुवसमाप्तौ पुनर्विचित्रव्यापारसंसारदर्शनात्।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।7.27।।इच्छाद्वेषौ द्वन्द्वम् तज्जन्यो मोहो द्वन्द्वमोहः तेनेति कश्चित् शं. तदसदिति भावेनाह द्वन्द्वेति।अन्यथा इच्छाद्वेषसमुत्थेन मोहेनेत्येव स्यादिति भावः। व्याख्यानव्याख्येयभावश्चागतिका गतिः। द्वन्द्वमोहस्येच्छाद्वेषसमुत्थत्वं कथं इत्यत आह इच्छेति। किञ्चित्सुखादिकं हेयत्वादिनेति शेषः। ननुनाहं प्रकाशः 7।25 इति भगवतोदैवी ह्येषा 7।14 इति तदधीनायाः गुणमय्या मायायाश्च मोहकत्वमुक्तं तत्कथं भगवद्विषयसम्मोहस्येच्छाद्वेषसमुत्थो द्वन्द्वमोहः कारणमुच्यते इत्यत आह कारणान्तरमिति। इच्छाद्वेषसमुत्थद्वन्द्वमोहलक्षणमेतद्भगवद्विषयस्य सम्मोहस्यावान्तरकारणमुच्यत इत्यर्थः। कुत एतदित्यतः तत्सूचकं पदं पठति सर्ग इति। सर्गः क्रिया कथं तस्याधिकरणत्वं इत्यतो लक्षणामाश्रित्य व्याचष्टे सर्गेति। तदुत्तरकालं किं तन्न कारणं इत्यतः पुनर्लक्षणाश्रयणेनाह आरभ्येति। सर्गकालमिति सम्बन्धः। कथमनेनावान्तरकारणत्वं ज्ञायते इत्यतः सावधारणमेतदित्युक्तमेवेति। उक्तमुपपादयन्नाह शरीर इति। आदिपदेन द्वेषस्य द्वन्द्वानां च ग्रहणम्। अतः सर्गकालमारभ्यैवैतत्कारणमिति सिद्धम्। एतावता कथमवान्तरकारणत्वसिद्धिः इत्यत आह पूर्वं त्विति। सर्गात्पूर्वं त्विच्छादिना विना ज्ञानमस्त्येव भगवदिच्छाद्यधीनमत एतदवान्तरं कारणमिति सिद्धमित्यर्थः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।7.27।।योगमायां भगवत्तत्त्वविज्ञानप्रतिबन्धे हेतुमुक्त्वा देहेन्द्रियसंघाताभिमानातिशयपूर्वकं भोगाभिनिवेशं हेत्वन्तरमाह इच्छाद्वेषाभ्यामनुकूलप्रतिकूलविषयाभ्यां समुत्थितेन शीतोष्णसुखदुःखादिद्वन्द्वनिमित्तेन मोहेन अहं सुखी अहं दुःखीत्यादिविपर्ययेण सर्वाण्यपि भूतानि संमोहं विवेकायोग्यत्वं सर्गे स्थूलदेहोत्पत्तौ सत्यां यान्ति। हे भारत हे परंतपेति संबोधनद्वस्य कुलमहिम्ना स्वरूपशक्त्या च त्वां द्वन्द्वमोहाख्यः शत्रुर्नाभिभवितुमलमिति भावः। नहीच्छाद्वेषररितं किंचिदपि भूतमस्ति नच ताभ्यामाविष्टस्य बहिर्विषयमपि ज्ञानं संभवति पुनरात्मविषयम्। अतो रागद्वेषव्याकुलान्तःकरणत्वात्सर्वाण्यपिभूतानि मां परमेश्वरमात्मभूतं न जानन्ति अतो न भजन्ते भजनीयमपि।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।7.27।।तर्हि त्वज्ज्ञाने तान् माया कथं मोहयति इत्यत आह इच्छेति। सर्गे सृष्टावुत्पत्त्यनन्तरम् इच्छा स्वेष्टवस्तुषु द्वेषस्तद्विपरीतवस्तुषु ताभ्यां सम्यक् प्रकारेणोत्थितो यो द्वन्द्वमोहः सुखदुःखरूपस्तेन हे भारत भक्तवंशज सर्वभूतानि सम्मोहं यान्ति प्राप्नुवन्ति। भारतेति सम्बोधनेन भरतवत् कस्यचिदेव भक्तस्य न मोहो भवतीति व्यञ्जितम्। अत्रायं भावः मत्क्रीडार्थं सेवार्थं वा ये सृष्टास्तैर्मत्संयोगवियोगसुखदुःखविचार एव कर्तव्यः न तु स्वस्वविचारकाणां भगवत्कार्यानुपयुक्तत्वान्माया मोहयतीति भावः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।7.27।। इच्छाद्वेषसमुत्थेन इच्छा च द्वेषश्च इच्छाद्वेषौ ताभ्यां समुत्तिष्ठतीति इच्छाद्वेषसमुत्थः तेन इच्छाद्वेषसमुत्थेन। केनेति विशेषापेक्षायामिदमाह द्वन्द्वमोहेन द्वन्द्वनिमित्तः मोहः द्वन्द्वमोहः तेन। तावेव इच्छाद्वेषौ शीतोष्णवत् परस्परविरुद्धौ सुखदुःखतद्धेतुविषयौ यथाकालं सर्वभूतैः संबध्यमानौ द्वन्द्वशब्देन अभिधीयेते। तत्र यदा इच्छाद्वेषौ सुखदुःखतद्धेतुसंप्राप्त्या लब्धात्मकौ भवतः तदा तौ सर्वभूतानां प्रज्ञायाः स्ववशापादनद्वारेण परमार्थात्मतत्त्वविषयज्ञानोत्पत्तिप्रतिबन्धकारणं मोहं जनयतः। न हि इच्छाद्वेषदोषवशीकृतचित्तस्य यथाभूतार्थविषयज्ञानमुत्पद्यते बहिरपि किमु वक्तव्यं ताभ्यामाविष्टबुद्धेः संमूढस्य प्रत्यगात्मनि बहुप्रतिबन्धे ज्ञानं नोत्पद्यत इति। अतः तेन इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत भरतान्वयज सर्वभूतानि संमोहितानि सन्ति संमोहं संमूढतां सर्गे जन्मनि उत्पत्तिकाले इत्येतत् यान्ति गच्छन्ति हे परंतप। मोहवशान्येव सर्वभूतानि जायमानानि जायन्ते इत्यभिप्रायः। यतः एवम् अतः तेन द्वन्द्वमोहेन प्रतिबद्धप्रज्ञानानि सर्वभूतानि संमोहितानि मामात्मभूतं न जानन्ति अत एव आत्मभावेन मां न भजन्ते।।के पुनः अनेन द्वन्द्वमोहेन निर्मुक्ताः सन्तः त्वां विदित्वा यथाशास्त्रमात्मभावेन भजन्ते इत्यपेक्षितमर्थं दर्शयितुम् उच्यते

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।7.27।।किञ्चायं मोहो नेदानीन्तनः किन्तु सृष्ट्यर्थः प्राक्तन एवेत्याह इच्छेति। इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे व्यवस्थितौ ईशकृतौ (प्राकृतौ) रागद्वेषौ तयोः पापहेतुभूतयोः समुत्पत्तिर्येन तथाभूतेन द्वन्द्वनिमित्तेन मोहेन हेतुना सर्वभूतानि क्षरपदवाच्यानि संसृतानि सर्गे एव सम्मोहं जन्ममरणपर्यावर्त्ते कारणभूतं भगवत्स्वरूपाज्ञानभयं प्राप्नुवन्ति गुणप्रवाहमध्ये पतिता भवन्तीत्यर्थः।