मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्। नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।8.15।।
mām upetya punar janma duḥkhālayam aśhāśhvatam nāpnuvanti mahātmānaḥ sansiddhiṁ paramāṁ gatāḥ
Having attained Me, these great souls do not take birth again here—a place of pain and impermanence—but have reached the highest perfection of liberation.
8.15 माम् to Me? उपेत्य having attained? पुनर्जन्म rirth? दुःखालयम् the place of pain? अशाश्वतम् noneternal? न not? आप्नुवन्ति get? महात्मानः Mahatmas or the great souls? संसिद्धिम् to perfection? परमाम् highest? गताः having reached.Commentary Birth is the home of pain or seat of sorrow arising from the body. Study the Garbhopanishad. There the nature of pain? i.e.? how the child is confined in the womb? and how it is pressed during its passage along the vaginal canal and the neck of the womb or uterus? is described. Further it is much affected by the PrasutiVayu (the vital air which is responsible for the delivery of the child).Mahatmas (great souls) are free from Rajas and Tamas.Having attained Me This denotes KramaMukti or gradual liberation. The devotees who pass along the Devayana through the force of their Upasana? attain to Brahmaloka (the world of Brahma the Creator) or Satyaloka (the world of truth? the highest of the seven worlds) and there enjoy all the divine wealth and glory of the Lord and then attain to Kaivalya Moksha (final liberation) through the knowledge of Brahman? along with Brahma during the cosmic dissolution.Mahatmas or great souls who have attained Moksha do not come again to birth. Those who have not attained Me? take birth again in this world.
।।8.15।। व्याख्या--'मामुपेत्य पुनर्जन्म ৷৷. संसिद्धिं परमां गताः'--'मामुपेत्य' का तात्पर्य है कि भगवान्के दर्शन कर ले, भगवान्को तत्त्वसे जान ले अथवा भगवान्में प्रविष्ट हो जाय तो फिर पुनर्जन्म नहीं होता। पुनर्जन्मका अर्थ है--फिर शरीर धारण करना। वह शरीर चाहे मनुष्यका हो, चाहे पशु-पक्षी आदि किसी प्राणीका हो, पर उसे धारण करनेमें दुःख-ही-दुःख है। इसलिये पुनर्जन्मको दुःखालय अर्थात् दुःखोंका घर कहा गया है।मरनेके बाद यह प्राणी अपने कर्मोंके अनुसार जिस योनिमें जन्म लेता है, वहाँ जन्म-कालमें जेरसे बाहर आते समय उसको वैसा कष्ट होता है जैसा कष्ट मनुष्यको शरीरकी चमड़ी उतारते समय होता है। परन्तु उस समय वह अपना कष्ट, दुःख किसीको बता नहीं सकता, क्योंकि वह उस अवस्थामें महान् असमर्थ होता है। जन्मके बाद बालक सर्वथा परतन्त्र होता है। कोई भी कष्ट होनेपर वह रोता रहता है,-- पर बता नहीं सकता। थोड़ा बड़ा होनेपर उसको खाने-पीनेकी चीजें, खिलौने आदिकी इच्छा होती है और उनकी पूर्ति न होनेपर बड़ा दुःख होता है। पढ़ाईके समय शासनमें रहना पड़ता है। रातों जागकर अभ्यास करना पड़ता है तो कष्ट होता है। विद्या भूल जाती है तथा पूछनेपर उत्तर नहीं आता तो दुःख होता है। आपसमें ईर्ष्या, द्वेष, डाह, अभिमान आदिके कारण हृदयमें जलन होती है। परीक्षामें फेल हो जाय तो मूर्खताके कारण उसका इतना दुःख होता है कि कई आत्महत्यातक कर लेते हैं।जवान होनेपर अपनी इच्छाके अनुसार विवाह आदि न होनेसे दुःख होता है। विवाह हो जाता है तो पत्नी अथवा पति अनुकूल न मिलनेसे दुःख होता है। बाल-बच्चे हो जाते हैं तो उनका पालन-पोषण करनेमें कष्ट होता है। लड़कियाँ बड़ी हो जाती हैं तो उनका जल्दी विवाह न होनेपर माँ-बापकी नींद उड़ जाती है, खाना-पीना अच्छा नहीं लगता, हरदम बेचैनी रहती है।वृद्धावस्था आनेपर शरीरमें असमर्थता आ जाती है। अनेक प्रकारके रोगोंका आक्रमण होने लगता है। सुखसे उठना-बैठना, चलना-फिरना, खाना-पीना आदि भी कठिन हो जाता है। घरवालोंके द्वारा तिरस्कार होने लगता है। उनके अपशब्द सुनने पड़ते हैं। रातमें खाँसी आती है। नींद नहीं आती। मरनेके समय भी बड़े भयंकर कष्ट होते हैं। ऐसे दुःख कहाँतक कहें? उनका कोई अन्त नहीं।मनुष्य-जैसा ही कष्ट पशु-पक्षी आदिको भी होता है। उनको शीत-घाम, वर्षा-हवा आदिसे कष्ट होता है। बहुत-से जंगली जानवर उनके छोटे बच्चोंको खा जाते हैं तो उनको बड़ा दुःख होता है। इस प्रकार सभी योनियोंमें अनेक तरहके दुःख होते हैं। ऐसे ही नरकोंमें और चौरासी लाख योनियोंमें दुःख भोगने पड़ते हैं। इसलिये पुनर्जन्मको 'दुःखालय' कहा गया है।
।।8.15।। आत्मानुभूति के द्वारा ज्ञानी पुरुष को प्राप्त लाभ का मूल्यांकन करते हुए यहाँ कहा गया है कि मुझे प्राप्त कर महात्मा जन पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते। तत्त्व चिन्तक दार्शनिकों के अनुसार समस्त दुःखों का मूल है पुनर्जन्म। श्रीकृष्ण भी यहाँ पुनर्जन्म को दुःखालय और अशाश्वत कहते हैं।भारतीय दर्शन के इतिहास में एक बात ध्यान देने योग्य है कि प्रारम्भ में अमृतत्त्व को जीवन का लक्ष्य माना जाता था परन्तु बाद में पुनर्जन्म के अभाव को लक्ष्य स्वीकार किया गया। मनुष्य को सब अनुभवों में मृत्यु का अनुभव सर्वाधिक भयानक प्रतीत होता है। यही कारण है कि प्रारम्भ में साधक का समस्त प्रयत्न और व्याकुलता इस अपरिहार्य मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए थी। जीवन की घटनाओं का सम्यक् अवलोकन और मूल्यांकन करने पर जैसेजैसे उसके ज्ञान में वृद्धि हुई और विचारों में परिपक्वता आयी तब शीघ्र ही अध्यात्म के विचारक ऋषियों ने यह पाया कि जो लोग यह समझ लेते हैं कि जीवन के अनुभवों में मृत्यु भी एक है तो उनके लिए मृत्यु की भयंकरता समाप्त हो जाती है। जीवन के अखण्ड अस्तित्व को मृत्यु काट नहीं सकती। सत्य के विषय में अत्यन्त निष्पक्ष एवं निर्मम भाव से विचार करने वाले ऋषिगण तर्क एवं अनुभव के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि समस्त दुःख जन्म के साथ प्रारम्भ होते हैं। अतः जीवन का लक्ष्य पुनर्जन्म का अभाव होना चाहिए।पुनर्जन्म का स्वप्न और उसके अपरिहार्य कष्ट मिथ्या अहंकार अथवा जीव को ही होते हैं। अजन्मा आत्मा ही जड़ उपाधियों के साथ तादात्म्य से जीवभाव को प्राप्त होता है। बल्ब उपाधि में व्यक्त विद्युत् ही प्रकाश है उस बल्ब के फूट जाने पर कार्यरूप प्रकाश अपने कारणरूप विद्युत् में लीन हो जाता है जबकि विद्युत् एकमेव अद्वितीय सर्वत्र समान रूप से विश्व के सभी बल्बों में प्रकाशित होती है। इसी प्रकार अन्तःकरण की उपाधि से विशिष्ट अथवा परिच्छिन्न आत्मा ही जीव कहलाता है उसको ही जन्म वृद्धि व्याधि क्षय और मृत्यु के सम्पूर्ण दुःख और कष्ट सहने होते हैं। उपाधि के लय होने पर अर्थात् उससे हुए तादात्म्य के निवृत्त होने पर जीव अनुभव करता है कि वह स्वयं ही चैतन्य स्वरूप आत्मा है।आत्मज्ञानी पुरुष जानता है कि उसका मन और बुद्धि से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। जैसै जाग्रत् पुरुष का स्वप्न में देखे हुए पत्नी और पुत्रों से कोई सम्बन्ध नहीं होता ठीक वैसे ही आत्मस्वरूप के प्रति जाग्रत् होने पर अहंकार (जीव) अपने दुःखपूर्ण परिच्छिन्न जीवन के साथ ही समाप्त हो जाता है। ऐसे महात्मा जनों को इस जगत् में पुनर्जन्म लेकर दुःखों को भोगने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।जिस पुरुष ने जीवन पर्यन्त सतत आत्मानुसंधान की साधना से इन्द्रियों का संयम करना सीख लिया हो और मन को हृदय में तथा प्राण को बुद्धि में स्थापित कर लिया हो ऐसा पुरुष अनन्त नित्य स्वरूप को साक्षात् आत्मभाव से अनुभव करता है। तत्पश्चात् वह पुनः किसी देह विशेष में जन्म लेकर परिच्छिन्न विषयों में अनन्त सुख की व्यर्थ खोज नहीं करता।तब क्या ऐसे लोग हैं जो परा गति को प्राप्त न होकर पुनः जगत् को लौटते हैं इस पर कहते हैं --
।।8.15।।किं त्वां प्राप्तास्त्वय्येवावतिष्ठन्ते किं वा पुनरावर्तन्ते चन्द्रलोकादिवेति संदेहात्पृच्छति -- तवेति। तत्रोत्तरश्लोकेन निश्चयं दर्शयति -- उच्यत इति। ईश्वरोपगमनं न सामीप्यमात्रमिति व्याचष्टे -- मद्भावमिति। पुनर्जन्मनोऽनिष्टत्वं प्रश्नद्वारा स्पष्टयति -- किमित्यादिना। महात्मत्वं प्रकृष्टसत्त्ववैशिष्ट्यम्।,यतयस्तस्मिन्नेवेश्वरे समुत्पन्नसम्यग्दर्शिनो भूत्वेति शेषः। भगवन्तमुपगतानामपुनरावृत्तौ ततो विमुखानामनुपजातसम्यग्धियां पुनरावृत्तिरर्थसिद्धेत्याह -- ये पुनरिति।
।।8.15।।किं त्वां प्राप्ताश्चन्द्रलोकादिव पुनरावर्तन्ते उत नेति संदिहानं प्रत्याह -- मामिति। मामीश्वरमुपेत्य मद्भावं मत्सारुप्यादिकमापद्य पुनर्जन्म पुररुत्पत्तिं पुनरावृत्तिमितियावत्। किंविशिष्टं पुनर्जन्म न प्राप्तनुवन्तीति तद्विशेषणमाह। दुःखालयं दुःखानामाध्यात्मिकाधिकाधिभौतिकाधिदैविकानामालयमालीयन्ते दुःखान्यस्मिन्निति दुःखालयम्। दुःखाश्रयमिति यावत्। तत्राध्यात्मिकं द्विविधं शारीरं मानसं च। वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यनिमित्तं शारीरं कामक्रोधलोभमोहभयोर्ष्याविषयविशेषादर्शनादिनिबन्धनं मानसं। सर्वं चैतदान्तरोपायसाध्यत्वादाध्यात्मिकं मनुष्यपशुमृगपक्षिसरीसृपस्थावरनिमित्तामाधिभौतिकं यक्षराक्षसविनायकग्रहाद्यावेशनिबन्धनमाधिदैविकं। आधिभौतिकमादिदैविकं च दुःखं बाह्योपायसाध्यं पुनर्जन्मनो दुःखानां चालयं स्थानमिति। अस्मिन्पक्षेमामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते इति वक्ष्यमाणाननुरोधो विशेष्याध्याहारापत्त्यादि दोषश्चातपतत्यत आचार्यौरयं पक्ष उपेक्षतिः। गर्भवासयोनिद्वारनिर्गमनादिदुःखानां दुःखत्रयेष्वन्तर्भावो बोध्यः। न केवलं दुःखालयं अशाश्वतं अशश्वद्भवमनवस्थितरुपं चेदृशं पुनर्जन्म नाप्नुवन्ति। यतः महात्मानः विशुद्धचित्ताः तस्मिन्परमेश्वरे समुत्पन्नसम्यग्दर्शनाः संसिद्धिं परमां प्रकृष्टां मोक्षाभिधां गताः प्राप्ताः परमां सिद्धिं मोक्षं गता अगता अपि पत्यासन्नत्वात्गता एव। यथा ब्रह्मलोकगतान्प्रकृत्य स्मर्यतेब्रह्मणा सह ते सर्वे संप्राप्ते प्रतिसंचरे। परस्यान्ते कृतात्मानः प्रविशन्ति परं पदम्।। इति। प्रतिसंचरे ब्रह्मप्रलये। परस्य चतुर्मुखस्यान्ते नाशे इत्यन्ये। अस्मिन्पक्षे आब्रह्मभवनादित्यत्तरश्लोकवि रोधोमुख्यार्थपरित्यागश्च बोध्यः।
।।8.15।।तत्प्राप्तिं स्तौति -- मामिति। परमां सिद्धिं गता इति हि तत्र हेतुः।
।।8.15।।त्वल्लाभेऽपि किं स्यादत आह -- मामिति। मामुपेत्य पुनर्द्वितीयवारं जन्म नाप्नुवन्ति। यज्जन्म दुःखानामालयभूतं मूढदृष्ट्या किंचित्सुखालयत्वेऽप्यशाश्वतं नश्वरम्। तुच्छमित्यर्थः। के नाप्नुवन्ति। महात्मानो योगेन जितचित्ताः। अतएव परमां संसिद्धिं मोक्षं गताः। अगता अपि प्रत्यासन्नत्वाद्गता एव। तथा ब्रह्मलोकगतान्प्रकृत्य स्मर्यतेब्रह्मणा सह ते सर्वे संप्राप्ते प्रतिसंचरे। परस्यान्ते कृतात्मानः प्रविशन्ति परं पदम् इति। प्रतिसंचरे ब्राह्मे प्रलये। परस्य चतुर्मुखस्य अन्ते नाशे।
।।8.15।।मां प्राप्य पुनः निखिलदुःखालयम् अस्थिरं जन्म न प्राप्नुवन्ति यत एते महात्मानः महामनसो यथावस्थितमत्स्वरूपज्ञानाः अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मया विना आत्मधारणम् अलभमाना मयि आसक्तमनसो मदाश्रयाः माम् उपास्य परमसंसिद्धिरूपं मां प्राप्ताः।ऐश्वर्यगतिं प्राप्तानां भगवन्तं प्राप्तानां च पुनरावृत्तौ अपुनरावृत्तौ च हेतुम् अनन्तरम् आह --
।।8.15।।यद्यप्येवं त्वं सुलभोऽसि ततः किमत आह -- मामिति। उक्तलक्षणा महात्मानो मद्भक्ता मां प्राप्य पुनर्दुःखाश्रयमनित्यं च जन्म न प्राप्नुवन्ति। यतस्ते परमां सम्यक्सिद्धिं मोक्षमेव प्राप्ताः पुनर्जन्म दुःखानां चालयं स्थानं ते मामुपेत्य न प्राप्नुवन्तीति वा।
।।8.15।।इतः पूर्वं त्रयाणामधिकारिणां केचन वेद्योपादेयभेदाः प्रतिपादिताः अतः परमधिकारौपयिकतयाऽवश्यवेद्यस्य फलस्य स्थिरास्थिरत्वलक्षणविशेषं दर्शयतीत्याह -- अतः परमिति। अत्र ज्ञानिनस्तावदपुनरावृत्तिरुच्यतेमामुपेत्य इति श्लोकेन। दुःखानन्त्यस्य सर्वप्रमाणसिद्धत्वाद्दुःखशब्दस्य निर्विशेषणस्य सङ्कोचायोगात् -- निखिलेत्युक्तम्। जन्मनश्चाशाश्वतशब्दनिर्दिष्टमस्थिरत्वं,जन्माविनाभूतदेहभोगाद्यस्थिरत्वरूपमिह विवक्षितम् जन्मशब्दो वाऽत्र जनिमच्छरीरपरः।महात्मानः इति स्तुतिमात्रादपि माहात्म्यस्यात्र संसिद्धिहेतुत्वमुचितमित्यभिप्रायेणाह -- यत इति। महामनस्त्वं ज्ञानिनां प्राक्प्रपञ्चितमिहानूदितं दर्शयतियथावस्थितेत्यादिना। अभिलषितस्य फलस्य सिद्धिव्यपदेशौचित्यात् परमशब्दस्वारस्याच्चपरमसंसिद्धिरूपं मामित्युक्तम्। परमसंसिद्धिरूपं परमपुरुषार्थरूपमित्यर्थः। समीचीना सिद्धिः संसिद्धिः।
।।8.15।।ननु मद्भावं याति इत्युक्तम्। तत्किं (SN तत्र किम्) प्राप्तेऽपि पुनरावृत्तिरस्ति इत्यशंक्याह -- मामुपेत्येति। अन्यतस्तु सर्वत एव पुनरावृत्तिरस्ति इति ( omits अन्यतस्तु -- इति) समनन्तरश्लोकेन प्रतिपादयिष्यते। मां तु प्राप्य न पुनर्योगिनः जन्मादित्रासमाप्नुवन्ति ( N प्राप्नुवन्ति NK (n) add न स पुनरावर्तते इति श्रुतेः। यं प्राप्य न निवर्तन्ते इत्यग्रेऽपि) ।
।।8.15।।स याति परमां गतिम् [8।13]तस्याहं सुलभः [8।14] इति द्वेधावचनात् परमगतिर्भगवल्लाभश्च पृथगिति न मन्तव्यम् भगवत्प्राप्तेरेवोत्तरत्र स्तुतेः अन्यथोभयस्तुतिप्रसङ्गादित्यभिप्रायेणाह -- तत्प्राप्तिमिति। तर्हि कथंमामुपेत्य इत्युक्त्वासंसिद्धिं परमां गताः इति पृथगुक्तिः इत्यत आह -- परमामिति। ये मामुपेतास्ते परमां सिद्धिं मोक्षलक्षणां हि गताः। न च मुक्तानां निर्बीजं जन्म सम्भवतीत्येवं तत्र स्वयम्प्राप्तानां जन्माभावे हेतुरयमुच्यते। न तु भगवत्प्राप्तेरन्या परमसंसिद्धिप्राप्तिरित्यर्थः।
।।8.15।।भगवन्तं प्राप्ताः पुनरावर्तन्ते न वेति संदेहे नावर्तन्त इत्याह -- मामीश्वरं प्राप्य पुनर्जन्म मनुष्यादिदेहसंबन्धम्। कीदृशम्। दुःखालयं गर्भवासयोनिद्वारनिर्गमनाद्यनेकदुःखस्थानं अशाश्वतमस्थिरं दृष्नष्टप्रायं नाप्नुवन्ति। पुनर्नावर्तन्त इत्यर्थः। यतो महात्मानः रजस्तमोमलरहितान्तःकरणाः शुद्धसत्त्वाः समुत्पन्नसम्यग्दर्शना मल्लोकभोगान्ते परमां सर्वोत्कृष्टां संसिद्धिं मुक्तिं गतास्ते। अत्र मां प्राप्य सिद्धिं गता इति वदतोपासकानां क्रममुक्तिर्दर्शिता।
।।8.15।।नन्वेवमेव तत्तद्देवोपासकास्तत्तत्सायुज्यं प्राप्नुवन्तीति तत्तच्छास्त्रेषु निगद्यत इति भवत्प्राप्तौ को विशेषः इत्याकाङ्क्षायां स्वप्राप्तेर्विशेषमाह -- मामुपेत्येति। महात्मानो महात्मका भक्ता परमां संसिद्धिं भावरूपां गताः सन्तो मामेकं पुरुषोत्तममुपेत्य समीपे प्राप्य पुनः दुःखालयं संसारात्मकं अशाश्वतमनित्यं लौकिकं जन्म न प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।
।।8.15।। --,माम् उपेत्य माम् ईश्वरम् उपेत्य मद्भावमापद्य पुनर्जन्म पुनरुत्पत्तिं नाप्नुवन्ति न प्राप्नुवन्ति। किं विशिष्टं पुनर्जन्म न प्राप्नुवन्ति इति तद्विशेषणमाह -- दुःखालयं दुःखानाम् आध्यात्मिकादीनां आलयम् आश्रयम् आलीयन्ते यस्मिन् दुःखानि इति दुःखालयं जन्म। न केवलं दुःखालयम् अशाश्वतम् अनवस्थितस्वरूपं च। नाप्नुवन्ति ईदृशं पुनर्जन्म महात्मानः यतयः संसिद्धिं मोक्षाख्यां परमां प्रकृष्टां गताः प्राप्ताः। ये पुनः मां न प्राप्नुवन्ति ते पुनः आवर्तन्ते।।किं पुनः त्वत्तः अन्यत् प्राप्ताः पुनरावर्तन्ते इति उच्यते --,
।।8.15।।स्वप्राप्तावपुनरावृत्तिं सदाचारेण दर्शयति -- मामिति। परमपुरुषं अन्तर्यामिणमक्षरं परं पुरुषोत्तमं मां प्राप्य पुनर्जन्म न प्राप्नुवन्ति महात्मानः किन्तु परमां सिद्धिं मुक्तिं निर्गुणां गताः।