सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः। नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।9.14।।
satataṁ kīrtayanto māṁ yatantaśh cha dṛiḍha-vratāḥ namasyantaśh cha māṁ bhaktyā nitya-yuktā upāsate
Always glorifying Me, striving, firm in their vows, prostrating themselves before Me, they worship Me with steadfast devotion.
9.14 सततम् always? कीर्तयन्तः glorifying? माम् Me? यतन्तः striving? च and? दृढव्रताः firm in vows? नमस्यन्तः prostrating? च and? माम् Me? भक्त्या with devotion? नित्ययुक्ताः always steadfast? उपासते worship.Commentary These great souls sing My glory. They do Japa (repetition) of Pranava (Om). They study and recite the Upanishads. They hear the Srutis (the Vedas) from their spiritual preceptor? reflect and meditate on the attributeless Absolute (Nirguna Brahman). They cultivate the Sattvic virtues such as patience? mercy? cosmic love? tolerance? forbearance? truthfulness? purity? etc. They control the senses and steady the mind. They are firm in their vows of nonviolence? truthfulness and purity in thought? word and deed. They worship Me with great faith and devotion as the inner Self hidden in their heart. As a neophyte cannot see God face to face? he will have to worship his Guru (spiritual preceptor) firt and regard him as God or Brahman Himself.
।।9.14।। व्याख्या--'नित्ययुक्ताः'--मात्र मनुष्य भगवान्में ही नित्ययुक्त रह सकते हैं, हरदम लगे रह सकते हैं, सांसारिक भोगों और संग्रहमें नहीं। कारण कि समय-समयपर भोगोंसे भी ग्लानि होती है और संग्रहसे भी उपरति होती है। परन्तु भगवान्की प्राप्तिका, भगवान्की तरफ चलनेका जो एक उद्देश्य बनता है, एक दृढ़ विचार होता है, उसमें कभी भी फरक नहीं पड़ता।
।।9.14।। पूर्व श्लोक में महात्माओं का वर्णन करते समय? ज्ञानमार्ग का संकेत किया गया था। अब यहाँ? आत्मसंगठन एवं आत्मविकास के दो अन्य मुख्य मार्ग बताये गये हैं अनन्य भक्ति और यज्ञ भावना से किये जाने वाले निष्काम कर्म।सतत मेरी कीर्ति का गान करते हुए सामान्यत कीर्तन के नाम पर बेसुरे वाद्यों के साथ समान रूप से बेसुरी आवाज में लोग उच्च स्वर से भजन कीर्तन करते हैं यह कीर्तन का अत्यन्त विकृत रूप है। कीर्तन का आशय इससे कहीं अधिक पवित्र है। वास्तव में? श्रद्धाभक्ति पूर्वक अपने आदर्श ईश्वर की पूजा करना और उनके यशकीर्तिप्रताप का गान करना? उस मन की मौन क्रिया है जो विकसित होकर अपने आदर्श को सम्यक् रूप से समझता है तथा जिनका गौरव गान करना उसने सीखा हैं। अनेक लोग दिनभर संदिग्ध कार्यों में व्यस्त रहते हुए रात्रि में किसी स्थान पर एकत्र होकर उच्च स्वर में कुछ समय तक भजनकीर्तन करते हैं और तत्पश्चात् उन्हीं अवगुणों के कार्य क्षेत्रों में पुन लौट जाते हैं। इन लोगों के कीर्तन की अपेक्षा सामाजिक कार्यकर्ताओं की समाज सेवा और ज्ञानी पुरुष के हृदय में प्राणिमात्र के लिये उमड़ता प्रेम ईश्वर का अधिक श्रेष्ठ और प्रभावशाली कीर्तन है।यतन्तश्च दृढ़व्रता (दृढ़निश्चय से प्रयत्न करते हुए) ये कुछ सरल एवं सामान्य तर्कसंगत तथ्य हैं जिन पर साधारणत ध्यान नहीं दिया जाता और परिणाम स्वरूप साधकगण अपने ही हाथों अपनी आध्यात्मिक सफलता का शवागर्त खोदते हैं। अधिकतर लोगों का धारणा यह होती हैं कि सप्ताह में किसी एक दिन केवल शरीर से यन्त्र के समान पूजनअर्चन? व्रतउपवास आदि करने मात्र से धर्म के प्रति उनका उत्तरदायित्व समाप्त हो जाता है। उन्हें इतना करना ही पर्याप्त प्रतीत होता है। फिर शेष कार्य उनके काल्पनिक देवताओं का है? जो साधना के फल को तैयार करके इनके सामने लायें? जिससे ये लोग उसका भोग कर सकें इस विवेकहीन? अन्धश्रद्धाजनित धारण्ाा का आत्मोन्नति के विज्ञान से किञ्चित् मात्र संबंध नहीं है। वास्तव में धर्म तो तत्त्वज्ञान का व्यावहारिक पक्ष है।यदि कोई व्यक्ति वर्तमान जीवन एवं रहनसहन सम्बन्धी गलत विचारधारा और झूठे मूल्यांकन की लीक से हटकर आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर होना चाहता हो? तो उसके लिए सतत और सजग प्रयत्न अनिवार्य है। जीवन में जो असामंजस्य वह अनुभव करता है? और उसके मन की वीणा पर जीवन की परिस्थितियाँ जिन वर्जित स्वरों की झनकार करती हैं इन सब के कारण उसके अनुभवों के उपकरणों (इन्द्रियाँ? मनबुद्धि) की अव्यवस्था है। उन्हें पुर्नव्यवस्थित करने के लिए अखण्ड सावधानी? निरन्तर प्रयत्न और दृढ़ लगन की आवश्यकता है। इस प्रकार आत्मोद्धार के लिए प्रयत्न करते समय? शारीरिक कामवासनाओं को उद्दीप्त करने वाले प्रलोभन साधक के पास आकर कानाफूसी करके उसे निषिद्ध फल को खाने के लिए प्रेरित करते हैं? परन्तु ऐसे प्रबल प्रलोभनों के क्षणों में उसे मिथ्या का त्याग करने का और सत्य के मार्ग पर स्थिरता से चलने का दृढ़ निश्चय करना चाहिए।विशुद्ध प्रेम ही वास्तविक भक्ति है। प्रेमी का प्रेमिका अथवा अपने प्रेम के विषय के साथ हुआ तादात्म्य प्रेम का मापदण्ड है। भूत मात्र के आदि कारण और अव्यय स्वरूप मुझ से भक्ति ही वह मार्ग है? जिसके द्वारा मोहित जीव अपने आत्मस्वरूप के साथ तादात्म्य प्राप्त कर सकता है। इसकी सफल परिसमाप्ति अनात्म उपाधियों से वैराग्य प्राप्त होने से ही होगी। अनात्मा से मन को परावृत्त करने की साधना को यहाँ मुझे नमस्कार करते हुए शब्द के द्वारा सूचित किया गया है। आत्मसाक्षात्कार की विधेयात्मक साधना यह है कि साधक एकाग्र मन से आत्मस्वरूप का ही चिन्तन करके अन्त में स्वस्वरूपानुभूति में ही स्थित हो जाता है। इस विधेयात्मक पक्ष को भक्तया शब्द के द्वारा बताया गया है। मिथ्या उपाधियों से मन को निवृत्त करके आत्मचिन्तन के द्वारा आत्मसाक्षात्कार केवल उन लोगों को उपलब्ध होता है जो मुझ से नित्ययुक्त हैं और मेरी उपासना करते हैं। ज्ञानमार्ग में? कर्मकाण्ड की पूजा के समान न पुष्पार्पण करना है और न चन्दन चर्चित करना है। मन में आत्मचिन्तन की सजग वृत्ति बनाये रखना ही उस परमात्मा की जो समस्त जगत् का अधिष्ठान और भूतमात्र की आत्मा है वास्तविक पूजा है। यह पूजा हमारे अहंकारमय जीवन की कलियों को विकसित करके ईश्वरीय पुरुष के फूल रूप में खिला सकती है? और उनकी पूर्णता की सुगन्ध सर्वत्र प्रवाहित करके ले जा सकती है।
।।9.14।।भजनप्रकारं पृच्छति -- कथमिति। तत्प्रकारमाह -- सततमिति। सर्वदेति श्रवणावस्था गृह्यन्ते? कीर्तनं वेदान्तश्रवणं प्रणवजपश्च? व्रतं ब्रह्मचर्यादि? नमस्यन्तो मांप्रति चेतसा प्रह्वीभवन्तो भक्त्या परेण प्रेम्णा नित्ययुक्ताः सन्तः सदा संयुक्ताः।
।।9.14।।भजन्तीत्युक्तं तत्र भजनप्रकारजिज्ञासायमाह द्वाभ्याम् -- सततमिति। निरन्तरं सर्वदा ब्रह्मरूपं मां कीर्यन्तः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं गुरुमुपसंगम्य तन्मुखादुपनिषच्छ्रवणानन्तरमुपनिषद्भिः हरे गोविन्द वासुदेव दामोदर माधव मुकुन्देत्यादिनामभिश्च कीर्ययन्तः यतन्तश्च शमदमदयाऽहिंसाऽस्ते ब्रह्मचर्यापरिग्रहादिभिर्यत्नं कुर्वन्तः। अतएव दृढं स्थिरं केनापि चालयितुमशक्यं व्रतं शमदमादिरुपं येषां ते भक्त्या परप्रेम्णा मां हृदयेशयमन्तर्यामिरुपेण प्रत्यक्चेतनरुपेण च हृद्गुहावासिनमात्मानं नित्ययुक्ता उद्युक्ताः सन्त उपासते सेवन्ते। सततमित्यनेन कीर्तनादिव्यतिरिक्तकालव्यावृत्तिः। अत्र केचित्। गुरुपसदनोत्तरकाले प्रणवजपोपनिषदावर्तनादिभिर्मां सर्वोपनिषत्प्रतिपाद्यं ब्रह्मस्वरुपं कीर्तयन्तः वेदान्तशास्त्राध्ययनरुपश्रवणव्यापारविषयीकुर्वन्त इतियावत्। तथा यतन्तश्च गुरुमुखाच्छ्रेतमत्स्वरुपावधारणाय यतमानाः श्रवणगृहीतार्थबाधकशङ्कानिवर्तकतर्कानुसंधानरुपं मननं यत्नेन संपादयन्त इतियावत्। तथा दृढानि अहिंसादिव्रतानि येषां ते दृढव्रताः। शमदमादिसाधनसंपन्ना इतियावत्। तथा नमस्यन्तश्च मां भगवन्तं वासुदेवमिष्टदेवतारुपेण गुरुरुपेण च स्थितं कायवाङ्यनोभिर्नमस्कुर्वन्तश्च। चकारात्श्रवणं कीर्तनं विषणोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् इति वन्दनसहचरितं श्रवणाद्यपि बोध्यम्। पादसेवनमित्यपि गुरुरुपे परमात्मनि सुकरमेव। अत्र मामिति पुनर्वचनं सगुणरुपपरामर्शार्थम्। अन्यथैकस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गात्। तया भक्त्या मद्विषयेण परप्रेम्णा नित्ययुक्ताः। एतेन सर्वसाधनपौष्कल्यं प्रतिबन्धकाभावश्च दर्शितः। तथाच श्रुतिःयस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः इति। तदेवं शमदमादिसाधनसंपन्नाः वेदान्तश्रवणमननपरायणाः परमेश्वरे परमगुरौ परप्रेरणा नमस्कारदिना च विगतविघ्नाः परिपूर्णसाधनाः सन्तो मामुपासते विजातीयप्रत्ययानन्तरितेन सजातीयप्रत्ययप्रवाहेण श्रवणमननोत्तरभाविना सततं चिन्तयन्ति महात्मानोऽनेन निदिध्यासनं चरमसाधनं दर्शितमित्यदि वर्णयन्ति तदेतद्भाष्यस्य श्रवणमननोत्तरभाविना सततं चिन्तयन्ति महात्मानोऽनेन निदिध्यासनं चरमसाधनं दर्शितमित्यादि वर्णयन्ति तदेतद्भाष्यस्य सामान्यरुपस्याविरोधेनोपादेयम्।
।।9.14।।भजनस्वरूपमाह -- सततमिति। यतन्तः इन्द्रियोपसंहारशमदमादिषु प्रयतमानाः दृढान्यहिंसादीनि व्रतानि येषां ते दृढव्रताः नमस्यन्तश्च मां हृदयेशं प्रतिमादिरूपं वा भक्त्या। नित्ययुक्ताः नित्यमवहिताः सन्त उपासते।
।।9.14।।अत्यर्थं मत्प्रियत्वेन मत्कीर्तनयतननमस्कारैः विना क्षणाणुमात्रे अपि आत्मधारणम् अलभमानाः मद्गुणविशेषवाचीनि मन्नामानि स्मृत्वा पुलकितसर्वाङ्गाः? हर्षगद्गदकण्ठाः श्रीरामनारायणकृष्णवासुदेवेत्येवमादीनि सततं कीर्तयन्तः तथा एव यतन्तः मत्कर्मसु अर्चनादिकेषु वन्दनस्तवनकरणादिकेषु तदुपकारकेषु भवननन्दनवनकरणादिकेषु च दृढसंकल्पाः यतमानाः? भक्तिभारावनमितमनोबुद्ध्यभिमानपदद्वयकरद्वयशिरोभिः अष्टाङ्गैः अचिन्तितपांसुकर्द्दमशर्करादिके धरातले दण्डवत् प्रणिपतन्तः? सततं मां नित्ययुक्ताः नित्ययोगम् आकाङ्क्षमाणा आत्मवन्तो मद्दास्यव्यवसायिनः उपासते।
।।9.14।।तेषां भजनप्रकारमाह -- सततमिति द्वाभ्याम्। सततं सर्वदा स्तोत्रमन्त्रादिभिः कीर्तयन्तः केचिन्मामुपासते सेवन्ते दृढानि व्रतानि नियमा येषां तादृशाः सन्तो यतन्तश्चेश्वरपूजादिषु इन्द्रियोपसंहारादिषु प्रयत्नं कुर्वन्तश्च केचिद्भक्त्या नमस्यन्तः प्रणमन्तश्चान्ये नित्ययुक्ता अनवरतमवहिताः सर्वे सेवन्ते भक्त्येति नित्ययुक्ता इति च कीर्तनादिष्वपि द्रष्टव्यम्।
।।9.14।।भजन्तीत्युपासनं प्रसक्तम् अथ तदेव कीर्तनयतननमस्कारेषु प्रेरयित्र्याऽत्यर्थप्रियत्वलक्षणावस्थया विशेष्यते -- सततमिति। कीर्तनादीनां त्रयाणां वाङ्मनःकायकर्मरूपतां तेषामेव प्रकरणान्तरेषु सिद्धं प्रकारंसततं इत्यस्य च कीर्तनयतननमस्कारनित्ययुक्तत्वोपासनेष्वविशेषेणान्वयमाहअत्यर्थेति। अत्यर्थमत्प्रियत्वं भक्त्येत्यस्यार्थः। क्षणे महापृथिव्यादिवत्कल्पितेऽप्यस्य चरमावयवतया कल्पितोंऽशःक्षणाणुमात्रेऽपीत्युक्तः। नाम्नां स्वादुत्वातिशयसिद्ध्यर्थंमद्गुणविशेषवाचीनीत्युक्तम्। नामकीर्तनं चेष्टितादिकीर्तनस्योपलक्षणम्। गुणानुसन्धानाभावेऽपि स्वरूपतः प्रीतिजननाय पुनःमन्त्रामानीति व्यपदेशः।पुलकाञ्चितसर्वाङ्गा इत्यादिकं तत्तत्प्रदेशोक्तशब्दोपादानम् यथातन्नामस्मरणोद्भूतपुलकश्चेदिपुङ्गवः इति।हर्षगद्गदकण्ठा इत्यनेनस्वरनेत्राङ्गविक्रिया इत्यादिभक्तिलक्षणग्रन्थस्मारणम्।कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्च निर्वृतिवाचकः [म.भा.5।70।5] इति कृष्णशब्दोऽपि पुरुषार्थहेतुत्वप्रतिपादनमुखेन परव्यूहादिसमस्तावस्थासाधारण इति ज्ञापनाय व्यापकयोर्मध्ये पठितः। अवतारान्तरेष्वपि कृष्णशब्दः प्रयुज्यते।उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना [म.ना.4।5] इति। यद्वानारायणेति परत्वानुसन्धानम्?कृष्णवासुदेवेति तु अवतारविशेषपरतया सौलभ्यानुसन्धानम्।यज्ञेशाच्युत गोविन्द माधवानन्त केशव। कृष्ण विष्णो हृषीकेशेत्याह राजा स केवलम्नाम्नोऽस्ति यावती शक्तिः पापनिर्हरणे हरेःकमलनयन वासुदेव विष्णो धरणिधराच्युत शङ्खचक्रपाणे [वि.पु.3।7।33]एतावतालमघनिर्हरणाय पुंसां [भाग.6।3।24]सङ्कीर्त्य नारायणशब्दमात्रम् [पां.गी.19] इत्यादिषु सर्वत्र सङ्कीर्तनप्रभावः प्रसिद्धः। रहसि जन्मसन्निधौ च व्रीडादिराहित्यमपि सततशब्देन व्यञ्जितम्।तथैव सततं भक्त्येत्यर्थः।मत्कर्मस्वित्यादिकं कर्मभक्तियोगसाधारणयतनविषयप्रदर्शनम्। तत्कर्मयतने दृढसङ्कल्पत्वं महत्यामापदि? सम्पदि चान्याश्रयणपरिहारार्थम्।भक्तिभारेत्यादिकं प्रणामस्य रागप्राप्तत्वकथनम्।मनोबुद्ध्यभिमानेन सह न्यस्य धरातले। कूर्मवच्चतुरः पादाञ्छिरस्तत्रैव पञ्चमम् [सा.सं.6।187] इत्युक्तोऽष्टाङ्गप्रणामः।नित्ययुक्ताः इति आशंसायां क्त इत्याहनित्ययोगमाकाङ्क्षमाणा इति। काङ्क्षमाणशब्दश्चानश्प्रत्ययान्तः?ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चानश् [अष्टा.3।2।129] इत्यनुशासनात्।दासभूताः [पं.रा.] इत्याद्युक्तस्वरूपानुरूपेण नित्ययोगं विशिनष्टि -- आत्मवन्तो मद्दास्यव्यवसायिन इति।
।।9.13 -- 9.14।।महात्मान इत्यादि विश्वतोमुखमित्यन्तम्। दैवीं? सात्विकीम्। यजन्तः? बाह्यद्रव्यादियागैः। अन्ये तु मा ज्ञानयज्ञेनैवोपासते। अतः केचित् एकतया ज्ञानतः? केचित् बहुधा? कर्मयोगात्। मत्परा एव सर्वे।
।।9.14।।ते केन प्रकारेण भजन्तीत्युच्यते द्वाभ्याम् -- सततं सर्वदा ब्रह्मनिष्ठं गुरुमुपसृत्य वेदान्तवाक्यविचारेण गुरूपसदनेतरकाले च प्रणवजपोपनिषदावर्तनादिभिर्मां सर्वोपनिषत्प्रतिपाद्यं ब्रह्मस्वरूपं कीर्तयन्तः। वेदान्तशास्त्राध्ययनरूपश्रवणव्यापारविषयीकुर्वन्त इति यावत्। तथा यतन्तश्च गुरुसंनिधावन्यत्र वा वेदान्ताविरोधितर्कानुसंधानेनाप्रामाण्यशङ्कानास्कन्दितगुरूपदिष्टमत्स्वरूपावधारणाय यतमानाः। श्रवणनिर्धारितार्थबाधकशङ्कापनोदककुतर्कानुसंधानरूपमननपरायणा इति यावत्। तथा दृढव्रताः दृढानि प्रतिपक्षैश्चालयितुमशक्यानि अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहादीनि व्रतानि येषां ते। शमदमादिसाधनसंपन्ना इति यावत्। तथा चोक्तं पतञ्जलिनाअहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः? ते तु,जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् इति। जात्या ब्राह्मणत्वादिकया? देशेन तीर्थादिना? कालेन चतुर्दश्यादिना? समयेन यज्ञाद्यन्यत्वेनानवच्छिन्ना अहिंसादयः सार्वभौमाः क्षिप्तमूढविक्षिप्तभूमिष्वपि भाव्यमानाः? कस्यामपि जातौ कस्मिन्नपि देशे कस्मिन्नपि काले यज्ञादिप्रयोजनेऽपि हिंसां न करिष्यामीत्येवंरूपेण किंचिदप्यपर्युदस्य सामान्येन प्रवृत्ता एते महाव्रतमित्युच्यन्त इत्यर्थः। तथा नमस्यन्तश्च मां कायवाङ्मनोभिर्नमस्कुर्वन्तश्च मां भगवन्तं वासुदेवं सकलकल्याणगुणनिधानमिष्टदेवतारूपेण गुरुरूपेण च स्थितम्। चकारात्श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् इति वन्दनसहचरितं श्रवणाद्यपि बोद्धवयम्। अर्चनं पादसेवनमित्यपि गुरुरूपे तस्मिन्सुकरमेव। अत्र मामिति पुनर्वचनं सगुणरूपपरामर्शाथम्। अन्यथा वैयर्थ्यप्रसङ्गात्। तथा भक्त्या मद्विषयेण परेण प्रेम्णा नित्ययुक्ताः सर्वदा संयुक्ताः। एतेन सर्वसाधनपौष्कल्यं प्रतिबन्धकाभावश्च दर्शितः।यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः इति श्रुतेः। पतञ्जलिना चोक्तम्ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च इति। तत ईश्वरप्रणिधानात्प्रत्यक्चेतनस्य त्वंपदलक्ष्यस्याधिगमः साक्षात्कारो भवति अन्तरायाणां विघ्नानां चाभावो भवतीति सूत्रस्यार्थः। तदेवं शमदमादिसाधनसंपन्ना वेदान्तश्रवणमननपरायणाः परमेश्वरे परमगुरौ प्रेम्णा नमस्कारादिना च विगतविघ्नाः परिपूर्णसर्वसाधनाः सन्तो मामुपासते विजातीयप्रत्ययानन्तरितेन सजातीयप्रत्ययप्रवाहेण श्रवणमननोत्तरभाविना सन्ततं चिन्तयन्ति महात्मानः। अनेन निदिध्यासनं चरमसाधनं दर्शितम्। एतादृशसाधनपौष्कल्ये सति यद्वेदान्तवाक्यजमखण्डगोचरं साक्षात्काररूपमहं ब्रह्मास्मीति ज्ञानं तत्सर्वशङ्काकलङ्कास्पृष्टं सर्वसाधनफलभूतं स्वोत्पत्तिमात्रेण दीप इव तमः सकलमज्ञानं तत्कार्यं च नाशयतीति निरपेक्षमेव साक्षान्मोक्षहेतुर्नतु भूमिजयक्रमेण भ्रूमध्ये प्राणवेशनं मूर्धन्यया नाड्या प्राणोत्क्रमणमर्चिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकगमनं तद्भोगान्तकालविलम्बं वा प्रतीक्ष्यते। अतो यत्प्राक्प्रतिज्ञातंइंद तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानम् इति तदेतदुक्तं? फलं चास्याशुभान्मोक्षणं प्रागुक्तमेवेतीह पुनर्नोक्तम्। एवमत्रायं गम्भीरो भगवतोऽभिप्रायः? उत्तानार्थस्तु प्रकट एव।
।।9.14।।ते च द्विविधाः? भक्ता ज्ञानिनश्च? तत्र प्रथमं भक्तानां भजन प्रकारमाह -- सततमिति। सततं निरन्तरं मां कीर्तयन्तः लीलास्वरूपज्ञानेन श्रीभागवतोक्तप्रकारेण गुणगानं कुर्वन्तः? सर्वत्र मदुत्कर्षं कथयन्तः। यतन्तश्च कीर्तने यत्नादिकं कुर्वाणाः? इन्द्रियनिग्रहं वा कुर्वन्तः। चकारेण श्रवणादिकं ज्ञाप्यते। पुनः कीदृशाः दृढव्रताः दृढं ऐहिकपारलौकिकयोर्मदेकनिष्ठं मोहशात्रा৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷द्यपरिभूतं व्रतं निश्चयो येषां तादृशाः। किञ्च नमस्यन्तश्चकिमासनं ते गरुडासनाय इत्यादिना परमकाष्ठापन्नवस्तुरूपनमस्कारं कुर्वन्तः स्वदैन्याविर्भावपूर्वकं? चकारेण नृत्यादिकमपि कुर्वन्तः। पुनः कीदृशाः। नित्ययुक्ताः सावधानाः मदेकपरचित्ताः। भक्त्या स्नेहेन? न तु विहितत्वेन? मामुपासते सेवन्त इत्यर्थः।
।।9.14।। --,सततं सर्वदा भगवन्तं ब्रह्मस्वरूपं मां कीर्तयन्तः? यतन्तश्च इन्द्रियोपसंहारशमदमदयाहिंसादिलक्षणैः धर्मैः प्रयतन्तश्च? दृढव्रताः दृढं स्थिरम् अचाल्यं व्रतं येषां ते दृढव्रताः नमस्यन्तश्च मां हृदयेशम् आत्मानं भक्त्या नित्ययुक्ताः सन्तः उपासते सेवन्ते।।ते केन केन प्रकारेण उपासते इत्युच्यते --,
।।9.14।।सततमित्यादि। अयमर्थः -- सच्चिदानन्दा द्विविधाः स्वरूपात्मका धर्मात्मकाश्च। एवं द्विविधा अपि आधिदैविकाध्यात्मिकाधिभौतिकभेदेन त्रिविधाः। तत्र स्वरूपात्मकाधिदैविकसच्चिदानन्दरूपो भगवान्पुरुषोत्तमः? आध्यात्मिकं तद्रूपमक्षरं द्वितीयः पुरुषः? आधिभौतिकं तद्रूपं क्षरं प्रथमपुरुषः। धर्मात्मकाधिदैविकसच्चिदानन्दरूपो वैकुण्ठादिपरिकरः। तादृशाधिभौतिकसदंशात्मकान्यष्टाविंशतितत्त्वानि। तादृशाधिभौतिकचिदंशभूतं तत्त्वनिष्ठं ज्ञानम्। तादृशाधिभौतिकचिदंशभूतं तत्त्वनिष्ठं सुखम्। एवमेव यथातथान्तरतिरोभावो ज्ञेयः। एवं सति स्वरूपात्मकस्याधिदैविकाध्यात्मिकानन्दस्येषत्तिरोभावो दुःखाभावः स एव मोक्ष इति लोकैरुच्यते। वैदिकसाधनस्य यज्ञादेस्तदेव फलं स्वरूपात्मकस्यैकानन्दस्यैव सर्वथोद्भवः सुखमित्यर्थः। एवं लोकेऽपि धर्मात्मकतत्त्वाधिष्ठानकाधिभौतिकानन्दस्येषत्तिरोभावो लौकिकदुःखाभावः सर्वथोद्गमो लौकिकसुखमित्यादि बोध्यम्। तेषां भजनप्रकारमाह द्वाभ्यां बाह्याभ्यन्तरभेदतः। निरन्तरं कीर्तयन्त इति वाचिकं कीर्त्तनमुक्तम्। यतन्त इति श्रवणेऽर्चने च यत्नं कुर्वन्त इति श्रवणार्चनभक्तिर्निरूपिता। श्रवणं ज्ञानपूर्वं वा निरूपितम्। दृढानि एकादशीजन्माष्टमीरामनवमीवामनद्बादशीनृसिंहजयन्तीसंज्ञकानि व्रतानि येषां ते दृढव्रताः? इति स्मरणमुक्तम्। नमस्यन्त इति वन्दनम्। भक्त्या चरणसेवया मां पुरुषोत्तमं सर्वत्र उपासते दास्यभावेन भजन्ते। नित्ययुक्ता इति योगसिद्धरीत्या कर्मकरणप्रकारः स्मारितः।