BG - 9.25

यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः। भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।

yānti deva-vratā devān pitṝīn yānti pitṛi-vratāḥ bhūtāni yānti bhūtejyā yānti mad-yājino ’pi mām

  • yānti - go
  • deva-vratāḥ - worshipers of celestial gods
  • devān - amongst the celestial gods
  • pitṝīn - to the ancestors
  • yānti - go
  • pitṛi-vratā - worshippers of ancestors
  • bhūtāni - to the ghosts
  • yānti - go
  • bhūta-ijyāḥ - worshippers of ghosts
  • yānti - go
  • mat - my
  • yājinaḥ - devotees
  • api - and
  • mām - to me

Translation

The worshippers of the gods go to them; the ancestor-worshippers go to the manes; the worshippers of the deities who preside over the elements go to them; but My devotees come to Me.

Commentary

By - Swami Sivananda

9.25 यान्ति go? देवव्रताः worshippers of the gods? देवान् to the gods? पितृ़न् to the Pitris or ancestors? यान्ति go? पितृव्रताः worshippers of the Pitris? भूतानि to the Bhutas? यान्ति go? भूतेज्याः the worshippers of the Bhutas? यान्ति go? मद्याजिनः My worshippers? अपि also? माम् to Me.Commentary The worshippers of the manes such as the Agnisvattas who perform Sraaddha and other rites in devotion to their ancestors go to the manes. Those who worship the gods with devotion and vows go to them.Bhutas are elemental beings lower than the gods but higher than human beigns they are the Vinayakas? the hosts of Matris? the four Bhaginis and the like.Those who devote themselves to the gods attain the form of those gods at death. Similar is the fate of those who worship the manes (their own ancestors) or the Bhutas. The fruit of the worship is in accordance with the knowledge? faith? offering and nature of worship of the devotee.Though the exertion is the same? people do not worship Me on account of their ignorance. Conseently they get very little reward.My devotees obtain endless fruit. They do not come back to this mortal world. It is also easy for them to worship Me. How (Cf.VII.23)

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।9.25।। व्याख्या--[पूर्वश्लोकमें भगवान्ने यह बताया कि मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और सम्पूर्ण संसारका मालिक हूँ, परन्तु जो मनुष्य मेरेको भोक्ता और मालिक न मानकर स्वयं भोक्ता और मालिक बन जाते हैं, उनका पतन हो जाता है। अब इस श्लोकमें उनके पतनका विवेचन करते हैं।]

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।9.25।। जीवन का यह नियम है कि जैसे तुम विचार करोगे वैसे तुम बनोगे। जैसी वृत्ति वैसा व्यक्ति। समयसमय पर किये गये विचारों के अनुसार व्यक्ति के भावी चरित्र का रेखाचित्र अन्तकरण में खिंच जाता है। यह एक ऐसा तथ्य है? जिसकी सत्यता का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में ही हो सकता है। मनोविज्ञान के इस नियम को आत्मविकास के आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रयुक्त करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं? देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं इत्यादि। देवता? पितर? भूतों के पूजक लोग जब दीर्घकाल तक एकाग्रचित्त से अपने इष्ट की पूजा और भक्ति करते हैं? तब उसके परिणामस्वरूप उनकी इच्छायें पूर्ण होती हैं।देवता ज्ञानेन्द्रियों के अधिष्ठाता हैं। हमें जगत् का अनुभव ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ही होता है। यहाँ देवताओं से आशय इन्द्रियों के द्वारा अनुभूत सम्पूर्ण भौतिक जगत् से है। जो लोग निरन्तर बाह्य जगत् के सुख और यश की कामना एवं तत्प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं? वे अपने इच्छित अनुभवों के विषय और क्षेत्र को प्राप्त होते है।पितृव्रता शब्द का अर्थ है? वे लोग जो अपने पितरों की सांस्कृतिक शुद्धता और परम्परा के प्रति जागरूक हैं? तथा जो उन्हीं आदर्शों के अनुरूप जीवन जीने का उत्साहपूर्वक प्रयत्न करते हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा के अनुसार जीने का सतत प्रयत्न करता है? वह? फलत? इस शुद्धता एवं पूर्णता के अत्युत्तम जीवन की सुन्दरता और आभा प्राप्त करता है।हमारी भारत भूमि के प्राचीन ऋषियों ने इस तथ्य की कभी उपेक्षा नहीं की कि किसी भी समाज में? आध्यात्मिक आदर्शों के अतिरिक्त? वैज्ञानिक अन्वेषण तथा प्रकृति के गर्भ में निहित अनेक नियमों एवं वस्तुओं का अविष्कार भी होता रहता है। भौतिक विज्ञानों के क्षेत्र में होने वाले अन्वेषण और अनुसंधान मानव मन की जिज्ञासा का ही एक अंग हैं। अत भूतों के पूजक से तात्पर्य उन वैज्ञानिकों से है? जो प्रकृति का निरीक्षण करते हैं और निरीक्षित नियमों का वर्गीकरण कर उस ज्ञान को सुव्यवस्थित रूप देते हैं। आधुनिक युग में प्रकृति? वस्तु? व्यक्ति एवं प्राणियों के अध्ययन का ज्ञान जिन शाखाओं के अन्तर्गत किया जाता है? वे भौतिकशास्त्र? रसायनशास्त्र? यान्त्रिकी? कृषि? राजनीति? समाजशास्त्र? भूगोल? इतिहास? भूगर्भशास्त्र आदि हैं। इन शास्त्रों में भी अनेक शाखायें होती हैं? जिनका विशेष रूप से अध्ययन करके लोग उस शाखा के विशेषज्ञ बनते हैं। अथर्ववेद के एक बहुत बड़े भाग में उस काल के ऋषियों को अवगत प्रकृति के स्वभाव एवं व्यवहार के सिद्धांत दिये गये हैं। भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ कथित मनोविज्ञान का नियम मनुष्य के सभी कर्मों के क्षेत्रों में लागू होता है। वह नियम है किसी भी क्षेत्र में मनुष्य द्वारा किये गये प्रयत्नों के समान अनुपात में उसे सफलता प्राप्त होती है।इस प्रकार? यदि देवता? पितर और भूतों की पूजा करने से अर्थात् उनका निरन्तर चिन्तन करने से क्रमश देवता? पैतृक परम्परा और प्रकृति के रहस्यों को जानकर भौतिक जगत् में सफलता प्राप्त होती है? तो उसी सिद्धांत के अनुसार हमें वचन दिया गया है कि? मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। एकाग्र चित्त से आत्मस्वरूप पर सतत दीर्घकाल तक ध्यान करने पर साधक अपने सनातन? अव्यय आत्मस्वरूप का सफलतापूर्वक साक्षात् अनुभव कर सकता है। सतत आत्मानुसंधान के फलस्वरूप अन्त में जीव की आत्मस्वरूप में ही परिणति को वेदान्त के प्रकरण ग्रन्थों में भ्रमरकीट न्याय द्वारा दर्शाया गया है।गीता का प्रयोजन और प्रयत्न ज्ञान के साथ विज्ञान अर्थात् अनुभव को भी प्रदान करता है। इस श्लोक का प्रयोजन साधक को यह विश्वास दिलाना है कि यहाँ कथित प्रारम्भिक साधना के द्वारा परम पुरुषार्थ की भी प्राप्ति हो सकती है। जिस प्रकार समर्पित होकर भौतिक जगत् में कार्य करने पर भौतिक सफलता मिलती है? वही नियम आन्तरिक जगत् के सम्बन्ध में भी सत्य प्रमाणित होता है। इसका पर्यवसान आध्यात्मिक साक्षरता में होता है। सतत ध्यान अवश्य ही फलदायक होगा। भगवान् के इस आश्वासन का तर्कसंगत कारण इस श्लोक में दिया गया है।क्या भक्ति पूर्वक की गई पूजा मात्र से ऐसे परमार्थ की प्राप्ति हो सकती है क्या हमको वेदोक्त कर्मकाण्ड के अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है? जिसके पालन के लिए प्राय वेदों में आग्रह किया गया है इस पर भगवान् कहते हैं --

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।9.25।।यद्यन्यदेवताभक्ता भगवत्तत्त्वाज्ञानात्कर्मफलाच्च्यवन्ते तर्हि तेषां देवतान्तरयजनमकिंचित्करमित्याशङ्क्याह -- येऽपीति। देवतान्तरयाजिनामनावृत्तिफलाभावेऽपि तत्तद्देवतायागानुरूपफलप्राप्तिध्रौव्यान्न तदकिंचित्करमित्यर्थः। देवतान्तरयाजिनामावश्यकं तत्फलमाशङ्कापूर्वकमुदाहरति -- कथमित्यादिना। नियमो बल्युपहारप्रदक्षिणप्रह्वीभावादिरित्यर्थः। देवतान्तराराधनस्यान्तवत्फलमुक्त्वा भगवदाराधनस्यानन्तफलत्वमाह -- यान्तीति। भगवदाराधनस्यानन्तफलत्वे देवतान्तराराधनं त्यक्त्वा भगवदाराधनमेव युक्तमायाससाभ्यात्फलातिरेकाच्चेत्याशङ्क्याह -- समानेऽपीति। अज्ञानाधीनत्वेन देवतान्तराराधनवतां फलतो न्यूनतां दर्शयति -- तेनेति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।9.25।।अविधिपूर्वकं यजतामपि फलमवशयंभावीत्याह -- यान्तीति। देवव्रता देवेषु व्रतं बल्युपहारप्रदक्षिणाप्रह्वीभावादिरुपो नियमो भक्तिश्च येषां ते देवानुपास्यानिन्द्रवस्वादीन् यान्ति गच्छन्तितं यथायथोपासते तदेव भवति इति श्रुतेः। तथा पितृष्वग्निष्वात्तादिषु व्रतं श्राद्धादिक्रियानियमो भक्तिश्च येषां ते पितृ़न्यान्ति। तथा भूतेषु विनायकमातृगणचतुःषष्टियोगिन्यादिषु इज्या पूजा येषां ते भूतयाजका भूतानि यान्ति। तथा मद्यजने मम पूजने शीलं येषां ते मामेव भगवन्तं वासुदेवं यान्ति आयासस्य समानत्वेऽप्यज्ञानान्मद्यजनमनल्पफलदं विहायान्यदेवादियजन्मङगीकुर्वन्ति तेनाल्पफलभाजो भवन्तीत्यहो लोकानां मौढ्यमित्यभिप्रायः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।9.25।।फलं विविच्याह -- यान्तीति।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।9.25।।सर्वे भक्ता यथाभजनं प्राप्नुवन्ति स्वाराध्यसांनिध्यमित्याह -- यान्तीति। भूतार्थमिज्या येषां ते भूतेज्याः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।9.25।।व्रतशब्दः संकल्पवाची? देवव्रताः दर्शपौर्णमासादिभिः कर्मभिः इन्द्रादीन् यजामः? इति इन्द्रादियजनसंकल्पाः? ये ते इन्द्रादिदेवान् यान्ति।ये च पितृयज्ञादिभिः पितृ़न् यजामः? इति पितृयजनसंकल्पाः? ते पितृ़न् यान्ति।ये च यक्षरक्षः पिशाचादीनि भूतानि यजामः? इति भूतयजनसंकल्पाः? ते भूतानि यान्ति।ये तु तैः एव यज्ञैः देवपितृभूतशरीरकं परमात्मानं भगवन्तं वासुदेवं यजामः इति मां यजन्ते ते मद्याजिनः माम् एव यान्ति।देवादिव्रता देवादीन् प्राप्य तैः सह परिमितं भोगं भुक्त्वा तेषां विनाशकाले तैः सह विनष्टा भवन्ति मद्याजिनः तु माम् अनादिनिधनं सर्वज्ञं सत्यसंकल्पं अनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणगणमहोदधिम् अनवधिकातिशयानन्दं प्राप्य न पुन निवर्तन्ते इत्यर्थः।मद्याजिनाम् अयम् अपि विशेषः अस्ति इति आह --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।9.25।। तदेवोपपादयति -- यान्तीति। देवेष्विन्द्रादिषु व्रतं नियमो येषां ते अन्तवन्तो देवान्यान्ति अतः पुनरावर्तन्ते। पितृषु व्रतं येषां श्राद्धादिक्रियापराणां ते पितृ़न्यान्ति। भूतेषु विनायकमातृकादिष्विज्या पूजा येषां ते भूतानि यान्ति। मां यष्टुं शीलं येषां ते मद्याजिनस्ते तु मामक्षयं परमानन्दरूपं नारायणं यान्ति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।9.25।।एकस्यैव कर्मणः कथं भोगमोक्षविरुद्धफलसाधनत्वं इत्यत्र सङ्कल्पाख्यसहकारिवैचित्र्यात्तदुपपत्तिरिति प्राप्यवैषम्यंयान्ति इति श्लोकेन प्रदर्श्यत इत्यभिप्रायेणाहअहो महदिति। सङ्कल्पभेदाद्विचित्रफलसाधनत्वं ज्योतिष्टोमादिष्वपि सिद्धम्।व्रतशब्दः सङ्कल्पवाचीति अत्र सङ्कल्पविशेषाद्धि फलभेद इति भावः।देवव्रताः इत्यादौ यजनंभूतेज्याः इत्यत्र व्रतं चापेक्षया मेलितम्। भूतशब्दस्यात्र प्राणिमात्रादिपरत्वव्युदासेन राजसतामसयाज्यवर्गप्रदर्शनाययक्षेत्यादिकम्। न देवयजनपितृयजनादिवत् क्रियास्वरूपभेदोऽत्रेति ज्ञापनायतैरेवेत्युक्तम्। वाक्यान्तरविहितदेवयजनाद्यनुवादेन फलविशेषोऽत्र प्रदर्श्यते? न तु ज्योतिष्टोमादिवाक्यवत्फलार्थोपायविधानं क्रियत इति ज्ञापनाय यत्तच्छब्दविन्यासेन व्याख्यातम्। देवेषु व्रतं येषां ते देवव्रताः भूतानुद्दिश्येज्या येषां ते भूतेज्याः। तत्तत्प्राप्यभेदवचनं तत्तत्समानदेशकालसमानभोगत्वार्थमिति दर्शयतिदेवादिव्रता इति।अनादिनिधनमित्यनेन प्राप्यानित्यत्वनिबन्धनायाः पुनरावृत्तेः प्रतिक्षेपःसर्वज्ञमित्यनेन विरोध्यज्ञाननिमित्तायाःसत्यसङ्कल्पमित्यनेन त्वशक्तिमूलाया भगवत्स्वातन्त्र्यशङ्क्तितायाश्च।भक्तान्नावर्तयेयम् इत्यपि सङ्कल्पोऽस्य सत्य इति भावः। स्वरूपतश्च परिमितत्वप्रयुक्तभोगाल्पत्वव्युदासायअनवधिकेत्यादि विशेषणद्वयम्। एतेनान्यवैतृष्ण्यहेतुतया स्वेच्छोपाधिकपुनरावृत्तिव्युदासः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।9.23 -- 9.25।।येऽपीत्यादि प्रयतात्मनः इत्यन्तम्। येऽपि नामधेयान्तरैरुपासते तेऽपि मामेवोपासते। न हि ब्रह्मव्यतिरेकि किञ्चिदुपास्यमस्ति। किन्तु अविधिना इति विशेषः। अविधिः अन्यो विधिः। ,नानाप्रकारैर्विधभिरहमेव परब्रह्मसत्तास्वभावो याज्य इति।न तु यथा अन्यैर्दर्शनान्तरदूषणसमुपार्जितमहापातकम (S? omit पातक -- ) -- लीमसैर्व्याख्यातम् अविधिना? दुष्टविधिना इति। एवं हि सति मामेव यजन्ते? सर्वयज्ञानाञ्चाहमेव भोक्ता इति दृश्यमानमेतदसमञ्जसीभवेत् इत्यलं कल्मषकलिलैस्साकं संलापेन।अस्मद्गुरवस्तु निरूपयन्ति -- अन्या स्वात्मव्यतिरिक्ता भेदवादनयेन ब्रह्मस्वभावहीनैव काचिद्देवता इति गृहीत्वा तामेव [ये] यजन्ते तेऽपि वस्तुतो मामेव स्वात्मरूपं यजन्ते? किं तु अविधिना दुष्टेन विधिना भेदग्रहणरूपेण,(S? भेदग्रहरूपेण) इति।अत एवाह -- न तु मां स्वात्मानं तत्त्वेन देवतारूपतया भोक्तृत्वेन जानन्ति? अतश्चलन्ति ते,(S? ? N च्यवन्ते) मद्रूपात्। किम् देवव्रतत्वेन देवान् यान्ति इत्यादि। एतदेव चलनमिति,(S??N च्यवन) यावत्। ये तु मत्स्वरूपमभेदेन (?N -- स्वरूपभेदे (दं) न विदुः? ते देवभूतपितृयागादिनाऽपि मामेव यजन्ते (N यजन्ति)। ते च मद्याजिनो मामेव गच्छन्ति (N यजन्ति) इत्युपसंहरिष्यति।ननु द्रव्यत्यागार्थमुद्दिष्टा देवता इत्युच्यते। तत् कथमनुद्दिश्यस्वात्मतत्त्वस्य याज्यत्वम् आदित्यः प्रायणीयश्चरुः इति विधिशेषभूतदेवता उद्देशात्मकविध्यन्तरभावितो (?N प्रभावितो) ह्यसौ उद्देशः (श्यः)। न च स्वात्मविषयो (S??N omit विषयो) विधिरस्ति इत्यभिप्रायेणाह -- अविधिपूर्वकं मामिति। स्वात्मव्यतिरिक्तायां देवतायामस्ति अपेक्ष्यो विधिः? अप्राप्तप्रापणरूपत्वात्। स्वात्मा तु परमेश्वरो न विधिपूर्वकः? विधिपरिप्रापितत्त्वाभावात् (S??N -- परिप्राप्यत्वाभावात्)। न हि तदनुद्देशेन किञ्चित्प्रवर्तते। तेन विधिपरिप्रापितेन्द्रादिदेवतोद्देशेषु सर्वेषु स (S omits सः) स्वात्मा विश्वावभासनस्वभावः तदुद्देश्यदेवतावभासभित्ति (?N substitutes -- भित्ति with मिति -- ) स्थानीयतयैव अहमहमिकया सततावभासमानः स्रक्सूत्रकल्पः सततोद्दिष्टः इति युक्तिसिद्धमेतत्? मामेव यजन्ति अविधिपूर्वकत्वात् [इति]। मुख्यभूतमत्प्राप्तिफलस्य तान्प्रति कर्त्रभिप्रायत्वं नास्ति? अपि तु परिमितदक्षिणास्थानीयेन्द्रादिपद ( -- येन्द्रपदातिमात्र N येन्द्रपदादि K (n) -- इन्द्रादिपदमात्र -- ) -- मात्रप्राप्तेरेव (? K (n) प्राप्तय एव N प्राप्त एव) याजकवच्चरितार्थत्वमेषाम् इति प्रथयितुं परस्मैपदम्। यदुक्तं मयैव -- वेदान् वेद न वेद शाम्भवपदं दूयेत निर्वेदवान् स्वर्गार्थी यजमानतां प्रतिजहज्जातो यजन् याजकः।सर्वाः कर्मरसप्रवाहविसराः (K प्रसराः) संवित्स्रवन्त्योऽखिलाः स्त्वामा (स्वात्मा) नन्दमहाम्बुधिं विदधते नाप्राप्य पूर्णां, स्थितिम्।।इतिएवं य उक्तक्रमेण वेत्ति तस्येन्द्रादिदेवतायागोऽपि परमेश्वरयाग इति।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।9.25।।ते पुण्यमासाद्य [9।20] इतियोगक्षेमं वहाम्यहम् [9।22] इति च फलभेदस्योक्तत्वात्किं यान्तीत्यादिनेत्यत आह -- फलमिति। तस्यैवायं प्रपञ्च इति भावः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।9.25।।देवतान्तरयाजिनामनावृत्तिफलाभावेऽपि तत्तद्देवतायागानुरूपक्षुद्रफलावाप्तिर्ध्रुवेति वदन्भगवद्याजिनां तेभ्यो वैलक्षण्यमाह -- अविधिपूर्वकयाजिनो हि त्रिविधाः अन्तःकरणोपाधिगुणत्रयभेदात्। तत्र सात्त्विका देवव्रताः? देवा वसुरुद्रादित्यादयस्तत्संबन्धिव्रतं बल्युपहारप्रदक्षिणप्रह्वीभावादिरूपं पूजनं येषां ते तानेव देवान्यान्ति।तं यथायथोपासते तदेव भवति इति श्रुतेः। राजसास्तु पितृव्रताः श्राद्धादिक्रियाभिरग्निष्वात्तादीनां पितृ़णामाराधकास्तानेव पितृ़न्यान्ति। तथा तामसा भूतेज्या यक्षरक्षोविनायकमातृगणादीनां भूतानां पूजकास्तान्येव भूतानि यान्ति। अत्र देवपितृभूतशब्दानां तत्संबन्धिलक्षणयोष्ट्रमुखन्यायेन समासः। मध्यमपदलोपीसमासानङ्गीकारात्प्रकृतिविकृतिभावाभावेन च तादर्थ्यचतुर्थीसमासायोगात्। अन्ते च पूजावाचीज्याशब्दप्रयोगात्पूर्वपर्यायद्वयेऽपि व्रतशब्दः पूजापर एव। एवं देवतान्तराराधनस्य तत्तद्देवतारूपत्वमन्तवत्फलमुक्त्वा भगवदाराधनस्य भगवद्रूपत्वमनन्तं फलमाह -- मां भगवन्तं यष्टुं पूजयितुं शीलं येषां ते मद्याजिनः सर्वासु देवतासु भगवद्भावदर्शिनो भगवदाराधनपरायणा मां भगवन्तमेव यान्ति। समानेऽप्यज्ञानात् भगवन्तमन्तर्याणिमनन्तफलदमनाराध्य देवतान्तरमाराध्यान्तवत्फलं यान्तीत्यहो दुर्दैववैभवमज्ञानमित्यभिप्रायः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।9.25।।ननु त्वदंशाज्ञाने यजनकर्त्तारश्च्यवन्ति? येषां तु त्वदंशज्ञानेन तद्देवयजनकर्तृत्वं तेषां किं फलं इत्यत आह -- यान्तीति। देवव्रताः इन्द्रादिषु मदंशज्ञानेन तद्भूपेषु सनियमाः। देवान् तानेव यान्ति प्राप्नुवन्ति। पितृव्रताः श्राद्धादिविधिभिः पितृयाजकाः पितृ़न् यान्ति प्राप्नुवन्ति। भूतेज्याः विनायकदुर्गादिपूजकाः भूतानि तान्येव यान्ति। अत्रायमर्थः -- तत्तद्देवान् प्राप्य तत्सङ्गेन परम्परया मां प्राप्नुवन्ति। मद्याजिनः कर्मादिभिस्तदाधिदैविकरूपं मद्यजनकर्त्तारोऽपि मां प्राप्नुवन्ति। ते परम्परया मां प्राप्नुवन्ति। एते साक्षादिति विशेषः। अपिशब्देन कर्माङ्गत्वेन भजनेऽपि मुक्त्यात्मकस्वप्राप्तिरूपविशेषो व्यञ्जितः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।9.25।। --,यान्ति गच्छन्ति देवव्रताः देवेषु व्रतं नियमो भक्तिश्च येषां ते देवव्रताः देवान् यान्ति। पितृ़न् अग्निष्वात्तादीन् यान्ति पितृव्रताः श्राद्धादिक्रियापराः पितृभक्ताः। भूतानि विनायकमातृगणचतुर्भगिन्यादीनि यान्ति भूतेज्याः भूतानां पूजकाः। यान्ति मद्याजिनः मद्यजनशीलाः वैष्णवाः मामेव यान्ति। समाने अपि आयासे मामेव न भजन्ते अज्ञानात्? तेन ते अल्पफलभाजः भवन्ति इत्यर्थः।।न केवलं मद्भक्तानाम् अनावृत्तिलक्षणम् अनन्तफलम्? सुखाराधनश्च अहम्। कथम् --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।9.25।।तथाहि यान्ति देवव्रता इति। व्रतः सङ्कल्पः मानसं कर्मेति यावत्? स एव भावपदवाच्यः। दर्शपौर्णमासादिभिः कर्मभिरिन्द्रादीन् देवान् यजाम इति कृतसङ्कल्पाः देवान् यान्ति तत्तत्सायुज्यं गच्छन्ति। एवं सङ्कल्पः सर्वत्र। पितृव्रता राजसभावाः। भूतेज्यास्तामसभाववन्तः भूतानि यक्षरक्षःपिशाचादिकाः। तैरेव यज्ञैः ये देवपितृभूताधिष्ठानकं परमात्मानं श्रीवासुदेवं यजाम इति सङ्कल्पेन विशुद्धसत्त्वभावा निर्गुणभावाश्च मां यजन्ते ते मत्सायुज्यं गच्छन्तीत्यर्थः।