BG - 9.19

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च। अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।9.19।।

tapāmyaham ahaṁ varṣhaṁ nigṛihṇāmyutsṛijāmi cha amṛitaṁ chaiva mṛityuśh cha sad asach chāham arjuna

  • tapāmi - radiate heat
  • aham - I
  • aham - I
  • varṣham - rain
  • nigṛihṇāmi - withhold
  • utsṛijāmi - send forth
  • cha - and
  • amṛitam - immortality
  • cha - and
  • eva - also
  • mṛityuḥ - death
  • cha - and
  • sat - eternal spirit
  • asat - temporary matter
  • cha - and
  • aham - I
  • arjuna - Arjun

Translation

As the sun, I give heat; I withhold and send forth the rain; I am immortality and also death, existence and non-existence, O Arjuna.

Commentary

By - Swami Sivananda

9.19 तपामि give heat? अहम् I? अहम् I? वर्षम् rain? निगृह्णामि withhold? उत्सृजामि send forth? च and? अमृतम् immortality? च and? एव also? मृत्युः death? च and? सत् existence? असत् nonexistence? च and? अहम् I? अर्जुन O Arjuna.Commentary I radiate heat in the form of the sun. I send forth the rain in the form of Indra in the rainy season and I take it back during the rest of the year.Sat Existence? the manifested world (the effect).Asat Nonexistence? the unmanifested (the cause).Nonexistence does not mean nothingness. The subtle? unmanifested cause is spoken of as nonexitence. The Self or Brahman or the Eternal can never be altogether nonexistence. It always exists. It is Existence Absolute. If you say that the subtle unmanifested cause is nothing? it is impossible to conceive existence coming out of nothing. The Chhandogya Upanishad asks? How can existence come out of nonexistence It is simply absurd to conceive that existence has arisen out of nonexistence (nothing).For a Vedantin ( student or follower of Vedanta) Brahman (the Absolute) is Sat (existence) because It always exists and because It is unchanging. This manifested world is Asat or unreal. For the worldlyminded people who have neither understanding nor knowledge of Brahman? who are endowed with gross and impure mind? who do not have a sharp and subtle intellect? and who ca perceive the gross forms only? this manifested world is the Sat and the subtle unmanifested MulaPrakriti (the primordial Nature)? the cause of this manifested world? is Asat. For them Brahman also is Asat. The unmanifested refers to MulaPrakriti and Para Brahman also because both are hidden.Every object has three states? viz.? the gross (Sthula)? the subtle (Sukshma) and the causal (Karana). Mahakarana (the great causeless cause) is Para Brahman. The gross and the subtle states are the effects of Karana. What you see outside is the physical body. This physical body is moved by the astral (the subtle) body made up of the mind? liferoce and the senses. The causal body is the seedbody. From this seedbody have sprung the subtle and the gross bodies. Take the case of an orange. The outer skin is its physical body the inner pulp or essence is the subtle body the innermost causal body which gives rise to the pulp and the outer skin is the seed. This is only a gross illustration. The orange has got another kind of subtle and causal bodies. The worldlyminded man beholds the physical body only and takes this as the Truth. For him? the astral and the causal bodies are unreal.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।9.19।। व्याख्या --'तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च'--'पृथ्वीपर जो कुछ अशुद्ध, गंदी चीजें हैं, जिनसे रोग पैदा होते हैं, उनका शोषण करके प्राणियोंको नीरोग करनेके लिये (टिप्पणी प0 505.2) अर्थात् ओषधियों, जड़ी-बूटियोंमें जो जहरीला भाग है, उसका शोषण करनेके लिये और पृथ्वीका जो जलीय भाग है, जिससे अपवित्रता होती है, उसको सुखानेके लिये मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ। सूर्यरूपसे उन सबके जलीय भागको ग्रहण करके और उस जलको शुद्ध तथा मीठा बना करके समय आनेपर वर्षारूपसे प्राणिमात्रके हितके लिये बरसा देता हूँ, जिससे प्राणिमात्रका जीवन चलता है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।9.19।। मैं तपता हूँ विद्युत् का यह कहना उपयुक्त होगा कि वह उष्णक (हीटर) में उष्णता? बल्ब में प्रकाश और शीतक (फ्रीज) में शीतलता देती है क्योंकि इन उपकरणों के द्वारा विद्युत् ही उष्णता आदि के रूप में व्यक्त होती है। इसी प्रकार? एक सत्स्वरूप आत्मा दृश्य प्रकृति की एक वस्तु सूर्य के साथ तादात्म्य कर समस्त जगत् के लिए उष्णता का स्रोत बन जाता है।मैं वर्षा का निग्रह और उत्सर्जन करता हूँ ऐसी बात नहीं है कि केवल आधुनिक मौसम विज्ञान के विशेषज्ञों ने ही जगत् में जलवायु की स्थिति में सूर्य के प्रभाव को समझा है। प्राचीन ऋषियों को भी प्रकृति के स्वभाव एवं व्यवहार का पूर्ण ज्ञान था। वे जानते थे कि सूर्य की स्थिति? दशा एवं स्वरूप जलवायु को निश्चित करता है? जो जगत् के लिए कभी वरदान या अभिशाप बनकर आता है। पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी के अनुभवक्षेत्र को सूर्य नियन्त्रित और प्रभावित करता है? क्योंकि वह जलवायु का नियामक है। यदि सूर्य की उष्णता में कुछ अंशों की वृद्धि हो जाय? तो विश्व की सम्पूर्ण वनस्पति और पशु जीवन में परिवर्तन हो जायेगा। उसी प्रकार? यदि सूर्य अपनी कलोरी उष्णता को देना कम कर दे? तो उससे होने वाला परिवर्तन इतना अधिक होगा कि वर्तमान जगत् का रूप ही सर्वथा परिवर्तित हो जायेगा। तत्काल ही? उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव से गति भूमध्य रेखा की ओर होगी और प्राणीमात्र को बलात् पृथ्वी के मध्य भाग में खींच कर ले आयेगी? जहाँ अत्यधिक जनसंख्या के दबाव और पर्याप्त अन्न के अभाव में दुख ही दुख होगा मैं अमृत और मृत्यु हूँ मृत्यु का अर्थ है परिवर्तन। चैतन्य के बिना इस परिवर्तनशील जगत् की न सत्ता है और न भान। अत यहाँ कहा गया है कि मैं मृत्यु हूँ। पुन? इन परिवर्तनों का जो प्रकाशक आत्मा है? उसको अपरिवर्तनशील होना ही चाहिए। वह आत्मा अमृत है। आत्मा स्वयं अमृत रहते हुए मृत्यु को प्रकाशित करती है।मैं सत् और असत् हूँ कोई वस्तु है और कोई नहीं है इन दोनों सत् (है) और असत् (नहीं हैं) का एक भावस्वरूप प्रकाशक होना अनिवार्य है। उसके बिना इनका अनुभव नहीं हो सकता। आत्यन्तिक अभाव को जानना या अनुभव करना असंभव है? जहाँ कहीं हमें अभाव का ज्ञान होता है वह इसी रूप में होता है कि अमुक वस्तु का अभाव है इस अत्यन्त सूक्ष्म दार्शनिक व्याख्या के अतिरिक्त इन दो शब्दों सत् और असत् का सरल अभिप्राय भी है। इन्द्रियगोचर? स्थूल व्यक्त वस्तु को सत् तथा सूक्ष्म? अव्यक्त वस्तु को असत् कहा जाता है। अथवा सत् और असत् शब्द से क्रमश कार्य और कारण को भी वेदान्त में सूचित किया जाता है। प्रकाशक चैतन्य आत्मा के बिना सत् (बाह्य विषय) और असत् (मन की विचार वृत्ति) का ज्ञान नहीं हो सकता। अत यहाँ कहा गया है कि इन दोनों का मूल स्वरूप आत्मा है। मिट्टी के बिना घटों का कोई अस्तित्व नहीं होता? अत मिट्टी यह दावा कर सकती है कि सभी आकारों? रंगों और रूपों वाले घट मैं ही हूँ।ध्यान के आसन पर साधकों के लिए यह श्लोक जीवनपर्यन्त प्रेरणादायक बन सकता है।जो अज्ञानी लोग सकाम भावना से ईश्वर की पूजा करते हैं? वे अपने इष्टफल को प्राप्त करते हैं। कैसे भगवान् कहते हैं --

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।9.19।।इतश्च सर्वात्मत्वे भगवतो न विवदितव्यमित्याह -- किञ्चेति।आदित्याज्जायते वृष्टिः इति स्मृतिमवष्टभ्य व्याचष्टे -- कैश्चिदिति। वर्षोत्सर्गनिग्रहावेकस्यैकस्मिन्काले विरुद्धावित्याशङ्क्याह -- अष्टभिरिति। ऋतुभेदेन वर्षस्य निग्रहोत्सर्गावेककर्तृकावविरुद्धावित्यर्थः। यस्य कारणस्य संबन्धित्वेन,यत्कार्यमभिषज्यते तदिह सदित्युच्यते? कारणसंबन्धेनानभिव्यक्तं कारणमेवानभिव्यक्तनामरूपमसदिति व्यवह्रियते तदेतदाह -- सदिति। शून्यवादं व्युदस्यति -- न पुनरिति। भगवतोऽत्यन्तासत्त्वे कार्यकारणकल्पना निरधिष्ठाना न तिष्ठतीत्यर्थः। तर्हि यथाश्रुतं कार्यस्य सत्त्वं कारणस्य चासत्त्वमास्थेयमित्याशङ्क्य वाशब्देन निषेधति -- कार्येति। नहि कार्यस्यात्यन्तिकं सत्त्वं वाचारम्भणश्रुतेर्नापीतरस्यात्यन्तिकमसत्त्वंकुतस्तु खलु इत्यादिश्रुतेरित्यर्थः। उक्तैर्ज्ञानयज्ञैर्भगवदभिनिविष्टबुद्धीनां किं फलमित्याशङ्क्यह सद्यो वा क्रमेण वा मुक्तिरित्याह -- य इति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।9.19।।किंचाहमादित्यो भूत्वा कैश्चित्किरणैः ग्रीष्मर्तौ तपामि। कैश्चित्करणैरहं वर्षं पूर्वं मयैव त्यक्तं अष्टसु मासेषु निगृह्णामि। कैश्चित्किणैरहं वर्षं पुनर्वर्षासूत्सृजामि। अमृतं चैवाहमेव मर्त्यानां मृत्युश्चाहमेव। सदसच्चाहमेव यस्य कारणस्य संबन्धितया यत्कार्यं नामरुपाभ्यां व्यज्यते तदत्र सज्छब्देनोपादीयते। कारणासंबन्धेन नामरुपाभ्यामनभिव्यक्तं कारणात्मना स्थितमसदित्युच्यते। ननु सदसच्छब्दयोर्मुख्योऽर्थः कुतो नाङ्गीक्रियते इतिचेत्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यं?तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः। विमतं मिथ्यादृश्यत्वात् परिच्छिन्नत्वात् जडत्वात् शुक्तिरुप्यवत्।तरति शोकमात्मवित् इति श्रुत्युक्तबन्धोपलक्षितसंसारनिवृत्तेः प्रपञ्चमिथ्यात्वं विनानुपपत्तिरिति श्रुतिसूत्रानुमानार्थापत्तिभ्यः कार्यजातस्यासत्त्वावधारणात् सर्वाधिष्ठानस्य शून्यत्वायोगाच्चेति गृहाण। एवंभूतः सन्नपि वस्तुतः सर्वोपाधिविनिर्मुक्तः स्वच्छ एवास्मीति ध्वनयमन् संबोधयति -- हे अर्जुनेति।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।9.19।।सत्कार्यमसत्कारणम्।सदभिव्यक्तरूपत्वात्कार्यमित्युच्यते बुधैः। असदव्यक्तरूपत्वात्कारणं चापि शब्दितम् इत्यभिधानम्।असच्च सच्चैव च यद्विश्वं सदसतः परम् इति च भारते।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।9.19।।अहं तपामि आदित्यो भूत्वा। अहं वर्षं वृष्टिस्तां निगृह्णामि अष्टसु मासेषु कैश्चिद्रश्मिभिः। उत्सृजामि च चतुर्षुमासेषु कैश्चिदिति। अमृतं जीवनं मृत्युर्मरणम्। अमृतं देवान्नं वा। सत् साधु? असत् असाधु। एतत्सर्वमहमेव। अतस्तेषां विश्वतोमुखं मम भजनं कुर्वतां सर्वरूपेणाहमनुग्रहं करोमीति भावः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।9.19।।अग्न्यादित्यादिरूपेण अहम् एव तपामि? ग्रीष्मादौ अहम् एव वर्षं निगृह्णामि तथा वर्षासु अपि च अहम् एव उत्सृजामि। अमृतं च एव मृत्युः च येन जीवति लोको येन च म्रियते? तद् उभयम् अपि अहम् एव। किम अत्र बहुना उक्तेन सद् असत् च अपि अहम् एव। सद् यद् वर्तते? असद् यद् अतीतम् अनागतं च? सर्वावस्थावस्थितचिदचिद्वस्तुशरीरतया तत्तत्प्रकारः अहम् एव अवस्थित इत्यर्थः।एवं बहुधा पृथक्त्वेन विभक्तनामरूपावस्थितकृत्स्नजगच्छरीरतया तत्प्रकारः अहम् एव अवस्थित इति एकत्वज्ञानेन अनुसंदधानाः च माम् उपासते ते एव महात्मानः।एवं महात्मनां ज्ञानिनां भगवदनुभवैकभोगानां वृत्तम् उक्त्वा तेषाम् एव विशेषं दर्शयितुम् अज्ञानां कामकामानां वृत्तम् आह --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।9.19।।किंच -- तपामीति। आदित्यात्मना स्थितत्वान्निदाघसमये तपामि जगतस्तापं करोमि वृष्टिसमये च वर्षमुत्सृजामि विमुञ्चामि कदाचित्तु वर्षं निगृह्णामि आकर्षामि अमृतं जीवनं मृत्युश्च नाशः सत्स्थूलं दृश्यम् असच्च सूक्ष्ममदृश्यम् एतत्सर्वमहमेवेति मत्वा मामेव बहुधा उपासत इति पूर्वेणैवान्वयः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।9.19।।एवंप्राधान्यतः [10।19] इति वक्ष्यमाणप्रकारेण लोके तत्तच्छब्दवाच्यतया प्रसिद्धानां प्रकृष्टपदार्थानां सत्तायाः स्वाधीनत्वप्रदर्शनम् अथ प्रवृत्तितादधीन्यमनेनोच्यतेतपामि इति। स्वरूपतस्तापहेतुत्वाभावाद्विशिष्टे तद्दर्शयतिअग्न्यादित्यादीति। आदिशब्देन अग्न्यादितप्तद्रव्यविवक्षा। एककर्तृकयोर्विरुद्धयोः कालादिभेदेन व्यवस्थेत्यभिप्रायेणाहग्रीष्मादाविति वर्षास्विति च। अत्र पर्जन्यादिरूपेणेति भाव्यम्। एवं रश्मिविशेषोऽपि ग्राह्यः।अहं क्रतुः [9।16] इत्युपक्रम्य एतावताधियज्ञाधिप्रजाधिवेदाध्यात्माधिदैवतविवक्षेति केचित्। अथ साधकबाधकरूपेण संगृह्योच्यतेअमृतं चैव मृत्युश्च इति। मृतिकारणाभिधायिमृत्युशब्दसहप्रयोगात् मृतिप्रतिबन्धकमात्रविषयोऽयममृतशब्दः सुधापरत्वे तु विषेण सह पठितव्यम् अमृतसहपाठाच्च मृत्युशब्दस्य वैवस्वतादिपरत्वमयुक्तमित्यभिप्रायेणाह -- येनेति। त्रैकाल्यवर्तिसर्वसङ्ग्रहेण उपसंहारपरतां दर्शयतिकिमत्रेति। अत्र सच्छब्दवदसच्छब्दोऽपि भावान्तराभाववादाद्वस्तुविशेषपरः? अन्यथा अहमिति सामानाधिकरण्यायोगादित्यभिप्रायेणाहयद्वर्तते यदतीतमनागतं चेति। असच्छब्दोऽत्र वर्तमानान्यविषयः। ननु प्रकरणान्तरेष्विव चेतनाचेतनादिविषयत्वमनयोः किं नोच्यते इत्यत्राहसर्वावस्थेति। सर्वस्य भगवदात्मकत्वं हि प्रकृतम् त्रैकालिकसमस्तसङ्ग्रहौचित्याय वर्तमानत्वादिविवक्षायामपि चिदचितोर्न त्यागः तयोरेव तत्तदवस्थाविशेषविशिष्टस्वरूपविषयत्वात्। अथवासर्वेत्यादिकम्?अहं क्रतुः [9।16] इत्याद्युक्तकृत्स्नवाक्यार्थकथनमनुध्येयम्। सर्वतादधीन्यवचनं प्रकृतेनोपासनेन सङ्गमयतिएवं बहुधेत्यादिना। विशिष्टैकत्वमिह विवक्षितम् न पुनः प्रलयदशापन्नमविभक्तत्वलक्षणम्। प्रस्तुतज्ञानयज्ञत्वस्मारणायज्ञानेनानुसन्दधाना इत्युक्तम्।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।9.16 -- 9.19।।ननु कर्म तावत् कारककलापव्याप्तभेदोद्रेकि कथमभिन्नं भगवत्पदं प्रापयतीति उच्यते -- अहं क्रतुरिति अर्जुनेत्यनन्तम्। एकस्यैव निर्भागस्य ब्रह्मतत्त्वस्य परिकल्पित [भेदवत्] साधनाधीनं कर्म पुनरेकत्वं निर्वर्तयति क्रियायाः सर्वकारकात्मसाक्षात्कारेणावस्थाने भगवत्पदप्राप्तिं प्रत्यविदूरत्वात्। उक्तं च -- सेयं क्रियात्मिका शक्तिः शिवस्य पशुवर्तिनी।बन्धयित्री स्वमार्गस्था ज्ञाता सिद्ध्युपपादिका।। (Spk? III? 16)इति मयाप्युक्तम् -- उपक्रमे यैव बुद्धिर्भावाभावानुयायिनी।उपसंहृतिकाले सा भावाभावानुयायिनी।।इति।तत्र तत्र वितत्य विचारितचरमेतत् इतीहोपरम्यते (S omits इति)। तपाम्यहमित्यादि अद्वैतकथाप्रसङ्गेनोक्तम्।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।9.19।।असतो नियाम्यत्वानुपपत्तेःसदसच्चाहं इत्ययुक्तमित्यत आह -- सदिति। कार्यं सदित्युच्यते। अभिव्यक्तिरूपत्वादित्यनेन सदेर्गत्यर्थस्य क्विपि कर्मणि रूपमेतदित्युच्यते। कारणमप्यव्यक्तरूपत्वादेव असच्छब्दितम्। कार्यकारणयोः सदसच्छब्दप्रयोगं च दर्शयति -- असच्चेति। तस्मात्सदसतोर्विश्वस्माद्ब्रह्म परम्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।9.19।।किंच -- तपाम्यहमादित्यः सन् ततश्च तापवशादहं वर्षं पूर्ववृष्टिरूपं रसं पृथिव्या निगृह्णाम्याकर्षामि। कैश्चिद्रश्मिभिरष्टसु मासेषु। पुनस्तमेव निगृहीतं रसं चतुर्षु मासेषु कैश्चिद्रश्मिभिरुत्सृजामि च वृष्टिरूपेण प्रक्षिपामि च भूमौ। अमृतं च देवानां सर्वप्राणिनां जीवनं वा। एवकारस्याहमित्यनेन संबन्धः। मृत्युश्च मर्त्यानां सर्वप्राणिनां विनाशो वा। सत् यत्संबन्धितया यद्विद्यते तत्तत्र सत्। असच्च यत्संबन्धितया तत्र विद्यते तत्तत्रासत्। एतत्सर्वमहमेव हे अर्जुन? तस्मात्सर्वात्मानं मां विदित्वा स्वस्वाधिकारानुसारेण बहुभिः प्रकारैर्मामेवोपासत इत्युपपन्नम्।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।9.19।।तपामि रसास्वादनार्थं सर्वेषां तापं करोमि। यदा तपामि तदा वर्षं रसात्मकं निगृह्णामि आकर्षामि स्वस्मिन् स्थापयामि। च पुनः तद्दानसमये पुनरुत्सृजामि। अमृतं जीवनमक्षयम्। मृत्युश्च मृत्युरूपः। सत् स्थूलं परिदृश्यमानम्। असत् सूक्ष्ममदृश्यम्। हे अर्जुन एतत्सर्वं पूर्वोक्तमहमेवेत्यर्थः। एवं बहुधा मामुपासत इति पूर्वेणैव सम्बन्धः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।9.19।। --,तपामि अहम् आदित्यो भूत्वा कैश्चित् रश्मिभिः उल्बणैः। अहं वर्षं कैश्चित् रश्मिभिः उत्सृजामि। उत्सृज्य पुनः निगृह्णामि कैश्चित् रश्मिभिः अष्टभिः मासैः पुनः उत्सृजामि प्रावृषि। अमृतं चैव देवानाम्? मृत्युश्च मर्त्यानाम्। सत् यस्य यत् संबन्धितया विद्यमानं तत्? तद्विपरीतम् असच्च एव अहम् अर्जुन। न पुनः अत्यन्तमेव असत् भगवान्? स्वयं कार्यकारणे वा सदसती।।ये पूर्वोक्तैः निवृत्तिप्रकारैः एकत्वपृथक्त्वादिविज्ञानैः यज्ञैः मां पूजयन्तः उपासते ज्ञानविदः? ते यथाविज्ञानं मामेव प्राप्नुवन्ति। ये पुनः अज्ञाः कामकामाः --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।9.19।।अतः परं सृष्ट्यादिद्वारा सृष्ट्यादिसम्पादकत्वं पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति [छां.उ.5।3।3] इति श्रुतिप्रामाण्यात्क्रममुक्तिद्वारत्वं च स्वस्यैवाह तपामीति। तापनेन किं भवतीति तत्राह। वर्षं निगृह्णाम्यष्टसु मासेषु। उत्सृजामि च चतुर्षु सूर्यात्मना वृष्टिं करोमि। तद्वारान्नजननात् सृष्ट्यादिसम्पादकोऽहं यज्ञोपयोगित्वार्थं तथैतदुपास्यमुक्तम्। अमृतं जीवनम्। मृत्युः वर्षादेर्मृत्युस्तन्निग्रहणाच्चाहमित्यात्मप्रभवप्रलयावपि ब्रह्मवादेनाह। अन्यत्किं वाच्यं हेऽर्जुन शुद्धस्वरूप तस्मिन् शुद्धस्वरूपे ब्रह्मयज्ञे सदसदप्यहं लोकप्रतीत्याभावमपि सर्वं ब्रह्मैवाहमिति पूर्वोक्तं विवृतंयदात्मकः प्रपञ्चोऽयं स एव हि पिता हरिः। जनको भगवान्स्वामी माता प्रकृतिरुत्तमा। इति भावेन ब्रह्मैव सर्वरूपमुदीरितम्। यज्ञादिरूपं निबन्धे ब्रह्मवादानुरोधतः। तदेवं प्रसङ्गान्महात्मनां भक्तानां सात्त्विकानां वृत्तिरुक्ता। ततो द्विविधानां ज्ञानमार्गीयाणां राजसानां तामसानां च वृत्तिमुक्त्वाऽन्ते ब्रह्मवादिनां वृत्तिः सिद्धान्तिता अधुना तेषामेव विशेषं दर्शयितुं वेदार्थानभिज्ञानां काम्यकर्मकारिणां स्थितिं दर्शयन् गतिमाह।