BG - 9.30

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।

api chet su-durāchāro bhajate mām ananya-bhāk sādhur eva sa mantavyaḥ samyag vyavasito hi saḥ

  • api - even
  • chet - if
  • su-durāchāraḥ - the vilest sinners
  • bhajate - worship
  • mām - me
  • ananya-bhāk - exclusive devotion
  • sādhuḥ - righteous
  • eva - certainly
  • saḥ - that person
  • mantavyaḥ - is to be considered
  • samyak - properly
  • vyavasitaḥ - resolve
  • hi - certainly
  • saḥ - that person

Translation

Even if the most sinful worships Me, with devotion to no one else, he should indeed be regarded as righteous, for he has rightly resolved.

Commentary

By - Swami Sivananda

9.30 अपि even? चेत् if? सुदुराचारः a very wicked person? भजते worships? माम् Me? अनन्यभाक् with devotion to none else? साधुः righteous? एव verily? सः he? मन्तव्यः should be regarded? सम्यक् rightly? व्यवसितः resolved? हि indeed? सः he.Commentary Even if the most sinful worships Him with undivided heart? he too must indeed be deemed righteous for he has made the holy resolution to give up the evil ways of his life. Rogue Ratnakar became Valmiki by his holy resolution. Jagai and Madhai also became righteous devotees. Mary Magdalene a woman of illfame? became a pious woman. Sin vanishes when thoughts of God arise in the mind. Chandrayana and Kricchra Vratas will remove only certain particular sins but the remembrance of the Lord? thoughts of the Supreme Being? Japa and meditation? and Abheda Brahma Chintana (contemplation of Brahman with a nondualistic or Aham Brahmasmi or I am the Absolute attitute) will destroy the sins committed by a person even in hundred crores of Kalpas or ages.By abandoning the evil ways in his external life and by the force of his internal right resolution? he becomes righteous and attains eternal peace. (Cf.IV.36)

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।9.30।। व्याख्या --[कोई करोड़पति या अरबपति यह बात कह दे कि मेरे पास जो कोई आयेगा, उसको मैं एक लाख रुपये दूँगा, तो उसके इस वचनकी परीक्षा तब होगी, जब उससे सर्वथा ही विरुद्ध चलनेवाला, उसके साथ वैर रखनेवाला, उसका अनिष्ट करनेवाला भी आकर उससे एक लाख रुपये माँगे और वह उसको दे दे। इससे सबको यह विश्वास हो जायगा कि जो यह माँगे, उसको दे देता है। इसी भावको लेकर भगवान् सबसे पहले दुराचारीका नाम लेते हैं।] 'अपि चेत्'-- सातवें अध्यायमें आया है कि जो पापी होते हैं, वे मेरे शरण नहीं होते (7। 15) और यहाँ कहा है कि दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है-- इन दोनों बातोंमें आपसमें विरोध प्रतीत होता है। इस विरोधको दूर करनेके लिये ही यहाँ 'अपि' और 'चेत्' ये दो पद दिये गये हैं। तात्पर्य है कि सातवें अध्यायमें 'दुष्कृती मनुष्य मेरे शरण नहीं होते' ऐसा कहकर उनके स्वभावका वर्णन किया है। परन्तु वे भी किसी कारणसे मेरे भजनमें लगना चाहें तो लग सकते हैं। मेरी तरफसे किसीको कोई मना नहीं है (टिप्पणी प0 521.1); क्योंकि किसी भी प्राणीके प्रति मेरा द्वेष नहीं है। ये भाव प्रकट करनेके लिये ही यहाँ 'अपि' और 'चेत्' पदोंका प्रयोग किया है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।9.30।। जिस विशेष अर्थ में भक्ति शब्द गीता में प्रयुक्त है उसकी यहाँ गौरवमयी प्रशंसा की गई है। भक्ति में प्रत्येक साधक पर होने वाले प्रभाव को दर्शाकर भक्ति का माहात्म्य यहाँ बताया गया है। गीता में वर्णित भक्ति का अर्थ है एकाग्रचित्त से अद्वैत स्वरूप ब्रह्म का आत्मरूप से अर्थात् एकत्वभाव से ध्यान करना। इस भक्ति साधना का अभ्यास दीर्घ काल तक आवश्यक तीव्रता और लगन से करने पर साधक के होने वाले विकास का क्रम यहाँ दर्शाया गया है।साधारणत? लोगों के मन में कुछ ऐसी धारणा बन गई है कि एक दुष्ट पापी या हतोत्साहित अपराधी वह बहिष्कृत व्यक्ति है? जो कदापि स्वर्ग के आंगन में प्रवेश करने का साहस नहीं कर सकता है। भ्रष्ट या अनैतिक पुरुष की ऐसी निन्दा करना वैदिक साहित्य के तात्पर्य और मर्म को विपरीत समझना है। यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। वेद पाप की निन्दा करते हैं? पापी की नहीं। पापी के पापपूर्ण कर्म उसके मन में स्थित अशुभ विचारों की केवल अभिव्यक्ति हैं। अत? यदि उसके विचारों की रचना या दिशा को बदला जा सके? तो उसके व्यवहार में भी निश्चित रूप से परिवर्तन होगा। जो व्यक्ति? समृद्ध होती हुई भक्ति के वातावरण में? अपने मन में सतत्ा ईश्वर को बनाये रखने में सफल हो गया है? उसके मानसिक जीवन का पुनर्वास इस प्रकार सम्पन्न होता है कि तत्पश्चात् वह पुन पापाचरण में प्रवृत्त नहीं हो सकता।यदि अतिशय दुराचारी भी मुझे भजता है गीता न केवल पापियों के लिए अपने द्वार खुले रखती है? वरन् ऐसा प्रतीत होता है कि इस दिव्य गान के गायक भगवान् श्रीकृष्ण एक धर्मप्रचारक के उत्साह के साथ समस्त पापियों को मुक्त करके उन्हें सुखी बनाना चाहते हैं। केवल जीवन की अशुद्धता और हीन कर्मों के कारण पापकर्मियों का आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश निषेध नहीं किया गया है। आग्रह केवल इस बात का है कि उस भक्त को अनन्य भाव से आत्मा की पूजा और चिन्तन करना चाहिए। यहाँ अनन्य शब्द का अर्थ साधक के मन से तथा ध्येय के स्वरूप से भी सम्बन्धित है। इसका समग्र अर्थ यह होगा कि भक्ति का निर्दिष्ट फल तभी प्राप्त होगा जब भक्त एकाग्रचित्त से अद्वैत और नित्य स्वरूप परमात्मा का ध्यान आत्मरूप से करेगा। इस अद्वैत आत्मा को भक्त के मूल स्वरूप से भिन्न नहीं समझना चाहिए। यही अनन्यभाव है।वह साधु ही मानने योग्य है भक्ति साधना को ग्रहण करने के पूर्व तक कोई व्यक्ति कितना ही दुष्ट और क्रूर क्यों न रहा हो? या उसका जीवन कितना ही अनियन्त्रित कामुकतापूर्ण क्यों न हो? जिस क्षण वह भक्तिपूर्वक आत्मचिन्तन के मार्ग पर प्रथम चरण रखता है? उसी क्षण से वह साधु ही मानने योग्य है? यह भगवान् श्रीकृष्ण का कथन है। इस प्रकार का पूर्वानुमानित कथन का प्रयोग सभी भाषाओं में किया जाता है। जैसे रोटी बनाना या चाय बनाना। वास्तव में केवल आटा गूँथा जा रहा था? या पानी गरम हो रहा था परन्तु फिर भी निकट भविष्य में क्रियाओं की पूर्णता रोटी बनने या चाय बनने में होती है? इसलिए उक्त प्रकार के वाक्य कहे जाते हैं। इसी प्रकार यहाँ भी जिस क्षण वह पापी पुरुष भक्ति मार्ग का आश्रय लेता है? उसी क्षण से वह साधु कहलाने योग्य हो जाता है? क्योंकि शीघ्र ही वह अपने अवगुणों से मुक्त होकर आध्यात्मिक वैभव के क्षेत्र में विकास और उन्नति को प्राप्त करने वाला होता है। यह पूर्वानुमानित कथन है।ऐसे पुरुष को साधु मानने का कारण यह है कि उसने यथार्थ निश्चय किया है। इस दिव्य जीवन में केवल दिनचर्या की अपेक्षा यथार्थ शुभ निश्चय अधिक महत्त्वपूर्ण है। बहुसंख्यक साधक उदास भाव से चिन्तित हुए अपने मार्ग पर केवल श्रमपूर्वक ऐसे चलते हैं? जैसे भूखे मर रहे पशु कसाईखाने की ओर बढ़ रहे हों ऐसा खिन्न उदास जुलूस कसाई के कुन्दे के अतिरिक्त कहीं और नहीं पहुँच सकता? जहाँ काल उन्हें टुकड़ेटुकड़े कर देता है जो पुरुष स्थिर एवं दृढ़ निश्चयपूर्वक? सजगता और उत्साह? प्रसन्नता और वीरता के साथ इस मार्ग पर अग्रसर होता है? वही निश्चित सफलता के गौरव को प्राप्त करता है। इसलिए? मुरलीमनोहर भगवान् श्रीकृष्ण विशेष बल देकर कहते हैं कि सम्यक् निश्चय कर लेने पर उसी क्षण से अतिशय दुराचारी पुरुष भी साधु ही मानने योग्य है? क्योंकि शीघ्र ही वह सफल ज्ञानी पुरुष बनने वाला है।आपके कथन में हम कैसे विश्वास कर लें इस अनन्यभक्ति का निश्चित प्रभाव क्या होता है इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं --

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।9.30।।प्रकृतां भगवद्भक्तिं स्तुवन्पापीयसामपि तत्राधिकारोऽस्तीति सूचयति -- शृण्विति। सम्यग्वृत्त एव भगवद्भक्तो ज्ञातव्य इत्यत्र हेतुमाह -- सम्यगिति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।9.30।।शृणु मद्भक्तेर्महिमानं दुराचारानपि यया युक्ताननुगृह्णामीत्याह। अपिचेत् यद्यपि सुदुराचारः सुष्ठु अत्यन्तं दुष्ट आचारः आचरणं यस्य स पूर्वं सुदुराचारोऽपि यो मां परमेस्वरं अनन्यभाक् न विद्यतेऽन्यस्मिमन्भक्तिर्यस्य सः भजते सेवते स साधुरेव मन्तव्यः। हि यस्मात्सभ्यग्वयवसितः सम्यक् यथावत् व्यवसायं निश्चयं प्राप्तः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।9.30।।न भवत्येव प्रायस्तद्भक्तः सुदुराचारस्तथापि बहुपुण्येन यदि कथञ्चिद्भवति तर्हि साधुरेव स मन्तव्यः।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।9.30।।भक्तेर्माहात्म्यमाह -- अपिचेदिति। अत्यन्तपापिष्ठोऽपि मां यद्यनन्यचेताः सन् भजते तथापि स साधुरेव मन्तव्यः। हि यतः स सम्यग्व्यवसितः सम्यग्वृत्तः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।9.30।।तत्र अपि तत्र तत्र जातिविशेषे जातानां यः समाचार उपादेयः परिहरणीयः च? तस्माद् अतिवृत्तः अपि उक्तप्रकारेण माम् अनन्यभाक् भजनैकप्रयोजनो भजते चेत् साधुः एव सः वैष्णवाग्रेसर एव मन्तव्यः? बहुमन्तव्यः पूर्वोक्तैः सम इत्यर्थः। कुत एतत् सम्यग् व्यवसितो हि सः? यतः अस्य व्यवसायः सुसमीचीनः।भगवान् निखिलजगदेककारणभूतः परब्रह्मनारायणः चराचरपतिः अस्मत्स्वामी मम गुरुः मम सुहृद् मम परं भोग्यम् इति सर्वैः दुष्प्रापः अयं व्यवसायः तेन कृतः? तत्कार्यं च अनन्यप्रयोजनं निरन्तरभजनं तस्य अस्ति? अतः साधुः एव बहुमन्तव्यः।अस्मिन् व्यवसाये तत्कार्ये च उक्तप्रकारभजने संपन्ने सति तस्य आचारव्यतिक्रमः स्वल्पवैकल्यम् इति न तावता अनादरणीयः? अपि तु बहुमन्तव्य एव इत्यर्थः।ननुनाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः। नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।। (क0 उ0 1।2।24) इत्यादिश्रुतेः आचारव्यतिक्रम उत्तरोत्तरभजनोत्पत्तिप्रवाहं निरुणद्धि इति अत्र आह --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।9.30।। अपिच मद्भक्तेरवितर्क्यः प्रभाव इति दर्शयन्नाह -- अपिचेदिति। अत्यन्तं दुराचारोऽपि यद्यप्यपृथक्त्वेन पृथग्देवता अपि वासुदेव एवेति बुद्ध्या नरो देवतान्तरभक्तिमकुर्वन्मामेव श्रीनारायणं भजते तर्हि साधुः श्रेष्ठ एव स मन्तव्यः। यतोऽसौ सम्यग्व्यवसितः परमेश्वरभजनेनैव कृतार्थो भविष्यामीति शोभनमध्यवसायं कृतवान्।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।9.30।।एवं समाश्रयणस्वीकारे जात्याद्यपकर्षोऽकिञ्चित्कर इत्युक्तम् तत्र चोपरि वृत्तापकर्षोऽप्यकिञ्चित्कर इत्युच्यतेअपि चेत् इति श्लोकेनेत्यभिप्रयेणाहतत्रापीति। ब्राह्मणाद्याचारः शूद्रादेरधर्मः? शूद्राद्याचारश्च ब्राह्मणादेः एवं ब्राह्मणस्य निषिद्धं मधुमांसादिकं शूद्रस्य न निषिध्यते शूद्रस्य निषिद्धं च कपिलाक्षीरादिकं ब्राह्मणस्य प्रशस्तम् अतः स्वजातिनियमाद्यपेक्षया दुराचारत्वं दोष इत्यभिप्रायेणाहतत्र तत्रेति। विहिताकरणं निषिद्धकरणं चेत्युभयमपि दुराचार इति ज्ञापनायउपादेयः परिहरणीयश्चेत्युक्तम्। अत्रचेत् इत्यस्य नैरर्थक्यादिपरिहाराय दुराचारोऽपि भजेत चेदित्यन्वयः प्रदर्शितः।उक्तप्रकारेणेति -- सततकीर्तनादिनेत्यर्थः। प्रकरणविशेषतोऽनन्यभागित्यस्यार्थोभजनैकप्रयोजन इति। तेनैव देवदेवतान्तरभजनप्रसङ्गो दूरनिरस्तः। यथोच्यते -- ब्रह्माणं शितिकण्ठं च याश्चान्या देवताः स्मृताः। प्रतिबुद्धा न सेवन्ते यस्मात्परिमितं फलम् [म.भा.12।341।36] इति। ननुआचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः [म.भा.13।149।137]आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः [वा.स्मृ.6।3]सन्ध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु [द.स्मृ.2।22] इत्यादिषु सत्सु दुराचारस्य केनाकारेण साधुत्वमित्यत्राह -- वैष्णवाग्रेसर इति। अनन्यभजनं वैष्णवाग्रेसरत्वे प्रयोजकम्। ननुसाधवः क्षीणदोषाः स्युः सच्छब्दः साधुवाचकः। तेषामाचरणं यत्तु सदाचारः स उच्यते [वि.पु.3।11।3] इति भगवत्पराशरवचनात् क्षीणपापानां च कृष्णभक्तिस्मरणात्साधुशब्दोऽत्र कथं वैष्णवाग्रेसरपर उक्तः आचारशून्यस्य शिष्टापरिग्रहादसाधुत्वमेवेत्यत्रोत्तरंमन्तव्यः इत्युच्यत इति दर्शयतिबहुमन्तव्य इति। अर्थसिद्धबोद्धव्यतामात्रकथनं निरर्थकम् सम्पूर्वस्य मनिधातोश्च बहुमतिरर्थः उपसर्गार्थाश्च धातुलीना इति भावः। अपरिग्रहे सति खल्वसाधुत्वशङ्का? न तु सोऽस्तीत्याह -- पूर्वोक्तैः सम इति। विष्णुरेव भूत्वा [यजुः2।1।3।16] इत्यादौ साम्येऽप्येवकारः प्रयुज्यत इति भावः। पूर्वोक्तैर्महात्मभिरित्यर्थः।ननु स्वाचारदुराचारयोः पुष्कलविकलोपाययोर्न तावदुपायतः साम्यम् तत एव न फलतोऽपीति शङ्कायांसम्यक् इत्यादिकमवतारयति -- कुत एतदिति।यत इति -- हिर्हेताविति भावः। व्यवसायस्य समीचीनतां प्राधान्यतोऽप्यवसेयविषयविशेषेण विशदयति -- भगवानिति। भगवान्उभयलिङ्गकः।निखिलजगदेककारणभूत इत्यनेन ब्रह्मत्वसाधकं श्रौतं लक्षणमुक्तम् तेन ज्ञात्वाभूतादिमव्ययम् [9।13] इति पूर्वोक्तं च स्मारितम्। सामान्यशब्दस्य विशेषे पर्यवसानंनारायणपरं ब्रह्म [म.ना.9।4तै.ना.6।11] इत्यादितत्त्वनिर्णायकवाक्यं चाभिप्रेत्यपरं ब्रह्म नारायण इत्युक्तम्।चराचरपतिः पतिं विश्वस्यात्मेश्वरम् [तै.ना.6।11] पतिं पतीनाम् [श्वे.उ.6।7] इत्यादि द्रष्टव्यम्। एवं परत्वव्यवसायः? अथ सौलभ्याध्यवसायःअस्मत्स्वामीति। नह्यहं तद्विभूतेर्बहिर्भूतः स्वशेषभूतं मामसौ स्वयमेव लब्धुमुपक्रान्त इति भावः। एवं पदद्वयेन सांसिद्धिकः सम्बन्धो दर्शितः। अत्यन्तमूर्खस्य मम सम्यग्ज्ञानप्रदायी महोपकारकोऽयमित्यभिप्रायेणमम गुरुरित्युक्तम्। अनन्तमहापराधशालिनि मय्यपि शोभनहृदयोऽयमित्यभिप्रायेणमम सुहृदित्युक्तम्। अतिक्षुद्रदुःखमिश्रनश्वरसुखकणसङ्गिनो मे निरतिशयनिर्दोषनित्यसुखसागरं स्वात्मानं प्रकाशितवानित्यभिप्रायेणमम परं भोग्यमित्युक्तम्। गुरुत्वसुहृत्त्वे प्रापकत्वार्थे भोग्यत्वं तु प्राप्यत्वार्थम्।सर्वैर्दुष्प्राप इत्याचारबहुलेष्वपि तादृशो व्यवसायो न दृश्यतेआकरेऽपि शिलाशकलमनुपादेयम् अवकरेऽपि रत्नमादरणीयमिति भावः।बहूनां जन्मनामन्ते [7।19] इति ह्येवंविधो व्यवसाय उक्तः। स्मरन्ति चश्रीपौष्करे -- ये जन्मकोटिभिः सिद्धाःअनेकसंसारचिते चिते पापसमुच्चयेनास्ते क्षीणे जायमानेऽत्र संस्थितिः इति। श्रीशुकं प्रति जनकश्चाहज्ञानं च व्यवसायश्च द्वौ परप्रतिपादकौ। व्यवसायादृते ब्रह्म नासादयति तत्परम् [म.भा.12।326।40] इति। व्यवसायमात्रेण कथं भजमानैः समानत्वं इत्यत्राह -- तत्कार्यं चेति।भजते माम् इत्यत्र व्यवसायोऽन्तर्गतः? व्यवसित इत्यत्राप्यर्थाद्भजनम् अनन्यभजनमूलबहुमन्तव्यत्वहेतुतया हि व्यवसायोऽयमुक्त इति भावः। अविकलानुष्ठायिवद्विकलानुष्ठायी कथं बहुमन्तव्यः इत्यत्राह -- अस्मिंश्चेति। तादृशे पुरुषे स्वल्पवैकल्यनिमित्तोऽनादर एव महापराधः स्यादिति भावः।स्मृतः सम्भाषितो वापि पूजितो वा द्विजोत्तमस च पूज्यो यथा ह्यहम् [गा.पू.219] इत्यादिप्रमाणसूचनाभिप्रायेण निगमयतिअपितु बहुमन्तव्य एवेति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।9.29 -- 9.31।।सम इत्यादि प्रणश्यतीत्यन्तम्। प्रतिजाने इति। युक्तियुक्तोऽयमर्थो भगवत्प्रतिज्ञातत्वात् सुष्ठुतमां दृढो भवति।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।9.30।।अपि चेत् इत्यादिना भक्तेः प्रशंसा क्रियते। तत्र विष्णुभक्तेः सुदुराचारेणैकत्र समावेशप्रतीतौ यथावद्व्याचष्टे -- न भवत्येवेति।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।9.30।।किंच मद्भक्तेरेवायं महिमा यत्समेऽपि वैषम्यमापादयति शृणु तन्महिमानम्। यःकश्चित्सुदुराचारोऽपि चेदजामिलादिरिव अनन्यभाक्सन्मां भजते कुतश्चिद्भाग्योदयात्सेवते स प्रागसाधुरपि साधुरेव मन्तव्यः। हि यस्मात्सम्यग्व्यवसितः साधुनिश्चयवान्सः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।9.30।।ननु ये त्वां भजन्ति तेषु चेत्त्वं तिष्ठसि? कथं तदा ते विषयाद्यभिभूता भवन्ति इत्यत आह -- अपीति। चेत् सुदुराचारोऽपि? अनन्यभाक् मां भजते स साधुरेव मन्तव्यः।अत्रायं भावः -- विषयादिमहापापौघाचरणशीलस्तन्निवृत्तिनिमित्तान्यदेवभजनप्रायश्चित्तादिधर्मानुपायज्ञानेन अन्यभजनरहितस्तत्त्यागाशक्तस्त्यक्तुकामः स्वदैन्याविर्भावेन यो मां भजते स साधुरेव मान्यः। त्वयेति शेषः।अपि चेत् इत्यनेन तादृशाचारस्यानन्यभजनत्वे दुर्लभत्वं ज्ञापितम्। कुतः इत्यत आह -- सम्यग्व्यवसितः स पूर्वोक्तः सम्यगध्यवसायं निश्चयं यतः कृतवान् यन्मम महापातकनिवारकः श्रीकृष्णं विना नान्य इति। हीति निश्चयार्थम्। अत्र सन्देहो नास्तीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।9.30।। --,अपि चेत् यद्यपि सुदुराचारः सुष्ठु दुराचारः अतीव कुत्सिताचारोऽपि भजते माम् अनन्यभाक् अनन्यभक्तिः सन्? साधुरेव सम्यग्वृत्त एव सः मन्तव्यः ज्ञातव्यः सम्यक् यथावत् व्यवसितो हि सः? यस्मात् साधुनिश्चयः सः।।उत्सृज्य च बाह्यां दुराचारताम् अन्तः सम्यग्व्यवसायसामर्थ्यात् --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।9.30।।तत्र भक्तिमत्त्वं नाधिकार(रि)विशेषणं? अन्यत्रापि दर्शनात् इत्यभिप्रायेणअप्रिचेत् इति भगवान् महापतितपावनत्वं च स्वस्य दर्शयति। सुदुराचारः अनाचार्यपि चेन्मां भजते स साधुरेव सर्वैर्मन्तव्यः। महापतितोऽपि चेन्मामनन्यभाक् नान्यदेवं भजते सेवते च। सेवा च तत्प्रवणचेतोरूपामानसी सा परा मता इत्युक्ता? तद्भाववान् सः साधुर्वैष्णवाग्रगण्य एव मन्तव्यः विप्रात् द्विषङ्गुणयुतादरविन्दनाभपादारविन्दविमुखात् श्वपचं वरिष्ठम् इति [7।9।10] भागवतवचनात्। कुत एवं तत्राह -- हि यतः सम्यग्व्यवसितः स माहात्म्यं ज्ञात्वाऽज्ञात्वा वा भगवति चित्तप्रावण्यकरणे निश्चितः (निरतः)।