अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।
ananyāśh chintayanto māṁ ye janāḥ paryupāsate teṣhāṁ nityābhiyuktānāṁ yoga-kṣhemaṁ vahāmyaham
For those men who worship Me alone, thinking of no one else, for those ever-united, I secure what they have not already possessed and preserve what they already possess.
9.22 अनन्याः without others? चिन्तयन्तः thinking? माम् Me? ये who? जनाः men? पर्युपासते worship? तेषाम् of them? नित्याभियुक्तानाम् of the everunited? योगक्षेमम् the supply of what is not already possessed? and the preservation of what is already possessed? वहामि carry? अहम् I.Commentary Ananyah Nonseparate. This is another interpretation. Persons who? meditating on Me as nonseparate? worship Me in all beings -- to them who are ever devout? I secure gain and safety. They consider themselves as nonseparate? i.e.? they look upon the Supreme Being as nonseparate from their own Self they look upon the Supreme Being as their own Self.Those devotees who behold nothing as separate from themselves have no selfish interests of their own. They certainly do not look for their own gain and safety. They have no desire for life or death. They have taken sole refuge in the Lord. They have nothing to lose? because there is nothing they call their own. Their very bodies become Gods. They have no desire for acisition because all their desires are gratified by their communion with the Lord. They have eternal satisfaction as they possess all the divine Aisvarya? the supreme wealth of the Lord.They entertain no other thoughts than those of the Lord. Conseently the Lord Himself looks after their bodily wants? such as food and clothing (this is known as Yoga)? and preserves what they already possess (this is known as Kshema). He does these two acts. Just as the father and mother attend to the bodily needs of their children? so also the Lord attends to the needs of His devotees.They direct their whole mind with full faith towards the Lord. They make the Lord alone the sole object of their thought. For them nothing is dearer in this world than the Lord. They live for the Lord alone. They think of Him only with singeleness of purpose and onepointed devotion. They behold nothing but the Lord. They love Him in all creatures. When they lead such a life? the Lord takes the whole burden of securing gain (Yoga) and safety (Kshema) for them upto Himself.Nityayuktah Those who constantly meditate on the Lord with intense devotion and onepointed mind. (Cf.VIII.14XVIII.66)
।।9.22।। व्याख्या--'अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते'--जो कुछ देखने, सुनने और समझनेमें आ रहा है, वह सब-का-सब भगवान्का स्वरूप ही है और उसमें जो कुछ परिवर्तन तथा चेष्टा हो रही है, वह सब-की-सब भगवान्की लीला है -- ऐसा जो दृढ़तासे मान लेते हैं, समझ लेते हैं, उनकी फिर भगवान्के सिवाय कहीं भी महत्त्वबुद्धि नहीं होती। वे भगवान्में ही लगे रहते हैं। इसलिये वे 'अनन्य' हैं। केवल भगवान्में ही महत्ता और प्रियता होनेसे उनके द्वारा स्वतः भगवान्का ही चिन्तन होता है।
।।9.22।। यह श्लोक उस रहस्य को अनावृत करता है? जिसे जानकर आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र में भी निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि यह श्लोक लगभग गीता का मध्यबिन्दु है। हम क्रमश आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टि से इसके अर्थ पर विचार करेंगे।जो लोग यह जानकर कि एकमात्र आत्मा ही सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान और पारमार्थिक सत्य है? अनन्यभाव से मेरा अर्थात् आत्मस्वरूप का ध्यान करते हैं? श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि उन नित्ययुक्त भक्तजनों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। योग का अर्थ है अधिक से अधिक आध्यात्मिक शक्ति? और क्षेम का अर्थ है अध्यात्म का चरम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति? जो यज्ञ का फल है। इन योग और क्षेम को भगवान् ही पूर्ण करते हैं।अब? यदि इसे? व्यावहारिक जगत् के विभिन्न कार्य क्षेत्रों में दिनरात परिश्रम करने वाले लोगों के लिए सफलता का भेद बताने वाला मानें? तब भी यही श्लोक उस रहस्य को बताता हैं? जिसके द्वारा संसारी लोग अपने जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं। हाथ में लिए हुए किसी भी कार्य में? यदि मनुष्य एक ही लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपनी संकल्प शक्ति का उपयोग कर एक ही संकल्प को बनाये रख सकता है? तो उसकी सफलता निश्चित समझनी चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य है कि सामान्य जन एक ही संकल्प को बनाये नहीं रख पाते हैं। इसलिए? उनका लक्ष्य सदैव परिवर्तित होता रहता है और उनसे दूर और दूर होता जाता है। इस स्थिति में उनका संकल्प दृढ़ कैसे रह सकता है ऐसे आकस्मिक और क्षणिक निश्चय वाले लोगों के लिए जीवन में किसी भी कार्य क्षेत्र में उन्नति करना सम्भव नहीं है।हमारे युग की सबसे बड़ी त्रासदी (दुख की बात) यह प्रतीत होती है कि हम इस एक अत्यन्त स्पष्ट एवं सुबोध तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि विचारों से ही निर्माण कार्य होता है। संकल्पशक्ति से ही कर्मबल प्राप्त करते हैं। जब शक्तिदायक स्रोत ही श्वासरुद्ध हो जाता है या बिखर जाता है? तब बाह्य कार्यों में कार्यान्वयन की शक्ति क्षीण और प्रभावहीन हो जाती है। सफलता के लिए आवश्यक है कि मनुष्य एकाग्र चित्त से? निश्चित किये हुए अपने जीवन के लक्ष्य के विषय में सतत स्फूर्ति? उत्साह और सार्मथ्य के साथ चिन्तन करे।केवल विचार करना अपने आप में पर्याप्त नहीं है और कर्मों की आवश्यकता के विषय में भी दो मत नहीं हो सकते हैं। वर्तमान पीढ़ी के अनेक नवयुवक यद्यपि एक लक्ष्य को निरन्तर बनाये रखने में सक्षम हैं? परन्तु कार्यक्षेत्र में प्रवेश करके सफलता के लिए सर्व सम्भव प्रयत्न करने के लिए जिस तत्परता की आवश्यकता होती है? उसका उनमें अभाव रहता है। उपासना शब्द का अर्थ है पूजा। पूजा के द्वारा हम देवता का आह्वान करते हैं देवता माने किसी भी क्षेत्र की फल प्रदायक सार्मथ्य।यहाँ उपासते क्रियापद को परि उपसर्ग लगाया गया है? जिसका आशय है सम्पूर्ण प्रयत्न। अपने चुने हुए कार्य में सफलता की निर्मिति के लिए सम्पूर्ण प्रयत्न की आवश्यकता है? जिसमें कोई भी सम्भव प्रयत्न नहीं छोड़ा गया हो।अब तक? सफलता के रहस्य की दो कुञ्जियाँ बताई गयीं है? जिनके अभाव मंे कोई भी कार्य यशस्वी नहीं हो सकता? और वे हैं (क) संकल्प का सातत्य? और (ख) एक निश्चित लक्ष्य के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करना। तीसरी मुख्य कुञ्जी है (ग) नित्ययुक्तता अर्थात् आत्मसंयम। जीवन में दर्शनीय व गौरवमय सफलता पाने के लिए आत्मसंयम आवश्यक है।जब जीवन में किसी महत्त्वाकांक्षा को लेकर मनुष्य अपने मार्ग पर अग्रसर होता है? तब उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके लक्ष्य से भिन्न? अनेक आकर्षक और प्रलोभित करने वाली योजनाएं उसके समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं? जिनके चिन्तन में वह अपनी शक्ति का अपव्यय करके थक जाता है और इस प्रकार अपने चुने हुए कार्य को भी सफलतापूर्वक करने में असमर्थ हो जाता है। उन्नति में बाधक ऐसे विघ्न से सुरक्षित रहने के लिए आत्मसंयम अत्यावश्यक है।श्री शंकराचार्य योगक्षेम के अर्थ इस प्रकार बताते हैं ? अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना योग और प्राप्त वस्तु का रक्षण करना क्षेम कहलाता है। प्रस्तुत विवेचन के सन्दर्भ में ये अर्थ भी उपयुक्त हैं और प्रयोज्य हैं। जीवन में? जिन किसी भी रूप में विरोध और स्पर्धा? संघर्ष और दुख आते हैं? वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्थानस्थान पर और समयसमय पर भिन्नभिन्न प्रकार के होते हैं। मनुष्य के इस संघर्ष को मुख्यत दो भागों में विभाजित किया जा सकता है? (क) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष? और (ख) प्राप्त वस्तु के रक्षण के लिए प्रयत्न। इन दोनों से उत्पन्न तनाव जीवन की शान्ति और आनन्द को छिन्नभिन्न कर देता है। जो व्यक्ति इन दो चिन्ताओं से मुक्त है? वह सबसे भाग्यवान व्यक्ति है? क्योंकि वह कृतकृत्य है। इन दोनों के अभाव में उस पुरुष के जीवन में दुख की गन्धमात्र नहीं होती और वह अक्षय सुख को प्राप्त हो जाता है।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि जो कोई व्यक्ति उपर्युक्त सफलता की तीन कुञ्जियों को समझकर उद्यमता से उनका पालन करेगा उसे? योग और क्षेम की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है? क्योंकि उसको पूर्ण करने का उत्तरदायित्व स्वयं भगवान् स्वेच्छापूर्वक निभाते हैं। यहाँ भगवान् शब्द से तात्पर्य इस जगत् और उसमें होने वाली घटनाओं के पीछे जो शाश्वत नियम कार्य कर रहा है? उससे समझना चाहिए। सिंचाई कार्य के लिए जब जल को उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित किया जाता है? तो इच्छित क्षेत्र में उसके प्रवाह के लिए हमें केवल उसकी दिशा ही सही करनी होती है। तत्पश्चात् प्रकृतिक नियम के अनुसार वह जल स्वत ही उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित होगा। इसी प्रकार? जो कोई पुरुष अपने कार्यक्षेत्र में यहाँ वर्णित शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक स्तर पर पालन करने योग्य नियमांे के अनुसार कार्य करेगा? सफलता ऐसी परिस्थितियों के सजग शासक के चरणों को चूमेगी।अब? एक अन्य प्रकरण का प्रारम्भ किया जाता है? जिसमें उन साधकों के विषय में विचार किया गया है? जो विपरीत मार्गदर्शन के कारण परिच्छिन्न शक्ति एवं अनित्य फल के अधिष्ठाता देवताओं की पूजा करते हैं --
।।9.22।।फलमनभिसंधाय त्वामेवाराधयतां सम्यग्दर्शननिष्ठानामत्यन्तनिष्कामानां(णां) कथं योगक्षेमौ स्यातामित्याशङ्क्याह -- ये पुनरिति। तेषां योगक्षेमं वहामीत्युत्तरत्र संबन्धः। येभ्योऽन्यो न विद्यत इति,व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- अपृथगिति। कार्यस्येव कारणे कर्मतादात्म्यं व्यावर्तयति -- परमिति। अहमेव वासुदेवः सर्वात्मा न मत्तोऽन्यत्किंचिदस्तीति ज्ञात्वा तमेव प्रत्यञ्चं सदा ध्यायन्त इत्याह -- चिन्तयन्त इति। प्राकृतान्व्यावर्त्य मुख्यानधिकारिणो निर्दिशति -- संन्यासिन इति। पर्युपासते परितः सर्वतोऽनवच्छिन्नतया पश्यन्तीत्यर्थः। नित्याभियुक्तानां नित्यमनवरतमादरेण ध्याने व्यापृतानामित्याह -- सततेति। योगश्च क्षेमश्च योगक्षेमम्। तत्रापुनरुक्तमर्थमाह -- योग इति। किमर्थं परमार्थदर्शिनां योगक्षेमं वहसीत्याशङ्क्याह -- ज्ञानीत्विति। अतस्तेषां योगक्षेमं वहामीति संबन्धः। सम्यग्दर्शननिष्ठानामेव योगक्षेमं वहति भगवानिति विशेषणममृष्यमाणः शङ्कते -- नन्विति। अन्येषामपि भक्तानां भगवान्योगक्षेमं वहतीत्येतदङ्गीकरोति -- सत्यमिति। तर्हि भक्तेषु ज्ञानिषु च विशेषो नास्तीति पृच्छति -- किंत्विति। तत्र विशेषं प्रतिज्ञाय विवृणोति -- अयमित्यादिना। योगक्षेममुद्दिश्य स्वयमीहन्ते चेष्टां कुर्वन्तीति यावत्। आत्मविदां स्वार्थं योगक्षेममुद्दिश्य चेष्टाभावं स्पष्टयति -- नहीति। गृद्धिरपेक्षा कामना तामित्येतत्। ज्ञानिनां तर्हि सर्वत्रानास्थेत्याशङ्क्याह -- केवलमिति। तेषां तदेकशरणत्वे फलितमाह अत इति। इतिशब्दो विशेषशब्देन संबध्यते।
।।9.22।।ननु कामकामानां तु तत्तत्कामनया कर्मानुष्ठाने कृते सति भोगादिकं सिध्यति? ये पुनर्निष्कामाः तत्त्वदर्शिनस्त्वां पर्युपासते तेषां भोगकामनारहितानामपि शरीरस्थितिहेतुभूतौ योगक्षेमौ खतं स्यातामिति तत्राह -- अनन्या इति। मत्तोऽपृथग्भूताः परं देवं वासुदेवं ममात्मत्वेन प्रतिपन्नाः सन्ते जना मां चिन्तयन्तोऽहमेव वासुदेव इति ज्ञात्वा प्रत्यभिन्नं मां ध्यायन्तः पर्युपासते परितः सर्वतोऽनवच्छिन्नतया पश्यन्तीत्यर्थः। तेषां सभ्यग्दर्शिनां नित्याभियुक्तानां नित्यं सततमत्यादरेण मच्चिन्तने व्यापृतानां योगक्षेमं वहाम्यहं योगश्च क्षेमश्चेति समाहारद्वन्द्वः। अलब्धस्य प्रापणं योगः। लब्धस्य परिपालनं क्षेमस्तदुभयं वहामि प्रापयामि। यतः कारणात् ज्ञानिनो ममात्मभूतत्वादतिप्रियाः। तदुक्तम्उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतं?स च मम प्रियः इति। यद्यप्यन्येषामपि भक्तानां योगक्षेमं भगवान्वहत्येव तथाप्यन्ये ये भक्तास्ते आत्मार्थं स्वयमपि योगक्षेममीहन्ते अनन्यदर्शिनस्तु नेति विशेषः।
।।9.22।।अनन्याः अन्यदचिन्तयित्वा। तथा हि गौतमखिलेषु -- सर्वं परित्यज्य मनोगतं यद्विना देवं केवलं शुद्धमाद्यम्। ये चिन्तयन्तीह तमेव धीरा अनन्यास्ते देवमेवाविशन्ति इति।कामं कालेन महता एकान्तित्वात्समाहितैः। शक्यो द्रष्टुं स भगवान्प्रभासन्दृश्यमण्डलः इति मोक्षधर्मे [म.भा.12।366।24।55]। नित्यमभितः सर्वतो युक्तानाम्।
।।9.22।।एवं कर्मिणामावृत्तिं फलं चोक्त्वा भक्तानामपि मद्भजनेनैव सर्वसिद्धिरित्याह -- अनन्या इति। नास्ति अन्य उपास्यो येषाम्। अहमेव भगवान्वासुदेव इत्यभेदेन चिन्तयन्त इत्यर्थः। ये जनाः पर्युपासते परितः साकल्येन कात्स्न्र्येनाद्वैतदृष्ट्येत्यर्थः। उपासते तेषां नित्याभियुक्तानां सतताभियोगिनां। योगः अप्राप्तस्यान्नादेर्योगभूमिकाया वा प्रापणं। क्षेमः तस्यैव प्राप्तस्य संरक्षणं। तद्वयमहमेव वहामि निर्वहामि। तैरन्नाद्यर्थं वा योगभूमिषूर्ध्वोर्ध्वभूमिलाभार्थं वा चिन्ता न कर्तव्येत्यर्थः। अनन्यचेतसां तेषां मदभिन्नत्वात्सर्वं सेत्स्यतीत्यर्थः। तथा चोक्तंज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इति।
।।9.22।।अनन्याः अनन्यप्रयोजना मच्चिन्तनेन विना आत्मधारणालाभात् मच्चिन्तनैकप्रयोजनाः मां चिन्तयन्तो ये महात्मानः जनाः पर्युपासते सर्वकल्याणगुणान्वितं सर्वविभूतियुक्तं मां परित उपासते अन्यूनम् उपासते तेषां नित्याभियुक्तानां मयि नित्याभियोगं काङ्क्षमाणानाम् अहं मत्प्राप्तिलक्षणं योगम् अपुनरावृत्तिरूपं क्षेमं च वहामि।
।।9.22।। मद्भक्तास्तु मत्प्रसादेन कृतार्था भवन्तीत्याह -- अनन्या इति। अनन्या नास्ति मद्व्यतिरेकेणान्यत्काम्यं भजनीयं देवतान्तरं येषां तथाभूता ये जना मां चिन्तयन्तः सेवन्ते? तेषां नित्याभियुक्तानां सर्वदा मदेकनिष्ठानां योगं धनादिलाभं क्षेमं च तत्पालनं मोक्षं वा तैरप्रार्थितमप्यहमेव वहामि प्रापयामि।
।।9.22।।उपायस्यापि सुखरूपतया फलस्य च नित्यनिर्दोषनिरतिशयानन्दतया महात्मनां विशेषोऽभिधीयत इत्याहमहात्मानस्त्विति। अनन्यत्वविशेषणवशाच्चिन्तनस्य निरतिशयसुखरूपत्वसिद्धिः।मां इत्यादिना योगक्षेमशब्दविवक्षितमुक्तम्। यद्यपिये त्वन्यदेवताभक्ताः [9।23़] इति वक्ष्यमाणावेक्षणेनान्यदेवताप्रतीतिः? तथापि प्रकृतकाम्यव्यवच्छेदार्थत्वादुपायसहचरं ततोऽन्यत्फलं व्यवच्छेत्तुंअनन्यशब्दः। अत एवैकत्वानुसन्धानपरत्वं चायुक्तमिति दर्शयतिअनन्यप्रयोजना इति। तत्र हेतुमाहमच्चिन्तनेन विनेति।अनन्याश्चिन्तयन्तः इति समभिव्याहारसामर्थ्याच्चिन्तनादन्यस्य निषेधसिद्धिः। निर्विशेषणस्य जनशब्दस्याकृतिगणतुल्ये जने प्रयोगात्तद्व्यवच्छेदाय प्रकरणसिद्धमुक्तंये महात्मानो जना इति। ये महात्मानो जानन्ति तेषामेव हि जननसाफल्यमिति भावः।पर्युपासते इत्यत्र प्रयुक्तस्य परीत्यस्योपसर्गस्य नैरर्थक्यायोगात्तदर्थे परित इति विवक्षिते तस्यैव प्रमाणान्तरसिद्धविशेषं दर्शयतिसर्वकल्याणेति। प्रती कोपासनव्यवच्छेदार्थमिदमुक्तमित्यभिप्रायेणाहअन्यूनमिति। अखण्डितगुणविभूतिकमित्यर्थः। अत्रअहं इत्यनेन परमोदारत्वसौशील्यादिगुणविवक्षा। नहि मोक्षकाङ्क्षिणामानुषङ्गिकभोग(प्राधान्येऽ)प्रदानेऽपि मोक्षानुपयुक्तशरीरयात्रादिरूपौ योगक्षेमौ दातव्यावित्यभिप्रायेणाहमत्प्राप्तीति। अलब्धलाभो योगः लब्धरक्षणं क्षेमः। समाहारार्थत्वादेकवद्भावः। वहामि ददामीत्यर्थः।
।।9.22।।तथा हि --,अनन्या इति। तेभ्योऽन्ये मां चिन्तयन्तः। कथम् अनन्या अविद्यमानं अन्यत् मद्व्यतिरिक्तं कामनीयं,( कमनीयं) फलं येषामिति। योगः? अप्रतिलब्धमत्स्वरूपलाभः। क्षेमम्? प्राप्तभगवत्स्वरूपप्रतिष्ठालाभपरिरक्षणम्? येन योगभ्रष्टत्वशंकाऽपि न भवेत् इत्यर्थः।
।।9.22।।अद्वैतज्ञानिनोऽनन्याः इति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- अनन्या इति। अविद्यमानमन्यद्येषां ते अनन्याः। तच्चअनन्याश्चिन्तयन्तो मां इति प्रसङ्गाच्चिन्तनीयमिति लब्धे अन्यदचिन्तयित्वेति सिध्यति। प्रतीत एवार्थः किं न स्यात् इत्यत आह -- तथा हीति।देवमेव विशन्ति इत्यनेनयोगक्षेमं वहाम्यहं इत्युक्तार्थं भवति। अत्रैव काममित्यागमान्तरम्। प्रभया सन्दृश्यं मण्डलं स्वरूपं यस्यासौ तथोक्तः। दर्शनस्य योगक्षेमसाधनत्वं प्रसिद्धमेव।नित्याभियुक्तानां इत्यस्यापवादविषयाणामित्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह -- नित्यमिति। सर्वतः सर्वस्मिन्देशे। शरीरेन्द्रियमनोभिर्वा युक्तानां भगवति सेवोद्युक्तानाम्।
।।9.22।।निष्कामाः सम्यग्दर्शिनस्तु अन्यो भेददृष्टिविषयो न विद्यते येषां तेऽनन्याः सर्वाद्वैतदर्शिनः सर्वभोगनिःस्पृहा अहमेव भगवान्वासुदेवः सर्वात्मा न मद्व्यतिरिक्तं किंचिदस्तीति ज्ञात्वा तमेव प्रत्यञ्चं सदा चिन्तयन्तो मां नारायणमात्मत्वेन ये जनाः साधनचतुष्टयसंपन्नाः संन्यासिनः परि सर्वतोऽनवच्छिन्नतया पश्यन्ति ते मदनन्यतया कृतकृत्या एवेति शेषः। अद्वैतदर्शननिष्ठानामत्यन्तनिष्कामानां(णां) तेषां स्वयमप्रयतमानानां कथं योगक्षेमौ स्यातामित्यत आह -- तेषां नित्याभियुक्तानां नित्यमनवरतमादरेण ध्याने व्यापृतानां देहयात्रामात्रार्थमप्यप्रयतमानानां योगं च क्षेमं च अलब्धस्य लाभं लब्धस्य परिरक्षणं च शरीरस्थित्यर्थं,योगक्षेममकामयमानानामपि वहामि प्रापयाम्यहं सर्वेश्वरः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः। उदाराः सर्व एवैते ज्ञानीत्वमात्मैव मे मतम् इति ह्युक्तम्। यद्यपि सर्वेषामपि योगक्षेमं वहति भगवान् तथाप्यन्येषां प्रयत्नमुत्पाद्य तद्द्वारा वहति? ज्ञानिनां तु तदर्थं प्रयत्नमनुत्पाद्य वहतीति विशेषः।
।।9.22।।अथ ये पूर्वोक्तसर्वस्वरूपं मदंशबलयुक्तं ज्ञात्वा सर्वं परित्यज्य मां भजन्ति? तेषां सर्वमहमेव करोमि? त उत्तमा इति तत्स्वरूपमाह -- अनन्या इति। अनन्याः न विद्यते अन्यो लौकिकालौकिकादिषु प्रार्थ्यत्वेन येषां? वा मत्सेवनातिरिक्तं फलं येषां ते तथाभूताः सन्तो मामेकं चिन्तयन्तः सर्वतो मनोनिरोधेन मां स्मरन्तो ये दुर्लभा जनाः जन्मभाजो मत्सेवार्थकजन्मज्ञानवन्तः पर्युपासते परितः सर्वात्मभावेन सेवन्त इत्यर्थः। तेषां नित्याभियुक्तानां नित्यस्वरूपस्य मम सेवनपराणां मम नित्यमभियुक्तानां सम्मतानां योगं सेवार्थधनादिसम्पत्तिलाभं सेवने मद्योगं वा? क्षेमं तत्पालनं भक्त्युन्मुखीकरणात्मकं मद्भावरूपं वा अहं पुरुषोत्तमः वहामि पालयामीत्यर्थः। वहनोक्त्या तदशक्तौ स्वशक्त्याविर्भावेन तत्करोमीति व्यञ्जितम्।
।।9.22।। --,अनन्याः अपृथग्भूताः परं देवं नारायणम् आत्मत्वेन गताः सन्तः चिन्तयन्तः मां ये जनाः संन्यासिनः पर्युपासते? तेषां परमार्थदर्शिनां नित्याभियुक्तानां सतताभियोगिनां योगक्षेमं योगः अप्राप्तस्य प्रापणं क्षेमः तद्रक्षणं तदुभयं वहामि प्रापयामि अहम् ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् स च मम प्रियः यस्मात्? तस्मात् ते मम आत्मभूताः प्रियाश्च इति।।ननु अन्येषामपि भक्तानां योगक्षेमं वहत्येव भगवान्। सत्यं वहत्येव किं तु अयं विशेषः -- अन्ये ये भक्ताः ते आत्मार्थं स्वयमपि योगक्षेमम् ईहन्ते अनन्यदर्शिनस्तु न आत्मार्थं योगक्षेमम् ईहन्ते न हि ते जीविते मरणे वा आत्मनः गृद्धिं कुर्वन्ति केवलमेव भगवच्छरणाः ते अतः भगवानेव तेषां योगक्षेमं वहतीति।।ननु अन्या अपि देवताः त्वमेव चेत् तद्भक्ताश्च त्वामेव यजन्ते। सत्यमेवम् --,
।।9.22।।मद्भक्तास्तु मदनुग्रहेण कृतार्था भवन्तीत्याह -- अनन्या इति। अत्रेदमाकूतम् -- भगवता मार्गत्रयं स्वत उद्भावितम्? मनसा वाचा स्वरूपेण चेति तत्र स्वप्राप्त्यर्थं मार्गद्वयं प्रकटितं मर्यादारूपं पुष्टिरूपं च तत्र येषां जीवानां दैवानां मर्यादायामङ्गीकारस्तेषां साधनक्रमेणैव भगवत्प्राप्तिः। यथाऽऽसुरावेशिनामपि मुक्तिं ददत्स्वरूपं दृष्टवतो मुचुकुन्दस्य दोषवर्णनपूर्वकं तद्रहिताग्रिमान्तिमजन्मनि स्वप्राप्तिकथनम्। येषां च पुष्टिभक्तिमार्गे तेषां केवलानुग्रहेणैव न साधनापेक्षयेति निश्चयः? यथा व्रजादिस्थितानाम्। तत्र तत्राङ्गीकारे चेच्छैव हेतुः स्वतन्त्रेच्छत्वान्नान्यनियम्यता। तथाच साधनवाक्यान्यत्र मर्यादामार्गपराणि। तत्राङ्गीकृतानां तथैव प्रवृत्तिः फलं च। पुष्टिमार्गे त्वङ्गीकृतानांतस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः। न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह। यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत्। योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि। सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा। [भाग.11।20।3133] इति भगवद्वाक्यैर्ज्ञानादिसाधनरहितानामेव भक्तिकथनम्। मद्भक्तेः कल्पतरुस्वभावत्वेनेतरसकलसाधनासाध्यसाधकत्वोक्तेश्च नेतरसाधनसापेक्षता भक्तौ।भगवान् भजतां मुकुन्दो मुक्तिं ददाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगं इति वाक्येऽपि मुक्तिसाधनपूर्णानामपि भगवद्दाने भक्तिप्राप्तिरदाने चाप्राप्तिरिति निरूपणादप्यनुग्रहेतरसाधनासाध्यत्वं भक्तौ निश्चीयते। उक्तमार्गद्वये चाङ्गीकारोऽनुग्रहेणैवेति न मर्यादामार्गेऽपि भक्तेः साधनबलैकसाध्यत्वम्। अन्यथा जायस्व म्रियस्वेति तृतीयमार्गे एवाङ्गीकारं कथं न कुर्यात्। पुष्टौ साधनानां व्यभिचारादेव न हेतुत्वं? मर्यादायां न तथेति इदमग्रे स्पष्टीभविष्यति। ये जना मदीया अनन्या भावनान्तररहिताः (साधनान्तररहिताः) भावनान्तरया देवान्तरविषया फलान्तरविषया मार्गान्तरविषया च तद्रहिताः मदनुग्रहैकलभ्यमभक्तिमन्तः मां पुरुषोत्तममेव चिन्तयन्तः मर्यादापुष्टिमार्गीयाः मदुक्तमार्गेण मामुपासते सेवन्ते तेषां नित्यमेवाभितो युक्तानां सम्बद्धानां योगक्षेममिति। योगं इह लोके सेवोपयोगार्थं धनधान्यवस्त्रादिलाभं? क्षेमं चामुत्रात्यन्तिकं श्रेयो मोक्षलक्षणं वहामि साधयामि।