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As Krishna says, patience is a virtue
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप। अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।
aśhraddadhānāḥ puruṣhā dharmasyāsya parantapa aprāpya māṁ nivartante mṛityu-samsāra-vartmani
Those who have no faith in this Dharma, O Parantapa, return to the path of this world without attaining Me.
9.3 अश्रद्दधानाः without faith? पुरुषाः men? धर्मस्य of duty? अस्य of this? परन्तप O scorcher of foes? अप्राप्य without attaining? माम् Me? निवर्तन्ते return? मृत्युसंसारवर्त्मनि in the path of this world of death.Commentary Arjuna asks? O Lord? why do people not attempt to attain this knowledge of the Self when it can be easily attained? when it is the highest of all things? and when it gives the greatest benefits All should certainly attain this knowledge. The Lord replies? O My beloved disciple? people have no faith in this Dhrama or knowledge and so return to the path of this world of death. Even if they strive with the help of the means of their own imagination they cannot attain Me as they are not endowed with the right means prescribed by the scriptures.Dharma means law? religion? knowledge of the Self.This faith is not mere intellectual belief in certain dogmas or principles. It is not merely belief in the statement of another. It is unshakable firm inner conviction that the knowledge of the Self alone can give one supreme peace? immortality and eternal bliss. It was this strong and unflinching faith of Sri Sankara that goaded him to leave his mother and take shelter under the kind protection of his Guru Sri Govindapada for attaining this knowledge which is the supreme purifier? intuitional? accordig to righteousness? very easy to perform? and imperishable. It was the strong faith of Lord Buddha that induced him to have that iron determination which he expressed in these words? I will not budge an inch from my seat till I get illumination. Faith goes hand in hand with fiery determination.The Lord has eulogies the knowledge of the Self in the first two verses by the positive method (Vidhi Mukhastuti). He has extolled it in the third verse by the negative method (Nishedha Mukhastuti). The benefits of obtaining knowledge of the Self are described in the first and the second verses. This is Vidhi Mukhastuti. The disastrous effects that result from not obtaining the knowledge of the Self are described in the third verse. This is Nishedha Mukhastuti.The greedy? lustful and sinful persons who are the followers of the philosophy of the flesh? who lead the life of the demons? who worship the body taking it to be the Self? and who have no faith in the knowledge of the Self? do not reach Me. They do not even possess an iota of devotion which is also one of the paths that lead men to Me. They remain in the path of the world of death which leads to hell and the lower births of animals? worms? etc.
।।9.3।। व्याख्या--'अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य (टिप्पणी प0 486) परंतप'--धर्म दो तरहका होता है--स्वधर्म और परधर्म। मनुष्यका जो अपना स्वतःसिद्ध स्वरूप है, वह उसके लिये स्वधर्म है और प्रकृति तथा प्रकृतिका कार्यमात्र उसके लिये परधर्म है--'संसारधर्मैरविमुह्यमानः'(श्रीमद्भा0 11। 2। 49)। पीछेके दो श्लोकोंमें भगवान्ने जिस विज्ञानसहित ज्ञानको कहनेकी प्रतिज्ञा की और राजविद्या आदि आठ विशेषण देकर जिसका बड़ा माहात्म्य बताया, उसीको यहाँ 'धर्म' कहा गया है। इस धर्मके माहात्म्यपर श्रद्धा न रखनेवाले अर्थात् उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंको सच्चा मानकर उन्हींमें रचे-पचे रहनेवाले मनुष्योंको यहाँ 'अश्रद्दधानाः' कहा गया है।यह एक बड़े आश्चर्यकी बात है कि मनुष्य अपने शरीरको, कुटुम्बको, धन-सम्पत्ति-वैभवको निःसन्देह-रूपसे उत्पत्ति-विनाशशील और प्रतिक्षण परिवर्तनशील जानते हुए भी उनपर विश्वास करते हैं, श्रद्धा करते हैं, उनका आश्रय लेते हैं। वे ऐसा विचार नहीं करते कि इन शरीरादिके साथ हम कितने दिन रहेंगे और ये हमारे साथ कितने दिन रहेंगे श्रद्धा तो स्वधर्मपर होनी चाहिये थी, पर वह हो गयी परधर्मपर
।।9.3।। नित्यसिद्ध आत्मा का अनादर करके जीने वाले लोग निश्चय ही नित्यस्वरूप मुझे प्राप्त न होकर संसार को लौटते हैं। बहिर्मुखी प्रवृत्ति के लोग सदैव विषयों का ही चिन्तन करके अपनी बौद्धिक क्षमता? मानसिक शक्ति और शारीरिक बल का अपव्यय करते हैं। विषयभोग के नित्य नवीन साधन खोजने में लगे हुए ये लोग मृत्युरूपी संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं।जब मनुष्य विषयों का चिन्तन करके उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करता है तब उसे भोग प्राप्त तो हो जाते हैं? परन्तु वे सब अनित्य होने के कारण उनका अन्तिम परिणाम दुख ही होता है। और विडम्बना यह है कि वह फिर भी उनमें ही और अधिक आसक्त हो जाता है परमात्मा की अपरा प्रकृति का वह पूजक बन जाता है। कितना ही विशाल समुद्र क्यों न हो? उसमें से किसी भी स्थान से लिया गया प्रत्येक बूँद स्वाद में खारा ही होता है। इसी प्रकार? विषय प्रेम के पीछे हमारा कोई भी उद्देश्य क्यों न हो? एक बार विषयलोलुप हो जाने पर हम निश्चय ही दुख के खारे अश्रु पीने को बाध्य हो जाते हैं? क्योंकि अनित्यता? नश्वरता तो हमारे प्रेम के विषय का स्वरूप ही है। नामरूपमय यह जगत् परिच्छिन्न और नित्य परिवर्तनशील है। यहाँ प्रतिक्षण प्रत्येक वस्तु परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रही है? और प्रत्येक परिवर्तन वस्तु की पूर्व स्थिति की मृत्यु है। इस प्रकार? यहाँ भगवान् द्वारा प्रयुक्त मृत्यु शब्द को उसके व्यापक अर्थ में ग्रहण करना चाहिए। संक्षेप में? विषयलोलुप लोग सदैव दुखपूर्ण मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं।यद्यपि वेदान्तशास्त्र में श्रद्धा शब्द गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के आशय को भी सूचित करता है? तथापि यह श्रद्धा भावुकता के कोहरे पर निर्मित नहीं? वरन् सिद्धांत की युक्तियुक्तता के ज्ञान के स्थित प्रकाश पर स्थिर है। श्रीशंकराचार्य श्रद्धा की परिभाषा इस प्रकार देते हैं? शास्त्र और आचार्य के उपदेश को सत्यबुद्धि से ग्रहण करना श्रद्धा है जिसके द्वारा परमार्थ सत्य वस्तु की प्राप्ति होती है। श्रद्धा वह दृढ़ विश्वास है? जो हमें मन और बुद्धि से परे तत्त्व की ऊँचाई तक उठाता है? और र्मत्यपरिच्छिन्न जीव से अमृत स्वरूप अनन्त सत्य के गढ़ने में सहायक होता है।किसी वस्तु का धर्म वह कुछ होता है? जिसके बिना उस वस्तु का उस रूप में अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता? जैसे अग्नि की उष्णता? बर्फ की शीतलता और सूर्य का प्रकाश। जिन लोगों को अपने दिव्य आत्मस्वरूप के अस्तित्व में श्रद्धा नहीं होती वे अपनी भावनाओं के कूजन? बुद्धि के गर्जन और देह की फुंकारों द्वारा बड़ी सरलता से आनन्दस्वरूप से अपहरण कर लिये जाते हैं। वे विकास की सीढ़ी से नीचे गिर कर द्विपाद पशुओं के समान जीवन जीते हैं। जैसे कोई विक्षिप्त (पागल) राजा अपने आप को भूलकर अपनी राजप्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है? और फिर एक निराश्रित व्रात्य (आवारा) पुरुष के समान व्यवहार करता हुआ गलियों मे नग्नावस्था में घूम्ाता रहता है? वैसे ही यह जीव अज्ञानवश अपने आत्मस्वरूप की गरिमा को भूलकर विषयोपभोगांे की खुली नालियों में सुख को खोजता हुआ ऐसे घूमता है? मानो वह किसी नाली में रेंगने वाले काड़े से भी निकृष्ट हो।सरलता का आभास लिये हुए? यह श्लोक वास्तव में अत्यन्त सारगर्भित है। अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में ज्ञान के मार्ग का अज्ञान के मार्ग से भेद दर्शाकर? भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन की बुद्धि में ज्ञानमार्ग की उपादेयता को बैठा देते हैं। ज्ञानमार्ग अक्षर पुरुष की स्वानुभूति का मार्ग है।अब भगवान् श्रीकृष्ण ज्ञान का उपदेश देना प्रारम्भ करते हैं --
।।9.3।।आत्मज्ञानाख्ये धर्मे श्रद्धावतां तन्निष्ठानां परमपदप्राप्तिमुक्त्वा ततो विमुखानां संसारप्राप्तिमाह -- ये पुनरिति। आत्मज्ञानतत्फलयोर्नास्तिकानेव विशिनष्टि -- पापेति। उक्तानामात्मंभरीणां भगवत्प्राप्तिसंभावनाभावादप्राप्य मामित्यप्रसक्तप्रतिषेधः स्यादित्याशङ्क्याह -- मत्प्राप्ताविति।
।।9.3।।श्रद्धया ज्ञाननिष्ठानां ज्ञानप्राप्त्या मोक्षप्राप्तिरित्यन्वयमुखेन ज्ञानं स्तुत्वा व्यतिरेकमुखेन तत्स्तौति -- अश्रद्दधाना इति। ये पुनरस्य धर्मस्य ब्रह्मज्ञानलक्षणस्य स्वरुपे फले वा श्रद्धहीना नास्तिकाः अनेकजन्मार्जतपापैः पाप एव प्रवर्तिता देहमात्रात्मदर्शनमेव प्रतिपन्नाः केवलमसुर्तणनिष्ठाः। केनचिदुत्कटेन पुण्यलवेन मनुष्येयोनिं प्राप्ताः पुरुषा मामप्राप्य मृत्युक्ते संसारवर्त्मनि नरकतिर्यगादिप्राप्तिलक्षणे निवर्तन्ते। निश्चयेन वर्तन्त इत्यर्थः। मामप्राप्येत्यस्य मत्प्राप्तिमार्गसाधनविशेषभक्तिमार्गमप्राप्येत्यर्थः। अन्यथा तेषां परमेश्वरप्राप्तिसंभावनाया अप्यभावादप्रसक्तिप्रतिषेध आपद्येत। परंतपेति संबोधयन् परानश्रद्धादीन् शत्रून् तापयन् ब्रह्मज्ञाने श्रद्धां कर्तुं योग्योऽसि न त्वश्रद्धयाभिभूतः एतत्पङौ निवेष्टुमिति सूचयति।
।।9.3।।तर्हि कुतएतज्ज्ञानं सर्वे न संपादयन्तीत्याह -- अश्रद्दधाना इति। स्पष्टार्थः श्लोकः।
।।9.3।।अस्य उपासनाख्यस्य धर्मस्य निरतिशयप्रियमद्विषयतया स्वयं निरतिशयप्रियरूपस्य परमनिःश्रेयसस्वरूपमत्प्राप्तिसाधनस्य अव्ययस्य उपादानयोग्यदशां प्राप्य अश्रद्दधानाः विश्वासपूर्वकत्वारारहिताः पुरुषाः माम् अप्राप्य मृत्युरूपे संसारवर्त्मनि नितरां वर्तन्ते। अहो महद् इदम् आश्चर्यम् इत्यर्थः।श्रृणु तावत् प्राप्यभूतस्य मम अचिन्त्यमहिमानम् --
।।9.3।। नन्वेवमस्वातिसुकरत्वे के नाम संसारिणः स्युस्तत्राह -- अश्रद्दधाना इति। अस्य भक्तिलक्षणज्ञानसहितस्य धर्मस्येति कर्मणिषष्ठ्यौ। इमं धर्ममश्रद्दधाना आस्तिक्येनास्वीकुर्वन्तः? उपायान्तरेण मत्प्राप्तये कृतप्रयत्ना अपि मामप्राप्य मृत्युयुक्ते संसारवर्त्मनि निवर्तन्ते। मृत्युव्याप्ते संसारमार्गे परिभ्रमन्तीत्यर्थः।
।।9.3।।उक्तप्रकारश्रद्धेयज्ञानानुष्ठानाभावे मोक्षो न सिद्ध्यतीति दर्शयन् स्वरूपतः फलतश्च निरतिशयसुखरूपस्य सर्वैरनुष्ठानाभावे हेतुं च वदन् नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय [यजुस्सं.31।18श्वे.उ.3।8] इत्यादिकमुपबृंहयतिअश्रद्दधानाः इति श्लोकेन।अस्य इति पूर्वोक्तसर्वाकारपरामर्श इत्याहनिरतिशयेत्यादिना। धर्मस्येति सम्बन्धसामान्यविषयायाः षष्ठ्याः फलितान्वयप्रदर्शनायाहउपादानयोग्यदशां प्राप्येति। यद्वा श्रद्धानिषेधस्तत्प्रसङ्गे सति हीत्यभिप्रायः। कारणनिवृत्तेः कार्यानुष्ठाननिवृत्तिपर्यन्तत्वप्रदर्शनायोक्तंविश्वासपूर्वकत्वरारहिता इति।मृत्युरूप इति बाधकस्वरूप इत्यर्थः? अथवा मरणगर्भत्वादेव मृत्युरूपता।निवर्तन्ते इत्यत्र प्रतिनिवृत्तिविवक्षायामवधिसाकाङ्क्षत्वादत्र च तन्निर्देशाभावात्?मामप्राप्य इति पृथङ्निर्दिष्टत्वेन परमपुरुषस्याप्यवधित्वकल्पनायोगात्?संसारवर्त्मनि इति सप्तम्याः स्वरसत आधेयसाकाङ्क्षत्वात्? उपसर्गाणां चानेकार्थत्वात्नितरां वर्तन्त इत्युक्तम्। स्वरूपतः फलतश्च निरतिशयपुरुषार्थं सुकरं चोपासनं ज्ञात्वाऽपि परित्यज्य पुरुषाः पुरुषार्थतारतम्यविदोऽपि निरतिशयापुरुषार्थमयं संसारमादरेण सेवन्त इति विस्मयाविद्धस्येश्वरस्य इदं वचनमित्यभिप्रायेणाहअहो इति। आश्चर्यतमो दुष्कर्मप्रभाव इत्यभिप्रायेणाहमहदिदमाश्चर्यमिति। अश्रद्धाहेतव आन्तरशत्रवोऽपि त्वया निराकार्या इतिपरन्तप इति सम्बुद्धेर्भावः।
।।9.3।।अश्रद्दधाना इति। निवर्तन्ते ( adds न च मत्स्था यथाकाशमें (ए) वं हि सर्वभूतानि -- before निवर्तन्ते। Obviously this is to go the next verse) ? पुनः पुनर्जायन्ते म्रियन्ते च।
।।9.3।।एवमप्यस्य सुकरत्वे सर्वोत्कृष्टत्वे च सर्वेऽपि कुतोऽत्र न प्रवर्तन्ते। तथाच न कोऽपि संसारी स्यादित्यत आह -- अस्यात्मज्ञानाख्यस्य धर्मस्य स्वरूपे साधने फले च शास्त्रप्रतिपादितेऽपि अश्रद्दधानाः वेदविरोधिकुहेतुदर्शनदूषितान्तःकरणतया प्रामाण्यममन्यमानाः पापकारिणोऽसुरसंपदमारूढाः स्वमतिकल्पितेनोपायेन कथंचिद्यतमाना अपि शास्त्रविहितोपायाभावादप्राप्य मां मत्प्राप्तिसाधनमप्यलब्ध्वा निवर्तन्ते निश्चयेन वर्तन्ते। क्व। मृत्युयुक्ते संसारवर्त्मनि। सर्वदा जननमरणप्रबन्धेन नारकितिर्यगादित्योनिष्वेव भ्रमन्तीत्यर्थः।
।।9.3।।एवं पूर्वंते प्रवक्ष्यामि [9।1] इत्यनेन श्रद्दधानाय तुभ्यं कथयामीति प्रतिज्ञाय एतदश्रद्दधानाः संसारं प्राप्नुवन्तीति कथनेनैतस्योत्तमत्वं प्रतिपादयति -- अश्रद्दधाना इति। हे परन्तप मत्प्रसादात्मकोत्कृष्टतपोयुक्त इदं ज्ञानं मद्वाक्यरूपमश्रद्दधानाः पुरुषाः योगज्ञा अपि अस्य धर्मस्य फलरूपं मां अप्राप्य मृत्युयुक्ते संसारमार्गे निवर्तन्ते परिभ्रमन्ति जायस्व म्रियस्व [छां.उ.5।10।8] इति तृतीयमार्गाभिनिविष्टा भवन्तीत्यर्थः।अश्रद्दधानाः इति कथनेन श्रद्धामात्रेणापि संसाराभावो व्यञ्जितः।
।।9.3।। --,अश्रद्दधानाः श्रद्धाविरहिताः आत्मज्ञानस्य धर्मस्य अस्यस्वरूपे तत्फले च नास्तिकाः पापकारिणः? असुराणाम् उपनिषदं देहमात्रात्मदर्शनमेव प्रतिपन्नाः असुतृपः पापाः पुरुषाः अश्रद्दधानाः? परंतप? अप्राप्य मां परमेश्वरम्? मत्प्राप्तौ नैव आशङ्का इति मत्प्राप्तिमार्गसाधनभेदभक्तिमात्रमपि अप्राप्य इत्यर्थः। निवर्तन्ते निश्चयेन वर्तन्ते क्व -- मृत्युसंसारवर्त्मनि मृत्युयुक्तः संसारः मृत्युसंसारः तस्य वर्त्म नरकतिर्यगादिप्राप्तिमार्गः? तस्मिन्नेव वर्तन्ते इत्यर्थः।।स्तुत्या अर्जुनमभिमुखीकृत्य आह --,
।।9.3।।अस्य ज्ञानस्य मध्ये धर्मस्य भजनलक्षणस्य? पाठान्तरे तु धर्मस्य तत्सहितज्ञानस्य वा श्रद्धारहिताः पुरुषा ये ते मां पुरुषोत्तममप्राप्य मृत्युरूपे संसारे नितरां वर्तन्ते।