अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।10.20।।
aham ātmā guḍākeśha sarva-bhūtāśhaya-sthitaḥ aham ādiśh cha madhyaṁ cha bhūtānām anta eva cha
I am the Self, O Gudakesa, seated in the hearts of all beings; I am the beginning, the middle, and the end of all beings.
10.20 अहम् I? आत्मा the Self? गुडाकेश O Gudakesa? सर्वभूताशयस्थितः seated in the hearts of all beings? अहम् I? आदिः the beginning? च and? मध्यम् the middle? च and? भूतानाम् of (all) beings? अन्तः the end? एव even? च and.Commentary O Gudakesa I am the soul (Pratyagatma) which exists in the hearts of all beings and I am also the source or origin? the middle or stay? and the end of all created beings. I am the birth? the life and the death of all beings. Meditate on Me as the innermost Self.Gudakesa means either coneror of sleep or thickhaired.He who is able to meditate on the Self with Abheda Bhavana (attitude of nonduality)? is a alified aspirant (Adhikari) of the first class. He who is not able to meditate on the Self should think of the Lord in those things which are mentioned below. This type of meditation is for the aspirants of the middle class.
।।10.20।। व्याख्या--[भगवान्का चिन्तन दो तरहसे होता है-- (1) साधक अपना जो इष्ट मानता है, उसके सिवाय दूसरा कोई भी चिन्तन न हो। कभी हो भी जाय तो मनको वहाँसे हटाकर अपने इष्टदेवके चिन्तनमें ही लगा दे; और (2) मनमें सांसारिक विशेषताको लेकर चिन्तन हो, तो उस विशेषताको भगवान्की ही विशेषता समझे। इस दूसरे चिन्तनके लिये ही यहाँ विभूतियोंका वर्णन है। तात्पर्य है कि किसी विशेषतोको लेकर जहा-कहीं वृत्ति जाय, वहाँ भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये, उस वस्तु-व्यक्तिका नहीं। इसीके लिये भगवान् विभूतियोंका वर्णन कर रहे हैं।] 'अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च (टिप्पणी प0 555)'-- यहाँ भगवान्ने अपनी सम्पूर्ण विभूतियोंका सार कहा है कि सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। यह नियम है कि जो वस्तु उत्पत्ति-विनाशशील होती है, उसके आरम्भ और अन्तमें जो तत्त्व रहता है, वही तत्त्व उसके मध्यमें भी रहता है (चाहे दीखे या न दीखे) अर्थात् जो वस्तु जिस तत्त्वसे उत्पन्न होती है और जिसमें लीन होती है, उस वस्तुके आदि, मध्य और अन्तमें (सब समयमें) वही तत्त्व रहता है। जैसे, सोनेसे बने गहने पहले सोनारूप होते हैं और अन्तमें (गहनोंके सोनेमें लीन होनेपर) सोनारूप ही रहते हैं तथा बीचमें भी सोनारूप ही रहते हैं। केवल नाम, आकृति, उपयोग, माप, तौल आदि अलग-अलग होते हैं; और इनके अलगअलग होते हुए भी गहने सोना ही रहते हैं। ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी आदिमें भी परमात्मस्वरूप थे और अन्तमें लीन होनेपर भी परमात्मस्वरूप रहेंगे तथा मध्यमें नाम, रूप, आकृति, क्रिया, स्वभाव आदि अलग-अलग होनेपर भी तत्त्वतः परमात्मस्वरूप ही हैं -- यह बतानेके लिये ही यहाँ भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य और अन्तमें कहा है।भगवान्ने विभूतियोंके इस प्रकरणमें आदि, मध्य और अन्तमें -- तीन जगह साररूपसे अपनी विभूतियोंका वर्णन किया है। पहले इस बीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ बीचके बत्तीसवें श्लोकमें कहा कि सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ;' और अन्तके उनतालीसवें श्लोकमें कहा कि 'सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है, वह मैं ही हूँ क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है। चिन्तन करनेके लिये यही विभूतियोंका सार है। तात्पर्य यह है कि किसी विशेषता आदिको लेकर जो विभूतियाँ कही गयी हैं, उन विभूतियोंके अतिरिक्त भी जो कुछ दिखायी दे, वह भी भगवान्की ही विभूति है -- यह बतानेके लिये भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें विद्यमान कहा है। तत्त्वसे सब कुछ परमात्मा ही है -- 'वासुदेवः सर्वम्'-- इस लक्ष्यको बतानेके लिये ही विभूतियाँ कही गयी हैं। इस बीसवें श्लोकमें भगवान्ने प्राणियोंमें जो आत्मा है, जीवोंका जो स्वरूप है, उसको अपनी विभूति बताया है। फिर बत्तीसवें श्लोकमें भगवान्ने सृष्टिरूपसे अपनी विभूति बतायी कि जो जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम सृष्टि है, उसके आदिमें 'मैं एक ही बहुत रूपोंमें हो जाऊँ' ('बहु स्यां प्रजायेयेति' छान्दोग्य0 6। 2। 3) --ऐसा संकल्प करता हूँ और अन्तमें मैं ही शेष रहता हूँ--'शिष्यते शेषसंज्ञः' (श्रीमद्भा0 10। 3। 25)। अतः बीचमें भी सब कुछ मैं ही हूँ -- 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता 7। 19) 'सदसच्चाहमर्जुन' (गीता 9। 19 ); क्योंकि जो तत्त्व आदि और अन्तमें होता है, वही तत्त्व बीचमें होता है। अन्तमें उन्तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने बीज-(कारण-) रूपसे अपनी विभूति बतायी कि मैं ही सबका बीज हूँ, मेरे बिना कोई भी प्राणी नहीं है। इस प्रकार इन तीन जगह--तीन श्लोकोंमें मुख्य विभूतियाँ बतायी गयी हैं और अन्य श्लोकोंमें जो समुदायमें मुख्य हैं, जिनका समुदायपर आधिपत्य है, जिनमें कोई विशेषता है, उनको लेकर विभूतियाँ बतायी गयी हैं। परन्तु साधकको चाहिये कि वह इन विभूतियोंकी महत्ता, विशेषता, सुन्दरता, आधिपत्य आदिकी तरफ खयाल न करे, प्रत्युत ये सब विभूतियाँ भगवान्से ही प्रकट होती हैं, इनमें जो महत्ता आदि है, वह केवल भगवान्की है; ये विभूतियाँ भगवत्स्वरूप ही हैं-- इस तरफ खयाल रखे। कारण कि अर्जुनका प्रश्न भगवान्के चिन्तनके विषयमें है (10। 17), किसी वस्तु, व्यक्तिके चिन्तनके विषयमें नहीं।
।।10.20।। भूतमात्र के हृदय में स्थित आत्मा मैं ही हूँ इस सामान्य कथन के साथ श्रीकृष्ण इस प्रकरण का प्रारम्भ करते हैं। वैज्ञानिक विचारपद्धति से शोधकार्य करने का एक सुप्रशिक्षित प्राध्यापक? अनुसंधान के अपने प्रिय विषय की चर्चा का प्रारम्भ एक संक्षिप्त व सारपूर्ण कथन के साथ करता है। तत्पश्चात् वह उस विषय का विस्तार से विचार करके युक्तियुक्त विवेचन के द्वारा अन्त में उसी प्रारम्भिक कथन के निष्कर्ष पर पहुँचता है। यहाँ पर भी हम देखेंगे कि इस अध्याय की समाप्ति पर भगवान् इसी विचार को और अधिक प्रभावशाली ढंग से दोहराते हैं कि मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ।इस श्लोक की पहली पंक्ति में भगवान् अपनी सर्वात्मकता दर्शाते हैं और दूसरी पंक्ति में इसी भाव को प्रकारान्तर से बताते हैं कि मैं समस्त भूतों का आदि? मध्य और अन्त हूँ। वस्तुत बाह्य चराचर जगत् मन की प्रक्षेपित सृष्टि है दूसरे शब्दों में बाह्य जगत् परिच्छिन्न मन के द्वारा किया गया अनन्त का अन्यथा दर्शन है। यह तथ्य आन्तरिक वैचारिक जगत् से सम्बन्धित भी समझा जा सकता है। प्रत्येक बुद्धिवृत्ति चैतन्य में प्रकट होकर उसी में लीन हो जाती है। चैतन्य के अभाव में वृत्ति की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आगे भी इसी विचार को दोहराया गया है। भगवान् श्रीकृष्ण इस महान् सत्य को दोहराते कभी नहीं थकते हैं।इस चराचर जगत् में रहते हुए ईश्वरोपासना की साधनाओं को या पद्धति को अब बताते हैं।
।।10.20।।विभूतिप्रदर्शने प्रस्तुते सत्यादावेव पारमार्थिकं पारमेश्वरं रूपं दर्शयितुं श्रोतुरर्जुनस्य मनःसमाधानार्थं यतते -- तत्रेति। सोपाधिकमपि काल्पनिकं परस्य रूपं पश्चाद्वक्ष्यमाणं श्रोतुं चित्तसमाधानं कर्तव्यमेवेत्याह -- तावदिति। आशेरतेऽस्मिन्विद्याकर्मपूर्वप्रज्ञा इत्याशयो हृदयं सर्वेषां भूतानां हृदयेऽन्तःस्थितो,यः प्रत्यगात्मा सोऽहमेवेति वाक्यार्थमाह -- सर्वेषामिति। यस्तु मन्दो मध्यमो वा परमात्मानमात्मत्वेन ध्यातुं नालं तं प्रत्याह -- तदशक्तेनेति। वक्ष्यमाणादित्यादिषु परस्य न ध्येयत्वमन्यदेव कारणं किंचित्तत्र तत्र ध्येयमित्याशङ्क्याह -- यस्मादिति। सर्वकारणत्वेन सर्वज्ञत्वेन सर्वेश्वरत्वेन च परस्य ध्येयत्वमत्रेप्सितं नान्यस्य कस्यचित्कारणस्यादित्यादिषु ध्येयतेत्यर्थः।
।।10.20।।योगं विभूतिं च कथयेति त्वया पृष्टं तत्र प्रथमं तावन्मदीयं योगं श्रुणु। अहं वासुदेव आत्मा प्रत्यगात्मा सर्वेषां भूतानामाशयेऽन्तःकरणे स्थितः। एतज्जिताज्ञाननिद्रैरेव ज्ञातव्यमिति द्योतयन् संबोधयति -- हे गुडाकेशेति। एतदशक्तस्याह। अहमादिः कारणं भूतानां मध्यः स्थितिरन्तः प्रलयश्च। तथाच सर्वभूतान्तरात्मत्वेन ध्यातुमशक्तेनोत्पत्त्यादिकर्तृत्वेनाहं ध्येय इत्याशयः।
।।10.20।।संक्षेपेण योगमाह -- अहमिति। हे गुडाकेश हे जितनिद्र घनकेशेति वा। अहं वासुदेव आत्मा अततीत्यात्मा व्यापकः। अतएव सर्वेषां भूतानामाशयः एकीभावस्थानं जलानामिव कासारो जलाशयस्तद्वदहं सर्वभूताशयः। स्थितः अचलः।खर्परे शरि वा विसर्गलोपो वक्तव्यः इति वार्तिकेन पक्षे विसर्गलोपः। भाष्ये तु सर्वेषां भूतानामाशयेऽन्तर्हृदि स्थित इति व्याख्यातम्। सर्वभूताशयत्वादेवाहं आदिर्जन्मकारणम्। मध्यं स्थितिकारणम्। भूतानामन्तः लयस्थानम्। सर्वमिदं ब्रह्माण्डं मय्येवास्तीति भावः।
।।10.20।।सर्वेषां भूतानाम् मम शरीरभूतानाम् आशये हृदये अहम् आत्मतया अवस्थितः। आत्मा हि नाम शरीरस्य सर्वात्मना आधारो नियन्ता शेषी च। तथा वक्ष्यते -- सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च (गीता 15।15)ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशोऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18।61) इति। श्रूयते च -- यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न विदुः। यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतायन्तरो यमयति। एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः (बृ0 उ0 3।7।15) इतिय आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्य आत्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः (श0 प0 14।5।30) इति च।एवं सर्वभूतानाम् आत्मतया अवस्थितः अहं तेषाम् आदिः मध्यं च अन्तः च? तेषाम् उत्पत्तिस्थितिप्रलयहेतुः इत्यर्थः।एवं भगवतः स्वविभूतिभूतेषु सर्वेषु आत्मतया अवस्थानं तत्तच्छब्दसामानाधिकरण्यनिर्देशहेतुं प्रतिपाद्य विभूतिविशेषाम् सामानाधिकरण्येन व्यपदिशति भगवति आत्मतया अवस्थिते हि सर्वे शब्दाः तस्मिन् एव पर्यवस्यन्ति। यथा देवो मनुष्यः पक्षी वृक्ष इत्यादयः शब्दाः शरीराणि प्रतिपादयन्तः तत्तदात्मनि पर्यवस्यन्ति।भगवतः तत्तदात्मतया अवस्थानम् एव तत्तच्छब्दसामानाधिकरण्यनिबन्धनम्? इति विभूत्युपसंहारे वक्ष्यति -- न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्। (गीता 10।39) इति सर्वेषां स्वेन अविनाभाववचनात्। अविनाभावश्चनियाम्यतया इतिमत्तः सर्वं प्रवर्तते (गीता 10।8) इति उपक्रमोदितम्।
।।10.20।।तत्र प्रथममैश्वरं रूपं कथयति -- अहमिति। हे गुडाकेश? सर्वेषां भूतानामाशयेष्वन्तःकरणेषु सर्वज्ञत्वादिगुणैर्नियन्तृत्वेनावस्थितः परमात्माहम्। आदिर्जन्म? मध्यं स्थितिः? अन्तः संहारः? सर्वभूतानां जन्मादिहेतुश्चाहमेवेत्यर्थः।
।।10.20।।विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च [10।18] इति पृष्टमर्थद्वयं विस्तरेण वक्तुं तस्योत्तरद्वयम्अहमात्मा इति श्लोकेन संगृह्योच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- तत्रेति। एतेन प्रागुक्तेषु वक्ष्यमाणेषु च सामानाधिकरण्यनिर्देशेषु यथासम्भवं निमित्तद्वयमुक्तं भवति।आत्मतयाऽवस्थित इति फलितान्वयप्रदर्शनम्। अनेकार्थोऽप्यात्मशब्दः शरीरप्रतिसम्बन्धिनि प्रसिद्धिप्राचुर्यात्प्रतिसम्बन्धिरूपं शरीरमपेक्षते ततश्च वृत्त्यन्तर्गतोऽपि भूतशब्दो बुद्ध्या निष्कृष्यान्वेतव्य इत्यभिप्रायेणसर्वेषां भूतानां मम शरीरभूतानामित्युक्तम्। ईश्वरस्य जीवशरीराणि भूतानि जीवांश्च प्रति कथमात्मत्वं इत्यत्रात्मलक्षणं दर्शयति -- आत्मा हीति। त्रयमप्येकं लक्षणमित्येके। तत्र श्रुत्याद्यनुसारेण जन्मादित्रयस्य ब्रह्मलक्षणत्व इव शङ्कितमात्रव्यवच्छेदार्थतया त्रयाणां साफल्यं भाव्यम्। लक्षणत्रयमिति चान्ये। तत्र त्वेवंविवेकः -- यस्य चैतन्यविशिष्टस्य यद्द्रव्यं सर्वात्मना स्वार्थे नियन्तुं धारयितुं च शक्यम् इत्यादि शरीरलक्षणवाक्यमपि भाव्यम्। शरीरलक्षणान्तराणि च तत्र तत्र विस्तरेण प्रतिक्षिप्तानि। चैतन्यविशिष्टं प्रत्यपृथक्सिद्धविशेषणभूतद्रव्यं शरीरमिति भाष्याभिप्रेतोमऽस्माकं निष्कर्षः। अत्र सर्वभूतशब्देन शरीरमात्रनिर्देशशङ्काव्युदासाय आशयशब्दस्य च हृदयविषयत्वव्यञ्जनायाधारत्वनियन्तृत्वादेरात्मलक्षणत्वसिद्ध्यर्थं चाहतथेति।सर्वस्य चाहम् [15।15] इत्यस्यानन्तरंद्वाविमौ पुरुषौ [15।16] इत्युपक्रम्यक्षरः सर्वाणि भूतानि [15।16] इति वचनात्सर्वभूतशब्दोऽचिद्विशिष्टक्षेत्रज्ञपर इति निश्चीयते तद्वदत्रापि। तथा तस्मिन्नेव प्रकरणेउत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः [15।17] इत्युक्त्वायो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः [15।17] इत्युक्तम्। अत्रबिभर्तीश्वरः इत्याभ्यां आधारत्वनियन्तृत्वे स्पष्टे ईश्वरशब्दरूढ्या च स्वामित्वसिद्धिः न खलु गरुडादिषु भुजङ्गादीन्नियच्छत्सु तदीश्वरशब्दः। ईश्वरशब्दस्याहंशब्दस्य चात्रैकविषयत्वं श्लोकद्वयोपादानेन दर्शितम्। अत्र हि सर्वभूतशब्दो जीवपर एवःभ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया [18।61] इत्यभिधानात्।भ्रामयन् इत्यनेन नियन्तृत्वादिसिद्धिः। हृद्देशस्थित्या चमयि सर्वमिदं प्रोतम् [7।7] इत्याद्युक्तधारकत्वादि सूचितमेव। एवं चिदचिदात्मकसमस्तवस्तुशरीरत्वं सर्वभूतशब्दान्वयेनैव वदन्तीं श्रुतिं दर्शयति -- यः सर्वेषु भूतेष्विति। चिदंशं प्रति शरीरित्वं प्रपञ्चयद्वाक्यमुपादत्तेय आत्मनीति। आत्मत्वेनावस्थानस्योपादानत्वनिमित्तत्वोपयोगात्पूर्वार्धेन सङ्गमयन्नुत्तरार्धं व्याख्याति -- एवमिति। एवमात्मतयाऽवस्थितोऽहमित्यनेन निर्विकारस्य स्वस्यैवोपादानत्वस्थापनम्। देशतः कालतो वा आदिमध्यान्तत्वमात्रमनुचितमिति तदुपचरितमाह -- तेषामुत्पत्तीति। ,
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.20।।तत्र प्रथमं तावन्मुख्यं चिन्तनीयं शृणु -- सर्वभूतानामाशये हृद्देशेऽन्तर्यामिरूपेण प्रत्यगात्मरूपेण च स्थित आत्मा चैतन्यानन्दघनस्त्वयाहं वासुदेव एवेति ध्येयः। हे गुडाकेश जितनिद्रेति ध्यानसामर्थ्यं सूचयति। एवं ध्यानासामर्थ्ये तु वक्ष्यमाणानि ध्यानानि कार्याणि। तत्राप्यादौ ध्येयमाह -- अहमेवादिश्चोत्पत्तिः भूतानां प्राणिनां चेतनत्वेन लोके व्यवह्रियमाणानां? मध्यं च स्थितिः? अन्तश्च नाशः। सर्वचेतनवर्गाणामुत्पत्तिस्थितिनाशरूपेण तत्कारणरूपेण चाहमेव ध्येय इत्यर्थः।
।।10.20।।एवं कथनं प्रतिज्ञाय प्रथमं सर्वत्र स्वयोगमाह -- अहमिति। अतन्द्रितभावेन श्रवणार्थं सम्बोध यति -- हे गुडाकेश सर्वभूतानामाशयेषु अन्तःकरणेषु स्थितः आत्मा अहम्? तेन मदात्मकात्मसम्बन्धेन सर्वेषां जीवानां विषयानन्दमारभ्य ब्रह्मानन्दानुभवान्तानन्दानुभवो भवतीत्यर्थः। त्वयाऽपि तेषु आनन्दानुभवार्थकमदंशात्मकसंयोगात्मकोऽहं चिन्तनीय इति भावः। एतच्चिन्तनं च माहात्म्यज्ञानायोपयोक्ष्यतीति भावः। ननु त्वदात्मसंयोगे नाशः कथं भवति इत्याकाङ्क्षायामाह -- अहमिति। भूतानामादि उत्पत्तिस्थानं,चाहम्? च पुनः मध्यं स्थितिः। अन्तश्च लयस्थानमहमेव। यतो मदिच्छया मत्क्रीडार्थमुत्पादिताः यावत्क्रीडनं च रक्षिताः? क्रीडोपसंहारेच्छायां च लयं प्रापिता अतो न दोष इति भावः। मयोत्पादितानां मदात्मांशसंयुक्तानामन्यतो नाशेऽन्यलीनत्वे दोषः स्यात्? न तु मयि लीनानाम्। इदमेवैवकारेण द्योतितम्। अत एव निर्दोषभावेन मदंशात्मसंयोगं सर्वेषु चिन्तयेति भावः।
।।10.20।। --,अहम् आत्मा प्रत्यगात्मा गुडाकेश? गुडाका निद्रा तस्याः ईशः गुडाकेशः? जितनिद्रः इत्यर्थः घनकेश इति वा। सर्वभूताशयस्थितः सर्वेषां भूतानाम् आशये अन्तर्हृदि स्थितः अहम् आत्मा प्रत्यगात्मा नित्यं ध्येयः। तदशक्तेन च उत्तरेषु भावेषु चिन्त्यः अहम् यस्मात् अहम् एव आदिः भूतानां कारणं तथा मध्यं च स्थितिः अन्तः प्रलयश्च।।एवं च ध्येयोऽहम् --,
।।10.20।।तत्र प्रथमं योगं लक्षयन्नाह -- अहमिति। गुडाका निद्रा तस्या ईशः नियन्ता भवेति निरालस्यतयैव चिन्तनीयमिति सम्बोधयति। अहं स्वांशभूतस्य प्राकृतस्य सर्वस्यैव प्रथममात्मा। स्वशरीरभूतस्य पृथिव्यादेः सर्वभूतपदवाच्यचेतनस्य चाशये स्थितोऽहमन्तस्तथा सर्वेषामादिश्चेति पूर्वोक्तस्यअहमादिर्हि देवानां [10।2] इत्यस्य प्रपञ्चः। सर्वत्रात्मत्वेनाहं चिन्तनीय इति भावः। अत्रांशांशिनोरभेदाभिप्रायेण तथोक्तिरवसेया।