न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्। भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।9.5।।
na cha mat-sthāni bhūtāni paśhya me yogam aiśhwaram bhūta-bhṛin na cha bhūta-stho mamātmā bhūta-bhāvanaḥ
Nor do beings exist in Me (in reality); behold, My divine Yoga, which supports all beings, but does not dwell in them, is My Self, the efficient cause of beings.
9.5 न not? च and? मत्स्थानि dwelling in Me? भूतानि beings? पश्य behold? मे My? योगम् Yoga? ऐश्वरम् Divine? भूतभृत् supporting the beings? न not? च and? भूतस्थः dwelling in the beings? मम My? आत्मा Self? भूतभावनः bringing forth beings.Commentary Brahman or the Self no connection with any object as It is very subtle and attributes and formless and so It is unattached (Asanga). There cannot be any real connection between matter and Spirit. Saakara (an object with form) can have no connection with Nirakara (the formless). How could this be Devoid of attachment It is never attached. (Brihadaranyaka Upanishad? III.9.26) Though unattached? It supports all beings It is the efficient or instrumental cause It brings forth all beings but It does not dwell in them? because It is unconnected with any object. This is a great mystery. Just as the dreamer has no connection with the dream object? just as ether or air has no connection with the vessel? so also Brahman has no connection with the objects or the body. The connection between the Self and the physical body is illusory.The Adhishthana or support (Brahman) for the illusory object (Kalpitam) superimposed on,Brahman has no connection whatsoever with the alities or the defects of the objects that are superimposed on the Absolute. The snake is superimposed on a rope. The rope is the support (Adhishthana) for the illusory snake (Kalpitam). This is an example of superimposition or Adhyasa. (Cf.VII.25X.7.XI.8)
।।9.5।। व्याख्या--'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना'--मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे जिसका ज्ञान होता है, वह भगवान्का व्यक्तरूप है और जो मन-बुद्धि-इन्द्रियोंका विषय नहीं है अर्थात् मन आदि जिसको नहीं जान सकते, वह भगवान्का अव्यक्तरूप है। यहाँ भगवान्ने 'मया' पदसे व्यक्त(साकार) स्वरूप और,'अव्यक्तमूर्तिना' पदसे अव्यक्त-(निराकार-) स्वरूप बताया है। इसका तात्पर्य है कि भगवान् व्यक्तरूपसे भी हैं और अव्यक्तरूपसे भी हैं। इस प्रकार भगवान्की यहाँ व्यक्तअव्यक्त (साकारनिराकार) कहनेकी गूढ़ाभिसन्धि समग्ररूपसे है अर्थात् सगुणनिर्गुण, साकारनिराकार आदिका भेद तो सम्प्रदायोंको लेकर है, वास्तवमें परमात्मा एक हैं। ये सगुणनिर्गुण आदि एक ही परमात्माके अलगअलग विशेषण हैं, अलगअलग नाम हैं। गीतामें जहाँ सत्असत्, शरीरशरीरीका वर्णन किया गया है, वहाँ जीवके वास्तविक स्वरूपके लिये आया है-- 'येन सर्वमिदं ततम्' (2। 17) क्योंकि यह परमात्माका साक्षात् अंश होनेसे परमात्माके समान ही सर्वत्र व्यापक है अर्थात् परमात्माके साथ इसका अभेद है। जहाँ सगुणनिराकारकी उपासनाका वर्णन आया है, वहाँ बताया है -- 'येन सर्वमिदं ततम्' (8। 22), जहाँ कर्मोंके द्वारा भगवान्का पूजन बताया है, वहाँ भी कहा है -- 'येन सर्वमिदं ततम्' (18। 46)। इन सबके साथ एकता करनेके लिये ही भगवान् यहाँ कहते हैं --'मया ततमिदं सर्वम्'। 'मतस्थानि सर्वभूतानि'-- सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं अर्थात् पराअपरा प्रकृतिरूप सारा जगत् मेरेमें ही स्थित है। वह मेरेको छोड़कर रह ही नहीं सकता। कारण कि सम्पूर्ण प्राणी मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं, मेरेमें ही स्थित रहते हैं और मेरेमें ही लीन होते हैं अर्थात् उनका उत्पत्ति,स्थिति और प्रलयरूप जो कुछ परिवर्तन होता है, वह सब मेरेमें ही होता है। अतः वे सब प्राणी मेरेमें स्थित हैं।'न चाहं तेष्ववस्थितः'-- पहले भगवान्ने दो बातें कहीं -- पहली 'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना' और दूसरी 'मत्स्थानि सर्वभूतानि।' अब भगवान् इन दोनों बातोंके विरुद्ध दो बातें कहते हैं।
।।9.5।। पूर्व श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि समस्त भूत अर्थात् सम्पूर्ण चराचर सृष्टि उनमें स्थित है? परन्तु वे उसमें नहीं हैं। उसी विषय के तर्क की अगली कड़ी बताते हुए वे अब कहते हैं कि वस्तुत? वे भूत मुझमें स्थित नहीं हैं? अर्थात् अनन्त से सान्त की उत्पत्ति कभी नहीं हुई स्तम्भ और प्रेत के दृष्टान्त का पुन उपयोग करते हुए? भगवान् की उक्ति स्तम्भ के इस कथन के तुल्य होगी कि? वास्तव में? मुझ विद्युत् स्तम्भ में प्रेत का अस्तित्व कदापि नहीं था। अनन्त स्वरूप शुद्ध चैतन्य परमात्मा में इस नानाविध जगत् का अस्तित्व न कभी था? न अब है और न कभी होगा। जाग्रत पुरुष के लिए स्वप्न के भोग कभी उपलब्ध नहीं होते। संक्षेप में? आत्मानुभव में इस नानाविध सृष्टि का दर्शन नहीं होता। वर्तमान में इसकी प्रतीति का कारण अज्ञानरूप आत्मविस्मृति है।यह आत्मा भूतमात्र को उत्पन्न करने वाला और उसका धारकपोषक है? जैसे? समस्त तरंगों का जन्मदाता और धारणपोषण करने वाला समुद्र है और फिर भी? मैं उनमें (भूतों में) स्थित नहीं हूँ। कैसे जैसे? समुद्र तरंगों में नहीं रहता अर्थात् उसके परिच्छेदों से सदा मुक्त रहता है। समस्त घटों की उत्पत्ति? स्थिति और धारण मिट्टी से ही है? तथापि उनमें से कोई एक घट अथवा घटसमुदाय न तो मिट्टी को परिभाषित कर सकता है और न उसके सम्पूर्ण ज्ञान को करा सकता है। दिव्य? सनातन शुद्ध चैतन्य स्वरूप परमात्मा ही वह अधिष्ठान है? जो इस नित्य परिवर्तनशील विविधरूप सृष्टि के विस्तृत हृदय को धारण और प्रकाशित करता है।ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों के ग्रहण से मन में विषयाकार वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं? जिन्हें सर्वरूपों में स्थित चैतन्य आत्मा प्रकाशित करता है। यदि यह चैतन्य न होता तो हमें अखण्ड अनुभवों की धारा के रूप में जीवन का कभी भान भी नहीं हो सकता था। जैसे कपड़े में कपास है? आभूषणों में स्वर्ण और अग्नि में उष्णता है? वैसे ही क्षर सृष्टि में अक्षर तत्त्व है। जाग्रत पुरुष के बिना स्वप्नद्रष्टा नहीं हो सकता जाग्रत पुरुष स्वप्न जगत् को व्याप्त किये रहता है? परन्तु वह स्वप्न से कभी दूषित या लिप्त नहीं होता और? जाग्रत पुरुष की दृष्टि से स्वप्न का अस्तित्व कभी होता ही नहीं।भगवान् श्रीकृष्ण यह अनुभव करते हैं कि विरोधाभास की यह भाषा अर्जुन जैसे सामान्य पुरुषों के लिए एक पहेली सिद्ध हो रही है? इसलिए करूणासागर भगवान् अपने शिष्य के लिए एक दृष्टान्त देते हैं --
।।9.5।।परमेश्वरस्य भूतेषु स्थित्यभावेऽपि भूतानां तत्र स्थितिरास्थितेति कुतोऽसङ्गत्वं तत्राह -- अतएवेति। नचेत्यत्र चकारोऽवधारणार्थः। भूतानामीश्वरे नैव स्थितिरित्यत्र हेतुमाह -- पश्येति। आत्मनोऽसङ्गत्वं,स्वरूपमित्यत्र प्रमाणमाह -- तथाचेति। असङ्गश्चेदीश्वरस्तर्हि कथं मत्स्थानि भूतानीत्युक्तं कथं च तथोक्त्वा नच मत्स्थानीति तद्विरुद्धमुदीरितमित्याशङ्क्याह -- इदं चेति। तर्हि भूतसंबन्धः स्यादिति नेत्याह -- नचेति। यथोक्तेन न्यायेन। असङ्गत्वेनेति यावत्। असङ्गतया वस्तुतो भूतासंबन्धेऽपि कल्पनया तदविरोधान्न मिथोविरोधोऽस्तीति भावः। आत्मनः सकाशादात्मनोऽन्यत्वायोगात्कुतः संबन्धोक्तिरित्याशङ्क्याह -- असाविति। (विभज्येति)। यथा लोको वस्तुतत्त्वमजानन्भेदमारोप्य ममायमिति संबन्धमनुभवति न तथेह संबन्धव्यपदेश आत्मनि स्वतो भेदाभावादतो भेदेऽसत्येव लोके संबन्धबुद्धिदर्शनमनुसरन्भगवानात्मनो देहादिसंघातं विभज्याहंकारं तस्मिन्नारोप्य असौ ममात्मेति भेदं व्यपदिशति। तथाच संघातस्य ममेति व्यपदेशात्ततो नि(कृ)ष्कृष्टस्य स्वरूपस्यात्मशब्देन निर्देशान्न भूतस्थोऽसावित्यर्थः। पूर्वोक्तासङ्गत्वाङ्गीकारेणैवात्मा भूतानि भावयतीत्याह -- तथेति।
।।9.5।।अतएव सर्वसङ्गविवर्जिते मयि परमात्मनि वस्तुस्तु भूतान्यपि सर्वाणि नच स्थितानि। पश्य मे योगमैश्वम्। योगं युक्तं घटनां ममैश्वरं याथात्म्यभावम्। तथाच श्रुतिःअङ्गो नहि सञ्जते इति। इदं चान्यद्योगमधटितधटनापटीयस्त्वं पश्य। भूतभृन्नच भूतस्थो ममात्माऽसङ्गित्वात् भूतेषु न तिष्ठतीति तथा वस्तुत एतादृशोऽपि सन् भूतानि स्थावरजङ्गमादीनि बिभर्ति धारयति पोषयतीति तथा भूतभावनः भूतानि भावत्युत्पादयतीति तथा ममात्मेति तु भेदमारोप्य राहोः शरि इतिवत्प्रयोगः।
।।9.5।।मत्स्थत्वेऽपि यथा पृथिव्यां स्पृष्ट्वा स्थितानि न तथा मयीत्याह -- न चेति।न दृश्यश्चक्षुषा चासौ न स्पृश्यः स्पर्शनेन च [म.भा.12।339।21] इति हि मोक्षधर्मे।संज्ञासंज्ञः [म.भा.12।338।47] इति च। ममात्मा देह एव भूतभावनः।महाविभूतेर्माहात्म्यशरीरइति इति मोक्षधर्मे [म.भा.12।338।17475]।
।।9.5।।एवमभ्युपगतमानन्दस्य जगद्विवर्ताधिष्ठानत्वं तदप्यपवदति -- न च मत्स्थानीति। अयंभावः -- अस्य द्वैतेन्द्रजालस्य यदुपादानकारणम्। अज्ञानं तदुपाश्रित्य ब्रह्मकारणमुच्यते इति वार्तिकोक्तेरज्ञानमेव जगत्कारणं तच्च तुच्छम्। अहं चासङ्गः। ततश्च तुच्छतरेण तत्कार्येण भूतसंघेन न ममासङ्गस्याधाराधेयभावसंबन्धोऽनिर्वचनीयोऽप्यस्ति। आवृतं हि रज्ज्वादिकमनिर्वचनीयेन सर्पादिना संबध्यते। अहं तु सर्वदानावृतः साक्षिरूपत्वात्तत्संबन्धशून्य इति न च मत्स्थानि भूतानीत्युक्तमिति। ननु साक्षिणस्तव ब्रह्मणो युवा सुखी चेति प्रतीत्येव भूतसंबन्धानुभवात्कथं न च मत्स्थानीत्युक्तिरित्याशङ्क्याह -- पश्य मे योगमैश्वरमिति। मे मम भूतैः सह योगं युक्तिघटनां पश्य। ऐश्वरं ईश्वरेण मायाविना निर्मितं गगने गन्धर्वनगरमिव। अतएव मम कारणशरीरस्यात्मा प्रत्यगानन्दे भूतभृदपि भूतस्थो न। चकारोऽप्यर्थे भिन्नक्रमश्च। खमिव गन्धर्वनगरभृदपि तत्स्थं न। तस्य तदाकारेण परिणामासंभवात्। एवंरूपोऽपि परानन्दरूपो ममात्मा स भूतभावनः भूतानां वृद्धिकरः।एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति। को ह्येवान्यात्कः प्राण्याद्यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् इत्यादिश्रुतिभ्यः। आकाशेऽव्याकृताख्ये स्वाधिष्ठानभूत आनन्दोऽनुस्यूतो न स्यात्तर्हि प्राणापानक्रियां कश्चिदपि न कुर्यात् कारणगतं जाड्यं कार्येऽपि स्यात्। आकाशे आनन्दानुबन्धे तु कारणस्य चेतनत्वात्कार्यमपि चेतनावत्स्यादिति श्रुत्यर्थः। बृहदारण्यकेऽपियदूर्ध्वं गार्गि दिवो यदवाक् पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत आकाश एव तदोतं च प्रोतं च इति मायाविनि सर्वस्योतप्रोतत्वमुक्त्वाकस्मिन्नु खल्वाकाश ओतश्च प्रोतश्च इत्यस्योत्तरम्एतस्मिन्खल्वक्षरे गार्गि आकाश ओतश्च प्रोतश्च इत्यस्थूलादिलक्षणस्याक्षरस्याकाशाधारत्वमुक्तम्। तस्माद्युक्तमुक्तमाकाशशरीरेण भगवता कारणोपाधिनिष्कृष्टचिन्मात्राभिप्रायेण ममात्मा भूतभावन इति।
।।9.5।।न च मत्स्थानि भूतानि न घटादीनां जलादेः इव मम धारकत्वम्? कथम् मत्संकल्पेन।पश्य मम ऐश्वरं योगम् अन्यत्र कुत्रचिद् असंभवनीयं मदसाधारणम् आश्चर्यं योगं पश्य।कः असौ योगः भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः। सर्वेषां भूतानां भर्ता अहं न च तैः कश्चिद् अपि मम उपकारः। मम आत्मा एव भूतभावनः? मम मनोमयः संकल्प एव भूतानां भावयिता धारयिता नियन्ता च। सर्वस्य अस्य स्वसंकल्पायत्तस्थितिप्रवृत्तित्वे निदर्शनम् आह --
।।9.5।।किंच -- नचेति। नच मयि स्थितानि भूतान्यसङ्गत्वादेव मम। ननु तर्हि व्यापकत्वमाश्रयत्वं च पूर्वोक्तं विरुद्धमित्याशङ्क्याह -- यथेति। म ऐश्वरमसाधारणं योगं युक्तिमघटितघटनाचातुर्यं पश्य। मदीययोगमायावैभवस्यावितर्क्यत्वान्न विरुद्धं किंचिदित्यर्थः। अन्यदप्याश्चर्यं पश्येत्याह -- भूतेति। भूतानि बिभर्ति धारयतीति भूतभृत्। भूतानि भावयति पालयतीति भूतभावनः। एवंभूतोऽपि ममात्मा परं स्वरूपं भूतस्थो न भवति।।अयंभावः -- यथा जीवो देहं बिभ्रत्पालयंश्चाहंकारेण तत्संश्लिष्टस्तिष्ठत्येवमहं भूतानि धारयन्पालयन्नपि न तेषु तिष्ठामि? निरहंकारत्वादिति।
।। 9.5 एवमध्यायप्रधानार्थस्य प्रापकस्य माहात्म्यमुक्तम् अथ प्राप्यमाहात्म्यद्वाराऽपि तदेव स्थिरीक्रियत इत्यभिप्रायेणाहशृणु तावदिति।इदं सर्वम् इति निर्देशः प्रमाणसिद्धसमस्तवस्तुपर इत्यभिप्रायेणइदं चेतनाचेतनात्मकमित्युक्तम्।अव्यक्तमूर्तिना इत्यस्य विग्रहविषयत्वेऽत्रानुपयोगात्स्वरूपविषयोऽयमौपचारिकः प्रयोग इति दर्शयितुंअप्रकाशितस्वरूपेणेत्युक्तम्। आकाशवत्सन्निधिमात्ररूपव्याप्तिव्युदासाय बहुप्रमाणसिद्धो व्याप्तिप्रकारःमया इत्यनेनाभिप्रेत इत्याहअन्तर्यामिणेति। उक्तप्रकाराया व्याप्तेः प्रयोजनं तन्निदानं च दर्शयतिअस्येति। अत्र धारणमनन्तरग्रन्थसिद्धम् अत एव नियमनमप्यर्थसिद्धम्। धारणं हि प्रशासनाधीनं श्रूयते। शेषित्वं तु प्रागुक्तं? शरीरित्वेनार्थसिद्धं च। अप्रकाशितस्वरूपत्वेन नियामकत्वेन च सर्वव्याप्तिं श्रुतौ दर्शयतियथेति। पृथिव्युदाहरणं तत्प्रकरणोक्तसर्वाचेतनोपलक्षणार्थम्। उक्तप्रकारव्यापकत्ववशात्मत्स्थानि इत्यनेन जगतः पृथक्सिद्धता निरस्यत इत्यभिप्रायेणाहतत इति। श्रीविश्वरूपादिषु विग्रहाश्रितत्वमपि सर्वस्योच्यते अत्र तु स्वरूपनिष्ठतेत्यपौनरुक्त्याय -- मय्यन्तर्यामिणीत्युक्तम्। अनयोर्धारणनियमनयोरपि व्याप्त्या सहाधीततामाह -- तत्रैवेति।स्थितिनियमने -- स्थितिप्रवृत्ती इत्यर्थः। शरीरशरीरित्ववचनात् धृतिः शेषित्वं च तत्रार्थसिद्धे इत्यभिप्रायेणाहशेषित्वं चेति।मया ततमिदं सर्वम् इत्यभिधायैवन चाहं तेष्ववस्थितः इति वचनं व्याहतम्? यः पृथिव्यां तिष्ठन् इत्यादिश्रुतिविरुद्धं चेत्यत्राहअहं त्विति।मत्स्थानि सर्वभूतानि इति प्रस्तुतप्रकारा स्थितिरत्र निषिध्यते। स भगवः कस्मिन् प्रतिष्ठितः इत्यत्र स्वे महिम्नि यदि वा न महिम्नि [छां.उ.7।24।1] इति हि श्रूयत इति भावः। उक्तं विवृणोतिमत्स्थिताविति।न कश्चिदिति स्वरूपतः सङ्कल्पादृष्टादिना वेति भावः।मत्स्थानिन च मत्स्थानि इत्येतद्व्याहतमित्यत्राह -- न घटादीनामिति। मूर्त हि मूर्तान्तरं पतनप्रतिघातिना संयोगेन धारयति न तथाऽत्रेति भावः। लोकदृष्टविपरीतं न सम्भवतीत्यभिप्रायेण शङ्कतेकथमिति। शरीरशरीरिणोरिव सम्भवमभिप्रेत्याहमत्सङ्कल्पेनेति। स्वेच्छाधीनधारकत्वं हि विहितम्। अस्वतन्त्रतया धारकत्वं तु निषिध्यत इत्यविरोध इति भावः।ऐश्वरम् इत्यनेनानन्यसाधारणत्वं फलितम्।पश्य इत्यनेन चाश्चर्यता द्योतितेत्यभिप्रायेणाहअन्यत्रेति।योगः सन्नहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु [अमरः3।3।22] इति पाठात्सङ्कल्परूपं ध्यानमिह योगः? युज्यमानस्वभावादिर्वा।पश्य मे योगम् इत्युक्ते योगस्वरूपमेवानन्तरं वक्तव्यमिति तदाकाङ्क्षा दर्शयतिकोऽसाविति।भूतभृन्न च भूतस्थः इत्यत्रार्थौचित्यादहमित्येव विशेष्यम्। अथवाभूतभावनः इतिवत्ममात्मा इति निर्दिष्टसङ्कल्पविशेषणत्वेऽपि फलितकथनंसर्वेषां भूतानां भर्ताऽहमित्यादि।आत्मा इति विशेषनिर्देशः परिसङ्ख्यानयात्तदतिरिक्तसहकारिव्यवच्छेदार्थ इत्यभिप्रायेणाहममात्मैवेति।ममात्मा इति व्यधिकरणनिर्देशस्वारस्यसिद्धमात्मशब्दार्थमाहमम मनोमयः सङ्कल्प इति। एतेन देहादिसङ्घातेऽहङ्कारमध्यारोप्य लोकबुद्ध्यनुसारेणममात्मा इति व्यपदेश इतिशङ्करोक्तं प्रत्युक्तम्। सङ्कल्प एव मनःकार्यतयाऽन्यत्र प्रसिद्धो मनःप्रतिपादकेनात्मशब्देनात्र व्यपदिष्टः। यद्वा आत्मशब्दोऽत्र सङ्कल्परूपमनःपर एव?मनसैव जगत्सृष्टिं [वि.पु.5।22।15]मनोऽकुरुत (आत्मन्वी) स्यामिति [बृ.उ.1।2।1] इत्यादेः। तदर्थज्ञापनाय तु मनोमयशब्दः। धारणनियमनयोरेव प्रकृतत्वात्? अनन्तरश्लोके च निर्दिश्यमानत्वात्? सृष्टेश्च ततोऽप्यनन्तरं वक्ष्यमाणत्वादत्रभूतभावनः इत्येतत्सत्तातादधीन्यनियमनाद्युपलक्षणमित्यभिप्रायेणाहधारयिता नियन्ता चेति। अथवाभूतभृन्न च भूतस्थः इत्यस्यैवायमर्थः।
।।9.5।।न चेति। न च मत्स्थानि -- अविद्यान्धानां तत्त्वादृष्टेः। न हि मूढा अविच्छिन्नसंवित्स्वभावं परमेश्वरं समस्तवस्तुपरिच्छेदप्रतिष्ठास्थानं मन्यन्ते। अपि तु कृशो देवदत्तोऽहम् इदं वेद्मि भूतले (S omits भूतले) इदं स्थितम् इति मितमेवस्वभावं प्रतिष्ठास्थानतया (N प्रतिष्ठानस्थानतया) पश्यन्ति।ननु कथमेतद्विरुद्धम् [उच्यते] इत्या [शङ्क्या] ह पश्य योगमैश्वरम्इति। योगः शक्तिः युज्यमानत्वात्। एतदेव ममैश्वर्यम्? यदेवं निरतिशयाद्भुतवृत्ति स्वातन्त्र्यमित्यर्थः।
।।9.5।।मत्स्थानि सर्वभूतानि [9।4] इत्युक्त्वा पुनः कथंन च मत्स्थानि इति व्याहृतमुच्यते इत्यत आह -- मत्स्थत्वेऽपीति। स्पृष्ट्वेति। स्पर्शनेन्द्रियेण तां ज्ञात्वाऽन्योन्यधर्मसंक्रान्तिमासाद्य चेत्यर्थः। परमेश्वरस्य स्पर्शनाद्यवेद्यत्वे प्रमाणमाह -- नेति। संज्ञया शब्देनैव संज्ञा सम्यग् ज्ञानं यस्यासौ तथोक्तः। मत्स्थानीत्यादेरुक्तत्वात् भूतभृदित्यादिकं पुनरुक्तमित्यत आह -- ममेति। प्राग्भूताधारत्वादिकं स्वस्योक्तम्? अत्र पुनरव्यक्तमूर्तिनेति मूर्तावुक्तायां साऽस्मदादीनामिव भिन्नेति भ्रान्तिनिरासार्थं स्वलक्षणं स्वदेहस्योच्यत इत्यर्थः।,भूतभावनत्वस्याधिकस्योक्तेश्च न पुनरुक्तिरिति भावेनोक्तम् -- भूतेति। स्यादिदं व्याख्यानं यदि भगवद्देहस्येदं भवेत्। तदेव कुतः इत्यत आह -- महाविभूतेरिति। माहात्म्यमेव शरीरं यस्यासौ तथोक्तः।
।।9.5।।अतएव दिविष्ठ इवादित्ये कल्पितानि जलचलनादीनि मयि कल्पितानि भूतानि परमार्थतो मयि न सन्ति। त्वमर्जुनः प्राकृतीं मनुष्यबुद्धिं हित्वा पश्य पर्यालोचय। मे योगं प्रभावमैश्वरं अघटनघटनाचातुर्यं मायाविन इव ममावलोकयेत्यर्थः। नाहं कस्यचिदाधेयो नापि कस्यचिदाधारस्तथाप्यहं सर्वेषु भूतेषु मयि च सर्वाणि भूतानीति महतीयं माया। यतो भूतानि सर्वाणि कार्याण्युपादानतया बिभर्ति धारयति पोषयतीति च भूतभृत् भूतानि सर्वाणि कर्तृतयोत्पादयतीति भूतभावनः। एवमभिन्ननिमित्तोपादानभूतोऽपि ममात्मा मम परमार्थस्वरूपभूतः सच्चिदानन्दघनोऽसङ्गाद्वितीयस्वरूपत्वान्न भूतस्थः परमार्थतो न भूतसंबन्धी स्वप्नदृगिव न परमार्थतः स्वकल्पितसंबन्धीत्यर्थः। ममात्मेति राहोः शिर इतिवत्कल्पनया षष्ठी।
।।9.5।।मत्स्थानि सर्वभूतानि [9।4] इत्युक्त्या भगवतस्ते भिन्ना भविष्यन्तीति ज्ञानेन व्यापकत्वे भ्रमो मा भवत्वित्यत आह -- न च मत्स्थानीति। च पुनः। तानि भूतानि जातान्यपि भिन्नतया मत्स्थानि न? किन्तु मदात्मकान्येवेत्यर्थः। ननु तर्हि कथं भेदप्रतीतिः इत्यत आह -- पश्य मे योगमैश्वरमिति। मे ऐश्वरं कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थत्वरूपं क्रीडात्मकं योगं पश्य।अयमर्थः -- मया क्रीडार्थमभेदेऽपि भेदो बोध्यते। एतदेव विशदयति -- भूतभृदिति। भूतानि आधारत्वेन धारयति स्वरसार्थं पोषयतीति भूतभृत्। भूतानि पालयति तथा भावयति स्वभावभावितानि करोतीति भूतभावनः। एतादृशोऽपि सन् ममात्मा मदात्मस्वरूपं भूतस्थो न भवति। अयं भावः -- तेषु क्रीडां कुर्वन्नपि यथा ते क्रीडार्थं सृष्टास्तत्र स्थिताः स्वाभिमानेन भिन्नतया,तिष्ठन्ति तथाऽहं न तिष्ठामि।
।।9.5।। -- न च मत्स्थानि भूतानि ब्रह्मादीनि। पश्य मे योगं युक्तिं घटनं मे मम ऐश्वरम् ईश्वरस्य इमम् ऐश्वरम्? योगम् आत्मनो याथात्म्यमित्यर्थः। तथा च श्रुतिः असंसर्गित्वात् असङ्गतां दर्शयति -- असङ्गो न हि सज्जते (बृह0 उ0 3।9।26) इति। इदं च आश्चर्यम् अन्यत् पश्य -- भूतभृत् असङ्गोऽपि सन् भूतानि बिभर्ति न च भूतस्थः? यथोक्तेन न्यायेन दर्शितत्वात् भूतस्थत्वानुपपत्तेः। कथं पुनरुच्यते असौ मम आत्मा इति विभज्य देहादिसङ्घातं तस्मिन् अहंकारम् अध्यारोप्य लोकबुद्धिम् अनुसरन् व्यपदिशति मम आत्मा इति? न पुनः आत्मनः आत्मा अन्यः इति लोकवत् अजानन्। तथा भूतभावनः भूतानि भावयति उत्पादयति वर्धयतीति वा भूतभावनः।।यथोक्तेन श्लोकद्वयेन उक्तम् अर्थं दृष्टान्तेन उपपादयन् आह --,
।।9.5।।तेन भूतानि पञ्चमहाभूतानि प्राणिजातानि च नामरूपज्ञानकर्मात्मकानि मत्स्थानि अस्तिभातिप्रियत्वेन रूपेण नाम्ना च प्रकाशमाने मय्येवाक्षरे सर्वान्तर्यामिस्वरूपे उपादाने स्थितानि। द्वितीयपक्षे मत्स्थानि भूतानि मदायत्तस्थितिकानीत्यर्थः। अहं तु न तदायत्तस्थितिरित्याहनचाहं तेषु [9।4] इति। एवम्भूतो ममाखिलधर्माश्रयस्य मूलभूतस्य क्षराक्षरातीतस्य स्वैश्वर्यमहिमेति बोधयतिन च मत्स्थानि इति। निर्लेपतया विरुद्धसर्वधर्माश्रयत्वमाह। वस्तुतो न च मत्स्थानि नहि घटादीनामिव जलाद्यवलेपकत्वं (जलावधारकत्वं) मयि मदाधारशक्त्या तत्स्थितिरपि नान्यथेत्यचिन्त्यैश्वर्ययोगोऽयं ममेत्याहपश्य मे योगमैश्वरं इति। तथाहि मे मनोमयसङ्कल्प एव सर्वं कर्त्तुं शक्तोऽलौकिकयोगः स एवान्यव्यामोहको मायापदव्यपदिश्यमानोऽपि क्वचित् स च ममात्माऽक्षरस्वरूपोऽध्यात्मधर्माख्यो भूतानां भावयिता नियन्ता च तमेतं पश्य मम विरुद्धधर्माश्रयमालोचय। स किम्भूतः भूतभृन्न च भूतस्थ इति। न तत्सजातीयः? अपितु भूम्याद्यन्तर्वर्त्ती पालक उद्भावकश्च।