अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।8.5।।
anta-kāle cha mām eva smaran muktvā kalevaram yaḥ prayāti sa mad-bhāvaṁ yāti nāstyatra sanśhayaḥ
And whoever, leaving their body, goes forth remembering Me alone at the time of death, they will attain My Being; there is no doubt about this.
8.5 No Commentary.
।।8.5।। व्याख्या--'अन्तकाले च' 'मामेव ৷৷. याति नास्त्यत्र संशयः'-- अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए जो शरीर छोड़कर जाता है -- इसका तात्पर्य हुआ कि इस मनुष्यको जीवनमें साधनभजन करके अपना उद्धार करनेका अवसर दिया था पर इसने कुछ किया ही नहीं। अब बेचारा यह मनुष्य अन्तकालमें दूसरा साधन करनेमें असमर्थ है इसलिये बस मेरेको याद कर ले तो इसको मेरी प्राप्ति हो जायगी।'मामेव स्मरन्' का तात्पर्य है कि सुनने समझने और माननेमें जो कुछ आता है वह सब मेरा समग्ररूप है। अतः जो उसको मेरा ही स्वरूप मानेगा उसको अन्तकालमें भी मेरा ही चिन्तन होगा अर्थात् उसने जब सब कुछ मेरा ही स्वरूप मान लिया तो अन्तकालमें उसको जो कुछ याद आयेगा वह मेरा ही स्वरूप होगा इसलिये वह स्मरण मेरा ही होगा। मेरा स्मरण होनेसे उसको मेरी ही प्राप्ति होगी।'मद्भावम्' कहनेका तात्पर्य है कि साधकने मेरेको जिसकिसी भिन्न अथवा अभिन्न भावसे अर्थात् सगुणनिर्गुण साकारनिराकार द्विभुजचतुर्भुज तथा नाम लीला धाम रूप आदिसे स्वीकार किया है मेरी उपासना की है अन्तसमयके स्मरणके अनुसार वह मेरे उसी भावको प्राप्त होता है। जो भगवान्की उपासना करते हैं वे तो अन्तसमयमें उपास्यका स्मरण होनेसे उसी उपास्यको अर्थात् भगवद्भावको प्राप्त होते हैं। परन्तु जो उपासना नहीं करते उनको भी अन्तसमयमें किसी कारणवशात् भगवान्के किसी नाम रूप लीला धाम आदिका स्मरण हो जाय तो वे भी उन उपासकोंकी तरह उसी भगवद्भावको प्राप्त हो जाते हैं। तात्पर्य है कि जैसे गुणोंमें स्थित रहनेवालेकी (गीता 14। 18) और अन्तकालमें जिसकिसी गुणके बढ़नेवालेकी वैसी ही गति होती है (गीता 14। 14 15) ऐसे ही जिसको अन्तमें भगवान् याद आ जाते हैं उसकी भी उपासकोंकी तरह गति होती है अर्थात् भगवान्की प्राप्ति होती है।भगवान्के सगुणनिर्गुण साकारनिराकार आदि अनेक रूपोंका और नाम लीला धाम आदिका भेद तो साधकोंकी दृष्टिसे है अन्तमें सब एक हो जाते हैं अर्थात् अन्तमें सब एक मद्भाव -- भगवद्भावको प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि भगवान्का समग्र स्वरूप एक ही है। परन्तु गुणोंके अनुसार गतिको प्राप्त होनेवाले अन्तमें एक नहीं हो सकते क्योंकि तीनों गुण (सत्त्व रज तम) अलगअलग हैं। अतः गुणोंके अनुसार उनकी गतियाँ भी अलगअलग होती हैं।भगवान्का स्मरण करके शरीर छोड़नेवालोंका तो भगवान्के साथ सम्बन्ध रहता है और गुणोंके अनुसार शरीर छोड़नेवालोंका गुणोंके साथ सम्बन्ध रहता है। इसलिये अन्तमें भगवान्का स्मरण करनेवाले भगवान्के सम्मुख हो जाते हैं अर्थात् भगवान्को प्राप्त हो जाते हैं और गुणोंसे सम्बन्ध रखनेवाले गुणोंके सम्मुख हो जाते हैं अर्थात् गुणोंके कार्य जन्ममरणको प्राप्त हो जाते हैं।भगवान्ने एक यह विशेष छूट दी हुई है कि मरणासन्न व्यक्तिके कैसे ही आचरण रहे हों कैसे ही भाव रहे हों किसी भी तरहका जीवन बीता हो पर अन्तकालमें वह भगवान्को याद कर ले तो उसका कल्याण हो जायगा। कारण कि भगवान्ने जीवका कल्याण करनेके लिये ही उसको मनुष्यशरीर दिया है और जीवने उस मनुष्यशरीरको स्वीकार किया है। अतः जीवका कल्याण हो जाय तभी भगवान्का इस जीवको मनुष्यशरीर देना और जीवका मनुष्यशरीर लेना सफल होगा। परन्तु वह अपना उद्धार किये बिना ही आज दुनियासे विदा हो रहा है इसके लिये भगवान् कहते हैं कि भैया तेरी और मेरी दोनोंकी इज्जत रह जाय इसलिये अब जातेजाते (अन्तकालमें) भी तू मेरेको याद कर ले तो तेरा कल्याण हो जाय अतः हरेक मनुष्यके लिये सावधान होनेकी जरूरत है कि वह सब समयमें भगवान्का स्मरण करे कोई समय खाली न जाने दे क्योंकि अन्तकालका पता नहीं है कि कब आ जाय। वास्तवमें सब समय अन्तकाल ही है। यह बात तो है नहीं कि इतने वर्ष इतने महीने और इतने दिनोंके बाद मृत्यु होगी। देखनेमें तो यही आता है कि गर्भमें ही कई बालक मर जाते हैं कई जन्मते ही मर जाते हैं कई कुछ दिनोंमें महीनोंमें वर्षोंमें मर जाते हैं। इस प्रकार मरनेकी चाल हरदम चल ही रही है। अतः सब समयमें भगवान्को याद रखना चाहिये और यही समझना चाहिये कि बस यही अन्तकाल है नीतिमें यह बात आती है कि अगर धर्मका आचरण करना हो कल्याण करना हो तो मृत्युने मेरे केश पकड़े हुए हैं झटका दिया कि खत्म ऐसा विचार हरदम रहना चाहिये -- 'गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्'। भगवान्की उपर्युक्त छूटसे मनुष्यमात्रको विशेष लाभ लेना चाहिये। कहीं कोई भी व्याधिग्रस्त मरणासन्न व्यक्ति हो तो उसके इष्टके चित्र या मूर्तिको उसे दिखाना चाहिये जैसी उसकी उपासना है और जिस भगवन्नाममें उसकी रुचि हो जिसका वह जप करता हो वही भगवन्नाम उसको सुनाना चाहिये जिस स्वरूपमें उसकी श्रद्धा और विश्वास हो उसकी याद दिलानी चाहिये भगवान्की महिमाका वर्णन करना चाहिये गीताके श्लोक सुनाने चाहिये। अगर वह बेहोश हो जाय तो उसके पास भगवन्नामका जपकीर्तन करना चाहिये जिससे उस मरणासन्न व्यक्तिके सामने भगवत्सम्बन्धी वायुमण्डल बना रहे। भगवत्सम्बन्धी वायुमण्डल रहनेसे वहाँ यमराजके दूत नहीं आ सकते। अजामिलके द्वारा मृत्युके समय नारायण नामका उच्चारण करनेसे,वहाँ भगवान्के पार्षद आ गये और यमदूत भागकर यमराजके पासमें गये तो यमराजने अपने दूतोंसे कहा कि जहाँ भगवन्नामका जप कीर्तन कथा आदि होते हों वहाँ तुमलोग कभी मत जाना क्योंकि वहाँ हमारा राज्य नहीं है (टिप्पणी प0 455.1)। ऐसा कहकर यमराजने भगवान्का स्मरण करके भगवान्से क्षमा माँगी कि मेरे दूतोंके द्वारा जो अपराध हुआ है उसको आप क्षमा करें (टिप्पणी प0 455.2)। अन्तकालमें स्मरणका तात्पर्य है कि उसने भगवान्का जो स्वरूप मान रखा है उसकी याद आ जाय अर्थात् उसने पहले राम कृष्ण विष्णु शिव शक्ति गणेश सूर्य सर्वव्यापक विश्वरूप परमात्मा आदिमेंसे जिस स्वरूपको मान रखा है उस स्वरूपके नाम रूप लीला धाम गुण प्रभाव आदिकी याद आ जाय। उसकी याद करते हुए शरीरको छोड़कर जानेसे वह भगवान्को ही प्राप्त होता है। कारण कि भगवान्की याद आनेसे मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा है -- इसकी याद नहीं रहती प्रत्युत केवल भगवान्को ही याद करते हुए शरीर छूट जाता है। इसलिये उसके लिये भगवान्को प्राप्त होनेके अतिरिक्त और कोई गुंजाइश ही नहीं है। यहाँ शङ्का होती है कि जिस व्यक्तिने उम्रभरमें भजनस्मरण नहीं किया कोई साधन नहीं किया सर्वथा भगवान्से विमुख रहा उसको अन्तकालमें भगवान्का स्मरण कैसे होगा और उसका कल्याण कैसे होगा इसका समाधान है कि अन्तसमयमें उसपर भगवान्की कोई विशेष कृपा हो जाय अथवा उसको किसी सन्तके दर्शन हो जायँ तो भगवान्का स्मरण होकर उसका कल्याण हो जाता है। उसके कल्याणके लिये कोई साधक उसको भगवान्का नाम लीला चरित्र सुनाये पद गाये तो भगवान्का स्मरण होनेसे उसका कल्याण हो जाता है। अगर मरणासन्न व्यक्तिको गीतामें रुचि हो तो उसको गीताका आठवाँ अध्याय सुनाना चाहिये क्योंकि इस अध्यायमें जीवकी सद्गतिका विशेषतासे वर्णन आया है। इसको सुननेसे उसको भगवान्की स्मृति हो जाती है। कारण कि वास्तवमें परमात्माका ही अंश होनेसे उसका परमात्माके साथ स्वतः सम्बन्ध है ही। अगर अयोध्या मथुरा हरिद्वार काशी आदि किसी तीर्थस्थलमें उसके प्राण छूट जायँ तो उस तीर्थके प्रभावसे उसको भगवान्की स्मृति हो जायगी (टिप्पणी प0 456.1)। ऐसे ही जिस जगह भगवान्के नामका जप कीर्तन कथा सत्संग आदि होता है उस जगह उसकी मृत्यु हो जाय तो वहाँके पवित्र वायुमण्डलके प्रभावसे उसको भगवान्की स्मृति हो सकती है। अन्तकालमें कोई भयंकर स्थिति आनेसे भयभीत होनेपर भी भगवान्की याद आ सकती है। शरीर छूटते समय शरीर कुटुम्ब रुपये आदिकी आशाममता छूट जाय और यह भाव हो जाय कि हे नाथ आपके बिना मेरा कोई नहीं है केवल आप ही मेरे हैं तो भगवान्की स्मृति होनेसे कल्याण हो जाता है। ऐसे ही किसी कारणसे अचानक अपने कल्याणका भाव बन जाय तो भी कल्याण हो सकता है (टिप्पणी प0 456.2)। ऐसे ही कोई साधक किसी प्राणी जीवजन्तुके मृत्युसमयमें उसका कल्याण हो जाय इस भावसे उसको भगवन्नाम सुनाता है तो उस भगवन्नामके प्रभावसे उस प्राणीका कल्याण हो जाता है। शास्त्रोंमें तो सन्तमहापुरुषोंके प्रभावकी विचित्र बातें आती हैं कि यदि सन्तमहापुरुष किसी मरणासन्न व्यक्तिको देख लें अथवा उसके मृत शरीर(मुर्दे) को देख लें अथवा उसकी चिताके धुएँको देख लें अथवा चिताकी भस्मको देख लें तो भी उस जीवका कल्याण हो जाता है (टिप्पणी प0 456.3)
।।8.5।। महर्षि व्यास वेदान्त के इस मूलभूत सिद्धांत पर बल देते हुए नहीं थकते कि कोई भी जीव किसी देह विशेष के साथ तब तक तादात्म्य किये रहता है जब तक उसे अपने इच्छित अनुभवों को प्राप्त करने में वह देह उपयोगी और आवश्यक होता है। एक बार यह प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर वह उस शरीर को सदा के लिए त्याग देता है। तत्पश्चात उस देह के प्रति न कोई कर्तव्य रहता है न सम्बन्ध और न ही कोई अभिमान। देह से विलग होने के समय जीव के मन में उस विषय के सम्बन्ध में विचार होंगे जिसके लिए वह प्रबल इच्छा या महत्वाकांक्षा रखता था चाहे वह इच्छा किसी भी जन्म में उत्पन्न हुई हो। इस प्रकार की मान्यता युक्तियुक्त है। ध्यान और भक्ति की साधना मन को एकाग्र करने की वह कला है जिसमें ध्येय विषयक एक अखण्ड वृत्ति बनाए रखी जाती है। ऐसा साधक अन्तकाल में मुझ पर ही ध्यान करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है।मरण के पूर्व की जीव की यह अन्तिम प्रबल इच्छा उसकी भावी गति को निश्चित करती है। जो जीव अपने जीवन काल में केवल अहंकार और स्वार्थ का जीवन जीता रहा हो और देह के साथ तादात्म्य करके निम्न स्तर की कामनाओं को ही पूर्ण करने में व्यस्त रहा हो ऐसा जीव वैषयिक वासनाओं से युक्त होने के कारण ऐसे ही शरीर को धारण करेगा जिसमें उसकी पाशविक प्रवृत्तियाँ अधिक से अधिक सन्तुष्ट हो सकें।इसके विपरीत जब कोई साधक स्वविवेक से कामुक जीवन की व्यर्थता को पहचानता है और इस कारण स्वयं को उन बन्धनों से मुक्त करने के लिए आतुर हो उठता है तब देह त्याग के पश्चात् वह साधक निश्चित ही विकास की उच्चतर स्थिति को प्राप्त होता है। इसी युक्तियक्त एवं बुद्धिगम्य सिद्धांत के अनुसार वेदान्त यह घोषणा करता है कि मरणासन्न पुरुष की अन्तिम इच्छा उसके भावी शरीर तथा वातावरण को निश्चित करती है।इसलिए भगवान् यहाँ कहते हैं कि अन्तकाल में आगे जो पुरुष मेरा स्मरण करता हुआ देह त्यागता है वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।यह निश्चय केवल मेरे ही विषय में नहीं है वरन् --
।।8.5।।यत्तु प्रयाणकाले चेत्यादि चोदितं तत्राह -- अन्तकाले चेति। मामेवेत्यवधारणेनाध्यात्मादिविशिष्टत्वेन स्मरणं व्यावर्त्यते। विशिष्टस्मरणे हि चित्तविक्षेपान्न प्रधानस्मरणमपि स्यात्। नच मरणकाले कार्यकरणपारवश्याद्भगवदनुस्मरणासिद्धिः। सर्वदैव नैरन्तर्येणादरधिया भगवति समर्पितचेतसस्तत्कालेऽपि कार्यकरणजातमगणयतो भगवदनुसंधानसिद्धेः। शरीरे तस्मिन्नहंममाभिमानाभावादिति यावत्। प्रयातीत्यत्र प्रकृतशरीरमपादानम्।ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इत्यादिश्रुतिमाश्रित्याह -- नास्तीति। व्यासेध्यं संशयमेवाभिनयति -- याति वेति।
।।8.5।।प्रयाणकाले चेत्यादिसप्तमप्रश्नस्योत्तरमाह -- अन्तकाल इति। अन्तकाले च प्रयाणकाले। प्राणोत्क्रमणकाले इति यावत्। मामेव परमेश्वरं विष्णुं स्मरन्। चकारात्सदा भगवद्भावभावित इति ज्ञेयम्। मामेवेति विशेषणेनाध्यात्मादिविशिष्टत्वेन स्मरणं व्यावर्त्यते। विशिष्टस्मरणे हि चित्तविक्षेपान्न प्रधानस्मरणमपि स्यात्। कलेवरं शरीरं त्यक्त्वा यः प्रयाति स मद्भावं वैष्णवं तत्त्वं याति सगुणब्रह्मचिन्तकश्चेत्क्रमेण निर्गुणब्रह्मविच्चेत्सद्यः। अस्मिन्पक्षे कलेवरं मुक्त्वेति लोकदृष्ट्यभिप्रायम्।न तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रेव समवलीयन्ते इति श्रुतेः। अत्रास्मिन्नर्थे संशयः मद्भावं याति नवेति न विद्यतेस एतान्ब्रह्म गमयत्येष देवपथो ब्रह्मपथ एतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावर्तं नावर्तन्तेब्रह्माविदाप्नोति परम्ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इत्यादिश्रुतेः। अत्र किचिन्नास्त्यत्र देहव्यतिरिक्त आत्मनि मदभावप्राप्तौ वा संशयः। आत्मा देहाद्य्वतिरोक्तो न वा देहव्यतिरेकेऽपि ईश्वराद्भिन्नो न वेति संदेहो न विद्यते।छिद्यन्ते सर्वसंशयाः इति श्रुतेः। अत्र च करेवरं मुक्त्वा प्रयातीति देहाद्भिन्नत्वं मद्भावं यातीति चेश्वरादभिन्नत्वं जीवस्योक्तमिति द्रष्टव्यमिति। तत्रेदं वक्तव्यम्प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मनिभिरिति प्रश्नप्रतिवचने देहाद्य्वतिरिक्तो न वेति संशयनिराकरणवर्णनमकाण्डे ताण्डवम्। देहाद्य्वतिरिक्त आत्मेत्यर्थस्यासकृद्य्वुत्पादितत्वेन संशयाप्रसक्त्याऽप्रसक्तप्रतिषेधश्च युक्तभिर्निरुपितेऽर्थेऽपि पुनरुत्पन्नस्य संशयस्यार्थिकार्थेन निवृत्त्यसंभवश्चछिद्यन्ते सर्वसंशयाः इति श्रुतिरपि परावरविद इति पदसत्त्वे उदाहर्तुं योग्येति दिक्।
।।8.5।।मद्भावं मयि सत्तां निर्दुःखनिरतिशयानन्दात्मिकाम्। तच्चोक्तम् -- मुक्तानां च (तु) गतिर्ब्रह्म क्षेत्रज्ञ इति कल्पितः [म.भा.5।334।41] इति मोक्षधर्मे।
।।8.5।।अत्र षट्प्रश्नोत्तरेषु प्रथमे जीवस्य ब्रह्मभाव उक्तः। तं जानतां प्रयाणमेव नास्ति।न तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्ते ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति इति श्रुतेः। द्वितीये शुद्धस्त्वंपदार्थ उक्तस्तज्ज्ञानस्यापि वस्तुतत्त्वविषयत्वान्न तत्र भावनापेक्षास्तीति न भावनाफलभूतकाले तत्प्रत्ययोऽपेक्षते। तृतीयचतुर्थयोस्तु कर्मतत्साधनभूतं च जन्यं वस्तूक्तम्। तत्रापि न भावनापेक्षास्ति। अन्तकाले प्रबलेनैव कर्मणा चित्तस्यावरोधात्तत्साधनफलभूतस्यैव स्मरणावश्यंभावेन तत्र भावनाया वैयर्थ्यात् परिशेषादन्त्ययोरेव कार्यकारणब्रह्मणोः सोपाधिकनिरुपाधिकयोरन्यतरस्य भावना सुदृढा चेदन्तकाले तत्प्रत्ययोऽवश्यंभावीति तयोरन्यतरं रूपं परमात्मानं स्मरन् यः कलेवरं मुक्त्वार्चिरादिमार्गेण प्रयाति स ब्रह्मलोकप्राप्तिद्वारा क्रमेण मद्भावं मोक्षं यातीत्याह -- अन्तकाले चेति। स्पष्टा योजना। नास्त्यत्र संशय इति। सोपाधिकब्रह्मोपास्तिं प्रकृत्यशतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका। तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वगन्या उत्क्रमणे भवन्ति इति तदुपासकस्य गतिपूर्वकस्यामृतत्वस्य श्रवणात्। यस्तु शुद्धत्वंपदार्थरूपमध्यात्मवस्तुमात्रं वेद असौ ब्रह्मात्मैक्यज्ञानाभावात्न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति इत्येतद्वाक्यविषयो न भवति किंतु शतं चैकाचेत्येतस्यैव,विषयः। ननु तस्यानुपासकत्वात्कथमेतदिति चेन्न।नहि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति इति न्यायेन तस्योभयभ्रष्टत्वासंभवात्। कठवल्लीषु निष्कलप्रत्यगात्मविदं केवलयोगिनं प्रकृत्य शतं चैकाचेत्याम्नानाच्च।वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्वाः। ते ब्रह्मलोके तु परान्तकाले परामृतात्परिमुच्यन्ति सर्वे इति श्रुतेर्निश्चतार्थानां शोधितत्वंपदार्थानामेव क्रममुक्तिरवगम्यते। नचात्र सुनिश्चितार्था इत्यनेन ब्रह्मात्मैक्यनिश्चयवन्तो ग्रहीतुं शक्याः। तेषां गत्यभावस्य प्रोक्तत्वात्। नाप्युपासकाः असंभवात्। उपासना हि नाम अतस्मिंस्तद्बुद्धिः। यथा शालग्रामे विष्णुबुद्धिरेवं सूत्रविराडन्तर्यामिष्वात्मबुद्धिरिति न तद्वन्तः सुनिश्चितार्था इति वक्तुं शक्यम्। तस्मादध्यात्मविदां ब्रह्मात्मैक्यानवगमादनुपासकत्वेनान्त्यप्रत्ययाभावेऽप्यर्चिरादिगतिप्राप्तिरस्तीति सर्वमनवद्यम्।
।।8.5।।अन्तकाले च माम् एव स्मरन् कलेवरं त्यक्त्वाः यः प्रयाति स मद्भावं याति। मम यो भावः स्वभावः तं याति तदानीं यथा माम् अनुसंधत्ते तथाविधाकारो भवति इत्यर्थः। यथा आदिभरतादयः तदानीं स्मर्यमाणमृगसजातीयाकाराः संभूताः।स्मर्तुः स्वविषयसजातीयाकारतापादनम् अन्त्यप्रत्ययस्य स्वभाव इति सुस्पष्टम् आह --
।।8.5।। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसीत्यनेन पृष्टमन्तकालज्ञानोपायं तत्फलं च दर्शयति -- अन्तकाल इति। मामेवोक्तलक्षणमन्तर्यामिरूपं परमेश्वरं स्मरन्देहं त्यक्त्वा यः प्रकर्षेणार्चिरादिमार्गेण याति स मद्भावं मद्रूपतां याति। अत्र च संशयो नास्ति। स्मरणं ज्ञानोपायो मद्भावापत्तिश्च फलमित्यर्थः।
।।8.5।।प्रयाणकाले [8।2] इत्यस्य प्रश्नस्य सङ्ग्रहेणोत्तरंअन्तकाले इति श्लोकः। अतो न ज्ञानिमात्रविषय इत्यभिप्रायेणाह -- इदमपीति। अधियज्ञपदार्थस्वाभाव्याद्वक्ष्यमाणप्रकाराच्चेति भावः। अन्वयं दर्शयति -- अन्तकाले चेति।मद्भावं याति इत्यत्र श्रुत्यादिविरुद्धतादात्म्यावाप्तिभ्रमव्युदासायाहमम यो भाव इति। नन्वीश्वरस्वभावप्राप्तावस्यापि कृशोदरीनीडनिहितकीटस्य तज्जातीयत्ववदीश्वरान्तरत्वप्रसङ्गः त्रयाणामधिकारिणां गुणाष्टकरूपेश्वरस्वभावप्राप्त्यविशेषेऽधिकारिभेदश्च न स्यादित्यत आह -- तदानीमिति। तत्तदनुसन्धेयाकारविशेषसाम्यप्राप्तिर्विवक्षिता। साम्यं च स्वरूपभेदकवैधर्म्ये स्थिते सत्येवेति न कश्चिद्दोष इति भावः। एवं प्रश्नाः प्रत्युक्ताः।नास्त्यत्र संशयः इत्यनेन अभिप्रेतां प्रयोजकप्रसिद्धिं दर्शयति -- यथाऽऽदिभरतादय इति। एतेनोदाहरणेनापि तादात्म्यभ्रमो निरस्तः न ह्यादिभरतस्य स्मर्यमाणमृगेण तादात्म्यम् अपितु तत्समानाकारमृगशरीरपरिग्रह एवेति तत्रैव प्रसिद्धम्। तदानीं देहवियोगकाल इत्यर्थः।
।।8.5 -- 8.7।।अथ योऽवशिष्टः प्रश्नः कथं प्रयाणकाले ज्ञेयोऽसि इति तं निर्णयति -- अन्तकालेऽपि इत्यादि असंशयम् इत्यन्तम्। न केवलं स्वस्थावस्थायां यावत् अन्तकालेऽपि ( N कालेऽपीति) । मामेति -- व्यवच्छिन्नसकलोपाधिकम्। कथं च अस्वस्थावस्थायां (K (n) अन्तावस्थायाम्) विनिवत्तसकलेन्द्रियचेष्टस्य भगवान् स्मृतिपथमुपेयात् इत्युपायमपि उपदिशति तस्मादिति। सर्वावस्थासु व्यावहारिकीष्वपि यस्य भगवत्तत्त्वं न हृदयादपयाति तस्य भगवत्येव सकलकर्मसंन्यासिनः सततं भगवन्मयस्य अवश्यं स्वयमेव भगवत्तत्त्वं स्मृतिविषयतां यातीति। सदातद्भावभावितत्त्वं च अत्र हेतुः। अतः एवाह -- येनैव वस्तुना सदा भावितान्तःकरणः (NK (n) अन्तःकरणभावः) तदेव मरणसमये स्मर्यते तद्भाव एव च प्राप्यते इति। सर्वथा मत्परम एव मत्प्रेप्सः स्यादित्यत्र तात्पर्यम्। न तु यदेवान्ते स्मर्यते तत्तत्त्वमेवावाप्यते (N तत्तदेवावाप्यते) इति। एवं हि सति ज्ञानिनोऽपि यावच्छरीरभाविधातुदोषविकलितचिवृत्तेर्जडतां प्राप्तस्य तामसस्येव गतिः स्यात्। न च अम्युपगमोऽत्र युक्तः प्रमाणभूतश्रुतिविरोधात्। अस्ति हि -- तीर्थे श्वपचगृहे वा नष्टस्मृतिरपि परित्यजन् देहम्।ज्ञानसमकालमुक्तः कैवल्यं याति हतशोकः।।इति (PS 83 )तस्मादेवं विध्यनुवादौ। सदा येन भावितमन्तःकरणं तदेवान्ते प्रयाणानन्तरं प्राप्यते। तच्च स्मर्यते न वा इति नात्र निर्बन्धः। अन्वाचयश्चायम् अपिशब्देन सूचितः। स्मरणस्य असर्वथाभावं वाशब्दः स्फुटयति। सदा च मत्परमो जनः सर्वथा स्यात् इति तात्पर्यं मुनिरेव प्रकटयति। यदाह -- तस्मात् सर्वेषु कालेषु मानुस्मर इति। ,तेनेत्थमत्र पदसङ्गतिः -- सदा यं यं भावं स्मरन् कलेबरं त्यजति अन्तेऽपि वा स्मरन् -- वाग्रहणात् अस्मरन् वा -- तं तमेवैति। यतोऽसौ सदा तद्भावेन भावितः।अन्ये तु -- कलेवरं त्यजति सति अन्ते कलेवरत्यागक्षणे बन्धुपुत्रादिप्रमात्रगोचरे (SK (n) -- प्रमात्रन्तरागोचरे) श्वासायासहिक्कागद्गदादिचेष्टाचरमभाविनि क्षणे शरीरदार्ढ्यबन्धप्रतनूभावात् देहकृतसुखदुःखमोहबन्धे,(K -- वन्ध्ये) कालांशे देहत्यजनशब्दवाचेय यदेव स्मरति तदेव प्रथमसंविदनुगृहीतम् अस्य रूपं संपद्यते। तादृशे (SN तादृशि) च काले स्मरणस्य कारणं सदा तद्भावभावितत्त्वमिति। त्यजति इति सप्तमी योज्या इति। प्राक्तन एवार्थः।ननु एवमन्तकाले किं प्रयोजनं तत्स्मरणेन क एवमाह प्रयोजनम् इति किंतु वस्तुवृत्तोपनतमेव तद्भवति तस्मिन्नन्त्ये क्षणे।ननु पुत्रकलत्रबन्धुभृतेः शिशिरोदकपानादेर्वा अन्त्ये क्षणे दृष्टं स्मरणम् इति तद्भावापत्तिः स्यात् मैवम्। न हि सोऽन्त्यः क्षणः स्फुटदेहावस्थानात्। न हि असावन्त्यः क्षणः अस्मद्विवक्षितो भवादृशैर्लक्ष्यते। तत्र त्वन्त्ये क्षणे येनैव रूपेण भवितव्यं तत्संस्कारस्य दूरवर्त्तिनोऽपि -- जातिदेशकालव्यवहितानामपि (SN omit जाति also the following compound word स्मृति,etc.) आनन्तर्यम् स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्त्वात् (YS IV 9.)इति न्यायेन प्रबोधेन भाव्यम्। तद्वशात् तत्स्मरणं तत्स्मृत्या तद्भावप्राप्तिः। कस्य चित्तु देहस्य स्वस्थावस्थायामपि तदेव काकतालीयवशाद्व्यज्यते। यथा मृगादेः पुराणे वर्णनं तत्कृतं तु मृगत्वम्। अत एव प्रयाणकालेऽपि च माम् (VII30 ) इत्यादौ अपि च इति ग्रहणम्। ये हि सदा भगवन्तं भावयन्ति,एवंभूता भविष्यामः इति तेषाम्तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी (YS I 50 )इति न्यायेन तस्यामलक्ष्यायामन्तदशायां संस्कारान्तरापहस्तनेन तत्संस्कारकृते तत्तत्त्वस्मरणे देहसद्भावक्षणकृते च तस्य स्मरणे ( omits देहसद्भाव -- स्मरणे) अनन्तरं देहविनिपातक्षणे एव कालसंस्कारनिवृत्तेः तदिदमित्यादिवेद्यविभागानवभासात् संविन्मात्रसतत्त्वपरमेश्वरस्वभावतैव भवति (CA adds इति श्रीमदभिनवगुप्तगुरूणां संमतम् ( संस्मृतम्) after भवति) इत्यलम् ( इत्यलं बहुना)। असंशयमिति -- नात्र संदेग्धव्यमिति [तात्पर्यम्]।
।।8.5।।मद्भावमित्यस्य मदात्मकत्वमित्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह -- मद्भावमिति। न तु भगवति स्थितिः सर्वदाऽस्ति सा कथं फलं इत्यतो विशिनष्टि -- निर्दुःखेति। क्वचित्पाठःमद्भावं मद्वद्भावं इति। तत्र भगवत्प्रतिबिम्बानां जीवानां तत्सादृश्यं सदाऽस्ति तत्कथं प्राप्यमुच्यते इत्यत उक्तं निर्दुःखेति। अत्रआत्मकं इति पाठः अभिव्यक्तमिति शेषः। प्रतीत एवार्थः किं न स्यात् इति चेत् न मुक्तानां भगवदाश्रितत्वेन तद्भावायोगात्। तदपि कुतः इत्यत आह -- तच्चेति। क्षेत्रज्ञः परमात्मा गतिरिति समर्थितः।
।।8.5।।इदानीं प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसीति सप्तमस्य प्रश्नस्योत्तरमाह -- मामेव भगवन्तं वासुदेवमधियज्ञं सगुणं निर्गुणं वा परममक्षरं ब्रह्म न त्वध्यात्मादिकं स्मरन्सदा चिन्तयंस्तत्संस्कारपाटवात्समस्तकरणग्रामवैयग्र्यवत्यन्तकालेऽपि स्मरन्कलेवरं मुक्त्वा शरीरेऽहंममाभिमानं त्यक्त्वा प्राणवियोकाले यः प्रयाति सगुणध्यानपक्षेऽग्रिर्ज्योतिरहः शुक्ल इत्यादिवक्ष्यमाणेन देवयानमार्गेण पितृयानमार्गात्प्रकर्षेण याति स उपासको मद्भावं मद्रूपतां निर्गुणब्रह्मभावं हिरण्यगर्भलोकभोगान्ते याति प्राप्नोति। निर्गुणब्रह्मस्मरणपक्षे तु कलेवरं त्यक्त्वा प्रयातीति लोकदृष्ट्यभिप्रायंन तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्ते इति श्रुतेस्तस्य प्राणोत्क्रमणाभावेन गत्यभावात्स मद्भावं साक्षादेव याति।ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति इति श्रुतेः। नास्त्यत्र देहव्यतिरिक्त आत्मनि मद्भावप्राप्तौ वा संशयः। आत्मा देहाद्व्यतिरिक्तो न वा देहव्यतिरेकेऽपि ईश्वराद्भिन्नो न वेति संदेहो न विद्यते।छिद्यन्ते सर्वसंशयाः इति श्रुतेः। अत्र च कलेवरं मुक्त्वा प्रयातीति देहाद्भिन्नत्वं मद्भावं यातीति चेश्वरादभिन्नत्वं जीवस्योक्तमिति द्रष्टव्यम्।
।।8.5।।प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि इत्यस्योत्तरमाह -- अन्तकाल इति। अन्तकाले एतद्देहावसानसमये वा अन्तरूपस्य अन्तिमजन्मनो देहस्य काले नाशसमये प्राप्ते सति मामेव स्मरन् यः प्रयाति देहं मुञ्चति स कलेवरं मृतदेहं भजनायोग्यं मुक्त्वा मद्भावं सेवौपयिकस्वरूपं याति प्राप्नोति। अत्रार्थे संशयो नास्ति न वर्त्तते। अतः सन्देहो न कर्त्तव्य इत्यर्थः। चकारेण शुद्धावस्थादिकं न विचारणीयमिति ज्ञापितम्। एवकारेण कामनयाऽन्यत् किञ्चिदपि फलत्वेन न स्मरणीयमिति ज्ञापितम्।
।।8.5।। --,अन्तकाले च मरणकाले च मामेव परमेश्वरं विष्णुं स्मरन् मुक्त्त्वा परित्यज्य कलेवरं शरीरं यः प्रयाति गच्छति सः मद्भावं वैष्णवं तत्त्वं याति। नास्ति न विद्यते अत्र अस्मिन् अर्थे संशयः -- याति वा न वा इति।।न मद्विषय एव अयं नियमः। किं तर्हि --,
।।8.5।।प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि इत्यस्योत्तरमाह -- अन्तकाल इति। एवकारोऽन्यव्यवच्छेदार्थकः। मन्त्रोपासनाद्यस्पृष्टं पूर्णानन्दं मां लीलापुरुषोत्तममेव स्मरन् यो भक्तिमान् योगी प्रयाति प्रयाणं करोति स मद्भावं यातीति नास्त्यत्र संशयः।