BG - 8.17

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः। रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।8.17।।

sahasra-yuga-paryantam ahar yad brahmaṇo viduḥ rātriṁ yuga-sahasrāntāṁ te ’ho-rātra-vido janāḥ

  • sahasra - one thousand
  • yuga - age
  • paryantam - until
  • ahaḥ - one day
  • yat - which
  • brahmaṇaḥ - of Brahma
  • viduḥ - know
  • rātrim - night
  • yuga-sahasra-antām - lasts one thousand yugas
  • te - they
  • ahaḥ-rātra-vidaḥ - those who know his day and night
  • janāḥ - people

Translation

Those who know the day of Brahma, which lasts a thousand Yugas, and the night, which also lasts a thousand Yugas, know day and night.

Commentary

By - Swami Sivananda

8.17 सहस्रयुगपर्यन्तम् ending in a thousand Yugas (ages)? अहः day? यत् which? ब्रह्मणः of Brahma? विदुः know? रात्रिम् the night? युगसहस्रान्ताम् ending in a thousand Yugas (ages)? ते they? अहोरात्रविदः knowers of day and night? जनाः people.Commentary Day means evolution or projection or manifestation of the universe. Night means involution of the universe or Pralaya. The worlds are limited or conditioned in time. Therefore they return again. The world of Brahma (Brahmaloka or Sattyaloka) is also transient? although it lasts for a thousand ages. When the four great Yugas have gone round a thousan times? it make a daytime of Brahma and when an eal number of Yugas pass again it makes a night. Those who can see and live through the day and night of Brahma can really know what is a day and what is a night.The Suryasiddhanta speaks of the same division of time.According to it YearsKaliyuga (with its Sandhya andSandhyamsa) consists of 432?000Dvapara Yuga (do) 864?000Tretayuga (do) 1?296?000Kritayuga (do) 1?728?000Thus a Mahayuga consisting ofthese four Yugas comprises 4?320?00071 such Mahayugas with an additionalSandhya? at the close of 1?728?000years make one Manvantara of 308?448?00014 such Manvantaras with anotherSandhya? at the close of 1?728?000years constitute one Kalpa of 4?320?000?000Two Kalpas make a day and nightof Brahma of 8?640?000?000360 such days and nights make oneyear of Brahma consisting of 3?110?400?000?000100 such years constituteHis lifetime of 311?040?000?000?000The world is absorbed in the Avyakta or the Unmanifested or Mulaprakriti during the cosmic Pralaya (involution of the world). Just as the tree remains in a latent state in the seed? so also this whole universe remains in a latent state in a seedform in the Mulaprakriti during Pralaya. This is the night of Brahma. This is the cosmic night. Again the world is projected at the beginning of the Mahakalpa (evolution). There comes the cosmic dawn or cosmic day. This eternal rhythm of cosmic day and night (evolution and involution) is kept up in the macrocosm.Nothing that comes under this everrevolving wheel of cosmic day and night lasts for ever. That is the reason why the seers of the Upanishads? the sages of yore? lived in the transcendental Supreme being? the imperishable Self? the indestructible Purusha? the supreme goal of life? the highest end of man? which is beyond the cosmic day and night. Just as the seeds that are fried can hardly germinate? so also those who have attained to the imperishable Brahman? the Absolute? the Eternal? cannot return to this world of sorrow? pain and misery. They know neither day nor night. They are one with Existence Absolute.The manifested and the unmanifested dwell in Brahman. Brahman is beyond the manifested and the unmanifested. When the world and the body are destroyed Brahman is not destroyed. The waves come out and subside? but the ocean remains unaffected. So also the worlds come and subside? but Brahman the source of everything? the source of Mulaprakriti? ever remains unaffected. Just as ornaments come out of gold and then go back to gold when they are melted? so also all the worlds come out of Brahman and go back to Brahman. Gold is in no way affected by the various forms such as earning? bracelets? anklets? etc.? that have been made of it. Even so Brahman is not in the least affected by the projection and destruction (dissolution) of the worlds and the bodies of beings. It remains always as It is.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।8.17।। व्याख्या--सहस्रयुगपर्यन्तम् ৷৷. तेऽहोरात्रविदो जनाः --सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि--मृत्युलोकके इन चार युगोंको एक चतुर्युगी कहते हैं। ऐसी एक हजार चतुर्युगी बीतनेपर ब्रह्माजीका एक दिन होता है और एक हजार चतुर्युगी बीतनेपर ब्रह्माजीकी एक रात होती है (टिप्पणी प0 470)। दिन-रातकी इसी गणनाके अनुसार सौ वर्षोंकी ब्रह्माजीकी आयु होती है। ब्रह्माजीकी आयुके सौ वर्ष बीतनेपर ब्रह्माजी परमात्मामें लीन हो जाते हैं और उनका ब्रह्मलोक भी प्रकृतिमें लीन हो जाता है तथा प्रकृति परमात्मामें लीन हो जाती है। कितनी ही बड़ी आयु क्यों न हो, वह भी कालकी अवधिवाली ही है। ऊँचे-से-ऊँचे कहे जानेवाले जो भोग हैं, वे भी संयोगजन्य होनेसे दुःखोंके ही कारण हैं--'ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते' (गीता 5। 22) और कालकी अवधिवाले हैं। केवल भगवान् ही कालातीत हैं। इस प्रकार कालके तत्त्वको जाननेवाले मनुष्य ब्रह्मलोकतकके दिव्य भोगोंको किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व नहीं देते।  सम्बन्ध--ब्रह्माजीके दिन और रातको लेकर जो सर्ग और प्रलय होते हैं, उसका वर्णन अब आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।8.17।। आइन्स्टीन के सापेक्षवाद ने एक रहस्योद्घाटन किया है जो कि अब पश्चिमी देशों में स्वीकृत हो चुका है। इस सिद्धांत के अनुसार देश और काल की कल्पनाएं उन व्यक्तिगत तत्त्वों पर निर्भर करती हैं जो इनके मापदण्ड के नियामक होते हैं। जब मन क्षुब्ध होता है तब समय भार मालूम पड़ता है और मन्दगति से बीत रहा प्रतीत होता है जैसे जब कोई व्यक्ति किसी की व्याकुलता या अत्यन्त उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा होता है किन्तु उसी व्यक्ति को समय उड़ता हुआ प्रतीत होता है जब वह विश्राम और सुखदायक परिस्थितियों में बैठा हो जहाँ उसका मनोरंजन हो रहा हो। ताश खेलने में मग्न पुरुष को रात कैसे व्यतीत हो गई इसका भान नहीं रहता और उषाकाल की सूर्य की किरणों को खिड़की में से आते देखकर उसे आश्चर्य होता है। मन के प्रतिकूल कार्य करना पड़े अथवा शरीर में पीड़ा हो तो एकएक क्षण युगों के समान जान पड़ता है। निद्रावस्था के एक अखण्ड अनुभव में काल की कोई कल्पना नहीं होती।उपर्युक्त घटनाओं के निरीक्षण से हिन्दू दार्शनिक इस युक्तियुक्त निष्कर्ष पर पहुँचे कि वास्तव में जिसे हम काल कहते हैं वह दो भिन्नभिन्न अनुभवों के मध्य के अन्तराल की गणना है। मन को क्षुब्ध करने वाले अनुभवों की संख्या जितनी ही अधिक होगी समय की गति मन्द अनुभव होगी। एक ही अनुभव यदि दीर्घकाल तक बना रहे तो समय तीव्र गति से व्यतीत होगा। केवल एक ही अनुभव में काल का अनुभव नहीं होता जैसे एक ही बिन्दु पर दूरी की गणना नहीं होती क्योंकि दो बिन्दुओं के मध्य अन्तराल की गणना से ही दूरी नापी जा सकती है। इस सिद्धांत के आधार पर काल की गणना करते हुए पौराणिक कवियों ने जो कहा कि देवताओं की घड़ियों के डायल बड़े होते हैं तो उनका कथन उपयुक्त ही है उपनिषदों में भी आनन्द की मीमांसा की गई है जिसमें एक मानवीय आनन्द को इकाई मानकर ब्रह्माजी तक के देवों को प्राप्त आनन्द की मात्रा की गणना की गई है। र्मत्यलोक से उच्चतर विभिन्न लोकों में आनन्द की मात्रा में वृद्धि उन लोकों में प्राप्त होने वाली मन की शान्ति एवं समता के तारतम्य को दर्शाती है।इस श्लोक में कहा गया है कि ब्रह्माजी का एक दिन एक सहस्र युगों का होता है तथा एक रात्रि भी उतनी ही दीर्घ होती है। युग से तात्पर्य कल्प से है। कालविदों ने जो यह गणना की है वह हमारे 365 दिनों के एक वर्ष की गणना के अनुसार है। चार युगों का एक कल्प होता है और ब्रह्माजी का एक दिन एक सहस्र कल्पों का माना गया है।जैसे व्यष्टि इकाइयाँ होंगी वैसे ही समष्टि होगी। व्यष्टि (एक) मन स्वेच्छा से अपनी सृष्टि की रचना करता है और उसका पोषण भी करता है। तत्पश्चात् उसे नष्ट कर देता है केवल पुनः नई सृष्टि रचने के लिए। सृष्टि और लय का यह निरन्तर कार्य मनुष्य केवल दिन में अर्थात् अपनी जाग्रत्अवस्था में ही करता है। इसी प्रकार यह माना जाता है कि समष्टि मन अर्थात् ब्रह्मा जी इस चराचर सृष्टि की रचना केवल उनकी जाग्रत् अवस्था में करते हैं।

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।8.17।।ब्रह्मलोकसहितानां पुनरावृत्तौ हेतुं प्रश्नद्वारा दर्शयति -- ब्रह्मेति। उक्तमेव हेतुमाकाङ्क्षापूर्वकमुत्तरश्लोकेन साधयति -- कथमित्यादिना। यथोक्ताहोरात्रावयवमासर्त्वयनसंवत्सरावयवशतसंख्यायुरवच्छिन्नत्वात्प्रजापतेस्तदन्तर्वर्तिनामपि लोकानां यथायोग्यकालपरिच्छिन्नत्वेन पुनरावृत्तिरित्यभिप्रेत्य व्याचष्टे -- सहस्रेत्यादिना। अक्षरार्थमुक्त्वा तात्पर्यार्थमाह -- यत इति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।8.17।।ब्रह्मलोकसहति लोगाः पुनरावर्तिन इत्युक्तं तेषां कालपरिच्छिन्नत्वादिति हेतुनोपपादयति। संहस्त्रं युगानि पर्यन्तं पर्यवासनं यस्याह्नस्तदहः सहस्त्रयुगपर्यन्तम्। युगशब्दोऽत्र चतुर्युगपरः।चतुर्युगसहस्त्रं तु ब्राह्मणो दिनमुच्यते इति पुराणोक्तेः। चतुर्युगपरिमाणं तु मनुष्याणां यद्वर्ष तदेव देवानामहोरात्रं तादृशैरहोरात्रैः पक्षादिक्रमेण द्वादशभिर्वर्षसहस्त्रैश्चतुर्युगं भवति। तत्र वर्ष चतुः सहस्त्रं कृतयुगं त्रिसहस्त्रंत्रैता द्विसहस्त्रं द्वापरं एकसहस्त्रं कलिः अष्टशतं कृतयुगस्य पूर्वोत्तरसंध्ये एवमग्रेपि युगऋभेण षट्चतुर्द्विशतसंख्याकसंध्याक्रमो बोध्यः। सहस्त्रयुगपर्यन्तं ब्रह्मणः प्रजापतेर्विराजोऽहर्दिनं विदुः। रात्रिमपि सहस्त्रयुगमन्तो यस्यास्तामहः परिमाणामेव विदुः। के वदुरित्याह। तेऽरोरात्राविदो ब्रह्मणो दिनरात्रिकालसंख्याविदो जनाः नतु मनुष्यदिनरात्रिकालविद इत्यर्थः। यतएवं यथोक्ताहोरात्रावयवमासर्त्वयनसंवत्सरावयवशतसंख्यायुरवच्छिन्नः प्रजापतिस्तदन्तर्वर्तिलोका अपि यथायोग्यकालपरिच्छिन्ना अतो ब्रह्मलोकसहिताः सर्वे लोकाः पुनरावर्तिन इत्याशयः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।8.17 -- 8.19।।मां प्राप्य न पुनरावृत्तिरिति स्थापयितुं अव्यक्ताख्यात्मसामर्थ्यं दर्शयितुं प्रलयादि दर्शयति -- सहस्रयुगेत्यादिना। सहस्रशब्दोऽत्रानेकवाची। ब्रह्मपरम्। सा विश्वरूपस्य रजनी इति श्रुतिः। द्विपरार्धप्रलय एवात्र विवक्षितः।अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः [8।18] इत्युक्तेः। उक्तं च महाकौर्मेअनेकयुगपर्यन्तं महाविष्णोस्तथा निशा। रात्र्यादौ लीयते सर्वमहरादौ तु जायते इति च।यः स सर्वेषु भूतेषु [8।20] इति वाक्यशेषाच्च।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।8.17।।आवृत्तिभाजां कालपरिच्छेदमाह -- सहस्रेति। युगशब्दोऽत्र चतुर्युगपर्यायः।चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते इति पुराणान्तरदर्शनात् सहस्रं चतुर्युगानि पर्यन्तोऽवसानं यस्य। चतुर्युगसहस्रं ब्रह्मणो दिनं रात्रिरपि तावतीत्याह -- रात्रिमिति। अत्रापि चतुर्युगसहस्राणां अन्तो भवति तां चतुर्युगसहस्रान्ताम्। ते प्रसिद्धा अहोरात्रविदो जना विदुः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।8.17।।ये मनुष्यादिचतुर्मुखान्तानां मत्संकल्पकृताहोरात्रव्यवस्थाविदो जनाः ते ब्रह्मणः चतुर्मुखस्य यत् अहः चतुर्युगसहस्रावसानं विदुः रात्रिं च तथारूपाम्।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।8.17।।ननु चतपस्विनो दानशीला वीतरागास्तितिक्षवः। त्रिलोक्या उपरि स्थानं लभन्ते शोकवर्जितम् इत्यादिपुराणवाक्यैस्त्रिलोक्याः सकाशान्महर्लोकादीनामुत्कृष्टत्वं गम्यते। विनाशित्वे च सर्वेषामवैशिष्ट्ये कथमसौ विशेषः स्यादित्याशङ्क्य बहुकल्पकालावस्थायित्वनिमित्तोऽसौ विशेष इत्याशयेन स्वमानेन शतवर्षायुषो ब्रह्मणोऽहन्यहनि त्रिलोक्या उत्पत्तिर्निशिनिशि च लयो भवतीति दर्शयिष्यन् ब्रह्मणोऽहोरात्रयोः प्रमाणमाह -- सहस्रेति। सहस्रं युगानि पर्यन्तोऽवसानं यस्य तद्ब्रह्मणो यदहस्तद्ये विदुः युगसहस्रमन्तो यस्यास्तां रात्रिं च योगबलेन ये विदुस्त एव सर्वज्ञजना अहोरात्रविदः। येषां तु केवलं चन्द्रार्कगत्यैव ज्ञानं ते तथाहोरात्रविदो न भवन्ति अल्पदर्शित्वात्। युगशब्देनात्र चतुर्युगमभिप्रेतम्चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते इति विष्णुपुराणोक्तेः। ब्रह्मण इति च महर्लोकादिवासिनामप्युपलक्षणार्थम्। तत्रायं कालगणनाप्रकारः। मनुष्याणां यद्वर्षं तद्देवानामहोरात्रं। तादृशैरहोरात्रैः पक्षमासादिकल्पनया द्वादशभिर्वर्षसहस्रैश्चतुर्युगं भवति। चतुर्युगसहस्रं च ब्रह्मणो दिनम्। तावत्परिमाणैव रात्रिः। तादृशैश्चाहोरात्रैः पक्षमासादिक्रमेण वर्षशतं ब्रह्मणः परमायुरिति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।8.17।।सहस्र -- इत्यादिश्लोकत्रयस्य पिण्डितार्थमाह -- ब्रह्मलोकपर्यन्तानामिति। हिरण्यगर्भादिस्वातन्त्र्यसिद्धसत्यलोकादिस्थैर्यशङ्काव्युदासायाहपरमपुरुषसङ्कल्पकृतामिति। ईश्वरस्वातन्त्र्यमेव ह्यन्यूनानतिरिक्तदिनरात्र्यादिविचित्रव्यवस्थायां कारणम्। तथा चोच्यतेकालस्य च हि मृत्योश्च [म.भा.5।68।13]कालचक्रं जगच्चक्रं [म.भा.5।68।12] इत्यादिभिः। एवमेवोक्तमन्यत्रततो युगसहस्रान्ते संहरिष्ये जगत्पुनः। कृत्वा मत्स्थानि भूतानि चराणि स्थावराणि च इत्यादि। यत्तु मानवेतद्ये युगसहस्रं तु (तद्वे युगसहस्रांतं) ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः। रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः [1।73] इति तत्र य इत्येव पाठाद्यथाक्रममन्वयः। इह तुसहस्र -- इतिश्लोकेयत् इत्यस्याहश्शब्देनैव ह्यन्वयो घटते ततश्चते इत्यस्यये इति पदमपेक्षितम् तत्रापिये विदुस्तेऽहोरात्रविदो जनाः इत्यन्वये प्रसङ्गरहिताहोरात्रवेदिव्युत्पादनरूपं स्तुतिपरं वाक्यं प्रस्तुतासङ्गतं स्यात् ततश्चयेऽहोरात्रविदो जनास्त एवं विदुः इत्यन्वयः। एवं कालव्यवस्थायां प्रामाणिकत्वप्रतिपादनपरोऽत्र स्वीकार्य इत्यभिप्रायेणाहये मनुष्यादीति। अनूद्यमानमहोरात्रवेदित्वं यथाप्रसिद्धि सर्वविषयमेव भवितुमर्हति तेन चतुर्मुखस्यापि मनुष्यादितुल्यता द्योतिता स्यादित्यभिप्रायेणमनुष्यादीत्यादिकमुक्तम्। ब्रह्मशब्दस्यात्र परमात्मविषयत्वभ्रमव्युदासायचतुर्मुखशब्दः। तस्यैव हि सहस्रयुगप्रतिनियताहोरजनीविभागः प्रसिद्ध इति भावः।सविशेषणौ विधिनिषेधौ विशेषणमुपसङ्कामतः इति न्यायात्येऽहोरात्रविदो जनाः इत्यहोरात्रवेदतांशस्यानूदितत्त्वाच्च सहस्रयुगपर्यन्ततावेदनमेवात्र विधेयमित्यभिप्रायेणतच्चतुर्युगसहस्रावसानं विदुरित्युक्तम्। सहस्रयुगानि पर्यन्तं यस्य तत्सहस्रयुगपर्यन्तम्। युगशब्दश्चात्र प्रमाणान्तरानुसाराच्चतुर्युगपरः।,अस्त्वेवं चतुर्मुखस्याहोरात्रव्यवस्था ततः किं प्रस्तुतस्य इत्यत्रोत्तरम् -- अव्यक्तात् इति श्लोकः। तस्यार्थमाह -- तत्रेति।अयमभिप्रायः -- अत्र व्यक्तिशब्दस्तावन्न महदादिविषयः चतुर्मुखात्प्रागेव तदुत्पत्तेः। अतश्चतुर्मुखसृज्यमात्रविषय एवासौ। व्यज्यन्त इति व्यक्तयः। तत्रापि सत्यलोकादेः प्रतिकल्पं प्रलयाभावात् त्रैलोक्यान्तर्वर्त्तिदेहेन्द्रियादिवस्तुमात्रविषयत्वमेव स्वीकार्यम्। तेषां चोत्पत्तिः ब्रह्मशरीरादेव। ततश्चात्राव्यक्तशब्दोऽपि न मूलाव्यक्तविषयः अपितु तदुपादानकब्रह्मशरीरपरः। शरीरे चाव्यक्तशब्दप्रयोगः सूत्रेऽप्युपपादितःसूक्ष्मं तु तदर्हत्वात् [ब्र.सू.1।4।2] इति।एवंविधसृष्टिप्रलयकारणविशेषं तदनुच्छेदाच्च सृष्टिप्रलयसन्तानानुच्छेदं अकृताभ्यागमकृतविप्रणाशप्रसङ्गपरिहारमुक्तस्यार्थस्य सर्वेष्वपि कल्पेषु अभिव्याप्तिं यथापूर्वकल्पनं चभूतग्रामः इति श्लोकः प्रतिपादयतीत्यभिप्रायेणाह -- स एवायमिति। भूतशब्दोऽत्राचिद्विशिष्टक्षेत्रज्ञपरः। सृज्यत्वसंहार्यत्वहेतुभूतमवशत्वं कर्मनिबन्धनमेव हीत्यभिप्रायेणकर्मवश्य इत्युक्तम्।अहरागमे इति पदंभूत्वा इत्यत्रापि अनुवर्तनीयमित्यभिप्रायेणअहरागमे भूत्वेत्यन्वय उक्तः। इदं च नैमित्तिकप्रलयप्रतिपादनं श्रुत्यादिप्रसिद्धप्राकृतप्रलयस्याप्युपलक्षणम्। तथा सति [तेन] सत्यलोकविनाशसिद्धिःआब्रह्मभुवनाल्लोकाः [8।16] इति ह्युपक्रान्तमित्यभिप्रायेणाह -- तथेति। यद्वा रात्र्यागमशब्द एव ब्रह्मणोऽन्तिमरात्र्यागममपि शक्त्या संगृह्णातीति भावः। तदेतत्सूचितंवर्षशतावसानरूपयुगसहस्रान्त इति। तथा चान्यत्र स्मर्यते -- निजेन तस्य मानेन आयुर्वर्षशतं स्मृतम् इति। एवमहरागमशब्दोऽपि प्रथममहः संगृह्णाति। पृथिव्यादितत्त्वानामेव विलये तदारब्धानां ब्रह्मलोकब्रह्मशरीरब्रह्माण्डादीनां का कथेत्यभिप्रायेण -- पृथिवीत्यादिश्रुतिरुदाहृता। तमोवस्थाचिद्द्रव्यस्यैकीभावो हि परस्मिन्नेव देवे श्रूयते। अत्रापिअहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयः [7।6] इत्यादिकं ह्युच्यत इत्यभिप्रायेणमय्येवेत्युक्तम्। एवं यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वम् [श्वे.उ.6।18]एको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानः [महो.1।1] इति क्रमेण पुनर्ब्रह्मादिसृष्टिः पुनश्च तत्प्रलय इत्यादिकमपि भाव्यम्। ईदृशसृष्टिप्रलयप्रतिपादनस्य प्रकृतोपयोगं दर्शयति -- एवमिति। सर्वेषु सृष्टिप्रलयप्रकरणेष्विदमेव तात्पर्यं भाव्यम्।मद्व्यतिरिक्तस्य कृत्स्नस्येत्यनेनअहं कृत्स्नस्य [7।6] इति प्रागुक्तं स्मारितम्। उक्तं च मोक्षधर्मेऽपिनित्यं हि (च) नास्ति जगति भूतं स्थावरजङ्गमम्। ऋते तमेकं पुरुषं वासुदेवं सनातनम् [म.भा.12।339।32] इति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।8.17 -- 8.19।।ननु क एवं जानाति यत् सर्वभुवनेभ्यः पुनरावृत्तिः। ब्रह्मादय एव ही तावत् चिरतरस्थायिनः श्रूयन्ते। ते एव (SN अत एव तावत्) कथं पुनरावर्त्तिनः पुनरावर्त्तित्वे हि तेऽपि स्युः प्रभवाप्ययधर्माणाः इत्या[शङ्कया ] ह -- सहस्रेत्यादि आगम इत्यन्तम्। ये खलु दीर्घदृश्वानः (N अदीर्घ -- ) ते ब्रह्मणोऽपि रात्रिं दिवं [ च ] पश्यन्ति प्रलयोदयतया। तथा च अहरहस्त एव विबुध्य निजां निजामेव चेष्टामनुरुध्यन्ते ( -- मवरुध्यन्ते) प्रतिरात्रि च तेषामेव निवृत्तपरिस्पन्दानां (S -- परिस्पन्दिनाम्) शक्तिमात्रत्वेनावस्थानम् (N -- त्वेनोपस्थानम्)। एवं सृष्टौ प्रलये च पुनः पुनर्भावः (K (n) -- र्भवः)। नान्येऽन्ये उपसृज्यन्ते अपि तु त एव जीवाः। कालकृतस्तु चिरक्षिप्रप्रत्ययात्मा विशेषः। एष च परिच्छेदः प्रजापतीनामप्यस्ति। ततश्च तेऽपि प्रभवाप्ययधर्माण एवेति,स्थितम्।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।8.17 -- 8.19।।उत्तरप्रकरणस्यासङ्गतिमाशङ्क्याह -- मां प्राप्येति। अवस्थितानामिति शेषः। प्रतिज्ञामात्रेण हि तदुक्तं अव्यक्तसामर्थ्यस्यात्र कथनात् कथमात्मेत्युच्यते इत्यत उक्तम् -- अव्यक्ताख्येति। प्रलयादीति तत्कारणत्वमात्मनः। सृष्टिप्रलययोरिदम्पूर्वत्वाभावज्ञापनाय गीतामुल्लङ्घ्योक्तम्। अत्र सहस्रशब्दो,दशशतवाचीतिप्रतीतिनिरासायाह -- सहस्रेति। बहुशब्दपर्यायोऽयं न तु प्रसिद्धार्थः। विरिञ्चाहोरात्रयोः प्रसिद्धस्य सहस्रचतुर्युगपर्यन्तत्वात् कथमेतत् इत्यत आह -- ब्रह्मेति। तथा च द्विपरार्धप्रलयस्यादिसृष्टेश्चात्र विवक्षितत्वात् उक्तं युक्तम्। ननु परस्य ब्रह्मणो नित्यत्वादहोरात्रे न स्तः। तत्कथं तत्परमेतत् इत्यत आह -- सेति। सा निर्व्यापारावस्था परिपूर्णरूपस्यापि हरेः रजनीत्यर्थः। अनेनाहरपि सिद्धम्। भवेदेतद्यद्यत्र द्विपरार्धप्रलयस्यादिसृष्टेश्च विवक्षेत्यत्र प्रमाणं स्यादित्यत आह -- द्विपरार्धेति। एवमादिसृष्टिश्चेत्यपि ग्राह्यम्। न ह्यवान्तरसृष्टिप्रलययोः सर्वकार्योत्पत्तिविनाशाविति भावः। आगमान्तरसम्मतेश्चैवमित्याह -- उक्तं चेति। इतोऽप्येवमित्याह -- य इति। न ह्यवान्तरप्रलये सर्वेषामाकाशादीनां भूतानां नाशः नापि विरिञ्चस्य पञ्चभूतनाशेऽपि अविनाशित्वमिति भावः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।8.17।।ब्रह्मलोकसहिताः सर्वे लोकाः पुनरावर्तिनः कस्मात्कालपरिच्छिन्नत्वादित्याह -- मनुष्यपरिमाणेन सहस्रयुगपर्यन्त सहस्रं युगानि चतुर्युगानि पर्यन्तोऽवसानं यस्य तत्।चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते इति हि पौराणिकं वचनम्। तादृशं ब्रह्मणः प्रजापतेरहर्दिनं तत् ये विदुः। तथा रात्रिं युगसहस्रान्तां चतुर्युगसहस्रपर्यन्तां ये विदुरिति वर्तते। तेऽहोरात्रविदस्त एवाहोरात्रविदो योगिनो जनाः। ये तु चन्द्रार्कगत्यैव विदुस्ते नाहोरात्रविदः स्वल्पदर्शित्वादित्यभिप्रायः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।8.17।।ननु ब्रह्मलोकगतास्तेन सह मुच्यन्तेब्रह्मणा सह मुच्यन्ते इत्यादिभ्यस्तेऽपि पुनरावृत्तिरहिता भवन्त्येवेत्याशङ्क्य तेषां तदभावमाह -- सहस्रेति। सहस्रयुगपर्यन्तं चतुर्युगसहस्रं पर्यन्तोऽवसानं यस्य तत् ब्रह्मणो यदहर्दिनं तद्ये विदुर्जानन्ति युगसहस्रान्तां चतुर्युगसहस्रं अन्तो यस्यास्तादृशीं रात्रिं ये विदुस्ते अहोरात्रविदः। तत्र कालगणने मनुष्याणां यद्वर्षं तद्देवानामहोरात्रः तादृगहोरात्रगणितद्वादशवर्षसहस्रेण चतुर्युगं तच्च तद् ब्रह्मणो दिनं तावत्येव रात्रिस्तद्गणनक्रमेण वर्षशतं तत् ब्रह्मणः परमायुरित्युच्यते तदवसाने तत्सहितमुक्तानामक्षरप्राप्तिः परम्परया भवति।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।8.17।। --,सहस्रयुगपर्यन्तं सहस्राणि युगानि पर्यन्तः पर्यवसानं यस्य अह्नः तत् अहः सहस्रयुगपर्यन्तम् ब्रह्मणः प्रजापतेः विराजः विदुः रात्रिम् अपि युगसहस्रान्तां अहःपरिमाणामेव। के विदुरित्याह -- ते अहोरात्रविदः कालसंख्याविदो जनाः इत्यर्थः। यतः एवं कालपरिच्छिन्नाः ते अतः पुनरावर्तिनो लोकाः।।प्रजापतेः अहनि यत् भवति रात्रौ च तत् उच्यते --

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।8.17।।ननु कथमेवमुच्यतेआब्रह्मभुवनात् इति सत्यं ब्रह्मणोऽपि कालप्रमितत्वादित्याह -- सहस्रमिति।,अत्र चतुःपदं योजनीयंचतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते इति वाक्यात्। तथा चैवं मानेन ब्रह्मणो द्विपरार्द्धपर्यंते लय इत्युक्तम्।