मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।9.10।।
mayādhyakṣheṇa prakṛitiḥ sūyate sa-charācharam hetunānena kaunteya jagad viparivartate
Under Me, as supervisor, Nature produces the moving and the unmoving; therefore, O Arjuna, the world revolves.
9.10 मया by Me? अध्यक्षेण as supervisor? प्रकृतिः Nature? सूयते produces? सचराचरम् the moving and the unmoving? हेतुना by cause? अनेन by this? कौन्तेय O Kaunteya? जगत् the world? विपरिवर्तते revolves.Commentary The Lord presides only as a witness. Nature does everything. By reason of His proximity or presence? Nature sends forth the moving and the unmoving. The prime cause of this creation is Nature. For the movable and the immovable? and for the whole universe? the root cause is Nature itself.Although all actions are done with the help of the light of the sun? yet? the sun cannot become the doer of actions. Even so the Lord cannot become the doer of actions even though Nature does all actions with the help of the light of the Lord.As Brahman illumines Avidya (ignorance)? the material cause of this world? It is regarded as the cause of this world. The magnet is ite indifferent although it makes the iron pieces move on account of its proximity. Even so the Lord remains indifferent although He makes Nature create the world.As the Lord and the Witness? He presides over this world which consists of moving and unmoving objects the manifested and the unmanifested wheel round and round.What is the purpose of creation Why has God created this world when He has really no concern with any enjoyment whatsoever This is a transcendental estion or Atiprasna. It is therefore irrelevant to ask or to answer this estion. You cannot say that God created this world for His own enjoyment because He really does not enjoy anything. He is a mere witness only. (Cf.X.8)
।।9.10।। व्याख्या--मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्-- मेरेसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति चर-अचर, जड-चेतन आदि भौतिक सृष्टिको रचती है। जैसे बर्फका जमना, हीटरका जलना, ट्राम और रेलका आना-जाना, लिफ्टका चढ़ना-उतरना, हजारों मील दूरीपर बोले जानेवाले शब्दोंको सुनना, हजारों मील दूरीपर होनेवाले नाटक आदिको देखना, शरीरके भीतरका चित्र लेना, अल्पसमयमें ही बड़े-से-बड़ा हिसाब कर लेना, आदि-आदि कार्य विभिन्न-विभिन्न यन्त्रोंके द्वारा होते हैं। परन्तु उन सभी यन्त्रोंमें शक्ति बिजलीकी ही होती है। बिजलीकी शक्तिके बिना वे यन्त्र स्वयं काम कर ही नहीं सकते; क्योंकि उन यन्त्रोंमें बिजलीको छोड़कर कोई सामर्थ्य नहीं है। ऐसे ही संसारमें जो कुछ परिवर्तन हो रहा है अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्डोंका सर्जन, पालन और संहार, स्वर्गादि लोकोंमें और नरकोंमें पुण्य-पापके फलका भोग, तरह-तरहकी विचित्र परिस्थितियाँ और घटनाएँ, तरह-तरहकी आकृतियाँ, वेश-भूषा, स्वभाव आदि जो कुछ हो रहा है, वह सब-का-सब प्रकृतिके द्वारा ही हो रहा है; पर वास्तवमें हो रहा है भगवान्की अध्यक्षता अर्थात् सत्ता-स्फूर्तिसे ही। भगवान्की सत्ता-स्फूर्तिके बिना प्रकृति ऐसे विचित्र काम कर ही नहीं सकती; क्योंकि भगवान्को छोड़कर प्रकृतिमें ऐसी स्वतन्त्र सामर्थ्य ही नहीं है कि जिससे वह ऐसे-ऐसे काम कर सके। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे बिजलीमें सब शक्तियाँ हैं, पर वे मशीनोंके द्वारा ही प्रकट होती हैं, ऐसे ही भगवान्में अनन्त शक्तियाँ हैं, पर वे प्रकृतिके द्वारा ही प्रकट होती हैं।
।।9.10।। वेदान्त में? अकर्म आत्मा और क्रियाशील अनात्मा के सम्बन्ध को अनेक उपमाओं के द्वारा स्पष्ट किया गया है। प्रत्येक उपमा इस संबंध रहित संबध के किसी एक पक्ष पर विशेष रूप से प्रकाश डालती है।सूर्य की किरणें जिन वस्तुओं पर पड़ती हैं? उन्हें उष्ण कर देती हैं? परन्तु बीच के उस माध्यम को नहीं? जिसमें से निकल कर वह उस वस्तु तक पहुँचती हैं। आत्मा भी अपने अनन्त वैभव में स्थित रहता है और उसके सान्निध्य से अनात्मा चेतनवत् व्यवहार करने में सक्षम हो जाता है। अनात्मा और प्रकृति पर्यायवाची शब्द हैं।किसी राजा के मन में संकल्प उठा कि आगामी माह की पूर्णिमा के दिन उसको एक विशेष तीर्थ क्षेत्र को दर्शन करने के लिए जाना चाहिये। अपने मन्त्री को अपना संकल्प बताकर राजा उस विषय को भूल जाता है। किन्तु पूर्णिमा के एक दिन पूर्व वह मन्त्री राजा के पास पहुँचकर उसे तीर्थ दर्शन का स्मरण कराता है। दूसरे दिन जब राजा राजप्रासाद के बाहर आकर यात्रा प्रारम्भ करता है? तब देखता है कि सम्पूर्ण मार्ग में उसकी प्रजा एकत्र हुई है और स्थानस्थान पर स्वागत द्वार बनाये गये हैं। राजा के इस तीर्थ दर्शन और वापसी के लिए विस्तृत व्यवस्था योजना बनाकर उसे सफलतापूर्वक और उत्साह सहित कार्यान्वित किया गया है। समस्त राजकीय अधिकारयों तथा प्रजाजनों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता और प्रयत्न को उड़ेल दिया है? जिससे राजा की तीर्थयात्रा सफल हो सके।इन समस्त उत्तेजनापूर्ण कर्मों में प्रत्येक व्यक्ति को कर्म का अधिकार और शक्ति राजा के कारण ही थी? परन्तु स्वयं राजा इन सब कार्यों में कहीं भी विद्यमान नहीं था। राजा की अनुमति प्राप्त होने से मन्त्री की आज्ञाओं का सबने निष्ठा से पालन किया। यदि केवल सामान्य नागरिक के रूप में वही मन्त्री यह प्रदर्शन आयोजित करना चाहता? तो वह कभी सफल नहीं हो सकता था। इसी प्रकार? आत्मा की सत्ता मात्र से प्रकृति कार्य क्षमता प्राप्त कर सृष्टि रचना की योजना एवं उसका कार्यान्वयन करने में समर्थ होती है।व्यष्टि की दृष्टि से विचार करने पर यह सिद्धांत और अधिक स्पष्ट हो जाता है। आत्मा केवल अपनी विद्यमानता से ही मन और बुद्धि को प्रकाशित कर उनमें स्थित वासनाओं की अभिव्यक्ति एवं पूर्ति के लिए बाह्य भौतिक जगत् और उसके अनुभव के लिए आवश्यक ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों को रचता है। मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है। यहाँ प्रकृति का अर्थ है अव्यक्त।नानाविध जगत् का यह नृत्य परिवर्तन एवं विनाश की लय के साथ आत्मा की सत्तामात्र से ही चलता रहता है। इसी कारण संसार चक्र घूमता रहता है। उपर्युक्त विचार का अन्तिम निष्कर्ष यही निकलता है कि आत्मा सदा अकर्त्ता ही रहता है। आत्मा के सान्निध्य से प्रकृति चेतनता प्राप्त कर सृष्टि का प्रक्षेपण करती है। उसकी सत्ता और चेतनता आत्मा के निमित्त से है? स्वयं की नहीं। आत्मा और अनात्मा? पुरुष और प्रकृति के मध्य यही सम्बन्ध है।स्तम्भ के ऊपर अध्यस्त प्रेत के दृष्टान्त में स्तम्भ और प्रेत के सम्बन्ध पर विचार करने से जिज्ञासु को पुरुष और प्रकृति का संबंध अधिक स्पष्टतया ज्ञात होगा।यदि? इस प्रकार? सम्पूर्ण जगत् का मूल स्वरूप नित्यमुक्त आत्मा ही है तो क्या कारण है कि समस्त जीव उसे अपने आत्मस्वरूप से नहीं जान पाते हैं इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते हैं --
।।9.10।।ईश्वरे स्रष्टृत्वमौदासीन्यं च विरुद्धमिति शङ्कते -- तत्रेति। पूर्वग्रन्थः सप्तम्यर्थः। विरोधपरिहारार्थमुत्तरश्लोकमवतारयति -- तदिति। तृतीयाद्वयं समानाधिकरणमित्यभ्युपेत्य व्याचष्टे -- मयेत्यादिना। प्रकृतिशब्दार्थमाह -- ममेति। तस्या अपि ज्ञानत्वं व्यावर्तयति -- त्रिगुणेति। पराभिप्रेतं प्रधानं व्युदस्यति -- अविद्येति। साक्षित्वे प्रमाणमाह -- तथाचेति। मूर्तित्रयात्मना भेदं वारयति -- एक इति। अखण्डं जाड्यं प्रत्याह -- देव इति। आदित्यवत्ताटस्थ्यं प्रत्यादिशति -- सर्वभूतेष्विति। किमिति तर्हि सर्वैर्नोपलभ्यते तत्राह -- गूढ इति। बुद्ध्यादिवत्परिच्छिन्नत्वं व्यवच्छिनत्ति -- सर्वव्यापीति। तर्हि नभोवदनात्मत्वं नेत्याह -- सर्वभूतेति। तर्हि तत्र तत्र कर्मतत्फलसंबन्धित्वं स्यात्तत्राह -- कर्मेति। सर्वाधिष्ठानत्वमाह -- सर्वेति। सर्वेषु भूतेषु सत्तास्फूर्तिप्रदत्वेन संनिधिर्वा(सो)त्रोच्यते। न केवलं कर्मणामेवायमध्यक्षोऽपि तु तद्वतामपीत्याह -- साक्षीति। दर्शनकर्तृत्वशङ्कां शातयति -- चेतेति। अद्वितीयत्वं केवलत्वम्। धर्माधर्मादिराहित्यमाह -- निर्गुण इति। किं बहुना सर्वविशेषशून्य इति चकारार्थः। उदासीनस्यापीश्वरस्य साक्षित्वमात्रं निमित्तीकृत्य जगदेतत्पौनःपुन्येन सर्गसंहारावनुभवतीत्याह -- हेतुनेति। कार्यवत्कारणस्यापि साक्ष्यधीना प्रवृत्तिरिति वक्तुं व्यक्ताव्यक्तात्मकमित्युक्तम्। सर्वावस्थास्वित्यनेन सृष्टिस्थितिसंहारावस्था गृह्यन्ते। तथापि जगतः सर्गादिभ्यो,भिन्ना प्रवृत्तिः स्वाभाविकी नेश्वरायत्तेत्याशङ्क्याह -- दृशीति। नहि दृशा व्याप्यत्वं विना जडवर्गस्य कापि प्रवृत्तिरिति हिशब्दार्थः। तामेव प्रवृत्तिमुदाहरति -- अहमित्यादिना। भोगस्य विषयोपलम्भाभावेसंभवान्नानाविधां विषयोपलब्धिं दर्शयति -- पश्यामीति। भोगफलमिदानीं कथयति -- सुखमिति। विहितप्रतिषिद्धाचरणनिमित्तं सुखं दुःखं चेत्याह -- तदर्थमिति। नच विमर्शपूर्वकं विज्ञानं विनानुष्ठानमित्याह -- इदमिति। इत्याद्या प्रवृत्तिरिति संबन्धः। सा च प्रवृत्तिः सर्वा दृक्कर्मत्वमुररीकृत्यैवेत्युक्तं निगमयति -- अवगतीति। तत्रैव च प्रवृत्तेरवसानमित्याह -- अवगत्यवसानेति। परस्याध्यक्षत्वमात्रेण जगच्चेष्टेत्यत्र प्रमाणमाह -- यो अस्येति। अस्य जगतो योऽध्यक्षो निर्विकारः स परमे प्रकृष्टे हार्दे व्योम्नि स्थितो दुर्विज्ञेय इत्यर्थः। ईश्वरस्य साक्षित्वमात्रेण स्रष्टृत्वे स्थिते फलितमाह -- ततश्चेति। किंनिमित्तापरस्येयं सृष्टिर्न तावद्भोगार्था परस्य परमार्थतो भोगासंबन्धित्वात्तस्य सर्वसाक्षिभूतचैतन्यमात्रत्वान्न चान्यो भोक्ता चेतनान्तराभावादीश्वरस्यैकत्वादचेतनस्याभोक्तृत्वान्न च सृष्टुरपवर्गार्था तद्विरोधित्वान्नैवं प्रश्नो वा तदनुरूपं प्रतिवचनं वा युक्तं परस्य मायानिबन्धने सर्गे तस्यानवकाशत्वादित्यर्थः। परस्यात्मनो दुर्विज्ञेयत्वे श्रुतिमुदाहरति -- को अद्धेति। तस्मिन्प्रवक्तापि संसारमण्डले नास्तीत्याह -- क इहेति। जगतः सृष्टिकर्तृत्वेन परस्य ज्ञेयत्वमाशङ्क्य कूटस्थत्वात्ततो न सृष्टिर्जातेत्याह -- कुत इति। नहीयं विविधा सृष्टिरन्यस्मादपि कस्माच्चिदुपपद्यतेऽन्यस्य वस्तुनोऽभावादित्याह -- कुत इति। कथं तर्हि सृष्टिरित्याशङ्क्याज्ञानाधीनेत्याह -- दर्शितं चेति।
।।9.10।।ननु भूतग्रामिमं कृत्स्त्रं विसृजामि। उदासीनवदासीनमिति च विरुद्धमिदमुच्यते इति चेतत्राह -- मयेति। मया,चेतनरुपेण सर्वविक्रियाशून्येनाध्यक्षेण स्वामिना सन्नधिमात्रेण सत्तास्फूर्तिप्रदानेन प्रवर्तकेन प्रवर्तिता प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिकाऽविद्यालक्षणा मायाशब्दवाच्याऽनिर्वचनीया सचराचरं व्यक्ताव्यक्तात्मकं जगदुत्पादयति। तथाच मन्त्रवर्णःएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च इति मूर्तित्रयात्मना भेदव्यावृत्त्यर्थं एक इति। जाड्यव्यावृत्त्यर्थमुक्तं देव इति। आदित्यवत्ताटस्थ्यं वारयति सर्वभूतेषु गूढ इति। बुद्य्धादिवत्परिच्छिन्नत्वं निराकरोति सर्वव्यापीति। आकाशवदनात्मत्वं वारयति सर्वभूतान्तरात्मेति। जीववत्कर्मपराधीनत्वं तस्य निराचष्टे कर्माध्यक्षः कर्मणां तत्तत्फलप्रदानाय प्रवर्तकः। न केवलं कर्माध्यक्ष एवापितु सर्वाधिष्ठानं कर्मवतां साक्षी चेत्याह सर्वभूताधिवासः साक्षीति। सर्वभूतेषु सत्तास्फूर्तिप्रदानायाधिवसति सन्निहित इत्यर्थः। यद्वा सर्वाणि भूतानि अधिवसन्ति यस्मिन्नधिष्ठाने सः। दर्शनकर्तत्वं वारयति चेता इति। विजातीयकृतं भेदं व्यवच्छिनत्ति केवल इति। अद्वितीय इत्यर्थः। स्वगतभेदं प्रत्याचष्टे निर्गुण इति। तथाच सूर्यवत्प्रकृतिसत्तास्फूर्तिप्रदानेन जगत्कर्तृत्वेऽप्यदासीनत्वमविरुद्धमिति भावः। अनेनाध्यक्षत्वेन हेतुना निमित्तेन सचराचरं जगद्विपरिवर्तते सर्वास्थासु जाग्रदादिषु बाल्यादिषु चेदमहं भोक्ष्ये इदं पश्यामि इदं श्रृणोमीदं स्पृशामीदमास्वादयामीदं जिघ्रामीदं सुखदुःखमनुभवामि तदर्थमिदं धर्माधर्मलक्षणं कर्म करिष्ये इत्यादिसर्वापि जगतः प्रवृत्तिः चेतनव्याप्तिं विना जडवर्गस्य न संभवति। तथाच मन्त्रवर्णःयो अस्याध्यक्षः परमे व्यामेन् इत्यादिः। अस्य प्रत्यक्षादिसन्निधापितस्य जगतो योऽध्यक्षः सत्तास्फूर्तप्रदादेन प्रवर्तत्तः सूर्यवन्निर्विकारः सः परमे प्रकष्टे हार्ते व्योम्र्याकाशे स्थितो दुर्विज्ञय इत्यर्थः। एतेनेदं फलितम्। ननु किंनिमित्तेयं परस्येश्वात्त सृष्टिः किं स्वभोगार्था? उत चेतनान्तरभोगार्था? उत चेतनान्तरभोगार्था? उताचेतनार्था? उतापवर्गार्था। नाद्यः। एकस्य देवस्य सर्वाध्यक्षभूतचैतन्यस्य परमार्थसत आप्तकामस्य पूर्णस्य सर्वभोगास्पृष्टत्वात्।नेह नानास्ति किंचन िति श्रुतेरचेतनस्य भोक्तृत्वायोगाच्च। नापि चतुर्थः। सृष्टेरपवर्गविरोधित्वात्। किंच कस्य मोक्षार्था स्वस्योतान्यस्य। नाद्यः। स्वस्य नित्यमुक्तत्वात्। नान्त्योऽन्यस्यानिरुपणादित्यादिशङ्कातदनुरुपं प्रतिवचनं च न युक्तं? परस्य ब्रह्मणः मायानिबन्धने सर्गे उक्तशङ्कानवकाशत्वेन प्रतिवचनयोग्यताया अभावात्। किंच मायासर्गमभ्युपगच्छतां परत्र ब्रह्मणि नानाभावो वास्तवो न संभवतीति वदतामौपनिषदानामियमुक्तिरिष्टैव। तथाच मन्त्रवर्णःको अद्धा वेद क इह प्रवोचत्कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः इत्यादिः। इत्यादिः। परमात्मनो दुर्विज्ञेयत्वं प्रतिपादयन् सृष्टिकर्तृत्वं तस्मिन्नाक्षिपति परमात्मानमद्धा साक्षात् को वेद घटमिव तदिदमिति। न कोऽपि जानातीत्यर्थः। तस्मिन्परमात्मनि प्रवक्तापि संसारमण्डले नास्तीत्याह -- क इहेतु। शुद्धस्य परमात्मनः सर्वशब्दावाच्यत्वान्न कोऽपि प्रावोचदित्यर्थः।यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इति श्रुतेः। तर्हि ब्रह्माज्ञानाय श्रवणादौ प्रवृत्तिबोधकानांब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवतितरति शोकमात्मवित् इत्यादिकानां च श्रुतिनामप्रामाण्यमिति चेन्नैष दोषः। फलव्याप्तिप्रतिषेधेनाज्ञाननिबर्हणाय वृत्तिव्याप्तिस्वीकारेण चाविरोधात्। शब्दोऽपि साक्षान्न ब्रह्म पतिपादयति किंतु अज्ञाननिबर्हण एव तस्याचिन्त्या शक्तिरित स्वीक्रीयते। तथाच सुप्ते देवदत्ते देवदत्तेतिशब्दो यथा तन्निद्रां नाशयति एवं तत्त्वमसीतिवाक्यमपि नाहं ब्रह्मेत्यज्ञानं निराकरोति। तदुक्तं सुरेश्वराचार्यैःदुर्बलत्वादविद्याया आत्मत्वाद्वोधरुपिणाः। शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वाद्विह्य्स्तं मोहहानतः। अग्रहीत्वैव संबन्धमभिधानाभिधेययोः। हित्वा निद्रां प्रबुध्यन्ते सुषुप्ते बोधिताः परैः। जाग्रद्वन्न यतः शब्दं सुषुप्ते वेत्ति कश्चन। ध्वस्तेऽतो ज्ञानतोऽज्ञाने ब्रह्मास्मीति भवेत्फलम्। अविद्याघातिनः शब्दाद्याहं ब्रह्मेति धीर्भवेत्। नश्यत्यविद्यया सार्धं हत्वा रोगमिवौषसंभवात्। ननु अन्यस्मान्निमित्ताद्भविष्यतीति चेत्तत्राह -- कुत इति। अन्यस्य वस्तुनो भावादियं विविधा सृष्टिर्न कुतश्चिन्निमित्तादुत्पद्यत इत्यर्थः। ननुयतो वा इमानि भूतानि जायन्ते?यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे?जन्माद्यस्य यतः इत्यादिश्रुतिस्मृतिसूत्राणामप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेन्नैष दोषः। ब्रह्मणः सृष्टेरुत्पत्त्यादिप्रतिपादनेन तदत्यन्तासत्त्वस्य निरपवादादन्यथा वायौ रुपं नास्तीत्यपवादमात्रेण तेजसि रुपस्य सत्तानपायान्न तस्यासत्त्वं प्रतीयते। तथा ब्रह्मणि जगन्नास्तीत्यपवादमात्रेण प्रधानादौ तत्सत्त्वापत्त्यातदसिद्धेः। कथं तर्हि मुथ्याभूते प्रपञ्चे इदमुत्पन्नमिदं नष्टमिति वैदिकलौकिकव्यवहार इति चेत् अनाद्यनिर्वचनीयाज्ञानकल्पितं लौकिकमपवदितुं श्रुतिभरनूद्यते इति गृहाण। तदुग्तंअज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः इति। यथा पाण्डुनाध्यक्षेण कुन्ती त्वामुत्पादितवती तथा मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सचराचरं जगदुत्पादयतीति कौन्तेयेति संबोधनस्य गूढाभिसंधिः।
।।9.10।।उदासीनवदिति चेत्स्वयमेव प्रकृतिः सूयत इत्यत आह -- मयेति। प्रकृतिसूतिद्रष्टा कर्त्ता अहमेवेत्यर्थः। तथा च श्रुतिः यतः प्रसूता जगतः प्रसूती तोयेन जीवान्व्यससर्ज भूम्याम् [म.ना.उ.1।4] इति।
।।9.9 -- 9.10।।ननु विषमां सृष्टिं कुर्वतस्तव वैषम्यनैर्घृण्ये स्यातामत आह -- न चेति। तानि विषमसृष्टिरूपाणि कर्मामि मां न निबध्नन्ति। तत्र हेतुः उदासीनवदासीनमिति। यथा पर्जन्यो बीजविशेषेषु रागं केषुचिद्द्वेषं चाकृत्वा उदासीनः सन् वर्षति एवमीश्वरोऽपि पुण्यवत्सु रागं पापिषु द्वेषं चाकुर्वञ्जगत्सृजति। तत्तदसाधारणकर्मबीजवशात्ते ते विभिन्नं फलं प्राप्नुवन्तीति नेश्वरवैषम्यादीत्यर्थः। ननु विसृजामि। उदासीनवदासीनमिति परस्परविरुद्धमुच्यत इत्याशङ्क्याह -- मयेति। मया कूटस्थेन अध्यक्षेण अयस्कान्तकल्पेन प्रवर्तकेन प्रकृतिश्चराचरं जगत् सूयते उत्पादयति। अनेनाध्यक्षत्वेनैव हेतुना हे कौन्तेय? जगद्विपरिवर्तते जन्माद्यवस्थासु भ्रमति। अयस्कान्तवदहमुदासीनश्च सृष्टिप्रवर्तकश्च भवामीति भावः। तथा च मन्त्रवर्णःएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च इति एकस्यैव देवस्य सर्वाध्यक्षत्वं साक्षित्वं च प्रतिपादयति।
।।9.10।।तस्मात् क्षेत्रज्ञकर्मानुगुणं मदीया प्रकृतिः सत्यसंकल्पेन मया अध्यक्षेण ईक्षिता सचराचरं जगत् सूयते? अनेन क्षेत्रज्ञकर्मानुगुणमदीक्षणेन हेतुना जगद् विपरिवर्तते इति मत्स्वाम्यं सत्यसंकल्पत्वं नैर्घृण्यादिदोषरहितत्वम् इत्येवमादिकं मम वसुदेवसूनोः ऐश्वरं योगं पश्य। यथा श्रुतिः -- अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्वान्यो मायया संनिरूद्धः।।मायां तु प्रकृतिं विद्यात् मायिनं तु महेश्वरम् (श्वेता0 4।910) इति।
।।9.10।।तदेवोपपादयति -- मयेति। मयाध्यक्षेणाधिष्ठात्रा निमित्तभूतेन प्रकृतिः सचराचरं विश्वं सूयते जनयति। अनेन मदधिष्ठानेन हेतुना इदं जगद्विपरिवर्तते पुनःपुनर्जायते। संनिधिमात्रेणाधिष्ठातृत्वात्कर्तृत्वमुदासीनत्वं चाविरुद्धमिति भावः।
।।9.10।।यदि कर्मानुगुणा विषमसृष्टिः? तर्हि प्रकृतिरेव परिणामशीला तदनुगुणं परिणमतां? किं त्वया इत्यत्रोच्यते -- मयाऽध्यक्षेणेति।सर्वभूतानि इत्युपक्रान्तस्वसङ्कल्पाधीनसृष्टिप्रलयोपसंहारताद्योतनायाहतस्मादिति।मयाध्यक्षेण इति पदद्वयाभिप्रेतं श्रौतमर्थमाह -- सत्यसङ्कल्पेन ৷৷. ईक्षिता इति। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः [श्वे.उ.6।11] योऽस्याध्यक्षः परमे व्योमन् [ऋग्वे.8।7।17।7] ध्यायतेऽध्यासिता तेन [मन्त्रिको.3।5] इत्यादिकमत्र भाव्यम्। अधिकमश्नुत इति अध्यक्ष इति केचित्। जगच्छब्दस्तत्राप्यन्वेतव्यः। पूर्वार्धगतसचराचरशब्द उत्तरत्रापीत्यभिप्रायेणसचराचरं जगदित्युक्तम्।सूयते इत्यनेनसूयते पुरुषार्थं च [मन्त्रिको.3।5] इत्यादिश्रुतिः स्मारिता। पूर्वार्धे सृष्टिहेतुतयोक्तमेवोत्तरत्रापि संहारहेतुतयाअनेन हेतुना इति परामर्शार्हम् न पुनः प्रधानतयोपस्थापितापि सृष्टिः? तस्याः प्रलयादिकं तस्य हेतुत्वादित्यभिप्रायेणाहइत्यनेनेति। तेनाध्यक्षशब्दस्यात्र अधिक्रियायानिर्विकारचैतन्यपरतां वदन्तः प्रत्युक्ताः। कर्मवशाज्जीवहेतुभूतं प्रपञ्चं प्रति कथं तव स्वाम्यं? कथं च कारुणिकस्यापि कर्मपरतन्त्रतया दुःखमुत्पादयितुः सत्यसङ्कल्पता इत्यत्राह -- मत्स्वाम्यमिति।पश्य मे योगम् [9।5] इत्युपक्रान्तनिर्वहणरूपताप्रदर्शनायममेत्यादिकम्।अवजानन्ति माम् [8।11] इत्यनन्तरश्लोकस्थास्मच्छब्दानुसन्धानवशात्मे इत्येतन्निरतिशयसौलभ्यसंछादितेश्वरभावमवतारमभिप्रैतीतिवसुदेवसूनोरित्युक्तम्। एतेनमनुष्यत्वे परत्वं च [गी.सं.13] इति सङ्ग्रहश्लोकांशोऽनुसंहितः। युज्यत इति व्युत्पत्त्या स्वाम्यादेरत्र योगशब्दार्थतोक्ता। प्रकृतेरीश्वराधीनपरिणामत्वे जीवानां कर्मानुगुणप्रकृतिवशत्वे च श्रुतिमुदाहरतियथाहेति।
।।9.9 -- 9.10।।न चेति। मयेति। न च मेऽस्ति कर्मबन्धः? औदासीन्येन वर्तमानोऽहं यतः। अत एवाहं जगन्निर्माणे अनाश्रितव्यापारत्वात् हेतुः।
।।9.10।।कथं तर्ह्यहं केवलं द्रष्टैव? प्रकृतिरेव चराचरं सूयत इत्युत्तरवाक्यमित्यतस्तन्निवर्त्याशङ्कां प्रदर्श्य व्याचष्टे -- उदासीनवदिति। भगवतोदासीनसादृश्यं स्वयमेव व्याख्यातम्? तदज्ञात्वा क्रियाभाव एवोक्त इति मत्वा शङ्कितम्। पुराप्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि [9।8] इत्युक्तम् इदानीं तुउदासीनवत् [2।9] इति निष्क्रियत्वमुच्यते। एवं तर्हि प्रकृतिरेव सूयते? त्वयि तु तत्सन्निधानात्कर्तृत्वोपचारमात्रमित्यापन्नमिति तन्निवृत्त्यर्थमिदं वाक्यम्। तत्रअध्यक्षेण इत्यनेन प्रकृतिसूतेर्द्रष्टाऽहमेवेत्युच्यते। तृतीयया च तत्प्रयोजककर्ता चाहमेव? न तु तस्याः स्वातन्त्र्यमिति दर्शनपूर्वकत्वात्प्रयोजकत्वस्य तदुक्तिः? अन्यथा तृतीया व्यर्था स्यादिति भावः। प्रकृतिप्रयोजकत्वं परमेश्वरस्य कुतः इत्यत आह -- यत इति। प्रसूता सृष्टावभिमुखीभूता प्रसूती प्रसूतिः तोयेन कर्मणा व्यससर्ज विससर्ज। बहुलग्रहणात्।
।।9.10।।भूतग्राममिमं विसृजाम्युदासीनवदासीनमिति च परस्परविरुद्धमिति शङ्कापरिहारार्थं पुनर्मायामयत्वमेव प्रकटयति -- मया सर्वतो दृशिमात्रस्वरूपेणाविक्रियेणाध्यक्षेण नियन्त्रा भासकेनावभासिता प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिका सत्त्वासत्त्वादिभिरनिर्वाच्या माया सूयते उत्पादयति सचराचरं जगत् मायाविनाधिष्ठितेव मायाकल्पितगजतुरगादिकम्? न त्वहं सकार्यमायाभासनमन्तरेण करोमि व्यापारान्तरम्। हेतुना निमित्तेनानेनाध्यक्षत्वेन हे कौन्तेय? जगत्सचराचरं विपरिवर्तते विविधं परिवर्तते। जन्मादिविनाशान्तं विकारजातमनवरतमासादयतीत्यर्थः। अतो भासकत्वमात्रेण व्यापारेण विसृजामीत्युक्तम्। तावता चादित्यादेरिव कर्तृत्वाभावादुदासीनवदासीनमित्युक्तमिति न विरोधः। तदुक्तंअस्य द्वैतेन्द्रजालस्य यदुपादानकारणम्। अज्ञानं तदुपाश्रित्य ब्रह्म कारणमुच्यते इति श्रुतिस्मृतिवादाश्चात्रार्थे सहस्रश उदाहार्याः।
।।9.10।।ननूदासीनस्तेषु त्वं चेत्तदा प्रकृतिवशोत्पन्ना जीवाः कथं क्रीडायोग्या भवन्ति कथं वा त्वं कर्ता इत्याशङ्क्याह -- मयेति। मया परिदृश्यमानेन अध्यक्षेण अधिष्ठात्रा सकलकर्त्रा क्रीडाधिष्ठिता सती प्रकृतिः सचराचरं जडजीवसहितं जगत् सूयते जनयति। अनेन क्रीडात्मकेन हेतुना कारणेन जगत् विशेषेण परिवर्त्तते जायते च। अतो योग्या भवन्तीत्यर्थः।
।।9.10।। -- मया अध्यक्षेण सर्वतो दृशिमात्रस्वरुपेण अविक्रियात्मना अध्यक्षेण मया? मम माया त्रिगुणात्मिका अविद्यालक्षणा प्रकृतिः सूयते उत्पादयति सचराचरं जगत्। तथा च मन्त्रवर्णः -- एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च (श्वे0 उ0 6।11) इति। हेतुना निमित्तेन अनेन अध्यक्षत्वेन कौन्तेय जगत् सचराचरं व्यक्ताव्यक्तात्मकं विपरिवर्तते सर्वावस्थासु। दृशिकर्मत्वापत्तिनिमित्ता हि जगतः सर्वा प्रवृत्तिः -- अहम् इदं भोक्ष्ये? पश्यामि इदम्? शृणोमि इदम्? सुखमनुभवामि? दुःखमनुभवामि? तदर्थमिदं करिष्ये? इदं ज्ञास्यामि? इत्याद्या अवगतिनिष्ठा अवगत्यवसानैव। यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् (तै0 ब्रा0 2।8।9) इत्यादयश्च मन्त्राः एतमर्थं दर्शयन्ति। ततश्च एकस्य देवस्य सर्वाध्यक्षभूतचैतन्यमात्रस्य परमार्थतः सर्वभोगानभिसंबन्धिनः अन्यस्य चेतनान्तरस्य अभावे भोक्तुः अन्यस्य अभावात्। किंनिमित्ता इयं सृष्टिः इत्यत्र प्रश्नप्रतिवचने अनुपपन्ने? को अद्धा वेद क इह प्रवोचत्। कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः (तै0 ब्रा0 2।8।9) इत्यादिमन्त्रवर्णेभ्यः। दर्शितं च भगवता -- अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः (गीता 5।15) इति।।एवं मां नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वज्ञं सर्वजन्तूनाम् आत्मानमपि सन्तम् --,
।।9.10।।परं प्रकृतिरपि न स्वतः कार्यकारणक्षमाऽचेतनत्वात्? मयाऽध्यक्षेणाधिष्ठात्रा निमित्तभूतेन पुरुषरूपेण तु सहिता सा चेद्गर्भीकृतेति यावत्। सचराचरं जगत्सूयते जनयति पत्नीवत्। तत्रापि पूर्वसर्गा(कर्मा)नुगुणमात्मनां चेतनानां जन्म नित्यपरिच्छिन्नानां तद्धर्मैः समागम इति व्यपदिश्यते तदनुगुण एव सहयोगः स्वान्तस्स्थान्प्रकृतौ जनयामीति प्रवृत्तेच्छया अनेनैव हेतुना जगद्विपरिवर्त्तते विनिमितं वर्तते। विनिमयो हि द्विविधो व्यवहारश्चिदचिद्रूपः? तदात्मकमित्यैश्वरं योगं पश्येति भावः। तथा च श्रुतिः -- सच्च त्यच्चाभवत् [तै.उ.2।6।1] अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः। मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वम्। तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् [श्वे.उ.4।910] इति। एतेन स्थावरजङ्गमात्मकस्य सर्वस्य जगतो भगवदिच्छामायाजातत्वात्प्राकृतत्वं सत्यत्वं भगवत्कार्यत्वं चोक्तम्। अतएवोक्तं निबन्धेप्रपञ्चो भगवत्कार्यस्तद्रूपो माययाऽभवत् इत्यादि। मायया द्वारभूतया स्त्रीस्थानापन्नयेत्यर्थः। एतेनाचेतनायाश्चेतनाधिष्ठिततया सर्वकार्यकरणक्षमत्वसूचनेन स्वमाहात्म्यमुक्तम्।