BG - 10.16

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः। याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।10.16।।

vaktum arhasyaśheṣheṇa divyā hyātma-vibhūtayaḥ yābhir vibhūtibhir lokān imāṁs tvaṁ vyāpya tiṣhṭhasi

  • vaktum - to describe
  • arhasi - please do
  • aśheṣheṇa - completely
  • divyāḥ - divine
  • hi - indeed
  • ātma - your own
  • vibhūtayaḥ - opulences
  • yābhiḥ - by which
  • vibhūtibhiḥ - opulences
  • lokān - all worlds
  • imān - these
  • tvam - you
  • vyāpya - pervade
  • tiṣhṭhasi - reside
  • -

Translation

You should indeed tell, without reserve, of your divine glories by which you exist, pervading all these worlds. (No one else can do so.)

Commentary

By - Swami Sivananda

10.16 वक्तुम् to tell? अर्हसि (Thou) shouldst? अशेषेण without reminder? दिव्याः divine? हि indeed? आत्मविभूतयः Thy glories? याभिः by which? विभूतिभिः by glories? लोकान् worlds? इमान् these? त्वम् Thou? व्याप्य having pervaded? तिष्ठसि existest.No Commentary.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।10.16।। व्याख्या--'याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि' -- भगवान्ने पहले (सातवें श्लोकमें) यह बात कही थी कि जो मनुष्य मेरी विभूतियोंको और योगको तत्त्वसे जानता है, उसका मेरेमें अटल भक्तियोग हो जाता है। उसे सुननेपर अर्जुनके मनमें आया कि भगवान्में दृढ़ भक्ति होनेका यह बहुत सुगम और श्रेष्ठ उपाय है; क्योंकि भगवान्की विभूतियोंको और योगको तत्त्वसे जाननेपर मनुष्यका मन भगवान्की तरफ स्वाभाविक ही खिंच जाता है और भगवान्में उसकी स्वाभाविक ही भक्ति जाग्रत् हो जाती है। अर्जुन अपना कल्याण चाहते हैं और कल्याणके लिये उनको भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ उपाय दीखती है। इसलिये अर्जुन कहते हैं कि जिन विभूतियोंसे आप सम्पूर्ण लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं, उन अलौकिक, विलक्षण विभूतियोंका विस्तारपूर्वक सम्पूर्णतासे वर्णन कीजिये। कारण कि उनको कहनेमें आप ही समर्थ हैं; आपके सिवाय उन विभूतियोंको और कोई नहीं कह सकता।'वक्तुमर्हस्यशेषेण' -- आपने पहले (सातवें, नवें और यहाँ दसवें अध्यायके आरम्भमें) अपनी विभूतियाँ बतायीं और उनको जाननेका फल दृढ़ भक्तियोग होना बताया। अतः मैं भी आपकी सब विभूतियोंको जान जाऊँ और मेरा भी आपमें दृढ़ भक्तियोग हो जाय, इसलिये आप अपनी विभूतियोंको पूरी-की-पूरी कह दें, बाकी कुछ न रखें।'दिव्या ह्यात्मविभूतयः' -- विभूतियोंको दिव्य कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जो कुछ विशेषता दीखती है वह मूलमें दिव्य परमात्माकी ही है, संसारकी नहीं। अतः संसारकी विशेषता देखना भोग है और परमात्माकी विशेषता देखना विभूति है, योग है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।10.16।। राजपुत्र अर्जुन को इस बात का निश्चय हो गया है कि भगवान् ही विश्व के अधिष्ठान हैं? जिनके बिना विश्व का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। परन्तु जब वह अपने उपलब्ध और परिचित प्रमाणों इन्द्रियों? मन और बुद्धि के द्वारा बाह्य जगत् को देखता है? तब उसे केवल विषयों? भावनाओं और विचारों का ही अनुभव होता है जिन्हें किसी भी दृष्टि से दिव्य नहीं कहा जा सकता।जब किसी उत्सव के अवसर पर किसी इमारत पर विद्युत् की दीपसज्जा की जाती है? तब वहाँ विविध रंगों के तथा विभिन्न विद्युत् क्षमताओं के बल्बों से प्रकाश फूटकर निकल पड़ता प्रतीत होता है। परन्तु जब हमें बताया जाता है कि एक ही विद्युत् इन सबमें व्यक्त होकर इन्हें धारण कर रही है? तो कोई अनपढ़ अज्ञानी पुरुष? स्वाभाविक ही? प्रत्येक बल्ब में व्यक्त हुई विद्युत् को देखने की इच्छा प्रकट करेगा विराट् ईश्वर के रूप में भगवान् ही इस नामरूपमय संसार की समष्टि सृष्टि (विभूति) और व्यष्टि सृष्टि (योग) बने हुए हैं। यद्यपि श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय के द्वारा इसे अनुभव किया जा सकता है? परन्तु बुद्धि के तीक्ष्ण होने पर भी उसके द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। इसलिए? स्वाभाविक ही? अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से उन विभूतियों का वर्णन करने का अनुरोध करता है? जिनके द्वारा वे इस जगत् को व्याप्त करके स्थित हैं। कर्मशील होने के कारण अर्जुन अत्यन्त व्यावहारिक बुद्धि का पुरुष था इसलिए वह और अधिक पर्याप्त तथ्यों को एकत्र करना चाहता था? जिन पर वह विचार करके और उनका वर्गीकरण करके उन्हें समझ सके।क्या अर्जुन की यह केवल बौद्धिक जिज्ञासा ही है? जिसके कारण वह ऐसा प्रश्न करता है वह स्वयं स्पष्ट करते हुए कहता है

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।10.16।।यस्मादस्मादृशामगोचरस्तवात्मा जिज्ञासितश्च। तस्मात्त्वयैव तद्रूपं वक्तव्यमित्याह -- वक्तुमिति। दिव्यत्वमप्राकृतत्वम्। संप्रत्यन्वयमन्वाचष्टे -- आत्मन इति। वक्तव्या विभूतीर्विशिनष्टि -- याभिरिति। यद्द्वारा लोकान्पूरयित्वा वर्तसे ता विभूतीरशेषेण वक्तुमर्हसीत्यर्थः।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।10.16।।अतोऽप्राकृता हि आत्मनो विभूतयः माहात्म्यविस्ताराः यास्ताः वक्तुमर्हसि। याभिर्विभूतिस्त्वमिमाँल्लोकान्वाप्य तिष्ठसि।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।10.16।।विभूतयो विविधभूतयः।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।10.16।।एवं स्तुत्वात्मनो बुभुत्सितमाह -- वक्तुमिति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।10.16।।दिव्याः त्वदसाधारण्यो विभूतयो याः ताः त्वम् एव अशेषण वक्तुम् अर्हसि त्वम् एव व्यञ्जय इत्यर्थः। याभिः अनन्ताभिः विभूतिभिः यैः नियमनविशेषैः युक्त इमान् लोकान् त्वं नियन्तृत्वेन व्याप्य तिष्ठसि।किमर्थं तत्प्रकाशनम् इति अपेक्षायाम् आह --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।10.16।।यस्मात्तवाभिव्यक्तिं त्वमेव वेत्सि न देवादयस्तस्माद्वक्तुमर्हसीति या आत्मनस्तव दिव्या अत्यद्भुता विभूतयस्ताः सर्वा वक्तुं त्वमेवार्हसि योग्यो भवसि। याभिरिति विभूतीनां विशेषणं स्पष्टार्थम्।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।10.16।।आत्मशब्दोऽन्यविभूतित्वव्युदासार्थ इत्याह -- त्वदसाधारण्य इति।विभूतयः इति प्रथमान्तत्वेनवक्तुमर्हसि इत्यनेन अन्वयायोगात् -- विभूतयो या इति यच्छब्दाध्याहारः। यतो दिव्याः? अतोऽवश्यवक्तव्याः अतस्ता वक्तुमर्हसीति वाक्यावृत्तिज्ञापनार्थः।अर्हसि इति योग्यत्वनिर्देशेन तत्प्रार्थनं विवक्षितम्। ईश्वरेणाप्यशेषेण वक्तुं अर्जुनेन च श्रोतुमशक्यत्वाद्वचनतः प्रसादतश्च प्रकाशमात्रमिह प्रार्थ्यतेन हि ते भगवन् व्यक्तिम् [10।14] इति हि पूर्वमुक्तमित्यभिप्रायेणाहत्वमेव व्यञ्जयेत्यर्थ इति। बहुवचनासङ्कोचात्अशेषेण इति निर्देशाच्च आनन्त्यमिह विवक्षितम्।नास्त्यन्तो विस्तरस्य [10।19] इत्याद्युत्तरवशाच्चेत्यभिप्रायेण -- अनन्ताभिरित्युक्तम्। विपूर्वो भवतिः भावप्रत्ययान्तो नियमनवाचीत्युक्तम्। नचात्रार्थान्तरं घटते? नियन्तव्यसामानाधिकरण्याद्यभावादित्यभिप्रायेणयैर्नियमनविशेषैरित्युक्तम्। प्रभूतनियमनविषये कौतुकातिरेकद्योतनाय विशेषशब्दः। तृतीयाया इह करणाद्यर्थत्वायोगादित्थम्भूतलक्षणार्थत्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणयुक्त इत्युक्तम्। अत्र विभूतिशब्दस्य नियन्तव्यपरत्वेऽश्वत्थादीनां न लोकव्याप्तिकारणत्वं? नच तद्विशिष्टस्य? तैः सह वा तदितरव्याप्तिः नच व्याप्तौ नियन्तव्यानामित्थम्भूतलक्षणत्वं? नैरर्थक्यात् नियमनविशेषाणां तु श्रुत्यनुसारादाकाशादिव्याप्तिव्यवच्छेदार्थत्वाच्च तदुपपत्तिरित्यभिप्रायेणाह -- नियन्तृत्वेन व्याप्येति। अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानाम् [यजु.सं.3।10] अन्तरो यमयति [बृ.उ.3।7।323शत.14।5।30] अन्तर्याम्यमृतः [बृ.उ.3।7।323] इत्यादिभिः श्रूयते।व्याप्य तिष्ठसि इत्यनेन व्याप्य नारायणः स्थितः [म.ना.9।5] इति श्रुतिः स्मारिता।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।10.16।।No commentary.

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।10.16।।विभूतय ऐश्वर्याणि पृष्टानि नानारूपाणि वक्ष्यन्ते। किं केन सङ्गतं इत्यत आह -- विभूतय इति। विविधभूतयो नानाभूतानि रूपाणि।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।10.16।।यस्मादन्येषां सर्वेषां ज्ञातुमशक्या अवश्यं ज्ञातव्याश्च तव विभूतयः? तस्मात् -- याभिर्विभूतिभिरिमान्सर्वांल्लोकान्व्याप्य त्वं तिष्ठसि तास्तवासाधारणा विभूतयो दिव्या असर्वज्ञैर्ज्ञातुमशक्या हि यस्मात्तस्मात्सर्वज्ञस्त्वमेव ता अशेषेण वक्तुमर्हसि।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।10.16।।एवं सम्बोध्य जगत्पतित्वेन स्वस्यापि पतित्वं सम्पाद्येदानीं स्वीयत्वेनानुग्रहं कुरु यथाऽहं पूर्वोक्तं त्वत्स्वरूपं ज्ञात्वा प्रपन्नो भवामीत्याह -- वक्तुमर्हसीति। दिव्याः क्रीडारूपाः? आत्मविभूतयः स्वविभूतयः कार्यार्थं स्वयमेवांशरूपाः? अशेषेण वक्तुं त्वमेवार्हसि योग्योऽसि। योग्यत्वोक्त्या विभूतिज्ञानमपि नान्यस्य? यत्र तत्र साक्षात् त्वदज्ञाने किं वाच्यमिति व्यञ्जितम्। यतस्त्वमेव योग्योऽस्यतः कृपया वदेति भावः। याभिर्विभूतिभिः इमान् लोकान् व्याप्य स्वीयत्वेनाङ्गीकृत्य तिष्ठसि ता वक्तुमर्हसीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।10.16।। --,वक्तुं कथयितुम् अर्हसि अशेषेण। दिव्याः हि आत्मविभूतयः। आत्मनो विभूतयो याः ताः वक्तुम् अर्हसि। याभिः विभूतिभिः आत्मनो माहात्म्यविस्तरैः इमान् लोकान् त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।10.16।।यतो देवादयो न विदुस्तस्माद्वक्तुमर्हसि अशेषेणेति। या दिव्यास्तवासाधारण्यो विभूतयः ता अशेषेण वद। याभिः स्वांशभवनरूपैर्नियमनविशेषैर्गुणभूतैस्तदात्मभूतैश्चेमाँल्लोकांस्त्रीन् व्याप्य तिष्ठसि।