ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।9.15।।
jñāna-yajñena chāpyanye yajanto mām upāsate ekatvena pṛithaktvena bahudhā viśhvato-mukham
Others also, sacrificing with the wisdom-sacrifice, worship Me, the All-Faced, as one, distinct, and manifold.
9.15 ज्ञानयज्ञेन with the wisdomsacrifice? च and? अपि also? अन्ये others? यजन्तः sacrificing? माम् Me?,उपासते worhsip? एकत्वेन as one? पृथक्त्वेन as different? बहुधा in various ways? विश्वतोमुखम् the Allfaced.Commentary Others too sacrificing by the wisdomsacrifice? i.e.? seeing the Self in all? adore Me the One and the manifold? present everywhere. They regard all the forms they see as the forms of God? all sounds they hear as the names of God. They give all objects they eat as offerings unto the Lord in vaious ways.Some adore Him with the knowledge that there is only one Reality? the Supreme Being Who is ExistenceKnowledgeBliss. They identify themselves with the Truth or Brahman. This is the Monistic view of the Vedantins. Some worship Him making a distinction between the Lord and themselves with the attitude of master and servant. This is the view of the Dualistic School of philosophy. Some worship Him with the knowledge that He exists as the various divinities? Brahma? Vishnu? Rudra? Siva? etc.Visvatomukham Others worship Him who has assumed all the manifold forms in the world? Who exists in all the forms as the Allfaced (the one Lord exists in all the different forms with His face on all sides? as it were). (Cf.IV.33)
।।9.15।। व्याख्या--[जैसे, भूखे आदमियोंकी भूख एक होती है और भोजन करनेपर सबकी तृप्ति भी एक होती है परन्तु उनकी भोजनके पदार्थोंमें रुचि भिन्न-भिन्न होती है। ऐसे ही परिवर्तनशील अनित्य संसारकी तरफ लगे हुए लोग कुछ भी करते हैं, पर उनकी तृप्ति नहीं होती, वे अभावग्रस्त ही रहते हैं। जब वे संसारसे विमुख होकर परमात्माकी तरफ ही चलते हैं, तब परमात्माकी प्राप्ति होनेपर उन सबकी तृप्ति हो जाती है अर्थात् वे कृतकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाते हैं। परन्तु उनकी रुचि, योग्यता, श्रद्धा, विश्वास आदि भिन्नभिन्न होते हैं। इसलिये उनकी उपासनाएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं।]
।।9.15।। ज्ञानयज्ञ में कोई कर्मकाण्ड नहीं होता। इस यज्ञ में यजमान साधक का यह सतत प्रयत्न होता है कि दृश्यमान विविध नामरूपों में एकमेव चैतन्य स्वरूप आत्मा की अभिव्यक्ति और चेतनता को वह देखे और अनुभव करे। यह साधना वे साधक ही कर सकते हैं? जिन्होंने वेदान्त के इस प्रतिपादन को समझा है कि अव्यय आत्मा सर्वत्र व्याप्त है और अपने सत्स्वरूप में इस दृश्यमान विविधता तथा उनकी परस्पर वैचित्र्यपूर्ण क्रियायों को धारण किये हुये है।विभिन्न व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा निर्मित चॉकलेटों के आकार? रंग? स्वाद? मूल्य आदि भिन्नभिन्न होते हुए भी सब चॉकलेट ही हैं? और इसलिए उन सबका वास्तविक धर्म मधुरता? सभी में एक समान होता है। उस मधुरता को चाहने वाले बालक सभी प्रकार की चॉकलेटों को प्रसन्नता से खाते हैं।इसी प्रकार आत्मज्ञान का साधक सभी नाम और रूपों में? सभी परिस्थितियों और दशाओं में एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति का अवलोकन करता है? निरीक्षण करता है और पहचानता है। जिस किसी आभूषण विशेष में हीरे जड़े हों? हीरे के व्यापारी के लिए वह सब प्रकाश और आभा के बिन्दु ही हैं। वह उनकी आभा के अनुसार उनका मूल्यांकन करता है? न कि उस आभूषण की रचनाकृति या सौन्दर्य को देखकर।आत्मानुभवी पुरुष अपने आत्मस्वरूप को सब प्रकार के कर्मों? शब्दों और विचारों में व्यक्त देखते हुए जगत् में विचरण करता है। जिस प्रकार सहस्र दर्पणों के मध्य स्थित दीपज्योति के करोड़ों प्रतिबिम्ब सर्वत्र दिखाई देते हैं? उसी प्रकार? आत्मस्वरूप में स्थित ज्ञानी पुरुष जब जगत् में विचरण करता है? तब वह सर्वत्र अपनी आत्मा को ही नृत्य करते हुए देखता है? जो उस पर सब ओर से कटाक्ष करती हुई उसे सदैव पूर्णत्व के आनन्द से हर्षविभोर करती रहती है।नेत्रों की दीप्ति में? मित्र की मन्दस्मिति और शत्रु के कृत्रिम हास्य में? ईर्ष्या के कठोर शब्दों में और प्रेम के कोमल स्वरों में? शीत और उष्ण में? जय और पराजय में? समस्त मनुष्यों? पशुओं? वृक्ष लताओं में और जड़ वस्तुओं के संग में सर्वत्र वह सच्चिदानन्द परमात्मा का ही मंगल दर्शन करता है यही अर्थ है ईश्वर दर्शन अथवा आत्मदर्शन का? जिसका विश्व के समस्त धर्मशास्त्रों में गौरव से गान किया गया है। असंख्य नामरूपों में ईश्वर की मन्दस्मिति को देखने और पहचानने का अर्थ ही निरन्तर ज्ञानयज्ञ की भावना में रमना और जीना है।समस्त रूपों में उसकी पूजा करना? समस्त परिस्थितियों में उसका ध्यान रखना? मन की समस्त वृत्तियों के साथ उसका अनुभव करना ही आत्मा के अखण्ड स्मरण में जीना है। ऐसे पुरुष ज्ञानयज्ञ के द्वारा मेरी उपासना करते हैं।प्रारम्भिक अवस्था में सर्वत्र आत्मदर्शन की साधना प्रयत्न साध्य होने के कारण उसमें साधक को कष्ट और तनाव का अनुभव होता है। परन्तु जैसेजैसे साधक की आध्यात्म दृष्टि विकसित होती जाती है? वैसेवैसे उसके लिए यह साधना सरल बनती जाती है? और वह एक ही आत्मा को इसके ज्योतिर्मय वैभव के असंख्य रूपों में छिटक कर फैली हुई देखता है। यही है विश्वतो मुखम् ईश्वर का विराट् स्वरूप।ज्ञानी पुरुष न केवल यह जानता है कि नानाविध उपाधियों से आत्मा सदा असंस्पर्शित है? अलिप्त है? वरन् वह यह भी अनुभव करता है कि विश्व की समस्त उपाधियों में वही एक आत्मा क्रीड़ा कर रही है। एक बार आकाश में स्थित जगत् से अलिप्त सूर्य को पहचान लेने पर? यदि हम उसके असंख्य प्रतिबिम्ब भी दर्पणों या जल में देखें? तब भी एक सूर्य होने का हमारा ज्ञान लुप्त नहीं हो जाता। सर्वत्र हम उस एक सूर्य को ही देखते और पहचानते हैं।यदि कोई पुरुष अपने मन की शान्ति और समता को किसी एकान्त और शान्त स्थान में ही बनाये रख सकता है? तो वेदान्त के अनुसार? उसका आत्मनुभव कदापि पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। यदि केवल समाधि स्थिति के विरले क्षणों में ही उसे आत्मानुभूति होती है? तो ऐसा पुरुष? वह तत्त्वदर्शी नहीं है? जिसकी उपनिषद् के ऋषियों ने प्रशंसा की है। यह तो हठयोगियों का मार्ग है। अन्तर्बाह्य सर्वत्र एक ही आत्मतत्त्व को पहचानने वाला ही वास्तविक ज्ञानी पुरुष है। एक तत्त्व सबको व्याप्त करता है परन्तु उसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता। ऐसे अनुभवी पुरुष के लिए किसी व्यापारिक केन्द्र का अत्यन्त व्यस्त एवं तनावपूर्ण वातावरण आत्मदर्शन के लिए उतना ही उपयुक्त है जितना हिमालय की घाटियों की अत्यन्त शान्त और एकान्त कन्दराओं का। वह चर्मचक्षुओं से नहीं? वरन् ज्ञान के अन्तचक्षुओं से सर्वत्र एकमेव अद्वितीय आत्मा का ही दर्शन करता है।मेरे हाथों और पैरों में? मैं सदा एक समान व्याप्त रहता हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं उन सब में हूँ। क्या इस ज्ञान से मेरे हाथ पैर लुप्त हो जाते हैं? जैसे सूर्योदय पर कोहरा यदि कोई ऐसा कहता है? तो वह खिल्ली उड़ाकर जाने वाला पागलपन ही है? कोई वैज्ञानिक कथन नहीं। जैसे एक ही समय में मैं अपने शरीर के अंगप्रत्यंग में स्थित हुआ जाग्रत् अवस्था में जगत् का अनुभव करता हूँ? वैसे ही? आत्मज्ञानी पुरुष जानता है कि उसकी आत्मा ही अपने अनन्त साम्राज्य में सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किये हुए हैं एक रूप में? पृथक् रूप में और विविध रूप में।वेदान्त प्रतिपादित दिव्यत्व की पहचान और अनन्त का अनुभव अन्तर्बाह्य जीवन में है। कोई संयोगवश प्राप्त यह क्षणिक अनुभव नहीं है। यह कोई ऐसा अवसर नहीं है कि जिसे लड्डू वितरित कर मनाने के पश्चात् सदा के लिए उस अनुभव से निवृत्ति हो जाय। जिस प्रकार विद्यालयी शिक्षा से मनुष्य द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान समस्त कालों और परिस्थितियों में यहाँ तक कि स्वप्न में भी उसके साथ रहता है? उससे भी कहीं अधिक शक्तिशाली? कहीं अधिक अंतरंग और कहीं अधिक दृढ़ ज्ञानी पुरुष का आत्मानुभव होता है। आत्मवित् आत्मा ही बन जाता है। इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं है। वेदान्त के द्वारा प्रतिपादित इस सत्य की पुष्टि दूसरी पंक्ति में की गई है कि मुझ विराट स्वरूप परमात्मा को वे एकत्व भाव से? पृथक् भाव से और अन्य कई प्रकार से उपासते हैं।अब तक हमने जो विवेचन किया है उसे यहाँ प्रमाणित किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब ध्यानाभास द्वारा मन प्रशान्त हो जाता है? तब एकमेव अद्वितीय आत्मा का उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव होता है। मिट्टी का ज्ञाता मिट्टी के बने विभिन्न प्रकार के घटों में एक ही मिट्टी को सरलता से देख सकता है घटों के रूप? रंग और आकार उसके मिट्टी के ज्ञान को नष्ट नहीं कर सकते। इसी प्रकार पारमार्थिक सत्य पर जो आभासिक और मोहक नाम और रूप अध्यस्त हैं? वे ज्ञानी पुरुष की दृष्टि से सत्य को न कभी आच्छादित कर सकते हैं और न वे ऐसा करते ही हैं। सत्य के द्रष्टा ऋषि आत्मा को न केवल प्रत्येक व्यक्ति में पृथक्पृथक् रूप से पहचानते हैं? वरन् जैसा कि यहाँ वेदान्त के समर्थक भगवान् श्रीकृष्ण उद्घोष करते हैं ज्ञानीजन सत्य को प्रत्येक रूप में पहचानते हैं? जो विश्वतोमुख है अर्थात् जिसके मुख सर्वत्र हैं। यह कहना सर्वथा असंगत है कि मिट्टी का ज्ञाता मिट्टी के घट को केवल दक्षिण या वाम भाग में ही पहचानता है मिट्टी उस घट में सर्वत्र व्याप्त है और जहाँ मिट्टी नहीं वहां घट भी नहीं है। यदि आत्मा का अभाव हो? तो सृष्टि की विविधता की प्रतीति या दर्शन कदापि सम्भव नहीं हो सकता।यदि विविध रूपों में? विभिन्न प्रकार से पूजा और उपासना की जाती हो? तो वे सब एक ही परमात्मा की पूजा कैसे हो सकती हैं
।।9.15।।उपासनप्रकारभेदप्रतिपित्सया पृच्छति -- ते केनेति। तत्प्रकारभेदोदीरणार्थं श्लोकमवतारयति -- उच्यत इति। इज्यते पूज्यते परमेश्वरोऽनेनेति प्रकृते ज्ञाने यज्ञशब्दः। ईश्वरं चेति चकारोऽवधारणे। देवतान्तरध्यानत्यागमपिशब्दसूचितं दर्शयति -- अन्यामिति। अन्ये ब्रह्मनिष्ठामिति यावत्। ज्ञानयज्ञमेव विभजते -- तच्चेति। उत्तमाधिकारिणामुपासनमुक्त्वा मध्यमानामधिकारिणामुपासनप्रकारमाह -- केचिच्चेति। तेषामेव प्रकारान्तरेणोपासनमुदीरयति -- केचिदिति। बहुप्रकारेणाग्न्यादित्यादिरूपेणेति यावत्।
।।9.15।।एवमुपासनाप्रकारः सर्वोपासकसाधारणो दर्शितः। तत्रासाधारणं तमाह -- ज्ञानयज्ञेन। ज्ञानमेव परमात्मविषयं तत्पूजनरुपत्वाद्यज्ञस्तेन ज्ञानयज्ञेन यजन्तः पूजयन्तः मां परमात्मानमन्ये उत्तमाः। चकार उक्तानामनुक्तानां च,साधारणानामुपासनाप्रकाराणां समुच्चयार्थः। अपिशब्द इन्द्रादिदेवतोपासनापरित्यागार्थः। तथाचान्यामुपासनां परित्यज्य मामुपासत इत्यर्थः। तच्च ज्ञानमेकमेव परं ब्रह्मेति परमार्थदर्शनं तेन यजन्ते। यत्तु अन्ये पूर्वोक्तसाधनानुष्ठानासमर्था ज्ञानयज्ञेनत्वं वाहमस्मि भगवो देवतेऽहं वै त्वमसि इत्यादिश्रुत्युक्तमहंग्रहोपासनं ज्ञानमति तच्चिन्त्यम्। मुख्यामुख्ययोर्मुख्ये संभवत्यमुख्यग्रहणस्यान्याय्यत्वात्। एतेन ज्ञानयज्ञेन निर्विकल्पसमाधिना पातञ्चला इति प्रत्युक्तम्। केचिच्च स एव भगवान् बहुधा व्यवस्थितो विश्वतोमुखो विश्वरपस्तं बहुधा बहुप्रकारेण उपासते मन्दाः।
।।9.15।।सर्वत्र एक एव नारायणः स्थितः इत्येकत्वेन? पृथक्त्वेन सर्वतो वैलक्षण्येन। बहुधा हि तस्य रूपं,आभाति शुक्लमिव लोहितमिवाथो नीलमथोऽर्जुनं इति सनत्सुजाते [म.भा.5।44।26]दैवमेवापरे [4।25] इत्युक्तप्रकारेण बहवो वा बहुधा।
।।9.15।।ज्ञानयज्ञेन निर्विकल्पसमाधिना पातञ्जलाः। एकत्वेन अहमेव भगवान्वासुदेव इत्यभेदेनौपनिषदाः। पृथक्त्वेन अयमीश्वरो ममस्वामीति बुद्ध्या प्राकृताः। अन्ये पुनर्बहुधा बहुप्रकारं विश्वतोमुखं सर्वैर्द्वारैर्यत्किंचिद्दृष्टं तद्भगवत्स्वरूपमेव? यच्छ्रुतं तत्तन्नामैव? यद्दत्तं भुक्तं वा तत्तदर्पितमेवेत्येवं विश्वतोमुखं यथा स्यात्तथा मामुपासते।
।।9.15।।अन्ये अपि महात्मानः पूर्वोक्तैः कीर्तनादिभिः ज्ञानाख्येन यज्ञेन च यजन्तः माम् उपासते? कथम् बहुधा पृथक्त्वेन जगदाकारेण विश्वतोमुखं विश्वप्रकारम् अवस्थितं माम् एकत्वेन उपासते।एतद् उक्तं भवति भगवान् वासुदेव एव नामरूपविभागानर्हातिसूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरः सन् सत्यसंकल्पः विविधविभक्तनामरूपस्थूलचिदचिद्वस्तुशरीरः स्याम् इति संकल्प्य स एकदेव एव तिर्यङ्मनुष्यस्थावराख्यविचित्रजगच्छरीरः अवतिष्ठते इति अनुसंदधानाश्च माम् उपासते इति।तथा हि विश्वशरीरः अहम् एव अवस्थितः? इति आह --
।।9.15।।किंच -- ज्ञानेति। वासुदेवः सर्वमित्येवं सर्वात्मत्वदर्शनं ज्ञानं तदेव यज्ञस्तेन ज्ञानयज्ञेन मां यजन्तः पूजयन्तोऽन्येऽप्युपासते? तत्रापि केचिदेकत्वेन एकमेव परं ब्रह्मेति परमार्थदर्शनरूपाभेदभावनया? केचित्पृथक्त्वेन दासोऽहमिति पृथग्भावनया? केचित्तु विश्वतोमुखं सर्वात्मकं मां बहुधा ब्रह्मरुद्रादिरूपेणोपासते।
।।9.15।।भजन्त्यनन्यमनसः इत्यनन्यमनस्त्वेन प्रथममुपासनं विशेषितम् ततश्च कीर्तनादिभिरन्तरङ्गैः। अथ वेद्याकारविशेषप्रदर्शनेनापि तदेव विशेष्यतेज्ञानयज्ञेन इत्यादिनासदसच्चाहमर्जुन [9।19] इत्यन्तेन। चकारः पूर्वोक्तकीर्तनादिसमुच्चयार्थः। अपिस्तुअन्ये इत्यनेनान्वितः। अन्यथा नैरर्थक्यादित्यभिप्रायेणाहअन्येऽपीति। अन्यशब्दोऽत्र पूर्णोपासकपरः। यज्ञेन यजन्तः यज्ञेन प्रीणयन्त इत्यर्थः।बहुधा पृथक्त्वेन इत्यनेन समष्टिव्यष्टितदवान्तररूपसमस्तसङ्ग्रह इत्याहजगदाकारेणेति। विश्वतोमुखशब्दस्यात्र समभिव्याहारानुगुणं विवक्षितमाहविश्वप्रकारमिति। नन्वेकत्वेन पृथक्त्वेन चोपासत इत्यन्वयः किं नोच्यते कथं चैकस्यैव सतो बहुत्वेनावस्थानम् तथाच सविकारत्वसंसारित्वादिदोषाश्च स्युः बहुधावस्थितस्यैकत्वेनोपासितुर्दृष्टिविधिवद्भ्रान्तिश्च स्यादित्यत्राहएतदुक्तमिति। एतेन परोक्तप्रक्रिययोपासनविधात्रयपरत्वं भेदाभेदादिवर्णनं च प्रत्युक्तम्।भगवानित्यनेन,सृष्ट्याद्यौपयिकगुणप्रपञ्चप्रदर्शनम्। वासुदेवशब्दे प्रथमशिन सर्वसामानाधिकरण्यव्यपदेशनिदानसर्वशरीरकत्वपर्यवसितव्याप्तिविशेषः? द्वितीयांशेन सृष्टिप्रयोजनं क्रीडादिरेवेत्युच्यते। द्वाभ्यां च पदाभ्यां अनन्योपासकैकान्तिजनशीलितमन्त्रविशेषोऽपि स्मारितः। पृथिव्यादिबहुत्वमात्रस्य प्रत्यक्षादिसिद्धत्वादेकस्यैव सतो बहुत्वं हि शास्त्रवेद्यम् ततश्च तथाभूतैकत्व एवात्र वाक्यतात्पर्यम् तच्चैकस्य सर्वशरीरकत्वेन निर्व्यूढमिति न कश्चिद्दोषः।
।।9.15।।No commentary.
।।9.15।।एकत्वेनाद्वैतभावनयेति व्याख्यानमसत्? मिथ्याभावनात्वादिति भावेनाह सर्वत्रेति। सर्वत्र स्थितो नारायण एक एवेति योजना। पृथक्त्वेनादित्यचन्द्रादिरूपेणेत्यसदिति (शं.) भावेनाह -- पृथक्त्वेनेति। अपरस्तु पृथक्त्वेनेत्येतत्सम्यग्व्याख्याय बहुधेत्येतदादित्यादिरूपेणेति व्याख्यातवानत आह -- बहुधेति। कथमित्यत आगमेनैव दर्शयति -- शुक्लमिवेति। इवशब्दोऽप्यर्थः। प्रकारान्तरेण व्याख्याति -- दैवमेवेति।
।।9.15।।इदानीं य एवमुक्तश्रवणमनननिदिध्यासनासमर्थास्तेऽपि त्रिविधा उत्तमा मध्यमा मन्दाश्चेति सर्वेऽपि स्वानुरूप्येण मामुपासत इत्याह -- अन्ये पूर्वोक्तसाधनानुष्ठानासमर्थाः ज्ञानयज्ञेनत्वं वा अहमस्मि भगवो देवते अहं वै त्वमसि इत्यादिश्रुत्युक्तमहग्रहापासनं ज्ञानं स एव परमेश्वरयजनरूपत्वाद्यज्ञस्तेन। चकार एवार्थे। अपिशब्दः साधनान्तरत्यागार्थः। केचित्साधनान्तरनिस्पृहाः सन्त उपास्योपासकाभेदचिन्तारूपेण ज्ञानयज्ञेनैकत्वेन भेदव्यावृत्त्या मामेवोपासते चिन्तयन्त्युत्तमाः। अन्ये तु केचिन्मध्यमाः पृथक्त्वेनोपास्योपासकयोर्भेदेनआदित्यो ब्रह्मेत्यादेशः इत्यादिश्रुत्युक्तेन प्रतीकोपासनरूपेण ज्ञानयज्ञेन मामेवोपासते। अन्येत्वहंग्रहोपासने वाऽसमर्थाः केचिन्मन्दाः कांचिदन्यां देवतां चोपासीनाः कानिचित्कर्माणि वा कुर्वाणा बहुधा तैस्तैर्बहुभिः प्रकारैर्विश्वरूपं सर्वात्मानं मामेवोपासते तेन तेन ज्ञानयज्ञेनेति उत्तरोत्तराणां क्रमेण पूर्वपूर्वभूमिलाभः।
।।9.15।।एवं भक्तानां भजनप्रकारमुक्त्वा ज्ञानिनामाह -- ज्ञानयज्ञेनेति। अन्ये ज्ञानिनो ज्ञानयज्ञेन चापि ज्ञानात्मकयजनप्रकारेण चापि यजन्तो हृद्येव मां पूजयन्त उपासते भजन्त इत्यर्थः। अपिशब्देन चकारेण च पूर्वोक्तभजनापेक्षया हीनत्वं व्यज्यते। ज्ञानभजने बहवः प्रकाराः सन्ति? तानाह -- एकत्वेनसोऽहं ब्रह्मास्मि [ ] इति प्रकारेण पृथक्त्वेन योगेन शरणागमनरीत्या बहुधा सर्वत्र तद्रूपेण विश्वतोमुखं सर्वात्मकं माम्? एवमनेकप्रकारेण मामुपासते भजन्त इत्यर्थः।
।।9.15।। -- --,ज्ञानयज्ञेन ज्ञानमेव भगवद्विषयं यज्ञः तेन ज्ञानयज्ञेन? यजन्तः पूजयन्तः माम् ईश्वरं च अपि अन्ये अन्याम् उपासनां परित्यज्य उपासते। तच्च ज्ञानम् -- एकत्वेन एकमेव परं ब्रह्म इति परमार्थदर्शनेन यजन्तः उपासते। केचिच्च पृथक्त्वेन, आदित्यचन्द्रादिभेदेन स एव भगवान् विष्णुः अवस्थितः इति उपासते। केचित् बहुधा अवस्थितः स एव भगवान् सर्वतोमुखः विश्वरुपः इति तं विश्वरूपं सर्वतोमुखं बहुधा बहुप्रकारेण उपासते।।यदि बहुभिः प्रकारैः उपासते? कथं त्वामेव उपासते इति? अत आह --,
।।9.15।।किञ्च ज्ञानयज्ञेन चेति। भक्योपासते इति पूर्वमुक्तम्। ज्ञानयज्ञेन चोपासते इत्यधुनोच्यते। अत्र यज्ञपदेनब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः [4।24] इति पूर्वोक्तप्रकारः स्मारित इति गम्यते। तेन च मामक्षरस्वरूपमुपासते। तत्रापि प्रकारभेदः। केचिदेकत्वेनसोऽस्मि इत्यात्माभेदभावनया तान्त्रिकाः।आत्मानं परमं ध्यायेत् इत्यादिवाक्यात्। केचित्पृथक्त्वेन राजसतान्त्रिका भेदभावनया दासोऽस्मीति रूपया मां स्वामिनमुपासते। केचित्तु बहुधा शिवशक्तिसूर्यगणेशादिरूपेण। यद्वा ब्रह्मवादिनः बहुधा घटपटादिजगदाकारेणाविकृतमेव सन्तमेवं विश्वतोमुखं विश्वप्रकारत्वेनावस्थितं सर्वतः पाणिपादान्तं सर्वतोक्षिशिरोमुखं मामुपासते।