BG - 9.4

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।9.4।।

mayā tatam idaṁ sarvaṁ jagad avyakta-mūrtinā mat-sthāni sarva-bhūtāni na chāhaṁ teṣhvavasthitaḥ

  • mayā - by me
  • tatam - pervaded
  • idam - this
  • sarvam - entire
  • jagat - cosmic manifestation
  • avyakta-mūrtinā - the unmanifested form
  • mat-sthāni - in me
  • sarva-bhūtāni - all living beings
  • na - not
  • cha - and
  • aham - I
  • teṣhu - in them
  • avasthitaḥ - dwell

Translation

All of this world is pervaded by Me in My unmanifest aspect; all beings exist within Me, but I do not dwell within them.

Commentary

By - Swami Sivananda

9.4 मया by Me? ततम् pervaded? इदम् this? सर्वम् all? जगत् world? अव्यक्तमूर्तिना by the unmanifested form? मत्स्थानि exist in Me? सर्वभूतानि all beings? न not? च and? अहम् I? तेषु in them? अवस्थितः placed.Commentary Avyaktamurti is Para Brahman or the Supreme Unmanifested Being invisible to the senses but cognisable through intuition. All beings from Brahma? the Creator? down to the blade of grass or an ant? dwell in the transcendental Para Brahman. They have no independent existence they exist through the Self which is the support for everythin? which underlies them all.Nothing here contains It. As Brahman is the Self of all beings? one may imagine that It dwells in them. But it is not so. How could it be How can the Infinite be contained in a finite object Brahman has no connection or contact with any material object? just as a chair or a table has contact with the ground or a man or a book. So It does not dwell in those beings. That which has no connection or contact with objects or beings cannot be contained anywhere as if in a vessel? trunk? room or receptacle. The Self is not rooted in all these forms. It is not contained by any of these forms just as the ether is not contained in any form though all forms are derived from the ether.All beings appear to be living in Brahman? but this is an illusion. If this illusion vanishes? nothing remains anywhere except Brahman. When ignorance? the cause of this illusion? disappears? the very idea of the existence of these beings also will vanish.In verses 4 and 5 the Lord uses a paradox or an apparent contradiction All beings dwell in Me and yet do not dwell in Me I do not dwell in them. For a thinker there is no real contradiction at all. Just as space contains all beings and yet is not touched by them? so also Para Brahman contains everything and yet is not touched by them. Even Mulaprakriti? the source or womb of this world? is supported by Brahman. Brahman has no support or root. It rests in Its own pristine glory. (Cf.VII.12?24VIII.22)

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।9.4।। व्याख्या--'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना'--मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे जिसका ज्ञान होता है, वह भगवान्का व्यक्तरूप है और जो मन-बुद्धि-इन्द्रियोंका विषय नहीं है अर्थात् मन आदि जिसको नहीं जान सकते, वह भगवान्का अव्यक्तरूप है। यहाँ भगवान्ने 'मया' पदसे व्यक्त(साकार-) स्वरूप और 'अव्यक्तमूर्तिना' पदसे अव्यक्त-(निराकार-) स्वरूप बताया है। इसका तात्पर्य है कि भगवान् व्यक्तरूपसे भी हैं और अव्यक्तरूपसे भी हैं। इस प्रकार भगवान्की यहाँ व्यक्त-अव्यक्त (साकार-निराकार) कहनेकी गूढ़ाभिसन्धि समग्ररूपसे है अर्थात् सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदिका भेद तो सम्प्रदायोंको लेकर है, वास्तवमें परमात्मा एक हैं। ये सगुण-निर्गुण आदि एक ही परमात्माके अलग-अलग विशेषण हैं, अलग-अलग नाम हैं। गीतामें जहाँ सत्-असत् शरीरशरीरीका वर्णन किया गया है, वहाँ जीवके वास्तविक स्वरूपके लिये आया है--'येन सर्वमिदं ततम्' (2। 17) क्योंकि यह परमात्माका साक्षात् अंश होनेसे परमात्माके समान ही सर्वत्र व्यापक है अर्थात् परमात्माके साथ इसका अभेद है। जहाँ सगुणनिराकारकी उपासनाका वर्णन आया है, वहाँ बताया है -- येन सर्वमिदं ततम् (8। 22), जहाँ कर्मोंके द्वारा भगवान्का पूजन बताया है, वहाँ भी कहा है--येन सर्वमिदं ततम् (18। 46)। इन सबके साथ एकता करनेके लिये ही भगवान् यहाँ कहते हैं -- मया ततमिदं सर्वम्।'मतस्थानि सर्वभूतानि'-- सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं अर्थात् पराअपरा प्रकृतिरूप सारा जगत् मेरेमें ही स्थित है। वह मेरेको छोड़कर रह ही नहीं सकता। कारण कि सम्पूर्ण प्राणी मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं, मेरेमें ही स्थित रहते हैं और मेरेमें ही लीन होते हैं अर्थात् उनका उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप जो कुछ परिवर्तन होता है, वह सब मेरेमें ही होता है। अतः वे सब प्राणी मेरेमें स्थित हैं।'न चाहं तेष्ववस्थितः'-- पहले भगवान्ने दो बातें कहीं -- पहली 'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना' और दूसरी 'मत्स्थानि सर्वभूतानि।' अब भगवान् इन दोनों बातोंके विरुद्ध दो बातें कहते हैं।पहली बात(मैं सम्पूर्ण जगत्में स्थित हूँ) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। कारण कि यदि मैं उनमें स्थित होता तो उनमें जो परिवर्तन होता है, वह परिवर्तन मेरेमें भी होता उनका नाश होनेसे मेरा भी नाश होता और उनका अभाव होनेसे मेरा भी अभाव होता। तात्पर्य है कि उनका तो परिवर्तन, नाश और अभाव होता है परन्तु मेरेमें कभी किञ्चिन्मात्र भी विकृति नहीं आती। मैं उनमें सब तरहसे व्याप्त रहता हुआ भी उनसे निर्लिप्त हूँ, उनसे सर्वथा सम्बन्धरहित हूँ। मैं तो निर्विकाररूपसे अपनेआपमें ही स्थित हूँ।वास्तवमें मैं उनमें स्थित हूँ -- ऐसा कहनेका तात्पर्य यह है कि मेरी सत्तासे ही उनकी सत्ता है, मेरे होनेपनसे ही उनका होनापन है। यदि मैं उनमें न होता, तो जगत्की सत्ता ही नहीं होती। जगत्का होनापन तो मेरी सत्तासे ही दीखता है। इसलिये कहा कि मैं उनमें स्थित हूँ। 'न च मत्स्थानि भूतानि' (टिप्पणी प0 489) -- अब भगवान् दूसरी बात(सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि वे प्राणी मेरेमें स्थित नहीं हैं। कारण कि अगर वे प्राणी मेरेमें स्थित होते तो मैं जैसा निरन्तर निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहता हूँ, वैसा संसार भी निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहता। मेरा कभी उत्पत्तिविनाश नहीं होता, तो संसारका भी उत्पत्तिविनाश नहीं होता। एक देशमें हूँ और एक देशमें नहीं हूँ, एक कालमें हूँ, और एक कालमें नहीं हूँ, एक व्यक्तिमें हूँ और एक व्यक्तिमें नहीं हूँ -- ऐसी परिच्छिन्नता मेरेमें नहीं है, तो संसारमें भी ऐसी परिच्छिन्नता नहीं होती। तात्पर्य है कि निर्विकारता, नित्यता, व्यापकता, अविनाशीपन आदि जैसे मेरेमें हैं, वैसे ही उन प्राणियोंमें भी होते। परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरी स्थिति निरन्तर रहती है और उनकी स्थिति निरन्तर नहीं रहती, तो इससे सिद्ध हुआ कि वे मेरेमें स्थित नहीं हैं।अब उपर्युक्त विधिपरक और निषेधपरक चारों बातोंको दूसरी रीतिसे इस प्रकार समझें। संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है तथा परमात्मा संसारमें नहीं हैं और संसार परमात्मामें नहीं है। जैसे, अगर तरंगकी सत्ता मानी जाय तो तरंगमें जल है और जलमें तरंग है। कारण कि जलको छोड़कर तरंग रह ही नहीं सकती। तरंग जलसे ही पैदा होती है, जलमें ही रहती है और जलमें ही लीन हो जाती है अतः तरंगका आधार, आश्रय केवल जल ही है। जलके बिना उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये तरंगमें जल है और जलमें तरंग है। ऐसे ही संसारकी सत्ता मानी जाय तो संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है। कारण कि परमात्माको छोड़कर संसार रह ही नहीं सकता। संसार परमात्मासे ही पैदा होता है, परमात्मामें ही रहता है और परमात्मामें ही लीन हो जाता है। परमात्माके सिवाय संसारकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है।अगर तरंग उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होनेसे तथा जलके सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होनेसे तरंगकी सत्ता न मानी जाय, तो न तरंगमें जल है और न जलमें तरंग है अर्थात् केवल जलहीजल है और जल ही तरंगरूपसे दीख रहा है। ऐसे ही संसार उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होनेसे तथा परमात्माके सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होनेसे संसारकी सत्ता न मानी जाय, तो न संसारमें परमात्मा हैं और न परमात्मामें संसार है अर्थात् केवल परमात्माहीपरमात्मा हैं और परमात्मा ही संसाररूपसे दीख रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे तत्त्वसे एक जल ही है, तरंग नहीं है, ऐसे ही तत्त्वसे एक परमात्मा ही हैं, संसार नहीं है--'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19)।अब कार्यकारणकी दृष्टिसे देखें तो जैसे मिट्टीसे बने हुए जितने बर्तन हैं, उन सबमें मिट्टी ही है क्योंकि वे मिट्टीसे ही बने हैं, मिट्टीमें ही रहते हैं और मिट्टीमें ही लीन होते हैं अर्थात् उनका आधार मिट्टी ही है। इसलिये बर्तनोंमें मिट्टी है और मिट्टीमें बर्तन हैं। परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो बर्तनोंमें मिट्टी और मिट्टीमें बर्तन नहीं हैं। अगर बर्तनोंमें मिट्टी होती, तो बर्तनोंके मिटनेपर मिट्टी भी मिट जाती। परन्तु मिट्टी मिटती ही नहीं। अतः मिट्टी मिट्टीमें ही रही अर्थात् अपनेआपमें ही स्थित रही। ऐसे ही अगर मिट्टीमें बर्तन होते, तो मिट्टीके रहनेपर बर्तन हरदम रहते। परन्तु बर्तन हरदम नहीं रहते। इसलिये मिट्टीमें बर्तन नहीं हैं। ऐसे ही संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार रहते हुए भी संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार नहीं है। कारण कि अगर संसारमें परमात्मा होते तो संसारके मिटनेपर परमात्मा भी मिट जाते। परन्तु परमात्मा मिटते ही नहीं। इसलिये संसारमें परमात्मा नहीं हैं। परमात्मा तो अपनेआपमें स्थित हैं। ऐसे ही परमात्मामें संसार नहीं है। अगर परमात्मामें संसार होता तो परमात्माके रहनेपर संसार भी रहता परन्तु संसार नहीं रहता। इसलिये परमात्मामें संसार नहीं है।जैसे, किसीने हरिद्वारको याद किया तो उसके मनमें हरिकी पैड़ी दीखने लग गयी। बीचमें घण्टाघर बना हुआ है। उसके दोनों ओर गङ्गाजी बह रही हैं। सीढ़ियोंपर लोग स्नान कर रहे हैं। जलमें मछलियाँ उछलकूद मचा रही हैं। यह सबकासब हरिद्वार मनमें है। इसलिये हरिद्वारमें बना हुआ सब कुछ,(पत्थर, जल, मनुष्य, मछलियाँ आदि) मन ही है। परन्तु जहाँ चिन्तन छोड़ा, वहाँ फिर हरिद्वार नहीं रहा, केवल मनहीमन रहा। ऐसे ही परमात्माने 'बहु स्यां प्रजायेय'संकल्प किया, तो संसार प्रकट हो गया। उस संसारके कणकणमें परमात्मा ही रहे और संसार परमात्मामें ही रहा क्योंकि परमात्मा ही संसाररूपमें प्रकट हुए हैं। परन्तु जहाँ परमात्माने संकल्प छोड़ा, वहाँ फिर संसार नहीं रहा, केवल परमात्माहीपरमात्मा रहे।तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मा हैं और संसार है-- इस दृष्टिसे देखा जाय तो संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार है। परन्तु तत्त्वकी दृष्टिसे देखा जाय तो न संसारमें परमात्मा हैं और न परमात्मामें संसार है क्योंकि वहाँ संसारकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। वहाँ तो केवल परमात्माहीपरमात्मा हैं --'वासुदेवः सर्वम्।' यही जीवन्मुक्तोंकी, भक्तोंकी दृष्टि है। 'पश्य मे योगमैश्वरम्' (टिप्पणी प0 490) -- मैं सम्पूर्ण जगत्में और सम्पूर्ण जगत् मेरेमें होता हुआ भी सम्पूर्ण जगत् मेरेमें नहीं है और मैं सम्पूर्ण जगत्में नहीं हूँ अर्थात् मैं संसारसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ, अपनेआपमें ही स्थित हूँ -- मेरे इस ईश्वरसम्बन्धी योगको अर्थात् प्रभाव(सामर्थ्य) को देख। तात्पर्य है कि मैं एक ही अनेकरूपसे दीखता हूँ और अनेकरूपसे दीखता हुआ भी मैं एक ही हूँ अतः केवल मैंहीमैं हूँ।'पश्य' क्रियाके दो अर्थ होते हैं -- जानना और देखना। जानना बुद्धिसे और देखना नेत्रोंसे होता है। भगवान्के योग(प्रभाव) को जाननेकी बात यहाँ आयी है और उसे देखनेकी बात ग्यारहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें आयी है।'भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः' -- मेरा जो स्वरूप है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंको पैदा करनेवाला, सबको धारण करनेवाला तथा उनका भरणपोषण करनेवाला है। परन्तु मैं उन प्राणियोंमें स्थित नहीं हूँ अर्थात् मैं उनके आश्रित नहीं हूँ, उनमें लिप्त नहीं हूँ। इसी बातको भगवान्ने पंद्रहवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें कहा है कि क्षर (जगत्) और अक्षर (जीवात्मा) -- दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जिसको,परमात्मा नामसे कहा गया है और जो सम्पूर्ण लोकोंमें व्याप्त होकर सबकाभरणपषण करता हुआ सबका शासन करता है।तात्पर्य यह हुआ कि जैसे मैं सबको उत्पन्न करता हुआ और सबका भरणपोषण करता हुआ भी अहंताममतासे रहित हूँ और सबमें रहता हुआ भी उनके आश्रित नहीं हूँ, उनसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ। ऐसे ही मनुष्यको चाहिये कि वह कुटुम्बपरिवारका भरणपोषण करता हुआ और सबका प्रबन्ध, संरक्षण करता हुआ उनमें अहंताममता न करे और जिसकिसी देश, काल, परिस्थितिमें रहता हुआ भी अपनेको उनके आश्रित न माने अर्थात् सर्वथा निर्लिप्त रहे।भक्तके सामने जो कुछ परिस्थिति आये, जो कुछ घटना घटे, मनमें जो कुछ संकल्पविकल्प आये, उन सबमें उसको भगवान्की ही लीला देखनी चाहिये। भगवान् ही कभी उत्पत्तिकी लीला, कभी स्थितिकी लीला और कभी संहारकी लीला करते हैं। यह सब संसार स्वरूपसे तो भगवान्का ही रूप है और इसमें जो परिवर्तन होता है, वह सब भगवान्की ही लीला है -- इस तरह भगवान् और उनकी लीलाको देखते हुए भक्तको हरदम प्रसन्न रहना चाहिये। मार्मिक बात सब कुछ परमात्मा ही है -- इस बातको खूब गहरा उतरकर समझनेसे साधकको इसका यथार्थ अनुभव हो जाता है। यथार्थ अनुभव होनेकी कसौटी यह है कि अगर उसकी कोई प्रशंसा करे कि आपका सिद्धान्त बहुत अच्छा है आदि, तो उसको अपनेमें बड़प्पनका अनुभव नहीं होना चाहिये। संसारमें कोई आदर करे या निरादर -- इसका भी साधकपर असर नहीं होना चाहिये। अगर कोई कह दे कि संसार नहीं है और परमात्मा हैं -- यह तो आपकी कोरी कल्पना है और कुछ नहीं आदि, तो ऐसी काटछाटँसे साधकको किञ्चिन्मात्र भी बुरा नहीं लगना चाहिये। उस बातको सिद्ध करनेके लिये दृष्टान्त देनेकी, प्रमाण खोजनेकी इच्छा ही नहीं होनी चाहिये और कभी भी ऐसा भाव नहीं होना चाहिये कि यह हमारा सिद्धान्त है, यह हमारी मान्यता है, इसको हमने ठीक समझा है आदि। अपने सिद्धान्तके विरुद्ध कोई कितना ही विवेचन करे, तो भी अपने सिद्धान्तमें किसी कमीका अनुभव नहीं होना चाहिये और अपनेमें कोई विकार भी पैदा नहीं होना चाहिये। अपना यथार्थ अनुभव स्वाभाविकरूपसे सदासर्वदा अटल और अखण्डरूपसे बना रहना चाहिये। इसके विषयमें साधकको कभी सोचना ही नहीं पड़े।  सम्बन्ध--अब भगवान् पीछेके दो श्लोकोंमें कही हुई बातोंको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।9.4।। यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त स्वरूप के द्वारा व्याप्त है किसी वस्तु की सूक्ष्मता उसकी व्यापकता से नापी जाती है और इसलिए सूक्ष्मतम वस्तु का सर्वव्यापक होना अनिवार्य है। देशकाल से परिच्छिन्न (सीमित) सभी वस्तुओं का आकार तथा नाश होता है अत सर्वव्यापी वस्तु निराकार और नाशरहित होगी। इस प्रकार आत्मतत्त्व अपने मूल अव्यक्तस्वरूप से सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है? जैसे मिट्टी के बने सभी रूपों और आकारों वाले घटों में मिट्टी व्याप्त होती है।यदि? इस प्रकार? अनन्तपरिच्छिन्न तत्त्व सान्त और परिच्छिन्न जगत् को व्याप्त किये है? तो इन दोनों में निश्चित रूप से क्या संबंध है क्या यह जगत् अनन्ततत्त्व से प्रकट हुआ है अथवा क्या अनन्त ने सान्त का निर्माण किया है या फिर क्या अनन्त वस्तु स्वयं विकार को प्राप्त होकर यह जगत् बन गयी? जैसे दूध दही बनता है अथवा? क्या इन दोनों में पितापुत्र या स्वामीभृत्य का संबंध है विश्व के विभिन्न धर्म ऐसे प्रश्नों से भरे हुए हैं। द्वैतवादी लोग ही अनन्त और सान्त? ईश्वर और भक्त के मध्य किसीनकिसी प्रकार के काल्पनिक संबंध में रम सकते हैं। परन्तु अद्वैती ऐसे किसी भी प्रकार के संबंध को स्वीकार नहीं कर सकते? क्योंकि संबंध किन्हीं दो वस्तुओं में ही हो सकता है? जब कि उनके सिद्धांतानुसार केवल आत्मा ही एकमेव अद्वितीय पारमार्थिक सत्य वस्तु है।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में सत्य और मिथ्या के बीच के इस संबंधरहित संबंध का शास्त्रीय वर्णन किया गया है। समस्त भूत मुझमें स्थित हैं? परन्तु मैं उनमें अवस्थित नहीं हूँ। शास्त्रीय पद्धति से अनभिज्ञ उतावले पाठकों को यह कथन एक अनाकलनीय विरोधाभास प्रतीत होगा? जिसे अर्थशून्य शब्दों के जमघट के द्वारा व्यक्त किया गया है। परन्तु जिसने अध्यास के सिद्धांत को सम्यक् प्रकार से समझ लिया है? उसके लिए उक्त कथन का अर्थ अत्यन्त सरल है। किसी वस्तु के अज्ञान से उस पर किसी अन्य वस्तु की कल्पना करना अध्यास है जैसे एक स्तम्भ पर प्रेत की कल्पना। शास्त्रीय भाषा में स्तम्भ को अधिष्ठान और प्रेत को अध्यास कहेंगे। इस दृष्टान्त में स्तम्भ (अधिष्ठान) के बिना प्रेत का आभास नहीं हो सकता था। अब स्तम्भ की दृष्टि से उसमें और उस अध्यस्त प्रेत में निश्चित रूप से कौन सा संबंध है कल्पना करें कि स्तम्भ में प्रेत देखकर मोहित हुए व्यक्ति को वह स्तम्भ स्वयंका सम्यक् ज्ञान कराना चाहता है? तो वह किस प्रकार उपदेश देगा वह निर्दोष स्तम्भ उस मूढ़ पुरुष के प्रति असीम प्रेम के कारण भगवान् श्रीकृष्ण के समान ही उपदेश देगा। वह कहेगा निसन्देह ही वह प्रेत मुझमें स्थित है? परन्तु मैं उसमें नहीं हूँ और इसलिए? मैने कदापि किसी भी मूढ़ यात्री को भयभीत नहीं किया है। इसी प्रकार भगवान् यहाँ कहते हैं? मैं अपने अव्यक्त स्वरूप से इस सम्पूर्ण व्यक्त जगत् का अधिष्ठान हूँ। यद्यपि परमात्मा इस नानारूपमय सृष्टि का अधिष्ठान है? तथापि वह उनके गुण दोष? सुख दुख? जन्ममृत्यु आदि से लिप्त नहीं होता? क्योंकि मैं उनमें अवस्थित नहीं हूँ।इस पंक्ति में पूर्व1 कथित सिद्धांत ही प्रतिध्वनित होता है? जहाँ सम्भवत और अधिक लहरदार भाषा में इसे व्यक्त किया गया था कि? मैं उनमें नहीं हूँ? वे मुझमें है। संक्षेप में? यहाँ सूचित किया गया है कि जड़ उपाधियों से तादात्म्य के कारण आत्मा उनमें स्थित हुआ मानो दुखीसंसारी जीव बना है और इस मिथ्या तादात्म्य की निवृत्ति से उसे बोध होता है कि वास्तव में? मैं अविनाशी? अव्यक्तस्वरूप आत्मा उनमें स्थित नहीं हूँ।उपर्युक्त कथन से मन में यह विचार आ सकता है कि तब अनन्त तत्त्व में परिच्छिन्न का किसी अन्य प्रकार का अस्तित्व हो सकता है परन्तु भगवान् कहते हैं --

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।9.4।।स्तुतिनिन्दाभ्यां ज्ञाननिष्ठां महीकृत्य ज्ञानं व्याख्यातुमारभते -- स्तुत्येति। सोपाधिकस्य व्याप्त्यसंभवमभिप्रेत्य विशिनष्टि -- ममेति। अनवच्छिन्नस्य भगवद्रूपस्य निरुपाधिकत्वमेव साधयति -- करणेति। व्याप्यव्यापकत्वेन जगतो भगवतश्च परिच्छेदमाशङ्क्याह -- तस्मिन्निति। तथापि भगवतो भूतानां चाधाराधेयत्वेन भेदः स्यादित्याशङ्क्याह -- नहीति। निरात्मकस्य व्यवहारानर्हत्वे फलितमाह -- अत इति। ईश्वरस्य भूतात्मत्वे तेषु स्थितिः स्यादित्याशङ्क्याह -- तेषामिति। तस्य तेषु स्थित्यभावं व्यवस्थापयति -- मूर्तवदिति। संश्लेषाभावेऽपि किमिति नाधेयत्वमत आह -- नहीति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।9.4।।एवमन्ययमुखेन व्यतिरेकमुखेन च ज्ञानं स्तुत्वा श्रोतारमभिमुखीकृत्य तत्स्वरुपमाह -- मयेति। मया परमात्मना सच्चिदानन्दघनेनाव्यक्तमूर्तिना न व्यक्ता इन्द्रियागोचरा मूर्तिः स्वरुपं यस्य मम तेन मया इदं सर्वं जगत् ब्रह्मदिस्तम्बपर्यन्तं,चराचरात्मकं ततं व्याप्तं शुक्त्या तत्र कल्पितं रुप्यमिव? अतएवाव्यक्तस्वरुपे सच्चिदान्दघने परमात्मनि अधिष्ठानरुपे मयि स्थितानि कल्पितानि सर्वभूतानि। अधिष्ठानमेव हि अध्यस्तस्य स्वरुपं भवति। नहि रुपयस्य शुक्त्यतिरिक्तं स्वरुपं केनचिन्निरुपयितुं शक्यम्। अहं च तेषामधिष्टानत्वादात्मनि स्वरुपभूते मयि सर्वाणि भूतानि स्थितानि नान्यत्रेत्यर्थः। तेषामात्मत्वेन परमात्मापि तेष्ववस्थित इति मूर्खणामवभासतेऽतो ब्रवीमि। नचाहं तेषु मयि कल्पितेषु सर्वभूतेष्ववस्थितः। अमूर्तस्य मम केनापि संबन्धेन तत्रावस्थिरेतनिरुपणत्।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।9.4।।प्रत्यक्षावगमशब्देनापरोक्षज्ञानसाधनत्वमुक्तम्। तज्ज्ञानाद्याह -- मयेति। तर्हि किमिति न दृश्यते इत्यत आह -- अव्यक्तमूर्तिनेति।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।9.4।।एवं स्तुत्यादिमुखीकृत्य यद्वक्तव्यं तदाह -- मयेति। मया इदं सर्वं जगत् ततं व्याप्तं उपादानत्वात् कनकेनेव कुण्डलादीनि। ननु प्रागेवैतदुक्तंअहं सर्वस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा इति। तथा चराजविद्या इत्यादिस्तुतिरस्थाने एव कृता स्यात्। वक्तव्यविशेषाभावादितिचेत्। अत्र ब्रूमः। यथायतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद्ब्रह्मेति इति ज्ञेयस्य ब्रह्मणो लक्षणं जगज्जन्मादिहेतुत्वमुक्त्वा तस्यानुगमं अन्नादिशब्दशब्दितेषु विराडादिषु दर्शयतिअन्नाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते प्राणाद्ध्येव इत्यादिना। तस्य निर्णयवाक्यं तुआनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते इतिसैषा भार्गवी वारुणी विद्या इति तत्रैव विद्यायाः पर्यवसानाभिधानात्? एवमिहापि सप्तमेभूमिरापोऽनलो वायुः इत्यादिना सर्वभूतात्मकस्य विराजो जगज्जन्मादिहेतुत्वं प्रदर्श्य पश्चात्अहं सर्वस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा इत्यनेन मायाशबलेऽपि तत्प्रदर्श्य इदानीं शुद्धे प्रत्यगात्मन्येव तद्दर्शयति स्थूलारुन्धतीन्यायेन प्रतिपत्तिसौकर्यार्थमिति गम्यते। राजविद्येत्यादिना स्तुतत्वात्। यथा कश्चिद्दुर्लक्ष्यां सूक्ष्मामरुन्धतीं दिदर्शयिषुस्तत्समीपस्थां स्थूलां तारामरुन्धतीति ग्राहयति? प्रतिपद्यते चानेनैव क्रमेण प्रतिपत्ता? एवमिहापि कार्यकारणप्रतिपत्तिद्वारा अकार्यकारणस्य शुद्धस्य प्रतिपत्तिर्युक्ता। अतएव भगवान्भाष्यकारो मया ततमिदं सर्वमित्यत्र मया मम यः परो भावस्तेन ततं व्याप्तमिति व्याचख्यौ। नत्वहं सर्वस्य जगतः प्रभव इत्यत्र मम यः परो भावः स सर्वस्य जगतः प्रभव इति। सच भागवतः कारणात्मनः परो भावः परमानन्द एव तेनैव चेदं ततम्। आनन्दाद्ध्येवेत्युदाहृतश्रुतेस्तस्यैव जगदुपादानत्वेन तदीयसत्तास्फूर्तिभ्यां जगतो व्याप्तत्वात्।,अतएवाव्यक्तमूर्तिनेति विशेषणम्। मायाशबलं हि कारणं बुद्धिग्राह्यत्वात्करणगोचरः? शुद्धं हि बुद्धेः परत्वाकरणागोचर इति। किंभूताकारेणानन्दः परिणमत इत्यत आह -- मत्स्थानीति। मयि प्रत्यगानन्दे रज्ज्वां स्रक्सर्पदण्डधारादय इव सर्वभूतानि स्थितानि अतो मत्स्थानीत्युपचारादुच्यन्ते। अधिष्ठानाध्यस्तयोर्वास्तवसंबन्धायोगात्। एतदेवाह -- न चेति। नचाहं परमानन्दस्तेषु भूतेष्ववस्थितोऽस्मि घटादाविव मृत्। अपरिणामित्वादेव।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।9.4।।इदं चेतनाचेतनात्मकं कृत्स्नं जगद् अव्यक्तमूर्तिना अप्रकाशितस्वरूपेण मया अन्तर्यामिणा ततम्। अस्य जगतो धारणार्थं नियमनार्थम् च शेषित्वेन व्याप्तम् इत्यर्थः। यथा अन्तर्यामिब्राह्मणेयः पृथिव्यां तिष्ठन् ৷৷. यं पृथिवी न वेद (बृ उ0 3।7।3)यं आत्मनि तिष्ठन् ৷৷. यमात्मा न वेद (श0 प0 ब्रा0 14।6।5।5।30) इति चेतनाचेतनवस्तुजातैः अदृष्टेन अन्तर्यामिणा तत्र तत्र व्याप्तिः उक्ता।ततो मत्स्थानि सर्वभूतानि सर्वाणि भूतानि मयि अन्तर्यामिणि स्थितानि? तत्र एव ब्राह्मणेयस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयति (बृ0 उ0 3।7।3)यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति (श0 प0 ब्रा0 14।6।6।5।30) इति शरीरत्वेन नियाम्यत्वप्रतिपादनात्। तदायत्ते स्थितिनियमने प्रतिपादिते शेषित्वं च? न च अहं तेषु अवस्थित्रः अहं तु न तदायत्तस्थितिः? मत्स्थितौ तैः न कश्चित् उपकार इत्यर्थः।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।9.4।।तदेवं वक्तव्यतया प्रस्तुतस्य ज्ञानस्य स्तुत्या श्रोतारमभिमुखीकृत्य तदेव ज्ञानं कथयति -- मयेति द्वाभ्याम्। अव्यक्ता अतीन्द्रिया मूर्तिः स्वरूपं यस्य तादृशेन मया कारणभूतेन सर्वमिदं जगत्ततं व्याप्तम्तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् इति श्रुतेः। अतएव कारणभूते मयि तिष्ठन्तीति मत्स्थानि सर्वाणि चराचराणि भूतानि। एवमपि घटादिषु स्वकार्येषु मृत्तिकेव तेषु भूतेषु नाहमवस्थित आकाशवदसङ्गत्वात्।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।9.4।।एवमध्यायप्रधानार्थस्य प्रापकस्य माहात्म्यमुक्तम् अथ प्राप्यमाहात्म्यद्वाराऽपि तदेव स्थिरीक्रियत इत्यभिप्रायेणाहशृणु तावदिति।इदं सर्वम् इति निर्देशः प्रमाणसिद्धसमस्तवस्तुपर इत्यभिप्रायेणइदं चेतनाचेतनात्मकमित्युक्तम्।अव्यक्तमूर्तिना इत्यस्य विग्रहविषयत्वेऽत्रानुपयोगात्स्वरूपविषयोऽयमौपचारिकः प्रयोग इति दर्शयितुंअप्रकाशितस्वरूपेणेत्युक्तम्। आकाशवत्सन्निधिमात्ररूपव्याप्तिव्युदासाय बहुप्रमाणसिद्धो व्याप्तिप्रकारःमया इत्यनेनाभिप्रेत इत्याहअन्तर्यामिणेति। उक्तप्रकाराया व्याप्तेः प्रयोजनं तन्निदानं च दर्शयतिअस्येति। अत्र धारणमनन्तरग्रन्थसिद्धम् अत एव नियमनमप्यर्थसिद्धम्। धारणं हि प्रशासनाधीनं श्रूयते। शेषित्वं तु प्रागुक्तं? शरीरित्वेनार्थसिद्धं च। अप्रकाशितस्वरूपत्वेन नियामकत्वेन च सर्वव्याप्तिं श्रुतौ दर्शयतियथेति। पृथिव्युदाहरणं तत्प्रकरणोक्तसर्वाचेतनोपलक्षणार्थम्। उक्तप्रकारव्यापकत्ववशात्मत्स्थानि इत्यनेन जगतः पृथक्सिद्धता निरस्यत इत्यभिप्रायेणाहतत इति। श्रीविश्वरूपादिषु विग्रहाश्रितत्वमपि सर्वस्योच्यते अत्र तु स्वरूपनिष्ठतेत्यपौनरुक्त्याय -- मय्यन्तर्यामिणीत्युक्तम्। अनयोर्धारणनियमनयोरपि व्याप्त्या सहाधीततामाह -- तत्रैवेति।स्थितिनियमने -- स्थितिप्रवृत्ती इत्यर्थः। शरीरशरीरित्ववचनात् धृतिः शेषित्वं च तत्रार्थसिद्धे इत्यभिप्रायेणाहशेषित्वं चेति।मया ततमिदं सर्वम् इत्यभिधायैवन चाहं तेष्ववस्थितः इति वचनं व्याहतम्? यः पृथिव्यां तिष्ठन् इत्यादिश्रुतिविरुद्धं चेत्यत्राहअहं त्विति।मत्स्थानि सर्वभूतानि इति प्रस्तुतप्रकारा स्थितिरत्र निषिध्यते। स भगवः कस्मिन् प्रतिष्ठितः इत्यत्र स्वे महिम्नि यदि वा न महिम्नि [छां.उ.7।24।1] इति हि श्रूयत इति भावः। उक्तं विवृणोतिमत्स्थिताविति।न कश्चिदिति स्वरूपतः सङ्कल्पादृष्टादिना वेति भावः।मत्स्थानिन च मत्स्थानि इत्येतद्व्याहतमित्यत्राह -- न घटादीनामिति। मूर्त हि मूर्तान्तरं पतनप्रतिघातिना संयोगेन धारयति न तथाऽत्रेति भावः। लोकदृष्टविपरीतं न सम्भवतीत्यभिप्रायेण शङ्कतेकथमिति। शरीरशरीरिणोरिव सम्भवमभिप्रेत्याहमत्सङ्कल्पेनेति। स्वेच्छाधीनधारकत्वं हि विहितम्। अस्वतन्त्रतया धारकत्वं तु निषिध्यत इत्यविरोध इति भावः।ऐश्वरम् इत्यनेनानन्यसाधारणत्वं फलितम्।पश्य इत्यनेन चाश्चर्यता द्योतितेत्यभिप्रायेणाहअन्यत्रेति।योगः सन्नहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु [अमरः3।3।22] इति पाठात्सङ्कल्परूपं ध्यानमिह योगः? युज्यमानस्वभावादिर्वा।पश्य मे योगम् इत्युक्ते योगस्वरूपमेवानन्तरं वक्तव्यमिति तदाकाङ्क्षा दर्शयतिकोऽसाविति।भूतभृन्न च भूतस्थः इत्यत्रार्थौचित्यादहमित्येव विशेष्यम्। अथवाभूतभावनः इतिवत्ममात्मा इति निर्दिष्टसङ्कल्पविशेषणत्वेऽपि फलितकथनंसर्वेषां भूतानां भर्ताऽहमित्यादि।आत्मा इति विशेषनिर्देशः परिसङ्ख्यानयात्तदतिरिक्तसहकारिव्यवच्छेदार्थ इत्यभिप्रायेणाहममात्मैवेति।ममात्मा इति व्यधिकरणनिर्देशस्वारस्यसिद्धमात्मशब्दार्थमाहमम मनोमयः सङ्कल्प इति। एतेन देहादिसङ्घातेऽहङ्कारमध्यारोप्य लोकबुद्ध्यनुसारेणममात्मा इति व्यपदेश इतिशङ्करोक्तं प्रत्युक्तम्। सङ्कल्प एव मनःकार्यतयाऽन्यत्र प्रसिद्धो मनःप्रतिपादकेनात्मशब्देनात्र व्यपदिष्टः। यद्वा आत्मशब्दोऽत्र सङ्कल्परूपमनःपर एव?मनसैव जगत्सृष्टिं [वि.पु.5।22।15]मनोऽकुरुत (आत्मन्वी) स्यामिति [बृ.उ.1।2।1] इत्यादेः। तदर्थज्ञापनाय तु मनोमयशब्दः। धारणनियमनयोरेव प्रकृतत्वात्? अनन्तरश्लोके च निर्दिश्यमानत्वात्? सृष्टेश्च ततोऽप्यनन्तरं वक्ष्यमाणत्वादत्रभूतभावनः इत्येतत्सत्तातादधीन्यनियमनाद्युपलक्षणमित्यभिप्रायेणाहधारयिता नियन्ता चेति। अथवाभूतभृन्न च भूतस्थः इत्यस्यैवायमर्थः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।9.4।।मयेति। मत्स्थानि सर्वभूतानीति। सुचिरमपि गत्वा अन्यस्य प्रतिष्ठाधाम्नः अविद्यमानत्वात्। भूतरूपबोध्यात्मकप्रसिद्धतदीयजडरूपपुरःसरीकारेण तदवभासे तद्विपरीतबोधस्वभाववर्तिरोधानम्,(N तत्तद्विपरीत -- ) इत्येतदाह -- न चाहं तेष्यवस्थितः इति।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।9.4।।एवं तर्हि पुनरुक्तिः स्यात्? ब्रह्मविषयं ज्ञानमित्यस्य ब्रह्मावगम्यते विषयीक्रियतेऽनेन ज्ञानेनेत्यस्य च भेदाभावादित्यत आह -- प्रत्यक्षेति। नावगमशब्देन विषयीकरणमुच्यते? किन्तु अवगतिसाधनत्वम्। न च ज्ञानस्य तद्विरुद्धम्? परोक्षज्ञानस्यापरोक्षज्ञानसाधनत्वोपपत्तेरिति भावः।ज्ञानं विज्ञानसहितं प्रवक्ष्यामि इति प्रतिज्ञाययज्ज्ञात्वा [9।1] इत्यादिना तत्प्रशंसादिकमुक्तम्। अतःमया ततं इत्यादिकमपि किं तथाभूतमेव किञ्चिदुत प्रतिज्ञातमुच्यते इति शङ्कायामाह -- तदिति। प्रतिज्ञातमित्यर्थः। यस्यापरोक्षज्ञानसाधनत्वमुक्तं तदिति वा। कृत्स्नाध्यायप्रतिपाद्योक्तिरियम्। विशेषणवैयर्थ्यमाशङ्क्याह -- तर्हीति। सर्वव्यापी चेदित्यर्थः। न दृश्यते सर्वत्रेति शेषः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।9.4।।तदेवं वक्तव्यतया प्रतिज्ञातस्य ज्ञानस्य विधिमुखेनेतरनिषेधमुखेन च स्तुत्याभिमुखीकृतमर्जुनं प्रति तदेवाह द्वाभ्याम् -- इदं जगत्सर्वं भूतभौतिकतत्कारणरूपं दृश्यजातं मदज्ञानकल्पितं मयाधिष्ठानेन परमार्थसत्ता सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च ततं व्याप्तं रज्जुखण्डेनेव तदज्ञानकल्पितं सर्पधारादि। त्वया वासुदेवेन परिच्छिन्नेन सर्वं जगत्कथं व्याप्तं प्रत्यक्षविरोधादिति? नेत्याह -- अव्यक्ता सर्वकरणागोचरीभूता स्वप्रकाशाद्वयचैतन्यसदानन्दरूपा मूर्तिर्यस्य तेन मया व्याप्तमिदं सर्वं न त्वनेन देहेनेत्यर्थः। अतएव सन्तीव स्फुरन्तीव मद्रूपेण स्थितानि मत्स्थानि सर्वभूतानि स्थावराणि जङ्गमानि च। परमार्थतस्तु नच नैवाहं तेषु कल्पितेषु भूतेष्ववस्थितः। कल्पिताकल्पितयोः संबन्धायोगात्। अतएवोक्तं यत्र यदध्यस्तं तत्कृतेन गुणेन दोषेण वाणुमात्रेणापि न स संबध्यत इति।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।9.4।।एवं प्रतिज्ञाय तत्स्वरूपं च स्तुत्वा ज्ञानमेवाह द्वाभ्याम् -- मयेति। अव्यक्तातिरिक्तेषु लौकिकेन्द्रियागोचरा स्वक्रियेच्छैकदृश्या मूर्तिः स्वरूपं यस्य। वक्ष्यति चाग्रेदिव्यं ददामि ते चक्षुः [11।8]भक्त्या त्वनन्यया [11।54] इत्यादि। एतादृशेन मया इदं जगत् सर्वं जडजङ्गमात्मकमातृणस्तम्बान्तं ततं व्याप्तं? मत्क्रीडार्थं मदात्मकं मया सृष्टमित्यर्थः। यद्वा अव्यक्तमूर्तिना मया व्याप्तमिदं सर्वं जगत् अस्तीति शेषः।अयं भावः -- आतृणस्तम्बान्तं सर्ववस्तुषु तत्तत्स्वरूपोऽहमेवास्मि? अव्यक्तत्वात्तथा सवैर्न ज्ञायते एवं चेत्सर्वेषु भूतेषु तद्रूपः प्रविष्टो भवानाधिदैविकन्यायेन भविष्यतीत्यत आह -- मत्स्थानीति। मत्स्वरूपस्थानि सर्वाणि सन्ति? सर्वाधारत्वात्। क्रीडेच्छया पृथक् तत्तद्रूपं प्रकटयामीति भावः। अपरिच्छिन्नत्वात् प्रकटमपि जगन्मय्येव तिष्ठति। तेषु न च अहम्। तेषु परिच्छिन्नतया न तिष्ठामीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।9.4।। --,मया मम यः परो भावः तेन ततं व्याप्तं सर्वम् इदं जगत् अव्यक्तमूर्तिना न व्यक्ता मूर्तिः स्वरूपं यस्य मम सोऽहमव्यक्तमूर्तिः तेन मया अव्यक्तमूर्तिना? करणगोचरस्वरूपेण इत्यर्थः। तस्मिन् मयि अव्यक्तमूर्तौ स्थितानि मत्स्थानि? सर्वभूतानि ब्रह्मादीनि स्तम्बपर्यन्तानि। न हि निरात्मकं किञ्चित् भूतं व्यवहाराय अवकल्पते। अतः मत्स्थानि मया आत्मना आत्मवत्त्वेन स्थितानि? अतः मयि स्थितानि इति उच्यन्ते। तेषां भूतानाम् अहमेव आत्मा इत्यतः तेषु स्थितः इति मूढबुद्धीनां अवभासते अतः ब्रवीमि -- न च अहं तेषु भूतेषु अवस्थितः? मूर्तवत् संश्लेषाभावेन आकाशस्यापि अन्तरतमो हि अहम्। न हि असंसर्गि वस्तु क्वचित् आधेयभावेन अवस्थितं भवति।।अत एव असंसर्गित्वात् मम --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।9.4।।एवं ज्ञानं प्रस्तुत्याऽर्जुनमभिमुखीकृत्य स्वस्य महिमज्ञानं पूर्वमुपदिशतिमयेति। अव्यक्तोऽक्षरोऽविरुद्धधर्मप्रकृतिपुरुषात्मकः स्वेच्छया पृथग्भासि (वि) तोऽपि महिमरूपः कालात्मा च स बहिर्मर्यादामार्गाधिदैवतं अध्यात्मस्वरूपं तन्मूर्त्तिना मयाऽन्तर्यामिणा च तदिदं सर्वं चेतनाचेतनात्मकं जगत्प्राकृतं ततम्।अन्तश्चिदन्तर्यामितदङ्घ्रिरूपोऽक्षरश्चाव्यक्तपदवाच्यः इति स्थितमाकरे। स चान्तर्यामी चाहं अन्तर्यामिब्राह्मणे यः पृथिव्यां तिष्ठन्पृथिवी यं न वेद य आत्मनि तिष्ठन्यमात्मा न वेद [बृ.उ.3।7।3] इत्यादि निरूपितम्।