BG - 8.10

प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।8.10।।

prayāṇa-kāle manasāchalena bhaktyā yukto yoga-balena chaiva bhruvor madhye prāṇam āveśhya samyak sa taṁ paraṁ puruṣham upaiti divyam

  • prayāṇa-kāle - at the time of death
  • manasā - mind
  • achalena - steadily
  • bhaktyā - remembering with great devotion
  • yuktaḥ - united
  • yoga-balena - through the power of yog
  • cha - and
  • eva - certainly
  • bhruvoḥ - the two eyebrows
  • madhye - between
  • prāṇam - life airs
  • āveśhya - fixing
  • samyak - completely
  • saḥ - he
  • tam - him
  • param puruṣham - the Supreme Divine Lord
  • upaiti - attains
  • divyam - divine

Translation

At the time of death, with an unwavering mind, endowed with devotion, by the power of Yoga, fixing the whole life-breath in the middle of the two eyebrows, he reaches that resplendent Supreme Person.

Commentary

By - Swami Sivananda

8.10 प्रयाणकाले at the time of death? मनसा with mind? अचलेन unshaken? भक्त्या with devotion? युक्तः joined? योगबलेन by the power of Yoga? च and? एव only? भ्रुवोः of the two eyrows? मध्ये in the middle? प्राणम् Prana (breath)? आवेश्य having placed? सम्यक् thoroughly? सः he? तम् that? परम् Supreme? पुरुषम् Purusha? उपैति reaches? दिव्यम् resplendent.Commentary The Yogi gets immense inner strength and power of concentration. His mind becomes ite steady through constant practice of concentration and meditation. He practises concentration first on the lower Chakras? viz.? Muladhara? Svadhishthana and Manipura. He then concentrates on the lotus of the heart (Anahata Chakra). Then he takes the lifreath (Prana) through the Sushumna and fixes it in the middle of the two eyrows. He eventually attains the resplendent Supreme Purusha (Person) by the above Yogic practice.This is possible for one who has devoted his whole life to the practice of Yoga.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।8.10।। व्याख्या --प्रयाणकाले मनसाचलेन ৷৷. स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्--यहाँ भक्ति नाम प्रियताका है; क्योंकि उस तत्त्वमें प्रियता (आकर्षण) होनेसे ही मन अचल होता है। वह भक्ति अर्थात् प्रियता स्वयंसे होती है, मन-बुद्धि आदिसे नहीं। अन्तकालमें कवि, पुराण, अनुशासिता आदि विशेषणोंसे (पीछेके श्लोकमें) कहे हुए सगुण-निराकार परमात्मामें भक्तियुक्त मनुष्यका मन स्थिर हो जाना अर्थात् सगुण-निराकार-स्वरूपमें आदरपूर्वक दृढ़ हो जाना ही मनका अचल होना है।पहले प्राणायामके द्वारा प्राणोंको रोकनेका जो अधिकार प्राप्त किया है, उसका नाम 'योगबल' है। उस योगबलके द्वारा दोनों भ्रुवोंके मध्यभागमें स्थित जो द्विदल चक्र है, उसमें स्थित सुषुम्णा नाड़ीमें प्राणोंका,अच्छी तरहसे प्रवेश करके वह (शऱीर छोड़कर दसवें द्वारसे होकर) दिव्य परम पुरुषको प्राप्त हो जाता है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।8.10।। इस श्लोक का केवल वाच्यार्थ लेकर प्रायः इसे विपरीत रूप से समझा जाता हैं जो कि वास्तव में इसका तात्पर्य नहीं है।गीता में प्रस्तुत प्रकरण का विषय है एकाग्र चित्त से परम पुरुष का ध्यान। अतः प्रयाणकाल से अभिप्राय अहंकार की मृत्यु के क्षण से समझना चाहिए। ध्यान साधना के द्वारा जब सजग रहकर शरीर मन और बुद्धि से हुए तादात्म्य को पूर्णतया निवृत्त किया जाता है तब साधक आन्तरिक शान्ति के स्थिर क्षण का अनुभव करता है। उस समय निश्चल मन से इस श्लोक में उपदिष्ट साधना का उसे पालन करना चाहिए।यहाँ भक्ति शब्द से सामान्य संसारी जनों की व्यापारिक पद्धति की भक्ति नहीं समझनी चाहिए। ईश्वर के लिए वह परम प्रेम जिसमें न किसी प्रकार की कामना है और न अपेक्षा जो प्रेम केवल प्रेम के लिए ही है भक्ति कहलाता है। प्रेम का अर्थ है अपने प्रियतम से वह तादात्म्य जिसमें प्रियतम के सुख और दुःख अपने स्वयं के ही सुखदुःख अनुभव होते हैं। संक्षेप में प्रेमी और प्रेमिका भक्त और ईश्वर परस्पर एकरूप हो जाते हैं। इसलिए श्री शंकराचार्य भक्ति का लक्षण बताते हैं स्वस्वरूपानुसन्धान भक्ति कहलाती है अर्थात् जीव का अपने सत्यस्वरूप के साथ एकत्व भक्ति है।प्रस्तुत श्लोक के सन्दर्भ में साधक को दी गई सबसे महत्व की सूचना यह है कि उसका ध्यानाभ्यास आत्मा के साथ एकरूप होने की तत्परता से युक्त हो। आत्मा का स्वरूप पूर्व श्लोक में विस्तार से बताया जा चुका है। आन्तरिक शान्ति के समय जब अहंकार की मृत्यु होती है तब साधक को आत्मस्वरूप में स्थित होकर रहना चाहिए।योगबलेन इस शब्द से किसी गुप्त रहस्यमयी कुण्डलिनी शक्ति के विषय में हम नहीं कह रहे हैं जिसके विषय में गुप्तता रखी जाती है और ईश्वर के भक्तों को भी सामान्यतः उसका रहस्य प्रकट नहीं किया जाता। योगबल से तात्पर्य साधक के उस बल से है जो उसे दीर्घकाल तक नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करने के फलस्वरूप प्राप्त होता है। यह वह आन्तरिक शक्ति है जो मन के विषयों से तथा तज्जनित विक्षेपों से निवृत्त होने पर और बुद्धि के परम सत्य में स्थिर होने से प्राप्त होती है और निरन्तर समृद्ध होती जाती है।अल्पकाल में ही साधक अपने में ही मानसिक सन्तुलन रूपी सम्पत्ति और एक अवर्णनीय कार्यकुशलता को पाता है जिनकी सहायता से पूर्ण तत्परता के साथ ध्यान में वह एक चित्त हो जाता है। ध्यानाभ्यास में रत योगी के सम्पूर्ण प्राण उसके ध्यानबिन्दु में केन्द्रित हो जाते हैं जैसे यहाँ कहा गया है कि भ्रकुटी के मध्य में। यह भाग स्थिर विचार का स्थान माना जाता है।वेदान्त में प्राण से तात्पर्य केवल वायु से न होकर शरीर के विभिन्न अंगों में विभिन्न रूप से व्यक्त हो रही जीवनशक्ति से है। इस जीवनशक्ति (प्राण) का पाँच कार्यों के अनुसार पाँच विभागों में वर्गीकरण किया गया है जैसे प्राण विषय ग्रहण की क्रिया अपान मल विसर्जन व्यान सम्पूर्ण शरीर में रक्त आदि प्रवाहित करना समान पाचन क्रिया और उदान जिसके कारण हममें वह क्षमता होती है कि वर्तमान से परे भी ज्ञान को हम समझ सकें। इनके द्वारा हमारी बहुत सी शक्ति बिखर जाती है जो ध्यानाभ्यास के समय एक स्थान पर कुछ समय के लिए केन्द्रित हो जाती है। ध्यानमार्ग पर चलने वाले साधक के लिए तीव्र गति से की जाने वाली किसी शारीरिक साधना की आवश्यकता नहीं होती।ऐसे गहन ध्यान के क्षण में जिस साधक का मन पूर्णतया शान्त और निश्चल हो जाता है योगबल से प्राण भ्रकुटी के मध्य स्थित हो जाते हैं और जो परम श्रद्धा एवं उत्साह के साथ ध्येय आत्मतत्त्व के साथ एक रूप हो जाता है वह साधक उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।ओंकार पर किये जाने वाले ध्यान की प्रस्तावना के रूप में अगला श्लोक है --

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।8.10।।इतश्च भगवदनुस्मरणं सफलत्वादनुष्ठेयमित्याह -- किञ्चेति। कदा तदनुस्मरणे प्रयत्नातिरेकोऽभ्यर्थ्यते तत्राह -- प्रयाणकाल इति। कथं तदनुस्मरणमित्युपकरणकलापप्रेक्ष्यमाणं प्रत्याह -- मनसेति। योऽनुस्मरेत्स किमुपैति तत्राह -- स तमिति। मरणकाले क्लेशबाहुल्येऽपि प्राचीनाभ्यासप्रसादासादितबुद्धिवैभवो भगवन्तमनुस्मरन्यथास्मृतमेव देहाभिमानविगमानन्तरमुपागच्छतीत्यर्थः। भगवदनुस्मरणस्य साधनं मनसैवानुद्रष्टव्यमिति श्रुत्युपदिष्टमाचष्टे -- मनसेति। तस्य चञ्चलत्वान्न स्थैर्यमीश्वरे सिध्यति तत्कथं तेन तदनुस्मरणमित्याशङ्क्याह -- अचलेनेति। ईश्वरानुस्मरणे प्रयत्नेन प्रवर्तितं विषयविमुखं तस्मिन्नेवानुस्मरणयोग्यपौनःपुन्येन प्रवृत्त्या निश्चलीकृतं ततश्चलनविकलं तेनेति व्याचष्टे -- अचलेनेति। संप्रत्यनुस्मरणाधिकारिणं विशिनष्टि -- भक्त्येति। परमेश्वरे परेण प्रेम्णा सहितो विषयान्तरविमुखोऽनुस्मर्तव्य इत्यर्थः। योगबलमेव स्फोरयति -- समाधिजेति। योगः समाधिश्चित्तस्य विषयान्तरवृत्तिनिरोधेन परस्मिन्नेव स्थापनं तस्य बलं संस्कारप्रचयो ध्येयैकाग्र्यकरणं तेन तत्रैव स्थैर्यमित्यर्थः। चकारसूचितमन्वयमन्वाचष्टे -- तेन चेति। यत्तु कया नाड्योत्क्रामन्यातीति। तत्राह -- पूर्वमिति। चित्तं हि स्वभावतो विषयेषु व्यापृतं तेभ्यो विमुखीकृत्य हृदये पुण्डरीकाकारे परमात्मस्थाने यत्नतः स्थापनीयम्।अथ यदिदमस्मिन्ब्रह्मपुरे इत्यादिश्रुतेस्तत्र चित्तं वशीकृत्यादावनन्तरं कर्तव्यमुपदिशति -- तत इति। इडापिङ्गले दक्षिणोत्तरे नाड्यौ हृदयान्निःसृते निरुध्य तस्मादेव हृदयाग्रादूर्ध्वगमनशीलया सुषुम्नया नाड्या हार्दं प्राणमानीय कण्ठावलम्बितस्तनसदृशं मांसखण्डं प्रापय्य तेनाध्वना भ्रुवोर्मध्ये तमावेश्याप्रमादवान्ब्रह्मरन्ध्राद्विनिष्क्रम्य कविं पुराणमित्यादिविशेषणं परमपुरुषमुपगच्छतीत्यर्थः। भूमिजयक्रमेणेत्यत्र भूम्यादीनां पञ्चानां भूतानां जयो वशीकरणं तस्य तस्य भूतस्य स्वाधीनचेष्टावैशिष्ट्यं तद्द्वारेणेत्येतदुच्यते। स तमित्यादि व्याचष्टे -- स एवमिति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।8.10।।कदा तदाऽनुस्मरणे प्रयत्नातिरेकोऽभ्यर्थते तदाह -- प्रयाणकालेऽन्तकाले अचलेन एकाग्रेण मनसा तं पुरुषं योऽनुस्मरेदित्यनुवर्तते। कीदृशः। भक्त्या परमेस्वरविषयेण परमेण प्रेम्णा युक्तः। योगस्य साधिर्बलेन तज्जनितसंस्कारसमूहेन व्युत्थानसंस्कारविरोधिना च युक्तम्। एवं प्रथमं हृदयपुण्डरीके वशीकृत्य तत ऊर्ध्वगामिन्या सुषुम्नया नाङ्या गुरुपदिष्टमार्गेण भूमिजयक्रमेण भ्रुवोर्मध्ये आज्ञाचके प्राणमावेश्य स्थापयित्वा सभ्यगप्रमत्तो ब्रह्मरन्ध्रा समाधिजसंस्कारजनितं चित्तस्थैर्यलक्षणं तेन च युक्तः पूर्वं हृदयपुण्डरीके चित्तं वशीकृत्य तत ऊर्ध्वगामिन्या नाङ्या भूमिजय क्रमेण भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य स्थापयित्वा सभ्यगप्रमत्तः सन् स एवंविद्वान् यः कर्वि पुराणमित्यादिलक्षणः तं परं पुरुषमुपैति प्रतिपद्यते।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।8.10।।वायुजयादियोगयुक्तानां मृतिकाले कर्तव्यमाह विशेषतः -- प्रयाणकाल इति। वायुजयादिरहितानामपि ज्ञानभक्तिवैराग्यादिसम्पूर्णानां भवत्येव मुक्तिः। तद्वतां त्वीषज्ज्ञानाद्यसम्पूर्णनामपि निपुणानां तद्बलात्कथञ्चिद्भवतीति विशेषः। उक्तं च भागवते [3।5।4546।]पानेन ते देव कथासुधायाः प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये। वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोधं यथाऽञ्जसा त्वापुरकुण्ठधिष्ण्यम्। तथाऽपरे त्वात्मसमाधियोगबलेन जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम्। त्वामेव धीराः पुरुषं विशन्ति तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते इति।ये तु तद्भाविता लोका (केह्ये) एकान्तित्वं समाश्रिताः। एतदभ्यधिकं तेषां तत्तेजः प्रविशन्त्युत [मा.भा.12।334।44] इति च मोक्षधर्मे।सम्पूर्णानां भवेन्मोक्षो विरक्तिज्ञानभक्तिभिः। नियमेन तथापीरजयादियुतयोगिनाम्। वश्यत्वान्मनसस्त्वीषत्पूर्वमप्याप्यते ध्रुवम् इति च व्यासयोगे।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।8.10।।उपासनायाः फलमाह -- प्रयाणेति। प्रयाणकाले मनसाऽचलेन वृत्त्यन्तरवर्जितेन भक्त्या भगवति वासुदेवे आराध्यत्वबुद्ध्या युक्तो योगबलेन योगो मनःप्राणेन्द्रियक्रियानिरोधो हृदयपुण्डरीके तेषां वशीकरणमित्यर्थः। तस्यैव बलेन च युक्तो भूमिकाजयक्रमेण प्रागेव मूलाधारादिब्रह्मरन्ध्रान्तस्थानेषु आरोहावरोहक्रमेण संचारितपवनोऽन्तकाले भ्रुवोर्मध्ये आज्ञाचक्रे प्राणमावेश्य सुषुम्नया नाड्या मूलाधारादुत्थापनपूर्वकं सम्यक् निवेश्य स्थापयित्वा। स्थापनप्रयोजनं तु अन्यविस्मरणपूर्वकं दिव्यपुरुषचिन्तनम्। तच्च भ्रूमध्यादुपर्युन्नीयमाने वायौ मनो मूर्च्छामापद्यत इति तस्यामवस्थायां न भवतीत्यन्त्यप्रत्ययस्तत्रैव संपाद्यस्ततोऽर्चिरादिमार्गपर्वणा अमानवस्य पुरुषस्य स्थानविशेषप्रापकस्य प्राप्यस्थानस्य च तस्मिन्नेव स्मरणं कर्तव्यम्। तद्वासनावासितं मनो भ्रूमध्याद्योगिना ऊर्ध्वया नाड्या उत्क्षिप्ते प्राणे मुक्तेषुवद्ब्रह्माण्डखर्परं भित्त्वा प्रचलिते सति लब्धवृत्तिकं भूत्वा पूर्वसंस्कारप्राबल्याद्योगमाहात्म्याच्च दिव्योपाध्युपेतमर्चिरादिपर्वदेवताभिरभिपूज्यमानमुत्तरोत्तरं स्थानं प्रत्यतिवाह्यमानममानवेन च पुरुषेण संगच्छमानं तेन च यथाभिलषितं स्थानं प्रापितमात्मानं पश्यति। तदिदमुक्तं भ्रुवोर्मध्ये सम्यक् प्राणमावेश्येति। स एवं कृत्वा योगी कविं पुराणमित्युक्तलक्षणं परं पुरुषं हिरण्यगर्भाख्यं सर्वस्य भूतजातस्य जनयितारं नारायणादिशब्दप्रतिपाद्यमुपैति समीपे प्राप्नोति। तल्लोकं प्राप्नोतीत्यर्थः। नहि पौराणिकानामिव वैदिकानां मते ब्रह्मविष्णुरुद्रलोकानामुपर्युपरि कल्पनास्ति किंतर्हि सर्वे हिरण्यगर्भलोकाख्ये सत्यलोके एवान्तर्भवन्ति।पराहि सोपासनकर्मोर्जितिर्हिरण्यगर्भप्राप्यता इति बृहदारण्यके तद्भाष्यादौ च स्पष्टम्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।8.10।।कविं सर्वज्ञं पुराणं पुरातनम् अनुशासितारं विश्वस्य प्रशासितारम् अणोः अणीयांसं जीवाद् अपि सूक्ष्मतरं सर्वस्य धातारं सर्वस्य स्रष्टारम् अचिन्त्यरूपं सकलेतरविसजातीयस्वरूपम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् अप्राकृतस्वासाधारणदिव्यरूपम् तम् एवंभूतम् अहरहः अभ्यस्यमानभक्तियुक्तयोगबलेन आरूढसंस्कारतया अचलेन मनसा प्रयाणकाले भ्रुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य संस्थाप्य तत्र भ्रुवोर्मध्ये दिव्यं पुरुषं यः अनुस्मरेत् स तम् एव उपैति तद्भावं याति तत्समानैश्वर्यो भवति इत्यर्थः।अथ कैवल्यार्थिनां स्मरणप्रकारम् आह --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।8.10।।सप्रपञ्चप्रकृतिं भित्त्वा यस्तिष्ठति एवंभूतं पुरुषमन्तकाले भक्तियुक्तो निश्चलेन विक्षेपरहितेन मनसा योऽनुस्मरेत्। मनोनैश्चल्ये हेतुः योगबलेन सम्यक्सुषुम्नामार्गेण भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्येति। स तं परं पुरुषं परात्मस्वरूपं दिव्यं द्योतनात्मकं प्राप्नोति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।। 8.10 क्रान्तदर्शी हि कविरित्युच्यते अत्र तु कविशब्दः ईश्वरविषयत्वात् सर्वदर्शित्वपर इत्यभिप्रायेणाह -- सर्वज्ञमिति। पुराणशब्देनानादित्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणोक्तंपुरातनमिति। अनुपूर्वः शासिर्विविच्य ज्ञापनार्थ इत्येतावन्मात्रपरत्वव्युदासायविश्वस्य प्रशासितारमित्युक्तम्। ईश्वरस्य सतोऽनुशासनमाज्ञापनभेवेति भावः। अनुशासनं कस्यत्याकाङ्क्षायांसर्वस्य धातारम् इत्यत्र सर्वस्येति पदमाकर्षणीयम् विशेषनिर्देशाभावाद्वा सर्वविषयत्वमित्यभिप्रायेण -- विश्वस्येत्युक्तम्। एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठतः [बृ.उ.3।उक्तप्रकास्येश्वरस्वरूपस्य सामान्यतो दृष्टैस्तर्कैरसम्भवनीयतां केचिदभिमन्येरन्निति तन्निरासपरम्।अचिन्त्यरूपम् इतिपदमित्यभिप्रायेणाहसकलेतरविसजातीयस्वरूपमिति। वर्णयोगस्य स्वरूपेणाघटनात् प्रमाणसिद्धविलक्षणविग्रहद्वारा तद्योगमाहअप्राकृतेति। येन सूर्यस्तपति तेजसेद्धः [य.तै.ब्रा.3।12।9।7] यस्यादित्यो भामुपयुज्य भाति तस्य भासा सर्वमिदं विभाति [मुं.उ.2।2।10] (तं)तद्देवा ज्योतिषां ज्योतिः [बृ.उ.4।4।16] इत्यादिषु निरतिशयदीप्तियोगः सिद्धः। आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् [य.सं.31।18श्वे.उ.3।8] इति श्रुतिखण्डस्यात्र निबन्धः तम आसीत् [ऋक्सं.8।7।17।3यजुः2।7।9] तमसस्तन्महिनाजायतैकं [यजुः2।4।9] यदा तमः [श्वे.उ.4।18] इत्यादिश्रुत्यन्तरोपलक्षणार्थः। तेनतमसः इति सर्वकारणभूततमोद्रव्यविवक्षा।तमसः परस्तात् इत्यनेन फलितमप्राकृतत्वम् तत एव चाकर्माधीनत्वं नित्यत्वं निरवद्यत्वमित्यादि सूचितम्। एतच्छ्लोकच्छायश्च मानवः श्लोकः -- प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसम -- [णोरपि] -- णीयसाम्। रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्या (त्तं)त्तु पुरुषं परम् -- [मनुः12।122] इति। अनुकूलानां हितरमणीयत्वाद्याकारेण हिरण्यवर्णत्वरुक्माभत्वादिव्यपदेशः। प्रतिकूलदुष्प्रेक्षत्वप्रकाशातिरेकादिविवक्षया आदित्यवर्णत्वाद्युक्तिः।दिवि सूर्यसहस्रस्य [11।12] इत्यादि च वक्ष्यति। एतेनादित्यशब्दस्य नित्यचैतन्यप्रकाशपरत्वं तमश्शब्दस्य चाज्ञानविषयत्वं परोक्तं (शं.) निरस्तम्। श्लोकद्वयस्यान्वयं दर्शयति -- तमेवम्भूतमित्यादिना।भक्त्या युक्तो योगबलेन इति पृथङ्निर्देशात् परोक्तप्राणजयबलादिपृथगर्थताप्रतीतिः स्यादिति तदपाकरणाय विशिष्टैकार्थतां दर्शयितुंभक्तियुक्तयोगबलेनेत्युक्तम्। मनसोऽचलत्वे हेतुरिदम् तस्य चावान्तरव्यापारः योग्यपर्याययुक्तशब्देन विवक्षित इत्याहआरूढसंस्कारतयेति।आवेश्य इत्यनेन योगप्रकरणेषूक्तं निश्चलावस्थापनं विवक्षितमित्याहसंस्थाप्येति। अत्र पुरुषध्यानस्यापि भ्रूमध्यमेव देशः देशान्तरानभिधानाद्योगप्रकरणान्तरेषूपदेशाच्च तत्सिद्धेरिति विभाव्योक्तंतत्र भ्रूमध्य इति। तमेवम्भूतं दिव्यं पुरुषम् इत्यन्वयः।तं तमेवैति [8।6] इत्यवधारणदर्शनात्स तं परं पुरुषम् इत्यत्रापितं इतीतरव्यवच्छेदपरमित्यभिप्रायेणाहस तमेवोपैतीति।यः प्रयाति स मद्भावं याति [8।5] इति प्रक्रान्तप्रकार एवात्र विवक्षित इति दर्शयतितद्भावं यातीति। भावप्रधानोऽत्र निर्देश इति भावः। तत्र तादात्म्यादिभ्रमं व्युदस्यतितत्समानैश्वर्यो भवतीत्यर्थ इति। परमसाम्यापत्तिव्यवच्छेदाय समानैश्वर्य इत्युक्तम्। एतेनकविम् इत्यादिभिः सर्वज्ञत्वादयो गुणाः ऐश्वर्यप्रदत्वार्थमनुसन्धेयतयोक्ताः न तु प्राप्यत्वार्थमिति फलितम्। एवमन्तिमकालस्मर्तव्यतया निर्दिष्ट एवाकारः प्रागपि ध्येयतयोक्त इति मन्तव्यम्। एवमुत्तरत्रापि।,

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।8.9 -- 8.10।।कविमिति। प्रयाणेति। एवम् अनुस्मरेदिति। आदित्येति। आदित्यवर्णत्वं वासुदेवतत्त्वस्य [न] परिच्छेदकम्। आकृतिकल्पनादि (N विकल्पनादि) विभ्रान्तिमयमोहतमसः अतीतत्त्वात् रवित्वेनोपमानमित्याशयः। भ्रुवोर्मध्ये इति प्राग्वत्।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।8.10।।उत्तरश्लोकोक्तं सर्वं सर्वोच्चिक्रमिषुसाधारणमिति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- वायुजयादीति। साधका द्विविधाः भक्त्यादिप्रधाना वायुजयादिप्रधानाश्चेत्यतो विशेषणं विशेषत इति। अनेन भक्त्यादीनां साधारण्यमाह। ननु चअनुस्मरेद्यः सतं परं पुरुषमुपैति [श्लो.910] इत्यन्वयादेकस्य वाक्यस्य कथं भिन्नविषयत्वम् उच्यते -- एकस्मिन्नपि वाक्ये योगबलेनैवभ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य इत्येतन्न सर्वविषयमित्येतावन्मात्रमत्र प्रतिपाद्यते। यथा प्रातरुत्थाय इति श्रुतौन भृशं वदेत् इत्यादिकं किञ्चित्साधारणं कि़ञ्चिदसाधारणम्। कुतोऽस्यासाधारण्यं कल्प्यते इत्यत आह -- वायुजयादीति। अतो न तत्सर्वसाधारणमिति शेषः। तर्हि को विशेषोऽन्येषां येन वायुजयादिक्लेशमधिकमनुभवन्ति इत्यत आह -- तद्वतां त्विति। निपुणानां वायुजयादौ। कथञ्चिदल्पेत्यर्थः।,किञ्चिच्छीघ्रं चेत्यपि ग्राह्यम्। अत्र प्रमाणान्याह -- उक्तमिति। यथा यथार्थं बोधम्। धिष्ण्यं मन्दिरम्। इन्द्रियं त्वां विशन्त्येव न तु त इवाञ्जसा। तद्भावितास्तेन भगवता वासिताः। एतन्मुक्तिलक्षणं फलम्। तेजो नारायणाख्यम्। ईरः समीरः। ध्रुवं ब्रह्माप्यते तैः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।8.10।।कदा तदाऽनुस्मरणे प्रयत्नातिरेकोऽभ्यर्थते तदाह -- प्रयाणकालेऽन्तकाले अचलेन एकाग्रेण मनसा तं पुरुषं योऽनुस्मरेदित्यनुवर्तते। कीदृशः। भक्त्या परमेश्वरविषयेण परमेण प्रेम्णा युक्तः। योगस्य समाधेर्बलेन तज्जनितसंस्कारसमूहेन व्युत्थानसंस्कारविरोधिना च युक्तम्। एवं प्रथमं हृदयपुण्डरीके वशीकृत्य तत ऊर्ध्वगामिन्या सुषुम्नया ना़ड्या गुरूपदिष्टमार्गेण भूमिजयक्रमेण भ्रुवोर्मध्ये आज्ञाचक्रे प्राणमावेश्य स्थापयित्वा सम्यगप्रमत्तो ब्रह्मरन्ध्रादुत्क्रम्य स एवमुपासकस्तंकविं पुराणमनुशासितारम् इत्यादिलक्षणं परं पुरुषं दिव्यं द्योतनात्मकमुपैति प्रतिपद्यते।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।8.10।।प्रयाणकाले अन्तकाले मनसा निश्चलेन मनसा सर्वकामरहितेन च पुनः योगबलेनैव संयोगात्मकभावेनैव भ्रुवोर्मध्ये भाग्यस्थाने सन्तं विद्यमानं योऽनुस्मरेद्भगवत्कृतस्मरणानन्तरं स्वार्थप्रकटज्ञानेन स्मरेत् स तस्मिन्नेव प्राणमावेश्य सम्यक् भावात्मकस्वरूपप्राप्त्या परं पुरुषं पुरुषोत्तमं दिव्यं क्रीडात्मकं उपैति समीपे दास्येन प्राप्नोतीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।8.10।। --,प्रयाणकाले मरणकाले मनसा अचलेन चलनवर्जितेन भक्त्या युक्तः भजनं भक्तिः तया युक्तः योगबलेन चैव योगस्य बलं योगबलं समाधिजसंस्कारप्रचयजनितचित्तस्थैर्यलक्षणं योगबलं तेन च युक्तः इत्यर्थः पूर्वं हृदयपुण्डरीके वशीकृत्य चित्तं ततः ऊर्ध्वगामिन्या नाड्या भूमिजयक्रमेण भ्रुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य स्थापयित्वा सम्यक् अप्रमत्तः सन् सः एवं विद्वान् योगी,कविं पुराणम् इत्यादिलक्षणं तं परं परतरं पुरुषम् उपैति प्रतिपद्यते दिव्यं द्योतनात्मकम्।।पुनरपि वक्ष्यमाणेन उपायेन प्रतिपित्सितस्य ब्रह्मणो वेदविद्वदनादिविशेषणविशेष्यस्य अभिधानं करोति भगवान् --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।8.10।।ध्यानप्रकारं कालं चाह -- प्रयाणकाल इति। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्येति। स तं परं पुरुषमुपैति तत्समाकारः सामीप्यरूपमाप्नोति।