यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्। असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।10.3।।
yo māmajam anādiṁ cha vetti loka-maheśhvaram asammūḍhaḥ sa martyeṣhu sarva-pāpaiḥ pramuchyate
He who knows Me as unborn and beginningless, as the great Lord of the worlds, he among mortals is undeluded and is liberated from all sins.
10.3 यः who? माम् Me? अजम् unborn? अनादिम् beginningless? च and? वेत्ति knows? लोकमहेश्वरम् the great Lord of the worlds? असम्मूढः undeluded? सः he? मर्त्येषु amongst mortals? सर्वपापैः from all sins? प्रमुच्यते is liberated. Commentary As the Supreme Being is the cause of all the worlds? He is beginningless. As He is the source of the gods and the great sages? there is no source for His existence. As He is beginningless He is unborn. He is the great Lord of all the worlds.Asammudhah Undeluded. He who has realised that his own innermost Self is not different from the Supreme Self is an undeluded person. Through the removal of ignorance the delusion which is of the form of mutual superimposition between the Self and the notSelf is also removed. He is freed from all sins done consciously or unconsciously in the three periods of time.The ignorant man removes his sins through the performance of expiatory acts (Prayaschitta) and enjoyment of the results. But he is not completely freed from all sins because he continues to do sinful actions through the force of evil Samskaras or impressions because he has not eradicated ignorance? the root cause of all sins? and its effect? egoism and superimposition or the feeling of I in the physical body. As he dies? swayed by the forces of evil Samskaras? he engages himself in doing sinful actions in the next birth. But the sage of Selfrealisation is completely liberated from,all sins because ignorance? the root cause of all sins? and its effect? viz.? the mistaken notion that the body is the Self on account of mutual superimposition between the Self and the notSelf? is eradicated in toto along with the Samskaras and all the sins. The Samskaras are burnt completely like roasted seeds. Just as burnt seeds cannot germinate? so also the burnt Samskaras cannot generate further actions or future births.For the following reason also? I am the great Lord of the worlds.
।।10.3।। व्याख्या --'यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्'-- पीछेके श्लोकमें भगवान्के प्रकट होनेको जाननेका विषय नहीं बताया है। इस विषयको तो मनुष्य भी नहीं जानता, पर जितना जाननेसे मनुष्य अपना कल्याण कर ले, उतना तो वह जान ही सकता है। वह जानना अर्थात् मानना यह है कि भगवान् अज अर्थात् जन्मरहित हैं। वे अनादि हैं अर्थात् यह जो काल कहा जाता है, जिसमें आदि-अनादि शब्दोंका प्रयोग होता है, भगवान् उस कालके भी काल हैं। उन कालातीत भगवान्में कालका भी आदि और अन्त हो जाता है। भगवान् सम्पूर्ण लोकोंके महान् ईश्वर हैं अर्थात् स्वर्ग, पृथ्वी और पातालरूप जो त्रिलोकी है तथा उस त्रिलोकीमें जितने प्राणी हैं और उन प्राणियोंपर शासन करनेवाले (अलग-अलग अधिकार-प्राप्त) जितने ईश्वर (मालिक) हैं, उन सब ईश्वरोंके भी महान् ईश्वर भगवान् हैं। इस प्रकार जाननेसे अर्थात् श्रद्धा-विश्वासपूर्वक दृढ़तासे माननेसे मनुष्यको भगवान्के अज, अविनाशी और लोकमहेश्वर होनेमें कभी किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं होता।
।।10.3।। जो मुझे जानता है यह जानना केवल भावना के प्रवाह में अथवा बुद्धि के विचारों से जानना नहीं है? वरन् यह पूर्ण और वास्तविक आत्मानुभूति है? जो आत्मा के साथ घनिष्ठ तादात्म्य के क्षणों में होती है। आत्मा को किसी दृश्य के समान नहीं किन्तु स्वस्वरूप से इस प्रकार जानना है कि वह अजन्मा? अनादि और सर्वलोकमहेश्वर है। जो लोग वेदान्त दर्शन की प्राचीन परम्परा से कुछ परिचित हैं? उनके लिए उपर्युक्त ये तीन विशेषण अत्यन्त सारगर्भित हैं? जबकि उससे अनभिज्ञ लोगों को ये विशेषण निरर्थक ही प्रतीत होंगे। अनात्म जड़ जगत् परिच्छिन्न है? जहाँ कि प्रत्येक वस्तु? प्राणी या अनुभव अनित्य हैं? अर्थात् समस्त वस्तुएं आदि (जन्म) और अन्त (मत्यु) से युक्त हैं।असीम अनन्त परमात्मा का कभी जन्म नहीं हो सकता? क्योंकि जो उत्पन्न हुआ है? वह परिच्छिन्न है और किसी भी परिच्छिन्न वस्तु में अनन्त तत्त्व कभी अपने अनन्त स्वरूप में व्यक्त नहीं हो सकता। स्थाणु (स्तम्भ) में जब भ्रान्ति से पुरुष (या प्रेत) की प्रतीति होती है? तब पुरुष का नाश (अप्रतीति) हो सकता है? क्योंकि वह उत्पन्न हुआ था। परन्तु? वास्तव में यह नहीं कहा जा सकता कि स्थाणु ने प्रेत को जन्म दिया? अथवा स्तम्भ से प्रेत की उत्पत्ति हुई। स्थाणु तो वहाँ पहले भी था? है और रहेगा। आत्मा नित्य सनातन है? इसलिए वह जन्मरहित है। अन्य वस्तुओं का जन्म? स्थिति और नाश इस आत्मा में ही होता है। तरंगे समुद्र से उत्पन्न होती हैं? परन्तु समुद्र स्वयं अजन्मा है। प्रत्येक तरंग का आदि है? मध्य है और अन्त भी। किन्तु उन सबका सारतत्त्व इन समस्त विकारों से सर्वथा मुक्त है और इसलिए? इस श्लोक में आत्मा को अनादि विशेषण दिया गया है।लोकमहेश्वर लोक शब्द का अर्थ जगत् करने से इस संस्कृत शब्द के व्यापक आशय की उपेक्षा हो जाती है। लोक शब्द जिस धातु से बनता है उसका अर्थ है देखना? अनुभव करना। अत इसका सम्पूर्ण अर्थ होगा अनुभव का क्षेत्र। हमारे दैनिक जीवन में भी इसी अर्थ में लोक शब्द का प्रयोग किया जाता है? जैसे धनवानों का लोक? अपराधियों का लोक? विद्यार्थी लोक? कवियों का लोक आदि। इसलिए? उसके व्यापक अर्थ में लोक शब्द से मात्र भौतिक जगत् ही नहीं? बल्कि भावनाओं एवं विचारों के जगत् का भी बोध होता है।इस प्रकार? मेरा लोक वह है? जो मैं अपने शरीर? मन और बुद्धि के द्वारा अनुभव करता हूँ। यह तो स्पष्ट है कि जब तक मुझे इनका निरन्तर भान नहीं होता तब तक ये अनुभव मेरे नहीं हो सकते। यह चैतन्य तत्त्व? जिसके कारण ही मैं जीता हूँ और जगत् का अनुभव करता हूँ? वास्तव में मेरे लोक का ईश्वर होना ही चाहिए।जो मेरे व्यष्टि के विषय में सत्य है? वही जगत् के समस्त प्राणियों के विषय में भी सत्य है? क्योंकि आत्मा सर्वत्र एक ही है। इस समष्टि लोक का शासक? महान् ईश्वर स्वयं परमात्मा ही हो सकता है। यह लोक महेश्वर शब्द का वास्तविक अर्थ है। ईश्वर कोई निरंकुश एवं क्रूर शासक अथवा आकाश में बैठा कोई सुल्तान नहीं। आत्मा हमारे लोक का ईश्वर ऐसे ही है? जैसे? दिन के समय सूर्य इस बाह्य जगत् का स्वामी है? क्योंकि वही जगत् को प्रकाशित करता है।जो मुझे अजन्मा? अनादि और लोक महेश्वर के रूप में जानता है? वह संमोहरहित हो जाता है। स्थाणु में प्रेत देखकर भयभीत व्यक्ति जैसे ही उस स्थाणु को पहचानता है? वैसे ही वह मोह और भ्रान्ति से मुक्त हो जाता है। हिन्दू धर्म में पाप की कल्पना किसी विकराल अवश्यंभाविता का भयंकर चित्र नहीं है। मनुष्य अपने पापों के लिए दण्डित नहीं? वरन् अपने पापों के द्वारा ही दण्डित होता है। पाप वह स्वअपमानजनक कर्म है? जिसका कारण है मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का अज्ञान।जब कोई व्यक्ति अपने शुद्ध आत्मस्वरूप से भटक कर दूर चला जाता है? तब वह जगत् की घटनाओं के साथ तादात्म्य कर सुखदुख का अनुभव करता है। वह जगत् में इस प्रकार व्यवहार करता है? मानो वह एक घृणित मांसपिण्ड ही है? अथवा स्पन्दनशील भावनाओं की गठरी अथवा विचारों का समूह मात्र है। उसका यह व्यवहार अपनी एकमेव अद्वितीय ईश्वरीय? दिव्य प्रतिष्ठा का अपमान ही है। ऐसे कर्म और विचार मनुष्य को निम्न स्तर के भोगों में आसक्त कर बाँध देते हैं? जिसके कारण वह उनसे ऊपर उठकर वास्तविक पूर्णत्व के शिखर तक कभी नहीं पहुँच पाता।आत्मस्वरूप को पहचान कर उसमें दृढ़ निष्ठा प्राप्त कर लेने पर वह व्यक्ति पुन कभी पापकर्म में प्रवृत्त नहीं होता। पापवृत्तियाँ वे विषैले फोड़े हैं? जिनके कारण हम अपनी परिच्छिन्नताओं की पीड़ा और बंधनों के दुख सहते रहते हैं। जिस क्षण हम अपने आत्मस्वरूप को पहचानते हैं कि वह अजन्मा और अनादि है तथा उसका विकारी और विनाशी उपाधियों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है? उस समय हम वह सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं जो जीवन में प्राप्तव्य है? और वह सब कुछ जान लेते हैं जो ज्ञातव्य है। ऐसा सम्यक् तत्त्वदर्शी पुरुष स्वयं ही लोकमहेश्वर बन जाता है।निम्न कारण से भी आत्मा लोकमहेश्वर है --
।।10.3।।इतश्च कश्चिदेव भगवत्प्रभावं वेत्तीत्याह -- किञ्चेति। कोऽसौ प्रभावो भगवतो यं बहवो न विदुरित्यपेक्षायां पारमार्थिकं प्रभावं तद्धीफलं च कथयति -- यो मामिति। पदद्वयापौनरुक्त्यमाह -- अनादित्वमिति।
।।10.3।।अजत्वेन सर्वभूतमहेश्वरत्वेन च मज्ज्ञानं केषांचिदसंमूढानां सुरादीनां भवति तु एतावानीश्वर प्रभावः इदं परमेश्वरस्य जन्मेत्यतस्तावज्ज्ञानेन केवलं सर्वपापैः प्रमुच्यन्ते नतु प्रभववर्णने शक्ता भवन्तीत्यतः स्वप्रभवमहमेव वक्ष्यामीत्यभिप्रायेणाह -- य इति। यो मानीश्वरं सर्वकारणं कारणवर्जितमतएवाजमुत्पत्तिरहितं लोकानां महान्तमीश्वरं निरति शयैस्वर्यवन्तं वेत्ति परमात्मानादित्वेनाजः सर्वलोकमहेश्वर इति यो जानाति स मर्त्येषु असंमूढः। संमोहो नाम देहेन्द्रियादिविलक्षण ईश्वरादिभिन्नोऽकर्ताऽभोक्ता चाहमिति स्वस्वरुपास्फुरणं तेन मत्कृपया रहितः सर्वैः ज्ञाताज्ञातै संचितक्रियमाणैः प्रकर्षेणाविद्यानिवृत्तिपूर्वकमुच्यते।
।।10.3।।अनश्चेष्टयिता आदिश्च सर्वस्येत्यनादिः। अजत्वेन सिद्धेरितरस्य।
।।10.3।।कस्तर्हि त्वां वेत्तीत्यत आह -- य इति। योऽसंमूढः स मां वेत्ति। स एव सर्वपापैः प्रमुच्यत इति संबन्धः। जडाजडयोर्बुद्ध्यात्मनोरेकीभावेनान्योन्याध्यासलक्षणेन मूढः संमूढस्तद्विपरीतोऽसंमूढस्तत्त्वज्ञानेन बाधिताध्यासः स एवात्मवित्त्वादितरस्य जनिमनुभवन् मां प्रत्यगात्मानं लोकमहेश्वरमनादिं आदिः कारणं तच्छून्यमतएवाजमजातं वेत्ति स सर्वैः कृतैः क्रियमाणैर्वा पापैः प्रमुच्यते मर्त्येषु मध्ये।
।।10.3।।न जायते इति अजः? अनेन विकारिद्रव्याद् अचेतनात् तत्संसृष्टात् संसारिचेतनात् च विसजातीयत्वम् उक्तम् संसारिचेतनस्य हि कर्मकृताचित्संसर्गो जन्म।अनादिम् इति अनेन पदेन आदिमतः अजात् मुक्तात्मनः विसजातीयत्वम् उक्तम्। मुक्तात्मनो हि अजत्वम् आदिमत्? तस्य हेयसम्बन्धस्य पूर्ववृत्तत्वात् तदर्हता अस्ति? अतः अनादिम् इति अनेन तदनर्हतया तत्प्रत्यनीकता उच्यतेनिरवद्यम् (श्वे0 उ0 6।19) इत्यादिश्रुत्या च।एवं हेयसम्बन्धप्रत्यनीकस्वरूपतया तदनर्हं मां लोकमहेश्वरं लोकेश्वराणाम् अपि ईश्वरं मर्त्येषु असंमूढो यो वेत्ति इतरसजातीयतया एकीकृत्य मोहः संमोहः तद्रहितोऽसंमूढः स मद्भक्त्युत्पत्तिविरोधिभिः सर्वैः पापैः प्रमुच्यते।एतद् उक्तं भवति -- लोके मनुष्याणां राजा इतरमनुष्यसाजीतयः? केनचित् कर्मणा तदाधिपत्यं प्राप्तः? तथा देवानाम् अधिपतिः अपि? तथा ब्रह्माण्डाधिपतिः अपि इतरसंसारिसजातीयः तस्यापि भावनात्रयान्तर्गतत्वात्यो ब्रह्माणं विदधाति (श्वे0 उ0 6।18) इति श्रुतेः च। तथा अन्ये अपि ये केचन अणिमाद्यैश्वर्यं प्राप्ताः।अयं तु लोकमहेश्वरः -- कार्यकारणावस्थाद् अचेतनाद् बद्धात् मुक्तात् च चेतनाद् ईशितव्यात् सर्वस्मात् निखिलहेयप्रत्यनीकानवधिकातिशयासंख्येयकल्याणैकतानतया नियमनैकस्वस्वभावतया च विसजातीय इति? इतरसजातीयतामोहरहितो यो मां वेत्ति स सर्वैः पापैः प्रमुच्यते इति।एवं स्वस्वभावानुसंधानेन भक्त्युत्पत्तिविरोधिपापनिरसनं विरोधिनिरसनाद् एव अर्थतो भक्त्युत्पत्तिं च प्रतिपाद्य स्वैश्वर्यस्वकल्याणगुणगणप्रपञ्चानुसंधानेन भक्तिवृद्धिप्रकारम् आह --
।।10.3।। एवंभूतात्मज्ञाने फलमाह -- यो मामिति। सर्वकारणत्वादेव न विद्यते आदिः कारणं यस्य तमनादिम्। अतएवाजं जन्मशून्यं लोकानां महेश्वरं च मां यो वेत्ति स मनुष्येष्वसंमूढः संमोहरहतिः सन्सर्वपापैः प्रमुच्यते।
।।10.3।।देवादिभिरप्यवेदनीयत्वकथनस्य वक्ष्यमाणोपयोगं व्यञ्जयन्यो माम् इतिश्लोकाभिप्रेतमाह -- तदेतदिति।यो वेत्ति इत्यनुवादरूपत्वप्रतीतावप्यर्थतः फलानुवादेनोपायविधाने तात्पर्यमित्यभिप्रायेणउपायमाहेत्युक्तम्। अजशब्दस्य व्यवच्छेद्यप्रदर्शनाय व्युत्पत्तिं तावदाहन जायत इत्यज इति। विशेषणसामर्थ्यफलितां तदुचिताद्व्यवच्छेद्याद्व्यावृत्तिमाहअनेनेति।विकारिद्रव्यात्तत्संसृष्टादित्युभाभ्यां व्यवच्छेदयोग्यत्वं दर्शितम्। अजो नित्यः शाश्वतः [कठो.1।2।18] इत्यादिभिर्नित्यस्य जीवस्य कथमचित्संसर्गमात्रेणाजशब्दव्यवच्छेद्यत्वमित्यत्राहसंसारिचेतनस्येति। ईश्वरस्यापि सर्वशरीरतया,तत्तदचित्संसर्गस्य विद्यमानत्वात्तद्व्युदासायकर्मकृतेत्युक्तम्। मुक्तस्यापि स्वरूपानादित्वमस्ति ततः कथं व्यवच्छेद्यत्वमित्यत्राहमुक्तात्मनो ह्यजत्वमादिमदिति। अजत्ववेषेणानादित्वमिह विवक्षितम्। स्वरूपानाद्गित्वविवक्षायां तु पौनरुक्त्यमिति भावः। मुक्तदशायामचित्संसर्गो नास्ति? प्राचीनसंसर्गविवक्षायां बद्धादेर्व्यवच्छेदः स्यात् अतस्तदानीन्तनस्वरूपाद्व्यावृत्तिः कथमुक्ता स्यादित्यत्राह -- तस्येति। सहकारिसन्निधौ कुर्वत्स्वभावत्वं सहकार्यभावप्रयुक्तकार्याभाववत्त्वमपि हि योग्यतेत्यभिप्रायः। कालविशेषावच्छेदरहितनिरवद्यत्वविधायकश्रुत्या च अयमर्थसिद्ध इत्याह -- निरवद्यमिति। अन्वयार्थमाह -- एवमिति। देवैर्महर्षिभिश्च दुर्लभं ज्ञानं मन्दप्रज्ञेषु मर्त्येषु भाग्यवशात्कस्यचिज्जायत इति निर्धारणार्थत्वमुचितम्। उत्तरार्धे च फलनिर्देशेनासम्मूढमर्त्यशब्दयोः समुचितान्वयो नास्ति?यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् [15।19] इति च वक्ष्यमाणच्छायाऽत्र युक्तेत्यभिप्रायेणमर्त्येष्वसम्मूढो यो वेत्तीत्युक्तम्। असम्मूढशब्दार्थं वक्तुमुपसर्गाभिप्रेतमर्थं व्यञ्जयति -- इतरेति।एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः। सोऽविकम्प्येन योगेन युज्यते नात्र संशयः [10।7] इत्यनन्तरमेव वक्ष्यमाणत्वादत्रापि तदुपयुक्तपापविमोक्ष एवाभिप्रेत इत्यभिप्रायेणमद्भक्त्युत्पत्तिविरोधिभिरित्युक्तम्।लोकमहेश्वरे परस्मिन् प्रतिपन्ने चाप्रतिपन्ने च न सम्मोहप्रसङ्गः येन तन्निषेधः स्यात्? कथं च ब्रह्मरुद्रसनकादिषु जीवत्सु परमपुरुषस्यैव लोकमहेश्वरत्वम् कथं वा बद्धमुक्तविलक्षणत्वेऽपि नित्यसूरिवर्गाद्व्यवच्छेदः इत्यादिशङ्कायां सम्मोहोदयतदभावप्रकारौ विवृणोति -- एतदुक्तमिति। तत्तदधिपतीनामपि लोके तत्तत्सजातीयत्वदर्शनादत्रापि सामान्यतोऽवगते शङ्कावकाशः। मनुष्यदेवाधिपतिप्रभृतिवदण्डाधिपतिप्रभृतेरपि कर्मविशेषमूलपरिमितदेशकालविषयभगवत्सङ्कल्पाधीनैश्वर्ययोगितया भगवत एवोत्तरावधिरहितमैश्वर्यम्। लोकमहेश्वरशब्देन सर्वगोचरैश्वर्यस्य विवक्षितत्वादेव नित्यानामपि व्यवच्छदसिद्धिरिति भावः। सजातीयस्य कथमधिकत्वसिद्धिरित्यत्रोक्तंकेनचित्कर्मणेति। कथं ब्रह्माण्डाधिपतेस्तदधीनस्वरूपस्थितिप्रवृत्तिभिरितरसंसारिभिः साजात्यमित्यत्राहतस्यापीति। कर्मभावनाब्रह्मभावनोभयभावनेति भावनात्रयम्। तेषामपि भावनात्रययोगादिकं भगवत्पराशरशौनकादिभिः प्रपञ्चितम् यथा हिरण्यगर्भादीनुपक्रम्यअशुद्धास्ते समस्तास्तु देवाद्याः कर्मयोनयः [वि.पु.6।7।7] इतिआब्रह्मस्तम्बपर्यन्ता जगदन्तर्व्यवस्थिताः। प्राणिनः कर्मजनितसंसारवशवर्तिनः। यतस्ततो न ते ध्याने ध्यानिनामुपकारकाः इति। प्रतिबुद्धैरनुपास्यत्वं भगवदधीनत्वं च पञ्चम एव वेदे सुव्यक्तंब्रह्माणं शितिकण्ठं च याश्चान्या देवताः स्मृताः। प्रतिबुद्धा न सेवन्ते यस्मात्परिमितं फलम् [म.भा.12।341।36]एतौ द्वौ विबुधश्रेष्ठौ प्रसादक्रोधजौ स्मृतौ। तदादर्शितपन्थानौ सृष्टिसंहारकारकौ [म.भा.12।341।19] इत्यादिभिः। भावनात्रयान्वयेन सह हिरण्यगर्भस्य कार्यत्वादिसमुच्चयार्थः चशब्दः। सनकसनत्कुमाररुद्रादिब्रह्मकुमारवर्गमभिप्रेत्याहतथान्येऽपीति।अणिमादीति अणिमा महिमा च तथा लघिमा गरिमा वशित्वमैश्वर्यम्। प्राप्तिः प्राकाम्यं चेत्यष्टैश्वर्याणि योगयुक्तस्य [ ] तानि च कर्माधीनभगवत्सङ्कल्पाधीनान्येव। रौद्रस्याणिमाद्यैश्वर्यस्य क्वचिदकृत्रिमत्वोक्तिरपि जन्मप्रभृतिसिद्धतामाह अन्यथामहादेवः सर्व(यज्ञे)मेधे महात्मा हुत्वाऽऽत्मानं देवदेवो बभूव [म.भा.12।20।12] इत्यादिभिर्विरोधात्। लोकशब्दो लोक्यत इति व्युत्त्पत्त्या सर्वसङ्ग्राहक इत्यभिप्रायेणाहकार्येति।निखिलेत्यादिकं महच्छब्दस्याभिप्रेतविवरणम्नियमनैकस्वभावतयेति ईश्वरशब्दस्य।
।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।
।।10.3।।अजशब्दागतार्थतयाऽनादिशब्दं व्याचष्टे -- अन इति। सर्वस्येत्युभयशेषः। अन्तर्णीतण्यर्थादनतेः पचाद्यच्। न विद्यते आदिकारणमस्येत्यनादिरिति अन्ये? तदसत् आर्थिकपुनरुक्तेरपरिहारादित्याह -- अजत्वेनेति। इतरस्य कारणराहित्यस्य। अजत्वे हेतुरयमुच्यत इति चेत्? मेवम् तज्ज्ञापकविभक्त्याद्यभावात्। गत्यन्तराभावे हि गमनिकैषा। चेष्ट कत्वं प्रागनुक्तं कथमनूद्यते इति चेत्? न प्रभावे सर्वस्यान्तर्भावात्।
।।10.3।।महाफलत्वाच्च कश्चिदेव भगवतः प्रभावं वेत्तीत्याह -- सर्वकारणत्वान्न विद्यते आदिः कारणं यस्य तमनादिं अनादित्वादजं जन्मशून्यं लोकानां महान्तमीश्वरं च मां यो वेत्ति स मर्त्येषु मनुष्येषु मध्ये असंमूढः सन्मोहवर्जितः सर्वैः पापैर्मतिपूर्वकृतैरपि प्रमुच्यते प्रकर्षेण कारणोच्छेदात्तत्संस्काराभावरूपेण मुच्यते मुक्तो भवति।
।।10.3।।एवं स्वकृपां विना स्वाज्ञानात् देवानां देवत्वमपि जातं व्यर्थमेवेत्युक्त्वा स्वकृपया ज्ञानेन मनुष्याणामप्युत्तमत्वं भवतीत्याह -- यो मामजमिति। यो मां मनुष्येषु च अजं जन्मादिदोषरहितम्? अनादिं लीलादिभिर्नित्यमेवम्भूतमेव लोकमहेश्वरं लोकानां परमेश्वरं कर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थम्? असम्मूढः प्रमादरहितः सन् जानाति स सर्वपापैः मद्भक्तिप्रतिबन्धरूपैः प्रमुच्यते प्रकर्षेण मुच्यतेः मनुष्यभावरहितो देवरूपो भवतीत्यर्थः।
।।10.3।। --,यः माम् अजम् अनादिं च? यस्मात् अहम् आदिः देवानां महर्षीणां च? न मम अन्यः आदिः विद्यते अतः अहम् अजः अनादिश्च अनादित्वम् अजत्वे हेतुः? तं माम् अजम् अनादिं च यः वेत्ति विजानाति लोकमहेश्वरं लोकानां महान्तम् ईश्वरं तुरीयम् अज्ञानतत्कार्यवर्जितम् असंमूढः संमोहवर्जितः सः मर्त्येषु मनुष्येषु? सर्वपापैः सर्वैः पापैः मतिपूर्वामतिपूर्वकृतैः प्रमुच्यते प्रमोक्ष्यते।।इतश्चाहं महेश्वरो लोकानाम् --,
।।10.3।।अत एव मन्त्रद्रष्टृभिरप्यनुलभ्यमानप्रभवत्वादहमज एव श्रौतानुभवगम्यः? अन्यत्तु गुणप्रकृतिवियदादि जायते एवमतः तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः [तै.उ.2।1] इत्यादिश्रुतेः। तत्संसृष्टा जीवाश्च हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् [ऋक्सं.8।7।3।1यजुस्सं.23।1] इत्यादिश्रुतेः। अनादिरप्यहमेव मुक्तात्मा अजो भवामि। यद्यपि नचाऽनादिरित्येतदर्थमुक्तमनादिरिति अन्यथा एकार्थवाचकत्वे पृथङ्निरूपणं न कृतं स्यात्। अतएवाधस्ताज्जाता गुणसंसृष्टाः सर्वे ये लोकास्तेषां 2महाश्वरोनियन्ताऽहं इत्येवम्भूतं मां मर्त्येष्वसम्मूढा यो वेत्ति मर्त्येषु स्वेच्छया 2सर्वे रर्थे2 विजातीयविलक्षणं वेत्ति स सर्वपापैः संसारहेतुभूतैः भक्त्युत्पात्ताविरोधिभिः प्रमुच्यत इति तथा ज्ञान तवास्तु इति भावः।