यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9.27।।
yat karoṣhi yad aśhnāsi yaj juhoṣhi dadāsi yat yat tapasyasi kaunteya tat kuruṣhva mad-arpaṇam
Whatever you do, whatever you eat, whatever you offer in sacrifice, whatever you give, whatever austerity you practice, O Arjuna, do it as an offering to Me.
9.27 यत् whatever? करोषि thou doest? यत् whatever? अश्नासि thou eatest? यत् whatever? जुहोषि thou offerest in sacrifice? ददासि thou givest? यत् whatever? यत् whatever? तपस्यसि thou practisest as austerity? कौन्तेय O Kaunteya? तत् that? कुरुष्व do? मदर्पणम् offering unto Me.Commentary Consecrate all acts to the Lord. Then you will be freed from the bondage of Karma. You will have freedom in action. He who tries to live in the spirit of this verse will be able to do selfsurrender unto the Lord. Gradually he ascends the spiritual path step by step. His greedy nature is slowly dissolved now. He always gives. He is not eager to take. His whole life with all its actions? thoughts and feelings? is dedicated to the service of the Lord eventually. He lives for the Lord only. He works for the Lord only. There is not a bit of egoism now. His whole nature is transformed into divinity. When actions are dedicated to the Lord? there is no rirth for you. This is the simplest method of Yoga. Do not waste your time any longer. Take it up from today.All actions? all results and all rewards will go to the Lord. There is no separte living for the individual. Just as the river joins the sea abandoning its own name and form so also the individual soul joins the Supreme Soul giving up his own name and form? his own egoistic desires and egoism. The individual will has become one with the cosmic will.Whatever thou doest of thy own sweet will? whatever thou offerest in sacrifice as enjoined in the scriptures? whatever thou givest -- such things as gold? rice? ghee? clothes? etc.? to the Brahmins and others -- whatever austerity such as the ChandrayanaVrata (to destroy sin)? control of the senses? etc.? thou doest? do thou all these as an offering unto Me. (Cf.V.32XII.6and8)Now listen to what you will gain by doing thus.
।।9.27।। व्याख्या--भगवान्का यह नियम है कि जो जैसे मेरी शरण लेते हैं, मैं वैसे ही उनको आश्रय देता हूँ (गीता 4। 11)। जो भक्त अपनी वस्तु मेरे अर्पण करता है, मैं उसे अपनी वस्तु देता हूँ। भक्त तो सीमित ही वस्तु देता है, पर मैं अनन्त गुणा करके देता हूँ। परन्तु जो अपने-आपको ही मुझे दे देता है, मैं अपनेआपको उसे दे देता हूँ। वास्तवमें मैंने अपने-आपको संसारमात्रको दे रखा है (गीता 9। 4), और सबको सब कुछ करनेकी स्वतन्त्रता दे रखी है। अगर मनुष्य मेरी दी हुई स्वतन्त्रताको मेरे अर्पण कर देता है, तो मैं भी अपनी स्वतन्त्रताको उसके अर्पण कर देता हूँ अर्थात् मैं उसके अधीन हो जाता हूँ। इसलिये यहाँ भगवान् उस स्वतन्त्रताको अपने अर्पण करनेके लिये अर्जुनसे कहते हैं।]
।।9.27।। जीवन में सब प्रकार के कर्म करते हुए हम ईश्वरापर्ण की भावना से रह सकते हैं। सम्पूर्ण गीता में असंख्य बार इस पर बल दिया गया है कि केवल शारीरिक कर्म की अपेक्षा ईश्वरार्पण की भावना सर्वाधिक महत्व की है और यह एक ऐसा तथ्य हैं ? जिसका प्राय साधकांे को विस्मरण हो जाता है।शरीर? मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले विषय ग्रहण और उनके प्रति हमारी प्रतिक्रिया रूप जितने भी कर्म हैं? उन सबको भक्तिपूर्वक मुझे अर्पण करे। यह मात्र मानने की बात नहीं हैं और न ही कोई अतिश्योक्ति हैं यह भी नहीं कि इसका पालन करना मनुष्य के लिए किसी प्रकार से बहुत कठिन हो। एक ही आत्मा ईश्वर? गुरु और भक्त में और सर्वत्र रम रहा है हम अपने व्यावहारिक जीवन में असंख्य नाम और रूपों के साथ व्यवहार करते हैं। हम जानते है कि इन सबको धारण करने के लिए आत्मसत्ता की आवश्यकता है। यदि हम अपने समस्त व्यवहार में इस आत्मतत्व का स्मरण रख सकें तो वह जगत् के अधिष्ठान का ही स्मरण होगा। यदि किसी वस्त्र की दुकान्ा में विभिन्न रूप? रंग? बुनावट और कीमतों के सूती वस्त्र हों तो दुकानदार को सलाह दी जाती हैं कि उसको सदा इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि वह सूती कपड़ों का व्यापार कर रहा हैं। किसी भी समझदार व्यापारी को यह करना कठिन नहीं हो सकता। वास्तव में देखा जाय तो इस प्रकार का स्मरण रखना उसके लिए अधिक सुरक्षित और लाभदायक है अन्यथा वह कहीं किसी कपडे़ का मूल्य ऊनी वस्त्र के हिसाब से अत्यधिक बता देगा अथवा अपने माल को टाट के बोरे जैसे सस्ते दामों में बेच देगा। यदि किसी स्वर्णकार को यह स्मरण रखने की सलाह दी जाय कि वह सोने पर कार्य कर रहा हैं? तो वह सलाह उसके लाभ के लिए ही हैं।जैसे आभूषणों में स्वर्ण और कपडे में सूत हैं वैसे ही विश्व के सभी नाम और रूपों में आत्मा ही मूल तत्व हैं। जो भक्त अपने जीवन के समस्त व्यवहार में इस दिव्य तत्त्व का स्मरण रख सकता हैं वही पुरुष जीवन को वह आदर और सम्मान दे सकता हैं? जिसके योग्य जीवन हैं। यह नियम है कि जीवन को जो तुम दोगे वही तुम जीवन से पाओगे। तुम हँसोगे तो जीवन हँसेगा और तुम चिढोगे तो जीवन भी चिढेगा उसके पास आत्मज्ञान से उत्पन्न आदर और सम्मान के साथ जाओगे? तो जीवन में तुम्हें भी आदर और सम्मान प्राप्त होगा।समर्पण की भावना से समस्त कर्मों को करने पर न केवल परमात्मा के प्रति हमारा प्रेम बढ़ता है? बल्कि आदर्श प्रयोजन और दिव्य लक्ष्य के कारण हमारा जीवन भी पवित्र बन जाता हैं। गीता में अनन्य भाव और सतत आत्मानुसंधान पर विशेष बल दिया गया है इस श्लोक में हम देख सकते हैं कि एक ऐसे उपाय का वर्णन किया गया है जिसके पालन से अनजाने ही साधक को ईश्वर का अखण्ड स्मरण बना रहेगा। इसके लिए कहीं किसी निर्जन सघन वन में या गुप्त गुफाओं में जाने की आवश्यकता नहीं है इसका पालन तो हम अपने नित्य के कार्य क्षेत्र में ही कर सकते हैं।इस प्रकार समर्पण की भावना का जीवन जीने से क्या लाभ होगा? उसे अब बताते हैं।
।।9.27।।तदाराधनस्य सुकरत्वे तदेवावश्यकमित्याह -- यत इति। स्वतः शास्त्रादृते प्राप्तं गमनादीति यावत्। यदश्नासि यं कंचिद्भोगं भुङ्क्षे। हवनस्य स्वतस्त्वं वारयति श्रौतमिति। मत्समर्पणं तत्सर्वं मह्यं समर्पयेत्यर्थः।
।।9.27।।यतः पत्रादिकमपि मक्त्युपहृतं गृह्णामि अतः सर्वमपि कर्म मय्यार्पितं यथा भवेत्तथा कर्तव्यमिदमेव चातुसुलभं मद्यजनमित्याह। यत्करोषि यद्रागादाचरसि? यच्चाश्रासि? यच्च जुहोशि श्रोतं स्मार्तं वा हवनं संपादयसि? यच्च हिरण्यादि ब्राह्मणादिभ्यो ददासि प्रयच्छसि? यत्तपस्यसि तपश्चरसि? तन्मदर्पणं कुरुष्वेश्वरप्रेरणया तदर्थमेव सर्वं करोमीति बुद्य्धा मयि वासुतेवेऽर्पितं यथा भवति तथा कुरुष्व मत्संबन्धित्वात्तवैतदतिसुलभमिति सूचयन्नाह -- कौन्तेयेति। यद्वा यथा कुन्ती भर्तुराज्ञया भवदादीनिन्द्रादिसङ्गेनोत्पाद्यापि तत्कर्मसंबन्धवर्जिता तथा त्वमप्येवं कुर्वन् कर्मब्धनैर्मोक्ष्यसे इति संबोधनस्य गूढाभिप्रायः।
।।9.27।।अतो यत्करोषि।
।।9.27।।अतः सर्वं मदर्पणं कुर्वित्याह -- यदिति। यत्करोषि गमनादिकं तद्भगवत एव प्रदक्षिणादिकं करोमीति मत्प्रीत्यर्थमेव तदर्पणं कुर्विति। एवं वचनादिष्वपि नामकीर्तनादिदृष्ट्या ऊह्यम्।
।।9.27।।यत् देहयात्रादिशेषभूतं लौकिकं कर्म करोषि? यत् च देहधारणाय अश्नासि? यत् च वैदिकं होमदानतपःप्रभृति नित्यनैमित्तिकं कर्म करोषि? तत् सर्वं मदर्पणं कुरुष्व। अर्प्यत इति अर्पणम्? सर्वस्य लौकिकस्य वैदिकस्य च कर्मणः कर्तृत्वं भोक्तृत्वं आराध्यत्वं च यथा मयि सर्वं समर्पितं भवति तथा कुरु।एतद् उक्तं भवति -- यागदानादिषु आराध्यतया प्रतीयमानानां देवादीनां कर्मकर्तुः भोक्तुः तव च मदीयतया मत्संकल्पायत्तस्वरूपस्थितिप्रवृत्तितया च मयि एव परमशेषिणि परमकर्तरि त्वां च कर्तारं भोक्तारम् आराधकम् आराध्यं च देवताजातम् आराधनं च क्रियाजातं सर्वं समर्पय। तव मन्नियाम्यतापूर्वकमच्छेषतैकरसताम् आराध्यादेः च एतत्स्वभावकगर्भताम् अत्यर्थप्रीतियुक्तः अनुसंधत्स्व इति।
।।9.27।।नच पत्रपुष्पादिकमपि यज्ञार्थं पशुसोमादिद्रव्यवन्मदर्थमेवोद्यमैरापाद्य समर्पणीयम्? किं तर्हि -- यदिति। स्वभावतो वा शास्त्रतो वा यत्किंचित्कर्म करोषि? तथा यदश्नासि यज्जुहोषि? यद्ददासि? यत्तपस्यसि तपः करोषि तत्सर्वं मय्यर्पितं यथा भवत्येवं कुरुष्व।
।।9.27।।उक्तार्थफलितपरतया उत्तरश्लोकस्य सङ्गतिमाह -- यस्मादिति। महात्मनां विशेष उक्तः अथ तत्परिगृहीतं भक्तियोगं वक्तुं तदङ्गभूत बुद्धिविशेषमनुशास्तीत्यभिप्रायेणइत्थं कुर्वित्युक्तम्।यत्करोषि इति श्लोकेन स्वभावार्थशास्त्रप्राप्तसर्वकर्मसमर्पणविषयमन्त्रविशेषोऽपि स्मारितः। इममेव च श्लोकंयत्करोमि इत्युपक्रम्यभगवन् इति सम्बुद्ध्यात्वदर्पणम् इत्युक्तं मन्त्रमेव केचिदनुसन्दधते। तत्रयत्करोषि इत्येतद्गोबलीवर्दन्यायात्संकुचितं स्वभावप्राप्तविषयमित्याहयद्देहेति।अश्नासि इत्येतदर्यप्राप्तवर्गोपलक्षणमित्यभिप्रायेणाहयच्च देहधारणायाश्नासीति।यज्जुहोषि इत्यादेः शास्त्रप्राप्तसमस्तोपलक्षणत्वमुपलक्षणीयसङ्ग्राहकाकारं च दर्शयतियच्च वैदिकमिति। अत्र यच्छब्दाः सर्वे क्रियाविशेषाः। अर्पणशब्दस्य भाववाचित्वे व्यधिकरणबहुव्रीहिक्लेशात्तत्पुरुषत्वौपयिककर्मप्रत्ययान्ततां व्युत्पादयतिअर्प्यत इत्यर्पणमिति।कृत्यल्युटो बहुलम् [अष्टा.3।3।113] इति कर्मणि ल्युट्। मय्यर्पितं कुरुष्वेति शब्दार्थः। अन्यत्र स्थितस्य स्थायिनः ततोऽन्यस्मिन्निवेशनं हि समर्पणम् तच्चात्र क्षणिके कर्मणि कथं इत्यत्राहसर्वस्येति। ननु जीवस्यैव कर्तृत्वं भोक्तृत्वं चकर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् [ब्र.सू.2।3।33] इत्यधिकरणे स्थापितम् इन्द्रादीनां चाराध्यत्वं श्रुतम् तथा च देवताभेदो मीमांसितः अतन्निष्ठस्य तन्निष्ठत्वानुसन्धाने भ्रान्तिरेव स्यात्? तत्कथमीश्वरे तत्समर्पणं इत्यत्राहएतदुक्तमिति।परमकर्तरीति -- परात्तु तच्छ्रुतेः [ब्र.सू.2।3।41] इत्यधिकरणार्थः स्मारितः।कर्तारं भोक्तारमाराधकमिति क्रियायास्तत्फलस्य तत्प्रदातृ़णां चेति शेषः।,परमकर्तृत्वात्कर्तृत्वसमर्पणम् परमशेषित्वादाराध्यत्वादिसमर्पणम्। कर्तृत्वादौ त्वयि समर्पिते साक्षात्कर्तर्याराध्यविशेषणभूतेन्द्रादौ च किमनुसन्धेयं इति शङ्कायां समर्पणं शिक्षयतितवेति। भक्तिप्रकरणात्प्रीतियुक्तत्वोक्तिः।
।।9.27 -- 9.28।।यदपि अन्यत् कर्म? तदपि महेश्वरस्वात्मार्चनरूपं? तस्यैव सर्वत्रोद्देशात् इत्याह -- यत् करोषीति। शुभाशुभेति। देवतान्तरयाजिनो यतो मितमनोरथाः फलं लघयन्ति? अतस्त्वं सर्वं प्रागुक्तोपदेशक्रमेण मदर्पणं मन्मयत्वेन भावन (S omits मन्मयत्वेन भावनम्) कुरु। एष एव च संन्यासयोग इति विस्तीर्णं विस्पष्टप्रायं पुरस्तादेव।
।।9.27।।आत्मनो गोविन्दस्यासाधनानादरस्य पूर्वमेवोक्तत्वाद्व्यर्थमुत्तरमित्यत आह -- अत इति। सामान्यमुक्त्वा विशेषे निगमनमेतदिति भावः।
।।9.27।।कीदृशं ते भजनं तदाह -- यदिति। यत्करोषि शास्त्रादृतेऽपि रागात्प्राप्तं गमनादि। यदश्नासि स्वयं तृप्त्यर्थं कर्मसिद्ध्यर्थं वा। तथा यज्जुहोषि शास्त्रबलान्नित्यमग्निहोत्रादिहोमं निर्वर्तयसि। श्रौतस्मार्तसर्वहोमोपलक्षणमेतत्। तथा यद्ददासि अतिथिब्राह्मणादिभ्योऽन्नहिरण्यादि। तथा यत्तपस्यसि प्रतिसंवत्सरमज्ञातप्रामादिकपापनिवृत्तये चान्द्रायणादि चरसि उच्छृङ्खलप्रवृत्तिनिरासाय शरीरेन्द्रियसंघातं संयमयसीति वा। एतच्च सर्वेषां नित्यनैमित्तिककर्मणामुपलक्षणम्। तेन यत्तव प्राणिस्वभाववशाद्विनापि शास्त्रमवश्यंभावि गमनाशनादि। यच्च शास्त्रवशादवश्यंभावि होमदानादि। हे कौन्तेय? तत्सर्वं लौकिकं वैदिकं च कर्मान्येनैव निमित्तेन क्रियमाणं मदर्पणं मय्यर्पितं यथा स्यात्तथा कुरुष्व। आत्मनेपदेन समर्पकनिष्ठमेव समर्पणफलं नतु मह्यं किंचिदिति दर्शयति। अवश्यंभाविनां कर्मणां मयि परमगुरौ समर्पणमेव मद्भजनं नतु तदर्थं पृथग्व्यापारः कश्चित्कर्तव्य इत्यभिप्रायः।
।।9.27।।यतोऽहं भक्त्युपहृतमङ्गीकरोम्यतः पूर्वकृतानां कुर्वतां च कर्मणां फलभोगरूपप्रतिबन्धनिवृत्त्यर्थं तत्सर्वं मदर्पितं कुर्वित्याह -- यत्करोषीति। यत् लौकिकं वैदिकं करोषि? यदश्नासि भुङ्क्षे? यज्जुहोषि होमं,करोषि? यद्ददासि दानं करोषि? तत्सर्वं मदर्पणं मत्समर्पितं कुरुष्व। देहादिधर्मान् विवाहपुत्रोत्पत्त्यर्थकामादीन् निद्राजागरणमूत्रपुरीषादिकाँस्तानपि भगवत्सेवाद्यर्थप्रतिबन्धाभावार्थविचारेण कुर्यात्? न तु स्वसुखेच्छया। तथा भोजनादिकमपि तत्र प्रसादजपुष्ट्या सेवार्थबलाप्त्यर्थम्। होमश्च तद्वियोगजदुःखास्ये (दुःखमुखे)। दानं च तदीयत्वेन द्रव्यशुद्ध्या भगवद्विनियोगप्रतिबन्धनिवृत्त्यर्थम्। तपश्च भगवतः कारुण्योदयार्थम्। एवमेतत्सर्वं भगवत्समर्पितं भवति।
।।9.27।। --,यत् करोषि स्वतः प्राप्तम्? यत् अश्नासि? यच्च जुहोषि हवनं निर्वर्तयसि श्रौतं स्मार्तं वा? यत् ददासि प्रयच्छसि ब्राह्मणादिभ्यः हिरण्यान्नाज्यादि? यत् तपस्यसि तपः चरसि कौन्तेय? तत् कुरुष्व मदर्पणं मत्समर्पणम्।।एवं कुर्वतः तव यत् भवति? तत् श्रृणु --,
।।9.27।।तस्मात्त्वमपि भगवत्सेवायामुक्तलक्षणयोगभावाराधनरतात्मा मदर्पितमेव लौकिकं? वैदिकं नित्यं नैमित्तिकं कर्म कुरु? ततो निर्बन्धपूर्वकं मत्प्राप्तिरित्याह द्वाभ्याम् -- यत्करोषीति। यदिति लौकिकं धनं वसनादिसञ्चयनं अश्नासि च यदन्नं लौकिकं होमदानतपःप्रभृतिनित्यनैमित्तिकभेदेन वैदिकं च यत्कर्म करोषि तन्मदर्पणं यथा भवति तथा कुरु। ततस्च सर्वदोषनिवृत्तिः।असमर्पितवस्तूनां तस्माद्वर्जनमाचरेत्। निवेदिभिः समर्प्यैव सर्वं कुर्यादिति स्थितिः।।न मतं देवदेवस्य सामिभुक्तसमर्पणम्। तस्मादादौ सर्वकार्ये सर्ववस्तुसमर्पणम्।।दत्तापहरवचनं तथा च सकलं हरे। न ग्राह्यमिति वाक्यं हि भिन्नमार्गपरं मतम्।।सेवकानां यथा लोके व्यवहारः प्रसिद्ध्यति। तथा कार्यं समर्प्यैव सर्वेषां ब्रह्मता ततः।।इति भगवन्मुखोक्तभक्तिमार्गसिद्धान्तः।