पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्। झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।10.31।।
pavanaḥ pavatām asmi rāmaḥ śhastra-bhṛitām aham jhaṣhāṇāṁ makaraśh chāsmi srotasām asmi jāhnavī
Among the purifiers, I am the wind; among the warriors, I am Rama; among the fishes, I am the shark; among the streams, I am the Ganga.
10.31 पवनः the wind? पवताम् among purifiers or the speeders? अस्मि (I) am? रामः Rama? शस्त्रभृताम् among wielders of weapons (warriors)? अहम् I? झषाणाम् among fishes? मकरः Makara (shark)? च and? अस्मि (I) am? स्रोतसाम् among streams? अस्मि (I) am? जाह्नवी the Ganga.Commentary The holy river Ganga (spelt Ganges in English) was swallowed by Jahnu when she was being brought down by Bhagiratha from heaven. Hence the name Jahnavi for Ganga.
।।10.31।। व्याख्या--पवनः पवतामस्मि-- वायुसे ही सब चीजें पवित्र होती हैं। वायुसे ही नीरोगता आती है। अतः भगवान्ने पवित्र करनेवालोंमें वायुको अपनी विभूति बताया है।'रामः शस्त्रभृतामहम्'--ऐसे तो राम अवतार हैं, साक्षात् भगवान् हैं, पर जहाँ शस्त्रधारियोंकी गणना होती है, उन सबमें राम श्रेष्ठ हैं। इसलिये भगवान्ने रामको अपनी विभूति बताया है।
।।10.31।। मैं पवित्र कर्त्ताओं में वायु हूँ किसी स्थान की स्वच्छता के लिए सूर्य और वायु के समान प्रभावशाली अन्य कोई स्वास्थयकर और अपूतिक (घाव को सड़ने से रोकने वाली औषधि) साधऩ उपलब्ध नहीं है। यदि यहाँ केवल वायु का ही उल्लेख किया गया है? तो उसका कारण यह है कि महर्षि व्यास जानते थे कि सूर्य की उष्णता में ही वायु की गति हो सकती है। जहाँ सदा वायु बहती है? वहाँ सूर्य का होना भी सिद्ध होता है। किसी गुफा में न सूर्य का प्रकाश होता है और न वायु का स्पन्दन।मैं शस्त्रधारियों में राम हूँ भारत के आदि कवि महर्षि बाल्मीकि ने एक सम्पूर्ण काव्य की छन्दबद्ध रचना के लिए रामायण के नायक मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्री रामचन्द्र का चित्रण किया है। यह चित्रण अत्यन्त विस्तृत एवं विशुद्ध है? जिसमें श्री राम को जीवन के समस्त क्षेत्रों में एक पूर्ण पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। श्रीराम एक पूर्ण एवं आदर्श पुत्र? पति? भ्राता? मित्र? योद्धा? गुरु? शासक और पिता थे। सामान्य जनता के दोषों तथा अत्यन्त उत्तेजना और भ्रम उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में श्रीराम की सार्वपाक्षिक पूर्णता और भी अधिक चमक उठती है। ऐसे सर्वश्रेष्ठ आदर्श पुरुष के हाथ में ही वह योग्यता है? जो उस धनुष को धारण करे? जिसमें से सदैव अमोघ बाणों की ही वर्षा होती है।मैं मत्स्यों में मकर तथा नदियों में जाह्नवी हूँ जह्नु ऋषि की पुत्री जाह्नवी कहलाती है? जो गंगानदी का एक नाम हैं। आख्यायिका यह है कि एक बार जह्नु ऋषि ने सम्पूर्ण गंगा नदी का पान कर उसे सुखा दिया? और तत्पश्चात्? लोककल्याण के लिए उसे अपने कानों के द्वार से बाहर बहा दिया हम पहले भी देख चुके हैं कि गंगा नदी का यह रूप सांकेतिक है। हिन्दू लोग गंगा को अध्यात्म ज्ञान अथवा भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का प्रतीक मानते हैं। अपने गुरु से प्राप्त ऋषियों की ज्ञान सम्पदा को? साधक शिष्य ध्यानाभ्यास के द्वारा आत्मसात् कर लेता है यही नदी का आचमन है। ज्ञान के झरने से पान कर ज्ञानपिपासा को शान्त करना आदि वाक्यों का प्रयोग प्राय सभी भाषाओं में होता है? जिनका मूल संस्कृत भाषा है।आख्यायिका में कहा गया है कि इस नदी का उद्गम ऋषि के कानों से हुआ। वास्तव में? यह अत्यन्त सुन्दर काव्यात्मक कल्पना है? जो कान का संबंध श्रुति से स्थापित करती है। उपनिषद् ही श्रुति हैं? जिसमें गुरु शिष्य के संवाद द्वारा आत्मज्ञान का बोध कराया गया है। भारत में? समयसमय पर आचार्यों का अवतरण होता है? जो अपने युग के सन्दर्भ से प्राचीन ज्ञान की पुर्नव्यवस्था करते हैं परन्तु यह प्रचार कार्य वे तभी प्रारम्भ करते हैं? जब उन्होंने स्वयं वैदिक सत्य का साक्षात् अनुभव कर लिया हो। इस स्वानुभूति के बिना कोई भी श्रेष्ठ आचार्य जगत् में आकर इस प्राचीन सत्य का नवीन भाषा में प्रचार करने का साहस नहीं करेगा।गंगा के अनेक पर्यायवाची नामों में से जाह्नवी का यहाँ उल्लेख उपर्युक्त विशेष अभिप्राय को दर्शाने के लिए ही किया गया है।समुद्री मत्स्यों में मकर सर्वाधिक भयंकर होने के कारण यहाँ भगवान् ने उसे अपनी विभूति कहा है।आगे कहते है
।।10.31।।अहमादिश्चेत्यादावुक्तमेव पुनरिहोच्यते। तथाच न पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याह -- भूतानामिति। सर्गशब्देन सृज्यन्त इति सर्वाणि कार्याणि गृह्यन्ते -- अध्यात्मविद्येति। आत्मन्यन्तःकरणपरिणतिरविद्यानिवर्तिका गृहीता। प्रवदतां संबन्धी वादो वीतरागकथा तत्त्वनिर्णयावसाना। यदा प्रवदतामिति लक्षणया कथाभेदोपादानं तदा निर्धारणे षष्ठीत्याह -- प्रवक्त्रिति।
।।10.31।।No commentary.
।।10.31।।आनन्दरूपत्वात्पूर्णत्वाल्लोकरमणत्वाच्च रामः। आनन्दरूपो निष्परिमाण एष लोकश्चैतस्माद्रमते तेन रामः इति शाण्डिल्यशाखायाम्। रश्च अमश्चेति व्युत्पत्तिः।
।।10.31।।पवतां पावयितृ़णां वेगवतां वा। रामो दाशरथिः। रामादीनां परमेश्वराणामपि विभूतिमध्ये गणनं ध्यानार्थम्। झषाणां मत्स्यादीनां मकरो जातिभेदः। स्रोतसां नदीनाम्।
।।10.31।।पवतां गमनस्वभावानां पवनः अहम्। शस्त्रभृतां रामः अहम्। शस्त्रभृत्त्वम् अत्र विभूतिः? अर्थान्तराभावात्। आदित्यादयः च क्षेत्रज्ञा आत्मत्वेन अवस्थितस्य भगवतः शरीरतया धर्मभूता इति शस्त्रभृत्त्वस्थानीयाः।
।।10.31।। पवन इति। पवतां पावयितृ़णां वेगवतां वा मध्ये वायुरस्मि। शस्त्रभृतां वीराणां रामो दाशरथिः। यद्वा परशुरामः। झषाणां मत्स्यानां मकरो मत्स्यविशेषस्तिमिंगिलः। स्रोतसां प्रवाहोदकानां मध्ये भागीरथी।
।।10.31।।पवताम् इत्यनेन पवनासाधारणक्रिया विवक्षिता चेन्निर्धारणं नोपपद्येतेति तदुपपत्तयेगमनस्वभावानामित्युक्तम्। अजस्रगमनशीलानामित्यर्थः। पवनप्रेरिता एव हि तारकादयोऽप्यजस्रं परिभ्रमन्ति। सोमपवनादिष्विवात्र शोधनान्वयिगमनमिहाविवक्षितम्।रामः शस्त्रभृतामहम् इति परशुरामस्यापि जेता रावणहन्ता रामो विवक्षित इति तदुचितममोघशस्त्रत्वलक्षणमतिशयमाह -- शस्त्रभृत्त्वमत्र विभूतिरिति। पूर्वोत्तरेष्विव राम एव विभूतिः किं न स्यात् इत्यत्राहअर्थान्तराभावादिति। अचिद्विशेषस्य चेतनान्तरस्य वा शस्त्रमृच्छब्दवाच्यस्यात्रासम्भवादित्यर्थः। अर्थान्तराणां मध्ये स्वासाधारणधर्मविशेषनिर्देशे रीतिभङ्गः स्यादित्यत्राहआदित्यादयश्चेति। शस्त्रभृत्त्वस्यान्येषां च भगवन्तं धर्मिणं प्रति धर्मत्वमविशिष्टमित्येकैव रीतिः निर्धारणानिर्धारणभेदवन्मुखभेदमात्रं न दोष इति भावः। तत्रादित्यशब्देनज्योतिषां रविरंशुमान् [10।21] इत्युक्तो रविर्विवक्षितः।आदित्यानामहं विष्णुः [10।21] इत्युक्तस्त्वादित्यो रामतुल्यः। मकरो मत्स्यराजः। स्रोतस्सु जाह्नव्याः विष्णुपदोद्भवत्वसर्वज्ञशिरोधृतत्वत्रैलोक्यप्रवृत्तत्वादिभिरतिशयः।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.31।।रामः शस्त्रभृतामहं इति रामशब्दं व्याख्याति -- आनन्देति। आनन्दरूपत्वात्पूर्णत्वादित्येकोऽर्थः। रमत इति रः।रमु क्रीडायां [धा.पा.1।878] इत्यतो अमन्ताड्ड इति डः। न विद्यते मा प्रमा परिच्छेदोऽस्येत्यमः लोक इत्यपरोऽर्थः। रमतेर्घञ्। अत्र श्रुतिमाह -- आनन्देति। आद्येऽर्थे विग्रहं दर्शयति -- रश्चेति। रश्चासावमश्चेत्यर्थः।
।।10.31।।पवतां पावयितृ़णां वेगवतां वा मध्ये पवनो वायुरहमस्मि। शस्त्रभृतां शस्त्रधारिणां युद्धकुशलानां मध्ये रामो दाशरथिरखिलराक्षसकुलक्षयकरः परमवीरोऽहमस्मि। साक्षात्स्वरूपस्याप्यनेन रूपेण चिन्तनार्थं वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मीतिवदत्र पाठ इति प्रागुक्तम्। झषाणां मत्स्यानां मकरो नाम तज्जातिविशेषः। स्रोतसां वेगेन चलज्जलानां नदीनां मध्ये सर्वनदीश्रेष्ठा जाह्नवी गङ्गाहमस्मि।
।।10.31।।पवतां वेगवतां मध्ये पवनः वायुरस्मि। शस्त्रभृतां रामः दशरथात्मजोऽस्मि। झषाणां मध्ये मकरः मत्स्यजातिविशेषोऽस्मि। स्रोतसां प्रवहज्जलानां मध्ये जाह्नवी गङ्गाऽस्मि।
।।10.31।। --,पवनः वायुः पवतां पावयितृ़णाम् अस्मि। रामः शस्त्रभृताम् अहं शस्त्राणां धारयितृ़णां दाशरथिः रामः अहम्। झषाणां मत्स्यादीनां मकरः नाम जातिविशेषः अहम्। स्रोतसां स्रवन्तीनाम् अस्मि जाह्नवी गङ्गा।।
।।10.31।।पवन इति। त्रिविधगुणवान् भगवदुपयोगितया चिन्तनीयः। शस्त्रभृतां मध्ये रामो नाम्ना जामदग्न्योऽहंरामः शस्त्रभृतां वरः इति सर्वैः स्तुतत्वात्। दाशरथिस्तु न भगवतोंऽशः किन्तु पूर्णपुरुषोत्तम एवांशीति ब्रह्मशुकाचार्यचरणानामाशयः? अतो न विभूतित्वं तस्य युज्यते इति वयं ब्रूमः। झषाणां मध्ये मकरोऽहं बलवत्त्वान्मत्स्यरूपो वा कुण्डलगतत्वनिरूपणाद्वा चिन्तनीयः। गङ्गा भगवत्पदीति चिन्त्या।