धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्। तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।8.25।।
dhūmo rātris tathā kṛiṣhṇaḥ ṣhaṇ-māsā dakṣhiṇāyanam tatra chāndramasaṁ jyotir yogī prāpya nivartate
Attaining the lunar light through smoke, night time, the dark fortnight, and the six months of the southern path of the sun (the southern solstice), the yogi returns.
8.25 धूमः smoke? रात्रिः night? तथा also? कृष्णः the dark (fortnight)? षण्मासाः the six months? दक्षिणायनम् the southern path of the sun? तत्र there? चान्द्रमसम् lunar? ज्योतिः light? योगी the Yogi? प्राप्य having attained? निवर्तते returns.Commentary This is the Pitriyana or the path of darkness or the path of the ancestors which leads to rirth. Those who do sacrifices to the gods and other charitable works with expectation of reward go to the Chandraloka through this path and come back to this world when the fruits of the Karmas are exhausted.Smoke? night time? the dark fortnight and the six months of the southern solstice are all deities who preside over them. They may denote the degree of ignorance? attachment and passion. There are smoke and darkcoloured objects throughout the course. There is no illumination when one passes along this path. It is reached by ignorance. Hence it is called the path of darkness or smoke.
।।8.25।। व्याख्या--'धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः ৷৷. प्राप्य निवर्तते'--देश और कालकी दृष्टिसे जितना अधिकार अग्नि अर्थात् प्रकाशके देवताका है, उतना ही अधिकार धूम अर्थात् अन्धकारके देवताका है। वह धूमाधिपति देवता कृष्णमार्गसे जानेवाले जीवोंको अपनी सीमासे पार कराकर रात्रिके अधिपति देवताके अधीन कर देता है। रात्रिका अधिपति देवता उस जीवको अपनी सीमासे पार कराकर देश-कालको लेकर बहुत दूरतक अधिकार रखनेवाले कृष्णपक्षके अधिपति देवताके अधीन कर देता है। वह देवता उस जीवको अपनी सीमासे पार कराकर देश और कालकी दृष्टिसे बहुत दूरतक अधिकार रखनेवाले दक्षिणायनके अधिपति देवताके समर्पित कर देता है। वह देवता उस जीवको चन्द्रलोकके अधिपति देवताको सौंप देता है। इस प्रकार कृष्णमार्गसे जानेवाला वह जीव धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायनके देशको पार करता हुआ चन्द्रमाकी ज्योतिको अर्थात् जहाँ अमृतका पान होता है, ऐसे स्वर्गादि दिव्य लोकोंको प्राप्त हो जाता है। फिर अपने पुण्योंके अनुसार न्यूनाधिक समयतक वहाँ रहकर अर्थात् भोग भोगकर पीछे लौट आता है।यहाँ एक ध्यान देनेकी बात है कि यह जो चन्द्रमण्डल दीखता है, यह चन्द्रलोक नहीं है। कारण कि यह चन्द्रमण्डल तो पृथ्वीके बहुत नजदीक है, जब कि चन्द्रलोक सूर्यसे भी बहुत ऊँचा है। उसी चन्द्रलोकसे अमृत इस चन्द्रमण्डलमें आता है, जिससे शुक्लपक्षमें ओषधियाँ पुष्ट होती हैं।अब एक समझनेकी बात है कि यहाँ जिस कृष्णमार्गका वर्णन है, वह शुक्लमार्गकी अपेक्षा कृष्णमार्ग है। वास्तवमें तो यह मार्ग ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें जानेका है। सामान्य मनुष्य मरकर मृत्युलोकमें जन्म लेते हैं, जो पापी होते हैं, वे आसुरी योनियोंमें जाते हैं और उनसे भी जो अधिक पापी होते हैं, वे नरकके कुण्डोंमें जाते हैं -- इन सब मनुष्योंसे कृष्णमार्गसे जानेवाले बहुत श्रेष्ठ हैं। वे चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होते हैं -- ऐसा कहनेका यही तात्पर्य है कि संसारमें जन्ममरणके जितने मार्ग हैं उन सब मार्गोंसे यह कृष्णमार्ग (ऊर्ध्वगतिका होनेसे) श्रेष्ठ है और उनकी अपेक्षा प्रकाशमय है।कृष्णमार्गसे लौटते समय वह जीव पहले आकाशमें आता है। फिर वायुके अधीन होकर बादलोंमें आता है और बादलोंमेंसे वर्षाके द्वारा भूमण्डलपर आकर अन्नमें प्रवेश करता है। फिर कर्मानुसार प्राप्त होनेवाली योनिके पुरुषोंमें अन्नके द्वारा प्रवेश करता है और पुरुषसे स्त्री-जातिमें जाकर शरीर धारण करके जन्म लेता है। इस प्रकार वह जन्म-मरणके चक्करमें पड़ जाता है।यहाँ सकाम मनुष्योंको भी 'योगी' क्यों कहा गया है? इसके अनेक कारण हो सकते हैं; जैसे --,(1) गीतामें भगवान्ने मरनेवाले प्राणियोंकी तीन गतियाँ बतायी हैं -- ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति (गीता 14। 18)। इनमेंसे ऊर्ध्वगतिका वर्णन इस प्रकरणमें हुआ है। मध्यगति और अधोगतिसे ऊर्ध्वगति श्रेष्ठ होनेके कारण यहाँ सकाम मनुष्योंको भी योगी कहा गया है।,(2) जो केवल भोग भोगनेके लिये ही ऊँचे लोकोंमें जाता है, उसने संयमपूर्वक इस लोकके भोगोंका त्याग किया है। इस त्यागसे उसकी यहाँके भोगोंके मिलने और न मिलनेमें समता हो गयी है। इस आंशिक समताको लेकर ही उसको यहाँ योगी कहा गया है। (3) जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका है, पर अन्तकालमें किसी सूक्ष्म भोग-वासनाके कारण वे योगसे,विचलितमना हो जाते हैं, तो वे ब्रह्मलोक आदि ऊँचे लोकोंमें जाते हैं और वहाँ बहुत समयतक रहकर पीछे यहाँ भूमण्डलपर आकर शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेते हैं। ऐसे योगभ्रष्ट मनुष्योंका भी जानेका यही मार्ग (कृष्णमार्ग) होनेसे यहाँ सकाम मनुष्यको भी योगी कह दिया है।भगवान्ने पीछेके (चौबीसवें) श्लोकमें ब्रह्मको प्राप्त होनेवालोंके लिये 'ब्रह्मविदो जनाः' कहकर बहुवचनका प्रयोग किया है और यहाँ चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होनेवालोंके लिये 'योगी' कहकर एकवचनका प्रयोग किया है। इससे ऐसा अनुमान होता है कि सभी मनुष्य परमात्माकी प्राप्तिके अधिकारी हैं, और परमात्माकी प्राप्ति सुगम है। कारण कि परमात्मा सबको स्वतः प्राप्त हैं। स्वतःप्राप्त तत्त्वका अनुभव बड़ा सुगम है। इसमें करना कुछ नहीं पड़ता। इसलिये बहुवचनका प्रयोग किया गया है। परन्तु स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये विशेष क्रिया करनी पड़ती है, पदार्थोंका संग्रह करना पड़ता है, विधि-विधानका पालन करना पड़ता है। इस प्रकार स्वर्गादिको प्राप्त करनेमें भी कठिनता है तथा प्राप्त करनेके बाद पीछे लौटकर भी आना पड़ता है। इसलिये यहाँ एकवचन दिया गया है। विशेष बात (1) जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका है; परन्तु सुखभोगकी सूक्ष्म वासना सर्वथा नहीं मिटी है, वे शरीर छोड़कर ब्रह्मलोकमें जाते हैं। ब्रह्मलोकके भोग भोगनेपर उनकी वह वासना मिट जाती है तो वे मुक्त हो जाते हैं। इनका वर्णन यहाँ चौबीसवें श्लोकमें हुआ है। जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका ही है और जिनमें न यहाँके भोगोंकी वासना है तथा न ब्रह्मलोकके भोगोंकी; परन्तु जो अन्तकालमें निर्गुणके ध्यानसे विचलित हो गये हैं, वे ब्रह्मलोक आदि लोकोंमें नहीं जाते। वे तो सीधे ही योगियोंके कुलमें जन्म लेते हैं अर्थात् जहाँ पूर्वजन्मकृत ध्यानरूप साधन ठीक तरहसे हो सके, ऐसे योगियोंके कुलमें उनका जन्म होता है। वहाँ वे साधन करके मुक्त हो जाते हैं (गीता 6। 42 43)।
।।8.25।। पुनरावृत्ति के मार्ग को पितृयाण (पितरों का मार्ग) कहते हैं। इसका अधिष्ठाता देवता है चन्द्रमा जो जड़ पदार्थ जगत् का प्रतीक है। जो लोग उपासनारहित पुण्य कर्मों को जिनमें समाज सेवा तथा यज्ञयागादि कर्म सम्मिलित हैं करते हैं वे मरणोपरान्त पितृलोक को प्राप्त होते हैं जिसे प्रचलित भाषा में स्वर्ग कहते हैं। पुण्यकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त इस स्वर्गलोक में विषयोपभोग करने पर जब पुण्यकर्म क्षीण हो जाते हैं तब इन स्वर्ग के निवासियों को अपनी अवशिष्ट वासनाओं के अनुसार उचित शरीर को धारण करने के लिए पुनः संसार में आना पड़ता है। उस देह में ही उनकी वासनाएं व्यक्त एवं तृप्त हो सकती हैं।धूम रात्रि कृष्णपक्ष और दक्षिणायन ये सब पितृलोक प्राप्ति का मार्ग बताने वाले हैं।चन्द्रमा जड़ पदार्थ का प्रतीक और विषयोपभोग का अधिष्ठाता है। उसके अनुग्रह से कुछ काल तक स्वर्ग सुख भोगने के पश्चात् जीव को पुनः र्मत्यलोक में आना पड़ता है।संक्षेप में इन दो श्लोकों में यह बताया गया है कि निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील साधक परम लक्ष्य को प्राप्त होता है और भोग की कामना करने वाला पुरुष भोग के पश्चात् पुनः शरीर को धारण करता है जहाँ वह चाहे तो अपना उत्थान अथवा पतन कर सकता है।विषय का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं --
।।8.25।।प्रकृतं देवयानं पन्थानं स्तोतुं पितृयाणमुपन्यस्यति -- धूम इति। अत्रापि मार्गचिह्नानि भोगभूमीश्च व्यवच्छिद्यातिवाहिकदेवताविषयत्वं धूमादिपदानां विभजते -- धूमेत्यादिना। तत्रेति सप्तमी पूर्ववदेव सामीप्यार्था इष्टादीत्यादिशब्देन पूर्तदत्ते गृह्येते। कृतात्ययेऽनुशयवानिति न्यायं सूचयति -- तत्क्षयादिति।
।।8.25।।देवयानस्तुतये पितृयाणमुपन्यस्यति -- धूम इति। धूमादिशब्दैस्तत्तदभिमानिन्यो देवता आतिवाहिकाः पूर्ववद्वह्याः नतु मार्गचिन्हानि भोगभूमयो वा। तत्र प्रयाता इत विभक्तिं विपरिणभ्यानुषज्जते। तस्मिन्मार्गे मृत इत्यर्थः। योगी इष्टापूर्तदत्तकारी कर्मयोगी चन्द्रमसि चन्द्रे भवं चान्द्रमसं ज्योतिः फलं प्राप्त भुक्त्वा तत्क्षयात्पुनर्निवर्तते। एतदप्यन्यासां श्रुत्युक्तानामुपलणार्थम्। तथाच श्रुतिःते धूमभिसंभवन्ति धूमादात्रिं रात्रेपरपक्षमपरपक्षाद्यान्षड्दक्षिणैति मासांस्तानेते संवत्सरमभिप्राप्नुवन्ति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकादाकाशं आकाशाच्चन्द्रमसमेष सोमो राजा तद्देवानामन्नं तं देवा भक्षयन्ति तस्मिन्यावत्संपातमुषित्वाथैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्तते इति। तथाच पुनःपुनरावृत्तिलक्षणदस्मान्मार्गात्पूर्वोक्तोऽपुनरावृत्तिलक्षणो मार्गो ज्यायानित्यभिप्रायः।
।।8.25।।एतेन च धूमो रात्रिरित्येषोऽपि धूमादिमार्गः कर्मिणामपक्वयोगिनां चोचित आवृत्तिफलश्च व्याख्यातः।
।।8.25।।एतत् च धूमादिमार्गस्थपितृलोकादेः प्रदर्शनम्। अत्र योगिशब्द पुण्यकर्मसम्बन्धिविषयः।
।।8.25।।आवृत्तिमार्गमाह -- धूम इति। धूमाभिमानिनी देवता। रात्र्यादिशब्दैश्च पूर्ववदेव रात्रिकृष्णपक्षदक्षिणायनरूपषण्मासाभिमानिन्यस्तिस्रो देवता उपलक्ष्यन्ते। एताभिर्देवताभिरुपलक्षितो मार्गस्तत्र प्रयातः कर्मयोगी चान्द्रमसं ज्योतिस्तदुपलक्षितं स्वर्गलोकं प्राप्य तत्रेष्टापूर्तकर्मफलं भुक्त्धा पुनरावर्तते। अत्रापि श्रुतिःते धूममभिसंभवन्ति धूमाद्रात्रिं रात्रेपरपक्षमपरपक्षाद्यान्षण्मासान्दक्षिणादित्य एति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाच्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति इत्यादिः। तदेवं निवृत्तिकर्मसहितोपासनया क्रममुक्तिः काम्यकर्मभिश्च स्वर्गभोगानन्तरमावृत्तिः निषिद्धकर्मभिस्तु नरकभोगानन्तरमावृत्तिः क्षुद्रकर्मणां जन्तूनां त्वत्रैव पुनः पुनर्जन्मेति द्रष्टव्यम्।
।।8.25।।पितृलोकादेरित्यादिशब्देन आकाशचन्द्रग्रहणम्। योगिनो धूमादिमार्गः पुनरावृत्तिश्च कथमुच्यते इत्यत्राहअत्र योगिशब्द इति। अत्र योगशब्द उपायमात्रवाची यद्वा सम्बन्धमात्रवाची धूमादिसामर्थ्यात्तु पुण्यकर्मस्वरूपसम्बन्धिविशेषसिद्धिरिति भावः। अथ य इमे ग्राम इष्टापूर्ते दत्तमित्युपासते ते धूममभिसम्भवन्ति [छां.उ.5।10।13] इत्यादिका श्रुतिरत्रोपबृंहिता।
।।8.24 -- 8.25।।अग्निरिति। धूमेति। उत्तरेण ऊर्ध्वेन अयनं षाण्मासिकम्। तच्च प्रकाशादिधर्मकत्वात् दहनादिकैः शब्दैरुपचर्यते। अतो विपरीतं विपर्ययेण। तत्र चन्द्रमसो भोग्यांशानुप्रवेशात् भोगायावृत्तिः।
।।8.25।।देवयानमार्गस्तुत्यर्थं पितृयाणमार्गमाह -- अत्रापि धूम इति धूमाभिमानिनी देवता रात्रिरिति रात्र्यभिमानिनी कृष्ण,इति कृष्णपक्षाभिमानिनी षण्मासा दक्षिणायमिति दक्षिणायनाभिमानिनी लक्ष्यते। एतदप्यन्यासां श्रुत्युक्तानामुपलक्षणम्। तथाहि श्रुतिःते धूमममिसंभवन्ति धूमाद्रात्रिं रात्रेपरपक्षमपरक्षाद्यान्षड्दक्षिणैति मासांस्तान्नैते संवत्सरमभिप्राप्नुवन्ति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकादाकाशमाकाशाच्चन्द्रमसमेष सोमो राजा तद्देवानामन्नं तं देवा भक्षयन्ति तस्मिन्यावत्संपातमुषित्वाथैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्तन्ते इति। तत्र धूमरात्रिकृष्णपक्षदक्षिणायनदेवता इहोक्ताः। पितृलोक आकाशश्चन्द्रमा इत्यनुक्ता अपि द्रष्टव्याः। तत्र तस्मिन्पथि प्रयाताश्चान्द्रमसं ज्योतिः फलं योगी कर्मयोगीष्टापूर्तदत्तकारी प्राप्य यावत्संपातमुषित्वा निवर्तते। संपतत्यनेनेति संपातः कर्म। तस्मादेतस्मादावृत्तिमार्गादनावृत्तिमार्गः श्रेयानित्यर्थः।
।।8.25।।आवृत्तिकालरूपमाह -- धूम इति। धूमस्तापरूपाग्न्यात्मकप्रतिबन्धरूपः रात्रिर्निशा कृष्णः पक्षः एवं षण्मासा दक्षिणायनम्। तत्र योगी सकामः प्रयातः सन् चान्द्रमसं स्वर्गादिसुखं शीतलात्मकं प्राप्य सुखभोगं कृत्वा निवर्तते पुनर्जन्म प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।8.25।। --,धूमो रात्रिः धूमाभिमानिनी रात्र्यभिमानिनी च देवता। तथा कृष्णः कृष्णपक्षदेवता। षण्मासा दक्षिणायनम् इति च पूर्ववत् देवतैव। तत्र चन्द्रमसि भवं चान्द्रमसं ज्योतिः फलम् इष्टादिकारी योगी कर्मी प्राप्य भुक्त्वा तत्क्षयात् इह पुनः निवर्तते।।
।।8.25।।आवृत्तिमार्गमाह सकामाग्निहोत्रिणाम्। रात्रौ कृष्णे दक्षिणायने मृतः। धूम इत्यादि धूममार्गपितृलोकादेः प्रदर्शनम्। अत्रापि श्रुतिः -- ते धूममभिसंवशिन्ति इत्यादिः तेन भगवदर्पणात्मककर्मरूपनिवृत्त्या सात्विक्या भगवदुपासनातः क्रममुक्तिः सात्विकी। काम्यकर्मभिः पुनर्भवहेतुभिश्चन्द्रलोकं प्राप्य सुखभोगानन्तरमावृत्ती राजसी। निषिद्धकर्मभिस्तु नरकभोगानन्तरमावृत्तिस्तामसी। क्षुद्रकर्मणां तु जन्तूनामत्रैव पुनः पुनर्जन्मवतामुत्क्रान्तिगत्या गतय इत्यवगन्तव्यम्।