BG - 8.28

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्। अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।8.28।।

vedeṣhu yajñeṣhu tapaḥsu chaiva dāneṣhu yat puṇya-phalaṁ pradiṣhṭam atyeti tat sarvam idaṁ viditvā yogī paraṁ sthānam upaiti chādyam

  • vedeṣhu - in the study of the Vedas
  • yajñeṣhu - in performance of sacrifices
  • tapaḥsu - in austerities
  • cha - and
  • eva - certainly
  • dāneṣhu - in giving charities
  • yat - which
  • puṇya-phalam - fruit of merit
  • pradiṣhṭam - is gained
  • atyeti - surpasses
  • tat sarvam - all
  • idam - this
  • viditvā - having known
  • yogī - a yogi
  • param - Supreme
  • sthānam - Abode
  • upaiti - achieves
  • cha - and
  • ādyam - original

Translation

Whatever fruit of merit is declared (in the scriptures) to accrue from (the study of) the Vedas, (the performance of) sacrifices, (the practice of) austerities, and gifts, beyond all this goes the Yogi, having known this; and he attains to the Supreme, Primeval (first or ancient) Abode.

Commentary

By - Swami Sivananda

8.28 वेदेषु in the Vedas? यज्ञेषु in sacrifices? तपःसु in austerities? च and? एव also? दानेषु in gifts? यत् whatever? पुण्यफलम् fruit of merit? प्रदिष्टम् is declared? अत्येति goes beyond? तत् that? सर्वम् all? इदम् this? विदित्वा having known? योगी the Yogi? परम् Supreme? स्थानम् abode? उपैति attains? च and? आद्यम् primeval (first? ancient).Commentary The glory of Yoga is described in this verse. Whatever meritorious effect is declared in the scriptures to accrue from the proper study of the Vedas? from the performance of sacrifices properly? from the practice of austerities -- above all these rises the Yogi who rightly understands and follows the teaching imparted by Lord Krishna in His answers to the seven estions put by Arjuna? and who meditates on Brahman. He attains to the Supreme Abode of Brahman Which existed even in the beginning (primeval)? and is the first or ancient.Idam Viditva Having known this. Having known properly the answers given by the Lord to the seven estions put by Arjuna at the beginning of this chapter.(This chapter is known by the name Abhyasa Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the eighth discourse entitledThe Yoga of the Imperishable Brahman. ,

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।8.28।। व्याख्या--'वेदेषु यज्ञेषु तपःसु ৷৷. स्थानमुपैति चाद्यम्'--यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने भी शास्त्रीय उत्तम-से-उत्तम कार्य हैं और उनका जो फल है, वह विनाशी ही होता है। कारण कि जब उत्तम-से-उत्तम कार्यका भी आरम्भ और समाप्ति होती है, तो फिर उस कार्यसे उत्पन्न होनेवाला फल अविनाशी कैसे हो सकता है? वह फल चाहे इस लोकका हो, चाहे स्वर्गादि भोग-भूमियोंका हो, उसकी नश्वरतामें किञ्चिन्मात्र भी फरक नहीं है। जीव स्वयं परमात्माका अविनाशी अंश होकर भी विनाशी पदार्थोंमें फँसा रहे, तो इसमें उसकी अज्ञता ही मुख्य है। अतः जो मनुष्य तेईसवें श्लोकसे लेकर छब्बीसवें श्लोकतक वर्णित शुक्ल और कृष्णमार्गके रहस्यको समझ लेता है, वह यज्ञ, तप, दान आदि सभी पुण्यफलोंका अतिक्रमण कर जाता है। कारण कि वह यह समझ लेता है कि भोग-भूमियोंकी भी आखिरी हद जो ब्रह्मलोक है, वहाँ जानेपर भी लौटकर पीछे आना पड़ता है; परन्तु भगवान्को प्राप्त होनेपर लौटकर नहीं आना पड़ता (8। 16); और साथ-साथ यह भी समझ लेता है कि मैं तो साक्षात् परमात्माका अंश हूँ तथा ये प्राकृत पदार्थ नित्य-निरन्तर अभावमें, नाशमें जा रहे हैं, तो फिर वह नाशवान् पदार्थोंमें, भोगोंमें न फँसकर भगवान्के ही आश्रित हो जाता है। इसलिये वह आदिस्थान (टिप्पणी प0 480) परमात्माको प्राप्त हो जाता है, जिसको इसी अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें 'परमगति' और 'परमधाम' नामसे कहा गया है।नाशवान् पदार्थोंके संग्रह और भोगोंमें आसक्त हुआ मनुष्य उस आदिस्थान परमात्मतत्त्वको नहीं जान सकता। न जाननेकी यह असामर्थ्य न तो भगवान्की दी हुई है, न प्रकृतिसे पैदा हुई है और न किसी कर्मका फल ही है अर्थात् यह असामर्थ्य किसीकी देन नहीं है; किन्तु स्वयं जीवने ही परमात्मतत्त्वसे विमुख होकर इसको पैदा किया है। इसलिये यह स्वयं ही इसको मिटा सकता है। कारण कि अपने द्वारा की हुई भूलको स्वयं ही मिटा सकता है और इसको मिटानेका दायित्व भी स्वयंपर ही है। इस भूलको मिटानेमें यह जीव असमर्थ नहीं है, निर्बल नहीं है, अपात्र नहीं है। केवल संयोगजन्य सुखकी लोलुपताके कारण यह अपनेमें असामर्थ्यका आरोप कर लेता है और इसीसे मनुष्यजन्मके महान् लाभसे वञ्चित रह जाता है। अतः मनुष्यको संयोगजन्य सुखकी लोलुपताका त्याग करके मनुष्यजन्मको सार्थक बनानेके लिये नित्य-निरन्तर उद्यत रहना चाहिये।छठे अध्यायके अन्तमें भगवान्ने पहले योगीकी महिमा कही और पीछे अर्जुनको योगी हो जानेकी आज्ञा दी (6। 46); और यहाँ भगवान्ने पहले अर्जुनको योगी होनेकी आज्ञा दी और पीछे योगीकी महिमा कही। इसका तात्पर्य है कि छठे अध्यायमें योगभ्रष्टका प्रसङ्ग है, और उसके विषयमें अर्जुनके मनमें सन्देह था कि वह कहीं नष्ट-भ्रष्ट तो नहीं हो जाता? इस शङ्काको दूर करनेके लिये भगवान्ने कहा कि 'कोई किसी तरहसे योगमें लग जाय तो उसका पतन नहीं होता। इतना ही नहीं, इस योगका जिज्ञासुमात्र भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है।' इसलिये योगीकी महिमा पहले कही और पीछे अर्जुनके लिये योगी होनेकी आज्ञा दी। परन्तु यहाँ अर्जुनका प्रश्न रहा कि नियतात्मा पुरुषोंके द्वारा आप कैसे जाननेमें आते हैं? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान्ने कहा कि 'जो सांसारिक पदार्थोंसे सर्वथा विमुख होकर केवल मेरे परायण होता है, उस योगीके लिये मैं सुलभ हूँ', इसलिये पहले 'तू योगी हो जा' ऐसी आज्ञा दी और पीछे योगीकी महिमा कही।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।8.28।। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण इस पर बल देते हैं कि जिस पुरुष में कुछ मात्रा में भी योग्यता है उसको ध्यान का अभ्यास करना चाहिए क्योंकि शास्त्रों में वेदाध्ययन यज्ञ तप और दान को करने में जो पुण्य फल कहा गया है उस फल को योगी प्राप्त करता है। इतना ही नहीं भगवान् विशेष रूप से बल देकर कहते हैं कि योगी उन फलों का उल्लंघन कर जाता है अर्थात् सर्वोच्च फल को प्राप्त होता है। ध्यानाभ्यास द्वारा व्यक्तित्व का संगठन उपर्युक्त यज्ञादि साधनों की अपेक्षा लक्षगुना अधिक सरलता एवं शीघ्रता से हो सकता है किन्तु यहाँ यह मानकर चलते हैं कि ध्यान के साधक में आवश्यक मात्रा में विवेक और वैराग्य दोनों ही हैं। सतत नियमपूर्वक ध्यान करने से इनका भी विकास हो सकता है।इस प्रकार जब योगी ध्यान साधना से निष्काम कर्म एवं उपासना का फल प्राप्त करता है और ध्यान की निरन्तरता बनाये रखता है तो वह सफलता के उच्चतर शिखर की ओर अग्रसर होता हुआ अन्त में इस आद्य अक्षर पुरुष स्वरूप मेरे परम धाम को प्राप्त होकर पुनः संसार को नहीं लौटता।conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नाम अष्टमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का अक्षरब्रह्मयोग नामक आठवां अध्याय समाप्त होता है।अक्षरब्रह्मयोग का अर्थ है अक्षरब्रह्म की प्राप्ति का मार्ग । इस अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन द्वारा किये गये प्रश्नों का उत्तर देने के पश्चात् अपनी दिव्य प्रेरणा से प्रेरित होकर भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रयाणकाल में परम पुरुष का स्मरण करने वालों को अनन्त की प्राप्ति कैसे होती है इसका वर्णन किया है और अर्जुन को ईश्वर स्मरण करते हुए जीवनसंघर्षों की चुनौतियों का कुशलता से सामना करने का उपदेश दिया है।

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।8.28।।श्रद्धाविवृद्ध्यर्थं योगं स्तौति -- शृण्विति। पवित्रपाणित्वप्राङ्मुखत्वादिसाहित्यमध्ययनस्य सम्यक्त्वम्। अङ्गोपाङ्गोपेतत्वमनुष्ठानस्य साद्गुण्यम्। तपसां सुतप्तत्वं मनोबुद्ध्याद्यैकाग्र्यपूर्वकत्वम्। दानस्य च सम्यक्त्वं देशकालपात्रानुगुणत्वम्। इदं विदित्वेत्यत्रेदंशब्दार्थमेव स्फुटयति -- सप्तेति। यद्यपिकिं तद्ब्रह्म इत्यादौअधियज्ञः कथं कोऽत्र इत्यत्र प्रश्नद्वयं प्रतिभासानुसारेण कैश्चिदुक्तं तथापि प्रतिवचनालोचनायां द्वित्वप्रतीत्यभावात्प्रकारभेदविवक्षया चशब्दद्वयस्य प्रतिनियतत्वान्न सप्तेति विरुध्यते। न चेदं वेदनमापातिकं किंत्वनुष्ठानपर्यन्तमित्याह -- सम्यगिति। प्रकृतो ध्याननिष्ठो योगीत्युच्यते। ऐश्वर्यं विष्णोः परमं पदं तदेव तिष्ठत्यस्मिन्नशेषमिति स्थानं योगानुष्ठानादशेषफलातिशायिमोक्षलक्षणं फलं क्रमेण लब्धुं शक्यमिति भावः। तदनेन सप्तप्रश्नप्रतिवचनेन योगमार्गं दर्शयता ध्येयत्वेन तत्पदार्थो व्याख्यातः।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृत0अष्टमोऽध्यायः।।8।।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।8.28।।श्रद्धाविवृद्य्धर्थै योगस्य माहात्म्यं श्रावयति। वेदेषु सम्यगधीतेषु। अध्ययनस्य सम्यवक्त्वं च पवित्रपाणित्वप्राङ्युरवत्वगर्वधीनत्वब्रह्मचर्यपालनत्वादिसाहित्यम् यज्ञेषु श्रद्धयाङोपाङ्गसाहि तपस्सु शास्त्रेक्तेषु मनोबुद्य्धाद्यैकाग्र्येण श्रद्धया सुप्तप्तेषु दानेषु तुलापुरुषादिषु देशे काले पात्रे च श्रद्धया सभ्यग्दत्तेषु यत्पुण्यफलं पुण्यस्य धर्मस्य फलं स्वर्गस्वाराज्यादि प्रदिष्टं शास्त्रेण अतेयत्यतिक्रामति तत्सर्वं इदं पूर्वोक्तसप्तप्रश्ननिरुपणद्वारेणोक्तं विदित्वा सभ्यगनुष्ठानपर्यन्तमवधार्यानुष्ठानाय च योगी ध्याननिष्ठः न केवलं तदतिक्रामति परं सर्वोत्कृष्टमैश्वरं स्थानमाद्यं सर्वकारणं उपैति च प्रतिपद्यते च। सर्वकारणं ब्रह्मैव प्राप्नोतीत्यर्थः। तदनेनाध्यायेन ध्येत्वेन तत्पादार्थो व्याख्यातः।इति श्रीमत्परहंसपरिव्राजकाचार्यश्राविश्वेश्वरसलस्वतीपादशिष्यमधुसूदनसरस्वतीविरतचितायां श्रीभगवद्गीतागूढार्थदीपिकायां अक्षरपरब्रह्मयोगो नाम अष्ठमोऽध्यायः।।8।।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।8.28।।पुनः श्रद्धाभिवृद्धये योगं स्तौति -- वेदेष्विति। वेदेषु सम्यगधीतेषु यज्ञेषु तपःसु च सम्यगनुष्ठितेषु दानेषु च सम्यग्दत्तेषु यत्पुण्यं तत्फलं चेति पुण्यफलं सर्वेषु समुच्चितेषु यत्प्रदिष्टं शास्त्रेषु तत्सर्वं योगी अत्येत्यतिक्रामति कार्यब्रह्मलोकं प्राप्नोतीत्यर्थः। किंकृत्वा इदं पूर्वोक्तमुपासनं विदित्वा ज्ञात्वानुष्ठाय च। ततश्च किमित्यत आह -- यत्स्थानं निर्विशेषं ब्रह्मोपैति प्राप्नोति च क्रमेणेत्यर्थः। आद्यं न तु केनचिन्निर्भितम्।,तदनेनाध्यायेन ध्येयस्तत्पदार्थो व्याख्यातः। अग्रिमेऽध्याये ज्ञेयं ब्रह्म व्याख्यास्यति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।8.28।।ऋग्यजुःसामाथर्वरूपवेदाभ्यासयज्ञतपोदानप्रभृतिषु सर्वेषु पुण्येषु यत् फलं निर्दिष्टम् इदम् अध्यायद्वयोदितं भगवन्माहात्म्यं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति एतद्वेदनसुखातिरेकेण तत् सर्वं तृणवत् मन्यते। योगी ज्ञानी च भूत्वा ज्ञानिनः प्राप्यम् परम् आद्यं स्थानम् उपैति। ,

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।8.28।।अध्यायार्थमष्टप्रश्नार्थनिर्णयं सफलमुपसंहरति -- वेदेष्विति। वेदेष्वध्ययनादिभिः यज्ञेष्वनुष्ठानादिभिः तपःसु कायशोषणादिभिः दानेषु सत्पात्रार्पणादिभिः यत्पुण्यफलमुपदिष्टं शास्त्रेषु तत्सर्वमत्येति ततोऽपि श्रेष्ठं योगैश्वर्यं प्राप्नोति। किं कृत्वा। इदमष्टप्रश्नार्थनिर्णयेनोक्तं तत्त्वं विदित्वा ततश्च योगी ज्ञानी भूत्वा परमुत्कृष्टमाद्यं जगन्मूलभूतस्थानं विष्णोः परमं पदं प्राप्नोति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।8.28।।इदं विदित्वा इति सामान्यतो निर्देशादविशेषाच्चैकप्रकरणभूताध्यायद्वयार्थो गृह्यत इत्यभिप्रायेणाह -- अथेति।वेदेषु इत्यपि यज्ञादिवत्फलकारणतयोपादानम् न तु प्रतिपादकतया तदा यज्ञादिफलव्यतिरिक्तविषयतया सङ्कोचनीयत्वापातात्। वेदाभ्यासस्य च दुरितक्षयादिफलप्रदत्वं श्रुत्यादिसिद्धम्। यज्ञादिफलानां प्रतिपादकतयोपादाने च प्रस्तुताध्यायद्वयार्थस्यापि वेदार्थत्वात्ततोऽपि सङ्कोचः स्यात्। तदेतत्सर्वमभिप्रेत्य -- वेदाभ्यासेत्युक्तम्।दाने च इति चकारस्यानुक्तसमुच्चायकत्वप्रदर्शनायप्रभृतिशब्दः।पुण्यफलम् इत्यत्र पुण्यशब्देन फलविशेषणतया यज्ञादीनामेव सामान्यतो निर्देशः फलस्य श्लाघ्यताप्रदर्शनार्थ इत्यभिप्रायेण यज्ञादिविशेष्यतयापुण्येष्वित्युक्तम्।अध्यायद्वयोदितं भगवन्माहात्म्यमिति -- सप्तमारम्भे हि भगवन्माहात्म्यं प्रक्रान्तम् तदनुबन्धादन्यत्सर्वमुक्तमिति भावः।परं स्थानमुपैति इति योगानुष्ठानसाध्यस्य साक्षात्फलस्य पृथगुच्यमानत्वात्तद्विषयत्वे पौनरुक्त्यादधिकपुण्यफलप्राप्तिविवक्षायां लक्षितलक्षणापातात्। संसारनिवृत्तिमात्रपरत्वेऽपि पुण्यफलशब्देन पापफलस्यापि लक्षयितव्यत्वात्तत्सर्वमत्येति इत्येतत्तद्विवेकमूलविरक्त्यभिप्रायम्। अतिशयितफलवेदनं हिमनःप्रीतिरनायासात् इत्यादिन्यायेन फलान्तरवैतृष्ण्यहेतुरित्यभिप्रायेणाह -- एतद्वेदनेति। भगवन्माहात्म्यज्ञानस्य परस्थानप्राप्तिहेतुत्वे प्रागुक्तज्ञानविशेषरूपद्वारप्रदर्शनंयोगी इत्यनेन क्रियत इत्यभिप्रायेण -- ज्ञानी च भूत्वेत्युक्तम्। परत्वं देशकालयोगादिभिः आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् [यजुस्सं.31।18श्वे.उ.3।8] तदक्षरे परमे व्योमन् [तै.ना.6।1।2]दिव्यं स्थानमजरं चाप्रमेयम् [म.भा.15।5।27]एते वै निरयास्तात स्थानस्य परमात्मनः [म.भा.12।196।31] इत्यादेः। आद्यमनादिमित्यर्थः।आदौ भवं कारणं ब्रह्म इति [शां.भा.] परोक्तं तु स्थानशब्दवैघट्यादयुक्तम्।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायामष्टमोऽध्यायः।।8।।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।8.28।।वेदेष्विति। अत्येति अभिभवति सर्वकर्मसंस्काराणां भगवत्स्मृत्या विफलीकरणात्। सर्वकर्मपरिक्षये च असौ सुखेनैव विन्दति परं शिवमिति।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।8.28।।पुनः श्रद्धावृद्ध्यर्थं योगं स्तौति -- वेदेषु दर्भपवित्रपाणित्वप्राङ्मुखत्वगुर्वधीनत्वादिभिः सम्यगधीतेषु यज्ञेष्वङगोपाङ्गसाहित्येन श्रद्धया सम्यगनुष्ठितेषु तपस्सु शास्त्रोक्तेषु मनोबुद्ध्याद्यैकाग्र्येण श्रद्धया सुतप्तेषु दानेषु तुलापुरुषादिषु देशे काले पात्रे च श्रद्धया सम्यग्दत्तेषु यत्पुण्यफलं पुण्यस्य धर्मस्य फलं स्वर्गस्वाराज्यादि प्रदिष्टं शास्त्रेण अत्येत्यतिक्रामति तत्सर्वं इदं पूर्वोक्तसप्तप्रश्ननिरूपणद्वारेणोक्तं विदित्वा सम्यगनुष्ठानपर्यन्तमवधार्यानुष्ठाय च योगी ध्याननिष्ठः न केवलं तदतिक्रामति परं सर्वोत्कृष्टमैश्वरं स्थानमाद्यं सर्वकारणं उपैति च प्रतिपद्यते च। सर्वकारणं ब्रह्मैव प्राप्नोतीत्यर्थः। तदनेनाध्यायेन ध्येयत्वेन तत्पदार्थो व्याख्यातः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।8.28।।एवमष्टप्रश्नोत्तरमुक्त्वैतज्ज्ञानयुक्तयोगिनः सर्वकालप्राप्तिमुक्त्वोपसंहरति -- वेदेष्विति। वेदेषु अध्ययनादिभिः यज्ञेषु यज्ञानुष्ठानादिभिः तपस्सु परमसन्तापेन क्लेशसहनादिभिः दानेषु तुलापुरुषादिभिर्यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् उक्तमिति यावत् तत्सर्वं फलमिदं समस्ताध्यायार्थं विदित्वा अभ्येति प्राप्नोति ततोऽधिकमपि योगी मद्योगयुक्तः सन् परं मत्सेवारूपं आद्यं सकलकारणरूपं मच्चरणात्मकम् (स्थानं) उपैति मत्समीपे प्राप्नोतीति भावः।भक्तैः शुद्धात्मभक्त्यैव संयोगः पुरुषोत्तमे।प्राप्यते कृष्णदेवेन तदुक्तमिह चाष्टमे।।1।।महापुरुषसंयोगो जीवानां तु यथा भवेत्।कृपया कृष्णदेवेन पार्थायोक्तं तदष्टमे।।2।।इति श्रीभगवद्गीतामृततरङ्गिण्यामष्टमोऽध्यायः।।8।।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।8.28।। --,वेदेषु सम्यगधीतेषु यज्ञेषु च साद्गुण्येन अनुष्ठितेषु तपःसु च सुतप्तेषु दानेषु च सम्यग्दत्तेषु यद् एतेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टं शास्त्रेण अत्येति अतीत्य गच्छति तत् सर्वं फलजातम् इदं विदित्वा सप्तप्रश्ननिर्णयद्वारेण उक्तम् अर्थं सम्यक् अवधार्य अनुष्ठाय योगी परम् उत्कृष्टम् ऐश्वरं स्थानम् उपैति च प्रतिपद्यते आद्यम् आदौ भवम् कारणं ब्रह्म इत्यर्थः।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येअष्टमोऽध्यायः।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।8.28।।एवं मनस्समाधानार्थं वैराग्यार्थं महापुरुषचिन्तनयोग उक्तः तत्फलमाह -- वेदेष्विति। सर्ववेदादिषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टमैहिकमथ पारलौकिकं अन्नाद्यपशुपुत्रस्वाराज्यादिरूपं तदप्यत्येति। तत्र वैराग्ये जाते तदतिक्राम्यति न पुनर्वाञ्छति योगी तत्सर्वमिदं अष्टमाध्याये अष्टप्रश्नार्थनिर्णयेनोक्तं सत्वं विदित्वा विज्ञाय परमुत्कृष्टमाद्यं जगन्मूलभूतं स्थानं भगवद्धाम प्राप्नोति।चतुर्विधानां भगवद्योगिनां तत्पृथक् फलम्। यथाधिकारमत्रोक्तं भगवद्योगवेदिना।।1।।