तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।8.7।।
tasmāt sarveṣhu kāleṣhu mām anusmara yudhya cha mayyarpita-mano-buddhir mām evaiṣhyasyasanśhayam
Therefore, at all times, remember Me only and fight. With your mind and intellect fixed on Me, you will undoubtedly come to Me alone.
8.7 तस्मात् therefore? सर्वेषु in all? कालेषु (in) times? माम् Me? अनुस्मर remember? युध्य fight? च and? मय्यर्पितमनोबुद्धिः with mind and intellect fixed (or absorbed) in Me? माम् to Me? एव alone? एष्यसि (thou) shalt come to? असंशयम् doubtless.Commentary The whole mental machinery should be dedicated to the Lord. You must work with the mind and intellect devoted to Him.Fight Perform your own Dharma? the duty of a Kshatriya. It will purify your heart and you will attain to knowledge and come to Me. The term fight is Upalakshana (suggestive). It means Do your duties according to your caste and order of life. VarnashramaDharmas (the duties pertaining to the various castes and orders of life) and NityaNaimittika Karmas are the Upalakshanas (factors suggested or alluded to).The ChittaVritti which is of the form of the object meditated upon is the Bhavana. (ChittaVrittis is mental modification). The Bhavana is for those who practise Saguna Upasana. Bhavana at the time of separtion of the body is not necessary for a sage or a Jnani who has attained to the knowledge of the Self or Selfrealisation. (Cf.IX.34XII.8?11)
।।8.7।। व्याख्या --'तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च'--यहाँ 'सर्वेषु कालेषु' पदोंका सम्बन्ध केवल स्मरणसे ही है युद्धसे नहीं क्योंकि युद्ध सब समयमें निरन्तर हो ही नहीं सकता। कोई भी क्रिया निरन्तर नहीं हो सकती प्रत्युत समयसमयपर ही हो सकती है। कारण कि प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और समाप्ति होती है -- यह बात सबके अनुभवकी है। परन्तु भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य होनेसे भगवान्का स्मरण सब समयमें होता है क्योंकि उद्देश्यकी जागृति हरदम रहती है।सब समयमें स्मरण करनेके लिये कहनेका तात्पर्य है कि प्रत्येक कार्यमें समयका विभाग होता है जैसे -- यह समय सोनेका और यह समय जगनेका है यह समय नित्यकर्मका है यह समय जीविकाके लिये कामधंधा करनेका है यह समय भोजनका है आदिआदि। परन्तु भगवान्के स्मरणमें समयका विभाग नहीं होना चाहिये। भगवान्को तो सब समयमें ही याद रखना चाहिये।,
।।8.7।। कोई भी धर्म तब तक समाज की निरन्तर सेवा नहीं कर सकता जब तक वह धर्मानुयायी लोगों को अपना व्यावहारिक दैनिक जीवन सफलतापूर्वक जीने की विधि और साधना का उपदेश नहीं देता। यहाँ एक ऐसी साधना बतायी गयी है जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से लागू होती है। इस सरल उपदेश के पालन से न केवल रहन सहन का स्तर बल्कि सम्पूर्ण जीवन का स्तर भी उच्च किया जा सकता है।अनेक लोग हैं जिन्हें सन्देह होता है कि मन को धर्म तथा व्यावहारिक जीवन में बाँटना किसी भी क्षेत्र में वास्तविक सफलता पाने में हानिकारक है। वास्तव में यह एक अविचारपूर्ण तर्क है। बहुत ही कम अवसरों पर व्यक्ति का मन पूर्णतया उसी स्थान पर होता है जहाँ वह काम कर रहा होता है। सामान्यतः मन का एक बड़ा भाग भय के भयंकर जंगलों में या ईर्ष्या की गुफाओं में या फिर असफलता की काल्पनिक सम्भावनाओं के रेगिस्तान में सदैव भटकता रहता है। इस प्रकार मन की सम्पूर्ण शक्ति का अपव्यय करने के स्थान पर भगवान् उपदेश देते हैं कि भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सर्वोच्च लाभ पाने के इच्छुक और प्रयत्नशील पुरुष्ा को अपना मन शान्त और पावन सत्यस्वरूप में स्थिर करना चाहिए। ऐसा करने से वह अपनी सम्पूर्ण क्षमता को अपने कार्य के उपयोग में ला सकता है और इस प्रकार इह और पर दोनों ही लोकों में सर्वोच्च सम्मान का स्थान प्राप्त कर सकता है।हिन्दु धर्म में धर्म और जीवन परस्पर विलग नहीं हैं। एक दूसरे से विलग होने से दोनों ही नष्ट हो जायेंगे। वे परस्पर वैसे ही जुड़े हुए हैं जैसे मनुष्य का धड़ और मस्तक। वियुक्त होकर दोनों ही जीवित नहीं रह सकते। जीवन में आने वाली परीक्षा का घड़ियों में भी एक सच्चे साधक को चाहिए कि वह अपने मन के निरन्तर शुद्ध आत्मस्वरूप तथा विश्व के अधिष्ठान ब्रह्म में एकत्व भाव से स्थिर रखना सीखे। न तो यह कठिन है और न ही अनभ्यसनीय।रंगमंच पर राजा की भूमिका करते हुये एक अभिनेता को कभी यह विस्मृत नहीं होता कि शहर में उसकी एक पत्नी और पुत्र भी है। यदि अपनी यह पहचान भूलकर रंगमंच के बाहर भी वह राजा के समान व्यवहार करने लगे तो तत्काल ही उसे समाज के हित में किसी पागलखाने में भर्ती करा दिया जायेगा। परन्तु वह अपने वास्तविक व्यक्तित्व को जानता है इसलिए वह कुशल अभिनेता होता है। इसी प्रकार सदा अपने दिव्य स्वरूप के प्रति जागरूक रहते हुए भी हम जगत् में बिना किसी बाधा के कार्य कर सकते हैं। इस ज्ञान में स्थित होकर कर्म करने से हमारी उपलब्धियों को विशेष आभा प्राप्त होती है और उसके साथ ही जीवन में आने वाली निराशा की घड़ी में उत्पन्न होने वाली मन की प्रतिक्रियाओं को हम शान्त और मन्द करने में समर्थ बनते हैं।वास्तविक अर्थ में एक सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत पुरुष को कभी भी अपनी शिक्षा का विस्मरण नहीं होता। वह तो उसके जीवन का अंग बन जाती है। उसके आचार विचार और व्यवहार में शिक्षा की सुरभि का सतत निस्सरण होता रहता है। उसी प्रकार आत्मभाव में स्थित पुरुष के मन में सबके प्रति करुणा और प्रेम तथा कर्मों में निःस्वार्थ भाव होता है। यही वह रहस्य है जिसके कारण वैदिक सभ्यता ने अपने काल में सम्पूर्ण विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया और वह भावी पीढ़ियों के सम्मान का पात्र बनी।भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जो पुरुष केवल धर्म प्रतिपादित फल के लिए युद्ध का जीवन जीते हुए भी मेरा स्मरण करता है उसका मन और बुद्धि मुझमें ही समाहित हो जाती है। अपने विचारों के अनुसार तुम बनोगे इस सिद्धांत के अनुसार तुम मुझे निःसन्देह प्राप्त होगे।आगे कहते हैं --
।।8.7।।सततभावना प्रतिनियतफलप्राप्तिनिमित्तान्त्यप्रत्ययहेतुरित्यङ्गीकृत्यानन्तरश्लोकमवतारयति -- तस्मादिति। विशेषणत्रयवतो भगवदनुस्मरणस्य भगवत्प्राप्तिहेतुत्वं तस्मादित्युच्यते। सर्वेषु कालेष्वादरनैरन्तर्याभ्यां सहेति यावत्। भगवदनुस्मरणे विशेषणत्रयसाहित्यं यथाशास्त्रमिति द्योत्यते। भगवदनुसंधानं कर्तव्यमुक्त्वा तेन सह स्वधर्ममपि कुरु युद्धमित्युपदिशता भगवता समुच्चयो ज्ञानकर्मणोरङ्गीकृतो भातीत्याशङ्क्याह -- मयीति। मनोबुद्धिगोचरं क्रियाकारकफलजातं सकलमपि ब्रह्मैवेति भावयन्युध्यस्वेति ब्रुवता क्रियादिकलापस्य ब्रह्मातिरिक्तस्याभावाभिलापान्नात्र समुच्चयो विवक्षित इत्यर्थः। उक्तरीत्या स्वधर्ममनुवर्तमानस्य प्रयोजनमाह -- मामेवेति। उक्तसाधनवशात्फलप्राप्तौ प्रतिबन्धाभावं सूचयति -- असंशय इति।
।।8.7।।यस्मादेवं सदाभ्यस्ता भावनान्तकालेऽपि सैवोद्भूता स्वविषयप्राप्तिकरी तस्मात् सर्वेषु कालेषु आदरनैरन्तर्याभ्यां मां सगुणं निर्गुणं वा यथाशास्त्रमनुस्मर यध्य च युध्यस्व स्ववर्णधर्मयुद्धं च कुरु।न चलति निजवर्णधर्मतो यः सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे। न हरति न च हन्ति किंचिदुच्चैः सितमनसं तमवेहि विषणुभक्तम् इति विष्णुपुराणे निजवर्णधर्मतोऽजलनं विष्णुभक्तलक्षणमुक्तम्। भगवता च युध्य चेत्युक्तं तेनोपासनाकर्मसमुच्चयः। मयि अर्पिते मनोबुद्धी यस्य तव स त्वमेतादृशः सन्मामेवैष्यसि आगमिष्यसि अत्र संशयो न विद्यते।
।।8.6 -- 8.7।।स्मरन्पुरुषस्त्यजतीति भिन्नकालीनत्वेऽप्यविरोध इति मन्दमतेः शङ्का मा भूदित्यन्त इति विशेषणम् सुमतेनव शङ्कावकाशः।स्मरंस्त्यजति इत्येककालीनत्वप्रतीतेः। दुर्मतेर्दुःखान्न स्मरंस्त्यजतीति शङ्का।त्यजन्देहं न कश्चित्तु मोहमाप्नोत्यसंशयम् इति स्कान्दे। तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति [बृ.उ.4।4।2] इति हि श्रुतिः।सदा तद्भावभावितः,इत्यन्तकालस्मरणोपायमाह -- भावोऽन्तर्गतं मनः तथाभिधानात्। भावितत्वं अतिवासितत्वम्।भावना त्वतिवासना इत्यभिधानात्।
।।8.7।।यस्मादेवं तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर अन्तकाले मत्स्मृत्या मद्भावप्राप्त्यर्थं। युध्यचेति चकारात्कर्मोपास्त्योः समुच्चयोऽवगम्यते। ज्ञानकर्मसमुच्चयकर्तरीव तदुभयानुष्ठातर्येकस्मिन्नेवाधिकारिणि कर्तृत्वाकर्तृत्वप्रत्ययकृतविरोधाभावात्। मयि अर्पिते मदेकनिष्ठतां नीते मनोबुद्धी येन स मय्यर्पितमनोबुद्धिस्त्वं असंशयं मामेवैष्यसि प्राप्स्यसि। अन्तकाले स्मरणेनेति शेषः।
।।8.7।।तस्मात् सर्वेषु कालेषु आप्रयाणाद् अहरहः माम् अनुस्मर अहरहः अनुस्मृतिकरं युद्धादिकं वर्णाश्रमानुबन्धिश्रुतिस्मृतिचोदितनित्यनैमित्तिकं च कर्म कुरु। एतदुपायेन मय्यर्पितमनोबुद्धिः अन्तकाले च माम् एव स्मरन् यथाभिलषितप्रकारं मां प्राप्स्यसि न अत्र संशयः।एवं सामान्येन सर्वत्र स्वप्राप्यावाप्तिः अन्त्यप्रत्ययाधीना इति उक्त्वा तदर्थं त्रयाणाम् उपासनप्रकारभेदं वक्तुम् उपक्रमते। तत्र ऐश्वर्यार्थिनाम् उपासनप्रकारं यथोपासनम् अन्त्यप्रत्ययकारकं च आह --
।।8.7।। तस्मादिति। यस्मात्पूर्ववासनैवान्तकाले स्मृतिहेतुः नहि तदा विवशस्य स्मरणोद्यमः संभवति तस्मात्सर्वदा मामनुस्मरानुचिन्तय। संततस्मरणं च चित्तशुद्धिं विना न भवति अतो युध्य च युध्यस्व। चित्तशुद्ध्यर्थं युद्धादिकं स्वधर्मं चानुतिष्ठेत्यर्थः। एवं मय्यर्पितं मनः संकल्पात्मकं बुद्धिश्च व्यवसायात्मिका येन त्वया स त्वं मामेव प्राप्स्यसि। असंशयः संशयोऽत्र नास्ति।
।।8.7।।एवमन्तिमप्रत्ययाधीने फले अन्तिमप्रत्यये चानवरतभावनाधीने भवताऽपि तथाविधभावना तदनुग्राहकं कर्म च कर्तव्यमित्युच्यतेतस्मात् इति श्लोकेन।सर्वेषु कालेषु इत्यनेन स खल्वेवं वर्तयन्यावदायुषं ब्रह्मलोकमभिसम्पद्यते [छां.उ.8।15।1] प्रायणान्तमोङ्कारमभिध्यायति [प्रश्नो.5।1] इत्यादिः श्रुतिश्चानुस्मृतेत्यभिप्रायेणआप्रायणादित्युक्तम्। सूत्रं चआप्रायणात्तत्रापि हि दृष्टम् [ब्र.सू.4।1।12] इति। प्रतिमासं प्रतिपक्षमनुस्मरणेऽप्याप्रायणादिति वक्तुं शक्यमिति तद्व्युदासाभिप्रायेण बहुवचनमित्याहअहरहरिति।तं पूर्वापररात्रेषु युञ्जानः इत्यादिविहितैकाग्रतानुरूपसात्त्विककालेष्वित्युक्तं भवति। तथा च सूत्रं -- यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् [ब्र.सू.4।1।11] इति।युध्य च इति विहितस्य युद्धस्य अत्रफलवत्सन्निधावफलं तदङ्गम् इत्यादिन्यायादनुस्मृत्यङ्गत्वं सिद्धम् तच्च युद्धमत्र प्रस्तुतत्वादुपलक्षणतयोक्तम् ततश्च प्रमाणसिद्धं यथास्ववर्णाश्रमकर्मावश्यं कर्तव्यमित्युक्तं भवतीत्यभिप्रायेणाहअहरहरनुस्मृतिकरं युद्धादिकमिति।वर्णाश्रमानुबन्धीत्युपलक्ष्यसङ्ग्राहकाकारः। चोदितमित्यने शमादिविधेश्चोदितव्यतिरिक्तविषयत्वं सूचितम्। नित्यनैमित्तिकशब्देन फलाभिसन्धिपूर्वकर्मव्युदासः।मय्यर्पितमनोबुद्धिः इत्यस्य उक्तार्थानुवादरूपत्वं दर्शयति -- एवमिति।उपायेन कर्मादिरूपेणेत्यर्थः। अनुस्मरणमेवात्र मनसोऽर्पणम् बुद्धेरर्पणं तु फलप्रदत्वाध्यवसायः। प्रकरणसिद्धावान्तरव्यापारकथनंअन्तकाले च मामेव स्मरन्निति। यद्वाअत्रोपायेनेति कर्मानुगृहीतानुस्मृतिरेवोच्यते तत्फलं मय्यर्पितमनोबुद्धिः इति। तस्यैवार्थः -- अन्तकाले च मामेव स्मरन्निति। पूर्वोत्तरानुवृत्ताधिकारित्रयसाधारण्यायाह -- यथाभिलषितप्रकारं मामिति।निस्संशयेषु सर्वेषु नित्यं वसति वै हरिः। ससंशयान् हेतुबलान्नाध्यावसति माधवः [म.भा.12।349।71] इत्यादिवत्असंशयः इत्यस्यार्जुनविशेषणत्वेऽपि फलितमाह -- नात्र संशय इति।अ मा नो ना प्रतिषेधे इति वचनादकारो वाऽत्र पृथगनुसन्धेयः। एतमितः प्रेत्याभिसम्भवितास्मीति यस्य स्यादद्धा न विचिकित्सास्ति [छां.उ.3।14।4],इत्यादिकमत्रानु सन्धेयम्।
।।8.5 -- 8.7।।अथ योऽवशिष्टः प्रश्नः कथं प्रयाणकाले ज्ञेयोऽसि इति तं निर्णयति -- अन्तकालेऽपि इत्यादि असंशयम् इत्यन्तम्। न केवलं स्वस्थावस्थायां यावत् अन्तकालेऽपि ( N कालेऽपीति) । मामेति -- व्यवच्छिन्नसकलोपाधिकम्। कथं च अस्वस्थावस्थायां (K (n) अन्तावस्थायाम्) विनिवत्तसकलेन्द्रियचेष्टस्य भगवान् स्मृतिपथमुपेयात् इत्युपायमपि उपदिशति तस्मादिति। सर्वावस्थासु व्यावहारिकीष्वपि यस्य भगवत्तत्त्वं न हृदयादपयाति तस्य भगवत्येव सकलकर्मसंन्यासिनः सततं भगवन्मयस्य अवश्यं स्वयमेव भगवत्तत्त्वं स्मृतिविषयतां यातीति। सदातद्भावभावितत्त्वं च अत्र हेतुः। अतः एवाह -- येनैव वस्तुना सदा भावितान्तःकरणः (NK (n) अन्तःकरणभावः) तदेव मरणसमये स्मर्यते तद्भाव एव च प्राप्यते इति। सर्वथा मत्परम एव मत्प्रेप्सः स्यादित्यत्र तात्पर्यम्। न तु यदेवान्ते स्मर्यते तत्तत्त्वमेवावाप्यते (N तत्तदेवावाप्यते) इति। एवं हि सति ज्ञानिनोऽपि यावच्छरीरभाविधातुदोषविकलितचिवृत्तेर्जडतां प्राप्तस्य तामसस्येव गतिः स्यात्। न च अम्युपगमोऽत्र युक्तः प्रमाणभूतश्रुतिविरोधात्। अस्ति हि -- तीर्थे श्वपचगृहे वा नष्टस्मृतिरपि परित्यजन् देहम्।ज्ञानसमकालमुक्तः कैवल्यं याति हतशोकः।।इति (PS 83 )तस्मादेवं विध्यनुवादौ। सदा येन भावितमन्तःकरणं तदेवान्ते प्रयाणानन्तरं प्राप्यते। तच्च स्मर्यते न वा इति नात्र निर्बन्धः। अन्वाचयश्चायम् अपिशब्देन सूचितः। स्मरणस्य असर्वथाभावं वाशब्दः स्फुटयति। सदा च मत्परमो जनः सर्वथा स्यात् इति तात्पर्यं मुनिरेव प्रकटयति। यदाह -- तस्मात् सर्वेषु कालेषु मानुस्मर इति। तेनेत्थमत्र पदसङ्गतिः -- सदा यं यं भावं स्मरन् कलेबरं त्यजति अन्तेऽपि वा स्मरन् -- वाग्रहणात् अस्मरन् ,वा -- तं तमेवैति। यतोऽसौ सदा तद्भावेन भावितः।अन्ये तु -- कलेवरं त्यजति सति अन्ते कलेवरत्यागक्षणे बन्धुपुत्रादिप्रमात्रगोचरे (SK (n) -- प्रमात्रन्तरागोचरे) श्वासायासहिक्कागद्गदादिचेष्टाचरमभाविनि क्षणे शरीरदार्ढ्यबन्धप्रतनूभावात् देहकृतसुखदुःखमोहबन्धे,(K -- वन्ध्ये) कालांशे देहत्यजनशब्दवाचेय यदेव स्मरति तदेव प्रथमसंविदनुगृहीतम् अस्य रूपं संपद्यते। तादृशे (SN तादृशि) च काले स्मरणस्य कारणं सदा तद्भावभावितत्त्वमिति। त्यजति इति सप्तमी योज्या इति। प्राक्तन एवार्थः।ननु एवमन्तकाले किं प्रयोजनं तत्स्मरणेन क एवमाह प्रयोजनम् इति किंतु वस्तुवृत्तोपनतमेव तद्भवति तस्मिन्नन्त्ये क्षणे।ननु पुत्रकलत्रबन्धुभृतेः शिशिरोदकपानादेर्वा अन्त्ये क्षणे दृष्टं स्मरणम् इति तद्भावापत्तिः स्यात् मैवम्। न हि सोऽन्त्यः क्षणः स्फुटदेहावस्थानात्। न हि असावन्त्यः क्षणः अस्मद्विवक्षितो भवादृशैर्लक्ष्यते। तत्र त्वन्त्ये क्षणे येनैव रूपेण भवितव्यं तत्संस्कारस्य दूरवर्त्तिनोऽपि -- जातिदेशकालव्यवहितानामपि (SN omit जाति also the following compound word स्मृति,etc.) आनन्तर्यम् स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्त्वात् (YS IV 9.)इति न्यायेन प्रबोधेन भाव्यम्। तद्वशात् तत्स्मरणं तत्स्मृत्या तद्भावप्राप्तिः। कस्य चित्तु देहस्य स्वस्थावस्थायामपि तदेव काकतालीयवशाद्व्यज्यते। यथा मृगादेः पुराणे वर्णनं तत्कृतं तु मृगत्वम्। अत एव प्रयाणकालेऽपि च माम् (VII30 ) इत्यादौ अपि च इति ग्रहणम्। ये हि सदा भगवन्तं भावयन्ति,एवंभूता भविष्यामः इति तेषाम्तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी (YS I 50 )इति न्यायेन तस्यामलक्ष्यायामन्तदशायां संस्कारान्तरापहस्तनेन तत्संस्कारकृते तत्तत्त्वस्मरणे,देहसद्भावक्षणकृते च तस्य स्मरणे ( omits देहसद्भाव -- स्मरणे) अनन्तरं देहविनिपातक्षणे एव कालसंस्कारनिवृत्तेः तदिदमित्यादिवेद्यविभागानवभासात् संविन्मात्रसतत्त्वपरमेश्वरस्वभावतैव भवति (CA adds इति श्रीमदभिनवगुप्तगुरूणां संमतम् ( संस्मृतम्) after भवति) इत्यलम् ( इत्यलं बहुना)। असंशयमिति -- नात्र संदेग्धव्यमिति [तात्पर्यम्]।
।।8.6 -- 8.7।।ननु कलेवरत्यागस्यान्ताव्यभिचारादन्त इति व्यर्थमित्यत आह -- स्मरन्निति। नान्त इत्येतत्कलेवरं त्यजतीत्यस्य विशेषणं येन व्यर्थं स्यात् किन्तु अन्ते स्मरन्निति स्मरणस्यैव तत्रापि किं प्रयोजनं इति चेत् उच्यतेलक्षणहेत्वोः क्रियायाः [अष्टा.3।2।126] इति लक्षणेऽपि शतुर्विधानात्।स्मरन्पुरुषः कलेवरं त्यजति इति स्मरणकलेवरत्यागयोर्भिन्नकालत्वेऽपि न कश्चिच्छब्दविरोध इति मन्दमतेः शङ्का स्यात् सा मा भूदित्येवमर्थमन्त इति स्मरणस्य विशेषणमुपात्तम् तेनात्र स्मरणकलेवरत्यागयोरेककालत्वसिद्धिरिति।मन्दमतेः इत्यस्य कृत्यमाह -- सुमतेरिति। कुतः इत्यत आह -- स्मरन्निति।लटः शतृशानचौ [अष्टा.3।2।124] इति लडादेशत्वेनापि शतुर्विधानमस्ति स च लडिति वर्तमाने पुनर्लङ्ग्रहणसामर्थ्यात्क्वचित् प्रथमासामानाधिकरण्येऽपि भवति लक्षणे विहिताच्च ल़डादेशो बलीयान्। तत्र क्रियाया इत्युपपदसापेक्षत्वात् अस्यानपेक्षत्वात्। अप्रथमासमानाधिकरणे इत्यस्यातिप्रसक्तिपरिहारमात्रार्थत्वात्। तथा च बलवतो ग्राह्यत्वेस्मरंस्त्यजति इत्यस्य स्मरति च त्यजति चेत्यर्थः स्यात्। एवं चान्तः इत्यनुक्ते़ऽपि,स्मरणत्यागयोरेककालीनत्वप्रतीतेः सुमतेर्नैव शङ्कावकाश इति भावः।ननु दुर्मतिरपि शाब्दं न्यायं जानात्येव अन्यथा शास्त्रे नाधिक्रियेत केवलमध्यात्मविषये न प्रवीणः तत्कथं तस्याप्येषा शङ्का स्यात् ततश्च तं प्रत्यपि अन्त इत्येतत् व्यर्थमित्यत आह -- दुर्मतेरिति। दुर्मतेर्भविष्यति शङ्का भिन्नकालत्वविषया। कुतः मरणकाले महद्दुःखं जायते दुःखस्य च संस्कारविलोपहेतुत्वं प्रसिद्धम् अतो दुःखात्कारणात् मूर्छितो न स्मरंस्त्यजति। कलेवरत्यागसमये स्मरणमसम्भवीति यावत्। एतामनुपपत्तिं पश्यन् बलवन्तमपि लडादेशं विहाय लक्षणार्थमेव हि मन्यत इति भावः। ननु सुमतेरप्येवं शङ्का स्यादेव कथं चेयं शङ्का तत्त्वप्रतीतिरेवेति चेत् न अज्ञानिन एव देहाभिमानिनो देहत्यागमात्मत्यागमिव मन्यमानस्य मरणकाले दुःखं भवति तदपि मरणक्षणात्पूर्वमेव ज्ञानी तु सर्वदा देहं हेयमेव मन्यमानो न मनागपि दुःखायते किन्तु विशिष्टमेव तस्योत्क्रमणामत्यध्यात्मशास्त्रमनुसन्दधानस्य सुमतेः शङ्कानवकाशात्। किं तदध्यात्मशास्त्रं इत्यत आह -- त्यजन्निति। कश्चिद्विद्वान्। अविद्वानपि तत्काले तस्येति मरणवैशिष्ट्यमात्रपरम् न त्वन्त इत्येतत् स्मरणविशेषणं चेत् तदासदा तद्भावभावितः [8।6] इत्यनेनैव गतार्थं स्यात् अन्यथा तद्व्यर्थं भवेदित्यत आह -- सदेति। अन्तकालस्मरणमेव तत्प्राप्तिसाधनम्। न च तदकस्माद्भवति अतः तदुपायत्वेन सदा तद्भावभावितत्वमुच्यत इत्यर्थः। कथमित्यतो यथाऽयं तदुपायः स्यात् तथा व्याचष्टे -- भाव इति। तथाऽभिधानादिति स्याद्भावोऽन्तर्गतं मन इत्येवरूपादभिधानादित्यर्थः। वासितत्वं संस्कृतत्वम्। तस्मिन् भावस्तद्भावस्तेन भावित इति मनोधर्मेणात्मोपचर्यते।
।।8.7।।यस्मादेवं पूर्वस्मरणाभ्यासजनिताऽन्त्या भावनैव तदानीं परावशस्य देहान्तरप्राप्तौ कारणम् तस्मान्मद्विषयकार्यभावनोत्पत्त्यर्थं सर्वेषु कालेषु पूर्वमेवादरेण मां सगुणमीश्वरमनुस्मर चिन्तय। यद्यन्तःकरणाशुद्धिवशान्न शक्नोषि सततमनुस्मर्तुं ततोऽन्तःकरणशुद्धये युध्य च। अन्तःकरणशुद्ध्यर्थं युद्धादिकं स्वधर्मं कुरु। युध्येति युध्यस्वेत्यर्थः। एवंच नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठानेनाशुद्धिक्षयान्मयि भगवति वासुदेवेऽर्पिते संकल्पाध्यवसायलक्षणे मनोबुद्धी येन त्वया स त्वमीदृशः सर्वदा मच्चिन्तनपरः सन्मामेवैष्यसि प्राप्यस्यसि। असंशयो नात्र संशयो विद्यते। इदं च सगुणब्रह्मचिन्तनमुपासकानामुक्तं तेषामन्त्यभावनासापेक्षत्वात्। निर्गुणब्रह्मज्ञानिनां तु ज्ञानसमकालमेवाज्ञाननिवृत्तिलक्षणाया मुक्तेः सिद्धत्वान्नास्त्यन्त्यभावनापेक्षेति द्रष्टव्यम्।
।।8.7।।अतः सदा त्वं मद्भावयुक्तो भवेत्याह -- तस्मादिति। तस्मात् पूर्वोक्तात् कारणात् सर्वेषु कालेषु लौकिकवैदिकक्रियायोग्येषु मय्यर्पितं मनश्चाञ्चल्यदोषनिवारणार्थं बुद्धिरन्यत्र व्यवसायदोषनिवारणार्थं येन तादृशः सन् मामनुस्मर चिन्तय। अनुस्मरणेन मया कृपया सर्वदा त्वं स्मर्यसे तस्मात्सर्वदा मत्स्मरणं फलरूपं भविष्यतीति भावो व्यञ्जितः। युद्ध्य च युध्यस्व सद्भावनया मदाज्ञया युद्धमपि कुर्वित्यर्थः। एवमनुस्मरणेन असंशयः सन्देहरहितः सन् मामेव एष्यसीत्यर्थः। असंशयः अत्र च सन्देहो नास्तीति भावः।
।।8.7।। --,तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर यथाशास्त्रम्। युध्य च युद्धं च स्वधर्मं कुरु। मयि वासुदेवे अर्पिते मनोबुद्धी यस्य तव स त्वं मयि अर्पितमनोबुद्धिः सन् मामेव यथास्मृतम् एष्यसि आगमिष्यसि असंशयः न संशयः अत्र विद्यते।।किञ्च --,
।।8.7।।यत एवं तस्मात्त्वमपि सर्वकालेषु मामनुस्मरश्रीकृष्णः शरणं मम इति। एवं योगेन स्वकर्मकरणमपि तव श्रेय इत्याह -- युद्ध्य चेति। तथा मय्यर्पितमनोबुद्धिरत्रमनोबुद्धिः इत्युक्त्या सङ्कल्पव्यवसायावपि मय्येव विधेयाविति द्योतनाय। एवं च मामेव प्राप्स्यसि नाक्षरादिकमत्र न संशयः।